कैल्शियम की कमी को न करें इग्नोर

कैल्शियम हड्डियों की मजबूती के लिए जरूरी है. यह रक्त के थक्के जमने (ब्लड क्लॉटिंग) में भी मदद करता है. यह शरीर के विकास और मसल बनाने में भी सहायक होता है.

हरी सब्जियां, दही, बादाम और पनीर इसके मुख्य स्रोत हैं. हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष और इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के मानद सचिव डॉ. के.के. अग्रवाल ने बताया कि कैल्शियम की कमी को हायपोकैल्शिमिया भी कहा जाता है. यह तब होता है, जब आपके शरीर को पूरी मात्रा में कैल्शियम नहीं मिलता.

उन्होंने कहा कि लोगों को अच्छी सेहत के लिए कैल्शियम के महत्व के बारे में पता होना चाहिए. जिनके शरीर में कैल्शियम की कमी हो, उन्हें अपने आप दवा नहीं लेनी चाहिए और ज्यादा मात्रा में फूड सप्लीमेंट भी नहीं लेने चाहिए. डॉक्टर से सलाह लें और सेहतमंद खानपान के साथ ही सप्लीमेंट लें.

डॉ. अग्रवाल ने बताया कि उम्र बढ़ने के साथ कैल्शियम की कमी आम बात है. शरीर का ज्यादातर कैल्शियम हड्डियों में संचित होता है. उम्र बढ़ने के साथ हड्डियां पतली और कम सघन हो जाती हैं. ऐसे में शरीर को कैल्शियम की जरूरत पड़ती है. कैल्शियम के स्रोत वाली वस्तुएं खाते रहने से इसकी कमी पूरी की जा सकती है.

उन्होंने कहा कि भूखे रहने और कुपोषण, हार्मोन की गड़बड़ी, प्रिमैच्योर डिलीवरी और मैलएब्जरेब्शन की वजह से भी कैल्शियम की कमी हो सकती है. मैलएब्जरेब्शन उस स्थिति को कहते हैं, जब हमारा शरीर उचित खुराक लेने पर भी विटामिन और मिनरल को सोख नहीं पाता.

कैल्शियम की कमी के कुछ लक्षण

मसल क्रैम्प: शरीर में होमोग्लोबिन की पर्याप्त मात्रा रहने और पानी की उचित मात्रा लेने के बावजूद अगर आप नियमित रूप से मसल क्रैम्प (मांस में खिंचाव या ऐंठन) का सामना कर रहे हैं तो यह कैल्शियम की कमी का संकेत है.

लो बोन डेनस्टिी: जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, कैल्शियम हड्डियों की मिनरलेजाइशन के लिए जरूरी होता है. कैल्शियम की कमी सीधे हमारी हड्डियों की सेहत पर असर करती है और ऑस्टियोपोरोसिस व फ्रैक्चर का खतरा बढ़ सकता है.

कमजोर नाखून: नाखून के मजबूत बने रहने के लिए कैल्शियम की जरूरत होती है, उसकी कमी से वह भुरभुरे और कमजोर हो सकते हैं.

दांत में दर्द: हमारे शरीर का 90 प्रतिशत कैल्शियम दांतों और हड्डियों में जमा होता है उसकी कमी से दातों और हड्डियों का नुकसान हो सकता है.

पीरियड के समय दर्द: कैल्शियम की कमी वाली महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान काफी तीव्र दर्द हो सकता है, क्योंकि मांसपेशियों के काम करने में कैल्शियम अहम भूमिका निभाता है.

एम्युनिटी में कमी: कैल्शियम शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बनाए रखता है. कैल्शियम की कमी होने पर शरीर में पैथगॉन अटैक से जूझने की क्षमता कम हो जाती है.

नाड़ी की समस्याएं: कैल्शियम की कमी से न्यूरोलॉजिक्ल समस्याएं, जैसे कि सिर पर दबाव की वजह से सीजर और सिरदर्द हो सकता है. कैल्शियम की कमी से डिप्रेशन, इनसोमेनिया, पर्सनैल्टिी में बदलाव और डेम्निशिया भी हो सकता है.

धड़कन: कैल्शियम दिल के बेहतर काम करने के लिए आवश्यक है और कमी होने पर हमारे दिल की धड़कन बढ़ सकती है और बेचैनी हो सकती है. कैल्शियम दिल को रक्त पम्प करने में मदद करता है.

अगर आप इनमें से किसी लक्षण का सामना कर रहे हैं तो अपने डॉक्टर से संपर्क करें, वह रक्त जांच की सलाह देगा. इसका इलाज कैल्शियम युक्त भोजन खाना और पौष्टिक सप्लीमेंट लेना है.

ऐसे बनाएं टेस्टी कश्‍मीरी चमन

स्वाद की बात को और कश्मीर के खाने की बात न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता हैं. कश्मीर के खाने का नाम लेते ही मुंह में पानी आ जाता है. कश्मीर को स्वर्ग तो माना ही जाता है, लेकिन वहां का स्वाद भी किसी से कम नहीं है. वहां के खाने की खूशबू और स्‍वाद दोनों ही बहुत लाजवाब होता है. आज हम आपको कश्मीर की एक रेसिपी के बारे में बता रहे है. जिसका नाम कश्मीरी चमन है. जानिए इसे बनाने की विधि के बारें में.

सामग्री

1. दो कप पनीर टुकड़ों में कटे हुए

2. एक चम्‍मच गरम मसाला पाउडर

3. आधा चम्‍मच लाल मिर्च पाउडर

4. आधा चम्‍मच अदरक का पेस्‍ट

5.  आधा चम्‍मच धनिया पाउडर

6.  एक चौथाई चम्‍मच हल्‍दी पाउडर

7. एक चम्‍मच कटा हरा धनिया

8.  आधा चम्‍मच जीरा

9. दो चम्‍मच तेल

10. चुटकीभर हींग

11. स्‍वादानुसार नमक

ऐसे बनाएं कश्मीरी चमन

सबसे पहले एक पैन में तेल डालकर गर्म करें. जब ये गर्म हो जाएं तो इसमें पनीर के टुकड़े डालकर सुनहरा भूरा होने तक भून लें. इसके बाद एक बाउल में इन्हें निकाल लें. और इसमें लाल मिर्च पाउडर, अदरक का पेस्‍ट, हींग, धनिया पाउडर, हल्‍दी पाउडर और नमक मिलाकर 10 मिनट के लिए अलग रख दें.

10 मिनट बाद पैन में तेल डालकर उसमें पनीर के टुकड़े और कम से कम 4 कप पानी डालकर अच्छी तरह मिलाएं और गैस की आंच धीमी कर दें. इसे ऐसे ही कम से कम 10 मिनट पकने दें. आपकी कश्मीरी चमन बनकर तैयार हैं. इसे आप सर्विंग बाउल में निकाल लें. इसे गार्निश करने के लिए इसके ऊपर हरा धनिया डालें और सर्व करें.

नैरोबी जहां पर्यटक वन्य जीवों को देखने जाते हैं

मुंबई हवाई अड्डे से केन्या की राजधानी नैरोबी की यात्रा में केवल 7 घंटे लगते हैं. नैरोबी एक सुंदर शहर ही नहीं है, बल्कि इस की कुछ अपनी विशेषताएं भी हैं, जो इसे अन्य नगरों से अलग करती हैं. अफ्रीकी शहरों के बारे में आम धारणा के विपरीत नैरोबी गरम नहीं है. समुद्रतल से लगभग 1,500 मीटर ऊपर स्थित होने के कारण यहां साल भर शिमला या मसूरी जैसा मौसम बना रहता है. यहां तक कि लोगों के घरों में पंखे तक नहीं हैं.

नैरोबी की दूसरी विशेषता यह है कि यहां पर केवल 4 पहिए के वाहन ही दिखते हैं, जो शानदार विदेशी कार के रूप में हैं. उन वाहनों को चलाने वाले या तो अफ्रीकी टैक्सी ड्राइवर होते हैं या फिर भारतीय मूल के नागरिक, जो उन विशाल कारों के स्वयं मालिक भी होते हैं. अपने एक सप्ताह के प्रवास में मुझे एक भी स्कूटर वहां नहीं दिखा.

भारतीय नागरिकों का जहां तक प्रश्न है, तो वहां लगभग हर दूसरी तीसरी दुकान भारतीय या पाकिस्तानी द्वारा संचालित होती है. हिंदी तथा गुजराती तो वहां गली-गली में सुनाई पड़ती है और भारतीय साड़ी, लहंगा आदि वहां एक आम पहनावा है.

वैसे नैरोबी के बारे में थोड़ी बहुत सावधानी बरतने की भी सलाह दी जाती है. इस स्थान पर चोरी, छीनाझपटी, धोखाधड़ी तथा लूट-पाट आदि की अनेक घटनाएं होती रहती हैं. अत: पर्यटकों को अकेले कहीं अनजाने स्थान पर आनेजाने से बचना चाहिए.

नैरोबी की सब से बड़ी विशेषता वहां का राष्ट्रीय पार्क है, जो लगभग नगर के दक्षिण में केवल 7 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. वास्तव में जब नैरोबी एअरपोर्ट पर विमान उतरता है तो यदि यात्री खिड़की से बाहर देखें तो हो सकता कि उन्हें कोई जिराफ सर उठाए भागता दिख जाए.

मेरी टैक्सी हवाई अड्डे से चल कर जब शहर की ओर आ रही थी तो रास्ते में चौड़ी, साफसुथरी सड़कें और उन के दोनों ओर बनी आधुनिक बहुमंजिली इमारतें, कारखाने और दुकानें आदि दिख रही थीं. किंतु उस समय मुझे सपने में भी यह खयाल नहीं था इन्हीं आधुनिकताओं के पीछे केवल कुछ किलोमीटर की दूरी पर शेरों का झुंड अपना शिकार ढूंढ़ रहा होगा या फिर शुतुरमुर्ग घास चर रहे होंगे. इस का एहसास मुझे तब हुआ जब राष्ट्रीय पार्क के अंदर प्रवेश करने पर आधुनिक नैरोबी की विशाल इमारतें लगभग पार्क के अंदर घुसी सी दिखाई दीं.

केन्या का प्रमुख उद्योग पर्यटन है, जो इन्हीं अनोखे पशुओं पर निर्भर करता है और ये पशु ऐसे हैं जो केवल अफ्रीका में ही पाए जाते हैं. उदाहरण के लिए अफ्रीकी जेब्रा, जिराफ, शुतुरमुर्ग, इंपाला, चीता, शेर, हाथी, गैंडा आदि के नाम गिनाए जा सकते हैं. इन्हें देखने के लिए यूरोप, अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया के पर्यटक टूट से पड़ते हैं.

केन्या के अधिकतर पार्क आशा के विपरीत घने जंगल न हो कर विशाल घास के मैदान (सवाना) हैं, जहां दूरदूर तक एक से डेढ़ मीटर ऊंची घास अथवा झाडि़यां नजर आ जाती हैं. इन में छोटेबड़े पशुपक्षी अपनाअपना निवास बना कर रखते हैं. जेब्रा, जिराफ, शेर (सिंह), गैंडा, दरियाई घोड़ा, जंगली सूअर, शुतुरमुर्ग आदि यहां देखे जा सकते हैं. इस प्रकार केन्या के लगभग किसी भी स्थान से 50-100 किलोमीटर की दूरी पर कोई न कोई राष्ट्रीय पशु उद्यान अवश्य मिल जाएगा जिसे देखने पर्यटक जा सकते हैं. इन पर्यटन स्थलों पर ठहरने व भोजन आदि की सुविधाएं भी हैं.

वैसे नैरोबी में आम पर्यटक के लिए सब से सहज स्थान नैरोबी राष्ट्रीय उद्यान है, जहां वे लगभग 4-5 घंटे के अंदर ही विभिन्न प्रकार के पशुओं से ‘जाम्बों’ (हैलो या स्वागत के लिए स्वाहिली शब्द) कर सकते हैं.

नैरोबी में स्थानस्थान पर सैकड़ों ट्रैवल एजेंसियां हैं जहां इस के लिए टिकट बुक कराया जा सकता है. टूर टिकट के रेट 80-100 अमेरिकी डालर (लगभग 3,500 से 5 हजार रुपए) तक है. इस में पार्क में प्रवेश का शुल्क 40 डालर भी सम्मिलित है.

जब हम ने इस सफारी का टिकट बुक किया तो प्रात: साढ़े 7 बजे एक सुंदर तथा आरामदायक वैन हमारे होटल में आई. इस का ड्राइवर एक मृदुभाषी अफ्रीकी था, जो हमारा गाइड भी था. गाड़ी की छत ऊपर से खुल जाती थी, जिस में खड़े हो कर वन्य जीवों को निकट से देखा जा सकता है.

होटल से लगभग 18 किलोमीटर की दूरी तय करने पर हमें राष्ट्रीय पार्क का प्रमुख फाटक नजर आया. ड्राइवर ने यहां पर प्रवेश टिकट आदि खरीदा तथा अन्य औपचारिकताएं पूरी कीं और फिर गाड़ी ने राष्ट्रीय पार्क में प्रवेश किया.

सब से पहले तो एक वृक्ष पर बड़ा पक्षी (गिद्ध जैसा) दिखा. गाइड ने बताया कि वह ‘मार्शल ईगल’ है जो छोटे-मोटे, पशु-पक्षियों को अपने पंजों में दबोच कर उड़ जाता है.

आगे बढ़ने पर वृक्ष समाप्त हो गए तथा विशाल घास का मैदान दिखने लगा. एक स्थान पर एक स्मारक दिखा. गाइड ने बताया कि उस स्थान पर हाथीदांत के विशाल भंडार को जला कर नष्ट किया गया था. अनेक विदेशी पर्यटक वहां का फोटो ले रहे थे.

मैदान में दूर-दूर पर छितराए वृक्षों में कुछ वृक्ष सामान्य ऊंचाई से अधिक नजर आ रहे थे. ध्यान से देखने पर मालूम पड़ा कि वे लंबे वृक्ष नहीं, मैदान में गरदन ऊंची किए हुए जिराफ खड़े थे.

फिर तरह-तरह के पशु दिखने लगे. पहले तो एक विशेष प्रकार के हिरण का झुंड घास चरते दिखा जिन का नाम ग्नू था. थोड़ी देर बाद ड्राइवर की लगातार मेहनत के बाद शेर दिखे, उन में 2 मादा तथा 1 नर था. शेरों के बिलकुल निकट हमारी गाड़ी पहुंच गई. आसपास 3-4 और टूरिस्ट गाडि़यां खड़ी थीं, जिन में अनेक विदेशी युवक युवतियां शेरों के फोटो लेते जा रहे थे. शेर आराम से बैठे बीचबीच में दुम तथा कान खड़े कर पास चर रहे हिरणों को देख लेते, फिर बैठ जाते थे. सब लोग इसी इंतजार में थे कि वे उन हिरणों पर आक्रमण करें. पर शायद वे भूखे नहीं थे.

शेरों को छोड़ फिर हम लोग आगे चले. रास्ते में एक मादा जिराफ सड़क पर खड़ी थी. जब हमारी वैन उस के इतना निकट पहुंच गई कि दरवाजा खोल कर उसे अंदर बुला सकें तब वह वहां से हटी. वहां से आगे बढ़ने पर शुतुरमुर्ग दिखे. गाइड ने बताया कि मादाएं मटमैले भूरे रंग की हैं और बीच में जो बड़ा तथा काला सा है वह नर है. उस के आगे जेब्रा का विशाल झुंड दिखा.

इस के बाद तो जेब्रा, जंगली भैंसे, हिरण आदि एक आम दृश्य की तरह दिखने लगे और उन्हीं के बीच कहींकहीं पर हमें कुछ भैंसे भी चरते हुए दिखे. वहां के गाइड ने हमें बताया कि अफ्रीका के 5 बड़े पशुओं में शेर, तेंदुआ, हाथी, गैंडा, भैंसे का नाम आता है. ये सारे पशु मात्र आकार के कारण बड़े नहीं कहलाते हैं बल्कि इसलिए बड़े कहलाते हैं क्योंकि ये अत्यंत खतरनाक होते हैं. और यदि ये किसी के पीछे पड़ जाएं तो उस का बच पाना बहुत मुश्किल होता है. आरंभ के दिनों में जब शिकारी लोग अफ्रीका में शिकार के उद्देश्य से आते थे तो जो शिकारी इन बड़े पशुओं का शिकार कर लेता था उसे बहुत बहादुर माना जाता था. इन 5 बड़े पशुओं में सब से अधिक खतरनाक भैंसे व भैंस होते हैं.

यह जान कर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ. जब मैं ने गाइड को बताया कि भारत में तो इन भैंसों को लोग पालते हैं और उन का दूध भी पीते हैं, तो गाइड ने फौरन टोका कि भारत की पालतू भैंसें वाटर बफैलो हैं. किंतु ये तो किंग बफैलो हैं, जो कभी पालतू नहीं बनाई जा सकती हैं और बहुत ही खतरनाक होती हैं. मौका पड़ने पर ये शेर को भी पछाड़ देती हैं.

रास्ते में एक बनैला सूअर दिखा जिस के 2 बड़ेबड़े दांत बाहर को निकले हुए थे. और आगे चलने पर एक छोटे टीले पर 2 चीते बैठे दिखे. ड्राइवर ने गाड़ी घुमा कर बिलकुल उन के पास ला कर रोकी और बताया कि चीता दुनिया का सब से तेज दौड़ने वाला प्राणी है. हमें देख कर एक विदेशी महिला, जो अपनी गाड़ी अकेले ही चला रही थी, भी पास आ गई और चीतों की फिल्म लेने लगी.

इसी प्रकार चलतेचलते हम पार्क के पूर्वी फाटक के पास से बाहर निकले जो नैरोबी एअरपोर्ट के बिलकुल पास है. हमें पार्क घूमने में लगभग साढ़े 4 घंटे का समय लगा था. दोपहर के भोजन से पूर्व हम होटल वापस आ गए थे.

नैरोबी का यह राष्ट्रीय पार्क नगर के लैंगाटा क्षेत्र में स्थित है जिस का क्षेत्रफल करीब 117 वर्ग किलोमीटर है. यहां पर लगभग 100 जातियों के पशु तथा 400 प्रजातियों के पक्षी देखे जा सकते हैं. पूरे पार्क में 5 प्रवेशद्वार हैं, किंतु मुख्यद्वार लैंगार मार्ग पर स्थित है. पार्क को चारों ओर से तार की बाड़ से घेरा गया है जिस में उच्च शक्ति का विद्युत प्रवाह होता रहता है ताकि पशु बाहर न जा सकें. नैरोबी नगर के अत्यंत निकट होने के कारण यह पार्क पर्यटकों को बहुत भाता है. नैरोबी नेशनल पार्क जहां शेर, जिराफ, चीता आदि जानवरों को देखने विदेशी पर्यटकों का तांता लगा रहता है. नैरोबी नेशनल पार्क में शुतुरमुर्ग, जंगली भैंसे, जेब्रा जिराफ, हाथी आदि जानवरों के झुंड आम देखने को मिलते हैं. शहर के अत्यंत निकट नैरोबी नेशनल पार्क घूमने फिरने के लिए पर्यटकों की पहली पसंद है.

चुनें बेहतर स्वास्थ्य बीमा योजना

जीवन और सामान्य बीमा कंपनियां स्वास्थ्य बीमा योजनाओं की पेशकश करती हैं. संभावित पॉलिसीधारक अक्सर यह नहीं समझ पाते कि स्वास्थ्य पॉलिसी कहां से खरीदी जाए. इसके परिणामस्वरूप जहां कुछ लोग इसे स्वास्थ्य बीमा कंपनी से खरीदते हैं जबकि अन्य लोग जीवन बीमा कंपनी से. इसके अलावा जीवन बीमा एजेंट भी लोगों को स्वास्थ्य योजनाओं के बारे में सलाह देते हैं या फिर उन्हें विभिन्न उत्पादों की पेशकश की जाती है. इस वजह से जरूरत के हिसाब से कई उत्पादों में से उपयुक्त उत्पाद का चयन करना कठिन हो जाता है.

बीमा विश्लेषक पहली बार स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी खरीदने वाले ग्राहकों को सामान्य बीमा कंपनी द्वारा जारी हेल्थ कवर की सलाह देते हैं. बीमा योजनाओं की तुलना से संबंधित आईआरडीए स्वीकृत वेबसाइट माईइंश्योरेंसक्लब डॉटकॉम के मुख्य कार्याधिकारी दीपक योहानन कहते हैं, ‘ग्राहक को सबसे पहले सामान्य बीमा कंपनी के उत्पाद पर ध्यान देना चाहिए और फिर जीवन बीमा कवर पर विचार किया जा सकता है.’

सामान्य और जीवन बीमा कंपनियों के हेल्थ कवर के बीच मुख्य अंतर यह है कि स्वास्थ्य बीमा कंपनियां क्षतिपूर्ति योजनाओं की पेशकश करती हैं, जिसमें अस्पताल में भर्ती होने का खर्च मिल जाता है. वहीं दूसरी तरफ जीवन बीमा कंपनियां मुख्य रूप से स्वास्थ्य योजनाओं के तहत लाभ मुहैया कराती हैं जो किसी खास बीमारी की जांच पर होने वाले खर्च के रूप में दिया जाता है. हालांकि आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल लाइफ इंश्योरेंस और बजाज आलियांज लाइफ इंश्योरेंस अब क्षतिपूर्ति स्वास्थ्य योजनाओं की भी पेशकश कर रही हैं.

भारती ऐक्सा जनरल इंश्योरेंस के मुख्य कार्याधिकारी अमरनाथ अनंतनारायणन कहते हैं, ‘सामान्य बीमा कंपनियां अस्पताल में भर्ती होने पर आए वास्तविक खर्च का भुगतान करती हैं. तुलनात्मक रूप से जीवन बीमा कंपनियां अस्पताल के खर्च या फिर किसी खास बीमारी की जांच पर होने वाले खर्च पर कुछ निर्धारित रकम का भुगतान करती हैं. परिणामस्वरूप जीवन बीमा कंपनियों के मामले में आप पूरे खर्च की भरपाई नहीं कर सकते हैं. वहीं सामान्य बीमा कंपनी से आपको कैशलेस कवर भी मिल सकता है जबकि जीवन बीमा कंपनियां इसकी पेशकश नहीं करती हैं.’

क्या होगा रोहित शेट्टी के ‘गोलमान 4’ का?

‘दिलवाले’ की असफलता रोहित शेट्टी का पीछा नहीं छोड़ रही है. रोहित शेट्टी जितने दरवाजे खोलने की कोशिश करते हैं, उतने ही बंद होते जाते हैं. उन्होंने कई तरह के समझौते करते हुए अपनी पुरानी सफल फ्रेंचाइजी ‘गोलमाल’ का चौथा सिक्वअल ‘गोलमाल 4’ को अजय देवगन और करीना कपूर के साथ शुरू करने की घोषणा की.

रोहित शेट्टी ने इधर इस फिल्म पर काम शुरू किया, उधर खबर आ गयी कि करीना कपूर गभर्वती हैं. अब तो करीना कपूर ने ऐलान कर दिया है कि वह गोलमाल 4 नहीं कर रही हैं. यूं तो रोहित शेट्टी ने करीना कपूर के हटने के बाद दूसरी हीरोइन की तलाश शुरू कर दी है. वह दीपिका पादुकोण, प्रियंका चोपड़ा, आलिया भट्ट से बात कर रहे हैं.

वहीं दूसरी तरफ उन्होंने तमिल की ब्लैक कॉमेडी फिल्म ‘सुधू कावुम’ के राइट्स खरीद कर इसमें कुछ बदलाव के बाद गोलमाल 4 की कहानी को अंतिम रूप देने के बारे में सोचा. लोगों को भी यकीन हो गया कि वह ऐसा कर सकते हैं. क्योंकि इससे पहले उनकी फिल्म ‘गोलमाल 3’ की कहानी भी फिल्म ‘खट्टा मीठा’ से प्रेरित थी. बॉलीवुड में इस खबर के गर्म होने के बाद प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हो गयी. तमाम लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि रोहित शेट्टी सिर्फ रीमेक ही बना सकते हैं.

मगर अब रोहित शेट्टी ने मीडिया से कहा है, ‘मीडिया में चर्चाएं हैं कि मैं तमिल फिल्म सुधु कावुम को गोलमाल 4 के रूप में बना रहा हूं. यह गलत हैं. हम गोलमाल 4 के लिए मौलिक कहानी लिख रहे हैं. पर यह सच है कि हमने तमिल फिल्म सुधू कावुम के अधिकार खरीदे हैं. गोलमाल 4 का निर्माण करने के बाद हम सुधू कावुम का हिंदी रीमेक बनाएंगे.’

इस तरह छिपाएं चेहरे के तिल

लड़कियां और महिलाएं अपनी सुंदरता को लेकर बहुत सजग होती हैं और उन्हें कोई भी ऐसी चीज पसंद नहीं होती जो उनके लुक को थोड़ा सा भी खराब करे.

ऐसा ही हाल होता है शरीर में मौजूद तिल का कुछ लोग तो इन्हें ब्यूटी मार्क मानते हैं वहीं दूसरी ओर कुछ को तो ये बिल्कुल पसंद नहीं होते. ऐसे में आसान से मेकअप ट्रिक्स की मदद से इन्हें छुपाया जा सकता है…

– मेकअप करने से पहले चेहरे को अच्छी तरह धो लें और रूई में थोड़ा टोनर लेकर चेहरे और गरदन पर लगाएं. टोनिंग से आपका मेकअप अधिक देर तक टिकेगा क्योंकि यह आपकी त्वचा को शुष्क रखता है.

– तिलों को छिपाने के लिए ऑयल फ्री फाउंडेशन लें और अपनी प्राकृतिक त्वचा के रंग से हल्के रंग चुनें. यह तिल को छिपाने में बहुत मददगार साबित होता है. अपनी त्वचा पर समान रूप से फाउंडेशन लगाएं और इस बात का ध्यान रखें कि तिल छिप जाए.

– कंसीलर तिल छिपाने के सबसे पुराने और सरल मेकअप टिप्स में से एक है. कंसीलर का उपयोग करके आप अपने चेहरे के लगभग सभी काले धब्बे, तिल या निशान छिपा सकते हैं. लेकिन, इस बात का ध्यान रखें कि फाउंडेशन और कंसीलर का रंग एक जैसा होना चाहिए.

– अगर आप बहुत अच्छा परिणाम चाहते हैं तो यह बहुत महत्वपूर्ण है कि कंसीलर और फाउंडेशन अच्छी तरह से मिलाए जाएं. अगर आप कंसीलर की दो परतें लगा रहे हैं तो दूसरी परत लगाने से पहले थोड़ा पाउडर लगाएं.

– पहले कंसीलर केवल दो रंगों में उपलब्ध होते थे लेकिन, अब हरे, लैवेंडर और यहां तक कि पीले कंसीलर भी उपलब्ध हैं जो प्रभावशाली तरीके से आपके तिलों को छिपाने में मदद करते हैं.

– क्रीम कंसीलर की एक बूंद के साथ, आप अपने चेहरे पर जादू कर सकते हैं. यह तिल को प्रभावी ढंग से छिपाएगा, चाहे वह कितना ही काला क्यों न हो.

पत्नी पुराण

‘पत्नी’शब्द सुनते ही बदन में झुरझुरी सी फैल जाती है, हाथपैर सुन्न पड़ने लगते हैं, आंखों के सामने अंधेरा छा जाता है, जबान स्वत: बंद हो जाती है गोया उस पर ताला लग गया हो. अकसर लोग यह कहते हैं कि पुरुषप्रधान समाज में नारी स्वतंत्रता की चाहे जितनी बातें की जाएं पर स्त्री को उतनी आजादी प्राप्त नहीं है जितनी कि पुरुष को. स्त्री वह सब कुछ आजादी के साथ नहीं कर सकती जिसे पुरुष सहज रूप से अपने अधिकार के साथ करता है.

कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि पुरुष सदा से ही नारी के साथ भेदभाव करता आया है. उसे अबला और शक्तिहीन मान कर प्रताडि़त करता है. तो क्या यह सब सत्य है? अगर इस विषय पर मेरा मत लिया जाए तो मैं कहूंगा नहीं. ऐसा कदापि नहीं है. भला पुरुषों में इतनी हिम्मत कहां से आ गई जो अपनी पत्नियों पर अत्याचार कर सकें? ये सब अधिकार तो धर्मपत्नियों के पास सुरक्षित हैं, आरक्षित हैं. फिर बेचारे पतियों को नाहक बदनाम करने की क्या तुक?

आज विश्व के 90% से भी ज्यादा पति पत्नियों से परेशान हैं, पीडि़त हैं. दिल्ली के पत्नियों द्वारा पीडि़त पतियों ने तो बाकायदा पत्नी पीडि़त पतियों का एक संगठन ही बना लिया है और सरकार से मांग की है कि पतियों को पत्नियों के अत्याचारों से बचाने के लिए संविधान में एक नई धारा 498बी शामिल की जाए. उल्लेखनीय है कि भारतीय दंड संहिता में पत्नी को पति एवं सास के अत्याचारों से बचाने के लिए धारा 498ए का प्रावधान है.

हमारे एक मित्र हैं निगमजी. बेचारे निरीह से प्राणी. बिलकुल सीधेसादे तथा स्वभाव से बेहद विनम्र. किंतु उन की पत्नी बाप रे बाप नाम लेने से ही ज्वालामुखी फट पड़ता है. हमारे महान भारत में उन के जैसा पत्नी द्वारा सताया गया पति कोई विरला ही मिलेगा. इस बारे में उन का नाम गिनीज बुक में आसानी से दर्ज हो सकता है. पत्नी पुराण की चर्चा चलने पर उन्होंने अपनी जो करुण कथा व्यक्त की वह उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है:

वे बोले, ‘‘यार क्या बताऊं. शादी के पहले तो वह मुझ से नैन लड़ाया करती थी, मगर शादी के बाद जबान लड़ाने लगी. मैं ने कई बार उस की जबान पर लगाम लगाने की कोशिश की लेकिन

हर बार उस की कैंची जैसी जबान से लगाम ही कट जाती थी. महीने की हर पहली तारीख को वह किसी सूदखोर की तरह मेरे सिर पर सवार हो जाती और मेरी पूरी तनख्वाह बिना हथियार के ही हथिया लेती.

‘‘एक बार मैं ने उस के चंगुल से अपना वेतन बचाने की एक तरकीब निकाली और पहली तारीख को खुद अपनी जेब ब्लेड से काट कर मुंह लटकाए घर जा पहुंचा. मैं ने पत्नी के सामने जेब कटने की धांसू ऐक्टिंग करते हुए कुछ आंसू भी बहा डाले. पत्नी सुनते ही भड़क उठी कि अजीब घनचक्कर हो. जरा से रुपए भी नहीं संभाल कर ला सके. रुपए किस जेब में रखे थे? उस ने पूछा तो मैं ने कहा कि दाईं जेब में. सुन कर पत्नी बोली कि दाईं जेब में रखने की क्या जरूरत थी बाईं जेब में नहीं रख सकते थे? अब अगर मैं कहता कि रुपए बाईं जेब में रखे थे, तो वह कहती कि दाईं जेब में क्यों नहीं रखे? फिलहाल किसी तरह मैं उसे यकीन दिलाने में कामयाब हो गया कि सचमुच मेरी जेब कट गई है.

‘‘मैं खुश हुआ कि चलो इस महीने मैं अपनी मरजी से खर्च करूंगा. आधी रात को मैं चुपचाप उठा और अपने बैग की खुफिया जगह से तनख्वाह का पैकेट निकालने लगा ताकि उसे किसी और सुरक्षित जगह छिपा सकूं. लेकिन यह क्या मैं ने जैसे ही पैकेट खोला मेरे हाथ में एक पुरजा आ गया, जिस पर लिखा था कि मुझे बेवकूफ बनाना तुम्हारे बस की बात नहीं. तुम्हें इस की सजा मिलेगी, जरूर मिलेगी और वह सजा यह है कि इस पूरे महीने तुम पैदल औफिस जाओगे? हा…हा…हा… और सचमुच उस पूरे महीने मुझे पैदल यात्रा करनी पड़ी?’’

अब आप ही बताएं कि यह सब क्या है? क्या इतना सब कुछ होने के बाद भी आप पत्नियों की ही तरफदारी करेंगे? बेचारे पतियों को दोषी ठहरा कर उन पर दोषारोपण करेंगे? मुझे तो नहीं लगता. आगे आप का विवेक जाने. पत्नी पीडि़त पतियों की लिस्ट में एक निगमजी का ही नाम नहीं है, बल्कि इस लिस्ट में कई विश्वप्रसिद्ध महापुरुषों के नाम भी शामिल हैं, जो आजीवन अपनी पत्नियों से त्रस्त रहे. उन की पत्नियों ने उन का सुखचैन हरण कर लिया.

‘वार ऐंड पीस’ जैसी विश्वविख्यात पुस्तक के लेखक काउंट लियो टौलस्टाय अपनी पत्नी से इतने पीडि़त रहे कि वे 1910 में अक्तूबर की एक शीत भरी रात में पत्नी के पास से भाग गए और फिर 11 दिनों बाद उन की निमोनिया के कारण मौत हो गई. मरणासन्न अवस्था में उन्होंने अपने निकट उपस्थित लोगों से विनती की थी कि मेरी पत्नी को मेरे सामने न आने देना.

आप टौलस्टाय के इन शब्दों को सुन कर सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि उन की पत्नी ने उन्हें कितना दुख दिया होगा. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन तथा नैपोलियन बोनापार्ट के भतीजे की पत्नी भी इसी तरह क्रूर थी.

क्यों बढ़ रहा है धार्मिक रुझान

होना यह चाहिए था कि वैज्ञानिक और तकनीकी तरक्की के द्वारा ज्ञानविज्ञान के खुलते नए आयामों के साथ रूढि़गत और अंध- विश्वासपूर्ण कारनामों की सामाजिक भूमिका अनुपातिक रूप से समाप्त होती जाती, लेकिन इस के ठीक उलट ये कारनामे न केवल अपनी पूरी सघनता के साथ मौजूद हैं, बल्कि इन की सामाजिक मंजूरी अधिक बढ़ती जा रही है. एक ओर सदी के तथाकथित महानायक अपने बेटेबहू के साथ मुंबई और तिरुपति के मंदिरों की खाक छानते हुए लाखों अंधभक्तों के लिए अनुकरणीय उदाहरण पेश कर रहे हैं, दूसरी ओर मंदिरों में क्षमता से दोगुनी उमड़ी भीड़ में सैकड़ों मर रहे हैं तो हजारों को ‘बिना दर्शन’ मायूस हो कर वापस लौटना पड़ रहा है.

तमाम खतरों और मुसीबतों के बावजूद अमरनाथ और मानसरोवर जैसी दुर्गम यात्राओं पर जाने वालों की संख्या में कोई कमी नहीं आ रही, उलटे भीड़ बढ़ती ही जा रही है.

पापों से ‘पिंड’ छुड़ा कर पुण्य की गठरियां बांधने के लिए सांसद, विधायक और मुख्यमंत्री तक चमत्कारी बाबाओं  के आगे नतमस्तक हैं. विरोधियों को पटकनी देने के लिए तमाम राजनीतिबाज, पूजापाठ और अनुष्ठानों के जरिए अपने मनोरथ साधते हैं. मियां रुहानी और बाबा बंगाली अपने मोबाइल नंबर अखबारों में छपवा रहे हैं और हर गलीमहल्ले में थोक के भाव तैयार मंदिरमजारों के उत्साही कर्ताधर्ता, तमाम तरह के अनुष्ठानों के परचे बंटवा रहे हैं.

धर्म का इकबाल बुलंद करने में लगे अपने नाम को धन्य करने वाले ऋषिमुनि गणों के बड़ेबड़े कारपोरेट संगठन हैं, जो चिकनी पत्रिकाओं, टीवी चैनलों से ले कर इंटरनेट तक व्याप्त  हो कर देश- विदेश में अपनी सेवाएं दे रहे हैं. उन के पीछे गातीबजाती अंधी भीड़ की तादाद हजारों में नहीं, लाखों में है, जिस की बदौलत करोड़ों के टर्नओवर फलीभूत किए जा रहे हैं. टीवी चैनलों पर इनसानों से ज्यादा भूतप्रेत, नागनागिन और पुरानी हवेली, आत्माएं छाई जा रही हैं और तमाम हिंदीअंगरेजी अखबारपत्रिकाओं  में अंकशास्त्री, नक्षत्रशास्त्री, टैरोरीडर, वास्तुशास्त्री आदि मोटी फीस ले कर अपनाअपना राग गाए जा रहे हैं.

इधर दृश्य कुछ ऐसे बन रहे हैं कि इस मसले को पोंगापंथ या पुरातनपंथी कह कर खारिज नहीं किया जा सकता. मनोकामनाओं को पूरी करने वाले ‘अभिमंत्रित’ रत्न पहनना उस वर्ग की नई पीढ़ी का फैशन है, जो अति आधुनिक बदलावों के साथ कदम से कदम मिला कर चलना पसंद करती है, फिर चाहे यह बदलाव तकनीक के स्तर पर हों, शिक्षा के स्तर पर या आधुनिकता के दूसरे मानदंडों के रूप में.

सामाजिक विकास के शोधपत्रों को दिल्ली में इंटरनेट पर खंगालती लड़की की उंगली में, बंगलौर में बसे ब्वायफ्रेंड से ‘रिलेशन’ मजबूत रखने वाले रत्न की अंगूठी होती है. कनाडा में बसा एन.आर.आई. दूल्हा, भटिंडा में रहने वाली अपनी प्रस्तावित दुलहन की जन्मकुंडली ईमेल से मंगाता है ताकि गुणदोष का मिलान कराया जा सके, इधर यश चोपड़ा, करन जौहर और एकता कपूर जैसे दिग्गजों की कृपा से ब्रांडेड गहनों  और नाभिदर्शना साड़ी वाली ऐसी बोल्ड भारतीय नारी की ‘आइडियल’ छवि विकसित की जा रही है जो हर ‘फंक्शन’ को धूमधाम से एंज्वाय करती है, अक्षय तृतीया से ले कर करवाचौथ तक, तीसरे पति से तलाक ले कर चौथे प्रेमी से शादी करने तक.

दरअसल, मामला ‘एंज्वायमेंट’ का ही है. बाजार के लिए यह एक उपभोक्ता का एंज्वायमेंट है, जिस के साथ बाजार के समस्त हित जुड़ते हैं. श्रद्धा को फैशन के साथ मिला कर तैयार किए जाने वाले इस एंज्वायमेंट का लुत्फ उठाता उपभोक्ता, इस चक्कर में ही नहीं पड़ता कि यह श्रद्धा ही है या श्रद्धा के नाम पर परोसा जा रहा कुछ और. वह किसी चक्कर में इसलिए नहीं पड़ता क्योंकि उसे किसी लायक छोड़ा ही नहीं जाता. बाजार किसी को सोचनेसमझने लायक छोड़ना ही नहीं चाहता. तमाम विज्ञापनों और दूसरे प्रचार माध्यमों द्वारा जो कुछ भी परोसा जा रहा है उसे फटाफट निगलते चले जाने वाले समाज से किसी वैचारिक या तार्किक प्रतिरोध की अपेक्षा करना भोलापन होगा.

वास्तविकता यह है कि हम बदलाव के ऐसे तेज उथलपुथल भरे दौर से गुजर रहे हैं जहां किसी भी चीज को उस के सही रूप में देखा जाना संभव नहीं हो पा रहा. अनिश्चितता मानो जीवन का एक जरूरी अंग बन चुकी है. बेतहाशा बढ़ती महत्त्वाकांक्षाओं और प्रयत्नों के बीच उपजे संघर्ष को जानने वालों को धर्मकर्म का कौन सा रूप चाहिए, इसे सब से ज्यादा बाजार ने समझा है.

दरअसल, ईश्वर के बारे में गहन विचार कर के किसी संतोषजनक परिणाम पर पहुंचने का रास्ता घोर मानसिक परिश्रम की मांग करता है. उसी तरह ईश्वर को नकार कर जीवन को सुखी, संतुष्ट बनाने के दूसरे व्यापक व मजबूत तार्किक आधार भी बिना गहन विचार के नहीं खोजे जा सकते. आमतौर पर किसी को बौद्धिक विकास के ऐसे खुले अवसर नहीं देता कि व्यक्ति इन दोनों में से किसी रास्ते पर दूर तक सफलतापूर्वक जा सके. जो लोग गए हैं वे समाज के बावजूद गए हैं. समाज की परवा न कर के ही जा सके हैं. इतिहास गवाह है कि धार्मिक और उन से अधिक गैरधार्मिक विचारकों को उन के अपने ही समय में भारी सामाजिक विरोध का सामना करना पड़ा.

उपभोग करने के लिए विशेष बुद्धि की जरूरत नहीं होती. किसी भी नैतिक या अनैतिक तरीके से पर्याप्त से कुछ अधिक पैसे कमाने की बुद्धि के विकास पर ही सब से अधिक जोर है, बाकी सबकुछ पकापकाया रेडीमेड चाहिए. वह सबकुछ चाहिए, जिस में एक मनोरंजक नयापन हो. इटली की एक कंपनी लाखों के गणेश डिजाइन कर बेचती है, जिसे खरीद कर अपने ड्राइंगरूम में लगाने का उद्देश्य मानसिक शांति पाना होता है.

इस मानसिक शांति का उद्गम भक्ति में नहीं बल्कि आर्थिक सक्षमता के संतोष में निहित है. बालगणेश और बालहनुमान के एनिमेशन बच्चों की तुलना में बड़ों के लिए कम मनोरंजक नहीं हैं. तीर्थयात्राओं में वातानुकूलित एस.यू.वी. में टेढ़ेमेढ़े रास्तों पर सफर का अपना एक अलग रोमांच है, पुण्य तो एक एडीशनल बोनस की तरह है, जितनी बड़ी दक्षिणा, उतना ही ज्यादा बोनस.

लोग ‘टे्रंडी’ दिखने के लिए धार्मिक प्रतीकों को धारण कर रहे हैं. चाहे वह घर में पिरामिडनुमा ध्यानकक्ष बनवाने का मामला हो या गंडातावीज, अंगूठी, तिलक धारण करने का. अठन्नी को नीला लगा कर चमकाया गया, बिना प्रेस के कुरताधोती पहनने वाले, मैला रामनामी झोला ले कर ‘यजमान’ के यहां हाजिरी बजाने वाले पंडित अब विदा हो रहे हैं, जो संस्कृत का बेहिचक अशुद्ध उच्चारण करते थे.

अब रेशमी गेरुए चोगे में चमकते डिगरी वाले गुरुओं के प्रवचन सुनने को भीड़ वातानुकूलित हालों में उमड़ती है और नए लड़केलड़कियां, बजरंग बली के मंदिरों की दीवारों पर अपनी महत्त्वाकांक्षी मनोकामनाओं को हिंग्लिश में उकेर रहे हैं, प्रसिद्ध मंदिरों में वी.आई.पी. भक्तों की अलग लाइनें हैं, जो मोटी जेब वाले भक्तों को विशिष्टता का एहसास कराती हैं.

ईश्वर के सान्निध्य में जिस सुकून का दावा किया जा रहा है उस का कोई ठोस आधार है भी या नहीं, इस की पड़ताल नहीं की जाती. यह कोई पूछने या बताने वाला नहीं है कि दिनोदिन आधुनिक रूप लेते धार्मिक रुझानों के बावजूद, देश से चोरी, डकैती, रिश्वतखोरी और बलात्कार की घटनाएं कम क्यों नहीं हो रहीं, जबकि धर्मगुरु लगातार विभिन्न पोथियों के हवाले से इन सब के खिलाफ उपदेश करते ही जा रहे हैं, दिनरात संस्कारों, आस्थाओं, प्रज्ञाओं और जीवन मूल्यों की बातें छौंकने वाला देश क्यों भुखमरी व भ्रष्टाचार के अंतर्राष्ट्रीय सूचकों के दयनीय बिंदु पर खड़ा नजर आता है?

दरअसल, यह पड़ताल इसलिए नहीं की जाती क्योंकि ऐसा किया जाना उस धार्मिक धारा के विपरीत जाने की कोशिश करना होगा जो अपने सारे मुखौटों के बावजूद मूलचरित्र में अत्यंत हिंसक और असहिष्णु है. गुजरात में शोरूम लूटती संभ्रांत महिलाओं से ले कर कोलकाता की डायमंड हार्बर जेल की 7 नंबर कोठरी में कंबल मसजिद बनाने वाले मुसलिम कैदियों तक कितने ही उदाहरण इस को प्रतिबिंबित करते हैं. अब चूंकि मीडिया व बाजार एकदूसरे के पूरक हैं, इसलिए इन रुझानों के खिलाफ किसी स्वच्छ अभियान का बहुमत नहीं बन पाता. इस दिशा में किए जाने वाले प्रयासों की धाराएं अकेली पड़ जाती हैं क्योंकि मीडिया का एक विस्तृत वर्ग खुल कर अंधविश्वासों और धार्मिक रुझानों का समर्थन करता है और इस को फैशन, लाइफस्टाइल जैसी सहज स्वीकार्य सोच से जोड़ कर उपभोक्ता और बाजार का मजबूत रिश्ता कायम करता है, जिस से उस के अपने आर्थिक हित भी पूरे होते हैं.

संजय दत्त ने बहुत पहले एक बार कहा था कि वह गणेश की मूर्ति द्वारा दूध पीने की घटना पर विश्वास करते हैं. उन्हीं दिनों उन्हें न्यायालय ने प्रतिबंधित राइफल मामले में कुछ राहत दी थी. एक संजय दत्त ही नहीं, बल्कि फिल्म, टीवी और प्रिंट मीडिया से जुड़े ज्यादातर बड़े नामों द्वारा सफलता के लिए तरहतरह के टोटके और कर्मकांड अपनाए जाते हैं. अनिश्चितता के मनोवैज्ञानिक दबाव के चलते उन के द्वारा ऐसा किया जाता है, लेकिन जब मीडिया द्वारा ये खबरें लाखोंकरोड़ों लोगों तक पहुंचती हैं, तो भीड़ के लिए बेवजह अनुकरणीय बन जाती हैं.

जीवन के हर पहलू की रोमांचमयी परिभाषाएं गढ़ने में जुटा बाजार, इन चीजों को जम कर भुनाता है. इंटरनेट व मोबाइल पर सेक्सी वालपेपर, धुनों के बाद सब से ज्यादा बिकने वाला कंटेंट भक्तिमय ही है. प्रवचन उगलते चैनलों की टीआरपी बहुत बार बाकी सभी चैनलों को पछाड़ती नजर आती है. देशीविदेशी फिल्मों, गानों की सीडी, डीवीडी, कैसेटस के नकली कारोबार की अपेक्षा भक्तिमय सामग्री की असली सीडी, कैसेट, डीवीडी आदि चोखा धंधा होता है. ओझा, सोखा, गुनिया, ज्योतिषी और तांत्रिकों का रोमांचकारी सनसनीखेज मायाजाल चैनलों के लिए वरदान बना हुआ है. भूतों और इच्छाधारी नागों को सुरंगहवेलियों से खींचखींच कर कैमरे के सामने लाने को आतुर मीडिया महारथी लोगों की बुद्धि और कंपनियों की बैलेंसशीटों को एकसाथ मोटा कर रहे हैं.

कबीलाई टोटकों से धर्म की उत्पत्ति का दावा करने वाला इमाइल दुर्खीम, ईश्वर की मौत का उद्घोष करने वाला फ्रेडरिक नीत्से, मानव विकास के सभी धार्मिक सिद्धांतों को अपने विकासवादी विचारों से खारिज कर देने वाले चार्ल्स डार्विन और ह्यूगोे डि ब्रीज, धर्म को अफीम और ईश्वर को शोषण का सब से सशक्त हथियार मानने वाले कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंजेल्स व इन जैसे अनेक विचारक काल के गाल में इसलिए समा गए, क्योंकि इन को आज के बाजारू ढांचे में फिट नहीं किया जा सकता था.

विकास की सारी बागडोर हथियाने वाली पूंजी का सर्वसमावेशी चरित्र केवल उन रुझानों को पनपने दे सकता है, जो लोगों की बुद्धि और तर्क को किनारे कर के सिर्फ भावुक महत्त्वाकांक्षाओं के उपयोगितावादी माहौल में जीना सिखाएं. ग्रीटिंग कार्ड भले ही नए साल और वेलेंटाइन डे पर ज्यादा बिकते हों, लेकिन गिफ्ट पैकों और सोनेचांदी के सिक्कोंगहनों की ज्यादा बिक्री के लिए गणेशलक्ष्मी की पूजा और होलिका दहन की परंपराओं का विस्तार अनिवार्य है.

आटोमोबाइल्स की ज्यादा बिक्री के लिए ‘माता’ की नवरात्रमयी कृपाओं और ‘कन्याधन’ की दहेजमयी सोच का जिंदा रहना बहुत जरूरी है. ब्रांडेड गहनों और कीमती डिजाइनर घाघरों को बेचने के लिए करवाचौथ और हरियाली तीज जैसे आडंबरों को और अधिक चमकदार बनाना ही होगा.

हर दौर में धर्म पैसे वालों के कंधों पर सवार हो कर आम लोगों का शोषण और संहार करने का साधन रहा. 1095 में रोमन कैथोलिक धर्माधिकारी पौप इन्नोसेंट के आह्वान पर पश्चिमी यूरोप द्वारा येरुसलम को अरबी मुसलमानों से मुक्त कराने को ले कर छेड़े गए धर्मयुद्ध, जिस के चलते अगले 4 सालों तक नृशंस नरसंहारों का दौर चला, से ले कर मोदी के गुजरात के घटनाक्रम तक की यात्रा में परिदृश्य और चरित्र ही बदले हैं, कारण और परिणाम वैसे के वैसे ही रहे.

अपने यहां आज भी धार्मिक प्रतीकों के पीछे लड़मरने की हिंसक कुंठा को उस व्यापक सुविधाभोगी वर्ग का समर्थन हासिल है, जो खुद सुरक्षित दायरों में रह कर, दायरे के बाहर होते अग्निकांडों का मजा लेना चाहता है. मजा लेने की यह धुन, उसे भी यह भुला देती है कि उस का अपना दायरा इन अग्निकांडों की प्रबलता के सामने जरा भी सुरक्षित नहीं रह जाता. और फिर अब तो मामला मीडिया के सौजन्य से अंतर्राष्ट्रीय हो गया है.

यह अनायास नहीं है कि खाड़ी युद्ध या इराकी तानाशाह की गिरफ्तारी व फांसी या डेनमार्क में पैगंबर विरोधी कार्टून छपने के समय अमेरिका विरोधी अश्लील नारे, नागरिक सुविधाओं से वंचित सीलन भरी मुसलिम बस्तियों की बिना प्लास्टर की दीवारों पर लिखे मिलते थे. एक तरफ अलकायदा आज भी इंटरनेट में हौट सर्फिंग डेस्टिनेशन बना हुआ है, दूसरी तरफ हिंदू जागृति संबंधी कई साइटों ने हिंदी व अंगरेजी में ढेरों सामग्री व चित्र इंटरनेट पर डाल रखे हैं. हर कोई धार्मिक आधार पर अपनेअपने समुदाय के दुनिया भर में बसे पैसे वाले लोगों से खुल कर सहयोग की अपील कर रहा है. इस आंच की तपिश, उन्माद में नहीं, बल्कि निष्पक्ष हो कर पूरे होशोहवास में एक बार महसूस करें, तो इस के खतरनाक डरावनेपन से आप बच सकते हैं.       

खत्म नहीं हो रही इरफान की मुसीबतें

व्यवस्था के खिलाफ एक आदमी की बेबसी के साथ साथ हर इंसान के अंदर के हीरो को जगाने की बात करने वाली फिल्म ‘मदारी’ को लेकर इरफान की मुसीबतें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही हैं. एक आम इंसान अपनी निजी जिंदगी में हर कदम पर तमाम मुश्किलों का सामना करता है. इरफान की फिल्म ‘मदारी’ के साथ भी वैसा ही हो रहा है. इरफान के लिए फिल्म मदारी बहुत मायने रखता है.

2012 में प्रदर्शित फिल्म पानसिंह तोमर के बाद ‘मदारी’ एक ऐसी फिल्म है, जिसकी कथा पूरी तरह से इरफान के इर्दगिर्द घूमती है. ‘मदारी ’एक ऐसी फिल्म है, जिसकी कथा खुद इरफान ने चुनी और वह इस फिल्म के निर्माता भी हैं. पिछले दो महीने से इरफान अपनी इस फिल्म को आम लोगों तक पहुंचाने के लिए जोर शोर से प्रचार कर रहे हैं. वह देश के तमाम शहरों में जा चुके हैं.

उन्होंने कुछ दिन पहले जयपुर में मुस्लिम धर्म और रमजान को लेकर अपने विचार भी रखे, जिससे कुछ मौलवी नाराज भी हो गए. पर वह अपने बयान से पीछे नहीं हटे. तो वहीं वह 7 जुलाई को ईद के मौके पर पटना में जनता दल के नेता लालू प्रसाद यादव के घर जाकर उनसे मिले. लालू यादव के संग डमरू भी बजाया. लालूप्रसाद यादव का इंटरव्यू भी लिया. वह यह सारा काम अपनी फिल्म ‘मदारी’ के प्रचार को ध्यान में रखकर ही कर रहे हैं.

यह सब करने के पीछे उनकी मंशा अपनी फिल्म ‘मदारी’ के लिए ज्यादा से ज्यादा दर्शक जुटाकर फिल्म को सफल बनाना है. एक तरफ आम आदमी (इरफान) अपनी कोशिशों में लगे हुए हैं, तो व्यवस्था (फिल्म उद्योग) से जुड़े लोग अपना काम कर रहे हैं. हर बार इस व्यवस्था से खुद और अपनी फिल्म ‘मदारी’ को बचाने के लिए इरफान को नए कदम उठाने पड़ रहे हैं.

फिल्म ‘मदारी’ 10 जून को रिलीज होने वाली थी. पर जब अमिताभ बच्चन,विद्या बालन और नवाजुद्दीन सिद्दिकी की फिल्म ‘तीन’ की रिलीज की तारीख 10 जून तय हुई, तो मजबूरन इरफान ने अपनी फिल्म ‘मदारी’ के रिलीज की तारीख 10 जून से बढ़ाकर 15 जुलाई कर दी. इसके पीछे उनकी सोच यह थी कि इसी बहाने उन्हें अपनी फिल्म को प्रचारित करने का समय भी मिल जाएगा और वह एक बड़ी फिल्म से टकराने से बच जाएंगे. इरफान अच्छी तरह से समझते हैं कि बड़ी हस्ती के सामने आम इंसान की नहीं चलती.

सब कुछ सही चल रहा था. 15 जुलाई को इरफान की फिल्म ‘मदारी’ के साथ नवोदित कलाकारों के अभिनय से सजी और नवोदित निर्देशक की फिल्म ‘लव के फंडे’ ही रिलीज हो रही थी. इसलिए भी इरफान ज्यादा सशंकित नहीं थे. मगर अब इसे व्यवस्था (फिल्म उद्योग) की कार्यशैली कहें या नियति का खेल कि इरफान को मजबूरी में अपनी फिल्म ‘मदारी’ को रिलीज करने की तारीख एक बार फिर 15 जुलाई से एक सप्ताह आगे बढ़ाकर 22 जुलाई करनी पड़ी है.

वास्तव में पहले इंद्र कुमार की फिल्म ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ 22 जुलाई को रिलीज होने वाली थी. लेकिन 5 जुलाई को ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ इंटरनेट पर लीक हो गयी.इं द्रकुमार ने सायबर सेल का दरवाजा खटखटाया, मगर वह अपनी फिल्म को इंटरनेट से बचा नहीं पाए. इसलिए मजबूरन इंद्र कुमार ने अपनी फिल्म ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ को 22 जुलाई की बजाय अब एक सप्ताह पहले 15 जुलाई को ही रिलीज करने का फैसला किया है. यह फैसला आते ही फाएज अनवार ने भी अपनी फिल्म ‘लव के फंडे’ को 15 जुलाई से 22 जुलाई खिसका दिया.

इरफान ने भी अपनी फिल्म ‘मदारी’ को 15 जुलाई से 22 जुलाई के लिए खिसका दिया. तो क्या इरफान की ‘मदारी’, इंद्र कुमार की फिल्म ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ से डर गयी? शायद यही सच है. ‘मदारी’ आम इंसान की कथा है. जबकि ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ सेक्स कॉमेडी फिल्म है. और इंसान की रूचि सेक्स में होती ही है. तो इरफान को लगा कि दर्शक ‘मदारी’ की बजाय सेक्स कॉमेडी फिल्म ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ को प्राथमिकता देगा. इसके अलावा इरफान का सबसे बड़ा डर फिल्म ‘मदारी’ के निर्देशक निशिकांत कामत हैं, जिनकी पिछली फिल्म ‘रॉकी हैंडसम’ ने बॉक्स आफिस पर पानी भी नहीं मांगा था, जब कि ‘रॉकी हैंडसम’ में जॉन अब्राहम जैसे स्टार कलाकार थे.

फिल्म ‘मदारी’ के प्रचार के लिए पत्रकारों से बात करते हुए इरफान ने कहा था, ‘जिंदगी में आप कभी मदारी तो कभी जमूरा होते हैं.’ शायद उस वक्त इरफान ने यह बात खुद के संदर्भ में कही थी. क्योंकि फिलहाल मदारी तो इरफान को ही नचा रहा है. उधर बॉलीवुड के कुछ लोग इरफान पर चुटकी लेते हुए कह रहे हैं कि फिल्म ‘मदारी’ में फिल्म का नायक अपने बेटे का अपहरण हो जाने पर मंत्री के बेटे का अपहरण कर लेता है.

अब जबकि फिल्म इंडस्ट्री के निर्माता उनकी फिल्म ‘मदारी’ की रिलीज की तारीख का अपहरण कर अपनी फिल्में रिलीज कर रहे हैं, तो क्या इरफान के पास अपनी फिल्म ‘मदारी’ की रिलीज की तारीख बार बार आगे बढ़ाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है. वहीं बॉलीवुड में यह चर्चाएं भी गर्म हैं कि क्या इरफान ने जिस आत्म विश्वास के साथ एक छोटी सी आइडिया पर फिल्म ‘मदारी’ बनाने का साहस दिखाया,उनका वह आत्म विश्वास अब कहां गायब हो गया?

यों न हारें जिंदगी की जंग

नजरिया बदलने भर से बहुत कुछ बदल जाता है. उदास सी दिखने वाली जिंदगी में भी फूलों की बगिया महक उठती है. इस के लिए संयम, विवेक और उचित संतुलन की दरकार होती है. जो ऐसा नहीं कर पाते वे उदासी के सागर में डूबतेउतराते रहते हैं. जब आप जीत के इरादे से आगे बढ़ते हैं, तो विपरीत परिस्थितियों को भी अनुकूल बना लेते हैं, लेकिन जो वक्त से पहले हार जाते हैं वे न सिर्फ डिप्रैशन का शिकार होते हैं, बल्कि अपने परिवार को भी न भूलने वाला दुख दे जाते हैं. उस परिवार को जिस की खुशियों के लिए जीते रहे होते हैं. समाज में भी गलत संदेश जाता है. लोग बुजदिल, कायर जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं. ऐसे शब्द या बातें किसी के जिंदा रहते या बाद में पहचान बनें तो यह उन परिवारों के लिए और भी पीड़ादायक होता है, जिन्हें पछताने के लिए छोड़ दिया जाता है.

उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले की 46 वर्षीय नीता गुलाटी पेशे से सरकारी स्कूल में शिक्षिका थीं. वे इतनी सुंदर थीं कि सभी उन की तारीफ करते थे. उन के पति भी सरकारी कर्मचारी थे. उन का एक बेटा और एक बेटी उच्च शिक्षा हासिल कर रहे थे. परिवार में खुशियों का बसेरा था. बाहरी तौर पर देखने में सब ठीक था. पतिपत्नी के बीच न मनमुटाव था न ही परिवार में किसी चीज की कमी थी. इस सब से अलग नीता अंदरूनी तौर पर किसी अलग दुनिया में जी रही थीं. वे डिप्रैशन का शिकार थीं, जिस की भनक उन के पति को नहीं थी.

एक शाम नीता घर में अकेली थीं. पति वापस आए, तो उन्होंने नीता का शव बैडरूम में पंखे से लटका पाया. जीवनसंगिनी का हाल देख कर उन के होश उड़ गए. नीता ने फांसी का फंदा लगा कर अपनी सांसों की डोर तोड़ कर बुजदिली दिखा दी थी. आसपास के लोग भी एकत्र हो गए. किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि आर्थिक रूप से समृद्ध व खुशहाल परिवार के बावजूद नीता ने ऐसा कदम उठा लिया.

आत्महत्या की वजह

नीता ने अपनी आत्महत्या की वजह भी एक सुसाइड नोट की चंद लाइनों में लिख छोड़ी थी – ‘सौरी, लेकिन क्या करूं अपनी बीमारी से बहुत परेशान हूं…’

दरअसल, नीता सनबर्न से परेशान थीं और इस कारण डिप्रैशन में रहती थीं. 3 साल से उन का इलाज चल रहा था. बीमारी लाइलाज भी नहीं थी, लेकिन नीता अंदर ही अंदर बीमारी को ले कर डिप्रैशन का शिकार हो गई थीं.

सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणों के प्रति ऐक्सपोजर से त्वचा में तकलीफ होना सनबर्न कहलाता है. पानी पी कर, स्किन को ढक कर रखने, धूप से बचने व सनस्क्रीन लोशन लगाने आदि उपाय अपना कर इसे आसानी से कम  किया जा सकता है, परंतु नकारात्मकता नीता पर हावी थी. धीरेधीरे वे डिप्रैशन की इतनी शिकार हो गईं कि उन्होंने परिवार की खुशियों की और अपनी परवाह किए बिना गलत रास्ते का चुनाव कर लिया.

नीता की जानपहचान वाले भरोसा ही नहीं कर रहे थे कि इतनी छोटी वजह के लिए कोई अपनी जान भी दे सकता है, लेकिन संदेह जैसा भी कुछ नहीं था. नीता अपने परिवार के लिए यादों में सिमट कर रह गईं. सकारात्मक रवैए और विवेक से वे खुद को संभाल भी सकती थीं.

भागतीदौड़ती जिंदगी में विभिन्न कारणों से डिप्रैशन का दाखिल हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है. सभी थोड़ाबहुत इस का शिकार होते हैं, लेकिन समय रहते इस पर अंकुश लगाना बेहतर होता है वरना यह तमाम बीमारियों के साथ जिंदगी को इतना बोझिल बना देता है कि आप को अपनी जिंदगी बेकार नजर आने लगती है. ये वे खतरनाक पल होते हैं, जो मौत के करीब तक पहुंचा देते हैं.

जिंदगी बोझिल लगे तो उस के जीने का अंदाज बदल दीजिए. नाजुक दौर में विवेक  से काम लेना आने वाली परेशानियों से बचा लेता है. जो समय रहते नहीं संभल पाते वे अकल्पनीय बातों का शिकार हो जाते हैं.

आप को अपने इर्दगिर्द ही ऐसे लोग मिल जाएंगे, जो आप से अधिक परेशान होंगे. कोई आंखों से बेनूर होता है, तो कोई अपाहिज, फिर भी लोग हौसले से वक्त बिता कर मिसाल कायम करते हैं. याद रखें, दुनिया में लाखोंकरोड़ों लोग होते हैं, जो आप जैसी जिंदगी पाने के लिए तरस रहे होते हैं. किसी के पास खाने को दो वक्त का खाना नहीं होता, किसी के पास छत नहीं होती, तो किसी के पास इलाज को पैसे नहीं होते. इस के बावजूद वे खुशीखुशी जी रहे होते हैं. उन के चेहरों की चमक अंदरूनी होती है. यों ही लोग विचलित हो कर जिंदगी से हारने लगें, तो इन की सूची रोज लंबी होती जाएगी. जिंदगी के मकसद को कायम रखें और हर हाल में खुश रहने की कला सीखें. मनोचिकित्सकों की मानें, तो बुरे खयालों और परेशानियों को खुद पर हावी न होने दें. इस से परेशानी घटने के बजाय बढ़ेगी ही. अपना पूरा ध्यान समस्या के समाधान पर केंद्रित करते हुए सकारात्मक हो जाना चाहिए. प्रतिकूल हालात कभी स्थाई नहीं होते.

ऐसे भी लोग होते हैं जो अपना नजरिया बदल कर जिंदगी को अपने हाथों से संवार लेते हैं. तब भी जब वे बुरे से बुरे खयालों का शिकार हो जाएं और जिंदगी पहाड़ सी नजर आए.

उत्तराखंड के ऋषिकेश की रहने वाली अनीता शर्मा उर्फ भैरवी के कान के नीचे एक गांठ बन गई. गांठ ने कैंसर का रूप ले लिया है. इस से अनीता की रातों की नींद उड़ गई और वे परेशान रहने लगीं. परेशानी का स्तर हद लांघ गया, तो लगा कि जिंदगी का कोई मतलब नहीं रह गया है. लेकिन उन्होंने अपना नजरिया बदला. फिर लगने लगा कि सकारात्मक हो कर बीमारी से लड़ने के साथ नकारात्मक बातों से बचा जा सकता है और वे अच्छी जिंदगी जी सकती हैं. एहसास हो चला कि निराशा और हताशा तो परेशानी और बढ़ा देगी. अनीता ने जिंदगी जीने का अंदाज बदल दिया. अपना ज्यादातर वक्त पेड़पौधों, जानवरों व पक्षियों की देखभाल में बिताने लगीं. इस से उन्हें जैसे जीने का बड़ा मकसद मिल गया. अनीता का महंगा औपरेशन होना है. अभी इतने पैसे नहीं कि तत्काल इलाज करा सकें, लेकिन इस बात से वे विचलित नहीं होतीं. वे अपना संतुलन बना कर खुशहाल जीवन बिताने पर विश्वास रखती हैं. हालात से हार जाने को जिंदगी नहीं मानतीं.

पुलिस विभाग में बतौर वायरलैस औपरेटर तैनात लक्ष्मी सिंह पुंडीर ने भी नजरिया बदल कर खुद को व अपने परिवार को संवारने का काम किया. 2 साल पहले पता चला कि उन्हें कैंसर है. बीमारी के खयाल ने ही उन्हें तोड़ दिया. औपरेशन और कीमोथेरैपी से स्वास्थ्य गिर गया. तकलीफ के साथ लाखों रुपए भी बीमारी में खर्च हो गए, जिस से उन के परिवार पर आर्थिक संकट आ गया. ऐसे बुरे हालात से जूझ कर कई बार लगा कि बोझिल जिंदगी से छुटकारा पा लिया जाए. ऐसे बुरे खयाल कई बार आए. लेकिन जब भी ऐसा होता वे अपने 3 बच्चों का खयाल करतीं. उन के और अपने लिए सपने बुनतीं. डिप्रैशन महीनों हावी रहा, लेकिन वे सकारात्मक सोच से बुरे खयालों पर काबू पा लेती थीं. नतीजा यह निकला कि वे लंबे इलाज के बाद बीमारी पर काफी हद तक काबू पा गईं.

बकौल लक्ष्मी, ‘‘जब आप के साथ सब कुछ नकारात्मक हो जाता है तो भी एक  बात सकारात्मक होती है कि आप उम्मीद का दामन कभी न छोड़ें. विश्वास का दामन थामे रखना चाहिए. जंग को जीतने की ठान लें. यही सोचें कि हमें मरना नहीं है, हर हाल में जीना है और एक दिन सब ठीक हो जाता है. मेरा कैंसर शरीर में बुरी तरह फैल चुका था. फोर्थ स्टेज पर था. मैं ने यही सोच रखा था कि मुझे जीना है और बीमारी को हारना पड़ेगा.’’

न हों डिप्रैशन का शिकार

डिप्रैशन यानी अवसाद एक गंभीर मानसिक विकार है. कई शोधों में साफ हुआ है कि यह पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को जल्दी घेरता है. बदलती जीवनशैली में यह बीमारी तेजी से बढ़ रही है. डिप्रैशन भावनाओं, समझ, व्यवहार व विचारों को बुरी तरह प्रभावित करता है. यह जीवन के हर पहलू को प्रभावित करता है. धीरेधीरे यह व्यक्ति को ऐसे मुकाम पर ले जाता है जब उसे लगने लगता है कि उस की दुनिया खत्म हो गई है. जीने लायक कुछ नहीं बचा है. इस की अधिकता आत्महत्या तक भी ले जाती है. इस के तमाम कारण होते हैं. मस्तिष्क में संदेश प्रसारित करने वाले रासायनिक संदेशवाहक न्यूरोट्रांसमीटर के असामान्य स्तर की डिप्रैशन में खास भूमिका होती है. मानसिक आघात, कड़वे अनुभव, तनावयुक्त जीवनशैली, शारीरिक रोग, मानसिक आघात, कमजोर व्यक्तित्व, निराशावादी रवैया भी इस के कारणों में शामिल होते हैं. इस के लक्षणों में उदासी, निराशा, नींद में खलल, भूख कम लगना, थकान महसूस करना, खुद को बेकार समझना, निराशावादी होना, खुद में कमियां निकालना, खुद को अकेला महसूस करना, उम्मीदों का टूटना, खुशी के पलों में रुचि की कमी, बेचैनी, चिड़चिड़ापन, अकसर सिरदर्द रहना आदि शामिल होते हैं. कई बार स्थिति खतरनाक हो जाती है.

डिप्रैशन का इलाज आप के अपने हाथों में होता है. यह आप पर ही निर्भर करता है कि आप उस से किस तरह निकलना चाहते हैं.

चिकित्सक मानते हैं कि सकारात्मक नजरिए से आप डिप्रैशन से पूरी तरह बाहर निकल सकते हैं. खुद का ध्यान रखने के लिए समय अवश्य निकालें. किसी भी प्रकार के नशे से बचें, क्योंकि यह डिप्रैशन में बड़ा खतरा है. अपनी हौबीज को पूरा करने की कोशिश करें. ऐसे रिश्ते बनाएं जहां दिल की बात खुल कर कह सकें. लोगों से मिलतेजुलते रहें. इस के बावजूद डिप्रैशन से निकलने में कामयाब न हों, तो किसी बड़े खतरे से बचने के लिए चिकित्सक से संपर्क करें. चिकित्सक यदि दवा देते हैं, तो उस का नियमित सेवन करने के साथसाथ उन की समझाई गई बातों पर भी अमल करें. याद रखें डिप्रैशन का इलाज सिर्फ दवा ही नहीं होती. इस में आप की इच्छाशक्ति और सकारात्मक रवैया भी बहुत माने रखता है.

खूबसूरत तोहफा है जीवन

‘‘प्रौब्लम एक छोटे बिंदू की तरह होती है. महिलाएं उस के बारे में सोचसोच कर उस बिंदू को पहाड़ बना देती हैं. इस के विपरीत असल फोकस सौल्यूशन पर होना चाहिए. सौल्यूशन के बारे में सोचें, तो हजार रास्ते निकल आते हैं. समस्या को पकड़ कर बैठे रहेंगे, तो वे तो बढ़ेगी ही डिप्रैशन में भी आ जाएंगे. जिंदगी एक हसीन तोहफा है. अपनी बातों को सोचसमझ कर सीधा बोलें, क्योंकि अनजाने में कई बार हम कुछ ऐसा बोल जाते हैं, जो बाद में दुख का कारण बनता है.’’

– डा. फरीदा खान, महिला चिकित्सक

 

समस्याओं का डट कर मुकाबला करें

‘‘जिंदगी में छोटीबड़ी चुनौतियां आना आम बात है. उन का सामना कर के विजय पाने की कला आप को आनी चाहिए. कुछ बातों पर हम इतना सोचते हैं कि कई बार वही दुख की बड़ी वजह बन जाती हैं. सोचना जरूरी है, लेकिन सोचा क्या जाए यह निर्धारित करना भी अनिवार्य है, क्योंकि गलत सोच न सिर्फ अपने, बल्कि दूसरों के जीवन को भी प्रभावित कर सकती है. समस्याओं का डट कर मुकाबला करें.’’

– बी चंद्रकला, आईएएस

 

हार नहीं जीत का नाम दें

‘‘हमारा जीने का नजरिया जितना सकारात्मक होगा, जिंदगी उतनी ही खूबसूरत होगी. ऐसा कोई इनसान नहीं होता जिस के सामने चुनौतियां न आती हों. बेहतर यही होता है कि आम समस्याओं को बड़ा होने से पहले ही सकारात्मक तरीके से दूर कर लिया जाए और समस्या बड़ी है, तो उसी के समाधान पर पूरा ध्यान लगा दें.’’

– अंजुम आरा, पुलिस अधीक्षक, हिमाचल प्रदेश में तैनात देश की दूसरी मुसलिम आईपीएस अधिकारी

 

कुछ भी नामुमकिन नहीं

‘‘लोग भौतिक सुविधाओं में उलझ गए हैं. वे उन्हें जिंदगी की असल खुशी मानते हैं जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है. हमें आंतरिक खुशियों को प्राथमिकता देनी चाहिए. जिंदगी में कई बार ऐसा भी होता है जब लगता है कि सब खत्म हो रहा है. जबकि वास्तव में यही टर्निंग पौइंट होता है. संभलना कठिन होता है, लेकिन नामुमकिन कतई नहीं.’’ 

– अर्पणा बुर्जवाल, ग्लोबल कोऔर्डिनेट्स, दिल्ली

 

जिंदगी जीने का नाम है

दिल्ली के तिलक नगर में रहने वाले गुरमीत सिंह व्यवसायी हैं. परिवार में पत्नी व बच्चों के साथ हंसीखुशी गुजर रहा था वक्त. एक दिन उन की नाक से खून बहने लगा तो उन्होंने उसे हलके में न ले कर डाक्टर को दिखाया. डाक्टर ने कुछ टैस्ट कराने को कहा. रिपोर्ट आई तो गुरमीत को किडनी में कैंसर निकला.

परिवार वालों ने सुना तो वे घबरा गए पर गुरमीत को पता था कि अगर उन्होंने हिम्मत से काम न लिया तो यह बीमारी बाद में खतरनाक साबित हो सकती है.

गुरमीत कहते हैं, ‘‘मैं ने ठंडे दिमाग से सोचा और हिम्मत न हारते हुए डाक्टर को दिखाया. डाक्टर ने कहा कि औपरेशन कर के 1 किडनी निकालनी पड़ेगी. मैं मानसिक रूप से तैयार था. औपरेशन के बाद अब मैं स्वस्थ्य हूं और डाक्टर की देखरेख में सामान्य जिंदगी जी रहा हूं.

‘‘अगर मैं घबराता, तनाव में आता तो मेरे साथ मेरे परिवार वाले भी परेशान होते. गंभीर बीमारी को गंभीरता से लिया. जिस दिन औपरेशन था उस दिन भी मैं अपने परिवार के साथ हंसीमजाक कर रहा था व अच्छे मूड में था.’’

इन बातों का रखें ध्यान

– चिंता से दूर ही रहने की कोशिश करें.

– बहुत ज्यादा सोचने के लिए खुद को अकेला न छोड़ें.

– परेशानी की अवस्था में किसी से बहस न करें वरना डिप्रैशन और बढ़ जाएगा.

– परिवार के लोग तनावग्रस्त सदस्य की गतिविधियों पर नजर रखें और उस से सहानुभूति दिखाएं.

– अपने दर्द को किसी करीबी से साझा करें. इस से मन हलका होगा.

– परेशानी की अवस्था में प्रिय लोगों के साथ वक्त बिताएं.

– परेशानियां स्थाई नहीं होतीं, संयम व विवेक को स्थान दें.

– जिंदगी के उतारचढ़ाव से उबरने की सकारात्मक तरीके से कोशिश करें.

– तकलीफ देह बातों को याद न करें.

– सोचिए आप से भी अधिक परेशान लोग दुनिया में हैं.

– आत्महत्या जैसा बुरा खयाल मन में आए, तो उस से ध्यान हटाएं. बारबार यह खयाल परेशान करे, तो मनोचिकित्सक से संपर्क करें. 

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