क्या फेस सीरम में ऐंटीएजिंग गुण होते हैं, जो त्वचा को जवां बनाते हैं?

सवाल-

मैं फेस सीरम के बारे में जानना चाहती हूं. क्या फेस सीरम में ऐंटीएजिंग गुण होते हैं, जो त्वचा को जवां बनाते हैं?

जवाब-

जी हां, सीरम से आप की तरह की परेशानियां कम होती हैं और चेहरा खूबसूरत बनता है. फेस सीरम कोलोजन के उत्पादन बढ़ाता है और त्वचा को जवां और स्वस्थ बनाता है. यह त्वचा पर होने वाले पिंपल्स, घावों, दागों, मुंहासों और इन्फैक्शन को हील करता है. फेस सीरम त्वचा में गहराई तक जा कर उस की समस्याओं को कम करता है. आंखों के नीचे आए डार्कसर्कल्स को कम करने में भी फेस सीरम लाभकारी रहता है. इस से चेहरे की हलके हाथों से मालिश करें.

स्किन सीएम में ऐंटीऔक्सीडैंट्स होते हैं जोकि बाहरी तत्त्वों से त्वचा की रक्षा  हैं. ये त्वचा की नई कोशिकाएं बनाने में भी मदद करते हैं, जिस त्वचा की रंगत निखरती है.

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साल भर हम अपनी स्किन का ख्याल रखने के लिए नए-नए प्रौडक्ट्स का इस्तेमाल करते हैं. वहीं मार्केट में भी डेली नए-नए प्रौडक्ट्स आ गए हैं, जो हमारी स्किन के लिए बेहद फायदेमंद है. उन्हीं प्रौडक्ट्स में से एक है फेस सीरम. अगर आप रोजाना मेकअप करती हैं तो फेस सीरम आपके लिए बहुत जरूरी होता है. सीरम एक ऐसा प्रौडक्ट है, जो स्किन की केयर करने में मदद करता है. सीरम से कईं प्रौब्लम्स से छुटकारा मिल जाता है, जैसे उम्र के साथ स्किन पर दिखने वाली बारीक रेखाएं, झुर्रियां, पिगमेंटेशन, स्किन की डलनेस और पोर्स का बड़ा हो जाना.

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Short Story: आज मैं रिटायर हो रही हूं

कुनकुनी धूप जाड़े में तन को कितना चैन देती है यह कड़कड़ाती ठंड के बाद धूप में बैठने पर ही पता लगता है. मेरी चचिया सास ने अचार, मसाले सब धूप में रख दिए थे. खाट बिछा कर अपने सिरहाने पर तकियों का अंबार भी लगा दिया था. चादरें, कंबल और क्याक्या.

‘‘चाची, लगता है आज सारी की सारी धूप आप ही समेट ले जाएंगी. पूरा घर ही बाहर बिछा दिया है आप ने.’’

‘‘और नहीं तो क्या. हर कपड़े से कैसी गंध आ रही है. सब गीलागीला सा लग रहा है. बहू से कहा सब बाहर बिछा दे. अंदर भी अच्छे से सफाई करवा ले. दरवाजे, खिड़कियां सब खुलवा दिए हैं. एक बार तो ताजी हवा सारे घर से निकल जाए.’’

‘‘सुबह से मुग्गल धूप जलने की तेज सुगंध आ रही है. मैं सोच रही थी कि पड़ोस के गुप्ताजी के घर आज किसी का जन्मदिन होगा सो हवन करवा रहे हैं, तो आप ने ही हवन सामग्री जलाई होगी घर में.’’

‘‘कल तेरे चाचा भी कह रहे थे कि घर में हर चीज से महक आ रही है. सोचा, आज हर कोने में सामग्री जला ही दूं.’’

सलाइयां लिए स्वेटर बुनने में मस्त हो गईं चाची. उन की उंगलियां जिस तेजी से सलाइयों के साथ चलती हैं हमारा सारा खानदान हैरान रह जाता है. बड़ी फुर्ती से चाची हर काम करती हैं. रिश्तेदारी में किसी के भी घर पर बच्चा पैदा होने की खबर हो तो बच्चे का स्वेटर चाची पहले ही बुन कर रख देती हैं. दूध के पैसे देने जाती हैं तो स्वेटर साथ होता है. 60-65 के आसपास तो उन की उम्र होगी ही फिर भी लगता नहीं है कभी थक जाती होंगी. उन की बहू और मैं हमउम्र हैं और हमारे बीच में अच्छी दोस्ती भी है. हम कई बार थक जाती हैं और उन्हें देख कर अपनेआप पर शरम आ जाती है कि क्या कहेगा कोई. जवान बैठी है और बूढ़ी हड्डियां घिसट रही हैं.

‘‘चाची, आप बैठ जाओ न, हम कर तो रही हैं. हो जाएगा न… जरा चैन तो लेने दो.’’

‘‘चैन क्या होता है बेटा. आधा काम कर के भी कभी चैन होता है. बस, जरा सा ही तो रह गया है. बस, हो गया समझो.’’

‘‘मां, तुम कोई भी काम ‘मिशन’ ले कर मत किया करो. तुम तो बस, करो या मरो के सिद्धांत पर काम करती हो. कल दिन नहीं चढ़ेगा क्या? बाकी काम कल हो जाएगा न… या सारा आज ही कर के सोना है.’’

‘‘कल किस ने देखा है बेटा, कल आए न आए. कल का नाम काल…’’

‘‘कैसी मनहूस बातें करती हो मां. चलो, छोड़ो, भाभी और निशा कर लेंगी.’’

विजय भैया, चाची को खींच कर ले जाते हैं तब कहीं उन के हाथ से काम छूटता है.

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आज 15-20 दिन के बाद धूप निकली है और चाची सारा का सारा घर ही बाहर ले आई हैं. निशा के माथे के बल आज कुछ गहरे लग रहे हैं. सर्दी की वजह से उस की बांह में कुछ दिन से काफी दर्द चल रहा था. घर का जरूरी काम भी वह मुश्किल से कर पा रही थी. ऊपर से बच्चों के टैस्ट भी चल रहे हैं. सारी की सारी रसोई और सारे के सारे बिस्तर बाहर ले आने की भला क्या जरूरत थी. धूप कल भी तो निकलेगी. लोहड़ी के बाद तो वैसे भी धूप ही धूप है. सुबह तो सामान महरी से बाहर रखवा लिया, शाम को समेटते समय निशा की शामत आएगी. दुखती बांह से निशा रात का खाना बनाएगी या भारी रजाइयां और गद्दे उठाएगी. कैसे होगा उस से? कुछ कह नहीं पाएगी सास को और गुस्सा निकालेंगी बच्चों पर या विजय भैया पर.

मैं जानती हूं. आज चाची के घर परेशानी होग  बिस्तर तो परसों भी सूख जाते या 4 दिन बाद भी. टैस्ट को कैसे रोका जाएगा. और वही हुआ भी.

दूसरे दिन निशा धूप में कंबल ले कर लेटी थी और चाची उखड़ीउखड़ी थीं.

‘‘क्या हुआ चाची, निशा की बांह का दर्द कम नहीं हुआ क्या?’’

‘‘कल 4 बिस्तर जो उठाने पड़े. बस, हो गई तबीयत खराब.’’

‘‘चाची, उस की बांह में तो पहले से ही दर्द था. आप ने इतना झमेला डाला ही क्यों था. आप समझती क्यों नहीं हैं. ज्यादा से ज्यादा आप अपना तकियारजाई ले आतीं. जोशजोश में आप निशा पर कितना काम लाद देती हैं. मैं ने आप से पहले भी कहा था कि अब घर के काम में ज्यादा दिलचस्पी लेना आप छोड़ दीजिए. अपनी बहू को उस के हिसाब से सब करने दीजिए पर मानती ही नहीं हैं आप.’’

मैं ने कान में धीरे से फुसफुसा कर कहा. चाची ने गौर से मुझे देखा. मैं दावा कर सकती हूं कि चाची के साथ भी मेरा मित्रवत व्यवहार चलता है. दकियानूस नहीं हैं चाची और न ही अक्खड़. समझाओ तो समझ भी जाती हैं.

‘‘अब उस की बांह तो और दुख गई न. आप ने इतना बखेड़ा कर डाला. एक बिस्तर सुखा लेतीं. आज भी तो धूप है न… कुछ आज भी हो जाता.’’

सुनती रहीं चाची फिर धीरे से उठ कर नीचे चली गईं. वापस आईं तो उन के हाथ में लहसुन जला गरमगरम तेल था.

‘‘निशा, उठ बेटा.’’

चाची ने धीरे से निशा का कंबल खींचा. उठ कर बैठ गई निशा. उन्होंने उस की बांह में कस कर मालिश कर दी.

‘‘तुम ने बताया क्यों नहीं, बांह में दर्द है. मैं बादामसौंठ का काढ़ा बना देती. अभी नीचे गैस पर चढ़ा कर आई हूं. रमिया को समझा आई हूं कि उसे कब उतारना है…अभी गरमागरम पिएगी तो रात तक दर्द गायब हो जाएगा.’’

मैं कनखियों से देखती रही. निशा के माथे के बल धीरेधीरे कम होने लगे थे.

‘‘रात को खिचड़ी बना लेंगे,’’ चाची बोलीं, ‘‘तेरे पापा को भी अच्छी लगती है.’’

सासबहू की मनुहार मुझे बड़ी प्यारी लग रही थी. निशा चुपचाप काढ़ा पी रही थी. मेरी सास नहीं हैं और इन दोनों को देख कर अकसर मुझे यह प्रश्न सताता है कि अगर मेरी सास होतीं तो क्या चाची जैसी होतीं या किसी और तरह की. मुझे याद है, मेरे बेटे के जन्म के समय मुझे खुद पता नहीं कि चाची क्याक्या पिला दिया करती थीं. मैं मना करती तो चपत सिर पर सवार रहती.

‘‘खबरदार, फालतू बात मत करना.’’

‘‘चाची, इतना क्यों खिलाती हो?’’

‘मेरी सास कहा करती थीं कि बहू  और घोड़े को खिलाना कभी व्यर्थ नहीं जाता. तू चुपचाप खा ले जो भी मैं खिलाऊं.’’

‘‘घोड़ा और बहू एक कैसे हो गए, चाची?’’

‘‘घोड़ा ताकतवर होगा तो ज्यादा बोझ उठाएगा और बहू ताकतवर होगी तो बीमार कम पड़ेगी. बीमार कम पड़ेगी तो बेटे की कमाई, दवा पर कम लगेगी और कामों में ज्यादा. सेहतमंद बहू के बच्चे सेहतमंद होंगे और घर की बुनियाद मजबूत होगी. सेहतमंद बहू ज्यादा काम करेगी तो घर के ही चार पैसे बचेंगे न. अरे, बहू को खिलाने के फायदे ही फायदे हैं.’’

‘‘आप की सास आप को बहुत खिलाती थीं क्या?’’

‘‘तेरी सास नानुकर करती रहती थी. खानेपीने में नकारी…इसीलिए तो बीमार रहती थी. मुझे देख मैं अपनी सास का कहना मानती थी इसीलिए आज भी भागभाग कर सब काम कर लेती हूं.’’ चाची अपनी सास को बहुत याद करती हैं. अकसर मैं ने इस रिश्ते को बदनाम ही पाया है. सास भी कभी प्यार कर सकती है यह सदा एक प्रश्न ही रहा है. पराए खून और पराई संतान पर किसी को प्यार कम ही आता है. मुझे याद है जब निशा इस घर में आई थी तब मेरी शादी को 2 साल हो चुके थे. चाचाचाची अपनी दोनों बेटियां ब्याह कर अकेले रह रहे थे. विजय की नौकरी तब बाहर थी. हमारी कोठी बहुत बड़ी है. आमनेसामने 2 घर हैं, बीच में बड़ा सा आंगन. पूरे घर पर एक ही बड़ी सी छत.

मेरी भी 2 ननदें ब्याही हुई हैं और पापा की छत्रछाया में मैं और मेरे पति बड़े ही स्नेह से रहते हैं. चाचीचाचा का बड़ा सहारा है. विजय भैया शादी के बाद 2 साल तो बाहर ही रहे अब इसी शहर में उन की बदली हो गई है.  निशा के आने तक चाची ही मेरी सास थीं. मेरी दोनों ननदें बड़ी हैं. इस घर में क्या माहौल है क्या नहीं मुझे क्या पता था. मन में एक डर था कि बिना औरत का घर है, पता नहीं कैसेकैसे सब संभाल पाऊंगी, ननदें ब्याही हुई थीं…उन का भी अधिकार मित्रवत न हो कर शुरू में रोबदार था. चाची कम दखल देती थीं और लड़कियों को अपनी करने देती थीं. कुछ दिन ऐसा चला था फिर एक दिन पापा ने ही मुझे समझाया था :

‘‘मुझे अपने घर में लड़कियों का ज्यादा दखल पसंद नहीं है. इसलिए तुम जराजरा बात के लिए उन का मुंह मत देखा करो. तुम्हारी चाची हैं न. कोई भी समस्या हो, कुछ भी कहनासुनना हो तो उन से पूछा करो. लड़कियां अपने घर में हैं… जो चाहें सो करें, मेरे घर में तुम हो, मेरी छोटी भाभी हैं… एक तरह से वे भी मेरी बहू जैसी ही हैं. फिर क्यों कोई बाहर वाली हमारे घर के लिए कोई भी निर्णय ले.’’

मेरा हाथ पकड़ कर पापा चाची की रसोई में ले गए थे. सिर पर पल्ला खींच चाची ने अपने हाथ का काम रोक लिया था.

‘‘बीना, आज से इसे तुम्हें सौंपता हूं. तुम्हीं इस की मां भी हो और सास भी.’’

बरसों बीत गए हैं. मुझे वे क्षण आज भी याद हैं. चाची ने गुलाबी रंग की सफेद किनारी वाली साड़ी पहन रखी थी. माथे पर बड़ी सी सिंदूरी बिंदिया. तब चाची पूरियां तल रही थीं. आटा छिटक कर परात से बाहर जा गिरा था, हमारे घरों में ऐसा मानते हैं कि आटा परात से बाहर जा छिटके तो कोई मेहमान आता है. विजय भैया और चाचा तब नाश्ता कर रहे थे.

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‘‘मां, तुम्हारा आटा छिटका…देखो आज कौन आता है.’’

ये दोनों बातें साथसाथ हुई थीं. रसोई में मेरा प्रवेश करना और चाची का आटा छिटकना.

‘‘जी सदके… मेहमान क्यों आज तो मेरी बहूरानी प्रीति आई है…आजा मेरी बच्ची…’’

अकसर ऐसा होता है न कभीकभी जब हम स्वयं नहीं जानते कि हम कितने उदास हो चुके हैं. मायका दूर था…घर में करने वाली मैं अकेली औरत, पापा और मेरे पति अजय के जाने के बाद घर में अकेली घुटती रहती थी या जराजरा बात के लिए अपनी ननदों को फोन करती. शायद पापा को उस दिन पहली बार मेरी समस्या का खयाल आया था.

…और चाची ने बांहें फैला कर जो उस पल छाती से लगाया तो वह स्नेहिल स्पर्श मैं आज तक भूली नहीं हूं. रोने लगी थी मैं. शायद उस पल की मेरी उदासी इतनी प्रभावी थी कि सब भीगभीग से गए थे. पापा आंखें पोंछ चले गए थे. विजय भैया ने मेरा सिर थपक दिया था.

‘‘हम हैं न भाभी. रोइए मत. चुप हो जाइए.’’

वह दिन और आज का दिन, चाची से ऐसा प्यार मिला कि अपना मायका ही भूल गई मैं. चाची मेरी सखी भी बन गईं और मेरी मां भी.

मेरे दोनों बेटों के जन्म पर चाची ने ही मुझे संभाला. विजय भैया की शादी में चाची ने हर जिम्मेदारी मुझ पर डाल रखी थी. निशा के गहनों में, चूडि़यों में, गले के हारों में, कपड़ों में सूटसाडि़यों से शालस्वेटरों तक चाची ने मेरी ही राय को प्राथमिकता दी थी. निशा भी हिलीमिली सी लगी. आते ही मुझ से  प्यार संजो लिया उस ने भी. लगभग 8 साल हो गए हैं निशा की शादी को और 10 साल मुझे इस घर में आए. बहुत अच्छी निभ रही है हम में. एक उचित दूरी और संतुलन रख कर हमारा रिश्ता बड़ा अच्छा चल रहा है. निशा के माथे पर जरा सा बल पड़े तो समझ जाती हूं मैं.

‘‘चाची, आप थोड़ाथोड़ा अपना हाथ खींचना शुरू कर दीजिए न. उसे उसी के तरीके से करने दीजिए, अब आप की जिम्मेदारी खत्म हो चुकी है. जरा देखिए, हम कैसेकैसे सब करती हैं, कहीं कोई परेशानी आएगी तो पूछ लेंगे न.’’

‘‘मैं बेकार हो जाऊंगी तब. हाथपैर ही न चलाए तो आज ही जंग लग जाएगा.’’

‘‘जंग कैसे लगेगा. सुबह उठ कर चाचाजी के साथ सैर करने जाइए, रसोई के अंदर जरा कम जाइए. बाहर से मदद कर दीजिए, सब्जी काट दीजिए, सलाद काट दीजिए. सूखे कपड़े तह कर के अलगअलग रख दीजिए. कितने ही हलकेफुलके काम हैं…जराजरा अपने अधिकार कम करना शुरू कीजिए.’’

‘‘तुझे क्या लगता है कि मैं अनावश्यक अधिकार जमाती हूं? निशा ने कुछ कहा है क्या?’’

‘‘नहीं चाची, उस ने क्या कहना है. मैं ही समझा रही हूं आप को. अब आप चिंता मुक्त हो कर जीना शुरू कीजिए, सुबहसुबह उठ कर नहाधो कर रसोई में जाने की अब आप को क्या जरूरत है, फिर आप के जोड़ भी दुखते हैं.

‘‘ऐसा कौन बरात का खाना बनाना होता है. 10 बजे तक सारे काम निबटा देना आप की कोई जरूरत तो नहीं है न. 7 बजे उठ कर भी नाश्ता बन सकता है. दोपहर का तो 2 बजे चाहिए, इतनी हायतौबा सुबहसुबह किसलिए. अपने वक्त किया न आप ने, अब निशा का वक्त शुरू हुआ है तो करने दीजिए उसे. रिटायर हो जाइए अब आप.’’

चाची चुपचाप सुनती रहीं. मुझे डर भी लग रहा था कि कहीं यह मेरी अनावश्यक सुलह ही प्रमाणित न हो जाए. कहीं निशा यही न समझ ले कि मैं ही सासबहू में दुख पैदा कर रही हूं. सच तो यह है कि सास कभीकभी बिना वजह अपनी हड्डियां तोड़ती रहती हैं, जो बेटे की गृहस्थी में योगदान नहीं बनता बल्कि एक अनचाहा बोझ बन जाता है.

‘‘अब मां ने कर ही दिया है तो ठीक है, यों ही सही.’’

‘‘मैं ने तो सोचा था आज कोफ्ते बनाऊंगी… मां ने सुबहसुबह उठ कर दाल चढ़ा दी.’’

‘‘हम सोच रहे थे कि इस इतवार नई पिक्चर देखने जाएंगे पर मां ने मामीजी को खाने पर बुला लिया.’’

‘‘जोड़ों का दर्द है मां को तो सुबहसुबह क्यों उठ जाती हैं. सारा दिन खाली ही तो रहते हैं हम. इतनी मारधाड़ भी किसलिए.’’

निशा का स्वर कई बार कानों मेें पड़ जाता है जिस कारण मुझे चिंता भी होने लगती है. चाची का ममत्व अनचाहा न बन जाए. वे तो सदा से इसी तरह करती आ रही हैं न. सो आज भी करती हैं. उन्हें लगता है कि वे बहू की सहायता कर रही हैं जबकि बहू को सहायता चाहिए ही नहीं. अकसर यह भी देखने में आता है कि बहू नकारा होती नहीं है बस, सास के अनुचित सेवादान से नकारी हो जाती है. जाहिर सी बात है, जिस तरह एक म्यान में 2 तलवारें नहीं समा सकतीं उसी तरह 2 मंझे हुए कलाकार, 2 बहुत समझदार लोग, 2 कमाल के रसोइए एक ही साथ काम नहीं कर सकते, क्योंकि दोनों ही ‘परफैक्ट’ हैं, दोनों ही संपूर्ण हैं.

रात भर मुझे नींद नहीं आई, पता नहीं सुबह क्या दृश्य मिलेगा, सुबह 6 बजे उठी तो देखा सामने चाची की रसोई में अंधेरा था. कहीं चाची बीमार तो नहीं हो गईं. वे तो 6 बजे तक नहाधो कर सब्जियां भी चढ़ा चुकी होती हैं. कहीं मेरी ही कोई बात उन्हें बुरी तो नहीं लग गई जो कुछ मन पर ले लिया हो.  लपक कर चाची का दरवाजा खटखटा दिया. ‘‘आ जाओ बेटी, दरवाजा खुला है,’’ चाचा का स्वर था.

भीतर जा कर देखा तो नया ही रंग नजर आया. चाची रजाई में बैठी आराम से अखबार पढ़ रही थीं. मेज पर चाय के खाली कप पड़े थे. मेरी तरफ देखा चाची ने. एक प्यारी सी हंसी आ गई उन के होंठों पर.

‘‘चाची, आप ठीक तो हैं न,’’ मैं ने पूछा.

‘‘यह तो मैं भी पूछ रहा हूं. कह रही है कि आज से मैं रिटायर हो रही हूं. रात को ही इस ने निशा को समझा दिया कि सुबह से वही रसोई में जाएगी मैं नहीं… पता नहीं इसे एकाएक क्या सूझा है… मैं समझाता रहा…मेरी तो सुनी ही नहीं… आज अचानक से इस में इतना बड़ा परिवर्तन…’’

चाचा अपनी ऐनक उतार स्नानागार में चले गए और मैं मंत्रमुग्ध सी चाची का एक और प्यारा सा रूप देखती रही.

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बच्चों को सिखाएं रिश्तों की अहमियत

ईंटपत्थरों की दीवारों में जब रिश्तों का एहसास पनपता है, तभी वह घर कहलाता है. हमारे रिश्तों की बुनियाद हमारे उन अपनों से होती है, जिन से हमारा खून का रिश्ता होता है. दादादादी, ताऊ, बूआ, मौसी, मामा इत्यादि कितने ही ऐसे रिश्ते हैं, जो हमारे संबंधों के आधार हैं, जिन का साथ हमें जिंदगी भर निभाना होता है. लेकिन आज की भागतीदौड़ती जिंदगी में हम रिश्तों की अहमियत भूलते जा रहे हैं. व्यस्त जीवनशैली और समय की कमी के कारण हम अपने नातेरिश्तेदारों से दूर होते जा रहे हैं, जिस का असर हमारे बच्चों के कोमल मन पर भी पड़ रहा है. तभी तो आज के बच्चों को रिश्तों की अहमियत के बारे में बिलकुल पता नहीं होता.

क्यों अनजान हैं बच्चे रिश्तों से

हम पैदा होते ही रिश्तों की डोर में बंध जाते हैं और तभी से रिश्तों का सिलसिला भी शुरू हो जाता है. लेकिन हम पीछे मुड़ कर देखें तो कितने ऐसे रिश्ते हैं, जिन्हें हम निभा पाते हैं? इस बदलते परिवेश ने हमें अपनों से दूर कर दिया है. जब हम खुद ही अपने रिश्तों से दूर हो गए हैं, तो भला हमारे बच्चे क्या समझेंगे कि रिश्ता क्या होता है. आज के बच्चों में न तो रिश्तों के बारे में जानकारी की उत्सुकता है और न ही उन्हें निभाने में.

मनोरोग चिकित्सकों का कहना है कि बच्चों में संस्कार की नींव मातापिता द्वारा ही रखी जाती है. अगर मातापिता ही रिश्तों को तवज्जो नहीं देते हैं, तो बच्चे तो इन से अनजान रहेंगे ही.

आजकल के बच्चे क्यों अनजान हैं रिश्तों के महत्त्व से? क्या हैं इस की खास वजहें? आइए, इस पर एक नजर डालें.

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न्यूक्लियर फैमिली

आज समाज में न्यूक्लियर फैमिली यानी एकल परिवार का चलन है. पहले जहां बच्चों का पालनपोषण संयुक्त परिवार में होता था, वहीं आज के बच्चों का परिवार एकल है. पहले जब बच्चों का पालनपोषण संयुक्त परिवार में होता था, तब वे दादादादी, ताऊ, चाचा, बूआ इत्यादि के साथ रहते थे और रिश्तों को समझते थे.

इस के विपरीत आज के बच्चे अकेले रहते हैं. अकेले रहने के कारण वे अपने खून के रिश्तों को भी नहीं समझते और जब बच्चा खून के रिश्तों को समझेगा ही नहीं, तो उस में रिश्तों के प्रति सम्मान और अपनापन कहां से आएगा? अपनी परंपराओं का ज्ञान तो उन्हें न के बराबर होता है, क्योंकि आज के अभिभावकों के पास इतना समय ही नहीं है कि वे अपनी सभ्यता और संस्कृति से उन्हें अवगत करा सकें. याद करें वे दिन, जब हम पिता के भाई को चाचा और पिता की बहन को बूआ कहते थे. परंतु आज के बच्चों के पास इन सब के लिए बस अंकल और आंटी का संबोधन ही काफी है, क्योंकि हम ने उन्हें यही सिखाया है.

समय की कमी

आज हमारी जीवनशैली इतनी व्यस्त हो गई है कि व्यक्ति के पास खुद के लिए समय नहीं है. ऐसे में रिश्ते निभाने और बच्चों को उन की अहमियत बताने का समय किस के पास है? आज इंसान समय के साथ होड़ लगाने के लिए अंधाधुंध भाग रहा है. इसी रफ्तार में इंसान अपने रिश्तों को अनदेखा करता जा रहा है. इसी अनदेखी की प्रवृत्ति के कारण उस के नजदीकी रिश्ते धीरेधीरे खत्म होते जा रहे हैं.

हमारे पास इतना समय नहीं है कि हम अपने रिश्तेदारों से मिल सकें. ऐसे में हमारे बच्चे रिश्तों की अहमियत क्या समझेंगे. उन्हें तो लगता है, बस यही हमारा परिवार है. बच्चों का कोमल मन तो वही सीखता है, जो वे देखते हैं.

रिश्तों में दिखावा

आज जमाना दिखावे का हो गया है. इसी दिखावे के कारण सारे रिश्ते, परंपराएं एक तरफ हो गई हैं. आज का लाइफस्टाइल हाईटैक हो गया है. हर चीज में दिखावा व कंपीटिशन हावी है, जैसे अगर फलां रिश्तेदार के पास गाड़ी है और हमारे पास नहीं, तो कैसे भी कर के हमारी कोशिश होती है कि हम गाड़ी खरीद लें ताकि हम भी गाड़ी वाले कहलवाएं. अभिभावकों के ऐसे आचरण का प्रभाव बच्चों पर काफी पड़ता है. वे भी बड़ों की नकल करते हैं और दूसरे बच्चों से कंपीटिशन करते हैं. जहां रिश्तों में कंपीटिशन और दिखावा आ जाता है वहां रिश्तों की स्वाभाविकता खत्म हो जाती है.

अपने में सिमटते रिश्ते

आज मैं और मेरे की भावना इतनी प्रबल हो गई है कि व्यक्ति को सिर्फ अपनी पत्नी और बच्चे ही दिखाई देते हैं. दूसरे रिश्तों को वे उन के बाद ही स्थान देते हैं. अपने मांबाप के द्वारा अपनेपन की इस भावना को बच्चे ऐसे अपने मन में बैठा लेते हैं कि उन्हें केवल खुद से मतलब होता है.

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यही बात वे मातापिता पर भी लागू करते हैं और सिर्फ अपनी जरूरतों के पूरी होने तक ही उन्हें उन की जरूरत होती है. मांबाप के द्वारा बच्चा यही सीखता है कि यही उस का परिवार है बाकी लोग दूसरे लोग हैं. ‘मैं’ और ‘अपने’ की इसी भावना ने आज रिश्तेनातों में और भी खटास पैदा कर दी है. ऐसे में बच्चे रिश्तों की अहमियत को क्या समझेंगे. हम जैसा बोएंगे वैसा ही तो काटेंगे.

आज जमाना कितना भी आगे बढ़ जाए, हम रिश्तों के महत्त्व को नकार नहीं सकते. आधुनिकता की अंधी दौड़ में हमें रिश्तों के महत्त्व को बिलकुल नहीं भूलना चाहिए. हमें अपने बच्चों को पारिवारिक परंपराओं और रिश्तों के महत्त्व को जरूर समझाना चाहिए. बच्चों को यह बताना बहुत जरूरी है कि चाचाचाची, दादादादी, नानानानी से उन का क्या रिश्ता है.

क्षितिज के उस पार

‘‘मां, क्या इस शनिवार भी पिताजी नहीं आएंगे?’’  अंजू ने मुझ से तीसरी बार पूछा था. मैं खुद समझ नहीं पा रही थी. अभय का न तो पिछले कुछ दिनों से फोन ही आया था, न कोई खबर. सोचने लगी कि क्या होता जा रहा है उन्हें. पहले तो कितने नियमित थे. हर शनिवार को हम लोग उन के पास चले जाते थे 2 दिन के लिए और अगले शनिवार को उन्हें आना होता था. सालों से यह क्रम चला आ रहा था, पर पिछले 2 महीनों से उन का आना हो ही नहीं पाया था. बच्चियों के इम्तिहान करीब थे, इसलिए उन्हें भी ले जाना संभव नहीं था. मैं ही 2 बार हो आई थी, पर क्या अभय को बच्चियों की भी याद नहीं आती होगी?

‘‘मां, पिताजी तो इस बार मेरे जन्मदिन पर भी आना भूल गए…’’ मंजू ने रोंआसे स्वर में कहा था.

‘‘हां…और क्या…इस बार वह आएंगे न तो मैं उन से कुट्टी कर लूंगी…मैं नहीं जाऊंगी कहीं भी उन की कार में घूमने…’’

‘‘अरे, पहले पिताजी आएं तो सही…’’ अंजू ने मंजू को चिढ़ाते हुए कहा था.

‘‘ऐसा करते हैं, शाम तक उन का इंतजार कर लेते हैं, नहीं तो फिर मैं ही सुबह की बस से चली जाऊंगी…आया रह लेगी तुम लोगों के पास…क्या पता, उन की तबीयत ही ठीक न हो या फिर दादीजी बीमार हों,’’ मैं आशंकाओं में घिरती जा रही थी. रात को ठीक से नींद भी नहीं आ पाई थी. मन देर तक उधेड़बुन में ही लगा रहा. अगर बीमार थे या कोई और बात थी तो खबर तो भेज ही सकते थे. यों अहमदाबाद से आबूरोड इतना अधिक दूर भी तो नहीं है. फिर इतने सालों से आतेजाते तो यह दूरी और भी कम लगने लगी है.

इन गरमियों में हमारी शादी को पूरे 9 वर्ष हो जाएंगे. मुझे आज भी याद है वह घटना जब अभय से मेरी गृहस्थी से संबंधित बातचीत हुई थी. शुरूशुरू में जब मुझे अहमदाबाद में नौकरी मिली थी तब मैं कितना घबराई थी, ‘तुम राजस्थान में हो…हम लोग एक जगह तबादला भी नहीं करवा पाएंगे.’

‘तो क्या हुआ…मैं हर हफ्ते आता रहूंगा,’ अभय ने समझाया था.

समय अपनी गति से गुजरता रहा.

अभय को अभी 2 छोटी बहनों की शादी करनी थी. पिता का देहांत हो चुका था. बैंक में मात्र क्लर्क की ही तो नौकरी थी उन की. मेरा अचानक ही कालेज में व्याख्याता पद पर चयन हो गया था. यह अभय की ही हिम्मत और प्रेरणा थी कि मैं यहां अलग फ्लैट ले कर बच्चियों के साथ रह पाई थी. छोटी ननद भी तब मेरे साथ ही आ गई थी. यहीं से कोई कोर्स करना चाहती थी. अलग रहते हुए भी मुझे कभी लगा नहीं था कि मैं अभय से दूर हूं. वह अकसर दफ्तर से कालेज फोन कर लेते. शनिवार, इतवार को हम लोग मिल ही लेते थे.

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घर की आर्थिक दशा भी धीरेधीरे सुधरने लगी थी. बड़ी ननद का धूमधाम से विवाह कर दिया था. फिर पिछले साल छोटी भी ब्याह कर ससुराल चली गई. कुछ समय बाद अभय की भी पदोन्नति हो गई थी. महीने पहले ही आबूरोड में बैंक मैनेजर हो कर आए थे. नई कार ले ली थी, पर अब एक नई जिद शुरू हो गई थी. वे अकसर कहते, ‘रितु, तुम अब नौकरी छोड़ दो…मुझे अब स्थायी घर चाहिए. यह भागदौड़ मुझ से नहीं होती है और फिर मां का भी स्वास्थ्य अब ठीक नहीं रहता है…’

मैं हैरान हो गई थी, ‘5 साल हो गए, इतनी अच्छी नौकरी है, फिर जब बच्चियां छोटी थीं, इतनी परेशानियां थीं तब तो मैं नौकरी करती रही. अब तो मुझ में आत्म- विश्वास आ गया है. बच्चियां भी स्कूल जाती हैं. इतनी जानपहचान यहां हो गई है कि कोई परेशानी नहीं. अब भला नौकरी छोड़ने में क्या तुक है?’

पिछली बार यही सब जब मैं ने कहा था तो अभय झल्ला कर बोले थे, ‘तुम समझती क्यों नहीं हो, रितु. तब जरूरत थी, मुझे बहनों की शादी करनी थी, पैसा नहीं था, पर अब तो ऐसी कोई बात नहीं है.’

‘क्यों, अंजू, मंजू के विवाह नहीं करने हैं?’ मैं ने भी तुनक कर जवाब दिया था.

‘उन के लिए मेरी तनख्वाह काफी है,’ उन्होंने एक ही वाक्य कहा था.

मैं फिर कुछ नहीं बोली थी, पर अनुभव कर रही थी कि पिछले कुछ दिनों से यही मुद्दा हम लोगों के आपसी तनाव का कारण बना हुआ था. कितनी ही बहस कर लो, हल तो कुछ निकलने वाला नहीं था. पर अब मैं नौकरी कैसे छोड़ दूं? इतने साल तक एक कामकाजी महिला रहने के बाद अब नितांत घरेलू बन कर रह जाना शायद मेरे लिए संभव भी नहीं था.

ठीक है, मां बीमार सी रहती थीं पर नौकर भी तो था. फिर हम लोग भी आतेजाते ही रहते थे. अहमदाबाद में बच्चियां अच्छे स्कूल में पढ़ रही थीं.

‘साल दो साल बाद तुम्हारा तबादला भी तो होता रहता है,’ मैं ने तनिक गुस्से में कहा था.

‘जिन के तबादले होते रहते हैं उन के बच्चे क्या पढ़ते नहीं?’ अभय ने चिढ़ कर कहा था. मैं क्या कहती? सोचने लगी कि इन्हें मेरी नौकरी से इतनी चिढ़ क्यों होने लगी है? कारण मेरी समझ से परे था. यों भी हम लोग कुछ समय के लिए ही मिल पाते थे. इसलिए जब भी मिलते, समय आनंद से ही गुजरता था.

शुरू में बातों ही बातों में एक दिन उन्होंने कहा था, ‘रितु, मेरा तो अब मन करता है कि तुम लोग सदा मेरे साथ ही रहो. अब और अलग रहना मुझे अच्छा नहीं लगता है.’ मैं तो तब भी नहीं समझी थी कि यह सब अभय गंभीरता से कह रहे हैं. बाद में जब उन्होंने यही सब बारबार कहना शुरू कर दिया, तब मैं चौंकी थी, ‘आखिर तुम अब क्यों नहीं चाहते कि मैं नौकरी करूं? अचानक तुम्हें क्या हो गया है?’ ‘रितु, मैं ने बहुत सोच कर देखा है, इस तरह तो हम हमेशा ही अलगअलग रहेंगे. फिर अब जब आर्थिक स्थिति भी पहले से बेहतर है, तब क्यों अनावश्यक रूप से यह तनाव झेला जाए? बारबार आना मुश्किल है, मेरा पद भी जिम्मेदारी का है, इसलिए छुट्टियां भी नहीं मिल पातीं.’

मुझे अब यह प्रसंग अरुचिकर लगने लगा था, इसलिए मैं ने उन्हें कोई जवाब ही नहीं दिया था.

रात को नींद देर से ही आई थी. सुबह फिर मैं ने आया को बुला कर सारा काम समझा दिया था. बच्चियों की पढ़ाई आवश्यक थी. इसलिए उन्हें साथ ले जाने का इरादा नहीं था.

बस का 4-5 घंटे का सफर ही तो था, पर रात को सो न पाने की वजह से बस में ही झपकी लग गई थी. जब एक जगह बस रुकी और सब लोग चायनाश्ते के लिए उतरे, तभी ध्यान आया कि सुबह मैं ने ठीक से नाश्ता नहीं किया था, पर अभी भी कुछ खाने की इच्छा नहीं थी. बस, एक प्याला चाय मंगा कर पी. मन फिर आशंकित होने लगा था कि पता नहीं, अभय क्यों नहीं आ पाए.

आबूरोड बस स्टैंड से घर पास ही था. रिकशा कर के जब घर पहुंची तो अभय घर से निकल ही रहे थे.

‘‘रितु, तुम?’’ अचानक मुझे इस तरह आया देख शायद वह चौंके थे.

‘‘इतने दिनों से आए क्यों नहीं?’’ मैं ने अटैची रख कर सीधे प्रश्न दाग दिया था.

‘‘अरे, छुट्टी ही नहीं मिली… आवश्यक मीटिंग आ गई थी. आज भी दोपहर को कुछ लोग आ रहे हैं, इसीलिए तो तुम्हें फोन करने जा रहा था. चलो, अंदर तो चलो.’’

अटैची उठा कर अभय भीतर आ गए थे.

घर इस बार साफसुथरा और सजासंवरा लग रहा था, नहीं तो यहां पहुंचते ही मेरा पहला काम होता था सबकुछ व्यवस्थित करना. मांजी भी अब कुछ स्वस्थ लगी थीं.

‘‘शालू…चाय बनाना अच्छी सी…’’ अभय ने कुछ जोर से कहा था.

मैं सहसा चौंकी थी.

‘‘अरे, शालिनी है न…पड़ोस ही में तो रहती है. वही आ जाती है मां को संभालने…बीच में तो ये काफी बीमार हो गई थीं…मुझे दिन भर बाहर रहना पड़ता है, शालिनी ने ही इन्हें संभाला था.’’

तभी मुझे कुछ ध्यान आया. पिछली बार आई थी, तब मांजी ने ही कहा था, ‘पड़ोस में रामबाबू हैं न…रिटायर्ड हैडमास्टर साहब, उन की बेटी यहीं स्कूल में पढ़ाती है. बापबेटी ही हैं. बड़ी समझदार बिटिया है. मां नहीं है उस की, दिन में 2 बार पूछ जाती है.’

‘‘दीदी, चाय लीजिए,’’ शालिनी चाय के साथ बिस्कुटनमकीन भी ले आई थी. दुबलीपतली, सुंदर, घरेलू सी लड़की लगी थी. फिर वह बोली, ‘‘आप जल्दी से नहाधो लीजिए. मैं ने खाना बना लिया है. आप तो थकी होंगी, मैं अभी गरमागरम फुलके सेंक देती हूं.’’

मैं कुछ कह न पाई थी. मुझे लगा कि अपने ही घर में जैसे मेहमान बन कर आई हूं. मैं सोचने लगी कि यह शालिनी घर की इतनी जिम्मेदार सदस्या कब से हो गई?

अटैची से कपड़े निकाल कर मैं नहाने चली गई थी.

‘‘वह बहादुर कहां गया है?’’ बाथरूम से निकल कर मैं ने पूछा.

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‘‘छुट्टी पर है. आजकल तो शालू सुबहशाम खाना बना देती है, इसलिए घर चल रहा है. वाह, कोफ्ते…और मटर पुलाव…वाह, शालूजी, दिल खुश कर दिया आप ने,’’ अभय चटखारे ले कर खा रहे थे.

मेरे मन में कुछ चुभा था. रसोई का काम छोड़े मुझे काफी समय हो गया था. नौकरी और फिर घर पर बच्चों की संभाल के कारण आया ही सब कर लेती थी. यहां पर बहादुर था ही.

‘रितु, तुम्हारे हाथ का खाना खाए अरसा हो गया. कहीं खाना पकाना भूल तो नहीं गईं,’ अभय कभी कह भी देते थे.

‘यह भी कोई भूलने की चीज है. फिर ये लोग ठीक ही बना लेते हैं.’

‘पर गृहिणी की तो बात ही और होती है.’

मैं समझ जाती थी कि अभय चाहते हैं कि मैं खुद उन के लिए कुछ बनाऊं पर फिर बात आईगई हो जाती.

अचानक अभय बोले, ‘‘तुम्हें पता है, शालू बहुत अच्छा सितार बजाती है?’’

अभय ने कहा तो मुझे लगा कि जैसे मैं यहां शालू के ही बारे में सबकुछ जानने आई हूं. मन खिन्न हो उठा था. खाना खातेखाते ही फिर अभय ने कहा, ‘‘शालू, तुम्हें बाजार जाना था न. दफ्तर जाते समय तुम्हें छोड़ता जाऊंगा.’’

‘‘ठीक है,’’ शालिनी भी मुसकराई थी.

मैं सोच रही थी कि इतने दिनों बाद मैं यहां आई हूं, अभय को न तो मेरे बारे में कुछ जानने की इच्छा है, न घर के बारे में और न ही बच्चियों के बारे में. बस, एक ‘शालू…शालू’ की रट लगा रखी थी.

‘‘अच्छा, मैं चलूंगा.’’

‘‘ठीक है,’’ मैं ने अंदर से ही कह दिया था. तभी खिड़की से देखा, शालिनी कार में अगली सीट पर अभय के बिलकुल पास बैठी थी. पता नहीं अभय ने क्या कहा था, उस के मंद स्वर में हंसने की आवाज यहां तक आई थी.

मन हुआ कि अभी इसी क्षण लौट जाऊं. सोचने लगी कि आखिर मैं यहां आई ही क्यों थी?

मांजी खाना खा कर शायद सो गई थीं. मेज पर रखा अखबार उठाया, पर मन पढ़ने में नहीं लगा था.

अभय शायद 2 घंटे बाद लौटे थे. मैं ने उठ कर चाय बनाई.

‘‘रितु, रात का खाना हमारा शालू के यहां है,’’ अभय ने कहा था.

‘‘शालू…शालू…शालू…मैं क्या खाना भी नहीं बना सकती. समझ में नहीं आता कि तुम लोग क्यों उस के इतने गुलाम बने हुए हो. बहादुर छुट्टी पर क्या गया, लगता है, उस छोकरी ने इस घर पर आधिपत्य ही जमा लिया है.’’

‘‘रितु, क्या हो गया है तुम्हें? इस तरह तो तुम कभी नहीं बोलती थीं. घर का कितना ध्यान रखती है शालिनी…तुम्हें कुछ पता भी है? तुम्हें तो अपनी नौकरी… अपने कैरियर के सिवा…’’

‘‘हां, सारी अच्छाइयां उसी में हैं…मैं अभद्र हूं…बहुत बुरी हूं…कह लो जो कुछ कहना है…मैं क्या जानती नहीं कि उस का जादू तुम्हारे सिर पर चढ़ कर बोल रहा है. उसे घुमानेफिराने के लिए समय है तुम्हारे पास…और बीवी, जो इतने दिनों बाद मिली है, उस के पास दो घड़ी बैठ कर बात भी नहीं कर सकते.’’

‘‘वह बात करने लायक भी तो हो…’’ अभय भी चीखे थे…और चाय का प्याला परे सरका दिया था. फिर मेरी ओर देखते हुए बोले, ‘‘क्यों बात का बतंगड़ बनाने पर तुली हो?’’

‘‘बतंगड़ मैं बना रही हूं कि तुम? क्या देख नहीं रही कि जब से आई हूं तब से शालू…शालू की रट लगा रखी है…यह सब तो मेरे सामने हो रहा है…पता नहीं पीठ पीछे क्याक्या गुल…’’

‘‘रितु…’’ अभय का एक जोर का तमाचा मेरे गाल पर पड़ा. मैं सचमुच अवाक् थी. अभय कभी मुझ पर हाथ भी उठा सकते हैं, मैं तो ऐसा सपने में भी नहीं सोच सकती थी. मेरा इतना अपमान…वह भी इस लड़की की खातिर…

तकिए में मुंह छिपा कर मैं सिसक पड़ी थी…अभय चुपचाप बाहर चले गए थे. शायद उन्होंने महरी से कहा था कि शालिनी के यहां खाने के लिए मना कर दे. मांजी तो शाम को खाना खाती नहीं थीं. उन्हें दूध दे दिया था. मैं सोच रही थी कि अभय कुछ तो कहेंगे, माफी मांगेंगे फिर मैं रसोई में जा कर कुछ बना दूंगी…पर वे तो बैठक में बैठे सिगरेट पर सिगरेट पीते जा रहे थे. मन फिर जल उठा कि आखिर ऐसा क्या कर दिया मैं ने. शायद इस तरह बिना किसी पूर्व सूचना के आ कर उन के कार्यक्रम को चौपट कर दिया था, उसी का इतना गम होगा. गुस्से में आ कर मैं ने फिर अटैची में कपड़े ठूंस लिए थे.

‘‘मैं जा रही हूं…अहमदाबाद…’’ मैं ने ठंडे स्वर में कहा था.

‘‘अभी…इस समय?’’

‘‘हां…अभी बस मिल जाएगी…’’

‘‘कल चली जाना, अभी तो रात काफी हो गई है.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है,’’ मैं भी जिद पर आमादा थी. शायद अभय के थप्पड़ की कसक अब तक गालों पर थी.

‘‘ठीक है, मैं छोड़ आता हूं…’’

अभय चुपचाप कार निकालने चले गए थे. मैं और भी जलभुन गई थी कि कितने आतुर हैं मुझे वापस छोड़ आने को. मैं चुप थी…और अभय भी चुपचाप गाड़ी चला रहे थे. मेरी आंखें छलछला आईं कि कभी यह रास्ता कितना खुशनुमा हुआ करता था.

‘‘रितु, मैं ने बहुत सोचविचार कर देख लिया है…तुम्हें अब यह नौकरी छोड़नी पड़ेगी…और कोई चारा नहीं है…’’ अभय ने जैसे एक हुक्म सा सुना डाला था.

‘‘क्यों, क्या कोई लौंडीबांदी हूं मैं आप की, कि आप ने फरमान दे दिया, नौकरी करो तो मैं नौकरी करने लगूं…आप कहें नौकरी छोड़ दो…तो मैं नौकरी छोड़ दूं?’’

‘‘हां, यही समझ लो…क्योंकि और किसी तरह से तो तुम समझना ही नहीं चाहती हो और ध्यान से सुन लो, अगर तुम अब अपनी जिद पर अड़ी रहीं तो मैं भी मजबूर हो कर…’’

‘‘क्या? क्या करोगे मजबूर हो कर, मुझे तलाक दे दोगे? दूसरी शादी कर लोगे उस…अपनी चहेती…क्या नाम है, उस छोकरी का…शालू के साथ?’’ गुस्से में मेरा स्वर कांपने लगा था.

‘‘बंद करो यह बकवास…’’ अभय का कंपकंपाता बदन निढाल सा हो गया था. गाड़ी डगमगाई थी. मैं कुछ समझ नहीं पाई थी. सामने से एक ट्रक आता दिखा था और गाड़ी काबू से बाहर थी.

‘‘अभय…’’ मैं ने चीख कर अभय को खींचा था और तभी एक जोरदार धमाका हुआ था. गाड़ी किसी बड़े से पत्थर से टकराई थी.

‘‘क्या हुआ, क्या हुआ?’’ 2-3 साइकिल सवार उतर कर पूछने लगे थे. ट्रक ड्राइवर भी आ गया था, ‘‘बाबूजी, क्या मरने का इरादा है? भला ऐसे गाड़ी चलाई जाती है…मैं ट्रक न रोक पाता तो… वह तो अच्छा हुआ कि गाड़ी पत्थर से ही टकरा कर रुक गई, मामूली ही नुकसान हुआ है.’’

मैं ने अचेत से पड़े अभय को संभालना चाहा था, डर के मारे दिल अभी तक धड़क रहा था.

‘‘अभय, तुम ठीक तो हो न…?’’ मेरा स्वर भीगने लगा था.

‘‘यह तो अच्छा हुआ बहनजी…आप ने इन्हें खींच लिया वरना स्टियरिंग पेट में घुस जाता तो…’’ ट्रक ड्राइवर कह रहा था.

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अभय ने मेरी तरफ देखा तो मैं ने आंखें झुका ली थीं.

‘‘बाबूजी, इस समय गाड़ी चलाना ठीक नहीं है, आगे की पुलिया भी टूटी हुई है. आप पास के डाकबंगले में रुक जाइए, सुबह जाना ठीक होगा…गाड़ी की मरम्मत भी हो जाएगी,’’ ड्राइवर ने राय दी.

‘‘हां…हां, यही ठीक है…’’ मैं सचमुच अब तक डरी हुई थी.

डाकबंगला पास ही था. मैं तो निढाल सी बाहर बरामदे में पड़ी कुरसी पर ही बैठ गई थी. अभय शायद चौकीदार से कमरा खोलने के लिए कह रहे थे.

‘‘बाबूजी, खाना खाना चाहें तो अभी पास के ढाबे से मिल जाएगा…फिर तो वह भी बंद हो जाएगा,’’ चौकीदार ने कहा था.

‘‘रितु, तुम अंदर कमरे में बैठो, मैं खाना ले कर आता हूं,’’ कहते हुए अभय बाहर चले गए थे.

साधारण सा ही कमरा था. एक पलंग बिछा था. कुछ सोच कर मैं ने बैग से चादर, कंबल निकाल कर बिछा दिए थे. फिर मुंह धो कर गाउन पहन लिया. अभय को बड़ी देर हो गई थी खाना लाने में. सोचने लगी कि पल भर में ही क्या हो जाता है.

एकाएक मेरा ध्यान भंग हुआ था. अभय शायद खाना ले कर लौट आए थे.

अभय ने साथ आए लड़के से प्लेटें मेज पर रखने को कहा था.

खाना खाने के बाद अभय ने एक के बाद दूसरी और फिर तीसरी सिगरेट सुलगानी चाही थी.

‘‘बहुत सिगरेट पीने लगे हो…’’ मैं ने धीरे से उन के हाथ से लाइटर ले लिया था और पास ही बैठ गई थी, ‘‘इतनी सिगरेट क्यों पीने लगे हो?’’

‘‘दूर रहोगी तो कुछ तो करूंगा ही…’’ पहली बार अभय का स्वर मुझे स्वाभाविक लगा था, ‘‘थक गया हूं रितु, ठीक है तुम नौकरी मत छोड़ना, मैं ही समय से पहले सेवानिवृत्त हो जाऊंगा, बस, अब तो खुश हो,’’ उन्होंने और सहज होने का प्रयास किया था…और मुझे पास खींच लिया था. फिर धीरे से मेरे उस गाल को सहला दिया था जहां शाम को थप्पड़ लगा था.

‘‘नहीं अभय, मैं नौकरी छोड़ दूंगी… आखिर मेरी सब से बड़ी जरूरत तो तुम्हीं हो,’’ कहते हुए मेरा गला रुंध गया था.

‘‘सच…क्या सच कह रही हो रितु?’’ अभय ने मेरी आंखों में झांका.

‘‘हां सच, बिलकुल सच,’’ मैं ने धीरे से कहते हुए अपना सिर अभय के कंधे पर टिका दिया था.

मन का रिश्ता: खून के रिश्तों से जुड़ी एक कहानी

मेरे हाथों में मेहंदी लगी देख सुदेश ने सवाल उछाल दिया, ‘‘यह मेहंदी किस खुशी में लगाई है? कोई शादीब्याह, तीजत्योहार या व्रतउपवास है क्या?’’

जवाब में मैं ने भी प्रश्न ही उछाल दिया, ‘‘आप को मालूम है…मधु की शादी तय हो गई है?’’

‘‘कौन मधु?’’

‘‘आप भी न कमाल करते हैं. अरे, हमारे पड़ोसी विपिनजी की बेटी, जिसे आप बचपन से देखते आ रहे हैं. सुंदर, सुशील, प्रतिभाशाली और काम में निपुण…’’ मेरी बात अधूरी ही रह गई जब सुदेश ने बात काटते हुए प्रश्न किया, ‘‘वही मधु न जिसे विपुल ने रिजेक्ट कर दिया था?’’

‘‘रिजेक्ट नहीं किया था,’’ मैं तमतमा उठी. मानो मेरा अपना अपमान हुआ हो. ‘‘उसे सौम्या पसंद थी. उस से प्यार करता था वह. खैर, वे सब पुरानी बातें हो गईं. मुझे तो खुशी है मधु को भी अच्छा घरवर मिल गया. शादी अच्छे से संपन्न हो जाए.’’

‘‘हुंह…बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना. तुम्हें हमेशा दूसरों के सुखचैन की पड़ी रहती है,’’ कहते हुए उन्होंने फाइलों में मुंह छिपा लिया. मैं सोच में डूब गई. शायद बेटा विपुल और ये ठीक ही कहते हैं. न जाने क्यों मुझ से किसी का बुरा सोचा ही नहीं जाता. चाहे वह आत्मीय हो या अजनबी, हमेशा हर एक के लिए दुआ ही निकलती है.

सुदेश तो कई बार समझाने भी लग जाते हैं कि तुम्हें थोड़ा व्यावहारिक होना चाहिए. सांसारिक दृष्टिकोण रखना कोई बुरी बात नहीं है. पर मैं चाह कर भी अपनेआप को बदल नहीं पाती.

विपुल हंसते हुए कहता है, ‘पापा, हमारी मम्मी इस ग्रह की नहीं हैं, किसी दूसरे ग्रह की प्राणी लगती हैं.’ मैं भी उन के मजाक में शामिल हो जाती. पर मुझे हमेशा यही लगता कोई इनसान इतना आत्मकेंद्रित कैसे हो सकता है? आखिर इनसानियत भी तो कोई चीज है.  मधु के साथ अनजाने में मुझ से जो अपराध हुआ था, वह मुझे हमेशा सालता रहता था. दरअसल सुंदर, गुणी मधु से मैं हमेशा से प्रभावित थी और उसे अपनी बहू बनाने का सपना भी देखती थी. जाने- अनजाने अपना यह सपना मैं मधु और उस के घर वालों पर भी प्रकट कर चुकी थी और वे भी इस रिश्ते से मन ही मन बेहद खुश थे. सुदर्शन, इंजीनियर दामाद उन्हें घर बैठे जो मिल रहा था.

विपुल दूसरे शहर में नौकरी करने लगा था. इस बार जब वह छुट्टी ले कर आया तो मैं ने अपना मंतव्य उस पर प्रकट कर दिया. हालांकि पहले भी मैं उसे मधु को ले कर छेड़ती रहती थी, लेकिन इस बार जब उस ने मुझे गंभीर और शादी की तिथि निश्चित करने के लिए जोर डालते देखा तो वह भी गंभीर हो उठा.‘मम्मी, मैं अपनी सहकर्मी सौम्या से प्यार करता हूं और उसी से शादी करूंगा.’

मुझे झटका सा लगा था, ‘पर बेटे…’

‘प्लीज मम्मी, शादी मेरा निहायत व्यक्तिगत मामला है. मैं इस में आप की पसंद को अपनी पसंद नहीं मान सकता. मुझे उस के साथ पूरी जिंदगी गुजारनी है.’

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‘मधु हर तरह से तुम्हारे लिए उपयुक्त है, बेटा. निहायत शरीफ…’ मैं ने अपना पक्ष रखना चाहा.  ‘आई एम सौरी, जिस लड़की से मैं प्यार नहीं करता उस से शादी नहीं कर सकता,’ विपुल इतना कह चला गया. मैं बिलकुल टूट सी गई थी. लेकिन सुदेश ने भी मुझे ही दोषी ठहराया था, ‘गलती तुम्हारी है इंदु. तुम्हें मधु या उस के घर वालों से कोई भी वादा करने से पहले विपुल से पूछ लेना चाहिए था.’

मैं ने अपनी गलती मान ली थी. मधु और उस के घर वालों के सम्मुख वस्तुस्थिति स्पष्ट करते हुए मैं ने क्षमा भी मांग ली थी. मधु ने तो मेरी मजबूरी समझ ली थी. हालांकि उस के चेहरे से लग रहा था कि उसे गहरा धक्का लगा है पर उस के घरवाले काफी उत्तेजित हो गए थे. खूब खरीखोटी सुनाई उन्होंने मुझे. मैं ने गरदन झुका कर सबकुछ सुन लिया था. आखिर गलती मेरी थी. ऊपर से संबंध भले ही फिर से सामान्य हो गए थे पर कहीं कोई गांठ पड़ गई थी. पहले वाली बेतकल्लुफी और अपनापन कहीं खो सा गया था. विपुल की शादी में वे शामिल नहीं हुए. पूरा परिवार ही शहर से बाहर चला गया था. इरादतन या संयोगवश, मैं आज तक नहीं जान पाई. स्वभाववश मैं ने हमेशा की तरह यही कामना की थी कि मधु को भी जल्दी ही अच्छा घरवर मिल जाए. और एक दिन मधु की मां खुशीखुशी शादी का कार्ड पकड़ा गई थीं. मैं ने उन्हें गले से लगा लिया था.

‘‘सच कहूं बहन, आप से भी ज्यादा आज मैं खुश हूं,’’ और इसी खुशी में मैं ने अपने हाथों में मेहंदी रचा ली थी. ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ जैसा पति का व्यंग्य भी मेरी खुशी को कम नहीं कर सका था. बहुत उत्साह से मैं ने शादी की सभी रस्मों में भाग लिया और फिर भारी मन से बेटी की तरह मधु को विदा किया.

मधु की शादी के बाद विपुल और सौम्या घर आए तो मैं मधु की विदाई का गम भूल उन के सत्कार में लग गई. सौम्या भी बहुत अच्छी लड़की थी. मुझे उस पर भी बेटी सा स्नेह उमड़ आता था. बापबेटे हमेशा की तरह मुझ पर हंसते थे. ‘मम्मी को सब में अच्छाइयां ही नजर आती हैं. परायों से भी रिश्ता जोड़ लेती हैं. फिर तुम तो उन की इकलौती बहू हो. तुम पर तो जितना प्यार उमड़े कम है.’  सच, उन के साथ पूरा सप्ताह कैसे गुजर गया, पता ही नहीं चला. उन के जाने के बाद एक दिन बाजार में मुझे मधु मिल गई. उसे देखते ही मेरा चेहरा एकदम खिल उठा, लेकिन गौर से उसे देखा तो जी धक से रह गया. सूनी मांग, सूनी कलाइयां, सूना माथा और भावनाशून्य चेहरा… मुझे चक्कर सा आने लगा. पास के खंभे को पकड़ अपने को संभाला.

‘‘कब आईं तुम? और यह क्या है?’’ वह फफक उठी. देर तक फूटफूट कर रोती रही, ‘‘सब खत्म हो गया आंटी, एक दुर्घटना में वे चल बसे. ससुराल वालों ने अशुभ कह कर दुर्व्यवहार आरंभ कर दिया. मैं यहां आ गई. दोचार दिन तो सब ने हाथोंहाथ लिया. पर अब भाभीभैया अवहेलना करने लगे हैं. आखिर हूं तो मैं बोझ ही. मां सबकुछ देखतीसमझती हैं पर कर कुछ नहीं पातीं. जीवन बोझ लगने लगा है. मरने का मन करता है.’’

‘‘पागल हो गई हो? ऐसा कभी सोचना भी मत. चलो, मेरे साथ घर चलो,’’ उस का मुंह धुला कर मैं ने उसे चाय पिलाई. जब उस का मूड कुछ ठीक हो गया तो मैं ने बात आगे बढ़ाई.

‘‘तुम तो काफी पढ़ीलिखी हो. पति की जगह नौकरी पर क्यों नहीं लग जातीं?’’

‘‘सोचा था. पता चला, उस जगह देवर लगने का प्रयास कर रहे हैं.’’

‘‘लेकिन पहला हक तुम्हारा है. यदि तुम आत्मसम्मान की जिंदगी जीना चाहती हो तो तुम्हें अपने हक के लिए लड़ना होगा.’’

‘‘लेकिन मुझे तो कुछ भी नहीं मालूम…कैसे क्या करना है?’’

‘‘हूं… एक आइडिया है. विपुल उसी शहर में है. मैं उस से कहती हूं, वह तुम्हारी मदद करेगा.’’

विपुल पहले तो एकदम बिदक गया, ‘‘क्या मां, आप हर किसी के फटे में टांग डालती रहती हो.’’ पर जवाब में मेरी ओर से कोई आवाज सुनाई नहीं दी तो तुरंत मेरी मनोस्थिति ताड़ गया, ‘‘ठीक है मम्मी, मैं प्रयास करता हूं.’’  विपुल के प्रयास रंग लाए और मधु को नौकरी मिल गई. वह बेहद खुश थी. उस की मुसकान देख कर मुझे लगा कि मेरी गलती का आंशिक पश्चात्ताप हो गया है. उस के जाने के बाद एक दिन उस की मां मिल गईं. उन्होंने  यह कहते हुए मेरा बड़ा एहसान माना कि मैं ने मधु को नई जिंदगी दी है.

‘‘मैं तो चाहती हूं उस का फिर से घर भी बस जाए. अभी उस की उम्र ही क्या है?’’ मेरी जबान फलीभूत हुई. मधु की मां ने ही एक दिन बताया कि मधु ने अपने एक सहकर्मी से आर्यसमाज में शादी कर ली है. उस के भाईभाभी ऊपर से तो रोष जता रहे हैं, लेकिन मन ही मन खुश हैं कि चलो, बला टली.

‘‘यह दुनिया ऐसी ही है बहन. आप के बेटेबहू कोई अपवाद नहीं हैं.’’

‘‘लेकिन आप तो अपवाद हैं. अपनों की तो हर कोई सोचता है लेकिन आप तो परायों के लिए भी…’’

‘‘अपनापराया कुछ नहीं होता. रिश्ते तो मन के होते हैं. जिस से मन जुड़ जाए वही अपना लगने लगता है. मधु को मैं ने हमेशा अपनी बेटी की तरह चाहा है. उस के लिए कुछ करने से मुझे कभी रोकना मत.’’

वैसे प्यार तो मुझे सौम्या से भी बहुत हो गया था. सच कहूं, मुझे हर वक्त उस की चिंता लगी रहती थी. पतली, नाजुक, छुईमुई सी लड़की कैसे आफिस और घर दोनों जिम्मेदारियां संभालती होगी? विपुल से जब भी बात होती मैं उसे सौम्या की मदद करने की सीख देना नहीं भूलती.  और जब से मुझे पता चला कि वह गर्भवती है तो एक ओर तो मैं हर्ष से फूली नहीं समाई, लेकिन दूसरी ओर उस की चिंता मुझे दिनरात सताने लगी. मैं ने डरतेडरते सुदेश से अपने मन की बात कही, ‘‘मैं चली जाती हूं दोनों के पास उन्हें संभालने. सौम्या बेचारी, कैसे मैनेज कर रही होगी?’’

‘‘इंदु, तुम्हारा इतना संवेदनशील और लचीला होना मुझे बहुत अखरता है. अभी उसे मात्र 2 महीने हुए हैं. उसे 9 महीने इसी अवस्था में गुजारने हैं. तुम कब तक उन की देखभाल करोगी? वे बच्चे नहीं हैं. अपनेआप को और अपने घर को संभाल सकते हैं. उन्हें तुम्हारे हस्तक्षेप, जिसे तुम सहयोग कहती हो, की जरूरत नहीं है. जरूरत होगी, तब वे अपनेआप तुम्हें बुला लेंगे और तभी तुम्हारा जाना सार्थक और सम्मानजनक होगा.’’

मैं कहना चाहती थी, भला अपनों के काम आने में क्या सम्मान और सार्थकता देखना, पर जानती थी ऐसा कहना एक बार फिर मेरी व्यावहारिक नासमझी को ही दर्शाएगा. इसलिए चुप्पी लगा गई. पर गुपचुप छिटपुट तैयारियां करना मैं ने आरंभ कर दिया था. बहू के लिए खूब सारे सूखे मेवे खरीद लाई थी. कोई जाएगा तो साथ भिजवा दूंगी. फोन पर हिदायतों का दौर तो जारी था ही.  इसी बीच खबर लगी कि मधु भी गर्भवती है. मैं ने मधु की मां से मिल कर उन्हें बधाई दी. पता चला कि वे मधु के पास ही जा रही थीं.  मैं तुरंत घर लौटी. मेवे का पैकेट खोल कर उस के 2 पैकेट बनाए और तुरंत मधु की मां को ला कर थमा दिए, ‘‘यह एक पैकेट विपुल आ कर ले जाएगा और दूसरा मधु के लिए है.’’  डबडबाई आंखों से उन्होंने दोनों पैकेट थाम लिए. समय के साथसाथ सौम्या की तबीयत संभलने लगी थी. मैं विपुल से फोन पर हमेशा यही कहती, ‘‘जरा सी भी दिक्कत हो तो मुझे निसंकोच फोन कर देना. मैं तुरंत पहुंच जाऊंगी.’’

‘‘बिलकुल मां, यह भी भला कोई कहने की बात है?’’

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सौम्या की डिलीवरी का समय पास आ गया था. उस ने अब आफिस से छुट्टियां ले ली थीं. आपस में सलाह- मशविरा कर उन्होंने हमें सूचित किया कि डिलीवरी के समय मैं सौम्या के पास रहूं इसलिए सुदेश के खाने का प्रबंध कर मैं उन के पास रहने चली गई. तय हुआ कि डिलीवरी के बाद कुछ वक्त गुजार कर मैं लौट आऊंगी और तब सौम्या की मां आ कर सब संभाल लेंगी.

सौम्या का समय पूरा हो चुका था पर उसे अभी तक लेबरपेन आरंभ नहीं हुआ था. डाक्टर की सलाह पर हम ने उसे अस्पताल में भरती करवा दिया. अभी हम पूरी तरह व्यवस्थित भी नहीं हो पाए थे कि पास लाई गई दूसरी प्रसूता को देख मैं चौंक उठी. यह तो मधु थी. वह दर्द से कराह रही थी. उसे आसपास का जरा भी होश न था. उस की मां उसे संभालने का असफल प्रयास कर रही थीं. मैं ने उन्हें धीरज बंधाया. जल्दी ही मधु को लेबर रूम में ले जाया गया और कुछ समय बाद ही उस ने एक बेटे को जन्म दे दिया. भावातिरेक में उस की मां मेरे गले लग गईं. अब बस सौम्या की चिंता थी. डाक्टर ने चेकअप किया. सामान्य प्रसव के कोई आसार न देख आपरेशन से बच्चा पैदा करने का निर्णय लिया गया. मैं बारबार सौम्या के सुरक्षित प्रसव की कामना कर रही थी. मधु और उस की मां ने मेरी बेचैनी देखी तो मुझे धीरज बंधाया.

‘‘सब अच्छा ही होगा. आप जैसे भले लोगों के साथ कुदरत हमेशा भला ही करेगी.’’

जब तक सौम्या आपरेशन थिएटर में बंद रही और विपुल बाहर चक्कर काटता रहा उस दौरान मधु की मां ने बातों से मेरा दिल बहलाए रखा. साथ ही मधु और अपने नवासे को भी संभालती रहीं. लेडीडाक्टर ने जब जच्चाबच्चा दोनों के सुरक्षित होने की सूचना दी तब ही मुझे चैन पड़ा. घर में पोती आई थी. मैं बहुत खुश थी, लेकिन यह जान कर मेरी चिंता बढ़ गई कि नवजात बच्ची बहुत कमजोर है. सौम्या की हालत भी ज्यादा अच्छी नहीं थी. फिर उसे दूध भी नहीं उतर रहा था. अस्पताल में नर्सरी आदि की सुविधा नहीं थी. डाक्टर के अनुसार बच्ची को यदि कुछ समय तक किसी नवप्रसूता का दूध मिल जाए तो उस की स्थिति संभल सकती थी.

‘‘आप को एतराज न हो तो मैं इसे दूध पिला देती हूं,’’ मधु ने स्वयं को प्रस्तुत किया तो हम एकबारगी तो चौंक गए.

‘‘नेकी और पूछपूछ,’’ कहते हुए उस की मां ने बच्ची को तुरंत मधु की गोद में डाल दिया. मधु ने उसे प्यार से आंचल में ढांप लिया और दूध पिलाने लगी. मैं उस के इस ममतामयी रूप पर निछावर हो गई.

2 दिन हो गए थे. सुदेश भी आ गए थे. मधु जितनी बार अपने बेटे को दूध पिलाती, याद से गुडि़या को भी पिला देती. तीसरे दिन डाक्टर ने चेकअप किया. मधु की अस्पताल से छुट्टी हो चुकी थी. गुडि़या की तबीयत संभल गई थी, लेकिन सौम्या को अभी कुछ दिन और अस्पताल में रहना था. उस के घाव अभी भरे नहीं थे. बड़ी असमंजस की स्थिति थी. गुडि़या को मां से दूर भी नहीं किया जा सकता था और अभी कुछ दिन उसे और ऊपर के दूध के साथ मां के दूध की जरूरत थी. हम सोच ही रहे थे कि क्या किया जाए कि मधु बोल पड़ी, ‘‘हमारा घर पास में ही है. मैं इसे दूध पिलाने आती रहूंगी. साथ ही ऊपर का दूध भी बना कर लाती रहूंगी.’’

‘‘हां हां, आप चिंता मत कीजिए. हम सब संभाल लेंगे,’’ मधु की मां भी तुरंत बोल पड़ीं.

3-4 दिन तक मांबेटी का यही क्रम चलता रहा. मधु न केवल गुडि़या को दूध पिला जाती बल्कि ताजा गुनगुना दूध बना कर भी ले आती. कभी सौम्या के लिए खिचड़ी, दलिया आ जाता.  मधु की मां जो दवा मधु के लिए बनातीं उस की एक खुराक आ कर सौम्या को भी खिला जातीं. विपुल और उस के पापा ये सब देख कर अचंभित रह जाते. अपनी अब तक की सोच पर शर्मिंदगी के भाव उन के चेहरे पर स्पष्ट परिलक्षित होते थे. मैं मधु को बारबार कहती, ‘‘तुम्हें इतना श्रम अभी नहीं करना चाहिए. तुम्हें आराम की जरूरत है.’’

‘‘मुझे ये सब करने से इतना आराम मिल रहा है कि मैं आप को बता नहीं सकती,’’ वह मुसकरा कर कहती. एक नर्स ने तो मुझ से पूछ भी लिया था, ‘‘क्या रिश्ता है आप का इस लड़की से?’’

‘‘इनसानियत का रिश्ता, जिस के तार मन से जुड़े होते हैं,’’ यह कहते हुए मेरे चेहरे पर असीम तृप्ति के भाव थे.

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हिना खान से लेकर शिवांगी जोशी तक, ट्रेंड में है TV की इन हसीनाओं का आई-मेकअप

टीवी एक्ट्रेसेस आजकल घर-घर में पौपुलर हो गई हैं. हर कोई कपड़ों से लेकर मेकअप तक उन्हीं ते लुक को कौपी करना चाहता है. वहीं टीवी एक्ट्रेसेस भी अपने फैंस के लिए सोशलमीडिया पर नए-नए लुक और मेकअप टिप्स की फोटोज शेयर करती रहती हैं, जिसके बाद फैंस उनके लुक को कौपी करने की कोशिश करते हैं. इसीलिए आज हम आपको टीवी हसीनाओं के कुछ आई मेकअप लुक आपको दिखाएंगे, जिसे आप आसानी से ट्राय कर सकती हैं.

वेस्टर्न लुक के लिए परफेक्ट है हिना खान का आई मेकअप

अदाकारा हिना खान ने हाल ही में अपनी ये फोटो शेयर की है. जिसमें अदाकारा यैलो कलर के आई लाइनर का इस्तेमाल कर लोगों का ध्यान खींच लिया. इसी आई मेकअप को आप अपने वेस्टर्न लुक के साथ कैरी कर सकती हैं. ये ट्रैंडी के साथ-साथ खूबसूरत भी लगेगा.

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हिना खान का नागिन लुक है पौपुलर

 

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She’s Coming 🐍

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बीते दिनों नागिन 5 में हिना खान के लुक के काफी चर्चे हुए थे, जिनमें सबसे ज्यादा सुर्खियां उनके आई मेकअप लुक बटोरीं थीं. अगर आप भी अपने इंडियन लुक के साथ खूबसूरत आई मेकअप करना चाहती हैं तो हिना खान का ये लुक परफेक्ट है.

नायरा के लुक भी हैं परफेक्ट

 

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~The Royal Bride!❤😭✨ It’s a common edit, and as always Shiviii looks soo beautiful in this one!😍💫 God’s Favourite Angel!✨😍 Pyaari Dulhaniya!🙈💫🤗 ____________________________________________ Please Let Me Know About This Edit😭 & It Will Be A Great Honour If You Mention Shivii In The Comments Too!😭❤ Thank you!✨🌎 ____________________________________________ . . . . . . . . . . . . . . . #MomoShivi #MohsinShivangi #KartikNaira #ShivinKaira #Yrkkh #Beautiful #MendhakSherni #Love #BestJodi #FavouriteJodi #WeLoveYouKaira __________________________________________________________ ❌NO REPOST PLEASE❌ __________________________________________________________ @shivangijoshi18 @khan_mohsinkhan @yashoda.joshi.33 @sumanprakashjoshi @sheetal_joshi_official @samarthjoshi15

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ये रिश्ता क्या कहलाता है की शूटिंग शुरू होने के बाद नायरा यानी शिवांगी जोशी नए लुक में नजर आ रही हैं. वहीं शिवांगी को आई लैशेज के एक्सटेंशन और मसकारे का भी बड़ा क्रेज है, जिसके चलते वह आंखों को खूबसूरत दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़तीं. अगर आप भी अपनी आंखों को खूबसूरत दिखाना चाहती हैं तो शिवांगी जोशी का आईमेकअप ट्राय करना ना भूलें.

 

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❤️❤️ Sc @editxmaterial #shivangijoshi #shivangi #shivangians #weloveyoushivangi #naira #kaira #shivin #yrkkh

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निया शर्मा का लुक भी है खूबसूरत

 

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I Keep things Pink And Proper..

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निया शर्मा उन अदाकाराओं की लिस्ट में शामिल हैं जो अपने ट्रेंडिंग आई मेकअप लुक्स से हमेशा ध्यान खींच लेती है. नागिन 4 में अपने लुक से लेकर पर्सनल लाइफ में अपनी ड्रेसिंग सेंस और मेकअप से निया शर्मा सभी का ध्यान खींचती हैं. अगर आप भी अपने लुक को खूबसूरत दिखाना चाहती हैं तो निया शर्मा का इंडियन से लेकर वेस्टर्न आई मेकअप परफेक्ट औप्शन है.

 

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Kya aaj mein ‘pretty’ lag rahi hoon? Ya sach mein lag rahi hoon….

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रश्मि देसाई और टीना दत्ता

 

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बस यूँ ही 🧡 . . @urbanmutiyar – BB Jewels 💎 #OnShoot #Naagin4 #ItsAllMagical #RashamiDesai

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सीरियल उतरन में साथ नजर आ चुकीं एक्ट्रेस रश्मि देसाई और टीना दत्ता को भी मेकअप का काफी शौक है. जहां रश्मि ने ब्लू मसकारे से ही अपने आई मेकअप को बेहद खास बना दिया था. तो वहीं उतरन फेम अदाकारा टीना दत्ता भी अक्सर अपनी आई लुक से हंगामा मचाती रहती है. स्मोकी आई मेकअप लुक में वह बेहद कमाल नजर आती हैं.

 

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घर पर ही बनाएं तंदूरी मोमोज

मोमोज बच्चों से लेकर बड़ों तक हर किसी की पसंद होते हैं. वह भी जब बात हो ग्रिल मोमोज की तो नाम सुनते ही लोगों के मुंह में पानी आ जाता है. तो आज ही घर पर बनाएं ग्रिल तंदूरी मोमोज.

सामग्री

2 चम्मच हंग कर्ड

1 चम्मच अदरक लहसुन का पेस्ट

½ चम्मच लाल मिर्च

½ चम्मच तंदूरी मसाला

½ चम्मच तंदूरी कलर

¼ चम्मच काली मिर्च

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1 चम्मच चाट मसाला

1 कटोरी मोमोज

नमक स्वादानुसार

विधि

ग्रिल तंदूरी मोमोज बनाने के लिए सबसे पहले एक बर्तन में हंग कर्ड, अदरक लहसुन का पेस्ट, नमक, लाल मिर्च, तंदूरी मसाला, काली मिर्च, चाट मसाला और तंदूरी कलर डालकर अच्छे से मिलाएं.

अब मोमोज को तैयार मिक्सचर में डालकर मिलाएं और 10 मिनट मेरिनेट करें. अब ग्रिल पैन को बटर से ग्रीस करके मोमोज को ग्रिल करें.

अब मोमोज को सर्विंग प्लेट में निकाल कर चाट मासाला और नींबू का रस डालकर गर्मागर्म परोसें.

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अनुष्का-करीना के बाद इस एक्ट्रेस ने भी दिखाया बेबी बंप, फोटो शेयर कर दी खुशखबरी

बौलीवुड और टीवी सितारों की दुनिया में इन दिनों प्रैग्नेंसी न्यूज की खबरें छाई हुई हैं. हाल ही में एक्ट्रेस अनुष्का शर्मा और क्रिकेटर विराट कोहली ने प्रैग्नेंसी न्यूज के चलते काफी सुर्खियां बटोरीं थीं. वहीं अब ‘देवों के देव महादेव’ एक्ट्रेस पूजा बनर्जी ने अपनी प्रैग्नेंसी की फोटोज शेयर करके फैंस को चौंका दिया है. आइए आपको बताते हैं पूरी खबर…

बेबी बंप की फोटोज हुई वायरल

बीते दिनों ही पूजा बनर्जी ने अपनी प्रेग्नेंसी की घोषणा की थी और बताया था कि उनके घर जल्द ही नन्हा मेहमान आने वाला है. इस घोषणा के बाद अब ‘देवों के देव महादेव’ में पार्वती की भूमिका अदा कर चुकी पूजा बनर्जी ने पहली बार अपना बेबी बम्प फ्लॉन्ट किया है. दरअसल, सोशलमीडिया पर वायरल फोटोज में पूजा बनर्जी को कुणाल वर्मा ने प्यार से गले लगाया हुआ है और पूजा बनर्जी मस्ती में कैंडी का लुत्फ उठाती हुई नजर आ रही है.


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लौकडाउन में किया था खुलासा

 

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My adorable parents to be @banerjeepuja @kunalrverma

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कुछ महीने पहले ही पूजा बनर्जी ने खुलासा किया था कि उन्होंने लॉकडाउन के दौरान ही कुणाल वर्मा संग कोर्ट मैरिज कर ली है. साथ ही पूजा बनर्जी ने ये भी बताया था कि उनका और कुणाल का परिवार लम्बे समय से उनकी शादी का इंतजार कर रहे थे. ऐसे में सब कुछ तय हो गया था लेकिन लॉकडाउन के चलते सारी प्लानिंग्स पर पानी फिर गया था. खैर पूजा बनर्जी (Puja Banerjee) ने ये बात सामने रखी है कि वो धूमधाम से एक बार फिर शादी करेंगी.

 

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बता दें, एक्ट्रेस पूजा बनर्जी ‘तुझ संग प्रीत लगाई सजना’, ‘झलक दिखला जा’ और ‘कॉमेडी नाइट्स बचाओ’ जैसे शोज में काम कर चुकी हैं. इसके अलावा वह हिंदी, तेलुगू और बंगाली फिल्मों में भी नजर आ चुकी हैं.

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नायरा ने दिया कार्तिक को करारा जवाब, फैंस बोले – सही किया

सीरियल ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ के सेट पर कार्तिक के पिता के रोल में नजर आने वाले  एक्टर सचिन त्यागी के साथ समीर ओंकार और स्वाति चिटनीस कोरोना पौजिटिव पाए गए थे, जिसके बाद मेकर्स ने सीरियल की कहानी को कीर्ति के किरदार की तरफ मोड़ दिया हैं. इसी बीच कहानी में बदलाव को देखकर फैंस भी भड़क गए हैं. आइए आपको बताते हैं क्या है पूरा मामला…

कार्तिक-नायरा की होगी बहस

‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ के अपकमिंग एपिसोड में गोयनका हाउस में नया ट्विस्ट देखने को मिलने वाला है. दरअसल, शो में नायरा का जन्मदिन मनाया जा रहा है और इसी बीच कार्तिक औऱ नायरा के रोमांस के दौरान दोनों की बहस हो जाएगी. वहीं सोशल मीडिया पर ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ (Yeh Rishta Kya Kehlata Hai) के अपकमिंग एपिसोड के कई वीडियोज वायरल हो रहे हैं, जिसे देखने के बाद फैंस का गुस्सा कार्तिक पर निकल रहा है. गौरतलब हो कि जबसे कार्तिक के पिता मनीष का एक्सीडेंट हुआ है, तबसे कार्तिक रह-रहकर नायरा को खरी खोटी सुना रहा है.

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नायरा का टूटा सब्र का बांध

अपकमिंग एपिसोड की वायरल वीडियो में नायरा, कार्तिक से कह रही है कि अब उसके सब्र का बांध टूट चुका है और वो ये घर छोड़कर जा रही है. वहीं वायरल की वीडियो को देखने के बाद एक यूजर का कहना है कि, ‘कार्तिक इसी लायक है उसे कभी भी प्यार की भाषा नहीं समझ आई है.’ वहीं दूसरे यूजर ने लिखा है कि, ‘नायरा का ये फैसला बिल्कुल सही है. नायरा ने एकदम सही फैसला लिया है.’

बता दें, वहीं खबरें हैं कि अपकमिंग एपिसोड में नायरा के भाई और कार्तिक की बहन यानी नक्क्ष और कीर्ति की शादी टूटने की कगार पर पहुंच जाएगी.

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झूठ और भ्रम फैलाते छोटे शहरों के अखबार और न्यूज़ चैनल

पिछले एक दशक में झूठी खबरों को सिलसिला लगातार बढ़ता ही जा रहा है. इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं. जैसे लोकल अखबार और लोकल न्यूज़ चैनल वालों के निजी लाभ के अलावा इसमें सोशल मीडिया का लगातार विस्तार . समस्या यह है कि लोग ज्यादा सोशल मीडिया पर एक्टिव होते जा रहे हैं. जिस कारण  इन झूठी खबरों को फैलने में मदद मिलती है.असल में लोकल अखबारों की ऐसी खबरें फैलाने में उनकी भी अहम भूमिका रहती हैं. लोग बिना कुछ सोचे समझे किसी भी झूठी खबर या झूठे विडियोज पर यकीन कर लेते हैं और उन्हें अपने दोस्तों व परिवार वालों के पास फॉरवार्ड कर देते हैं.

उदाहरण 1-

अभी कुछ माह पहले की एक खबर जिसने सब को भ्रम में रखा, कुछ इस तरह थी -” लखनऊ ब्रेकिंग न्यूज. योगी आदित्यनाथ जी का बड़ा फैसला आज रात को 11.40 pm कोई भी  व्यक्ति घर के दरवाजे ना खोले और खिड़की को भी बंद कर के रखे. हर राज्य मे 5 हेलिकॉप्टर की मदद से  स्प्रे डाला जायेगा! इस महामारी कोरोना  को खत्म करने के लिए” !  न ऐसा कुछ हुआ और न ही होना था. यह खबर बिल्कुल झूठी थी. इसका समर्थन किसी भी प्रादेशिक बड़े अखबार ने नहीं किया.

उदाहरण 2-

इस खबर ने सबको बहुत परेशान और हैरान किया, जो कि इस प्रकार थी ,” सत्तर वर्ष से चली आ रही बुद्ध बाजार, मुरादाबाद में स्थित मिठाई की दुकान, के सभी मालिक व कर्मचारी सहित 12 लोग कोरोनावायरस पॉजिटिव पाए गये हैं. कृपया अपने परिवार व अपना ख्याल रखते हुए मिठाई आदि खाने से बचें” .

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यह खबर आग के जैसे सब जगह फैलने लगी. यहां तक कि व्हाट्सएप ग्रुप्स में भी दिखाई देने लगी. जब मैंने इसे पढ़ा तो मुझे इसलिए दुख हुआ क्योंकि यह प्रतिष्ठित लोग मेरे पड़ोसी हैं. हर दिन इनसे बात हो रही थी. किसी ने लोगों को डराने के लिए झूठी खबर बनाकर अखबार में छाप दीं और अखबार से वह सब सोशल मीडिया पर पहुंच गई. ऐसे ही ना जाने कितनी खबरें इस कोरोना काल में सबसे अधिक फैंलीं.

झूठी खबरों का सिलसिला दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है. यह सिर्फ एक कोरोना काल का समय ही नहीं, हर रोज किसी न किसी लोकल अखबार या चैनल पर ऐसी भ्रम फैलाने वाली खबरें अक्सर मिल जाती हैं. सच्चाई की तह में जाने के बाद सिर धुन लेने के अलावा और कोई चारा नहीं लगता.

लालच के कारण

जैसे जैसे भ्रष्टाचार ज्यादा फैल रहा है वैसे वैसे ही झूठी खबरों का सिलसिला भी बढ़ता ही जा रहा है. चाहे आप लोकल अख़बार में पढ़ें या लोकल चैनल पर देखें , आप को सच्ची खबर जानने के लिए बहुत जांच पड़ताल व रिसर्च करनी पड़ेगी. ये लोग पूर्ण रूप से सच्ची ख़बरें नहीं छापते हैं. इसमें उनका लालच शामिल होता है. परंतु यह कितना शर्मनाक है कि कुछ लोग चंद पैसों के लिए अपने ईमान को बेच, लोगों को अपनी झूठी खबरों के माध्यम से भ्रमित करते हैं.

बदल गया तरीका

प्रदेश में पिछले दिनों एक के बाद एक कई ऐसी घटनाएं हुई हैं जिन्होने  लोगों को झकझोर दिया . पिछले साल भी कुछ पत्रकारों को गेंगस्टर एक्ट के तहत गिरफ्तार किया गया था और  उन पर आरोप था कि वे सभी अपने पेपर और न्यूज चैनल के जरिए पुलिस प्रशासन व अधिकारियों के खिलाफ गलत और दुष्प्रचार करने वाली खबरें फैलाया करते थे.

स्थानीय समाचारों को अक्सर राष्ट्रीय समाचारों की तुलना में अधिक विश्वसनीय माना जाता था. लेकिन जबसे ये लोकल अखबार ऑनलाइन की गिरफ्त में आयें हैं, इन पर विश्वास करना अत्यधिक असुरक्षित है.

इसके पीछे एक पूरा तंत्र होता है. और उन की सोची समझी चाल भी. कुछ अखबार किसी एक राजनैतिक पार्टी के पास बिक जाते हैं. उनका मुख्य काम उस पार्टी को लोगों कि नजरों में अच्छा दिखाना व दूसरी पार्टियों को लोगो की नजरो से गिराना होता है.

अन्य देश भी अछूते नहीं

यह बात केवल भारत की ही नहीं है बल्कि अन्य देशों में भी ऐसा होता है.  लोगो को एक दूसरे से लड़वाया और  भ्रमित किया जाता है. जनता से जुड़े मुद्दों पर निष्पक्ष, सच उजागर करना और ईमानदार नज़रिए से कवरेज  लगातार कम होते जाना, अब लोकल समाचार पत्रों की परिपाटी सा बन गया है.

आजकल लोगों को भ्रमित करने के लिए ये लोग स्वयं से कहानियां बनाते हैं और सोशल मीडिया से भी इसमें पूरा योगदान मिलता है. सोशल मीडिया झूठी कहानियों को कुछ इस प्रकार दर्शाता है कि दोनों में ( सच्ची व झूठी ) अंतर करना मुश्किल हो जाता है. इंटरनेट की मेहरबानी से ये झूठी खबरें सच सामने आने तक एक शहर से दूसरे शहर पहुंच चुकी होतीं हैं.

सांठ गांठ का खेल

दरअसल सच्चाई यह है कि इन लोकल अखबारों के पीछे भी किसी पार्टी या मीडिया का हाथ होता है. जो जितना बिकेगा, उन्हें उतने ही ज्यादा इनाम व तोहफे मिलेंगे. परंतु शर्त यह होती है कि उस खबर को इस तरीके से शेयर किया जाए कि पढ़ने वाला उसे सच मान कर विश्वास कर ले.

दिमाग में कई बार एक प्रश्न आता कि जब अधिकतर लोगो को पता होता है कि यह खबरें झूठी है और इस खबर का कोई सार्थक मतलब नहीं निकलता तो फिर भी वे उस खबर को शेयर ही क्यों करते हैं कि छोटी खबर सच्ची लगने लग जाए और छोटे अखबारों को आर्थिक रूप से भी फायदा पहुंचे.

मुनाफे का खेल

यदि किसी झूठी खबर ने लोकल चैनल या न्यूजपेपर को अच्छी TRP दे दी तो दूसरे लोकल अख़बार वाले भी उस खबर को यह सोच कर प्रकाशित कर देते हैं कि यदि हम इसे अपना विषय बनाएंगे तो इससे बहुत अच्छा मुनाफा मिल सकता है. वे भी उस खबर की अच्छे से जांच पड़ताल नहीं करते हैं कि खबर सच्ची है या झूठी. बल्कि उल्टा उसमे कुछ एक्स्ट्रा रोचक बातें जोड़ देते हैं. ताकि वह खबर ज्यादा से ज्यादा फैले और लोगों की रुचि बढ़े.

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इस तरह  यहां से झूठी खबरों की एक चेन बननी शुरू हो जाती है. इन अखबारों से जुड़े लोगों पर अधिक से अधिक मसालेदार कहानियां व ख़बरें लिखने पर जोर दिया जाता है ताकि उन्हें ज्यादा से ज्यादा ट्रैफिक या रीडर्स मिलें और वे काफी लाभ कमा सकें. उन्हें यह मतलब नहीं होता है कि खबर कितनी सच्ची है और कितनी झूठी उन्हें बस अपने निजी स्वार्थ से मतलब होता है. इसलिए वह ज्यादा यह चैक नहीं करते की खबर झूठी है या सच्ची.

नज़रिए और नीयत गिरावट

नज़रिए और नीयत की ये गिरावट कोई नई बात भी नहीं है. कुछ प्रदेशों में ये लोकल समाचार पत्र और चैनल नियमित रूप से ऐसी सामग्रियों का प्रसारण कर रहे हैं, जो भड़काऊ होती हैं, पक्षपातपूर्ण होती हैं और जिनमें लोगों का पक्ष तो ग़ायब ही होता है. क्या इन सबके लिए कोई  तय मानक का पालन करना आवश्यक नहीं है ?

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