न आप कैदी, न ससुराल जेल

लव मैरिज हो या अरेंज्ड, हर लड़की के मन में ससुराल को ले कर थोड़ाबहुत भय जरूर होता है. कई बार तो यह भय चिंता का रूप धारण कर लेता है. मगर समस्या तब आती है जब लड़की के मन में ससुराल वालों की नकारात्मक छवि बनने लगती है. इस स्थिति में बिना किसी आधार के लड़की भावी ससुराल वालों में खामियां ढूंढ़ने लगती है. मैरिज काउंसलर डा. वीरजी शर्मा कहते हैं, ‘‘लड़कियों में ससुराल को ले कर भय एक स्वाभाविक प्रकिया है. मगर कई बार डर इतना अधिक बढ़ जाता है कि लड़की खुद को मनगढंत स्थिति में सोच कर यह तय करने लगती है कि ससुराल वाले इस स्थिति में उस के साथ क्या सुलूक कर सकते हैं. अधिकतर लड़कियां नकारात्मक ही सोचती हैं. इस की 2 वजहें हो सकती हैं. पहली यह कि लड़की ससुराल के सभी सदस्यों के स्वभाव से भलीभांति परिचित हो और दूसरी यह कि वह अपने भावी ससुराल वालों के बारे में कुछ भी न जानती हो.’’

दोनों ही स्थितियों में विभिन्न प्रकार की चिंताएं उसे घेर लेती हैं. ऐसी ही कुछ चिंताओं से निबटने के तरीके पेश हैं:

1. खुद को व्यक्त न कर पाने का डर

जाहिर है, ससुराल में जगह और लोग दोनों ही लड़की के लिए अनजान होते हैं. ऐसे में हर लड़की को ससुराल के किसी भी सदस्य से अपनी ख्वाहिश, तकलीफ और भावना को व्यक्त करने में संकोच होता है. उदाहरण के तौर पर, एक नईनवेली दुलहन की मुंहदिखाई की रस्म की बात की जा सकती है. इस रस्म की कुछ खामियां भी हैं और कुछ लाभ भी. लाभ यह है कि घर की नई सदस्या बन चुकी दुलहन को सभी नए रिश्तेदारों से मिलने का मौका मिलता है, वहीं खामी यह है कि थकीथकाई दुलहन लोगों की भीड़ में खुद को असहज महसूस करती है. अब इस स्थिति में लड़की किस से अपनी तकलीफ बयां करे?

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2. इस रस्म के अलावा भी कई ऐसे मौके

आते हैं जब लड़की अपनी मन की बात को ससुराल वालों के आगे व्यक्त नहीं कर पाती और मायूसी के साथ उन की हां में हां मिला देती है. डा. वीरजी इस बाबत कहते हैं, ‘‘शादी के शुरुआती दिनों में यह दिक्कत हर लड़की को आती है, मगर यह स्थाई नहीं होती. पहली बात की अपनी बात को व्यक्त करना अपराध नहीं है. यदि स्वस्थ तरीके से अपनी बात रखी जाए तो लोग उसे तवज्जो देते हैं. ससुराल वालों के आगे धीरेधीरे खुलने का प्रयास लड़की को खुद करना पड़ता है. इस में उस की कोई सहायता नहीं कर सकता. अब अपनी बात कहे बगैर ही यह मान लिया जाए कि कोई भी इसे नहीं मानेगा, यह बेवकूफी है.’’

3. आजादी छिन जाने का भय

शादी से पूर्व हर लड़की के मन में यह खयाल जरूर आता है कि क्या शादी के बाद भी मायके जैसी आजादी मिल सकेगी? डा. वीरजी कहते हैं, ‘‘शादी नए रिश्तों का बंधन है, बंदिशों का नहीं. नए रिश्तों की नई डिमांड्स होती हैं और उन्हें पूरा करना जरूरी भी है, क्योंकि नए रिश्तों की डोर एकदूसरे को समझने और एकदूसरे की ख्वाहिशों को पूरा करने पर मजबूत होती है. यह जिम्मेदारी केवल लड़कियों पर ही नहीं होती वरन ससुराल वाले भी नई दुलहन की पसंदनापसंद का खयाल रखते हैं. इसलिए खुद को ससुराल में कैदी न समझें.’’

कई बार लड़कियों को इस बात का डर सताता है कि ससुराल में पसंद के कपड़े, खाना, घूमनाफिरना सब पर पाबंदी लगा दी जाएगी. यहां तक कि कुछ करने से पहले सासससुर की अनुमति लेने पड़ेगी. तो बड़ों की अनुमति लेने में हरज क्या है? मायके में भी तो लड़कियां अपने मातापिता से कुछ करने से पूर्व उन का परामर्श लेती हैं और फिर बात सिर्फ लड़कियों की नहीं, बल्कि ज्यादा तजरबे और कम तजरबे की है. जाहिर है सासससुर को बहू से अधिक तजरबा होता है. अपने तजरबे के तहत यदि वे किसी काम को करने से या न करने की बात कहते भी हैं, तो इस में भलाई खुद की है. फिर इस बात का भी ध्यान रखें कि अपने फैसलों में जब बहू ससुराल वालों को शामिल करेगी, तो वे भी हर काम में उस की राय को अहमियत देंगे.

हर घर के कुछ नियम होते हैं उन्हें बंदिशें कहना गलत होगा. नियमों का पालन करने से जीवनशैली अनुशासित होती है. यह नियम घर के हर सदस्य के लिए एक से होते हैं. इसलिए इन्हें व्यक्तिगत तौर पर न लें. इसी तरह ससुराल को जेल समझ कर हर वक्त कैद से छूटने की बात न सोचें, क्योंकि यह सोच कभी भी ससुराल में अपनी जगह बना पाने में बहू को कामयाब नहीं होने देगी.

4. परिवार वालों के दखल की चिंता

‘4 बरतनों का आपस में टकराना’ कहावत गृहस्थ जीवन पर एकदम सटीक बैठती है. परिवार 1 व्यक्ति से नहीं बनता, बल्कि बहुत सारे सदस्य मिल कर एक परिवार बनाते हैं. जिस घर में 4-5 लोग होते हैं, वहां आपसी सलाह से ही हर काम किया जाता है. इसे दखल समझने की भूल न करें. हो सकता है कि कभी आप की सलाह के विपरीत कुछ फैसले लिए जाएं, मगर उस में घर के बाकी सदस्यों की सहमति होगी. इसे परिवार के सदस्यों की दखलंदाजी नहीं कहा जाएगा. जब लड़कियां मायके में होती हैं, तो मातापिता की रोकटोक उन्हें दखल नहीं लगती, क्योंकि उन से भावनात्मक रिश्ता होता. ससुराल वालों से भावनात्मक जुड़ाव में समय लगता है. इसलिए उन की हर बात दखल ही लगती है.

मगर कई बार सच में ससुराल में कुछ लोग नई बहू पर अपनी धाक जमाने के लिए उस के हर काम में अपना दखल देने से पीछे नहीं हटते. ऐसे लोगों से शुरू से ही थोड़ी दूरी बना कर चलना चाहिए. यदि बात सासससुर की है, तो अपने और उन के बीच एक सीमा रेखा खींच लें. उन की जो बातें आसानी से मानी जा सकती हैं उन्हें जरूर मान लें, मगर जो स्वीकार करने योग्य न हों उन्हें सम्मान के साथ स्वीकारने से इनकार कर दें.

5. अनचाही जिम्मेदारियों को निभाने का बोझ

नए रिश्तों के साथ नई जिम्मेदारियां भी निभानी पड़ती हैं, इस बात को स्वीकार कर लें. मगर कुछ रिश्तों को दिल से स्वीकार कर पाने में थोड़ी मुश्किलें भी आती हैं. ऐसे में उन रिश्तों से जुड़ी जिम्मेदारियों को निभाना बोझ लगता है खासतौर पर ननद और जेठानी के साथ खट्टेमीठे रिश्ते की कई कहानियों से लड़कियां पहले ही अवगत होती हैं. रहीसही कसर टीवी धारावाहिकों में सासबहू के झगड़े और घरेलू लड़ाई दिखा पूरी हो जाती है खासतौर पर लड़कियों के दिमाग में ननद, जेठानी और सास की छवि वैंप जैसी बन जाती है.

मगर वास्तव में इन रिश्तों को निभाना उतना जटिल भी नहीं होता. जाहिर है, अपने पति से जुड़ी जिम्मेदारियों को पूरा करने का जो उत्साह लड़कियों में होता है वह ससुराल के अन्य सदस्यों के लिए नहीं होता. मगर नकारात्मक सोच अच्छे को भी बुरा बना सकती है. ननद, जेठानी और सास ससुराल में नई बहू के लिए सब से अधिक मददगार साबित हो सकती हैं. ये रिश्ते नोकझोंक वाले जरूर हैं, मगर इन की गैरमौजूदगी में गृहस्थ जीवन फीका है.

6. जीवनशैली बदल जाने का खौफ

जीवन के हर पड़ाव पर एक नए बदलाव का सामना करना पड़ता है. शादी के बाद महिला और पुरुष दोनों के ही जीवन में बहुत सारे बदलाव आते हैं. मगर लड़कियों को शादी से पूर्व इस का अधिक खौफ होता है. इस की सब से बड़ी वजह पिता का घर छोड़ पति के घर जाना होती है. सभी घर के नियमकायदे अलग होते हैं, रहनसहन का तरीका भी अलग होता है. इन सब के बीच खुद को समयोजित कर पाना हर लड़की के लिए थोड़ा मुश्किल होता है, मगर नामुमकिन नहीं.

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घर में एक दूसरे माहौल से आई नई बहू से तालमेल बैठा पाना ससुराल वालों के लिए भी आसान नहीं होता. अपने घर के वातावरण में बहू को ढालना ससुराल वालों के लिए भी एक चुनौती होती है. मगर दोनों ही पक्ष आपसी समझ से कदम आगे बढ़ाएं तो ये बदलाव अच्छे लगने लगते हैं.

इसी तरह ससुराल और ससुराल वालों से जुड़ी बहुत सी बातें होती हैं, जो विवाह से पूर्व लड़कियों को मन ही मन नकारात्मक सोचने पर मजबूर कर देती हैं. मगर इस सोच के साथ नए रिश्तों की शुरुआत हमेशा बुरे परिणाम ही दिखाती है. इसलिए सकारात्मक सोचें. इस से विपरीत हालात में मसलों को सुलझाने का रास्ता मिलेगा और ससुराल के हर सदस्य के साथ सही तालमेल बैठाना आसान हो जाएगा.

Father’s day Special: जानें हुमा कुरैशी को अपने पिता से क्या सीख मिली

मॉडलिंग से अपने कैरियर की शुरुआत करने वाली अभिनेत्री हुमा कुरैशी दिल्ली की है. हुमा को अभिनय पसंद होने की वजह से उन्होंने दिल्ली में पढाई पूरी कर थिएटर ज्वाइन किया और कई डॉक्युमेंट्री में काम किया. वर्ष 2008 मेंएक फ्रेंड के कहने पर हुमा फिल्म ‘जंक्शन’ की ऑडिशन के लिएमुंबई आई,लेकिन फिल्म नहीं बनी. इसके बाद उन्हें कई विज्ञापनों का कॉन्ट्रैक्ट मिला. एक मोबाइल कंपनी की शूटिंग के दौराननिर्देशक अनुराग कश्यप ने उनके अभिनय की बारीकियों को देखकर फिल्म ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ के लिए साइन किया. उन्होंने इस फिल्म की पार्ट 1 और 2 दोनों में अभिनय किया. फिल्म हिट हुई और हुमा को पीछे मुड़कर देखना नहीं पड़ा. हुमा की कुछ प्रसिद्ध फिल्में ‘एक थी डायन, डी-डे, बदलापुर, डेढ़ इश्कियां, हाई वे, जॉली एल एल बी आदि है. हुमा ने आजतक जितनी भी फिल्मे की है, उनके अभिनय को दर्शकों और आलोचकों ने सराहा है, जिसके फलस्वरूप उन्हें कई पुरस्कार भी मिले है. हिंदी फिल्म के अलावा हुमा ने हॉलीवुड फिल्म ‘आर्मी ऑफ़ द डेड’ भी किया है.

हुमा जितनी साहसी और स्पष्टभाषी दिखती है, रियल लाइफ में बहुत इमोशनल और सादगी भरी है. हुमा की दोस्ती सभी बड़े स्टार और निर्देशक से रहती है. हुमा को केवल एक फिल्म करने की इच्छा थी, लेकिन अब कई फिल्मों और वेब सीरीज उनकी जर्नी में शामिल हो चुकी है. हुमा की वेब सीरीज ‘महारानी’ ओटीटी प्लेटफॉर्म सोनी लाइव पर रिलीज हो चुकी है, जिसमें हुमा ने ‘रानी भारती’ की भूमिका निभाई है, जो बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री लालूप्रसाद यादव की पत्नी राबड़ी देवी से प्रेरित है. इस वेब सीरीज की सफलता पर हुमा ने बात की, पेश है कुछ खास अंश.

सवाल-सफलता को हमेशा ही सेलिब्रेट किया जाता है, लेकिन इस कोविड महामारी में हर व्यक्ति अपने भविष्य को लेकर चिंतित है, आप इस माहौल में सफलता को कैसे सेलिब्रेट करना चाहती है?

सफलता और असफलता को मैं अपने जीवन में अधिक महत्व नहीं देती, क्योंकि सफलता के मूल में मैं वही लड़की हूँ, जो दिल्ली से अभिनय के लिए आई और सफल नहीं थी. मैं कोशिश करती हूँ कि मैं कभी न बदलूँ, जैसा पहली थी, अभी भी वैसी ही रहना चाहती हूँ. वेब सीरीज के सफल होने के पीछे अच्छी टीम, सही कहानी,सही निर्देशक,सही कैमरामैन,सही स्क्रिप्ट राइटर आदि सबकी समय और मेहनत का नतीजा है, जिसके फलस्वरूप कहानी में रियलिटी दिखी, जिसे दर्शक पसंद कर रहे है.

सवाल-इस भूमिका को निभाने में कितनी तैयारियां करनी पड़ी?

इसकी स्क्रिप्ट बहुत अच्छी तरह से लिखी गयी थी, इसलिए इसे पढ़ा, समझा और इसे छोटे-छोटे पार्ट में तैयारी की, क्योंकि ये महिला गांव की है और वहां से वह कभी पटना भी नहीं गयी है. गांव में वह कभी स्कूल नहीं गयी, साइन नहीं की है, काम में हमेशा फंसी रहती है. देखा जाय तो मेरी निजी जिंदगी इस भूमिका से बहुत दूर है. मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती जिसे आप जानते हो,उसे अभिनय में अनभिज्ञ रहने से था. मसलन मुझे हस्ताक्षर करना आता है, लेकिन अभिनय में कोशिश करने पर भी हस्ताक्षर नहीं कर पा रही हूँ. इस दृश्य को करना मेरे लिए बहुत चुनौती थी.

सवाल-क्या राजनीति में आपको आने की इच्छा है?

नहीं, मुझे कभी भी राजनीति पसंद नहीं. मैं दिल्ली की गार्गी कॉलेज में पढ़ती थी, जो लड़कियों की है. उस कॉलेज ने मुझे महिला सशक्तिकरण का सही अर्थ में सिखाया, क्योंकि लड़कियों से दोस्ती करना, उनके व्यवहार को समझना, फिमेल बोन्डिंग को देखना आदि सब महिला कॉलेज में अलग होता है. मुझे बेसिक ह्यूमैनिटी समझ में आती है, पर पॉलिटिक्स नहीं समझ में आती. कॉलेज में मैं ड्रामा सोसाइटी की प्रेसिडेंट थी, लेकिन उसमें कोई चुनाव नहीं होता था. (हंसती हुई) मैं कॉलेज की थोड़ी गुंडी अवश्य थी.

सवाल-कोविड महामारी में फिल्म इंडस्ट्री को बहुत अधिक लॉस हुआ है,थिएटर बंद है,ऐसे में ओटीटी प्लेटफॉर्म अच्छा साबित हो रही है, क्योंकि इस पर वेब सीरीज के साथ-साथ फिल्में भी रिलीज हो रही है, पर ओटीटी पर एक या डेढ़ घंटे की फिल्म को भी दर्शक देखना नहीं चाहते, जबकि वेब सीरीज, लंबी होने पर भी दर्शक उसे देखना पसंद करते है, इस बारें में आपकी सोच क्या है?

ये सही है कि कोरोना ख़त्म होने पर और सारे लोगों को वैक्सीन लगने के बाद ही हॉल खुल सकते है. थिएटर हॉल खुलने में अभी देर है, ऐसे में ओटीटी ही मनोरंजन का एकमात्र माध्यम रह गया है. ये सही है कि दर्शकों को आगे चलकर थिएटर हॉल में लाना मुश्किल होगा, लेकिन जिस तरह से माँ के हाथ का खाना सबको पसंद होता है, लेकिन कभी- कभी परिवार, दोस्तों और बॉय फ्रेंड के साथ, तैयार होकर बाहर जाने में भी अच्छा लगता है. असल में ये सब अलग-अलग अनुभव है, जो लाइफ में होना जरुरी है और लोग इसे एन्जॉय भी करते है. वैसे ही कभी घर पर बैठकर फिल्में देखना या कभी बाहर जाकर फिल्में देखने का अनुभव अलग होता है. दोनों ही अनुभव हमारे जीवन में अहमियत रखते है. मैं भी थिएटर हॉल खुलने का रास्ता देख रही हूँ, बड़े स्क्रीन पर एक बड़ा सा पॉपकॉर्न हाथ में लेकर खाते हुए बहुत सारे लोगों के साथ फिल्म देखने का मज़ा ही कुछ और है.

दो घंटे की फिल्म में कहानी के मुख्य पात्र को ऊपर-ऊपर से दिखाया जाता है. हीरो, हिरोइन दोनों मिले, गाना गाया, प्यार हो गया, मारपीट कुछ ऐसा ही चलता रहता है, लेकिन फिल्म के बाकी चरित्र, रीजन, कल्चर आदि को समझने का समय नहीं होता. सीरीज मजेदार लगने की वजह कहानी की भाषा, सहयोगी पात्र, संस्कृति, कलाकारों के भाव आदि सब दिखाने के लिए समय होता है. मसलन मैंने महारानी वेब सीरीज में वहां की रीतिरिवाज, संस्कृति, दही चिवडा आदि को मैंने नजदीक से देखा और अभिनय किया. असल में ऐसे किसी भी दृश्य से जब दर्शक खुद को जोड़ लेते है, तो उसे वह कहानी अच्छी लगने लगती है.

सवाल-आपने इंडस्ट्री में करीब 10 साल बिता चुकी है और बॉलीवुड, हॉलीवुड और साउथ की  फिल्मों में काम किया है, आप इस जर्नी को कैसे देखती है?

ये सही है कि मैंने एक सपना देखा है और अब वह धीरे-धीरे पूरा हो रहा है. मैंने हमेशा से अभिनेत्री बनना चाहती थी, लेकिन कैसे होगा पता नहीं था. समय के साथ-साथ मैं आगे बढ़ती गयी. मैं चंचल दिल की लड़की हूँ और अपने काम से अधिक संतुष्ट नहीं हूँ. मैं कलाकार के रूप में हर नयी किरदार को एक्स्प्लोर करना चाहती हूँ.

सवाल-क्या ओटीटी की वजह से आपको अधिक मौके मिल रहे है?

अभी तो थिएटर बंद है, ऐसे में ओटीटी ही एकमात्र माध्यम है. आगे मेरी फिल्में भी डिजिटल मिडिया पर रिलीज होंगी, क्योंकि अभी फिल्म बनाया जा सकता है, लेकिन थिएटर न खुलने से वह बेकार हो जाती है. मैंने दो सीरीज ही की है. लैला और महारानी, दोनों को करने में मुझे मज़ा बहुत आया. मुझे ही नहीं सभी कलाकारों को काम मिल रहा है.

सवाल-किसी भी महिला राजनेत्री अगर कम पढ़ीलिखी या अनपढ़ हो, तो उसे पुरुषों के मजाक कापात्र बनना पड़ता है, उनके काम को अधिक तवज्जों नहीं दी जाती,ऐसा आये दिन हर जगह महिलाओं के साथहोता रहता है, इसकी वजह क्या समझती है?

मेरे हिसाब से महिलाएं,चाहे किसी भी क्षेत्र में काम करती हो, पर्दे के सामने या पर्दे के पीछे हो, भेदभाव है, एक ग्लास सीलिंग है, सभी उसे तोड़ने की लगातार कोशिश कर रही है. कई बार ऐसा करने से समाज और दोस्त रोक देते है, तो कई बार महिला खुद अपनी सफलता से डर जाती है. ये एक प्रकार की कंडीशनिंग ही तो है. महिलाओं को ग्रो करने के लिए कहा जाता है, लेकिन एक दायरे के बाद उन्हें रोक दिया जाता है. वजह कुछ भी नहीं होती, लेकिन चल रहा है. वुमन एम्पावरमेंट में पुरुष और महिला में भेदभाव न करना,लड़के और लड़की को समान समझना आदि के बारें में बात की जाती है, लेकिन रिजल्ट कुछ खास नहीं दिखता. हालाँकि पहले से अभी कुछ सुधार हुआ है, लेकिन अभी और अधिक सुधार की जरुरत है. सभी महिलाएं यहाँ अपनी दादीयां, माँ, बहन, पड़ोसन आदि की वजह से ही आगे बढ़े है. मेरी जिंदगी में बहुत सारी औरतों ने मेरा साथ दिया है. महारानी शब्द को भी लोग. चिड में लड़की या महिला कहते है और ये नार्मल बात होती है.

 

सवाल-फादर डे के मौके पर पिता के साथ बिताये कुछ पल को शेयर करे, उनका आपके साथ बोन्डिंग कैसी रही?

मेरे पिता सलीम कुरैशी बहुत ही अच्छे सज्जन है, उन्होंने हमेशा मेहनत कर आगे बढ़ने की सलाह दी है. उन्होंने 4 साल पहले 10 रेस्तरां की श्रृंखला (Saleem’s) दिल्ली में खोला है. उन्होंने अपना व्यवसाय एक छोटे से ढाबे से शुरू किया था,लेकिन उनकी मेहनत और लगन से वह बड़ी हो चुकी है. उनके उस छोटे ढाबे की विश्वसनीय मुगलई पाकशैली सबको हमेशा पसंद आती थी. इन रेस्तरां की मुगलई भोजन आज भी प्रसिद्ध है.मेरी माँअमीना कुरैशी हाउसवाइफ है, लेकिन उन्होंने हमारे हर काम में सहयोग दिया है. मैंने अपनी पिता से कठिन श्रम, पैशन और अपने काम पर फोकस्ड रहने की सीख ली है.

सवाल-आपने दिल्ली में एक टेम्पररी हॉस्पिटल कोविड पेशेंट के लिए खोला है,ताकि कोरोना पेशेंट को सुविधा हो, उसके बारें में बतायें और एक नागरिक होने के नाते देश को क्या सीख मिली?

एक महीने पहले बहुत सारे लोग बीमार पड़ रहे थे और मुझे कईयों के फ़ोन बेड और ऑक्सीजन के लिए आ रहे थे, मैंने फंड इकठ्ठा किया और दिल्ली के तिलक नगर में 100 बेड कोरोना रोगियों के लिए और 70 ऑक्सीजन कंसन्ट्रेटर की व्यवस्था की है. अभी 50 प्रतिशत ही पैसा इकठ्ठा हुआ और कोशिश की जा रही है. इसके अलावा मैं वहां 40 बेड की एक सेटअप बच्चों के लिए करना चाहती हूँ, ताकि तीसरी लहर में बच्चों को सुरक्षित रखा जाय. मेरी समझ से मेडिकल के क्षेत्र में अब इन्वेस्ट करना चाहिए, ताकि जो लोग अस्पताल के बाहर एक बेड और ऑक्सीजन के लिए तड़प रहे थे, वो दृश्य वापस हमें देखने को न मिले.

महामारी जब आती है, तब वह पैसा, अमीरी-गरीबी, ऊँच-नीच आदि कुछ नहीं देखती, ऐसे में देश को अपने लोगों को सुरक्षित रखने के लिए हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर और वैज्ञानिक शिक्षा पर इन्वेस्ट करने की जरुरत है. इसके लिए एक प्लानिंग के द्वारा इन्वेस्ट करना चाहिए. इसके अलावा इस महामारी में अनाथ हुए बच्चों को सही तरह से एस्टाब्लिश करना है, ताकि उनकी शिक्षा और हेल्थ का ध्यान रखा जा सकें.

पतझड़ में वसंत- भाग 3 : सुषमा और राधा के बनते बिगड़ते हालात

लेखिका- मृदुला नरुला

सुषमा अचानक चुप हो गई थी. सिर्फ आंखें बह रही थीं. राधा अपने को न रोक पाई. सहेली ने जो कुछ झेला है, दिल दहला देने वाला है. ठीक कह रही है- यकीन नहीं होता कि ये अपने बच्चे हैं जिन के संस्कारों और अनुशासन की पूरा महल्ला दुहाई देता था. उसी परिवार की एक मां आज बच्चों के दुर्व्यवहार से कितनी दुखी है. राधा जानती थी, रो कर सुषमा का मन हलका हो जाएगा.

‘‘10 मिनट बाद सुषमा ने कहा, अच्छा राधा, यह बता मैं कहां गलत थी?’’

‘‘नहींनहीं, तू कहीं गलत न थी. गलत तो समय की चाल थी. हां, इंडिया आने का तेरा फैसला बिलकुल सही था. बस, यह समझ, तू यहां सुरक्षित है. कई बार भावावेश में हम ऐसे फैसले ले लेते हैं जिन के परिणाम का हमें एहसास नहीं होता. सुषमा, मेरी समझ से महत्त्वाकांक्षी होना अच्छा है. पर स्वाभिमान को मार कर महत्त्वाकांक्षाएं पूरी करना गलत है. सच तो यह है कि तेरे बेटों ने तेरे स्वाभिमान का सौदा किया है, जिसे तू समझ नहीं पाई. जब समझ आई, तो बहुत देर हो चुकी थी.’’

‘‘तू ठीक कहती है राधा,’’ सुषमा खामोश थी.

‘‘वैसे, तेरे बच्चों का भी कोई कुसूर नहीं है. वहां का माहौल ही ऐसा है. हमारे अपने वहां सहूलियतों और पैसों की चमक में रिश्तों की गरिमा को भूल जाते हैं. वे कोई ऐसी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते है जिस में उन की आजादी में बाधा पड़े. देखने में तो यह आया है कि विदेश जा कर बसे बच्चे, मांबाप को अपने पास सिर्फ जरूरत पड़ने पर बुलाते हैं. आ भी गए तो अपने साथ रखना नहीं चाहते हैं. इसीलिए तेरे बच्चों को जब लगा कि मां एक बोझ है तो बेझिझक, ओल्डएज होम का रास्ता दिखा दिया.

‘‘बदलाव यहां भी आया है. बच्चे यहां भी अलग रहना चाहते हैं. फिर भी एक चीज जो यहां है वहां नहीं है, रिश्तों की गरमाहट का एहसास. साथ ही, यहां बच्चों में बूढ़ों के दर्द को महसूस करने और उन की संवेदनाओं को समझने का जज्बा है. यही एहसास उन्हें मांबाप से दूर हो कर भी पास रखता है. तेरे बेटे रिश्तों की गरमाहट की कमी को तब महसूस करेंगे जब इन के बच्चे अपने मांबाप यानी उन को ओल्डएज होम का रास्ता दिखाएंगे. मन मैला मत कर. बच्चों से हमारी ममता की डोर कभी नहीं टूटती. हम उन का बुरा कभी नहीं चाहेंगे. वे जहां भी रहें, खुश रहें. अब आगे की सोच.’’

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‘‘हां, वही सोच रही थी. रवि ने तो मेरी सोच के सारे दरवाजे बंद कर दिए.’’

‘‘जब सारे दरवाजे बंद हो जाते हैं तो एक दरवाजा तो जरूर खुला होता है.’’

‘‘बता, कौन सा दरवाजा खुला है?’’

‘‘राधा का दरवाजा. देख, ध्यान से सुन, मैं यहां अकेली हूं. तू साथ रहेगी, तो मुझे भी हिम्मत बंधी रहेगी. मैं तुझ से सच कह रही हूं.’’

‘‘लेकिन कब तक?’’ सुषमा को राधा का प्रस्ताव कुछ अजीब सा लगा, ‘‘पर तेरे बेटे? वे क्या सोचेंगे?’’

‘‘यह घर मेरा है. मुझे अपने घर में किसी को बुलाने, रखने का पूरा हक है. वे दोनों तो खुश होंगे, कहेंगे, मम्मी, बहुत अच्छा किया जो सुषमा आंटी ने आप के साथ रहने का मन बना लिया है. अब हमें बेफिक्री रहेगी. कम से कम आप दो तो हो. सच तो यह है कि हम दोनों ने जीवन में वसंत को साथसाथ जिया. हर खुशी व तकलीफ में साथ थे. घरपरिवार के हरेक फैसले साथ लेते थे. आज भी हम साथ हैं. बेशक, यह उम्र का पतझड़ है, पर इसे हम वसंत की तरह तो जी सकते हैं. मेरे बेटे कहते हैं, ‘मम्मी, जो इस उम्र में साथ देता है वही सच्चा मित्र है. वे चाहे बच्चे हों, पड़ोसी हों या कोई और हो.’’’

‘‘राधा, तू कितनी खुश है जो ऐसी सोच वाले बच्चे हैं. एक मेरे…’’

‘‘ओह, तू फिर अपनों को कोसने लगी. छोड़ वह सब, आज में जीना सीख.’’

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‘‘पर यह तो सोच, मैं यहां सारा दिन अकेली…’ सुषमा बोली थी.

‘‘नहीं, मेरे पास उस का भी तोड़ है. वह ऊपर की लाइब्रेरी तू संभालेगी.’’

‘‘मैं, इस उम्र में लाइब्रेरियन…’’

‘‘क्यों, मैं भी तो एनजीओ के लिए काम करती हूं. एक बात कहूंगी, यों खाली बैठ कर तू भी रोटी नहीं खाएगी. जानती हूं, पहचानती हूं तुझे और तेरे सम्मान को.’’

‘‘ठीक है, सोचूंगी.’’

दूसरे दिन सुबहसुबह खटरपटर सुन कर राधा ने रजाई से झांका, ‘‘कहां चली मैडम, सुबहसुबह?’’

‘‘लो, खुद ही तो नौकरी दिलाई. अरे, भूल गई? चल लाइब्रेरी तक तो छोड़ कर आ जा. पहला दिन है.’’

दोनों हंस रही थीं.

आज राधा ने कितने दिनों बाद सुषमा को खिलखिलाते देखा था. वही पहली वाली हंसी थी. कहीं मन में किसी ने कहा, खुशी ही तो जीवन की सब से नियामत है. इसे कहते हैं, पतझड़ में वसंत.

यह भी खूब रही एक बार मैं अपनी चाचीजी के साथ उन के पीहर गई. चाचीजी के पैर में पोलियो है, वे वाकर के सहारे से चलती हैं. उम्र 70 साल है. वे बहुत ही दुबलीपतली हैं. उन के पीहर का फ्लैट 5वें तले पर है. कुरसी पर बैठा कर 2 व्यक्ति उन्हें ऊपर चढ़ा देते हैं.

उस दिन हम ज्यों ही टैक्सी से उतरे, सामने झाकावला (बड़ी टोकरी में सामान ले जाने वाला) दिखाई दिया. उन्होंने उस से कहा, ‘‘भैया, इधर आ, सामान ढोएगा.’’

उस के हां कहने पर वे उस में बैठ गईं. झाकावाला उन्हें ऊपर ले गया. वहां पर सभी आश्चर्यचकित देखने लगे. फिर तो सब को बहुत हंसी आई. मैं भी जब इस घटना को याद करती हूं, मुसकराए बिना नहीं रहती.      अमराव बैद मैं अपने 5 साल के बेटे के साथ कुछ सामान खरीदने गई. उसी दुकान पर मेरे बेटे की ही कक्षा का लड़का भी अपने पिता के साथ कुछ खरीद रहा था. दोनों बच्चे आपस में बातें करने लगे. मैं ने अपने बेटे से कहा कि पास की ही दुकान से चौकलेट लेती हूं, आप बात कर के जल्दी आ जाइए.

मैं पास की दुकान पर चली गई. दुकानदार से कुछ टौफियां व 4 बड़ी चौकलेट मांगीं. दुकान पर कुछ मनचले युवक भी खडे़ थे. एक युवक ने कटाक्ष किया, ‘‘क्या बात है? टौफी खुद टौफी खाती है.’’

दूसरे ने कहा, ‘‘तभी तो टौफी जैसी है.’’

मैं ने गुस्से से उन की ओर देखा. दुकानदार ने मुझे पैकेट थमाते हुए कहा,

‘‘70 रुपए.’’

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लड़का फिर बोला, ‘‘मैडम, गुस्सा क्यों दिखाती हैं, आज टौफियां हमारी ओर से ही खाइए.’’

यह कहने के साथ ही उस ने बड़ी शान से सौ रुपए का नोट दुकानदार की ओर उछाल दिया.

इतने में ही मेरा लड़का दौड़ते हुए आया और पूछा, ‘‘मम्मी, चौकलेट ले ली आप ने?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘बेटा, आज चौकलेट इन अंकल ने आप के लिए ली है.’’

बच्चे ने भी बड़े मजे से कहा, ‘‘थैंक्यू अंकल.’’

अब उन लोगों की शक्लें देखने लायक थीं. बचे पैसे दुकानदार मुसकराते हुए उन्हें लौटा रहा था और मैं मुसकराते हुए अपने बेटे के साथ दुकान से निकल रही थी.

चेहरे की रंगत दिनबदिन खत्म होती जा रही है, कोई घरेलू उपाय बताएं?

सवाल-

मेरी उम्र 45 साल है. चेहरे की रंगत दिनबदिन खत्म होती जा रही है. इस के लिए कोई घरेलू उपाय बताएं?

जवाब-

नियमित रूप से करीपत्तों का उपयोग करने से चेहरे की रंगत निखरती है. करीपत्तों को अच्छी तरह धूप में सुखा लें. उस के बाद इन्हें अच्छी तरह मसल लें. जब मसलने के बाद करीपत्तों का पाउडर बन जाता है तब उस में जरूरत के हिसाब से कुछ बूंदें शहद, गुलाबजल और 1 छोटा चम्मच मुलतानी मिट्टी मिला कर फेस पैक बना लें.

अब इस पेस्ट को 20 से 30 मिनट तक चेहरे पर लगा रहने दें. उस के बाद चेहरे को सादे पानी से धो लें. ऐसा कुछ दिन करने पर कुछ ही दिनों में चेहरे की त्वचा पर इस का अच्छा असर दिखाई देने लगेगा.

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हम में से अधिकतर लोगों को कुछ न कुछ त्वचा की समस्याएं होती है. जैसे- ड्राईनेस, आयली, सेंसिटिव त्वचा, किल मुहांसे, पिग्मेंटेशन, बड़े छिद्र, काले धब्बे इत्यादि. लेकिन हर कोई चाहता है कि उसकी त्वचा हमेशा मुलायम और चमकती रहे. यहां कुछ ऐसे ही घरेलू टिप्स दिए गए है जहां पपीते से बने फेस मास्क का उपयोग कर आप अपनी त्वचा को चमकदार बना सकती हैं. क्योंकि पपीते में कई आश्चर्यजनक प्राकृतिक तत्व जैसे विटमिन ए, सी और मिनरल्स पाए जाते है. पपीते में मिलने वाले पोटैशियम त्वचा को हाइड्रेट करके तरोताजा बनाता है. यह चेहरे की गंदगी को हटाने में मददगार साबित होता है जो किल मुहांसे का कारण बनते हैं. पपीते में पपिन नामक एक विशेष तरह का एंजाइम होता है जो त्वचा के डेड सेल्स को हटाकर रोम छिद्रों को खोलता है और दाग धब्बों को हटाकर त्वचा को प्लेन करता है. पपीते का मास्क  हर तरह की त्वचा के लिए उपयुक्त होता है, जिन्हें आप घर में आसानी से बना सकती हैं.

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अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz
 
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सरकारी अंकुश का असली सच

जब से ट्विटर और व्हाट्सऐप पर सरकारी अंकुश की बात  हुई है, लोगों की जो भी मरजी हो इन सोशल मीडिया प्लेटफौर्मों पर बकवास डालने की आदतों पर थोड़ा ठंडा पानी पड़ गया है. हमारे यहां ऐसे भक्तों की कमी नहीं जो अपनी जातिगत श्रेष्ठता को बनाए रखने के लिए सत्तारूढ़ पार्टी को आंख मूंद कर समर्थन कर रहे थे और विरोधियों के बारे में हर तरह की अनापशनाप पोस्ट क्रिएट करने या फौरवर्ड करने में लगे थे. अब यह आधार ठंडा पड़ने लगा है.

सरकारी अंकुश इसलिए लगा है कि अब सरकारी प्रचार की पोल खोली जाने लगी है. कोविड से मरने वालों की गिनती जिस तरह से बढ़ी थी उस से भयभीत हो कर लोगों को पता लगने लगा कि मंदिर और हिंदूमुसलिम करने में जानें जाती हैं क्योंकि सरकार की प्राथमिकताएं बदल जाती हैं. भक्त तो कम बदले पर जो सम झदार थे उन की पूछ बढ़ने लगी है और उन्हें जवाबी गालियां मिलनी बिलकुल बंद हो गई हैं.

जैसे पहले  झूठ के बोलबाले ने सच को दबा दिया था वैसे ही सच का बोलबाला  झूठ को दबा रहा है और सरकार को यह मंजूर नहीं.

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हमारे धर्मग्रंथ और धार्मिक मान्यताएं  झूठ के महलों पर खड़ी हैं. कोईर् भी धार्मिक कहानी पढ़ लो  झूठ से शुरू होती है और  झूठ पर खत्म होती है और उसे ही आदर्श मान कर सरकार ने  झूठ पर  झूठ बोला जो अब ट्विटर और व्हाट्सऐप पर जम कर परोसा जा रहा है.

ट्विटर ने भाजपा के संबित पात्रा के ट्विट्स को मैनिपुलेटेड कह डाला तो सरकार अब महल्ले की सासों की सरदार बन कर उतर आई है और पढ़ीलिखी बहुओं का मुंह बंद करने की ठान ली है.

‘हमारे रीतिरिवाज तो यही हैं और यही चलेंगे’ की तर्ज पर सरकार भी यही संविधान है और हम ही तय करेंगे कि यह संविधान किस तरह पढ़ा जाएगा. सासें तय करेंगी कि कौन क्या पहनेगा क्योंकि संस्कृति की रक्षा तो उन्हीं के हाथों में है चाहे वे सारे महल्ले में सब के बारे में सच बताने के नाम पर अफवाहें फैलाती रहती हों.

अब देश में एक तरफ कट्टरपंथी सासनुमा सरकार है, तो दूसरी तरफ बहुएं हैं, जो आजादी भी मांग रही हैं और तर्क भी पेश कर रही हैं और दोनों का युद्ध ट्विटर और व्हाट्सऐप की गली के आरपार हो रहा है. आप घूंघट वालियों के साथ हैं या जींस वालियों के साथ?

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गांरटीड नौकरी चाहिए तो करियर को दें अप्रेंटिस का कवच

अगर आपने हाल में ही 10 वीं या 12वीं पास की है या पहले से ही ग्रेजुएट हैं.लेकिन नौकरी न मिलने से परेशान हैं तो यह लेख आपके लिए ही है.यूं तो कहा जा सकता है कि इस भीषण बेरोजगारी के दौर में नौकरी मिलने की गारंटी किसी भी डिग्री या डिप्लोमा में नहीं है और यह सच भी है है.लेकिन इस बड़े सच के परे भी एक सच है.वह यह कि अगर आपने अपरेंटिस की हुई है तो समझिये नौकरी की गारंटी है.दूसरे शब्दों में अगर गारंटीड नौकरी चाहिए तो 10 वीं के बाद कभी भी किसी अपरेंटिस प्रोग्राम का हिस्सा बन जाइए नौकरी हर हाल में मिलेगी.

बेरोजगारी के इस भीषण दौर में भी अपरेंटिस किये लोगों को 100 फीसदी रोजगार मिल रहा है. 24 जून 2021 तक रेलवे में करीब 4000 अपरेंटिस की भर्ती होने जा रही है.एक रेलवे ही नहीं मई और जून के महीने में ऐसी दर्जनों सरकारी, गैर सरकारी, सार्वजनिक उपक्रम और मल्टीनेशनल कंपनियां तक अपरेंटिसशिप की रिक्तियां निकालती हैं. अपरेंटिसशिप का मतलब होता है एक किस्म का ट्रेनिंग प्रोग्राम.इस कार्यक्रम के तहत बिल्कुल नये लोगों को किसी क्षेत्र विशेष के काम की ट्रेनिंग दी जाती है.

लेकिन यह ट्रेनिंग विद्यार्थियों के सरीखे नहीं मिलती. यह ट्रेनिंग दरअसल ट्रेंड लोगों के साथ पूरे समय नियमित कर्मचारियों की तरह किये जाने वाले काम के रूप में मिलती है.यहां इन ट्रेनीज से पूरे समय एक नियमित कामगार के तौरपर काम कराया जाता है. जिस संस्थान में अपरेंटिसशिप होती है वहां इन ट्रेनीज पर वही नियम लागू होते हैं,जो नियमित कामगारों पर लागू होते हैं सिवाय वेतनमान के.अपरेंटिस संस्थान के नियमित कर्मचारियों की तरह ही भीकाम में आते हैं और उन्हीं की तरह उनकी भी छुट्टी होती है.

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अपरेंटिसशिप छह महीने से लेकर चार साल तक के लिए होती है.अलग अलग संस्थानों में,इसके अलग अलग नियम हैं. मगर आमतौर पर रेलवे, स्टील ऑथोरिटी आफ इंडिया[सेल] भारत हैवी इलेक्ट्रिक्ल लिमिटेड(भेल), जैसे संस्थानों में तीन से चार साल तक की अपरेंटिसशिप ट्रेनिंग होती है.इस ट्रेनिंग कार्यक्रम में प्रवेश पाने के लिए भी यूं तो बहुत मारामारी है,लेकिन अगर आप सेलेक्ट हो गए हैं तो समझिये अब नौकरी मिलनी की गारंटी है.

दरअसल कोई भी कंपनी अकुशल कामगार चुनेगी ही नहीं यदि यदि विकल्प के रूप में उसके सामने कुशल कामगार मौजूद होंगे.अपरेंटिसशिप करने के बहुत फायदे हैं.एक तो सही मायनों में एक सामान्य व्यक्ति उस काम विशेष की कुशलता हासिल कर लेता है, चार साल की इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद भी जो इंजीनियर नहीं हासिल कर पाता. क्योंकि भारत में कितने अच्छे तकनीकी संस्थान हों हर जगह प्रैक्टिकल की सुविधा वैसी है ही नहीं जैसी होनी चाहिए.लेकिन अपरेंटिसशिप में बिलकुल परफेक्ट ट्रेनिंग होती है.

इसीलिये अपरेंटिसशिप के बाद नौकरी मिलनी  लगभग गारंटीड होती है.भले अपरेंटिसशिप के दौरान इसका कोई लिखित आश्वासन न दिया जाता हो.लेकिन रेलवे करीब करीब 100 फीसदी अपने अपरेंटिस को अपने यहां नौकरी में रख लेता है.यही बात अपरेंटिसशिप कराने वाले दूसरे संस्थानों में भी लागू होती है.लेकिन यह जरूरी नहीं है कि आप जहां अपरेंटिस करें वहीं परमानेंट नौकरी करें.यह आपकी मर्जी है. दूसरे अनगिनत प्राइवेट संस्थान भी अपरेंटिसशिप किये लोगों को भागकर नौकरी देते हैं.अपरेंटिस किये लोगों को हमेशा तमाम संस्थान अपने दरवाजे खोलकर रखते हैं.

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अपरेंटिसशिप का एक फायदा यह है कि आप काम तो सीखते ही हैं, इस दौरान नियमित तौरपर हर महीने एक वेतन भी मिलता है, जो आमतौर पर 5000 रुपये से ऊपर और 9 से 10 हजार रुपये प्रतिमाह तक होता है. कई जगहों पर कुछ ज्यादा भी मिलता है. कहने का मतलब यह है कि अपरेंटिसशिप एक ऐसा सुनहरा मौका होता है, जो आपको किसी क्षेत्र विशेष का प्रैक्टिकल नाॅलेज तो देता ही है, इस दौरान के काम के पैसे भी देता है और भविष्य की स्थायी नौकरी के लिए एक मुकम्मिल गारंटी भी इससे मिलती है.आपने अकसर देखा होगा कि कई कंपनियां किसी फ्रेशर को नौकरी देती ही नहीं है.वास्तव में वह इन्हीं अप्रेंटिसों की बदौलत बिना फ्रेशर को नौकरी दिये अपनी जरूरत पूरी कर लेती हैं. क्योंकि हर साल लाखों की तादाद में अपरेंटिस खत्म करने वाले युवा भी नौकरी पाने वालों की होड में होते हैं जाहिर है,उन्हें सबसे पहली प्राथमिकता दी जाती है. तो उम्मीद है आपने अपरेंटिसशिप के फायदे अच्छी तरह से समझ लिए होंगे.

सौतेले रिश्ते बेकार नहीं होते

मनोज के मन में आक्रोश दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था. बीते 10 वर्ष उस ने अपने ननिहाल में बिताए थे. यहां आ कर अपने पिता को सौतेली मां के प्रति स्नेह लुटाते और अपने सौतेले 2 छोटे भाइयों के प्रति दुलार करते देखना उस के लिए बहुत कठिन हो रहा था. वह 16 वर्षीय किशोर है. बीते दिनों नानी के गुजर जाने के बाद वह अपने घर वर्षों बाद लौट कर आया है.

मगर घर पर दूसरी स्त्री और उस के बच्चों का अधिकार उसे बरदाश्त नहीं हुआ. उस के ननिहाल में सभी उसे चेताया करते थे कि उसे अपनी सौतेली मां से संभल कर रहना होगा. बेचारा बिन मां का बच्चा. सौतेली मां तो सौतेली ही रहेगी. यही बातें उस के जेहन में घर कर गईं. नतीजतन उसे अपनी मां की हर बात उलटी लगती, छोटे भाई बिना बात पिट जाते.

एक दिन पिताजी ने उसे पलट कर डपटा तो उस ने अपने पिता के बिस्तरे पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा दी. तो कोई हताहत नहीं हुआ, मगर सब अवाक रह गए.

40 वर्षीय अविवाहित अलका ने जिस विधुर से विवाह किया उस की पत्नी 4 बच्चों को छोड़ कर कैंसर पीडि़त हो इस दुनिया से चली गई. घर में 10, 12 और 14 वर्षीय पुत्रियों और  5 वर्षीय पुत्र के अतिरिक्त बूढ़े मातापिता भी मौजूद थे. अलका से सभी को बहुत अपेक्षाएं थीं. मगर 2 बड़ी पुत्रियां अपनी सौतेली मां के हर काम में मीनमेख निकालतीं.

अलका को सम झ ही नहीं आता कि उस ने विवाह के लिए हामी क्यों भर दी, सिवा उस पल के जब छोटा बेटा उस की गोद में आ दुबकता.

न पालें पूर्वाग्रह

सौतेली मां पर लिखी कहानियों के सिंड्रेला या राखी जैसे पात्र अकसर हमारे बालमन में अवचेतन रूप से मौजूद रहते हैं. उसे ही चंद रिश्तेदार या पड़ोसी अपनी सलाह दे कर मानो आग में घी का काम कर देते हैं.

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‘अब तो सौतेली मां का राज चलेगा,’ ‘पहली बीवी तो सेवा के लिए, दूसरी मेवा खाने के लिए होती है,’ ‘अब तो पिता भी पराया हो जाएगा’ इस प्रकार की नकारात्मक बातों से अपने मन में कोई पूर्वाग्रह न पालें.

सम झें नए रिश्तों की अहमियत

अपनी मां या पिता की दूसरी शादी की अहमियत को सम झें. इस नए रिश्ते से प्राप्त सुविधाओं पर ध्यान दें. जैसे नई मां के आने से घर की चाकचौबंद व्यवस्था, घर के छोटे बच्चे का उचित पालनपोषण, घर के बुजुर्गों की सेहत का खयाल जैसे कार्य बेहद सुगम रूप से होने लगते हैं. घर की आर्थिक व्यवस्था, सुरक्षा जैसे पहलू नजरअंदाज नहीं किए जा सकते.

संबंध सामान्य बनाने को दें समय

किसी भी रिश्ते को पारस्परिक रूप से मजबूत होने के लिए थोड़ा समय अवश्य लगता है.

यदि हम आपसी गलतफहमी को न पाल कर आपस में खुल कर बात करें. अपनी पसंदनापसंद एकदूसरे को बता दें तो रिश्ते बहुत जल्दी बेहतर बन जाएंगे. रिश्ते बेहतर बनाने के लिए स्वयं भी पहल करें. नए सदस्य से पहल की उम्मीद न करें.

अपने मातापिता के बीच वक्तबेवक्त न बैठें. उन्हें भी साथ बैठ कर बातचीत करने का मौका दें.

बड़ों के नजरिए को सम झें

अपने को बड़ों की जगह पर रख कर सोचें कि यह रिश्ता उन के लिए कितनी अहमियत रखता है. कल को आप भी अपने लक्ष्य के पीछे घर से दूर निकल जाओगे या फिर इसी घर में अपनी गृहस्थी में मग्न हो जाओगे. उस समय आज का निर्णय उचित प्रतीत होगा.

भावुकता से काम न लें

घर में अपनी मां से जुड़ी वस्तुओं को किसी अन्य महिला को इस्तेमाल करते देख या पिता को नए रिश्तों में ढलते देख कर भावुक न हों. यह सोचें कि घर का नया सदस्य अपना पुराना घर छोड़ कर आप के बीच आप सभी की उपस्थिति को स्वीकार कर अपने को ढालने में लगा है तो उसे भी सहज होने का मौका दें.

वर्तमान को स्वीकारें

जो सामने है, वही सच है. मातापिता भी अपने नए रिश्ते को ही अहमियत देंगे, गुजरे वक्त को कौन पकड़ पाया है.

पहले संयुक्त परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक होने से विधवा, विधुर या आजीवन कुंआरे व्यक्ति की सुखसुविधाओं में कमी नहीं आती थी. वे आराम से अपना जीवनयापन कर लेते थे. उन्हें किसी भी प्रकार की सुविधा जैसे आर्थिक, सामाजिक अथवा समय से भोजन, बीमार होने पर सेवा का लाभ मिल जाता था.

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अब एकल परिवारों के कारण अपनी अधूरी गृहस्थी संभालना जब कठिन हो जाता है तभी व्यक्ति पुनर्विवाह का निर्णय लेता है. ऐसे में बच्चों से भी यह उम्मीद की जाती है कि वे रिश्तों की अहमियत को सम झें और उन्हें मन से स्वीकार करें.

दूरदराज बैठे रिश्तेदार अपनी गृहस्थी छोड़ कर हमेशा के लिए नहीं आ सकते हैं. ऐसी परिस्थितियों में बच्चों को भी सच को स्वीकार कर अपने भविष्य को बेहतर बनाने की ओर ध्यान देना चाहिए.

REVIEW: जानें कैसी है विद्या बालन की Film ‘शेरनी’

रेटिंगः दो स्टार

निर्माताः भूषण कुमार, किशन कुमार,  विक्रम मल्होत्रा, अमित मसूरकर

निर्देशकः अमित वी मसूरकर

कलाकारः विद्या बालन, शरत सक्सेना,  विजय राज, ब्रजेंद्र काला, इला अरूण , नीरज काबी, मुकुल चड्ढा व अन्य.

अवधिः दो घंटे दस मिनट 44 सेकंड

ओटीटी प्लेटफार्मः अमेजॉन प्राइम वीडियो

एक तरफ देश के राष्ट्ीय पशुं टाइगर(बाघ )की प्रजाति खत्म होती जा रही है. तो दूसरी तरफ विकास के नाम पर जंगल खत्म हो रहे हैं, ऐसी परिस्थितियों में हर जानवर के सामने समस्या है कि वह कहां स्वच्छंदतापूर्ण विचरण करे. जंगल के खत्म होने से टाइगर, भालू आदि हिंसक जानवर खेतों व आबादी की तरफ बढ़ रहे हैं. जिसके चलते पशु और इंसान के बीच संघर्ष बढ़ता जा रहा है. तो वहीं इस समस्या का सटीक हल ढूढ़ने की बनिस्बत राजनेता अपनी रोटी सेंकने में लगे हुए हैं, जिसका फायदा अवैध तरीके से टाइगर का शिकार करने वाला शिकारी उठा रहा है. इन्ही मुद्दों व पशु व इंसान के बीच  संघर्ष को खत्म कर संतुलन बनाने का संदेश देने वाली फिल्म ‘‘शेरनी’’ लेकर आए हैं फिल्म निर्देशक अमित वी मसुरकर, जो कि 18 जून से ‘‘अमैजॉन प्राइम’’पर स्ट्रीम हो रही है.

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कहानीः

कहानी शुरू होती है विजाशपुर वन मंडल के जंगलों से, जहां कुछ पुलिस  की टीम व वन संरक्षण अधिकारी टाइगर की आवाजाही को समझने के लिए वीडियो कैमरा लगा रही है. उसी वक्त नई वन अधिकारी विद्या विंसेट(विद्या बालन) भी वहां पहुंचती है और हालात का जायजा लेती है. वाटरिंग होल सूखा हुआ है. क्योंकि स्थानीय विधायक जी के सिंह(अमर सिंह परिहार  )का साला मनीष उस जंगल में सुविधाएं देखने वाला ठेकेदार है. वह किसी नही सुनता. उधर जंगल के नजदीक में बसे गांव वासी अपने मवेशियों को चारा खिलाने इसी जंगल में कई वर्षों से जाते रहे हैं. मगर अब राष्ट्रीय पार्क और इस जंगल के बीच हाइवे सहित कई विकास कार्य संपन्न हो चुके है, जिसकी वजह से जंगल कें अंदर मौजूद टाइगर व भालू जैसे हिंसक पशु नेशनल पार्क नही जा पा रहे हैं और वह ग्रामीणों का भक्षण करने लगे हैं. पूर्व विधायक पी के सिंह(सत्यकाम आनंद)  ग्रामीणों के जीवन की सुरक्षा के नाम पर वन अधिकारियों को धमकाते हुए अपनी राजनीति को चमकाने में लगे हैं. वन अधिकारी विद्या विंसेट चाहती है कि इंसानों और पशुओं के बीच संघर्ष खत्म हो और एक संतुलन बन जाए. इसके लिए वह अपने हिसाब से प्रयास शुरू करती हैं, जिसमें वन विभाग से ही जुड़े मोहन, हसन दुर्रानी(  विजय राज )  व अन्य लोगों की मदद से प्रयासरत हैं. पर विधायक जी के सिंह के चमचे व वन विभाग के अधिकारी बंसल(ब्रजेंद्र काला )  व अन्य अपने हिसाब से टंाग अड़ाते रहते हैं. तभी चुनाव जीतने के लिए विधायक जी के सिंह शिकारी पिंटू को लेकर आते हैं.  विद्या चाहती है कि नर भक्षी बन चुकी बाघिन टी 12 व उसके दो नवजात बच्चों को इस जंगल से निकालकर नेशनल पार्क भेज दिया जाए, जिससे ग्रामीणों की भी सुरक्षा हो सके. जबकि बंसल व पिंटू(शरत सक्सेना) की इच्छा टाइगर यानी कि शेरनी को बचाने में बिलकुल नही है. इसी बीच अपने उच्च अधिकारी नंागिया(नीरज काबी )  की हरकत से विद्या विंसेट को तकलीफ होती है. अब राजनीतिक कुचक्र और नेताओं के इशारे पर नाच रहे कुछ भ्रष्ट वन अधिकारियों व इमानदार वन अधिकारी विद्या विंसेट में से किसकी जीत होती है, यह तो फिल्म देखने पर ही पता चलेगा.

लेखन व निर्देशनः

‘‘सुलेमानी कीड़ा’’ और ऑस्कर के लिए भारतीय प्रविष्टि के रूप में भेजी जा चुकी फिल्म‘‘ न्यूटन’’के निर्देशक अमित वी मसूरकर  इस बार मात खा गए हैं. फिल्म की कमजोर पटकथा के चलते फिल्म काफी नीरस और धीमी है. जंगल में  नरभक्षी टाइगर की मौजूदगी के चलते जो डर व रोमांच पैदा होना चाहिए, उसे पैदा कर पाने में अमित वी मसूरकर असफल रहे हैं. शेरनी की आंखों से पैदा होने वाला सम्मोहन भी नदारद है. दो राजनेताओं के बीच की राजनीतिक चालों का भी ठीक से निरूपण नही हुआ है.

फिल्म‘‘शेरनी’’ अवनी या टी1 के मामले की याद दिलाती है. जब बाघिन पर 13 लोगों की हत्या का आरोप लगा था. महीनों के लंबे शिकार के बाद,  2018 में महाराष्ट्र के यवतमाल में एक नागरिक शिकारी के नेतृत्व में वन विभाग के कुछ अधिकारियों के साथ उसकी गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. कई कार्यकर्ताओं ने इसे ‘कोल्ड ब्लडेड मर्डर‘ बताया और मामला भारत के सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंच गया. यह मामला अभी भी चल रहा है और अधिकारी यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि अवनी नामक बाघिन आदमखोर थी या नहीं. लेकिन फिल्मकार इस सत्य घटनाक्रम को सही अंदाज में नही उठा पाए.

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फिल्म का संवाद ‘‘विकास के साथ जाओ, तो पर्यावरण को नहीं बचा सकते. और यदि पर्यावरण के साथ जाएं, तो विकास बेचारा उदास हो जाता है. ’’कई सवाल उठाता है, मगर अफसोस की बात यह है कि इस तरह की बात करने वाले नंागिया का कार्य इस संवाद से मेल नही खात. यानी कि चरित्र चित्रण में भी फिल्मकार ने गलतियंा की हैं. फिल्म में पशुओं को लेकर मनुष्य की संवेदनहीनता, वन विभाग में भ्रष्टाचार, राजनेताओं की नकली नारेबाजियां, जैसे मुद्दे उठाए गए हैं मगर बहुत ही सतही तौर पर. बीच बीच में फिल्म पूरी तरह से डाक्यूमेंट्री बनकर रह जाती है.

कैमरामैन राकेश हरिदास बधाई के पात्र हैं.

अभिनयः

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो विद्या बालन का अभिनय शानदार है. उन्होने वन अधिकारी विद्या विसेंट को जीवंतता प्रदान की है. फिर चाहे डर का भाव हो या कुछ न कर पाने की विवशता. मगर लेखक व निर्देशक ने विद्या बालन के किरदार को भी ठीक से नही गढ़ा है. वह कहीं भी दहाड़ती नही है, उसके कारनामे ऐसे नही है जो कि याद रह जाएं. नीरज काबी व मुकुल चड्ढा की प्रतिभा को जाया किया गया है. हसन दुर्रानी के किरदार मे विजय राज एक बार फिर अपने अभिनय की छाप छोड़ जाते हैं. ब्रजेंद्र काला को अवश्य कुछ अच्छे दृश्य मिल गए हैं.

अनुपमा के घरवालों की लाइफ में हलचल मचाएगी नई एंट्री, काव्या का है नया प्लान

स्टार प्लस के सीरियल ‘अनुपमा’ की टीआरपी इस हफ्ते भी पहले नंबर पर बनी हुई है. वहीं मेकर्स टीआरपी ना गिरने देने के लिए सीरियल की कहानी में नए मोड़ ला रहे हैं. सीरियल की बात करें तो काव्या की मुसीबतें शादी के बाद बढ़ रही है. वहीं शाह परिवार उसकी जिंदगी में नई-नई परेशानियां ला रहे हैं. इसी बीच काव्या के नये प्लान के चलते घर में नई एंट्री देखने को मिली है, जिसके आने से शाह परिवार हैरान है. आइए आपको बताते हैं क्या होगा शो में आगे…

काव्या ने की ये मांग

 

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अब तक आपने देखा कि काव्या घर और किचन संभालने के कारण परेशान है, जिसके बाद वह घर के लिए 24 घंटे शाह हाउस (Shah House) को संभालने वाली मेड की तलाश कर रही थी. हालांकि अनुपमा इस फैसले के खिलाफ थी लेकिन वो अपनी बात पर अड़ी हुई है. इसी बीच काव्या ने नई मेड की एंट्री भी करवा दी है.  अपकमिंग एपिसोड में शाह हाउस में एक धमाकेदार एंट्री होने वाली है.

 

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नई मेड की एंट्री से शाह परिवार परेशान

दरअसल, अपकमिंग एपिसोड में काव्या शाह हाउस में एक मेड को लेकर आएगी, जिससे वह पूरे शाह हाउस पर कंट्रोल करने की कोशिश करेगी. वहीं काव्या के इस फैसले से परेशान अनुपमा और शाह परिवार मेड को देखकर खुश नहीं होगा क्योंकि वो चौबीसों घंटे उनके साथ ही रहेगी.

अनुपमा करेगी वनराज की मदद

दूसरी ओर अनुपमा अपना स्टूडियो खोलने के बाद बेहद खुश नजर आएगी. वहीं नौकरी के कारण परेशान वनराज को हताश ना होने की सलाह देती दिखेगी. और वनराज को खुश रहने के लिए कहेगी, जिसे काव्या देख लेगी और नई नौकरानी को अनुपमा पर नजर रखने के लिए कहती हुई नजर आएगी.

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Barrister Babu के मेकर्स की तलाश हुई खत्म! ये एक्ट्रेस निभाएंगी यंग बोंदिता का रोल

बीते दिनों कलर्स के सीरियल बैरिस्टर बाबू (Barrister Babu) की नई बोंदिता को लेकर खबरें छाई हुई हैं. जहां सीरियल में लंबा लीप लेने की तैयारी की जा रही है तो वहीं नई बोंदिता के लिए मेकर्स की तलाश खत्म होने का नाम नहीं ले रही है. इसी बीच खबरे हैं कि एक्ट्रेस आंचल साहू को यंग बोंदिता के रोल के लिए अप्रोच किया है. आइए आपको बताते हैं पूरी खबर…

इस एक्ट्रेस को मिला मौका

बीते 3 हफ्ते से सीरियल बैरिस्टर बाबू के मेकर्स नई बोंदिता के लिए एक्ट्रेस की तलाश किए जा रहे हैं. वहीं इस सिलसिले में कई एक्ट्रेस के नाम सामने आए हैं. इस बीच खबरे हैं कि एक्ट्रेस आंचल साहू ये रोल साइन कर सकती हैं. ‘क्यों उत्थे दिल छोड़ आए’, ‘बेगुसराय’, ‘लाजवंती’ और मेरी दुर्गा जैसे शोज में काम कर चुकी एक्ट्रेस आंचल साहू बोंदिता के रोल में अनिरुद्ध-बोंदिता की कहानी को आगे बढ़ाती नजर आएंगी. देखा जा चुका है.

 

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ये एक्ट्रेस कर चुकी हैं रोल के लिए मना

 

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बीते दिनों सीरिल्स के मेकर्स ने कई एक्ट्रेसेस को बड़ी बोंदिता का रोल औफर किया था, जिनमें कनिका मान (Kanika Mann) का नाम भी शामिल है. वहीं कहा जा रहा था कि उनके नाम को फाइनल कर लिया गया है. लेकिन बाद में कनिका मान ने इस शो को मना कर दिया. दूसरी तरफ इस रोल के लिए कनिका मान के अलावा अदा खान (Adaa Khan), अनुष्का सेन (Anushka Sen), अशनूर कौर और रीम शेख (Reem Sheikh) भी इस रोल को ठुकरा चुकी हैं.

छोटी बोंदिता का रोल भी ठुकरा चुकी हैं कई एक्ट्रेस

 

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बड़ी बोंदिता से पहले छोटी बोंदिता के रोल के लिए भी कई एक्ट्रेसेस के नाम सामने आए थे. हालांकि बाद में यह रोल एक्ट्रेस औरा भटनागर के हाथ लगा था. वहीं अब वह फैंस के दिल में जगह बना चुकी हैं.

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