जब मेरे पीरियड्स आते हैं, तो मैं बहुत उदासी महसूस करती हूं?

सवाल

मैं 20 साल की हूं और जब मेरे पीरियड्स आते हैं, तो मैं बहुत उदासी महसूस करती हूं. मेरा कुछ भी करने का मन नहीं होता. मैं इसी कारण कालेज भी नहीं जा पाती. मेरे साथ ऐसा क्यों होता है?

जवाब-

पीरियड्स से पहले और उस दौरान उदास या बीमार होना आम बात है. जब मासिकधर्म चक्र के दौरान लड़की के हारमोन का स्तर बढ़ता या घटता है, तो उसे शारीरिक और भावनात्मक दोनों तरह से प्रभावित कर सकता है. इसे प्रीमैंस्ट्रुअल सिंड्रोम के रूप में जाना जाता है. यह लड़की को बिस्तर में रहने तक के लिए मजबूर कर सकता है.

प्रीमैंस्ट्रुअल के लक्षणों को कम करने के लिए ताजा फल और सब्जियों के साथसाथ संतुलित आहार लें. चिप्स जैसे प्रोसैस्ड खाद्यपदार्थों से परहेज करें. नमक कम खाएं और ज्यादा से ज्यादा पानी पीएं. कैफीन के सेवन से बचें. रात को भरपूर नींद लें. अगर ज्यादा परेशानी हो तो तुरंत डाक्टर से मिलें.

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कुछ लड़कियां पीरियड्स के दौरान मूड स्विंग्स का सामना करती हैं तो कुछ लड़कियों को कोई खास बदलाव महसूस नहीं होता है. ऐसे ही कुछ लड़कियां डिप्रैशन और इमोशनल आउटबर्स्ट का शिकार होती हैं. इसे कहते हैं प्रीमैंस्ट्रुअल सिंड्रोम और 90 प्रतिशत लड़कियां वर्तमान में इसे महसूस कर रही हैं.

पीरियड के दौरान अनेक परेशानियां भी आती हैं. महीने में 2 बार पीरियड्स क्यों हो रहे हैं? मसलन, फ्लो इतना ज्यादा या इतना कम क्यों है ? पीरियड्स और लड़कियों के समान क्यों नहीं हैं? अनियमित पीरियड्स क्यों हैं? ये सब प्रश्न अकसर हमारे दिमाग में घर कर लेते हैं.

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महामारी के दौरान अच्छी नींद के साथ न करें समझौता

अच्छी नींद स्वास्थ्य का एक महत्वपूर्ण घटक है. नींद पूरी न होने से शरीर में शारीरिक गतिविधियां प्रभावित हो सकती हैं जिससे शारीरिक और मानसिक रोगों को बढ़ावा मिल सकता है. नींद की समस्या या अनिद्रा अक्सर कम शारीरिक और/या मनोवैज्ञानिक कारणों की वजह से पैदा होती है. अक्सर तनाव/चिंता/अवसाद या मूड डिसॉर्डर की समस्या कमजोर गुणवत्ता की नींद की वजह से देखने को मिलती है.

इस बारे में बता रहीं हैं गुरुग्राम के पारस अस्पताल की मनोचिकित्सक और सलाहकार डॉक्टर ज्योति कपूर.

कोविड महामारी से विभिन्न स्तरों पर लोग प्रभावित हुए हैं और हम अपने इर्द-गिर्द ज्यादातर लोगों में तनाव में इजाफा देख रहे हैं. लॉकडाउन और वर्क फ्रॉम होम परिवेश से एक मुख्य समस्या अनुशासित रुटीन का अभाव कार्य घंटे लंबी रातों में खिंचना है. वित्तीय दबाव और रोजगार खोने के डर की वजह से कर्मचारी कार्य घंटे सीमित बनाए रखने में सक्षम नहीं हैं और दुर्भाग्यवश, कई कॉरपोरेट कर्मचारी नियोक्ता की तरफ से प्रबंधन को लेकर असंवेदनशीलता की शिकायत कर रहे हैं. इन सभी समस्याओं ने कामकाजी लोगों के सोने के रुटीन को प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित किया है, क्योंकि उनमें तनाव का स्तर बढ़ रहा है.
स्कूल जाने वाले बच्चों में भी, जल्दी उठने की आदत प्रभावित हुई है जिससे सुबह के समय ज्यादा देर तक सोने और देर रात तक इंटरनेट और गेम खेलने की प्रवृत्ति बढ़ी है.

ऑनलाइन पढ़ा रहे शिक्षक भी छात्र की जरूरतें पूरी नहीं होने तक और स्कूल प्रशासन की जरूरतों को देखते हुए अपनी मोबाइल पहुंच समाप्त करने में सक्षम नहीं हैं.

मनोचिकित्सा ओपीडी में कोविड-19, लॉकडाउन से संबंधित सामाजिक अकेलेपन और अनुशासन के अभाव से जुड़ी समस्याओं के कारण नींद से प्रभावित होने वाले मरीजों की संख्या बढ़ रही है.

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नींद से जुड़ी अनियमितताओं के प्रबंधन के लिए लोगों से जुड़े जैविक, मनो-सामाजिक और पर्यावरण संबंधी कारकों का आकलन करने की जरूरत है. अच्छी नींद सुनिश्चित करने के लिए परिवेश और व्यवहार में बदलाव पहला उपचार है. यह निम्नलिखित नींद स्वच्छता प्रणालियों से जुड़ा हुआ हैः

1. बिस्तर पर सोने का नियमित समय बनाएं और उस पर अमल करें
2. सोने से 3 घंटे पहले तक व्यायाम से परहेज करें
3. रात का भोजन सोने से 2 घंटे पहले कर लें
4. सोने से 3 घंटे पहले चाय, कॉफी, तंबाकू के सेवन से परहेज करें
5. सोने के समय के रुटीन पर पालन करें
6. बेडरूम में आरामदायक वातावरण सुनिश्चित करें
7. दिन के समय में सोने से बचें
8. दिन के दौरान नियमित तौर पर व्यायाम करें
9. सोते समय भावनात्मक रूप से प्रभावित करने वाली गतिविधियों से बचने की कोशिश करें
10. नींद से संबंधित समस्याएं दूर करने के लिए कई अन्य गैर-चिकित्सकीय उपाय भी हैं जो मरीज की परिस्थितियों और जरूरतों के आधार पर अलग अलग हो सकते हैं.

सभी उम्र और पेशों के लोगों को लॉकडाउन संबंधित तनाव दूर करने और लंबे समय स्वास्थ्य संबंधित जटिलताओं से बचने के लिए नींद का रुटीन बनाने की जरूरत है.

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डिशवौशर में बर्तन धोने से हो सकते हैं ये 7 नुकसान

आजकल के बिजा लाइफस्टाइल में हम कोशिश करते हैं कि सारे काम जल्द से जल्द हो जाएं, जिसके लिए हम मार्केट से कई नई टैक्नीक वाली चीजें खरीदते हैं. जैसे वौशिंग मशीन, वैक्यूम क्लीन और डिशवौशर जैसी चीजें. ये हमारे काम को आसान तो बनाती हैं, लेकिन ये हमारे लाइफस्टाइल में मुसीबत का कारण बन जाते हैं. आपने डिशवौशर के बारे में तो बहुत सुना होगा. डिशवौशर का इस्तेमाल घरों में बर्तन धोने के लिए किया जाता है, लेकिन क्या आप जानते हैं डिशवौशर में बर्तन धोने के नुकसान के बारे में…

1. पतली गर्दन वाली बोतलें को डिशवौशर में धोने से बचने की करें कोशिश

पतली गर्दन वाली बोतलें जैसे कि वाइन या एडिबल औयल की बोतलों को डिशवौशर में नहीं धोना चाहिए. मशीन का स्प्रे इन बोतलों के अंदर नहीं जा पाता. जिससे बोतलें गंदी रह जाती हैं. बोतलों को साफ करने के लिए आप उनमें हलका गर्म पानी डालकर उसमें डिशवाशिंग लिक्विड और एक चम्मच कच्चे चावल डालें. बोतल को अच्छे से हिलाए. चावल में गंदगी चिपक जाएगी और बोतल साफ हो जाएंगी.

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2. चाइना क्रोकरी के मेंटेनेंस के लिए डिशवौशर में न धोएं

हैंड पेंटेड चीजें जितनी खूबसूरत लगती हैं, इनका मेंटेनेन्स उतना ही कठिन होता है. हैंड पेंटेड बोन चाइना कप बहुत ही नाजुक होते हैं. इन्हें भी डिशवाशर में धोने से बचें. बोन चायना से बनी चीजों को हाथ से ही साफ करें. माइल्ड डिशवाशिंग लिक्विड और ठंडे पानी से बोन चाइना की चीजों को धोएं और सूखे कपड़े से पोंछकर रखें.

3. डिशवौशर में लकड़ी के बर्तन को धोएं न

लकड़ी के बर्तनों को भी डिशवाशर में नहीं धोना चाहिए. इससे बर्तनों के टूटने का डर बना रहता है. बहुत समय तक पानी में रहने से बर्तन खराब हो सकते हैं. लकड़ी के बर्तनों को धोने के लिए बेकिंग सोडा का इस्तेमाल किया जा सकता है.

4. ग्रेटर यानी कसने वाले सामान को भी न धोएं

अदरक, लहसुन आदि को किसने या ग्रेट करने के लिए करने के लिए आप ग्रेटर का इस्तेमाल करती हैं. पर ग्रेटर को भी डिशवाशर में धोने से बचें. ग्रेटर के छोटे-छोटे छेद में सब्जियां आदि फंसी रह जाती हैं. इसे डिशवाशर साफ नहीं कर सकता. ग्रेटर को धोने के लिए सबसे आसान तरीका है कि इन्हें इस्तेमाल के बाद ही पानी में भिगो दिया जाए. सब्जियां आसानी से निकल जाएंगी और ग्रेटर साफ हो जाएगा.

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5. डिशवौशर में नहीं डालने चाहिए प्लास्टिक के डिब्बे

किफायत और रियूज का जमाना हैं और गृहणियां तो बचत में और बच बच कर चलने में ही विश्वास करती हैं. चीज, आईसक्रीम आदि के डब्बों को भी आप दोबारा किसी न किसी तरह से इस्तेमाल जरूर करती हैं. पर ऐसे रिसाइक्लड प्लास्टिक के डब्बों को भी डिशवाशर में नहीं डालना चाहिए. ये डब्बे बहुत ही कमजोर होते हैं और डिशवाशर का प्रेशर झेल नहीं सकते. अगर ऐसे डिब्बों को दोबारा इस्तेमाल करना है तो इन्हें हाथ से धोने में ही भलाई है.

6. तांबे के बर्तन हो जाते हैं डिशवौशर में बदरंग

तांबे के बर्तनों को डिशवाशर में धोने से वे बदरंग हो सकते हैं. तांबे के बर्तनों को साफ करने के लिए उन पर टमेटो केचप लगा कर थोड़ी देर के लिए छोड़ दें. इसके बाद बर्तनों को धो लें. बर्तन चमक उठेंगे.

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7. क्रिस्टल ग्लासेस को भूलकर भी न धोएं डिशवौशर में

अपने खूबसूरत और क्लासी क्रिस्टल के ग्लासेस को डिशवौशर में गलती से भी नहीं धोना चाहिए. क्रिस्टल के ग्लासेस में लेड औक्साइड होता है, और डिशवाशर लिक्विड के अल्कली से मिलकर ये आपके ग्लास को बदरंग कर देगा. क्रिस्टल को हमेशा हाथों से ही धोएं. आप इन्हें चमकाने के लिए सिरके का उपयोग कर सकती हैं.

दिल्ली त्रिवेंद्रम दिल्ली: एक जैसी थी समीर और राधिका की कहानी

लेखकडा. कृष्ण कांत

समीर टैक्सी से उतर कर तेज कदमों से इंदिरा गांधी हवाईअड्डे की ओर बढ़ा, क्योंकि रास्ते में काफी देर हो चुकी थी.

काउंटर पर बैठी युवती ने उस से टिकट ले कर कहा, ‘‘आप की सीट है 12वी, आपातकालीन द्वार के पास.’’

बोर्डिंग कार्ड ले कर वह सुरक्षा कक्ष में चला गया. फ्लाइट जाने वाली थी, इसलिए

वह तुरंत विमान तक ले जाने वाली बस में बैठ गया.

‘‘नमस्ते,’’ विमान परिचारिका ने उस का हाथ जोड़ कर स्वागत किया.

समीर उसे देखता रह गया.

‘‘सर, आप का बोर्डिंग कार्ड?’’ परिचारिका मुसकरा कर बोली.

समीर ने उसे अपना बोर्डिंग कार्ड पकड़ा दिया.

वह उसे उस की सीट 12बी पर ले गई. समीर ने अपने बैग से काले रंग की डायरी निकाली और बैग ऊपर रख कर सीट पर बैठ गया.

उस की बगल वाली सीट, जो बीच के रास्ते के पास थी, खाली थी. समीर अपनी डायरी देखने लगा. पहले ही पन्ने पर विधि की तसवीर चिपकी थी. उस के जेहन में विधि का स्वर गूंज गया…

‘समीर मैं तुम से प्यार नहीं करती. यदि तुम ने कभी सोचा तो यह सिर्फ तुम्हारी गलती है. मैं तुम से शादी नहीं कर सकती…’

‘‘नमस्कार,’’ आवाज सुन समीर ने चौंक कर आंखें खोलीं. विमान परिचारिका उद्घोषणा कर रही थी, ‘‘आप का विमान संख्या आईसी 167 में, जो मुंबई होता हुआ त्रिवेंद्रम जा रहा है, स्वागत है. आप सभी अपनीअपनी कुरसी की पेटी बांध लीजिए…’’

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समीर ने एक गहरी सांस ली. अपनी कुरसी की पेटी बांधी और आंखें मूंद लीं. आंखों के सामने विधि का मुसकराता हुआ चेहरा घूमने लगा…

‘‘माफ कीजिए…’’

समीर ने चौंक कर आंखें खोलीं. सामने वही परिचारिका खड़ी थी.

‘‘आप मेरी सीट बैल्ट के ऊपर बैठे हैं.’’

समीर थोड़ा झेंप गया. उस ने चुपचाप अपने नीचे से सीट बैल्ट निकाल कर उसे पकड़ा दी. वह मुसकरा कर बैठ गई. उस के हाथ में भी समीर की डायरी के समान एक काले रंग की डायरी थी. वह अपनी डायरी पढ़ने लगी.

समीर ने फिर आंखें मूंद लीं और सोचने लगा, ‘विधि, क्या यह सब झूठ था? हमारा रोज मिलना, तुम्हारा पत्र लिखना क्या यह सब एक खेल था? क्या तुम्हें कभी मेरी याद नहीं आएगी?’

उसी समय सीट बैल्ट खोलने की उद्घोषणा हुई तो परिचारिका खड़ी हुई.

‘‘सुनिए,’’ वह समीर को देख कर धीरे से बोली.

समीर ने उस की ओर देखा.

‘‘आप की आंखों में आंसू हैं. इन्हें पोंछ लीजिए,’’ उस के स्वर में गंभीरता थी.

आंसुओं की धार ने उस के दोनों गालों पर रास्ते के निशान बना दिए थे. उस ने झट

से रूमाल से अपनी आंखों और चेहरे को पोंछ लिया.

‘‘सुबह नाश्ते में मिर्च ज्यादा थी.’’

वह बिना कुछ बोले चली गई.

थोड़ी देर बाद वह नाश्ते की ट्राली घसीटते हुए लाई और यात्रियों को नाश्ता देने लगी.

‘‘सर, आप क्या लेंगे, वैज या नौनवैज?’’ उस ने समीर से पूछा.

‘‘कुछ नहीं.’’

‘‘चाय या कौफी?’’

‘‘नहीं, कुछ नहीं.’’

वह बिना कुछ बोले आगे बढ़ गई. उस के भावों से लगा कि उसे थोड़ी सी खीज हुई है.

थोड़ी देर बाद वह फिर आई और बिना कुछ बोले एक प्लेट में चाय और कुछ बिस्कुट रख कर चली गई.

समीर को उस का आग्रह भरा मौन आदेश लगा, क्योंकि इस में अपनत्व था. उस ने चुपचाप चाय पी और बिस्कुट खा लिए. कुछ देर बाद वह दोबारा आई और प्लेट ले कर जाने लगी. प्लेट लेते समय दोनों की नजरें मिलीं.

समीर ने देखा कि उस की साड़ी पर राधिका नाम का टैग लगा था. वह थोड़ा मुसकरा दी. समीर को एक क्षण के लिए लगा कि उस की मुसकराहट में उदासी की छाया है.

उसे फिर विधि की याद सताने लगी. उस ने डायरी खोल ली और लिखने लगा, ‘क्या लड़की का प्यार सिर्फ शादी के बाद दौलत और सुविधाओं के लिए होता है? विधि मुझे छोड़ कर अरुण से शादी इसलिए कर रही है, क्योंकि उस के पास बंगला और कार है, जबकि मैं अभी किराए के मकान में हूं. आज ही उस की शादी है. अच्छा है कि मैं दिल्ली में नहीं रहूंगा. उसे अपने सामने विदा होते देखता तो न जाने क्या कर बैठता.’

समीर की आंखों में एक बार फिर आंसू आ गए. उस ने आंसू पोंछ लिए, डायरी बंद

कर के बगल वाली सीट पर रख दी और आंखें बंद कर लीं.

‘‘कृपया ध्यान दीजिए. अब हमारा विमान मुंबई के छत्रपति शिवाजी हवाईअड्डे पर उतरेगा. आप अपनीअपनी कुरसी की पेटी बांध लें. त्रिवेंद्रम जाने वाले यात्रियों से निवेदन है कि वे विमान में ही रहें,’’ उद्घोषणा हो रही थी.

राधिका उस की बगल में आ कर बैठ गई. समीर की डायरी उस ने सामने सीट की जेब में रख दी. समीर ने आंखें खोल कर राधिका को देखा, तो वह मुसकरा कर धीरे से बोली, ‘‘जिंदगी के सारे गमों को पी कर मुसकराना होता है.’’

समीर की इच्छा हुई कि बोले उपदेश देना सरल है, लेकिन जब खुद पर गुजरती है तब सारे उपदेश धरे रह जाते हैं, मगर वह चुप रहा.

‘‘मैं ने शायद कुछ गलत कह दिया. आई एम सौरी, सर,’’ वह थोड़ी देर बाद फिर बोली.

‘‘ऐसी बात नहीं है. आप ने बोला तो सही है. मुझे इस का बिलकुल बुरा नहीं लगा,’’ समीर के मुंह से निकला, ‘‘आप त्रिवेंद्रम तक मेरे साथ चलेंगी न?’’ समीर ने पूछा और फिर सकुचा गया.

‘‘आप खाना खाएंगे, तब जरूर चलूंगी,’’ वह मुसकरा कर बोली.

उसी समय विमान मुंबई उतर गया. राधिका अपनी डायरी ले कर चली गई.

समीर ने अपनी डायरी बैग में रख दी और औफिस की फाइल निकाल कर मीटिंग की तैयारी करने लगा.

बीच में उसे पानी की जरूरत महसूस हुई. वह पीछे की ओर गया परंतु राधिका की जगह कोई और परिचारिका थी. वह बिना पानी मांगे ही अपनी सीट पर आ गया.

थोड़ी देर बाद राधिका उस की बगल से गुजरी, तो वह बोला, ‘‘राधिका, एक गिलास पानी चाहिए.’’

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‘‘जरूर,’’ राधिका ने मुसकरा कर कहा. लगता था कि उसे अपने नाम के संबोधन से आश्चर्य भी हुआ और खुशी भी.

पीछे से खिलखिलाने की आवाज आई. शायद दूसरी परिचारिका ने भांप लिया था कि समीर ने पानी के लिए राधिका का इंतजार किया. वह राधिका को छेड़ रही थी.

राधिका ने उसे पानी की बोतल दे दी. बोतल लेते समय दोनों के हाथ स्पर्श हुए तो दोनों के शरीर में सिहरन दौड़ गई. उस ने राधिका को देखा. वह कुछ उदास हो गई थी.

उसी समय मुंबई में यात्री चढ़ने लगे. विमान जब मुंबई से चला तो राधिका उस की बगल वाली सीट पर ही थी, पर न जाने किन खयालों में खोई थी.

‘‘यह बहुत थकाने वाली फ्लाइट है,’’ समीर ने बात शुरू करने के इरादे से कहा.

‘‘हां,’’ कह कर वह फिर अपने खयालों में खो गई.

समीर ने अपनी आंखें बंद कर लीं.

‘‘सर, आप वैज लेंगे या नौनवैज?’’

समीर चौंक कर उठा. राधिका उस के कंधे को हलके से थपथपा कर पूछ रही

थी. वह बीच में कब सो गया, उसे पता ही नहीं चला.

‘‘वैज,’’ समीर के मुंह से निकला.

राधिका ने चुपचाप उसे वैज खाने की ट्रे दे दी. उस समय दोनों की नजरें टकराईं. नजरों में ही बातें हो गईं कि समीर उस के कहने पर ही खाना खा रहा है.

‘बनावटी मुसकानों और खोखले वाक्यों के पीछे विमान परिचारिकाओं के पास दिल भी होता है, जो दूसरों का दर्द महसूस कर सकता है,’ समीर ने सोचा.

‘इसे कम से कम मेरा कहना याद तो है. भूखा रहने से कोई दुख कम नहीं होता, इतना तो इसे पता होना चाहिए,’ राधिका सोच रही थी.

खाना खाने के बाद समीर की आंख फिर लग गई.

‘‘अब हम त्रिवेंद्रम हवाईअड्डे पर आ पहुंचे हैं. आशा है कि आप की यात्रा सुखद रही. आप हमारे साथ फिर यात्रा करें तो हमें खुशी होगी,’’ उद्घोषणा हो रही थी.

विमान से उतरते समय समीर की नजरें राधिका से मिलीं तो वह मुसकरा दी. ऐसा लगा कि शायद कुछ कहना चाहती है.

पूरा दिन समीर मीटिंग में व्यस्त रहा. शाम को समय काटने के लिए वह कोवलम बीच चला गया और वहां समुद्र के किनारे टहलने लगा. बरबस ही उसे विधि की याद आने लगी. उस ने और विधि ने शादी के बाद ऐसी ही किसी जगह जाने का प्रोग्राम बनाया था, वह सोचने लगा.

उसे लगा कि कोई पहचाना हुआ चेहरा उस के सामने से गुजरा. अरे यह तो वही है, सुबह वाली विमान परिचारिका. क्या नाम था इस का? हां, राधिका, उसे याद आया.

राधिका आगे जा कर रेत पर बैठ गई. समुद्र की लहरें उस के पैरों को छू रही थीं. जब भी वह त्रिवेंद्रम आती थी, कोवलम बीच जरूर आती थी. समुद्र में सूर्य का विलीन होते देखना उसे बहुत अच्छा लगता था.

राधिका को यह दृश्य आदित्य से बिछड़ने के बाद अपनी जिंदगी के बहुत करीब लगता था. वह सोचने लगी, ‘कब उस ने आदित्य को आखिरी बार देखा था? शायद

2 साल से ज्यादा हो गए. वह अपनी नईनवेली दुलहन के साथ गोवा घूमने जा रहा था.

विमान में उसे देख कर व्यंग्यपूर्वक मुसकरा दिया था.’ ‘‘आप के सुंदर चेहरे पर आंसू शोभा नहीं देते,’’ सुन कर राधिका चौंक पड़ी. सामने एक पहचाना सा चेहरा था. यह तो सुबह की फ्लाइट में था. आंसुओं की धार उस के चेहरे को भिगो रही थी. उस ने आंसू पोंछ लिए.

‘‘लगता है, आंख में रेत का कण चला गया था,’’ वह बोली.

‘‘आप क्या पहली बार त्रिवेंद्रम आए हैं?’’ राधिका ने बात बदलने के लिहाज से पूछा.

‘‘राधिका, मेरा नाम समीर है. मैं साल में 2-3 बार यहां आता हूं.’’

उसी समय पास से मूंगफली वाला गुजरा. समीर ने एक पैकेट मूंगफली खरीद कर राधिका को आधी मूंगफली दीं. राधिका ने बताया कि इतनी लंबी फ्लाइट के बाद उसे एक दिन का विश्राम मिलता है. कल फिर वह उसी फ्लाइट से दिल्ली जाएगी.

मूंगफली खातेखाते वे इधरउधर की बातें करते रहे. अंधेरा होने पर दोनों ने मुसकरा कर एकदूसरे से विदा ली. राधिका को यह बहुत अच्छा लगा कि समीर ने उस के आंसुओं का कारण जानने की कोशिश नहीं की.

समीर ने अपने गैस्टहाउस में लौट कर हमेशा की तरह अपनी डायरी निकाली. उस ने सोचा कि वह आज राधिका से मुलाकात का पूरा विवरण लिखेगा. डायरी खोलते ही उस के अंदर से फोटो गिर पड़ा. फोटो में राधिका किसी लड़के के साथ थी.

‘तो मेरी डायरी राधिका की डायरी से बदल गई है,’ उस ने सोचा. पहले तो उसे

लगा कि उसे डायरी नहीं पढ़नी चाहिए, परंतु उस के मन में राधिका की उदासी का राज जानने की इच्छा थी, इसलिए उस ने पढ़ना शुरू किया.

दिनांक ………..

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मैं आज बहुत खुश हूं. मुझे इंडियन एअरलाइंस में विमान परिचारिका के लिए चुन लिया गया है. मम्मीपापा ने कहा कि उन्हें मुझ पर गर्व है.

दिनांक ………..

आज मुझे आदित्य ने लोदी गार्डन में मिलने के लिए बुलाया. मेरा हाथ पकड़ कर बोला कि वह मुझ से प्यार करता है और शादी करना चाहता है. पता नहीं कितने वर्षों से मैं आदित्य के मुंह से यह वाक्य सुनने का इंतजार कर रही थी. लगता है कि आज रात नींद नहीं आएगी.

दिनांक ………..

मेरी जिंदगी बंध गई है आदित्य और इंडियन एयरलाइंस के बीच में, परंतु मन हमेशा आदित्य में ही लगा रहता है.

दिनांक ………..

आज मैं ने अपनी सहेली शीला को आदित्य से अपने प्यार और शादी के बारे में बताया तो वह चुप रही. लगता है कि उसे मुझ से जलन हुई है.

दिनांक ………..

कई दिनों से आदित्य के स्वभाव में परिवर्तन देख रही हूं. कई बार मिलने का वादा कर के भी वह नहीं आता. लेकिन वादा तोड़ने का उसे कोई पछतावा नहीं होता. लगता है कि उसे कोई परेशानी है, जिसे मैं समझ नहीं पा रही.

दिनांक ………..

शीला ने मुझे कल शाम 6.00 बजे नेहरू पार्क में मिलने के लिए बुलाया है. मैं ने मना करने की कोशिश की, परंतु उस ने दोस्ती का वास्ता दिया है.

दिनांक ………..

आज मेरे सारे सपने चकनाचूर हो गए. शीला मुझे नेहरू पार्क में एक कोने में ले गई और मुझे मेरे प्यार की असलियत बता दी. आदित्य किसी युवती को अपने आलिंगन में ले कर प्यार भरी बातें कर रहा था. हमें देख कर बेशर्मों की तरह मुसकरा दिया.

शीला ने बाद में बताया कि आदित्य ने शीला के साथ भी खेल खेला था. मैं शीला की एहसानमंद हूं कि उस ने मुझे बरबाद होने से बचा लिया.

दिनांक ………..

जिंदगी में एक सूनापन सा भर गया है. दिन तो किसी तरह कट जाता है, लेकिन रात नहीं कटती. लगता है कि नींद आंखों से रूठ चुकी है.

दिनांक ………..

आज मेरी दिल्लीगोवा फ्लाइट पर ड्यूटी थी. अचानक देखा कि आदित्य अपनी नईनवेली दुलहन के साथ बैठा है. मुझे देख कर व्यंग्य से मुसकरा दिया. मन में तो तूफान उठ रहे थे परंतु मैं ने अपने चेहरे पर भाव नहीं आने दिए.

समीर ने पाया कि वह राधिका के दर्द को महसूस कर सकता है, क्योंकि वह भी इसी तरह के दर्द से गुजर रहा है.

राधिका ने अपने होटल में समीर की डायरी बंद कर दी और बालकनी में आ कर बैठ गई. वह सोचने लगी, ‘अब तक मैं पुरुषों को ही बेवफा और धोखेबाज समझती थी. क्या विधि के लिए सुखसुविधाओं की कीमत समीर के सच्चे प्यार से ज्यादा थी?’

दूसरे दिन सुबह समीर औफिस पहुंचा तो उस के निदेशक ने कहा कि उस के साथ

2 और साथी त्रिवेंद्रम से दिल्ली जाएंगे. उसे उन्हीं लोगों के साथ बैठना पड़ा. राधिका से नजरें चार हुईं तो दोनों समझ गए कि वे एकदूसरे की डायरी पढ़ चुके हैं.

वह 1-2 बार बाथरूम के बहाने पीछे गया परंतु राधिका के साथ दूसरी परिचारिकाएं थीं, इसलिए कुछ नहीं कह पाया.

मुंबई में हवाईजहाज रुका तब उस ने राधिका की डायरी निकाली और पीछे की ओर गया. राधिका ने उसे देख लिया. चुपचाप उन्होंने एकदूसरे की डायरी वापस कर दी.

राधिका ने अपनी डायरी खोली. उसमें समीर का संदेश था, ‘मैं आप का दर्द अनुभव कर सकता हूं. मुझे विश्वास है कि आप को जिंदगी में सच्चा प्यार अवश्य मिलेगा. यदि मैं आप के लिए कुछ कर सका तो मुझे खुशी होगी.’

– समीर

समीर अपनी सीट पर आ गया और डायरी पलटने लगा. अंदर राधिका ने लिखा था, ‘जिंदगी में सुख एवं दुख दोनों होते हैं. आशा करती हूं कि आप जिंदगी भर विधि का रोना नहीं रोएंगे.’

– राधिका

जब समीर दिल्ली आने पर विमान से उतरने लगा तो राधिका जैसे दरवाजे पर उस का इंतजार कर रही थी. दोनों की आंखों में चमक थी. इस बात को 2 साल गुजर गए. राधिका और समीर पहले अच्छे दोस्त और फिर पतिपत्नी बन गए. उन के स्मृतिपटल पर दिल्ली त्रिवेंद्रम दिल्ली फ्लाइट हमेशा रहेगी, क्योंकि यहीं से उन्हें अपनी जिंदगी की दिशा मिली.

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अंत: श्रीकांत और सुलभा जब आए पास

Serial Story: अंत (भाग-3)

कभीकभी इंसान को जब कोई विकल्प सामने नजर नहीं आता तो उस का सब्र सारी सीमाएं तोड़ कर ज्वालामुखी के लावे सा रिसने लगता है. ऐसा ही एक दिन श्रीकांत के साथ भी हुआ था. सजीसंवरी, खुशबू से सराबोर हेमा घर से निकल कर कार की तरफ मुड़ रही थी कि श्री उस का मार्ग रोक कर खड़े हो गए थे.

‘कैसी मां हो तुम? किस कुसूर की सजा दे रही हो तुम अपनी बच्ची को? आखिर कब तक घरगृहस्थी और अपनी बेटी के प्रति दायित्वों से मुंह मोड़ कर दूर भागती फिरोगी?’

‘सजा कुसूरवार को दी जाती है श्रीकांत. तुम ने तो कुसूर किया ही नहीं है. मैं तुम्हें सजा कैसे दे सकती हूं? मैं ने तो सुहागरात को ही तुम से स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि महेश को भुलाने में मुझे समय लगेगा. तुम कहो तो मैं यहां रहूं, नहीं तो, जा भी सकती हूं. मेरी तरफ से तुम भी पूर्णरूप से स्वतंत्र हो.’

संवेदनशील श्रीकांत, पत्नी का चेहरा निहारते रह गए थे. ‘क्या अनैतिक संबंधों का पलड़ा, नैतिक संबंधों की मर्यादा से भी भारी हो सकता है?’ यही सोचसोच कर वे घुटते रहे थे.

बेटे का दुख अरुंधतीजी के शरीर को घुन की तरह खाता जा रहा था. हर समय खुद को श्रीकांत का दोषी समझतीं. कमलापतिजी ने तो अपने गर्व और अभिमान के वशीभूत हो कर सुलभा का रिश्ता ठुकरा दिया था किंतु वे तो मां थीं. विरोध कर सकती थीं पति की सोच का. ऐसे मानसम्मान और दहेज का क्या करें, जिस ने उन के बेटे का जीवन ही बरबाद कर दिया. कई बार मन में आता, दुर्गाप्रसादजी से बात करें, शायद वे ही बेटी को समझा सकें किंतु फिर मन में डर उपजता कि स्थिति कहीं और विस्फोटक न हो जाए. बेटे का जीवन उन्हें मझधार में फंसी हुई उस नाव के समान लगता था जिस का कोई किनारा ही न हो. भारीभरकम शरीर जर्जरावस्था में पहुंच गया था. जबान तालू से चिपकती गई. और एक दिन देखते ही देखते उन के प्राण पखेरू उड़ गए.

श्रीकांत अकेले रह गए थे इस संसार में. वह कंधा, जिस पर सिर रख कर वे अपना मन हलका कर लेते थे, वह भी छिन गया था. 13 दिन रह कर श्री वापस लौट आए थे. मां की तरह देवयानी ताई भी उन्हें भरपूर स्नेह देती थीं. उन के साथ बैठ कर दुखसुख बांट लेते थे.

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हेमा ने तो 13 दिन श्वेत वस्त्र धारण कर के, आंसू के 2-4 कतरे बहाए और फिर लौट गई अपनी दिनचर्या में. बाहरी चकाचौंध के सामने उस की नजरों में पति का दुख काफी छोटा था.

एक दिन, एकाकी श्रीकांत छत पर अकेले बैठे चांदनी निहार रहे थे. मां को याद कर के कभी हंसते, कभी रो पड़ते. देवयानी ताई उन्हें ढूंढ़ते हुए छत पर पहुंच गई थीं. श्रीकांत के मौन को तोड़ने के उद्देश्य से उन्होंने पूछा, ‘हेमा कहां गई?’

‘मुझे नहीं मालूम.’

‘बता कर या पूछ कर भी नहीं जाती?’ उन्होंने साधिकार प्रश्न किया था.

‘नहीं,’ उन्होंने ताई का प्रश्न सुन कर छोटा सा उत्तर दिया था.

‘तू क्यों नहीं साथ जाता?’

‘मैं?’ श्रीकांत, फीकी हंसी हंस दिए थे, ‘मैं कैसे चला जाऊं? वह हर जगह अकेले ही जाना पसंद करती है.’

‘अकेले?’ देवयानी ताई ने चौंक कर कहा था, ‘गुड़गांव साइबर सिटी में मेरी बेटी शालिनी का औफिस है. दामाद भी वहीं बैठते हैं. दोनों ने हर दिन कार में एक पुरुष के साथ उसे आतेजाते देखा है.’

जेहन में चुभता सोच का टुकड़ा अंतर्मन के सागर में फेंक कर श्रीकांत निष्प्रयत्न बोले, ‘ताई, मुझे सब मालूम है. बड़ों की सामाजिक मर्यादा और अपनी इकलौती बेटी की खातिर ही सब बरदाश्त कर रहा हूं. लोगों को जरा सी भी भनक पड़ गई कि लड़की की मां बदचलन है तो उस की जिंदगी बरबाद हो सकती है.’

‘कौन है यह पुरुष?’

‘महेश, हेमा का पुराना प्रेमी.’

फिर तो प्याज के छिलकों की तरह श्रीकांत के अवसाद की एकएक तह खुलती गई. उन का दुख उस सड़क की भांति था जो कहीं नहीं पहुंचती. बस, भूलभुलैया की तरह उलझाए रखती है.

‘सब के सामने उसे अपना बड़ा भाई बताती है लेकिन परदे के पीछे कुछ और ही चलता है. बुटीक जाने का तो एक बहाना है. दरअसल, वह महेश की बिखरी गृहस्थी संभालने जाती है.’

‘लेकिन, महेश तो अमेरिका में था.’

देवयानी ताई श्रीकांत की जिंदगी से जुड़ी, किसी भी बात से अनभिज्ञ नहीं थीं. हेमा के रंगढंग भी तो ऐसे ही थे. इस परिवार की घनिष्ठ थीं वे, शुभचिंतक भी थीं.

‘महेश का अपनी पत्नी से तलाक हो गया है. दरअसल, उस की पत्नी को हेमा और महेश के प्रेमसंबंधों के बारे में पता चल गया था. महेश ने लाख झुठलाया, पत्नी को समझाया, लेकिन हेमा और महेश के बीच नियमित रूप से चल रहे फोन कौल और मैसेज इस बात का साक्ष्य थे कि दोनों के बीच अब भी कोई गहरा संबंध है.’

‘ये बातें तुम्हें किस ने बताईं?’

‘स्वयं हेमा ने. पत्नी से तलाक हो जाने के बाद महेश दिनरात शराब पीता है. लिवर में सूजन आ गई है. उसे ले कर हेमा अस्पतालों के चक्कर काटती रहती है. एक डाक्टर से दूसरे डाक्टर, एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल. यही दिनचर्या रह गई है उस की. कुछ कहता हूं तो कहती है, तुम्हारा कोई भाईबहन नहीं है, इसीलिए तुम मेरा दुख नहीं समझ पा रहे हो.’

‘श्रीकांत, वह तो ठीक है, मगर कुछ तो तुम्हें भी करना होगा. घुलने से अच्छा है उसे घुलाओ. महेश और हेमा के बीच दीवार खड़ी करो. अपने जायज हक के लिए लड़ो तो,’ ताई का सब्र जवाब देता जा रहा था.

‘मगर कैसे? हेमा से कहता हूं तो कहती है, तुम मुझे मरा हुआ क्यों नहीं समझते? दिल बेचैनियों से सराबोर हो जाता है. जायज हक पाने के लिए मुझे हेमा से दूर रहना पड़ेगा, जिस का असर मेरी बेटी पर पड़ेगा. बस, इसीलिए विवश हो कर सह रहा हूं. बेटी के ब्याह के बाद ही कुछ करूंगा. फिलहाल तो इस घुटनभरे माहौल में रह कर, खुद को मजबूत बनाना है.’

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वक्त का पहिया अपनी गति से चलता रहा. कशिश, डाक्टर बन गई. अपने कालेज जीवन में ही उस ने जीवनसाथी भी चुन लिया. डा. विक्रम कौल. दद्दा ने सुना तो अपना नादिरशाही फरमान जारी कर दिया था :

‘हम ब्राह्मण हैं, विक्रम कश्मीरी. न विचार मिलेंगे, न रीतिरिवाज.’

‘यह आप ने कैसे कह दिया? एक बार मिल तो लीजिए विक्रम से. मुझे पूरा विश्वास है वह आदर्श दामाद और अच्छा पति साबित होगा,’ कशिश ने दद्दा के स्वर से 1 डिगरी ऊंचे स्वर में बात की तो दद्दा चुप हो गए थे.

श्रीकांत हैरान रह गए थे बेटी के दृढ़ स्वर को सुन कर. सोच रहे थे, कितना अंतर आ गया है समय में. वर्ग, धनसंपदा, जांतिपांति जैसी बातों की उखाड़पछाड़ न कर के युवकयुवतियों का स्वयं जीवनसाथी पसंद करना, मातापिता के हृदय में आए उदार परिवर्तन, ये सब 25 साल पहले क्यों नहीं थे?

शादी की तैयारियां शुरू हो गई थीं. शौपिंग, कैटरिंग, फार्महाउस की बुकिंग, जेवरातों की खरीदफरोख्त. इन सब में कैसे समय बीत जाता, पता ही नहीं चलता था. शगुनों के समय औरतें सुहाग गा रही थीं. बंदनवार सजे हुए थे. पकवानों की खुशबू से पूरा आंगन महक रहा था. 7 बजे वर पक्ष के लोग पहुंचने वाले थे.

‘हेमा कहां है?’ देवयानी ताई ने श्रीकांत से पूछा था.

‘यहीं कहीं होगी.’

‘दिखाई तो नहीं दे रही?’ देवयानी ने बारबार अपना प्रश्न दोहराया तो श्रीकांत के आक्रोश का लावा राख में दबी चिंगारी की तरह धधक उठा था, ‘आप तो जानती हैं उस का होना न होना बराबर है. आज भी सुबह से ही महेश के घर पर है.’

‘आज भी?’

‘हूं, महेश की हालत गंभीर है. कैंसर आखिरी स्टेज पर है.’

‘शाम तक तो आ जाएगी?’ कहीं श्रीकांत की तपस्या अकारथ तो नहीं चली जाएगी, यही सोच कर बारबार वे श्रीकांत से पूछ रही थीं. पर श्रीकांत ने कोई उत्तर नहीं दिया था.

ठीक 7 बजे कश्मीरी सुहाग चिह्न ‘अटेरू’ धारण किए हुए कुछ महिलाएं हौल में प्रविष्ट हुईं. साथ में पुरुष भी थे. सिल्क के कुरतेपजामे के ऊपर गरम शौल और सिर पर टोपी. ऐसा लगा जैसे पूरा कश्मीर ही सिमट आया था उस बडे़ से हौल में. आमनेसामने सोफे पर बैठे दोनों समधियों ने फूलों का गुलदस्ता आपस में बदल कर, कशिश और विक्रम के संबंध को मान्य ठहराते हुए और भी मजबूत बना दिया था. फूलों से सजे झूले पर कशिश और विक्रम ने हीरों से दमकती अंगूठी एकदूसरे की उंगली में पहनाई तो श्रीकांत ने आशीर्वचनों से बेटीदामाद की झोली भर दी थी.  तभी नाभिदर्शना साड़ी, कटे हुए बाल, गहरे कटावदार गले का ब्लाउज पहने इधरउधर डोलती हेमा, न जाने कहां से प्रकट हुई. श्रीकांत ने एक उड़ती हुई सी निगाह उस पर डाली, फिर मेहमानों की आवभगत में जुट गए. हेमा जैसे ही शगुन के किसी सामान को हाथ लगाती, श्रीकांत के दांत भिंच जाते. फिर अभ्यागतों का ध्यान कर के उस सामान को आगे सरका देते.

रात 11 बजे तक गानाबजाना चलता रहा. कशिश और विक्रम की खूबसूरत जोड़ी देख सभी खुश थे. इस समय हेमा के व्यवहार में एक आदर्श पत्नी और गौरवशाली मां का बोध था. श्रीकांत सब के सामने तो हेमा के साथ सहजता से पेश आ रहे थे पर भीड़ छंटते ही उस से दूर छिटक जाते थे. जैसे दोनों के बीच कोई रिश्ता ही न हो. देखने वाले, चाहे उन की तटस्थता का मूल कारण समझ नहीं रहे थे, क्योंकि जिंदगी के उन कड़वे वर्षों के विषय में उन्हें जानकारी ही कहां थी जो उन्होंने हेमा के साथ बिताए थे. स्वयं श्रीकांत ने ही तो अपने मरुस्थलनुमा जीवन पर परदा डाला हुआ था.

कशिश और विक्रम परिणयसूत्र में बंध गए. कशिश की विदाई के बाद श्रीकांत को अकेलापन बुरी तरह कचोटने लगा था, जैसे कुछ भी नहीं रह गया था करने के लिए. स्थानीय ससुराल होने के कारण बेटीदामाद अकसर आते रहते थे. समधी भी सज्जन थे. उन का ध्यान रखते थे. पर दूसरों के आसरे तो जीवन नहीं कटता.

श्रीकांत की दिनचर्या अब गरीबों, दीनदुखियों और बेसहारा लोगों की सेवासुश्रूषा में बीतने लगी. शुरू से ही उन्हें गरीबों की सेवा करने का मन था, अब और भी लगने लगा. एक दिन उन्होंने अपनी सारी जमापूंजी और फ्लैट बेच कर गे्रटर नोएडा में एक प्लौट खरीदा और एक आश्रम के निर्माणकार्य में जुट गए. हेमा भी अब उन का हाथ बंटाने के लिए हर समय तत्पर रहती थी. वह जितना उन से और बेटीदामाद से जुड़ने का प्रयत्न करती, सब उस से दूर छिटक जाते.

अपनी अवहेलना, हेमा बरदाश्त नहीं कर पा रही थी. शुरू से ही अभिमान की भावना उस में कूटकूट कर भरी थी. एक दिन साहस बटोर कर श्रीकांत से बोली, ‘श्रीकांत, मुझे माफ कर दो, थोड़ा सा सहारा दे दो. तुम्हारे आश्रम में मेरा भी योगदान रहेगा,’ हेमा लगभग गिड़गिड़ा रही थी.

‘हेमा, मैं खुद असहाय हूं. फिर किसी का सहारा कैसे बन सकता हूं? सारी उम्र इसी आस में जीता रहा कि कभी तो तुम्हें अपने दायित्वों का बोध होगा. फिर कशिश की खातिर जीता रहा. तुम्हें तो उस की भी परवा नहीं थी. लेकिन मैं उसे राह दिखाता रहा. मैं ने 25 वर्ष का कारावास झेला है. अब अपने दायित्वों से मुक्त हो पाया हूं. इसीलिए बिना किसी व्यवधान के खुली हवा में सांस लेना चाहता हूं,’ श्रीकांत ने दुखी स्वर में कहा.

‘श्रीकांत, मेरी आंखों के आगे गर्दोगुबार ही उड़ रहा है. इस बुढ़ापे के प्रभात में तुम्हें छोड़ कर मेरा कोई सहारा नहीं है,’ उस के स्वर में अनुनय का पुट था.

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हेमा के विषय में श्रीकांत को जानकारी मिलती रहती थी. महेश की मृत्यु हो गई थी. उस का जो कुछ रुपयापैसा था, उस के भाईभतीजे ले गए. हेमा के पास अब कुछ नहीं था. वह पाईपाई के लिए मुहताज हो गई थी.

‘श्रीकांत, तुम मेरे अंधेरे जीवन की चांदनी हो. एक ऐसी चांदनी जो सींखचों में कैद रही. अब तुम मेरे जीवन को अपनी चांदनी में नहला कर मेरे गुनाह माफ कर दो,’ हेमा अब भी श्रीकांत के चरण पकड़े हुए थी.

‘हेमा, संध्या के धूमिल प्रहर में कोई सवेरे का वरदान मांगे तो यह उस की भूल है. मुझे बहकाना बंद करो. आज भी तुम्हें तुम्हारी जरूरत ने मजबूर किया है वरना क्या 25 वर्षों के साथ ने तुम्हें मुझ से न जोड़ा होता? तुम मुझे समझ नहीं सकीं पर मैं तुम्हें समझ चुका हूं. अपने प्यार, विश्वास और रिश्ते के कारण तुम्हें बदलने का प्रयास करता रहा. पर अब नहीं.’

तभी कशिश और विक्रम, कमरे में आए थे. शाम का समय, मरीजों के लिए तय था. एक प्यारभरी दृष्टि कशिश पर उकेर कर हेमा ने कहा, ‘मैं खुशनसीब हूं कि मुझे इतनी प्यारी बेटी मिली.’

सैलाब के क्षणों में जैसे समूची धरती उलटपलट जाती है वैसे ही कशिश के अंतस में भयावह हाहाकार जाग उठा था, बिना एक क्षण गंवाए ही वह तपाक से बोली, ‘मैं जो कुछ भी हूं अपने पापा की बदौलत हूं. उन का त्याग मैं कभी नहीं भूल सकती.’

‘और मैं? मैं तुम्हारी मां हूं, कशिश. मैं ने तुम्हें जन्म दिया है, बेटी.’

‘जन्म देने से ही मां का दायित्व संपूर्ण नहीं हो जाता,’ कशिश के चेहरे पर घृणा के भाव मुखरित हो उठे थे, ‘तुम तो सारी उम्र मामा के इर्दगिर्द ही चक्कर लगाती रहीं. मैं जानती हूं, वह तुम्हारा भाई नहीं, तुम्हारा प्रेमी था, महेश. पापा ने चाहे मेरा इस सच से परिचय नहीं करवाया पर मैं उस से मिल चुकी हूं. वार्ड नंबर 6. कैंसर की बीमारी से ग्रस्त, ऐसे मरीज उस वार्ड में थे जिन के ऊपर, कीमोथेरैपी, रेडियोथेरैपी, दवाएं सभी हार जाती हैं. राउंड लेते समय मैं ने कर्मशिला अस्पताल में कई बार तुम्हें उस का माथा दबाते, उस की पेशानी पर उभर आए स्वेद बिंदुओं को नरम तौलिए से पोंछते देखा है. उस की बेचैनी के साथ तुम्हें बेचैन होते देखा है. उस की घबराहट देख तुम्हें घबराते देखा है. तुम मेरी मां कभी नहीं हो सकतीं.’

‘श्रीकांत?’ सूनी आंखों से, उस ने श्रीकांत को एक बार फिर से पुकारा.

श्रीकांत ने पहले कही बात फिर दोहरा दी थी.

अपने प्रति अपने परिवारजनों की बेरुखी देख कर हेमा कुंठाग्रस्त हो गई. बातबात पर चीखतीचिल्लाती, लड़तीझगड़ती. कोई समझाने के लिए आगे बढ़ता तो आक्रामक हो कर उसे नुकसान पहुंचाने के लिए उद्यत हो उठती. श्रीकांत ने उसे मनोचिकित्सक को दिखाया और उन के कहने पर उसे मैंटल हौस्पिटल में भरती करवा दिया.

जीवन में सुखदुख सब एकसाथ चलते हैं. कुछ लोग अपने दुख, क्रोध या उदासी को मिटाने का प्रयत्न कर के, विक्षिप्तावस्था से खुद को उबार लेते हैं. लेकिन यदि जीने की लालसा ही समाप्त हो जाए तो यही कुंठा और उदासी व्यक्ति के स्वास्थ्य को पूरी तरह तहसनहस कर डालती है और यही हेमा के साथ हुआ था.

श्रीकांत ने पूरे आश्रम की बागडोर अपने हाथ में ले ली थी. व्यस्त दिनचर्या के बावजूद बेटीदामाद भी नियमित रूप से आश्रम आते थे. श्रीकांत का कद बढ़ता जा रहा था. लोग उन्हें मानसम्मान देते. श्रीकांत के आश्रम ‘आनंदधाम’ को कई पुरस्कार मिले. मीडिया में उन की प्रशंसा के कसीदे पढ़े गए. साक्षात्कार लिए गए. हेमा यह सब देखती, सुनती तो और उदास हो जाती. न खाती, न पीती. अपनी बांहों में सिर छिपा कर अंधेरे में गुमसुम सी बैठ जाती.

श्रीकांत को यह सब अच्छा नहीं लगता था, क्योंकि उन्होंने यह सब ख्याति प्राप्त करने के लिए नहीं, मन को शांति और संतुष्टि प्रदान करने के लिए किया था. लेकिन उन की प्रसिद्धि और ख्याति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती ही जा रही थी.

हेमा की दशा दिनपरदिन बिगड़ती जा रही थी. डाक्टरों ने उसे इलैक्ट्रिक शौक देना शुरू कर दिया. इलैक्ट्रिक शौक के समय जब श्रीकांत उस के बंधे हाथ देखते तो परेशान हो उठते.

एक दिन जब वे हेमा से मिलने गए तो वह कमरे के एक कोने में सिमटीसिकुड़ी बैठी थी. उसे अन्य मरीजों के साथ नहीं रखा जाता था क्योंकि वह कभी भी दूसरे मरीजों को आघात पहुंचा सकती थी. डाक्टर तो श्रीकांत को भी हेमा से मिलने के लिए मना करते थे लेकिन श्रीकांत नहीं मानते थे. वैसे भी हेमा उन पर जल्दी अपना आक्रामक व्यवहार प्रदर्शित नहीं करती थी.

उस दिन, जब वे उस के पास गए तो हेमा बांहों में अपना मुंह छिपा कर बैठी थी. उन्हें देख कर वह जोरजोर से रोने लगी, ‘मुझे मेरा घर चाहिए, मेरा घर चाहिए, मेरी बेटी चाहिए,’ फिर रोतेसिसकते धीमे स्वर में बोली, ‘मुझे माफ कर दो, श्रीकांत.’

कितना विचित्र है इंसान का स्वभाव. जो कुछ सरलता से प्राप्त हो जाता है, पाने वाले की नजरों में उस की कद्र नहीं होती. और जो कुछ नहीं मिलता वही उसे अनमोल लगता है. वह उसी की तलाश में हर समय भटकता है. अपने असंतोष और तृष्णा की वजह से जीवन के ऐसे मोड़ पर जा खड़ा होता है जहां वह खुद अपनी नजरों का सामना करने योग्य नहीं रह जाता.

श्रीकांत कुछ देर वहीं बैठे रहे. फिर उठ कर चले आए.

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आज 3 दिन बाद मैंटल हौस्पिटल से डा. सहाय द्वारा यह खबर आई कि हेमा को भयानक दौरा पड़ा और उसी में वह खिड़की से गिर गई. लोग चाहे कुछ भी कहें मगर श्रीकांत समझ गए थे, यह हादसा नहीं था. हेमा ने जानबूझ कर अपनी जान दी थी.

सुबह के 4 बज चुके थे. श्रीकांत नहाधो कर दैनिक क्रियाकलाप से फारिग हुए और गैराज से कार निकाली. पूरा शरीर पसीने से तरबतर हो गया था. सोच रहे थे गणित नहीं है जिंदगी, जिस के हर सूत्र का एक स्पष्ट एवं सिद्ध उत्तर हो. जिंदगी के अपने उसूल होते हैं, अपने कायदे होते हैं. विवाहबंधन में बंधने के बाद हेमा ने अतीत से निकल कर वर्तमान को अपनाया होता तो शायद उस का ऐसा दयनीय अंत न हुआ होता. अतीत तो सब का होता है, अच्छा या बुरा. उन्होंने भी तो अपने अतीत को भुलाया था. हेमा क्यों नहीं भुला पाई? इन्हीं विचारों में उलझते हुए उन्होंने गाड़ी की गति तेज कर दी.

Serial Story: अंत (भाग-2)

सुलभा और श्रीकांत दोनों ही बालिग थे. जिंदगी की छोटीबड़ी बारीकियों से पूरी तरह परिचित. अपना भलाबुरा सोचने की पूरी कूवत थी दोनों में. चाहते तो अपने अधिकारों का प्रयोग कर के कोर्टमैरिज कर सकते थे. लेकिन पिता की रूढि़वादी विचारधारा का विरोध करना तो दूर, अपनी प्रेमिका से मिलने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाए थे. कदम ही नहीं बढ़े थे उस ओर. दद्दा ने बड़ी ही चालाकी से सुलभा और उस के परिवार के हर सदस्य को दृश्यपटल से ही ओझल कर दिया. सुलभा व उस के परिवार के सदस्य कहां हैं, इस की जरा भी भनक, न श्रीकांत को मिली न ही घर वालों को.

रिश्तों की कमी नहीं थी. पर दद्दा को हर रिश्ते में कोई न कोई खामी नजर आ ही जाती थी. आखिर बड़ी ही जद्दोजहद के बाद उन्हें दीवान दुर्गा प्रसाद की इकलौती सुपुत्री हेमा का रिश्ता श्रीकांत के लिए उपयुक्त लगा था. कुछ नहीं कह पाए थे श्रीकांत तब. दोनों पक्षों की मानमर्यादा और प्रतिष्ठा की वेदी पर उन की हर खुशी कुरबान चढ़ गई. हेमा, सजातीय तो थी ही, लाखों का दहेज भी लाई थी. ऐसी धूमधाम की शादी हुई कि लोग देखते ही रह गए.

लेकिन हेमा के बारे में दद्दा का अनुभव गलत साबित हुआ. प्रथम साक्षात्कार के समय सुहागरात की बेला में ही, बिना कोई भूमिका बांधे, उस ने अपने मन की बात कह दी थी :

‘हमारे समाज में अधिकांश विवाह लड़की की सहमति के बिना ही होते हैं. मातापिता अपनी बेटी के लिए जीवनसाथी नहीं ढूंढ़ते. अपने परिवार की मानमर्यादा और प्रतिष्ठा कायम रखने के लिए ऐसे इंसान को खोजते हैं जो जीवनभर उन की बेटी को सुखी रख सके.’

हेमा के शब्दों में ऐसा भाव था जिस ने श्रीकांत के मन को छू लिया था.

‘श्रीकांतजी, मैं किसी और से प्यार करती थी. मैं ने कई बार इस विवाह का विरोध किया पर मां और पापा नहीं माने. आप को बुरा तो लगेगा पर मैं सच कह रही हूं. मैं ने आप को एक नजर देखा भी नहीं था.’

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कल्पना का महल खंडित हो चुका था. श्रीकांत अपनी जगह से न हिले न डुले. यों ही बैठे रहे, जड़वत. उन्हें ऐसा लगा जैसे वे जमीन में धंसते चले जा रहे हैं. ऐसे समय में कोई नवविवाहित पुरुष कह भी क्या सकता था? बस, हेमा के अगले वाक्य की प्रतीक्षा करते रहे थे.

‘महेश को भुलाने की पूरी कोशिश करूंगी पर आप को इस के लिए मुझे कुछ समय देना होगा.’

‘महेश कहां है?’ टूटतेबिखरते स्वर को संयत कर के उन्होंने पूछा था.

‘अमेरिका में है. उस का विवाह हो चुका है.’

अगले दिन अरुंधतीजी थाल में नए वस्त्र और आभूषण ले कर कक्ष में आई थीं जिन्हें शरीर पर धारण कर के हेमा को आगंतुकों से शुभकामनाएं और आशीर्वाद ग्रहण करना था. मां का हाथ पकड़ कर सिसक उठे थे श्रीकांत. हेमा का कहा एकएक शब्द उन्होंने मां के सामने दोहरा दिया था.

वस्तुस्थिति से पूरी तरह परिचित होने के बावजूद अरुंधतीजी न चौंकीं न परेशान ही हुईं. यह जानतेबूझते भी कि जो कुछ हुआ, गलत हुआ है. बेटे को ही समझाती रही थीं, ‘धीरज रखो श्री. समय हर घाव भर देता है. किसी विजातीय निर्धन परिवार की कन्या, हमारे घर की बहू कैसे बन सकती थी?’

‘चाहे उस के लिए अपने बेटे की संपूर्ण खुशियां ही दांव पर क्यों न लग जाएं?’ अत्यंत भावहीन कांपते स्वर में मां से प्रतिप्रश्न किया था उन्होंने.

‘कुछ लड़कियां चंचल प्रकृति की होती हैं. शुक्र कर बेटा, जो उस ने अपने संबंध का सही चित्रण किया है तेरे सामने. अब यह तुझ पर निर्भर करता है कि तू सामदामदंडभेद जैसा कोई भी अस्त्र प्रयोग कर के, अपनी पत्नी का मन कैसे जीतता है? अगर तू ऐसा नहीं कर पाया तो दोष तेरे ही अंदर होगा. कम से कम मैं तो ऐसा ही समझती हूं.’

मां द्वारा हेमा का पक्ष लिया जाना उन्हें बुरा नहीं लगा था, बल्कि इस बात की पुष्टि कर गया था कि जैसे भी हो, उन्हें हालात से समझौता करना ही है. फिर अरुंधतीजी ने बहू की ओर रुख किया था, ‘देखो हेमा, तुम इस घर की बहू हो. इस घर की मानमर्यादा तुम्हें ही बना कर रखनी है. समाज में हमारा मानसम्मान है, इज्जत है. ऐसा कोई भी कदम मत उठाना जिस से हमारे परिवार की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचे.’

सुबह से शाम तक कीमती साडि़यों और आभूषणों से सजीधजी हेमा इधरउधर डोलती थी. हर सभासोसाइटी में, हर समारोह में पति की अर्धांगिनी बनने का फर्ज बखूबी निभाती. लेकिन दिन का उजास जब रात की काली चादर में सिमटने लगता तो करवटें बदलते हुए पूरी रात आंखों ही आंखों में काट देती. पति की अंकशायिनी बनने के बावजूद उस का पूरा शरीर बर्फ की मानिंद ठंडा पड़ा रहता. श्रीकांत कभी गहरी नींद में सो रहे होते तो हेमा के मोबाइल पर बजने वाली घंटियां और मैसेज की टनटनाहट इस बात का स्पष्ट संकेत दे जाती कि देह से हेमा उन के साथ रहती थी पर उस के दिल पर महेश का ही अधिकार था. श्रीकांत देख कर भी अनदेखा कर देते, सुन कर भी अनसुना कर देते. बस, इस आस और उम्मीद में जी रहे थे कि जिस तरह उन्होंने अपने जीवन की किताब से सुलभा के साथ बिताए हुए उन चंद सुनहरे पृष्ठों को फाड़ कर फेंक दिया है वैसे ही, हेमा भी अपने अतीत को भुला कर उन्हें और उन के परिवार को अपना लेगी. लेकिन श्रीकांत का हरसंभव प्रयत्न बेकार ही चला गया.

स्नेह के पात्र की तरह मनुष्य घृणा के पात्र को एक नजर देखता अवश्य है लेकिन हेमा के दिल में पति के लिए न भावनाएं थीं न संवेदनाएं, न आदर न ही सम्मान. ऐशोआराम में पली नकचढ़ी हेमा, मानसम्मान, व्यवहार, शिष्टाचार की परिभाषा से पूरी तरह विमुख थी.

श्रीकांत सोचते थे. विवाह एक ऐसा बंधन है जहां पतिपत्नी एकदूसरे के सुखदुख के साथी होते हैं. लेकिन हेमा ने अपने स्वभाव से ऐसी विषम परिस्थितियां उत्पन्न कर दी थीं कि उन का जीवन दूभर हो गया था. कितनी बार अपने परिजनों के बीच वे दया के पात्र बन चुके थे.

एक तरफ नौकरी की व्यस्तता और दूसरी तरफ हेमा के कारण उत्पन्न तनाव. मातापिता शांति से जीवन गुजार सकें, यही सोच कर श्रीकांत ने दिल्ली के लिए तबादले की अर्जी दे दी थी. यह सुनते ही अरुंधतीजी उदास हो गई थीं. इकलौता बेटा, उसे आंखों से ओझल कैसे होने देतीं? हेमा की कोख में 4 माह का गर्भ भी तो सांस ले रहा था. ऐसे समय में औरत को विशेष देखभाल की जरूरत होती है, यह सोचसोच कर वे परेशान हुई जा रही थीं. नया शहर, नए लोग. कैसे जाने देतीं अकेले? लेकिन श्रीकांत नहीं माने थे.

‘मुझे तो भुगतना ही है. कम से कम आप लोग तो हेमा के प्रहारों से छलनी होने से बच जाओगे.’

नोएडा में 3 कमरों का मकान किराए पर ले लिया था श्रीकांत ने. मकान मालकिन, मकान के अगले हिस्से में रहती थीं. अरुंधतीजी स्वयं आई थीं बेटे की गृहस्थी बसाने के लिए. साथ में हरि काका को भी लाई थीं. मकान मालकिन से पुरानी जानपहचान भी निकल आई थी. सभी उन्हें देवयानी ताई कह कर पुकारते थे. उन्हीं की मदद से उन्होंने बेटे की गृहस्थी की हर चीज मुहैया कर ली थी.

बहू के प्रसव तक वे यहीं रही थीं. अपनी संतान से बढ़ कर उन्होंने हेमा की देखभाल की थी. प्रसव के बाद नन्ही कशिश की मालिश अपने हाथों से करतीं, उसे नहलातींधुलातीं, लोरी दे कर सुलातीं. देवयानी ताई का साथ हमेशा मिला था उन्हें. हेमा उन से बातबात पर उलझती, उन का निरादर करती. मां के समर्पण के सामने श्रीकांत स्वयं को बौना महसूस करते थे. जितने दिन वे रहीं, एक पल भी सुख का नहीं काट सकी थीं. बुरा तो अरुंधतीजी को भी लगता था पर श्रीकांत का मन बनाए रखने के लिए उन्हें समझाया था उन्होंने.

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‘तू दिल छोटा मत कर. एक बार मातृत्व बोध होने पर हेमा खुद ही घरगृहस्थी में रम जाएगी,’ पर वहां भी निराशा ही हाथ लगी. स्वच्छंद होते ही हेमा पर फैलाने लगी. कशिश के मातापिता श्रीकांत ही थे. उस की किलकारियां श्रीकांत ने सुनीं या देवयानी ताई ने. हेमा ने तो कभी उस की भूखप्यास की चिंता नहीं की थी. वैसे भी यह तो भावनाओं की बात है. जिसे सांसारिक रिश्ते निभाने ही न हों वह इन रिश्तों का मोल क्या जाने?

मौजमस्ती, गुलछर्रे उड़ाना ही हेमा के काम्य थे और यही प्राप्ति. एक दिन हेमा ने एक चौंका देने वाला प्रस्ताव श्रीकांत के सामने रखा, ‘मैं कुछ करना चाहती हूं.’

‘तो करो. घर में बहुत काम हैं करने के लिए,’ श्रीकांत खुश हो गए थे. देर से ही सही, हेमा के मन में कर्तव्यबोध की भावना तो जागी.

‘ये सब नहीं, श्रीकांत. ये काम तो घर में बाई और नौकर भी कर सकते हैं.’

‘तो फिर?’ श्रीकांत ने साश्चर्य पूछा था.

‘कोई बिजनैस.’

‘उस के लिए पैसा कहां से आएगा?’ कशिश की शिक्षा और विवाह के लिए भविष्य निधि योजना में रकम जमा करते समय उन के हाथ सहसा रुक गए थे.

‘उस की व्यवस्था हो जाएगी. मेरे कई मित्र हैं जो मेरी सहायता के लिए हर समय तैयार रहते हैं. यदि फिर भी कमी हुई तो अपने गहने गिरवी रख दूंगी.’

‘कौन सा मित्र और कहां का मित्र,’ श्रीकांत बखूबी समझ रहे थे. हेमा ने भी उन से सहमति या अनुमति नहीं मांगी थी, सिर्फ सूचना भर दी थी.

हेमा ने गुड़गांव में एक बुटीक खोल लिया था. श्रीकांत ने विरोध प्रकट किया था उस समय.

‘नोएडा इतना बड़ा क्षेत्र है, बुटीक खोलना ही था तो यहां शुरू करतीं. आनेजाने में समय भी बरबाद न होता. कशिश की देखभाल भी हो जाती.’

‘श्रीकांत, गुड़गांव में जितने सुंदर अवसर मिलेंगे उतने नोएडा में नहीं मिल सकते. अगर पैसा कमाना है तो दौड़भाग तो करनी ही पड़ेगी, मेहनत भी करनी होगी.’

श्रीकांत ने चुप्पी साध ली थी. कुछ कहने का मतलब था घर में तूफान को बुलावा देना. वे शुरू से ही शांतिप्रिय व्यक्ति थे. समझौते और सामंजस्य की भावना कूटकूट कर भरी थी उन में.

2 साल की कशिश वहीं आंगन में ठुमकती रहती. देवयानी ताई ने दोनों घरों के बीच का दरवाजा खोल दिया था. नन्ही सी बच्ची के मुंह में जब ताई निवाला डालतीं तो श्रीकांत क्षुब्ध हो उठते. बुखार में तपती कशिश के माथे पर जब हरि काका को पट्टियां बदलते देखते तो उन का कलेजा मुंह को आ जाता. कशिश बोलना सीखी तो मां के बारे में ढेरों प्रश्न पूछती जिन का श्रीकांत के पास कोई उत्तर न होता. क्या करती है. कहां जाती है. कितना कमाती है और कितना खर्चती है, इन सब बातों की, जरा भी जानकारी होती उन्हें, तब तो कुछ कहते भी. चतुर घाघ सी हेमा ने ऐसी संवेदनशील बातों से उन्हें हमेशा दूर ही रखा था.

क्रमश:

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Serial Story: अंत (भाग-1)

रात को 12 बजे फोन की घंटी बजी. श्रीकांत ने फोन उठाया. डा. सहाय थे. मैंटल हौस्पिटल से बोल रहे थे.

‘‘श्रीकांत, एक बुरी खबर है, हेमा नहीं रहीं.’’

‘‘क्या?’’ कुछ घुटती हुई आवाज उन के गले से निकली, फिर गले में ही दब कर रह गई थी.

‘‘हेमा को अचानक फिर से दौरा पड़ा. जब तक नर्स उन्हें संभाल पाती तब तक वे 5वीं मंजिल की खिड़की से छलांग लगा चुकी थीं.’’

हेमा की लाश को मौर्चरी में रखने के लिए कह कर श्रीकांत ने लंबी सांस भरी और शरीर की थकावट दूर करने के लिए बिस्तर पर लेट गए. उन के निवास से मैंटल हौस्पिटल की दूरी लगभग 50 किलोमीटर थी. कशिश और विक्रम आधा घंटा पहले ही अपने घर के लिए निकल गए थे. ड्राइवर भी वापस चला गया था. रात के समय उन्होंने किसी को सूचित कर के बुलाना ठीक नहीं समझा.

पिछले कई दिनों से वे आश्रम के वार्षिकोत्सव की तैयारी, आश्रमवासियों के साथ मिल कर, कर रहे थे. आज का

पूरा दिन थका देने वाला था. देशीविदेशी मेहमानों की आवभगत, गरीब, बेसहारा महिलाओं द्वारा हस्तनिर्मित कपड़ों की प्रदर्शनी और बिक्री का लेखाजोखा तय करतेकरते पूरा दिन कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला.

कमर सीधी करने के लिए बिस्तर पर लेटे थे लेकिन शरीर की अकड़न जस की तस बनी हुई थी. आज हेमा इस दुनिया को छोड़ कर चली गई. उस की मौत का जिम्मेदार किसे ठहराएं. श्रीकांत खुद को, मातापिता को या हेमा को, जिस ने महेश की पैबंद लगी गृहस्थी को सीतेसीते अपनी मुट्ठी में इस तरह कैद कर लिया कि वे असहाय हो कर सबकुछ देखते ही नहीं रह गए थे, बल्कि उस तरफ से आंखें ही मूंद ली थीं.

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बीती यादों को, चाहे कितना ही सहेज कर भीतर किसी कोने में दफना दिया जाए, वे बाहर निकल ही आती हैं, फिर चाहे वे मीठी हों या कड़वी या बेहद दुखदायी.

तपिश को कम करने के लिए शीतलता की जरूरत तो होती ही है, वरना भीतर के उद्वेग ही मनुष्य को जला डालते हैं. हर जगह गुलाब ही मिलें, ऐसा संभव नहीं है. और अगर मिल भी जाएं तो कांटे भी साथ आएंगे. पर वहां, इतना संतोष तो होता ही है कि गुलाब की पंखडि़यों का स्पर्श, कांटों की चुभन झेलने की शक्ति खुद ही देता है. लेकिन श्रीकांत को तो सिर्फ कांटे ही मिले. न खुशबू मिली न कोमल पंखडि़यां.

एक समय था जब सबकुछ उन की मुट्ठी में था. यह कहना कि उन्होंने अपने मन को कड़ा कर के निर्णय लिया, बहुत नाकाफी है उस मनोस्थिति को समझने के लिए जिस से वे गुजर रहे थे उस समय. ऐसा लगता था जैसे उन्होंने अपने मन को किसी जंजीर से बांध कर आदेश दिया था कि पड़े रहो चुपचाप, भावशून्य हो कर. विद्रोहस्वरूप वे जब भी हिले तो जख्मों पर जंजीर की रगड़ को ही महसूस किया था उन्होंने.

कमलापति के इकलौते सुपुत्र थे श्रीकांत. देहरादून के धनीमानी प्रतिष्ठित लोगों में कमलापति की गिनती होती थी. तबीयत शौकीन और अंदाज रईसी. जिद्दी इतने कि बिना आगापीछा सोचे अपनी बात मनवा कर ही दम लेते. न किसी का हस्तक्षेप बरदाश्त करते न ही किसी की टीकाटिप्पणी, जो कह दिया सो कह दिया. पत्थर की लकीर होता था उन का निर्णय. अपने अभिमान और जिद्दी स्वभाव की वजह से उन्होंने श्रीकांत और सुलभा की प्रेम कहानी की एकएक ईंट गिरा दी थी और रह गया था एक खंडहर. 2 युवा प्रेमियों के अंदर पनप रहे प्रेमरूपी लहलहाते पौधे को समूल उखाड़ फेंकते समय उन्होंने यह भी नहीं सोचा था कि कितनी पीड़ा हुई होगी दोनों को. वे तो बस यही सोच कर खुश थे कि उन की मानमर्यादा और प्रतिष्ठा पर जरा भी आंच नहीं आई.

आंखों के सामने कई बिंब बुलबुलों की तरह बनने और मिटने लगे. इंजीनियरिंग का पहला साल. खड़गपुर आईआईटी जैसे दूरस्थ स्थान का प्रथम इंस्टिट्यूट. वहां दाखिला मिलना साधारण बात नहीं थी. कालेज जीवन में श्रीकांत की भेंट सुलभा से हुई थी. वह देहरादून से इंजीनियरिंग करने आई थी. विद्यार्थी जीवन में दोनों ही पहले व दूसरे नंबर के प्रतियोगी जैसे रहे थे. सुलभा का हंसमुख चेहरा, अनुपम परिहास, रसिकता श्रीकांत को उस के सर्वथा अनूठे व्यक्तित्व की नित नई झांकियां दिखाते रहते थे. होली आती तो वह अबीरगुलाल से परिसर में रहने वाले सभी विद्यार्थियों को आकंठ डुबो देती और दीवाली पर किसी स्थानीय प्रोफैसर के घर जा कर ऐसे स्वादिष्ठ भोजन पकाती कि सभी अतिथि उंगलियां चाटते रह जाते थे. सुलभा का साहचर्य उन्हें भला लगता था. दोनों हर दिन मिलते.

धीरेधीरे दोनों करीब आने लगे. मानसिक रूप से, मित्र रूप से, अंत में प्रणयी रूप से. बरसात की वह खनकती, बरसती भीगीभीगी रातें, मूसलाधार वृष्टि, बिजली का कौंधना, बादलों की टंकार, सभीकुछ आनंददायक लगता था. दीघा बीच के किनारे बैठ कर दोनों प्रेमी कब कितने सपने देखते, कितने नाम रेत पर लिखतेमिटाते रहे, एकदूसरे का हाथ पकड़े. डूबते सूरज को साक्षी मान कर, भविष्य के तानेबाने बुनते रहे, कोई सीमा नहीं थी उन सुखद क्षणों की. श्रीकांत की छुअन मात्र से ही सुलभा सिहर उठती. फोटोग्राफी के शौकीन श्रीकांत न जाने कितने पोज में अपनी प्रेमिका को, कभी अकेले, कभी स्वयं अपनी बांहों में कैद कर के, चित्रों में उतार चुके थे. श्रीकांत को मात्र सूरज ही नहीं, ज्ञान और बुद्धि की पूर्ण अपेक्षा थी अपनी सहधर्मिणी से. सुलभा हर तरह से उन के सपनों की साकार रूप थी.

5 साल का समय कब पंख लगा कर उड़ गया, पता ही न चला.10 की मैरिट लिस्ट में, सुलभा का 7वां और श्रीकांत का 5वां स्थान रहा था. खड़गपुर को अंतिम प्रणाम कर के दोनों ने देहरादून में अपनीअपनी कंपनियों में मैनेजमैंट टे्रनी के पद संभाल लिए थे. सुलभा के परिवार में सबकुछ साधारण था, अति साधारण. मातापिता ने बिटिया का मन और श्रीकांत का अपनी बेटी के प्रति लगाव जान कर बडे़ विश्वास के साथ दद्दा के सामने अपना मन थोड़ीबहुत औपचारिकता के बाद खोल दिया था.

‘कमलापतिजी, आज आप से कुछ मांगने आया हूं. सुलभा और श्रीकांत का एकदूसरे के प्रति लगाव तो आप जानते ही होंगे. आज बड़ी हिम्मत और उम्मीद ले कर आप के पास आया हूं. बच्चों की लाइन एक है. दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं. मैं भले ही आप से हैसियत में कम हूं पर विश्वास कीजिए, शादी में रस्मोरिवाज और आप की खातिरदारी में मैं कोई कमी नहीं रखूंगा.

सुलभा के पिता के इस प्रस्ताव ने तूफान की स्थिति निर्मित कर दी थी. आमतौर पर तूफान की गति भले ही कितनी तीव्र हो लेकिन उस की अवधि बहुत थोड़ी होती है. अल्पावधि में ही तूफान अपने विनाशकारी निशान छोड़ते हुए गुजर जाता है. लेकिन सुलभा के पिता ने जो तूफान खड़ा किया था वह प्रकृतिजन्य तूफान से अलग किस्म का था. न तो इस तूफान के आने की किसी को पूर्व सूचना थी न ही उस की गति में अप्रत्याशित तेजी ही थी. उन के इस प्रस्ताव ने बवंडर मचा दिया था हवेली में.

‘मेरी समझ में यही नहीं आ रहा है सिंह साहब कि आप ने इतने ऊंचे सपने कैसे देख लिए. कम से कम हमारी मानमर्यादा और प्रतिष्ठा का ध्यान तो रखा होता. कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली. एक से एक समृद्ध धनाढ्य परिवार मुझे श्रीकांत के लिए घेर रहे हैं. मैं ने अपने बेटे को यह अधिकार नहीं दिया है कि वह अपना जीवनसाथी स्वयं चुने. ताज्जुब है अपनी बेटी को समझाने के बजाय आप उस का प्रस्ताव ले कर यहां आ गए.’

फिर सुलभा के पिता की उपस्थिति में ही उन्होंने श्रीकांत को भी आड़े हाथों ले लिया था, ‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, इतनी घटिया हरकत करने की? सोच लो, अगर तुम इस से विवाह करोगे तो एक तरफ हम सब होंगे, दूसरी तरफ तुम अकेले. मेरे लिए तुम उसी दिन मर जाओगे जिस दिन इस लड़की का हाथ थामोगे. हम तो यों भी मर गए तुम्हारे लिए, हमारे रहते तुम ने अपने लिए बीवी चुन ली.’

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अजीब सी मनोदशा हो गई थी श्रीकांत की. न किसी से बात करते, न लोगों के बीच उठतेबैठते. जरा सा शोर सुनते तो किसी अंधियारे कोने में जा दुबकते. न रात में नींद आती न दिन में चैन. हाथपांव पसीने से भीगे रहते.

बेटे की ऐसी दशा देख कर अरुंधतीजी घबरा गई थीं. पति को समझाया था, ‘दोनों पढ़ेलिखे हैं, मिल कर कमाएंगे तो दहेज की क्या कीमत रह जाएगी?’ लेकिन दद्दा टस से मस नहीं हुए. प्रेम में चोट खाए हृदय का दुख समय के साथसाथ खुद ही मिट जाएगा, इसी विश्वास के साथ उन्होंने ऊंचे, प्रतिष्ठित और समृद्ध परिवारों में लड़की ढूंढ़नी शुरू कर दी थी.

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REVIEW: रबड़ की तरह खींची गयी कहानी ‘आश्रम चैप्टर 2-डार्क साइड’

रेटिंगः ढाई स्टार

निर्माताः प्रकाश झा प्रोडक्शन

निर्देशकः प्रकाश झा

कलाकारः बॉबी देओल, चंदन राय सान्याल, अदिति सुधीर पोहणकर,  दर्शन कुमार, अध्ययन सुमन.

अवधिः लगभग छह घंटे दो मिनट,  32 से बावन मिनट के नौ एपिसोड

ओटीटी प्लेटफार्मः एमएक्स प्लेअर

प्रकाश झा कुछ माह पहले ही वेब सीरीज ‘आश्रम’ के पहले सीजन का भाग एक लेकर आए थे,  जिसे काफी सराहा गया था और लोगों ने भी काफी पसंद किया था. अब उसी का दूसरा भाग लेकर आए हैं, जिसके नौ एपिसोड हैं, जिन्हें देखने के लिए कुल छह घंटे दो मिनट का समय चाहिए. लेकिन पहले के मुकाबले दूसरा भाग थोड़ा सा कमजोर है.

कहानीः

भाग एक की कहानी जहां खत्म हुई थी, उसके आगे से ही भाग दो यानीकि ‘आश्रमःद डार्क साइड’ की कहानी शुरू होती है. पहले भाग के अंतिम एपीसोड में बाबा काशीपुर वाले ने परमिंदर उर्फ पम्मी(अदिति पेाहणकर) के भाई सत्ती  सिंह(तुशार पांडे) का शुद्धिकरण यानीकि आपरेशन कर उसे नपुंसक बनाकर एक फैक्टरी का कमांडर बनाकर भेज दिया था. इधर बाबाजी ने रात के अंधेरे में शक्ति की पत्नी बबिता(त्रिधा चैधरी) को बुलाकर ड्ग्स मिले लड्डू खिलाकर शारीरिक संबंध बनाए थे. अब दूसरे भाग की कहानी बबिता(त्रिधा चैधरी) से शुरू होती है. वह अपने कमरे में बैठे रो रही है, तभी पम्मी उसके पास आकर रोने की वजह पूछती है, तो वह कह देती है कि शक्ति से उसका झगड़ा हो गया था. फिर रेणु व पम्मी के बीच कुश्ती का दंगल होता है, दोनो एक दूसरे की जानी दुश्मन है. वहीं बाबाजी ने हुकुमसिंह(सचिन श्राफ ) के साथ ही वर्तमान मुख्यमंत्री सुंदरलाल के साथ भी सॉंठ गांठ कर ली है. पॉप गायक टीका सिंह का संगीत सत्संग कार्यक्रम होता है, जिसमें बाबाजी के साथ ही हुकुम सिंह भी मौजूद रहते हैं. इससे मुख्यमंत्री संुदरलाल(अनिल रस्तोगी) को लगता है कि बाबाजी(बॉबी देओल ) तो हुकुमसिंह का साथ दे रहे हैं. वह बाबाजी से मिलने आते हैं. काशीपुर वाले बाबा, भोपा(चंदन रॉय सान्याल) की मौजूदगी में मुख्यमंत्री सुंदरलाल से कहते हैं-‘मेरा इतिहास मत खोदो. अपना पिछवाड़ा बचाओ. हम तो नंगे खड़े हैं. ’’तब मुख्यमंत्री सुंदरलाल,  बाबाजी के सामने हुकुम सिंह जितनी रकम दे रहे हैं, उसकी दो गुनी रकम देने का प्रस्ताव रखते हुए 51 सीट पर जीत का वरदान मांगते हैं. इधर बबिता ने एक योजना बना ली है, वह बाबाजी से अपनी इच्छा से मिलती है, यह बात साध्वी माता (परिणीता सेठ ) को पसंद नही आती. पर बाबाजी, रात के अंधेरे में बबिता से मिलते हैं, इस बार बबिता उनके हाथ से लड्डू खाने से इंकार कर देती है. वह कहती है कि होश में सेक्स करने का मजा ही अलग है. फिर बबिता के साथ बाबाजी शारीरिक संबंध बनाते हैं.

दूसरे एपीसोड में साध्वी माता से आरती का हक छीनकर बाबाजी बबिता को दे देते हैं. टिंका(अध्ययन सुमन ) का संगीत सत्संग कार्यक्रम संपन्न होता है. बबिता, बाबाजी की महानता का बखान करती है. उधर इंस्पेक्टर उजागर सिंह (दर्शन सिंह) और उनका सहायक साधु (विक्रम कोचर)रूप बदलकर ड्ग्स के आदि होने का नाटक कर आश्रम के ‘नशामुक्ति केंद्र’में प्रवेश पा जाते हैं. दूसरे दिन डाक्टर नताशा रूप बदकर आश्रम में प्रवेश कर उजागर को वीडियो कैमरा दे जाती हैं. उधर सोहनी की अदालत में पेशी होनी है, इसलिए पत्रकार अक्की(राजीव सिद्धार्थ) उसे अपने गांव के मकान में छिपा देता है, मगर एक पुलिस इंस्पेक्टर से भोपा को सच पता चल जाता है, तब शामी व मंगल वहां पहुंचकर अक्की की मां व सोहनी की हत्या कर देते हैं. अब बदला लेने के लिए अक्की सरदार का रूप धर कर ईलेक्ट्रीशियन तेजेंद्र बनकर आश्रम में नौकरी पा जाता है. अब उजागर, साधू व अक्की तीनों मिलकर बाबा के खिलाफ सारे सबूत इकट्ठा करने में लग जाते हैं.

एपीसोड तीन में टिंका सिंह का संगीत सत्संग समता नगर में होता है, जहां सुंदरलाल मौजूद रहते हैं. उधर आश्रम में सनोबर के पीछे शामी पड़े हुए हैं. कुश्ती प्रतियोगिता में रेणु को पम्मी हराकर अपने लिए राष्ट्रीय कुश्ती चैंम्पियन में जाने की राह बना लेती है. बाबा काशीपुर वाले वहां मौजूद रहते हैं और उसे आशिर्वाद देने के बाद उसके साथ कुश्ती लड़ते हैं. कुश्ती में पम्मी, बाबाजी को हरा देती है. मगर बाबाजी,  पम्मी की देह पर मोहित हो जाते हैं.

चैथे एपीसोड में पम्मी को बाबाजी के संग कुश्ती के दृश्य याद आते हैं. उधर शक्ति फोन कर पम्मी को बधाई देता है. बाबाजी, पम्मी की तरक्की कर उसे अलग से रूम दिलाते हैं. उधर बाबाजी भी पम्मी संग कुश्ती वाले दृश्य भूल नही पा रहे हैं. टिंका का संगीत सत्त्संग होता है. पर वहां भी बाबाजी, पम्मी की ही याद में खोए नजर आते हैं. अंततः बाबाजी के आदेश पर साध्वी खीर में ड्ग्स मिलाकर पम्मी को खिलाकर बेहोश कर देती है. रात में बेहोश अवस्था में पम्मी को बाबाजी के भवन पर मलंग व भोपा ले जाते हैं. बाबाजी, बेहोश पम्मी संग शारीरिक संबंध बनाने के बाद उसे उसके कमरे में भिजवा देते हैं. सुबह पम्मी की समझ में नही आता कि यह दुश्कर्म उसके साथ किसने किया. टिंका के संगीत सत्संग बाबाजी के साथ हुकुम सिंह मौजूद रहते हैं, मगर मुख्यमंत्री जी दिलावर के संग मिलकर ऐसी हरकत करते हैं कि संगीत का कार्यक्रम बीच में रूक जाता है. भोपा बताता है कि यह सारा खेल दिलावर का है, तो बाबाजी कहते हैं कि ‘दिलावर तो प्यादा है. राजनीति तो वजीर खेलते हैं.

पांचवे एपीसोड में उजागर के सामने कविता रहस्य उजागर करती है कि बाबा मनसुख ने समाधि ली, तब बाबा निराला को गद्दी नसीब हुई थी. यह भी बात सामने आती है कि सनोबर, ईश्वरनाथ की बेटी है. पंत नगर के संगीत सत्संग में हुकुम नारायण व सुंदरलाल दोनो आपस में टकराते हैं. उजागर ने चाल चली और गुप्त खजाने से कई अहम सबूत जमा किए. पर अक्की उर्फ तेजेंद्र के हाथों शामी की हत्या हो गयी. उधर फिर बेहोश पम्मी के साथ बाबाजी दुश्कर्म करते हैं.

छठे एपीसोड में भोपा, शामी के हत्यारे की तलाश सख्ती से शुरू करते हैं, पर बाबा उसे समझाते है कि  इससे भक्तों में डर व दहशत का माहौल हो जाएगा, इसलिए शामी की मौत को आत्महत्या घोषित कर दो. आश्रम से निकलकर उजागर सिंह व साधु एक गुप्त स्थान पर नताशा से मिलकर सारे सबूतों की जांच पड़ताल करते हैं, तो पता चलता है कि आश्रम की जमीन के मालिक तो ईश्वरनाथ है, जिन्हे पुलिस रिकार्ड में मृत बताया जा चुका है. उजागर व साधु , ईश्वरनाथ का पता लगाते हैं, जो कि भारत व नेपाल सीमा पर बाबा के डर से छिपे हुए हैं. चुनाव प्रचार शुरू हो जाते हैं. पम्मी को रात में अपने साथ दुश्कर्म करने वाले का धुंधला चेहरा नजर आता है. कविता उसे सलाह देती है कि वह आश्रम से दूर चली जाए, परपम्मी को बाबाजी पर भरोसा है.

सातवें एपीसोड में पम्मी फिर से कुश्ती लड़ने का निर्णय लेती है. उधर नताशा व उजागर, बाबा के खिलाफ सारे सबूत एसपी करण ढांडा को सौंप देते हैं. इधर इस बार ड्ग्स मिली खीर पम्मी नही खाती है, पर बेहोश व नींद होने का नाटक करती है और पम्मी को सच पता ल जाता है कि जिसे वह भगवान मान रही थी, वही उसके साथ दुश्कर्म कर रहा था. पम्मी व बाबा के बीच लंबी बहस होती है. पम्मी धमकी देकर वहां से निकलती है. पर आश्रम से बाहर नही जा पाती. उसे कैद कर दिया जाता है. इधर एसपी ढांडा, बाबाजी की फाइल मुख्यमंत्री को सौंपकर अपना तबादला दिल्ली करवाने में सफल हो जाते हैं. मुख्यमंत्री व बाबा के बीच टशन बढ़ जाती है. भोपा, पम्मी के पिता का एक्सीडेंट करवाकर उन्हे आश्रम के अस्पताल में भर्ती करवाते हैं.

आठवें एपिसोड में दिलावर सिंह, सुंदरलाल का साथ छोड़कर अपने भाई हुकुम सिंह के पास वापस आ जाते हैं. गुस्से में मुख्यमंत्री सुंदरलाल,  बाबा के आश्रम में विजलेंस का छापा डलवाते हैं, तब बाबा और सुंदरलाल में समझौता हो जाता है. फिर बाबाजी व सुंदरलाल की मौजूदगी में टिंका सिंह का संगीत सत्संग होता है. उधर भोपा कह देते हैं कि पम्मी के पिता का इलाज बंद कर दें.

नौंवे एपीसोड में पम्मी एक कठोर निर्णय लेती है. आश्रम में कुछ लोगो की हत्या कर वह वहां से भागने में सफल होती है. पर भोपा व पुलिस तंत्र उसके पीछे है. उधर बाबा ने रातोंरात एक फैसला लिया, जिसके चलते हुकुम सिंह की पार्टी विजेता बन गयी. आरै हुकुम सिंह मुख्यमंत्री बन गए.

लेखन व निर्देशनः

प्रकाश झा फिल्म निर्देशक बनने से पहले सीरियल निर्देशित करते रहे हैं, इसलिए उन्हे बाखूबी पता है कि कहानी को एक ही जगह स्थिर रखकर कैसे उसे रबड़ की तरह खींचा जाए. ‘आश्रम’का पहला भाग जितना बेहतर था, उतना ही खराब यह दूसरा चैप्टर है. कहानी को नौ एपीसोड में छह घंटे से अधिक अवधि तक खींचने में दृश्यों का दोहराव भी है. इस बार बाबा के पास हर दिन संभोग करने और राजनीतिक गेम खेलने के अलावा कोई काम नहीं रहा. कई दृश्य बड़े अजीब से लगते हैं. संगीत सत्संग के नाम पर बहुत ही घटिया प्रस्तुति है और लगभग हर एपीसोड में दोहराव है. ‘आश्रम चैप्टर 2’पर बतौर निर्देशक प्रकाश झा अपनी पकड़ खो चुके हैं. इस बार कमजोर पटकथा के चलते   बाबा ही नहीं बल्कि भोपा, नताशा,  उजागर सिंह व साधू के किरदार भी कमजोर हो गए हैं. सिर्फ वीडियोग्राफर कम पत्रकार अक्की के किरदार को थोड़ा सा विस्तार दिया गया है. कुछ दृश्य तो बड़े अजीबोगरीब हैं.

अभिनयः

अभिनय में हर कलाकार  पहले भाग की आपेक्षा कमतर ही रहा. इस बार टिंका सिंह के किरदार में अध्ययन सुमन काफी निराश करते हैं.

बिग बौस 14: घरवालों के सामने राहुल वैद्य ने ‘प्यार का दर्द है’ एक्ट्रेस को किया शादी के लिए प्रपोज, देखें प्रोमो

टीवी के पौपुलर रियलिटी शो ‘बिग बॉस 14’ में बीते दिन कई हंगामे देखने को मिले. जहां एक तरफ बीबी की अदालत में फराह खान और दो एंकर के चलते शार्दुल पंडित नौमिनेट हुए तो वहीं इमोशनल नौमिनेशन टास्क में रुबीना दिलैक को नौमिनेट होना पड़ा, जिसके चलते बीता एपिसोड पूरा इमोशन्स से भरा नजर आया. लेकिन आज के एपिसोड में प्यार का इजहार देखने को मिलने वाला है. प्यार का इजहार रुबीना अभिनव या एली गोनी, जैस्मीन भसीन नहीं बल्कि राहुल वैद्य करने वाले हैं. आइए आपको बताते हैं क्या होने वाला है खास…

गर्लफ्रेंड को देंगे बर्थडे पर तोहफा

शो के एक प्रोमो की बात करें तो राहुल वैद्य अपनी गर्लफ्रेंड दिशा परमार को प्रपोज करते नजर आ रहे हैं. बिग बॉस के घर के अंदर दिशा के जन्मदिन पर राहुल उन्हें प्रपोज करने वाले हैं. दरअसल, व्हाइट टी-शर्ट पर राहुल ने लिपस्टिक से दिशा लिखकर ‘मुझसे शादी करोगी’ का सवाल करते दिख रहे हैं. हालांकि बिग बौस में आने से पहले दोनों एक दूसरे को सिर्फ अच्छा दोस्त कहते नजर आए हैं.

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नेशनल टीवी पर करेंगे प्रपोज

वायरल प्रोमो की मानें तो राहुल कहते हैं कि मैं आज से पहले कभी इतना नर्वस नहीं हुआ, जितना आज हो रहा हूं. दिशा मैं और तुम पिछले दो साल से एक-दूसरे को जानते हैं. क्या तुम मुझसे शादी करोगी? मैं तुम्हारे जवाब का इंतजार करूंगा. राहुल इस वीडियो में घुटनों पर बैठकर हाथ में अंगूठी लेकर दिशा को प्रपोज करते दिख रहे हैं. हालांकि इस वीडियो पर अभी कोई रिएक्शन सामने नही आया है. हालांकि दोनों के फैंस इस बात से बेहद खुश हैं.

 

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बता दें कि सीरियल ‘प्यार का दर्द है’ एक्ट्रेस दिशा परमार पिछले साल से राहुल के साथ रिलेशनशिप में थीं हालांकि, दोनों ने अपने रिलेशनशिप को दोस्ती का नाम देते हुए इन खबरों को अफवाह बताया था.

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