Short Stories in Hindi : वसंत आ गया – क्या संगीता ठीक हो पाई

Short Stories in Hindi : ट्रिन ट्रिन…फोन की घंटी बजती जा रही थी मगर इस से बेखबर आलोक टीवी पर विश्व कप फुटबाल मैच संबंधी समाचार सुनने में व्यस्त थे. तब मैं बच्चों का नाश्ता पैक करती हुई उन पर झुंझला पड़ी, ‘‘अरे बाबा, जरा फोन तो अटेंड कीजिए, मैं फ्री नहीं हूं. ये समाचार तो दिन में न जाने कितनी बार दोहराए जाएंगे.’’

आलोक चौंकते हुए उठे और अपनी स्टाइल में फोन रिसीव किया, ‘‘हैलो…आलोक एट दिस एंड.’’

स्कूल जाते नेहा और अतुल को छोड़ने मैं बाहर की ओर चल पड़ी. दोनों को रिकशे में बिठा कर लौटी तो देखा, आलोक किसी से बात करने में जुटे थे. मुझे देखते ही बोले, ‘‘रंजू, तुम्हारा फोन है. कोई मिस्टर अनुराग हैं जो सिर्फ तुम से बात करने को बेताब हैं,’’ कह कर उन्होंने रिसीवर मुझे थमा दिया और खुद अपने छूटते समाचारों की ओर दौड़ पड़े.

मुझे कुछ याद ही नहीं आ रहा था कि कौन अनुराग है जिसे मैं जानती हूं, पर बात तो करनी ही थी सो बोल पड़ी, ‘‘हैलो, मैं रंजू बोल रही हूं…क्या मैं जान सकती हूं कि आप कौन साहब बोल रहे हैं?’’

‘‘मैं अनुराग, पहचाना मुझे? जरा दिमाग पर जोर डालना पड़ेगा. इतनी जल्दी भुला दिया मुझे?’’ फोन करने वाला जब अपना परिचय न दे कर मजाक करने लगा और पहेलियां बुझाने लगा तो मुझे बहुत गुस्सा आया कि पता नहीं कौन है जो इस तरह की बातें कर रहा है, पर आवाज कुछ जानीपहचानी सी लग रही थी. इसलिए अपनी वाणी पर अंकुश लगाती हुई मैं बोली, ‘‘माफ कीजिएगा, अब भी मैं आप को पहचान नहीं पाई.’’

‘‘मेरी प्यारी बहना, अपने सौरभ भाई की आवाज भी तुम पहचान नहीं पाओगी, ऐसा तो मैं ने सोचा ही नहीं था.’’

‘‘सौरभ भाई, आप…वाह…, तो मुझे उल्लू बनाने के लिए अपना नाम अनुराग बता रहे थे,’’ खुशी से मैं इतनी जोर से चीखी कि आलोक घबरा कर मेरे पास दौड़े चले आए.

‘‘क्या हुआ? इतनी जोर से क्यों चीखीं? कहीं छिपकली दिख गई क्या?’’

मैं इनकार में सिर हिलाती हुई हंस पड़ी, क्योंकि छिपकली देख कर भी मैं डर के मारे हमेशा चीख पड़ती हूं. फिर रिसीवर में माउथपीस पर हाथ रख कर बोली, ‘‘जरा रुकिए, अभी आ कर बताती हूं,’’ तो आलोक लौट गए.

‘‘हां, अब बताइए भाई, इतने दिनों बाद बहन की याद आई? कब आए आप स्ंिगापुर से? बाकी लोग कैसे हैं?’’ मैं ने सवालों की झड़ी लगा दी.

‘‘फिलहाल किसी के बारे में मुझे कोई खबर नहीं है, क्योंकि सब से ज्यादा मुझे सिर्फ तुम्हारी याद आई, इसलिए भारत आने के बाद सब से पहले मैं ने तुम्हें फोन किया. तुम से मिलने मैं कल ही तुम्हारे घर आ रहा हूं. पूरे 2 दिन तुम्हें बोर होना पड़ेगा. इसलिए कमर कस कर तैयार हो जाओ. बाकी बातें अब तुम्हारे घर पर ही होंगी, बाय,’’ इतना कह कर भाई ने फोन काट दिया.

सौरभ भाई कल सच में हमारे घर आने वाले हैं, सोच कर मैं खुशी से झूम उठी. 10 साल हो गए थे उन्हें देखे. आखिरी बार उन्हें अपनी शादी के वक्त देखा था.

अपने मातापिता की मैं अकेली संतान थी, पर दोनों चचेरे भाई सौरभ और सौभिक मुझ पर इतना प्यार लुटाते

थे कि मुझे कभी एहसास ही न हुआ कि मेरा अपना कोई सगा भाई या बहन नहीं है. काकाकाकी की तो मैं वैसे भी लाड़ली थी.

इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि हम भुवनेश्वर में रहते थे और काका का परिवार पुरी में. हमारा लगभग हर सप्ताह ही एकदूसरे से मिलनाजुलना हो जाता था. इसलिए 60-65 किलोमीटर की दूरी हमारे लिए कोई माने नहीं रखती थी.

मेरी सौभिक भाई से उतनी नहीं पटती थी, जितनी सौरभ भाई से. मेरे प्यारे और चहेते भैया तो सौरभ भाई ही थे. उन के अलावा समुद्र का आकर्षण ही था जो प्रत्येक सप्ताह मुझे पुरी खींच लाता था.

उन दिनों मैं दर्शनशास्त्र में एम.ए. कर रही थी इसलिए सौरभ भाई की जीवनदर्शन की गहरी बातें मुझे अच्छी लगती थीं. एक दिन वह कहने लगे, ‘रंजू, अपने भाई की एक बात गांठ बांध लो, गलती स्वीकार करने में ही समझदारी होती है. जीवन कोई कोर्ट नहीं है जहां कभीकभी गलत बात को भी तर्क द्वारा सही साबित कर दिया जाता है.’

मैं उन का मुंह ताकती रह गई तो वह आगे बोले, ‘तुम शायद ठीक से मेरी बात समझ नहीं पाईं. ठीक है, इस बात को मैं तुम्हें फिल्मी भाषा में समझाता हूं. थोड़ी देर पहले तुम ‘आनंद’ फिल्म का जिक्र कर रही थीं. मैं ने भी देख रखी है यह फिल्म. इस के एक सीन में जब अमिताभ रमेश देव से पूछता है कि तुम ने क्यों उस धनी सेठ को कोई बीमारी न होते हुए भी झूठमूठ की महंगी गोलियां दे कर एक मोटी रकम झटक ली. तो इस पर रमेश देव कहता है कि अगर ऐसे धनी लोगों को बेवकूफ बना कर मैं पैसे नहीं लूंगा तो गरीब लोगों का मुफ्त इलाज कैसे करूंगा?

‘एक नजर में रमेश देव का यह तर्क सही भी लगता है, परंतु सचाई की कसौटी पर परखा जाए तो क्या वह गलत नहीं था? अगर किसी गरीब की वह मदद करना चाहता था तो अपनी ओर से जितनी हो सके करनी चाहिए थी. इस के लिए किसी अमीर को लूटना न तो न्यायसंगत है और न ही तर्कसंगत, इसलिए ज्ञानी पुरुष गलत बात को सही साबित करने के लिए तर्क नहीं दिया करते बल्कि उस भूल को सुधारने का प्रयास करते हैं.’

एक दिन कालिज से घर लौटी तो मां एक खुशखबरी के साथ मेरा इंतजार कर रही थीं. मुझे देखते ही बोलीं, ‘सुना तू ने, तेरे काका का फोन आया था कि कल तेरे सौरभ भाई के लिए लड़की देखने कानपुर चलना है. सौरभ ने कहा है कि उसे हम सब से ज्यादा तुझ पर भरोसा है कि तू ही उस के लिए सही लड़की तलाश सकती है.’

मुझे अपनेआप पर नाज हो आया कि मेरे भाई को मुझ पर कितना यकीन है.

दूसरे दिन सौरभ भाई और सौभिक भाई के अलावा हम सब कानपुर पहुंचे तो मैं बहुत खुश थी. हम सभी को लड़की पसंद आ गई. हां, उस की उम्र जरूर मेरी मां और काकी के विचार से कुछ ज्यादा थी, पर आजकल 27 साल में शादी करना कोई खास बात नहीं होती. फिर उसे देख कर कोई 22-23 से ज्यादा की नहीं समझ सकता था.

बैठक में सब को चायनाश्ता देने और थोड़ी देर वहां बैठने के बाद जब भाभी अंदर जाने लगीं तो काकी ने मुझ से कहा, ‘रंजू, तुम अंदर जा कर संगीता के साथ बातें करो. यहां बड़ों के बीच बैठी बोर हो जाओगी. फिर हमें तो कुछ उस से पूछना है नहीं.’

मैं भी भाभी के साथ बात करना चाहती थी, इसलिए अंदर चली गई. तभी उन के  घर में भाभी के बचपन से काम करने वाली आया कमली ने उन्हें एक टेबलेट खाने को दी. मेरे कुछ पूछने से पहले की कमली बोली, ‘शायद घबराहट के मारे बेबी के सिर में कुछ दर्द सा होने लगा है. आप तो समझ ही सकती हैं क्योंकि आप भी लड़की हैं.’

इस पर मैं बोली, ‘मैं समझ सकती हूं, पर च्ंिता करने की कोई बात नहीं है. हम सब को भाभी पहले ही पसंद आ चुकी हैं.’

भाभी ने तब तल्ख स्वर में कहा था, ‘पसंद तो सभी करते हैं पर शादी कोई नहीं.’

‘पर हम तो आज सगाई भी कर के जाने वाले हैं.’ मुझे लगा कि पहले कोई रिश्ता नहीं हो पाया होगा इसलिए भाभी ऐसे बोल रही हैं.

फिर सगाई कर के ही लौटे थे. इस के 10 दिन बाद सौरभ भाई के पास एक गुमनाम फोन आया कि जिस लड़की से आप शादी करने जा रहे हैं वह एक गिरे हुए चरित्र की लड़की है. अपने स्वभाव के मुताबिक सुनीसुनाई बात पर यकीन न करते हुए भाई ने फोन करने वाले से सख्त लहजे में कहा था, ‘आप को इस विषय में च्ंिता करने की कोई आवश्यकता नहीं है. उस के चरित्र के विषय में मुझे सब पता है.’

करीब एक महीने बाद ही धूमधाम से हम सब संगीता भाभी को दुलहन बना कर घर ले आए. उन के साथ दहेज में कमली भी आई थी. हमारे घर वालों ने सोचा ससुराल में भाभी को ज्यादा परेशानी न हो इस वजह से उन के मायके वालों ने उसे साथ भेजा है.

सौरभ भाई खूबसूरत दुलहन पा कर बहुत खुश थे. दुलहन पसंद करने के एवज में मैं ने उन से लाकेट समेत सोने की खूबसूरत एक चेन और कानों की बालियां मांगी थीं जो शादी के दिन ही उन्होंने मुझे दे दी थीं.

अगले दिन जब मैं फूलों का गजरा देने भाभी के कमरे की ओर जा रही थी तो मैं ने सौभिक भाई को छिप कर भाभी के कमरे में झांकते हुए देखा. मैं ने उत्सुकतावश घूम कर दूसरी ओर की खिड़की से कमरे के अंदर देखा तो दंग रह गई. भाभी सिर्फ साया और ब्लाउज पहने घुटने मोड़ कर पलंग पर बैठी थीं. साया भी घुटने तक चढ़ा हुआ था जिस में गोरी पिंडलियां छिले हुए केले के तने जैसी उजली और सुंदर लग रही थीं. उन के गीले केशों से टपकते हुए पानी से पीछे ब्लाउज भी गीला हो रहा था. उस पर गहरे गले का ब्लाउज पुष्ट उभारों को ढकने के लिए अपर्याप्त लग रहा था. इस दशा में वह साक्षात कामदेव की रति लग रही थीं.

सहसा ही मैं स्वप्नलोक की दुनिया से यथार्थ के धरातल पर लौट आई. फिर सधे कदमों से जा कर पीछे से सौभिक भाई की पीठ थपथपा दी और अनजान सी बनती हुई बोली, ‘भाई, तुम यहां खड़े क्या कर रहे हो? बाहर काका तुम्हें तलाश रहे हैं.’

सौभिक भाई बुरी तरह झेंप गए, बोले, ‘वो…वो…मैं. सौरभ भाई को ढूंढ़ रहा था.’

वह मुझ से नजरें चुराते हुए बिजली की गति से वहां से चले गए. मैं गजरे की थाली लिए भाभी के कमरे में अंदर पहुंची. ‘यह क्या भाभी? इस तरह क्यों बैठी हो? जल्दी से साड़ी बांध कर तैयार हो जाओ, तुम्हें देखने आसपास के लोग आते ही होंगे.’

‘मुझे नहीं पता साड़ी कैसे बांधी जाती है. कमली मेरे लिए दूध लेने गई है, वही आ कर मुझे साड़ी पहनाएगी,’ भाभी का स्वर एकदम सपाट था.

‘अच्छा, लगता है, तुम सिर्फ सलवारसूट ही पहनती हो. आओ, मैं तुम्हें बताती हूं कि साड़ी कैसे बांधी जाती है. मैं तो कभीकभी घर पर शौकिया साड़ी बांध लेती हूं.’

बातें करते हुए मैं ने उन की साड़ी बांधी. फिर केशों को अच्छी तरह पोंछ कर हेयर ड्रायर से सुखा कर पोनी बना दी. फिर हेयर पिन से मोगरे का गजरा लगाया और चेहरे का भी पूरा मेकअप कर डाला. सब से अंत में मांग भरने के बाद जब मैं ने उन के माथे पर मांगटीका सजाया तो कुछ पलों तक मैं खुद उस अपूर्व सुंदरी को निहारती रह गई.

इतनी देर तक मैं उन से अकेले ही बात करती रही. उन का चेहरा एकदम निर्विकार था. पूरे शृंगार के बावजूद कुछ कमी सी लग रही थी. शायद वह कमी थी भाभी के मुखड़े पर नजर न आने वाली स्वाभाविक लज्जा, क्योंकि यही तो वह आभूषण है जो एक भारतीय दुलहन की सुंदरता में चार चांद लगा देता है. ऐसा क्यों था, मैं तब समझ नहीं पाई थी, परंतु अगली रात को रिसेप्शन पार्टी के वक्त इस का राज खुल गया.

वह रात शायद सौरभ भाई के जीवन की सब से दुख भरी रात थी.

उस दिन मौका मिलने पर जबतब मैं सौरभ भाई को भाभी का नाम ले कर छेड़ती थी. रात को रिसेप्शन पार्टी पूरे शबाब पर थी. दूल्हादुलहन को मंडप में बिठाया गया था. लोग तोहफे और बुके ले कर जब दुलहन के पास पहुंचते तो इतनी सुंदर दुलहन देख पलक झपकाना भूल जाते. हम सब खुश थे, पर हमारी खुशी पर जल्दी ही तुषारापात हो गया.

वह पूर्णिमा की रात थी. हर पूर्णिमा को ज्वारभाटे के साथ समुद्र का शोर इतना बढ़ जाता कि काका के घर तक साफ सुनाई पड़ता. उस वक्त ऐसा ही लगा था जैसे अचानक ही शांत समुद्र में इस कदर ज्वारभाटा आ गया हो जो हमारे घर के अमनचैन को तबाह और बरबाद कर डालने पर उतारू हो. मेरे मन में भी शायद समुद्र से कम ज्वारभाटे न थे.

अचानक ही दुलहन बनी भाभी अपने शरीर की हरेक वस्तु को नोंचनोंच कर फेंकने लगीं, फिर पूरे अहाते में चीखती हुई इधर से उधर दौड़ने लगीं. बड़ी मुश्किल से उन्हें काबू में किया गया. कमली ने दौड़ कर कोई दवा भाभी को खिलाई तो वह धीरेधीरे कुरसी पर बेहोश सी पड़ गईं. तब भाभी को उठा कर कमरे में लिटा दिया गया. फिर तो सभी लोगों ने कमली को कटघरे में ला खड़ा किया. उस का चेहरा सफेद पड़ चुका था. उस ने डरते और रोते हुए बताया, ‘पिछले 4 सालों से संगीता बेबी को अचानक दौरे पड़ने शुरू हो गए. रोज दवा लेने से वह कुछ ठीक रहती हैं, परंतु अगर किसी कारणवश 10-11 दिन तक दवा नहीं लें तो दौरा पड़ जाता है. यह सब जान कर कौन शादी के लिए तैयार होता? इसलिए इस बारे में कुछ न बता कर यह शादी कर दी गई.

‘मैं ने उन्हें बचपन से पाला है, इसलिए मुझे साथ भेज दिया गया ताकि उन्हें समय से दवा खिला सकूं. सब ने सोचा कि नियति ने चाहा तो किसी को पता नहीं चलेगा, पर शायद नियति को यह मंजूर नहीं था,’ कह कर कमली फूटफूट कर रोने लगी.

काकी तो यह सुन कर बेहोश हो गईं. मां ने उन्हें संभाला. घर के सभी लोग एकदम आक्रोश से भर उठे. इतने बड़े धोखे को कोई कैसे पचा सकता था. तुरंत उन के मायके वालों को फोन कर दिया कि आ कर अपनी बेटी को ले जाएं. सहसा ही मैं अपराधबोध से भर उठी थी. जिस भाई ने मुझ पर भरोसा कर के मेरी स्वीकृति मात्र से लड़की देखे बिना शादी कर ली उसी भाई का जीवन मेरी वजह से बरबादी के कगार पर पहुंच गया था. इस की टीस रहरह कर मेरे मनमस्तिष्क को विषैले दंश से घायल करती रही और मैं अंदर ही अंदर लहूलुहान होती रही.

2 दिन बाद भाभी के मातापिता आए. हमारे सारे रिश्तेदारों ने उन्हें जितना मुंह उतनी बातें कहीं. जी भर कर उन्हें लताड़ा, फटकारा और वे सिर झुकाए सबकुछ चुपचाप सुनते रहे. 2 घंटे बाद जब सभी के मन के गुबार निकल गए तो भाभी के पिता सब के सामने हाथ जोड़ कर बोले, ‘आप लोगों का गुस्सा जायज है. हम यह स्वीकार करते हैं कि हम ने आप से धोखा किया. हम अपनी बेटी को ले कर अभी चले जाएंगे.

‘परंतु जाने से पहले मैं आप लोगों से यह कहना चाहता हूं कि हमारी बेटी कोई जन्म से ऐसी मानसिक रोगी नहीं थी. उसे इस हाल में पहुंचाने वाला आप का यह बेदर्द समाज है. 7 साल पहले एक जमींदार घराने के अच्छे पद पर कार्यरत लड़के के साथ हम ने संगीता का रिश्ता तय किया था. सगाई होने तक तो वे यही कहते रहे कि आप अपनी मरजी से अपनी बेटी को जो भी देना चाहें दे सकते हैं, हमारी ओर से कोई मांग नहीं है. फिर शादी के 2 दिन पहले इतनी ज्यादा मांग कर बैठे जो किसी भी सूरत में हम पूरी नहीं कर सकते थे.

‘अंतत: हम ने इस रिश्ते को यहीं खत्म कर देना बेहतर समझा, परंतु वे इसे अपना अपमान समझ बैठे और बदला लेने पर उतारू हो गए. चूंकि वे स्थानीय लोग थे इसलिए हमारे घर जो भी रिश्ता ले कर आता उस से संगीता के चरित्र के बारे में उलटीसीधी बातें कर के रिश्ता तोड़ने लगे. इस के अलावा वे हमारे जानपहचान वालों के बीच भी संगीता की बदनामी करने लगे.

‘इन सब बातों से संगीता का आत्मविश्वास खोने लगा और वह एकदम गुमसुम हो गई. फिर धीरेधीरे मनोरोगी हो गई. इलाज के बाद भी खास फर्क नहीं पड़ा. जब आप लोग किसी की बातों में नहीं आए तो किसी तरह आप के घर रिश्ता करने में हम कामयाब हो गए.

‘मन से हम इस साध को भी मिटा न सके  कि बेटी का घर बसता हुआ देखें. हम यह भूल ही गए कि धोखा दे कर न आज तक किसी का भला हुआ है और न होगा. हो सके तो हमें माफ कर दीजिए. आप लोगों का जो अपमान हुआ और दिल को जो ठेस पहुंची उस की भरपाई तो मैं नहीं कर पाऊंगा, पर आप लोगों का जितना खर्चा हुआ है वह मैं घर पहुंचते ही ड्राफ्ट द्वारा भेज दूंगा. बस, अब हमें इजाजत दीजिए.’

फिर वह कमली से बोले, ‘जाओ कमली, संगीता को ले आओ.’

यह सुन कर एकदम सन्नाटा छा गया. तभी जाती हुई कमली को रोकते हुए सौरभ भाई बोले, ‘ठहरो, कमली, संगीता कहीं नहीं जाएगी. यह सही है कि इन लोगों ने हमें धोखा दिया और हम सब को ठेस पहुंचाई. इस के लिए इन्हें सजा भी मिलनी चाहिए, और सजा यह होगी कि आज के बाद इन से हमारा कोई संबंध नहीं होगा. परंतु इस में संगीता की कोई गलती नहीं है, क्योंकि उस की मानसिक दशा तो ऐसी है ही नहीं कि वह इन बातों को समझ सके.

‘परंतु मैं ने तो अपने पूरे होशोहवास में मनप्राण से उसे पत्नी स्वीकारा है. अग्नि को साक्षी मान कर हर दुखसुख में साथ निभाने का प्रण किया है. कहते हैं जन्म, शादी और मृत्यु सब पहले से तय होते हैं. अगर ऐसा है तो यही सही, संगीता जैसी भी है अब मेरे साथ ही रहेगी. मैं अपने सभी परिजनों से हाथ जोड़ कर विनती करता हूं

कि मुझे मेरे जीवनपथ से विचलित न करें क्योंकि मेरा निर्णय अटल है.’

सौरभ भाई के स्वभाव से हम सब वाकिफ थे. वह जो कहते उसे पूरा करने में कोई कसर न छोड़ते, इसलिए एकाएक ही मानो सभी को सांप सूंघ गया.

संगीता भाभी के मातापिता सौरभ भाई को लाखों आशीष देते चले गए. बाकी वहां मौजूद सभी नातेरिश्तेदारों में से किसीकिसी ने सौरभ भाई को सनकी, बेवकूफ और पागल आदि विशेषणों से विभूषित किया और धीरेधीरे चलते बने. आजकल किसी के पास इतना वक्त ही कहां होता है कि किसी की व्यक्तिगत बातों और समस्याओं में अपना कीमती वक्त गंवाए.

भाभी के आने के बाद मैं बहुत मौजमस्ती करने की योजना मन ही मन बना चुकी थी, पर अब तो सब मन की मन ही में रही. तीसरे दिन अपने मम्मीपापा के साथ ही मैं ने लौटने का मन बना लिया.

दुखी मन से मैं भुवनेश्वर लौट आई. आने से पहले चुपके से एक रुमाल में सोने की चेन और कानों की बालियां कमली को दे आई कि मेरे जाने के बाद सौरभ भाई को दे देना. जब उन की ज्ंिदगी में बहार आई ही नहीं तो मैं कैसे उस तोहफे को कबूल कर सकती थी.

सौरभ भाई के साथ हुए हादसे को काकी झेल नहीं पाईं और एक साल के अंदर ही उन का देहांत हो गया. काकी के गम को हम अभी भुला भी नहीं पाए थे कि एक दिन नाग के डसने से कमली का सहारा भी टूट गया. बिना किसी औरत के सहारे के सौरभ भाई के लिए संगीता भाभी को संभालना मुश्किल होने लगा था, इसलिए सौरभ भाई ने कोशिश कर के अपना तबादला भुवनेश्वर करवा लिया ताकि मैं और मम्मी उन की देखभाल कर सकें.

मकान भी उन्होंने हमारे घर के करीब ही लिया था. वहां आ कर मेरी मदद से घर व्यवस्थित करने के बाद सब से पहले वह संगीता भाभी को अच्छे मनोचिकित्सक के पास ले गए. मैं भी साथ थी.

डाक्टर ने पहले एकांत में सौरभ भाई से संगीता भाभी की पूरी केस हिस्ट्री सुनी फिर जांच करने के बाद कहा कि उन्हें डिप्रेसिव साइकोसिस हो गया है. ज्यादा अवसाद की वजह से ऐसा हो जाता है. इस में रोेगी जब तक क्रोनिक अवस्था में रहता है तो किसी को जल्दी पता नहीं चल पाता कि अमुक आदमी को कोई बीमारी भी है, परंतु 10 से ज्यादा दिन तक वह दवा न ले तो फिर उस बीमारी की परिणति एक्यूट अवस्था में हो जाती है जिस में रोगी को कुछ होश नहीं रहता कि वह क्या कर रहा है. अपने बाल और कपड़े आदि नोंचनेफाड़ने जैसी हरकतें करने लगता है.

डाक्टर ने आगे बताया कि एक बार अगर यह बीमारी किसी को हो जाए तो उसे एकदम जड़ से खत्म नहीं किया जा सकता, परंतु जीवनपर्यंत रोजाना इस मर्ज की दवा की एक गोली लेने से सामान्य जीवन जीया जा सकता है. दवा के साथ ही साथ साईकोथैरेपी से मरीज में आश्चर्यजनक सुधार हो सकता है और यह सिर्फ उस के परिवार वाले ही कर सकते हैं. मरीज के साथ प्यार भरा व्यवहार रखने के साथसाथ बातों और अन्य तरीकों से घर वाले उस का खोया आत्मविश्वास फिर से लौटा सकते हैं.

डाक्टर के कहे अनुसार हम ने भाभी का इलाज शुरू कर दिया. मां तो अपने घर के काम में ही व्यस्त रहती थीं, इसलिए भाई की अनुपस्थिति में भाभी के साथ रहने और उन में आत्मविश्वास जगाने के लिए मैं ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी. भाई और मैं बातोंबातों में निरंतर उन्हें यकीन दिलाने की कोशिश करते कि वह बहुत अच्छी हैं, सुंदर हैं और हरेक काम अच्छी तरह कर सकती हैं.

शुरू में वह नानुकर करती थीं, फिर धीरेधीरे मेरे साथ खुल गईं. हम तीनों मिल कर कभी लूडो खेलते, कभी बाहर घूमने चले जाते.

लगातार प्रयास से 6 महीने के अंदर संगीता भाभी में इतना परिवर्तन आ गया कि वह हंसनेमुसकराने लगीं. लोगों से बातें करने लगीं और नजदीक के बाजार तक अकेली जा कर सब्जी बगैरह खरीद कर लाने लगीं. दूसरे लोग उन्हें देख कर किसी भी तरह से असामान्य नहीं कह सकते थे. यों कहें कि वह काफी हद तक सामान्य हो चुकी थीं.

हमें आश्चर्य इस बात का हो रहा था कि इस बीच न तो काका और न ही सौभिक भाई कभी हालचाल पूछने आए, पर सब कुछ ठीक चल रहा था, इसलिए हम ने खास ध्यान नहीं दिया.

इस के 5 महीने बाद ही मेरी शादी हो गई और मैं अपनी ससुराल दिल्ली चली गई. ससुराल आ कर धीरेधीरे मेरे दिमाग से सौरभ भाई की यादें पीछे छूटने लगीं क्योंकि आलोक के अपने मातापिता के एकलौते बेटे होने के कारण वृद्ध सासससुर की पूरी जिम्मेदारी मेरे ऊपर थी. उन्हें छोड़ कर मेरा शहर से बाहर जाना मुश्किल था.

मेरे ससुराल जाने के 2 महीने बाद ही पापा ने एक दिन फोन किया कि अच्छी नौकरी मिलने के कारण सौरभ भाई संगीता भाभी के साथ सिंगापुर चले गए हैं. फिर तो सौरभ भाई मेरे जेहन में एक भूली हुई कहानी बन कर रह गए थे.

अचानक किसी के हाथ की थपथपाहट मैं ने अपने गाल पर महसूस की तो सहसा चौंक पड़ी और सामने आलोक को देख कर मुसकरा पड़ी.

‘‘कहां खोई हो, डार्ल्ंिग, कल तुम्हारे प्यारे सौरभ भाई पधार रहे हैं. उन के स्वागत की तैयारी नहीं करनी है?’’ आलोक बोले. वह सौरभ भाई के प्रति मेरे लगाव को अच्छी तरह जानते थे.

‘‘अच्छा, तो आप को पता था कि फोन सौरभ भाई का था.’’

‘‘हां, भई, पता तो है, आखिर वह हमारे साले साहब जो ठहरे. फिर मैं ने ही तो उन से पहले बात की थी.’’

दूसरे दिन सुबह जल्दी उठ कर मैं ने नहाधो कर सौरभ भाई के मनपसंद दमआलू और सूजी का हलवा बना कर रख दिया. पूरी का आटा भी गूंध कर रख दिया ताकि उन के आने के बाद जल्दी से गरमगरम पूरियां तल दूं.

आलोक उठ कर तैयार हो गए थे और बच्चे भी तैयार होने लगे थे. रविवार होने की वजह से उन्हें स्कूल तो जाना नहीं था. कोई गाड़ी घर के बाहर से गुजरती तो मैं खिड़की से झांक कर देखने लगती. आलोक मेरी अकुलाहट देख कर मंदमंद मुसकरा रहे थे.

आखिर जब तंग आ कर मैं ने देखना छोड़ दिया तो अचानक पौने 9 बजे दरवाजे की घंटी बज उठी. मैं ने दौड़ कर दरवाजा खोला तो सामने सदाबहार मुसकान लिए सौरभ भाई अटैची के साथ खड़े थे. वह तो वैसे ही थे, बस बदन पहले की अपेक्षा कुछ भर गया था और मूंछें भी रख ली थीं.

उन से पहली बार मिलने के कारण बच्चे नमस्ते करने के बाद कुछ सकुचाए से खड़े रहे. सौरभ भाई ने घुटनों के बल बैठते हुए अपनी बांहें पसार कर जब उन्हें करीब बुलाया तो दोनों बच्चे उन के गले लग गए.

मैं भाई को प्रणाम करने के बाद दरवाजा बंद करने ही वाली थी कि वह बोले, ‘‘अरे, क्या अपनी भाभी और भतीजे को अंदर नहीं आने दोगी?’’

मैं हक्कीबक्की सी उन का मुंह ताकने लगी क्योंकि उन्होंने भाभी और भतीजे के बारे में फोन पर कुछ कहा ही नहीं था. तभी भाभी ने अपने 7 वर्षीय बेटे के साथ कमरे में प्रवेश किया.

कुछ पलों तक तो मैं कमर से भी नीचे तक चोटी वाली सुंदर भाभी को देख ठगी सी खड़ी रह गई, फिर खुशी के अतिरेक में उन के गले लग गई.

सभी का एकदूसरे से मिलनेमिलाने का दौर खत्म होने और थोड़ी देर बातें करने के बाद भाभी नहाने चली गईं. फिर नाश्ते के बाद बच्चे खेलने में व्यस्त हो गए और आलोक तथा सौरभ भाई अपने कामकाज के बारे में एकदूसरे को बताने लगे.

थोड़ी देर उन के साथ बैठने के बाद जब मैं दोपहर के भोजन की तैयारी करने रसोई में गई तो मेरे मना करने के बावजूद संगीता भाभी काम में हाथ बंटाने आ गईं. सधे हाथों से सब्जी काटती हुई वह सिंगापुर में बिताए दिनों के बारे में बताती जा रही थीं. उन्होंने साफ शब्दों में स्वीकारा कि अगर सौरभ भाई जैसा पति और मेरी जैसी ननद उन्हें नहीं मिलती तो शायद वह कभी ठीक नहीं हो पातीं. भाभी को इस रूप में देख कर मेरा अपराधबोध स्वत: ही दूर हो गया.

दोपहर के भोजन के बाद भाभी ने कुछ देर लेटना चाहा. आलोक अपने आफिस के कुछ पेंडिंग काम निबटाने चले गए. बच्चे टीवी पर स्पाइडरमैन कार्टून फिल्म देखने में खो गए तो मुझे सौरभ भाई से एकांत में बातें करने का मौका मिल गया.

बहुतेरे सवाल मेरे मानसपटल पर उमड़घुमड़ रहे थे जिन का जवाब सिर्फ सौरभ भाई ही दे सकते थे. आराम से सोफे  पर पीठ टिका कर बैठती हुई मैं बोली, ‘‘अब मुझे सब कुछ जल्दी बताइए कि मेरी शादी के बाद क्या हुआ. मैं सब कुछ जानने को बेताब हूं,’’ मैं अपनी उत्सुकता रोक नहीं पा रही थी.

भैया ने लंबी सांस छोड़ते हुए कहना शुरू किया, ‘‘रंजू, तुम्हारी शादी के बाद कुछ भी ऐसा खास नहीं हुआ जो बताया जा सके. जो कुछ भी हुआ था तुम्हारी शादी से पहले हुआ था, परंतु आज तक मैं तुम्हें यह नहीं बता पाया कि पुरी से भुवनेश्वर तबादला मैं ने सिर्फ संगीता के लिए नहीं करवाया था, बल्कि इस की और भी वजह थी.’’

मैं आश्चर्य से उन का मुंह देखने लगी कि अब और किस रहस्य से परदा उठने वाला है. मैं ने पूछा, ‘‘और क्या वजह थी?’’

‘‘मां के बाद कमली किसी तरह सब संभाले हुए थी, परंतु उस के गुजरने के बाद तो मेरे लिए जैसे मुसीबतों के कई द्वार एकसाथ खुल गए. एक दिन संगीता ने मुझे बताया कि सौभिक ने आज जबरन मेरा चुंबन लिया. जब संगीता ने उस से कहा कि वह मुझ से कह देंगी तो माफी मांगते हुए सौभिक ने कहा कि यह बात भैया को नहीं बताना. फिर कभी वह ऐसा नहीं करेगा.

‘‘यह सुन कर मैं सन्न रह गया. मैं तो कभी सोच भी नहीं सकता था कि मेरा अपना भाई भी कभी ऐसी हरकत कर सकता है. बाबा को मैं इस बात की भनक भी नहीं लगने देना चाहता था, इसलिए 2-4 दिन की छुट्टियां ले कर दौड़धूप कर मैं ने हास्टल में सौभिक के रहने का इंतजाम कर दिया. बाबा के पूछने पर मैं ने कह दिया कि हमारे घर का माहौल सौभिक की पढ़ाई के लिए उपयुक्त नहीं है.

‘‘वह कुछ पूछे बिना ही हास्टल चला गया क्योंकि उस के मन में चोर था. रंजू, आगे क्या बताऊं, बात यहीं तक रहती तो गनीमत थी, पर वक्त भी शायद कभीकभी ऐसे मोड़ पर ला खड़ा करता है कि अपना साया भी साथ छोड़ देता नजर आता है.

‘‘मेरी तो कहते हुए जुबान लड़खड़ा रही है पर लोगों को ऐसे काम करते लाज नहीं आती. कामांध मनुष्य रिश्तों की गरिमा तक को ताक पर रख देता है. उस के सामने जायजनाजायज में कोई फर्क नहीं होता.

‘‘एक दिन आफिस से लौटा तो अपने कमरे में घुसते ही क्या देखता हूं कि संगीता घोर निद्रा में पलंग पर सोई पड़ी है क्योंकि तब उस की दवाओं में नींद की गोलियां भी हुआ करती थीं. उस के कपड़े अस्तव्यस्त थे. सलवार के एक पैर का पायंचा घुटने तक सिमट आया था और उस के अनावृत पैर को काका की उंगलियां जिस बेशरमी से सहला रही थीं वह नजारा देखना मेरे लिए असह्य था. मेरे कानों में सीटियां सी बजने लगीं और दिल बेकाबू होने लगा.

‘‘किसी तरह दिल को संयत कर मैं यह सोच कर वापस दरवाजे की ओर मुड़ गया और बाबा को आवाज देता हुआ अंदर आया जिस से हम दोनों ही शर्मिंदा होने से बच जाएं. जब मैं दोबारा अंदर गया तो बाबा संगीता को चादर ओढ़ा रहे थे, मेरी ओर देखते हुए बोले, ‘अभीअभी सोई है.’ फिर वह कमरे से बाहर निकल गए. इन हालात में तुम ही कहो, मैं कैसे वहां रह सकता था? इसीलिए भुवनेश्वर तबादला करा लिया.’’

‘‘यकीन नहीं होता कि काका ने ऐसा किया. काकी के न रहने से शायद परिस्थितियों ने उन का विवेक ही हर लिया था जो पुत्रवधू को उन्होंने गलत नजरों से देखा,’’ कह कर शायद मैं खुद को ही झूठी दिलासा देने लगी.

भाई आगे बोले, ‘‘रिश्तों का पतन मैं अपनी आंखों से देख चुका था. जब रक्षक ही भक्षक बनने पर उतारू हो जाए तो वहां रहने का सवाल ही पैदा नहीं होता. इत्तिफाकन जल्दी ही मुझे सिंगापुर में एक अच्छी नौकरी मिल गई तो मैं संगीता को ले कर हमेशा के लिए उस घर और घर के लोगों को अलविदा कह आया ताकि दुनिया के सामने रिश्तों का झूठा परदा पड़ा रहे.

‘‘जब मुझे यकीन हो गया कि दवा लेते हुए संगीता स्वस्थ और सामान्य जीवन जी सकती है तो डाक्टर की सलाह ले कर हम ने अपना परिवार आगे बढ़ाने का विचार किया. जब मुझे स्वदेश की याद सताने लगी तो इंटरनेट के जरिए मैं ने नौकरी की तलाश जारी कर दी. इत्तिफाक से मुझे मनचाही नौकरी दिल्ली में मिल गई तो मैं चला आया और सब से पहले तुम से मिला. अब और किसी से मिलने की चाह भी नहीं है,’’ कह कर सौरभ भाई चुप हो गए.

वह 2 दिन रह कर लाजपतनगर स्थित अपने नए मकान में चले गए. मैं बहुत खुश थी कि अब फिर से सौरभ भाई से मिलना होता रहेगा. मेरे दिल से

मानो एक बोझ उतर गया था क्योंकि हो न हो मेरी ही वजह से पतझड़ में

तब्दील हो गए मेरे प्रिय और आदरणीय भाई के जीवन में भी आखिर वसंत आ ही गया.

जातेजाते भाभी ने मेरे हाथ में छोटा सा एक पैकेट थमा दिया. बाद में उसे मैं ने खोला तो उस में उन की शादी के वक्त मुझे दी गई चेन और कानों की बालियों के साथ एक जोड़ी जड़ाऊ कंगन थे, जिन्हें प्यार से मैं ने चूम लिया.

Hindi Kahaniyan : कीर्तन, किट्टी पार्टी और बारिश

Hindi Kahaniyan : सुनंदा ने ड्रैसिंगटेबल के शीशे में खुद पर एक नजर डाली, खुश हुई. लगा वह अच्छी लग रही है, अपने शोल्डर कट बालों पर कंघी फेरी, मनपसंद परफ्यूम लगाया, टाइम देखा, 5 बज रहे थे. किट्टी पार्टी में जाने का टाइम हो रहा था. अपने बैग में अपना फोन, घर की चाबी रखी, अपने नए कुरते और चूड़ीदार पर फिर एक नजर डाली.

यह ड्रैस उस ने पिछले हफ्ते ही खरीदी थी अपने लिए. आज उस का जन्मदिन है. उस ने सोचा किट्टी पार्टी में जाते हुए एक केक ले कर जाएगी और किट्टी की बाकी सदस्याओं के साथ काटेगी और भरपूर ऐंजौय करेगी.

वह अपनी किट्टी की सब से उम्रदराज सदस्या है. खुद ही उसे हंसी आ गई, उम्रदराज क्यों, 50 की ही तो हो रही है आज, यह इतनी भी उम्र नहीं है कि वह अपने को उम्रदराज सम  झे. वह तो अपनेआप को बहुत यंग और ऊर्जावान महसूस करती है. उम्र से क्या होता है. चलो, कहीं देर न हो जाए. उस ने जैसे ही पर्स उठाया, डोरबैल बजी.

‘इस वक्त कौन है, सोचते हुए उस ने दरवाजा खोला, तो सामने दिल धक से रह गया. सामने बूआसास सुभद्रा, जेठानी रमा और उस की अपनी बड़ी बहन अलका खड़ी थी.

सुनंदा के मुंह से कोई बोल नहीं फूटा, तो सुभद्रा ने ही कहा, ‘‘अरे, मुंह क्या देख रही है, अंदर आने के लिए नहीं कहेगी?’’

‘‘हांहां, अरे, आइए न आप लोग,’’ कहते हुए उस ने सुभद्रा के पैर छुए. तीनों ने उसे जन्मदिन बिश करते हुए गिफ्ट्स दिए.

रमा बोली, ‘‘आज बहुत अच्छे दिन तुम्हारा बर्थडे पड़ा है, सुबह ही देवीमंदिर में बाबाजी आए हैं. पहले उन का प्रवचन होगा फिर कीर्तन, चलो, हम लोग तुम्हें लेने आए हैं.’’

सुनंदा हकलाई, ‘‘मैं कीर्तन?’’

सुभद्रा ने कहा, ‘‘चल, पता नहीं सारा दिन क्या करती रहती है, कुछ धर्म में मन लगा, पुण्य मिलेगा, बाबाजी इस बार बहुत दिनों में आए हैं. अगली बार पता नहीं कब आएं.’’

सुनंदा का मूड खराब हो गया. मन ही मन बाबाजी को कोसा, आज ही क्यों आ गए, उस की किट्टी है, लेकिन ये तीनों तो यह सुन कर ही बिदक जाएंगी कि वह कीर्तन छोड़ कर किट्टी में जाना चाहती है. वैसे ही ये तीनों उस के रंगढंग देख कर परेशानी रहती हैं.

फिर अलका ने उसे तैयार देख कर पूछा, ‘‘कहीं जा रही थी क्या?’’

‘‘हां दीदी, कुछ जरूरी काम था.’’

‘‘बाद में करती रहना अपना जरूरी काम, बाबाजी के प्रवचन से ज्यादा जरूरी क्या है? इस समय. जल्दी चलो, नहीं तो जगह नहीं मिलेगी.’’

‘तो न मिले. ऐसीतैसी में गया प्रवचन और कीर्तन, उसे नहीं जाना है,’ सुनंदा ने मन ही मन सोचा. तीनों को प्रत्यक्षत: कुछ कहने की स्थिति में नहीं थी वह, क्या करे यही सोच रही थी कि सुभद्रा ने अधिकारपूर्वक हठीले स्वर में कहा, ‘‘अब चल.’’

सुनंदा ने भरे मन से कहा, ‘‘ठीक है, कार निकाल लेती हूं.’’

सुभद्रा ने कहा, ‘‘हां, गाड़ी से जाना ठीक रहेगा, देर तो कर ही दी तूने.’’

सुनंदा ने कार निकाली, तीनों बैठ गईं. देवीमंदिर पहुंच कर देखा, खूब भीड़भाड़ थी, पुरुष बहुत कम थे जो थे बुजुर्ग ही थे, महिलाओं का एक मेला सा था, सुनंदा मन ही मन छटपटा रही थी, चुपचाप तीनों के साथ जा कर फर्श पर बिछी एक दरी पर एक कोने में बैठ गई. बाबाजी पधारे, सारी महिलाओं ने बाबाजी की जय का नारा लगाया, प्रवचन शुरू हो गया.

सुनंदा परेशान थी, उस का कहां मन लगता है इन प्रवचनों में, कीर्तनों में, किसी बाबाजी में उस की कोई श्रद्धा नहीं है. उसे सब ढोंगी, पाखंडी लगते हैं. प्रवचन के एक भी शब्द की तरफ उस का ध्यान नहीं था. उसे तो यही खयाल आ रहा था कि किट्टी शुरू हो गई होगी. उफ, सब उस का इंतजार कर रहे होंगे. आज वह अपने बर्थडे पर एंजौय करना चाहती थी और यहां यह बाबाजी का उबाऊ प्रवचन, फिर कीर्तन.

हाय, अब सब हाउजी खेल रहे होंगे, कितना मजा आता है उसे इस खेल में. उस के उत्साह का सब कितना मजे लेती हैं, अब स्नैक्स का टाइम हो रहा होगा, नेहा के घर है आज पार्टी, हम सब में सब से कम उम्र की है, लेकिन कितना हिलमिल गई है सब से. आज उस ने मालपुए बनाए होंगे सब की फरमाइश पर. कितने अच्छे बनाती है. सुनंदा के मुंह में पानी आ गया. बाबाजी का ज्ञान चल रहा था.

‘यह दुनिया क्या है, माया है,’ सुनंदा ने मन ही मन तुक बनाई.

‘तू आज मेरे बर्थडे पर ही क्यों आया है,’ अपनी तुकबंदी पर वह खुद ही हंस दी.

उसे मुकराता देख अलका ने उसे कुहनी मारी, ‘शांति से बैठ.’

‘कैसे निकले यहां से. अभी कीर्तन शुरू हो जाएगा,’ यह सोच सब की नजर बचा कर उस ने अपने बैग में हाथ डाल कर मोबाइल पर सुनीता को मिस काल दी. उसे पता था वह तुरंत वापस फोन करेगी. सुनीता उस की सब से करीबी सहेली थी, यह किट्टी इन दोनों ने ही शुरू की थी. छांटछांट कर एक से एक पढ़ीलिखी, नम्र, शिष्ट महिलाओं का ग्रु्रप बनाया था.

सुनीता का फोन आ गया, ‘‘क्या हुआ सुनंदा? तुम कहां हो?’’

सुनंदा ने ऐक्टिंग करते हुए सुभद्रा को सुनाते हुए कहा, ‘‘क्या, कब? अच्छा, मैं अभी पहुंच रही हूं.’’

रमा और अलका ने उसे घबराए हुए देखा, धीरे से पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’ सुनंदा ने घबराते हुए कहा, ‘‘मैं जा रही हूं, एक परिचित का ऐक्सीडैंट हो गया है, जाना जरूरी है.’’

सुभद्रा ने आंखें तरेंरी, ‘‘तू फोन बंद नहीं रख सकती थी क्या. बाद में चली जाना, तू जा कर क्या कर लेगी, बाबाजी…’’

सुनंदा ने बात पूरी ही नहीं होने दी, उठ खड़ी हुई, ‘बाद में मिलते हैं.’ सुनंदा जाने लगी, कितनी ही औरतों ने उसे घूरा, वह सब को अनदेखा कर बाहर निकल गई, चैन की सांस ली. केक की प्रसिद्ध शौप पर जा कर केक खरीद और पहुंच गई नेहा के घर. सब उसे देख कर खुश हो गईं.

नेहा ने कहा, ‘‘सुनंदाजी, इतना लेट?’’

सुनीता ने कहा, ‘‘यह तुम फोन पर कब, क्या, क्यों कर रही थीं?’’

सुनंदा ने हंसते हुए सब को पूरी कहानी सुनाई, सब बहुत हंसीं.

अनामिका बोली, ‘‘सुनंदाजी, आप का जवाब नहीं. आप हमारे सामने जिंदादिली का सजीव उदाहरण हैं.’’

‘‘तो और क्या, मैं आज की शाम किसी बाबाजी के लिए तो खराब नहीं कर सकती थी.’’

सब ने पूछा, ‘‘क्यों? आज कुछ खास है क्या?’’

सुनंदा ने केक टेबल पर रखते हुए कहा, ‘‘हां भई, आज मेरा बर्थडे है और मैं यह शाम तुम लोगों के साथ बिताना चाहती थी.’’

सब सुनंदा को गरमजोशी से विश करते हुए उस के गले लग गईं. सुनंदा की आंखें भर आईं. बोली, ‘‘तुम लोग ही तो अब मेरा परिवार हो जिन के साथ समय बिता कर मैं खुश हो जाती हूं.’’

बहुत अच्छा समय बिता कर सुनंदा खुशीखुशी घर लौट आई. घर आ कर अपने बैडरूम में थोड़ी देर के लिए लेट गई, वह अकेली रहती थी, वह 30 साल की थी जब उस के पति नीलेश की कैंसर से मृत्यु हो गई थी. तब उन का इकलौता बेटा गौरव केवल 7 साल का था, सुनंदा के ऊपर जैसे पहाड़ टूट पड़ा था.

नीलेश की असामयिक मौत पर वह परकटे पंछी की तरह मर्मांतक पीड़ा के अगाध सागर में डूब गई थी पर गौरव को देख कर उस ने खुद को संभाला था. नीलेश इंजीनियर थे, उन की सब जमापूंजी सुनंदा को हस्तांतरित हो गई थी, जिसे सुनंदा ने बहुत सोचसम  झ कर गौरव की पढ़ाई में लगाया था, घर अपना था ही.

आज गौरव भी सौफ्टवेयर इंजीनियर है, जो 1 साल के लिए अपनी पत्नी कविता के साथ अपनी कंपनी की तरफ से किसी प्रोजैक्ट के लिए आस्ट्रेलिया गया हुआ था.

रोज रोरो कर जीने के बजाए सुनंदा ने जीवन को हंसीखुशी से काटना चाहा. गौरव उस  के बैंक अकाउंट में बारबार मना करने पर भी उस की जरूरत से ज्यादा पैसे जमा करवाता रहता था. वे मांबेटे कम, दोस्त ज्यादा थे. गौरव एक आदर्श बेटा सिद्ध हुआ था. ऐसे ही अच्छे स्वभाव की कविता भी थी. गौरव की जिद पर वह ड्राइविंग, कंप्यूटर सब सीख चुकी थी.

एक मेड आ कर सुनंदा के सारे घर के काम कर जाती थी. गौरव और कविता से उस की रोज बात होती थी. कुल मिला कर अपने जीवन से सुनंदा पूर्णत: संतुष्ट थी.

नीलेश अपने मातापिता के छोटे बेटे थे. नीलेश की मृत्यु का उन्हें ऐसा धक्का लगा कि 1 साल के अंदर दोनों का हार्टफेल हो गया था. बड़ा बेटा देवेश उस की पत्नी रमा और उन के 2 बच्चे सार्थक और तन्वी, जिन्हें अपनी चाची सुनंदा से बहुत लगाव था. वे अपनी चाची से मिलने आते रहते थे.

अलका का भी कुछ ही दिन पहले पूना ट्रांसफर हुआ था. इन सब का साथ सुनंदा को अच्छा लगता था, लेकिन वह तब परेशान हो जाती जब ये तीनों उसे किसी न किसी कीर्तन या सत्संग में ले जाने के लिए तैयार रहतीं और उस की इन सब चीजों में कोई रुचि नहीं थी.

वह इन लोगों का अपमान भी नहीं करना चाहती थी, क्योंकि नीलेश की मृत्यु के समय इन सब ने उसे बहुत भावनात्मक सहारा दिया था, जिसे वह भूली नहीं थी.

सुनंदा लेटेलेटे सोच रही थी कि वह अपना जीवन पुण्य कमाने के लिए किसी धार्मिक आयोजन में नहीं बिता सकती, वह वही करेगी जो उसे अच्छा लगता है, जिस से उस के मन को खुशी मिलती है.

नीलेश भी तो अंतिम समय तक उस से यही कहते रहे कि वह हमेशा खुश रहे, अपनी जिंदादिली कभी नहीं छोड़े. वह थी भी तो शुरू से ऐसी ही हंसमुख, मिलनसार, बेहद सुंदर, अपने कोमल व्यवहार से सब के दिल में जगह बनाने वाली.

सुभद्रा बूआ का तो उसे सम  झ आता था. पुराने जमाने की बुजुर्ग महिला थीं. उन के पति की मृत्यु हो चुकी थी. अपने बहूबेटे के साथ रहती थीं. उन की बहू को उन की कितनी भी जरूरत हो वे हमेशा किसी न किसी प्रवचन या सत्संग में अपना समय बिताती थी.

सुनंदा से वे कभीकभी नाराज हो जाती थीं. कहतीं, ‘‘सुनंदा, क्यों अपना परलोक खराब कर रही हो? नीलेश तो चला गया, अब तुम्हें धर्मकर्म में ही मन लगाना चाहिए. मन शांत रहेगा.’’

सुनंदा कभी तो उन की उम्र और रिश्ते का लिहाज कर के चुप रह जाती. कभी प्यार से कहती, ‘‘बूआजी, मन की शांति के लिए मु  झे किसी के प्रवचन की जरूरत नहीं है.’’

सुनंदा को रमा और अलका पर मन ही मन गुस्सा आता, इस जमाने की पढ़ीलिखी औरतें हो कर कैसे अपना समय किसी बाबाजी के लिए खराब करती हैं, लेकिन वह यही कोशिश करती ये तीनों उसे न ले जाने पाएं.

अगले दिन वह नाश्ता कर के फ्री हुई. रोज की तरह उस ने वेबकैम सैट किया और गौरव और कविता से बात करने लगी. आस्ट्रेलिया के समय के अनुसार गौरव लंच करने इस समय घर आता था तो सुनंदा से जरूर बात करता था. दोनों से बात कर के सुनंदा का मन पूरा दिन खुश रहता था.

गौरव ने पूछा, ‘‘मां, कैसा रहा कल बर्थडे?’’

सुनंदा ने प्रवचन और किट्टी का किस्सा सुनाया, तो गौरव बहुत हंसा. बोला, ‘‘मां, आप का जवाब नहीं. आप हमेशा ऐसी रहना.’’

और थोड़ीबहुत बातचीत के बाद सुनंदा रोज के काम निबटाने लगी. शारीरिक रूप से वह बहुत चुस्तदुरुस्त, स्मार्ट थी, किसी को अंदाजा नहीं होता था कि वह 50 की हो गई है. वह एमए, बीएड थी.

उस ने काफी साल तक एक स्कूल में अध्यापिका के पद पर काम किया था, लेकिन गौरव ने अपनी नौकरी लगते ही बहुत जिद कर के मां से रिजाइन करवा दिया था. अब वह मनचाहा जीवन जी रही थी और खुश थी. पासपड़ोस की किसी भी स्त्री को उस की जरूरत होती, वह हमेशा हाजिर रहती. पूरी कालौनी में उस ने अपने मधुर व्यवहार और जिंदादिली से अपनी विशेष जगह बनाई हुई थी.

बस कभीकभी पड़ोस की कुछ महिलाएं उस के धार्मिक आयोजनों से दूर भागने पर मुंह बनाती थीं, जिसे वह हंस कर नजरअंदाज कर देती थी. उस का मानना था कि यह जीवन उस का है और वह इसे अपनी इच्छा से जीएगी, हमेशा खुश रहना उसे अच्छा लगता था.

एक दिन नेहा शाम को आई. कहने लगी, ‘‘संडे को हमारी पहली मैरिज ऐनिवर्सरी की ‘वैस्ट इन’ में पार्टी है, आप को जरूर आना है.’’

सुनंदा ने सहर्ष निमंत्रण स्वीकार किया. थोड़ी देर इधरउधर की गप्पें मार कर नेहा चली गई. संडे को पूरा गु्रप ‘वैस्ट इन’ पहुंचा. पार्टी अपने पूरे शबाब पर थी. लौन में चारों ओर पेड़ों और सलीके से कटी   झाडि़यों पर टंगी छोटेछोटे बल्बों की   झालरें बहुत सुंदर लग रही थी.

जुलाई का महीना था, बारिश की वजह से प्रोग्राम अंदर हौल में ही था, जो  बहुत अच्छी तरह सजा हुआ था. सब ने नेहा और उस के पति विपिन को बहुत सी शुभकामनाएं और गिफ्ट्स दिए. सब से मिलनेमिलाने का सिलसिला चलता रहा.

नेहा ने सब को अपने मातापिता, सासससुर से मिलवाया और अंत में एक सौम्य, स्मार्ट और आकर्षक व्यक्ति को अपने साथ ले कर आई और सब से मिलवाने लगी, ‘‘ये मेरे देव मामा हैं, अभी इन का ट्रांसफर पूना में ही हो गया है. बाकी सब तो कल ही चले जाएंगे, ये हमारे साथ ही रहेंगे.’’

देव ने सब को हाथ जोड़ कर नमस्ते की, अपनी आकर्षक मुसकराहट और बातों से उन्होंने सब को प्रभावित किया.

डिनर हो गया. सुनंदा घर जाना चाहती थी. 12 बज रहे थे. किसी को घर जाने की जल्दी नहीं थी. सुनंदा ने नेहा और विपिन से विदा ली और बाहर निकल आई. थोड़ी दूर ही पहुंची थी कि अचानक उस की कार रुक गई. बारिश बहुत तेज थी. उस ने बहुत कोशिश की, लेकिन कार स्टार्ट नहीं हुई. वह परेशान हो गई. पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था. कुछ सम  झ नहीं आया तो उस ने नेहा को अपनी परेशानी बताई.

नेहा ने फौरन कहा, ‘‘आप वहीं रुकिए, मैं अभी मामा को भेजती हूं.’’

‘‘अरे, नहीं, उन्हें क्यों तकलीफ देती हो?’’

‘‘कोई तकलीफ नहीं होगी उन्हें. बाकी सब डांस फ्लोर पर हैं. मामा ही अकेले बैठे है. वे आ जाएंगे. मैं आप का नंबर भी उन्हें दे देती हूं.’’

थोड़ी देर में देव पहुंच गए, उन्होंने फोन पर कहा, ‘‘आप अपनी गाड़ी वहीं लौक  कर के मेरी गाड़ी में आ जाइए. बारिश बहुत तेज है. ध्यान से आइएगा. मैं सामने खड़ी ब्लैक गाड़ी में हूं.’’

सुनंदा ने गाड़ी में हमेशा रहने वाला छाता उठाया, गाड़ी लौक की और फिर देव की गाड़ी में बैठते ही बोली, ‘‘सौरी, मेरी वजह से आप को परेशानी उठानी पड़ी.’’

देव हंसते हुए बोले, ‘‘मैं तो वहां अकेले बेकार ही बैठा था. मु  झे बरिश में ड्राइविंग करना अच्छा लगता है.’’

सुनंदा उन्हें अपने घर का रास्ता बताती रही. घर आ गया, तो देव ने कहा, ‘‘अगर आप चाहें तो अपनी कार की चाबी मु  झे दे दें, मैं ठीक करवा दूंगा या घर पर कोई है तो ठीक है.’’

‘‘ओह, थैंक्स अ लौट,’’ कहते हुए सुनंदा ने कार की चाबी देव को दे दी.

देव ‘गुडनाइट’ बोल कर चले गए.

अगले दिन शाम को नेहा देव के साथ सुनंदा से मिलने चली आई. सुनंदा दोनों को देख कर खुश हुई. नेहा देव को सुनंदा के बारे में सब बता चुकी थी. बातचीत के साथ चायनाश्ता होता रहा, रात की पार्टी की बातें होती रहीं.

नेहा ने कहा, ‘‘कितना मना कर रहे हैं हम लोग मामा को अलग फ्लैट ले कर शिफ्ट करने से, लेकिन मामा तो हैं ही शुरू से जिद्दी.’’

देव मुसकराते हुए बोले, ‘‘तुम लोगों को प्राइवेसी चाहिए या नहीं?’’

सुनंदा हंस पड़ी, तो देव उठ खड़े हुए. बोले, ‘‘मैं चलता हूं. मु  झे अपनी नई गृहस्थी की शौपिंग करनी है.’’

नेहा ने कहा, ‘‘विपिन आने वाले होंगे, मैं भी चलती हूं.’’

सुनंदा बोली,’’ मैं भी थोड़ा घर का सामान लेने जा रही हूं.’’

नेहा ने कहा, ‘‘तो आप मामा के साथ ही चली जाइए न. कार तो अभी है नहीं आप के पास.’’

सुनंदा ने औपचारिकतावश मना किया तो देव बोले, ‘‘चलिए न, मु  झे कंपनी मिल जाएगी.’’

सुनंदा ने सहमति में सिर हिला दिया. कहा, ‘‘आप बैठिए, मैं तैयार हो जाती हूं.’’

नेहा चली गई. देव सुनंदा का इंतजार करने लगे. सुनंदा तैयार हो कर आई तो देव ने उसे तारीफ भरी नजरों से देखा तो वह थोड़ा सकुचाई. फिर दोनों घर से निकले ही थे कि बहुत तेज बारिश होने लगी. दोनों ने एकदूसरे को देखा. देव ने कहा, ‘‘क्या हमेशा हम दोनों के साथ होने पर तेज बारिश होगी?’’

सुनंदा खुल कर हंस दी. दोनों ने शौपिंग की. फिर कौफी पी और देव ने सुनंदा को उस के घर छोड़ दिया. देव की बातों से उस ने इतना जरूर अंदाजा लगाया था कि देव अकेले हैं. ज्यादा कुछ उस ने पूछा नहीं था.

वह सोच रही थी वह माने या न माने, देव ने उस के मन में कुछ हलचल सी जरूर पैदा कर दी है. यदि ऐसा नहीं है तो उस का मन देव के इर्दगिर्द ही क्यों भटक रहा है, बाहर बारिश, कार के अंदर चलता एक पुराना कर्णप्रिय गीत, देव का बात करने का मनमोहक ढंग सुनंदा को बहुत अच्छा लगा था. नीलेश के बाद आज पहली बार किसी पुरुष के साथ ने उस के मन में इस तरह हलचल मचाई थी.

अगली किट्टी पार्टी का दिन आ गया. पार्टी सुरेखा के यहां थी. इस बार नेहा सब को उत्साहित हो कर बता रही थी, ‘‘मामा की शादी के 1 साल बाद ही उन का डाइवोर्स हो गया था. मामी अपने किसी प्रेमी के साथ शादी करना चाहती थी.

वह मामा के साथ एक दिन भी नहीं चाहती थी, मामा को उन्होंने बहुत तंग किया. मामी की इच्छा को देखते हुए मामा ने उन्हें चुपचाप डाइवोर्स दे दिया, उन्होंने तो अपने प्रेमी से शादी कर ली, लेकिन मामा ने उस के बाद गृहस्थी नहीं बसाई. मामा एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छी पोस्ट पर हैं. बस, उन्होंने काम में ही हमेशा खुद को व्यस्त रखा.’’

सुनंदा चुपचाप देव की कहानी सुन रही थी. नेहा ने अचानक पूछा, ‘‘सुनंदाजी, आप की और मामा की शौपिंग कैसी रही?’’

‘‘बहुत अच्छी,’’ कह कर सुनंदा और बाकी महिलाएं बातों में व्यस्त हो गईं.

अगले दिन औफिस से लौट कर देव सुनंदा के घर आए, उन्हें कार की चाबी दी. कहा, ‘‘आप की गाड़ी ले आया हूं.’’

सुनंदा ने कहा, ‘‘थैंक्स, आप बैठिए. मैं चाय लाती हूं.’’

थोड़ी देर में सुनंदा चाय ले आई. बातों के दौरान पूछा, ‘‘आप कैसे जाएंगे अब?’’

देव हंसे, ‘‘आप छोड़ आइए.’’

सुनंदा ने भी कहा, ‘‘ठीक है,’’ और खिलखिला दी.

तभी सुनंदा के मोबाइल की घंटी बजी. अलका थी. हालचाल पूछने के बाद वह कह रही थी, ‘‘सुनंदा, तुम फ्री हो न?’’

सुनंदा के कान खड़े हुए, ‘‘क्यों, कुछ काम है क्या?’’

‘‘अभी से बता रही हूं, मेरी सहेली ने घर पर कीर्तन रखा है. उस ने तुम्हें भी बुलाया है. कल आ जाना, साथ चलेंगे.’’

‘‘ओह दीदी, कल नहीं आ पाऊंगी, मेरी गाड़ी खराब है. मु  झे कल तो समय नहीं मिलेगा. कल डाक्टर के यहां भी जाना है. रैग्युलर चैकअप के लिए और गाड़ी लेने भी जाना है. बहुत काम है दीदी कल.’’

थोड़ीबहुत नाराजगी दिखा कर अलका ने फोन रख दिया. सुनंदा भी फोन रख कर मुसकराने लगी, तो देव ने कहा, ‘‘लेकिन आप की गाड़ी तो ठीक है.’’

सुनंदा ने हंसते हुए अपनी कीर्तन, प्रवचनों से दूर रहने की आदत के बारे में बताया तो देव ने भरपूर ठहाका लगाया. बोले, ‘‘  झूठ तो बहुत अच्छा बोल लेती हैं आप.’’

देव अलग फ्लैट में शिफ्ट हो चुके थे. सुनंदा उन्हें उन की कालोनी तक छोड़ आई. अब तक दोनों में अच्छी दोस्ती हो चुकी थी. कोई औपचारिकता नहीं बची थी. अब दोनों मिलते रहते, अंतरंगता बढ़ रही थी. कई जगह साथ आतेजाते. सबकुछ अपनेआप होता जा रहा था. देव कभी नेहा के यहां भी चले जाते थे. उन्होंने एक नौकर रख लिया था, जो घर का सब काम करता था.

सुनंदा ने गौरव को देव के बारे में सब कुछ बता दिया था. उन के साथ उठनाबैठना, आनाजाना सब. सुनंदा विमुग्ध थी, अपनेआप पर, देव पर, अपनी नियति पर. अब लगने लगा था शरीर की भी कुछ इच्छाएं, आकांक्षाएं हैं. उसे भी किसी के स्निग्ध स्पर्श की कामना थी. आजकल सुनंदा को लग रहा था कि जैसे जीवन का यही सब से सुंदर, सब से रोमांचकारी समय है. वह पता नहीं क्याक्या सोच कर सचमुच रोमांचित हो उठती.

देव और सुनंदा की नजदीकियां बढ़ रही थीं. देव औफिस से भी सुनंदा से फोन पर हालचाल पूछते. अकसर मिलने चले आते. सुनंदा की पसंदनापसंद काफी जान चुके थे. अत: अकसर सुनंदा की पसंद का कुछ लेते आते तो सुनंदा हैरान सी कुछ बोल भी न पाती.

एक दिन विपिन से विचारविमर्श के बाद नेहा ने सुनंदा को छोड़ कर किट्टी पार्टी की  बाकी सब सदस्याओं को अपने घर बुलाया.

सब हैरान सी पहुंच गईं.

मंजू ने कहा, ‘‘क्या हुआ नेहा? फोन पर कुछ बताया भी नहीं और सुनंदा जी को बताने के लिए क्यों मना किया?’’

नेहा ने कहा, ‘‘पहले सब सांस तो ले लो. मेरे मन में बहुत दिन से कोई बात चल रही है. मु  झे आप सब का साथ चाहिए.’’

अनीता ने कहा, ‘‘जल्दी कहो, नेहा.’’

नेहा ने गंभीरतापूर्वक बात शुरू की, ‘‘सुनंदाजी और मेरे देव मामा को आप ने कभी साथ देखा है?’’

सब ने कहा, ‘‘हां, कई बार.’’

‘‘आप ने महसूस नहीं किया कि दोनों एकदूसरे के साथ कितने अच्छे लगते हैं, कितने खुश रहते हैं एकसाथ.’’

अनीता ने कहा, ‘‘तो क्या हुआ? सुनंदाजी तो हमेशा खुश रहती हैं.’’

‘‘मैं सोच रही हूं कि सुनंदाजी मेरी मामी बन जाएं तो कैसा रहेगा?’’

पूजा बोली, ‘‘पागल हो गई हो क्या नेहा? सुनंदाजी सुनेंगी तो कितना नाराज होंगी.’’

‘‘क्यों, नाराज क्यों होंगी? अगर वे देव मामा के साथ खुश रहती हैं तो हम आगे का कुछ क्यों नहीं सोच सकते? आज तक वे हमारी हर जरूरत के लिए हमेशा तैयार रहती हैं. हम उन के लिए कुछ नहीं कर सकते क्या?’’

अनीता ने कहा, ‘‘तुम्हें अंदाजा है उन की सुभद्रा बूआ, जेठानी और बहन यह सुन कर भी उन का क्या हाल करेंगी?’’

‘‘क्यों, इस में बुरा क्या है? मैं आप सब से छोटी हूं. आप से रिक्वैस्ट ही कर सकती हूं कि आप लोग मेरा साथ दो प्लीज, समय बहुत बदल चुका है और सुनंदाजी तो किसी की परवाह न करते हुए जीना जानती हैं.’’

पूजा ने कहा, ‘‘गौरव के बारे में सोचा है?’’

बहुत देर से चुप बैठी सुनीता ने कहा, ‘‘जानती हूं मैं अच्छी तरह गौरव को, वह बहुत सम  झदार लड़का है, वह अपनी मां को हमेशा खुश देखना चाहता है.’’

बहुत देर तक विचारविमर्श चलता रहा. फिर तय हुआ सुनीता ही इस बारे में सुनंदा से बात करेगी.

अगले दिन सुनीता सुनंदा के घर पहुंच गई. इधरउधर की बातों के बाद सुनीता ने  पूछा, ‘‘और देव कैसे हैं? मिलना होता है या नहीं?’’

सुनंदा के गोरे चेहरे पर देव के नाम से ही एक लालिमा छा गई और वह बड़े उत्साह से देव की बातें करने लगी.

सुनीता ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘इतने अच्छे हैं मि. देव तो कुछ आगे के लिए भी सोच लो.’’

सुनंदा ने प्यार भरी डांट लगाई, ‘‘पागल हो गई हो क्या? दिमाग तो ठीक है न?’’

‘‘हम सब की यही अच्छा है. अभी मैं जा रही हूं, अच्छी तरह सोच लो, लेकिन जरा जल्दी. हम लोग जल्दी आएंगी.’’

सुनंदा कितने ही विचारों में डूबतीउतराती रही कि क्या करें. मन तो यही चाहता है देव को अपने जीवन में शामिल कर ले सदा के लिए, पर अब? गौरव क्या कहेगा? सुभद्रा बूआ, रमा और अलका क्या कहेंगी? वह रातभर करवटें बदलती रही. बीचबीच में आंख लगी भी तो देव का चेहरा दिखाई देता रहा.

उधर विपिन और नेहा ने देव से बात की. उम्र के इस मोड़ पर उन्हें भी किसी साथी की जरूरत महसूस होने लगी थी. देव के मन में भी जीवन के सारे संघर्ष   झेल कर भी हंसतीमुसकराती सुनंदा अपनी जगह बना चुकी थी. कुछ देर सोच कर देव ने अपनी स्वीकृति दे दी.

सुबह जब सुनंदा का गौरव से बात करने का समय हो रहा था, सब पहुंच गईं और विपिन और देव के साथ. देव और सुनंदा एकदूसरे से आंखें बचातेशरमाते रहे.

सुनीता ने कहा, ‘‘सुनंदा, तुम हटो, मैं गौरव से बात करती हूं,’’ और फिर वेबकैम पर सुनीता ने गौरव को सबकुछ बताया.

सुनंदा बहुत संकोच के साथ गौरव के सामने आई तो गौरव ने कहा, ‘‘यह क्या मां, इतनी अच्छी बात, मु  झे ही सब से बाद में पता चल रही है.’’

सुनंदा की आंखों से भावातिरेक में अश्रुधारा बह निकली. वह कुछ बोल ही नहीं पाई.

सुनीता ने ही गौरव का परिचय देव से करवाया. देव की आकर्षक, सौम्य सी मुसकान गौरव को भी छू गई और उस ने इस बात में अपनी सहर्ष सहमति दे दी तो सुनंदा के दिल पर रखा बो  झ हट गया.

गौरव ने कहा, ‘‘मां, आप दादी, ताईजी और मौसी की चिंता मत करना, उन सब को मैं आ कर संभाल लूंगा. आप किसी की चिंता मत करना मां. आप अपना जीवन अपने ढंग से जीने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं. मु  झे तो अभी छुट्टी नहीं मिल पाएगी, लेकिन आप मेरे लिए देर मत करना.’’

गौरव की बातें सुनंदा को और मजबूत बना गईं.

थोड़ी देर चायनाश्ता कर सब सुनंदा को गले लगा कर प्यार करती हुईं अपनेअपने घर चली गईं.

नेहा, विपिन और देव रह गए. विपिन ने कहा, ‘‘अब देर नहीं करेंगे, कल ही मैरिज रजिस्ट्रार के औफिस में चलते हैं.’’

अगले दिन सुनंदा तैयार हो रही थी. सालों पहले नीलेश की दी हुई लाल साड़ी निकाल कर पहनने का मन हुआ. फिर सोचा नहीं, कोई लाइट कलर पहनना चाहिए. मन को न सही, शरीर को उम्र का लिहाज करना ही चाहिए. वह कुछ सिहर गई, क्या देव को उस के शरीर से भी उम्मीदें होंगी? स्त्री को ले कर पता नहीं क्यों लोग हमेशा नकारात्मक भ्रांतियां रखते हैं, कभी किसी ने यह क्यों नहीं सोचा कि उम्रदराज स्त्री भी…

आगे कुछ सोचने से पहले ही वह खुद ही हंस दी, उम्रदराज? उम्र से क्या होता है, फिर नीलेश का चेहरा अचानक आंखों को धुंधला कर गया. नीलेश उसे हमेशा खुश देखना चाहते थे और बस वह अब खुश थी, सारे संदेहों, तर्कवितर्कों में डूबतेउतराते वह जैसे ही तैयार हुई, डोरबैल बजी. सुनंदा ने गेट खोला. देव उसे ले जाने आ गए थे.

Hindi Stories Online : बंदिनी – रेखा ने कौनसी कीमत चुकाई थी कीमत

Hindi Stories Online : जेल की एक कोठरी में बंद रेखा रोशनदान से आती सुबह की पहली किरण की छुअन से मूक हो जाया करती थी. अपनी जिन यादों को उस ने अमानवीय दुस्साहस से दबा रखा था, वे सब इसी घड़ी जीवंत हो उठती थीं.

पहली बार जब रेखा ने सुना था कि उसे जेल की सजा हुई है, तो उस ने बहुत चाहा था कि जेलखाने में घुसते ही उस के गले में फांसी लगा दी जाए. उसे कहां मालूम था कि सरकारी जेल में महिला कैदियों की कोई कमी नहीं है, और कोर्ट में अपनी सुनवाई के इंतजार में ही वे कितनी बूढ़ी हो गई हैं. फीमेल वार्ड में घुसते ही रेखा आश्चर्यचकित हो गई थी. अनगिनत स्त्रियां थीं वहां. बूढ़ी से ले कर बच्चियां तक.

देखसुन कर रेखा ने साड़ी से फांसी लगा कर मरने का विचार भी त्याग दिया था. सोचा, बड़ी अदालत को उस के लिए समय निकालतेनिकालते ही कितने साल पार हो जाएंगे. और वही हुआ था. देखते ही देखते दिनरात, महीने गुजरते चले गए और 4 वर्ष बीत गए थे. बीच में एकदो बार जमानत का प्रयास हुआ था, परंतु विफल ही रहा था. एनजीओ कार्यकर्ता आरती दीदी ने अभी भी प्रयास जारी रखा था, परंतु रिहाई की आशा धूमिल ही थी.

‘‘रेखा, रोज सुबह तुझे इस रोशनदान में क्या दिख जाता है?’’

शीला के इस प्रश्न पर रेखा थोड़ी सहज हो गई थी. पिछले 2 वर्षों से दोनों एकसाथ जेल की इस कोठरी में कैद थीं. शीला ने अपने शराबी पति के अत्याचारों से तंग आ कर उस की हत्या कर दी थी. उस ने अपना अपराध न्यायाधीश के सामने स्वीकार कर लिया था. किंतु किसी ने उसे छुड़ाने का प्रयास नहीं किया था. उसे उम्रकैद हुई थी.

तभी से वह और अधिक चिड़चिड़ी हो गई थी. वह रेखा की इस नित्यक्रिया से अवगत थी और इस क्रिया का प्रभाव भी देख चुकी थी. आज वह खुद को रोक नहीं पाई थी और रेखा से वह प्रश्न पूछ बैठी थी. शीला के प्रश्न पर रेखा ने एक हलकी मुसकान के साथ उत्तर दिया था.

‘‘रोज एक नई सुबह.’’

‘‘हमारे जीवन में क्या बदलाव लाएगी सुबह, हमारे लिए तो हर सुबह एकसमान है,’’ शीला ने ठंडी आह भरी.

‘‘यहां तुम गलत हो, स्वतंत्र मनुष्य रोज एक नई सृजन के बारे में सोच सकता है,’’ रेखा के चेहरे पर हलकी सी लुनाई छा गई थी.

शीला का चेहरा और आंखें सख्त हो आईं, बोली, ‘‘तुम एक बंदिनी हो, याद है या भूल गईं, तुम क्या स्वतंत्र हो?’’

रेखा इस सवाल का जवाब ठीक से न दे सकी, ‘‘शायद अभी पूरी तरह से नहीं, परंतु उम्मीद है…’’

‘‘यह हत्यारिनों का वार्ड है. यहां से रिहाई तो बस मृत्यु दिला सकती है. चिरबंदिनियां यहां निवास करती हैं,’’ रेखा की बात को बीच में काट कर ही शीला लगभग चिल्लाते हुए बोली थी.

रेखा बोली, ‘‘स्वतंत्र प्रतीत होता मनुष्य भी बंदी हो सकता है, उस यंत्रणा की तुम कल्पना भी नहीं कर सकतीं.’’

दोनों के बीच बातचीत चल ही रही थी कि घंटी की तेज आवाज सुनाई पड़ी थी. बंदिनियों के लिए तय काम का समय हो चुका था. सभी कैदी वार्ड से बाहर निकलने लगी थीं. रेखा और शीला भी बाहर की तरफ चल दी थीं.

आज जिस अपराध की दोषी बन रेखा इस जेल की चारदीवारों में कैद थी उस अपराध की नींव वर्षों पूर्व ही रख दी गई थी. उस के बंदीगृह तक का यह सफर उसी दिन शुरू हो गया था जब वह सपरिवार ओडिशा से शिवपुरी आई थी.

शिवपुरी, मध्य प्रदेश का एक शहर है. यह एक पर्यटन नगरी है. यहां का सौंदर्य अनुपम है. यहीं के एक छोटे से गांव में रेखा अपने परिवार के साथ आई थी.

ओडिशा के एक छोटे से गांव मल्कुपुरु में रेखा का गरीब परिवार रहा करता था. पिछले कई सालों से उस के मामा अपने परिवार समेत शिवपुरी के इसी गांव में आ कर बस गए थे. उन की आर्थिक स्थिति में आए प्रत्याशित बदलाव ने रेखा के पिता को इस गांव में आने के लिए प्रोत्साहित किया था.

4 भाईबहनों में रमेश सब से बड़ा था और विवाहित भी. सतीश उस से छोेटा था परंतु अधिक चतुर था. वह अभी अविवाहित ही था. उन के बाद कल्पना और रेखा थीं. सब से छोटी होने के कारण रेखा थोड़ी चंचल थी. आरंभ में रेखा और उस की बड़ी बहन कल्पना इस बदलाव से खुश नहीं थीं, परंतु मामा के घर की अच्छी स्थिति ने उन के भीतर भी आशा की लौ रोशन कर दी थी. यह उन्हें मालूम नहीं था कि यह लौ ही उन्हें और उन के सपनों को जला कर भस्म कर देगी.

गांव में आने के कुछ दिनों बाद ही कल्पना के विवाह की झूठी खबर उस के पिता और मामा ने उड़ा दी थी. मां का विरोध सिक्कों की झनकार में दब गया था. कल्पना अपने सुखद भविष्य की कल्पना में खो गई थी और रेखा इस खुशी का आनंद लेने में. परन्तु दोनों ही बहनें सचाई से अनजान थीं. जब तक दोनों को हकीकत का पता चला तब तक देर हो चुकी थी.

प्रथा के नाम पर स्त्री के साथ अत्याचारों की तो एक लंबी सूची तैयार की जा सकती है. इस गांव में भी कई सालों से एक विषैली प्रथा ने अपनी जड़ें फैला ली थीं. स्थानीय भाषा में इस प्रथा का नाम ‘धड़ीचा’ था, जिस के तहत लड़कियों को एक साल या ज्यादा के लिए कोई भी पुरुष अपने साथ रख सकता था, अपनी बीवी बना कर. इस के एवज में वह लड़की की एक कीमत उस के घर वालों  या संबंधित व्यक्ति को देता था. लड़की को बीवी बना कर एक साल के लिए ले जाने वाला पुरुष कोई गड़बड़ी न करे, अनुबंध में रहे, इस के लिए 10 रुपए से ले कर 100 रुपए के स्टांपपेपर पर लिखापढ़ी होती थी. एक बार अनुबंध से निकली लड़की को दोबारा अनुबंधित कर के बेच दिया जाता था.

इस दौरान जन्म लिए गए संतानों की भी एक अलग कहानी थी. उन्हें यदि पिता का परिवार नहीं अपनाता था तो वे मां के साथ ही लौट आते थे. अगला खरीदार यदि उन्हें साथ ले जाने को तैयार नहीं होता तो लड़की को उसे अपने परिवार के पास छोड़ना पड़ता था.

पुत्रमोह के लालच में कन्याभू्रण की हत्या करते गए, और जब स्त्रियों का अनुपात कम होता गया तो उन का ही क्रयविक्रय करने लगे. परंतु बात इतनी भी आसान नहीं थी. हकीकत में पैसे वाले पुरुषों को अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए रोज एक नया खिलौना प्राप्त करना ही इस प्रथा का प्रयोजन मात्र था.

भारत में इन दिनों नारीवाद और नारी सशक्तीकरण का झंडा बुलंद है. परंतु महानगरों में बैठे लोगों को इस बात का अंदाजा भी नहीं है कि देश के गांवकूचों में महिलाओं की हालत किस कदर बदतर हो चुकी है.

कल्पना को भी 10 रुपए के स्टांपपेपर पर एक साल के लिए 65 साल के एक बुजुर्ग के हवाले कर दिया गया था. हालांकि उस की पहली पत्नी जीवित थी, परंतु वह वृद्ध थी. और पुरुष कहां वृद्ध होते हैं. कल्पना के दूसरे खरीदार का भी चयन हो रखा था. वह उसी बुजुर्ग का भतीजा था और उस की पत्नी का देहांत पिछले वर्ष ही हुआ था. कल्पना का पट्टा देना तय करने के बाद वे रेखा को ले कर अपने महत्त्वाकांक्षी विचार बुनने लगे थे.

लाखों में एक न होने पर भी रेखा के चेहरे का अपना आकर्षण था. लंबी, छरहरी देह, गेहुआं रंग, सुतवां नाक, और ऊंचे उठे कपोल. बड़ी आंखें जिन में चौबीसों घंटे एक उज्ज्वल हंसी चमकती रहती, काले रेशम जैसे बाल और दोनों गालों पर पड़ने वाले गड्ढे जिस में पलभर का पाहुना भी सदा के लिए गिरने स्वयं ही चला आए. अशोक तो पहली नजर में ही दिल हार बैठा था.

अशोक एक व्यापारी मोहनलाल के घर में काम करता था. मोहनलाल ग्वालियर का एक बहुत बड़ा व्यापारी था. गांव में उस की बहुत जमीनें थीं जिन की देखभाल के लिए उस ने अशोक और उस के बड़े भाई को लगा रखा था. वह साल में कई बार गांव आता था. मंडी में आई अकसर हर कुंआरी लड़की का खरीदार वही होता था. शादीशुदा, अधेड़ उम्र का आदमी और 4 बच्चों का पिता, परंतु पुरुष की उम्र और वैवाहिक स्थिति उस की इच्छाओं के आड़े नहीं आती.

समाज के नियम बनाने वालों के ऊपर कोई नियम लागू नहीं होता. जाति से ब्राह्मण और व्यवसाय से बनिया मोहनलाल बहुत ही कामी और धूर्त पुरुष था. वह अपना व्यवसाय तो बदल चुका था परंतु जातीय वर्चस्व का झूठा अहंकार आज भी कायम था. बहुत जल्द ही वह राजनीतिक मंच पर पदार्पण करने वाला था. इसी व्यस्तता के कारण पिछले कुछ वर्षों में उस का गांव आना थोड़ा कम हो गया था.

अशोक इसी बात से निश्ंिचत था. उस ने रेखा को खरीद कर कहीं दूर भाग जाने की साहसी योजना भी बना रखी थी. शुरू में रेखा केवल अशोक के प्रेम से अवगत थी, वह न तो उस के अस्तित्व के बारे में जानती थी और न ही उस की योजना के बारे में. परंतु कल्पना की  विदाई ने उसे वास्तविकता से अवगत करा दिया था. रेखा को यह भी मालूम हो गया था कि उस के धनलोलुप परिवार के मुंह में खून लग चुका है.

शीघ्र ही रेखा को अपने परिवार की नई योजना की भनक भी लग गई थी. अशोक सदा रेखा से किसी बड़े काम के लिए पैसे बचाने की बात करता था. उस समय रेखा को लगा करता था, वह शायद किसी व्यवसाय हेतु बचत कर रहा है. परंतु अब वह इस बचत के पीछे का मतलब समझ गई थी. किंतु अब रेखा के परिवार वालों के पास एक नया और प्रभावशाली ग्राहक आ गया था. इस में कोई शक नहीं था कि वे रेखा का सौदा उस के साथ तय करने वाले थे.

इस प्रथा की बात छिपाने की वजह से रेखा अशोक से नाराज थी, परंतु अशोक ने उसे समझाबुझा कर शांत कर दिया था. रेखा इस गांव से पहले ही भाग जाना चाहती थी, अशोक के तर्कों से हार गई थी. बदली हुई परिस्थितियों ने उसे भयभीत कर दिया था और उस ने अपना गुस्सा अशोक पर जाहिर किया था कि, ‘‘जिस बहुमूल्य को खरीदने के लिए तू इतने महीनों से धन जोड़ रहा था, उस के कई और खरीदार आ गए हैं.’’

एकाएक हुए इस आघात के लिए अशोक तैयार नहीं था, वह लड़खड़ा गया. न जाने कितने महीनों से पाईपाई जोड़ कर उस ने 2 लाख रुपए जमा किए थे. रेखा की यही बोली उस के भाई ने लगाई थी. अशोक जानता था कि रेखा को अपना बनाने के लिए उस का प्रेम थोड़ा कम पड़ेगा, इसलिए वह धन जोड़ रहा था. परंतु आज रेखा के इस खुलासे ने जाहिर कर दिया था कि विक्रेता अपनी वस्तु के दाम में परिस्थिति के अनुसार बदलाव कर सकता है.

थोड़ी देर पहले रेखा को उस पर गुस्सा आ रहा था, परंतु अब अशोक की दशा देख कर उसे दुख हो रहा था. उस ने करीब जा कर अशोक को अपनी बांहों में भर लिया, ‘‘तूने कैसे भरोसा कर लिया उस भेडि़ए पर. अरे पगले, जो अपनी बहन का व्यापार कर सकता है, वह क्या कभी सौदे में लाभ से परे कुछ सोच सकता है?’’

‘‘जान से मार दूंगा मैं, उन सब को भी और तेरे भाई को भी,’’ रेखा के बाजुओं को जोर से पकड़ कर उसे अपनी ओर खींचते हुए चिल्ला पड़ा था अशोक.

‘‘अच्छा, मोहनलाल को भी?’’ रेखा ने उस की आंखों में झांकते हुए पूछा था.

वह एक ही पल में छिटक कर दूर हो गया,

‘‘क्य्याआआ?’’

एक दर्दभरी मुसकान खिल गई थी रेखा के चेहरे पर, ‘‘बस, प्यार का ज्वार उतर गया लगता है.’’

काफी समय तक दोनों निशब्द बैठे रहे थे. फिर अशोक ने चुप्पी तोड़ी, ‘‘रेखा, तू अपने भाई की बात मान ले. हां, परंतु मोहनलाल से पहले तू मेरी बन जा.’’

‘‘पागल हो गया है क्या? मैं…’’ रेखा को अपनी बात पूरी भी नहीं करने दी उस ने और दोबारा बोल पड़ा था, ‘‘रेखा, सारा चक्कर तेरे कौमार्य का है. एक बार तेरा कौमार्य भंग हो गया तो तेरा दाम भी कम हो जाएगा. मोहनलाल ज्यादा से ज्यादा तुझे एक साल रखेगा. चल, हो सकता है तेरी सुंदरता के कारण अवधि को एकदो साल के लिए बढ़ा दे परंतु उस के बाद तो तुझे छोड़ ही देगा. फिर तुझे मैं खरीद लूंगा. लेकिन…’’

‘‘लेकिन?’’

‘‘मैं मोहनलाल को जीतने नहीं दूंगा. कुंआरी लड़कियों का कौमार्य उसे आकर्षित करता है न, तू उसे मिलेगी तो जरूर, पर मैली…’’

रेखा अशोक के ऐसे आचरण के लिए तैयार नहीं थी. पुरुष चाहे कितनी ही लड़कियों के साथ संबंध रखे, वह हमेशा पाक, परंतु स्त्री मैली. वह यह भूल जाता है मैला करने वाला स्वयं पाक कैसे हो सकता है. परंतु कोई भी निर्णय लेने से पहले वह कुछ और प्रश्नों का उत्तर चाहती थी, ‘‘यदि मेरा कोई बच्चा हो गया तो?’’

‘‘न, न. तुझे गर्भवती नहीं होना है. किसी और का पाप मैं नहीं पालूंगा.’’

एक आह निकल गई थी रेखा के मुख से. इस पुरुष की कायरता से ज्यादा उसे स्वयं की मूर्खता पर क्रोध आ रहा था. उस की वासना को प्रेम समझने की भूल उस ने स्वयं की थी. रेखा ने एक थप्पड़ के साथ अशोक के साथ अपने संबंधों पर विराम लगा दिया था. परंतु अब अपने परिवार द्वारा रचित व्यूह में वह अकेली रह गई थी.

चक्रव्यूह की रचना तो हो गई थी, उसे भेदने के लिए महाभारत काल में अभिमन्यु भी अकेला था और आज रेखा भी अकेली ही थी. तब भी केशव नहीं आए थे और आज भी कोई दैवी चमत्कार नहीं हुआ था. पराजित दोनों ही हुए थे.

पराजित रेखा मोहनलाल की रक्षिता बन ग्वालियर चली गई थी. दूर से ही जिस के जिस्म की सुगंध राह चलते को भी मोह कर पलभर को ठिठका देती थी, वही रेखा अब सूखी झाडि़यों के झंकार के समान मोहनलाल के घर में धूल खा रही थी.

केवल शरीर ही नहीं, वजूद भी छलनी हो गया था उस का. मोहनलाल के घर में बीते वो 10 साल अमानुषिक यातनाओं से भरे हुए थे. उस का शरीर जैसे एक लीज पर ली हुई जमीन थी, जिसे लौटाने से पहले मालिक उस का पूरी तरह से दोहन कर लेना चाहता था. कभी मालिक खुद रौंदता था, कभी उस के रिश्तेदार, तो कभी उस के मेहमान. घर की स्त्रियों से भी सहानुभूति की उम्मीद बेकार थी.

औरतों के लिए कू्ररता करने में स्वयं औरतें पुरुषों से कहीं आगे हैं. वे शायद यह नहीं जानतीं कि इसी वजह से पुरुषों के लिए उन की नाकदरी और उन का शोषण करना इतना आसान हो जाता है. औरतों का शोषण करने के लिए पुरुषों को साथ भी औरतों का ही मिलता है.

रेखा का शारीरिक शोषण घर के पुरुष करते थे, परंतु घर की स्त्रियां भी उस का जीवन नारकीय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ती थीं. वे सभी घर के पुरुषों के अत्याचार के खिलाफ तो कभी एकजुट नहीं हो पाईं, परंतु एक निरपराधी को सजा देने में एकजुट हो गई थीं. पुरुषों की शारीरिक भूख रात में शांत कर, दिन में उसे घर के बाकी काम भी निबटाने पड़ते थे.

10 वर्षों के अमानुषिक शोषण के बाद एक दिन एकाएक अनुबंध समाप्त होने का हवाला देते हुए रेखा को वापस उस के परिवार के पास छोड़ दिया गया था. इन 10 सालों में उस के 8 गर्भपात भी हुए थे. कारण जो भी बताया गया हो परंतु रेखा शायद अनुबंध समाप्त करने की सही वजह समझ रही थी.

जब रेखा मोहनलाल के घर पर थी, उस समय एक एनजीओ की मैडम ने एकदो बार उस से संपर्क करने का प्रयास किया था. परंतु उन्हें बुरी तरह प्रताडि़त कर निकाल दिया गया था. बड़ी मुश्किलों से अपने प्राण बचा कर निकल पाई थी बेचारी, परंतु जातेजाते भी न जाने कैसे अपना फोन नंबर कागज पर लिख कर फेंक गई थी. 5वीं तक की गई पढ़ाई काम आई थी उस के, रेखा ने नंबर कंठस्थ करने के बाद कागज को जला दिया था.

ग्वालियर एक शहर था और वहां इस के बाद बात का छिपना आसान नहीं था. सो, रेखा को वापस भेज दिया गया था, वैसे भी, अब तक रेखा का पूर्ण इस्तेमाल हो चुका था.

10 सालों में रेखा का परिवार भी बदल चुका था. उन की आर्थिक स्थिति अच्छी हो गई थी. कल्पना भी अपने 5वें अनुबंध के खत्म होने के बाद घर आ गई थी. उस की अब एक बेटी भी थी, पूजा.

दोनों ही बहनें जानती थीं कि कुछ ही दिनों में उन्हें उन के नए सहचरों के साथ चले जाना होगा. इसलिए अब अपना पूरा समय दोनों पूजा पर मातृत्व लुटाने में व्यतीत करने लगीं थीं. किंतु अति शीघ्र ही रेखा ने आने वाली विपत्तियों को भांप लिया था, जब उस ने अशोक को अपने द्वार पर खड़ा पाया था, ‘‘तुम हो मेरे नए ग्राहक?’’

अशोक ने रेखा की विदाई के कुछ दिनों बाद ही विवाह कर लिया था. सो, आज वह फिर यहां क्यों आया था, यह समझने में रेखा को थोड़ी देर लगी थी.

‘‘मैं यहां तेरे लिए नहीं आया हूं. वैसे भी तेरे पास बचा क्या है,’’ उस ने बड़ी ही हिकारत से उत्तर दिया था.

‘‘फिर किस लिए आए हो?’’

‘‘मैं पूजा के लिए आया हूं.’’

रेखा सब समझ गई थी. प्रतिदिन की वे गोष्ठियां कल्पना और रेखा के लिए नहीं, बल्कि पूजा के लिए हो रही थीं. अशोक से लड़ना मूर्खता थी. वह सीधा अपने भाइयों के पास गई और बड़े भाई की गरदन दबोच ली.

‘‘9 साल की बच्ची है पूजा, मामा है तू उस का. लज्जा न आई तुझे?’’

एक झटके में उस के भाई ने अपनी गरदन से रेखा का हाथ हटा लिया था. लड़खड़ा गई थी रेखा, कल्पना ने संभाला नहीं होता तो गिर ही जाती.

‘‘दोबारा हिम्मत मत करना, वरना हाथ उठाने के लायक नहीं रहेगी.’’

भाई से इंसानियत की अपेक्षा उस की भूल थी. उस ने कल्पना से बात करनी चाही, ‘‘दीदी, तुम ने सुना, ये लोग पूजा के साथ क्या करने वाले हैं?’’

उत्तर में कल्पना ने मात्र सिर झुका दिया था.

हमारे समाज की ज्यादातर स्त्रियां अपनी कमजोरी को मजबूरी का नाम दे देती हैं. बिना कोशिश किए अपनी हार स्वीकार करने की सीख तो उन्हें जैसे घुट्टी में मिला कर पिलाई जाती है. परजीवी की तरह जीवन गुजारती हैं और फिर एक दिन वैसे ही मृत्यु का वरण कर लेती हैं. हमेशा एक चमत्कार की उम्मीद करती रहती हैं, जैसे कोई आएगा और उन के कष्टों का समाधान हो जाएगा. आत्मनिर्भरता तो वे खुद भीतर कभी जागृत नहीं कर पातीं. कल्पना भी अपवाद नहीं थी.

रेखा और कल्पना के विरोध के बावजूद पूजा का विवाह मोहनलाल के छोटे बेटे से तय कर दिया गया था. वह मंदबुद्धि था. किसी महान पंडित ने उन्हें बताया था कि यदि उस का विवाह एक नाबालिग कुंआरी कन्या से हो जाए तो वह बिलकुल स्वस्थ हो जाएगा. शादी जैसे संजीवनी बूटी हो, खाया और एकदम फिट. रेखा यह भी जानती थी कि उस घर के बंद दरवाजों के पीछे कितना भयावह सत्य छिपा था.

शादी का मुहूर्त 3 महीने बाद का निकला था. इसी बीच रेखा और कल्पना को भी बेचने की तैयारियां चल रही थीं. रेखा जानती थी कि उस के पास समय कम है, जो करना है जल्द ही करना होगा.

परंतु इस बार रेखा किसी भी तरह का विरोध झेलने के लिए मजबूती के साथ तैयार थी. पिछली बार खुद के लिए लड़ी गई जंग वह हार गई थी, परंतु इस बार उस ने अंतिम सांस तक प्रयत्न करने का निश्चय कर लिया था. पुलिस और पंचायत से तो रेखा ने उसी समय उम्मीद छोड़ दी थी जब उसे जबरदस्ती प्रथा के नाम पर बलि चढ़ा दिया गया था. सभी प्रथाओं की लाश स्त्रियों के कंधों पर ही तो ढोई जाती है.

अपने भाइयों की नजर बचा कर उस ने अपने भाई के मोबाइल से आरतीजी को फोन किया. उस की आपबीती सुन कर आरती ने भी मदद ले कर शीघ्र आने का आश्वासन दिया था. परंतु नियति उस की चौखट पर खड़ी अलग ही कहानी रच रही थी.

वह रात पूनम की थी जो उस घर में अमावस ले कर आई थी. जिस प्रथा को छिपा कर रखने के लिए पूरा गांव कुछ भी करने को तैयार था, उस एक घटना ने इस प्रथा की कलई पूरे देश के सामने खोल कर रख दी थी. इस एक घटना से यह प्रथा समाप्त तो नहीं हुई थी, परंतु वह भारत जो ऐसी किसी प्रथा के अस्तित्व के बारे में अनभिज्ञ था, इस के बारे में बात करने लगा था.

उस रात जब रेखा सोने के लिए अपने कमरे में गई थी, सबकुछ स्वाभाविक ही था. परंतु खुद सुप्त ज्वालामुखी को नहीं पता होता कि उस के किसी हिस्से में आग अभी भी बाकी है. असहनीय पीड़ा की परिणति कभीकभी भयावह होती है. ऐसी बात तो सभी करते हैं, परंतु अगली सुबह जब लोगों ने उस घर में 6 लाशें देखीं, तो मान भी गए थे.

रेखा के अलावा घर के सभी लोग मौत की स्याह चादर ओढ़ कर सो गए थे. उन के वजूद की मृत्यु तो बहुत पहले हो चुकी थी, आज शरीर खत्म हुआ था. एकएक कर पुलिस शिनाख्त कर रही थी.

पहली चादर उस मां के चेहरे पर डाली गई जिस ने अपनी बेटियों को जन्म देने की कीमत उन के शरीर की बोली लगा कर वसूल की थी. कल्पना को मारे गए कई थप्पड़ आज जीवंत हो कर उसी के चेहरे को स्याह कर रहे थे.

अगली चादर उस पिता के ऊपर डाली गई जिस ने पिता होने का कर्तव्य तो कभी नहीं निभाया, परंतु पुत्री के शरीर को भेडि़यों के बीच फेंक कर उस की कीमत वसूलने को अपना अधिकार अवश्य माना था.

फिर चादर उन 2 भाइयों के चेहरों पर डाली गई जो खुद अपनी बहनों के दलाल बने घूमते थे.

चादर उस भाभी के चेहरे पर भी डाली गई जो एक स्त्री थी और मां बनने के लिए न जाने कितने तांत्रिकों व पंडितों के चक्कर लगा रही थी. परंतु जब एक छोटी बच्ची की बोली उस का पति लगा रहा था, वह न केवल मौन थी बल्कि आने वाले धन के मधुर स्वप्नों में खोई हुई थी.

छठी लाश को देख कर प्रशासन और गांव वाले सभी चकित थे. वह लाश बड़े मंदिर के पुजारी और मोहनलाल के सलाहकार गोपाल चतुर्वेदी की थी. वे नीची जाति से बात करना तो दूर, उन की छाया से भी परहेज करते थे. वे ही अनुबंध के बाद मोहनलाल के घर जाने से पहले सभी लड़कियों का शुद्धि हवन करवाते थे. उन्होंने ही पूजा को चुना था. ऐसा धार्मिक पुरुष इन लोगों के घर क्या करने आया था, इस बात ने सब को अचंभे में डाल दिया था. परंतु क्या वो लोग नहीं जानते थे कि दलाल भी रातों में ही काम करते हैं.

कल्पना और उस की बेटी पूजा घर से लापता थीं. पुलिस वाले एक स्वर में कल्पना को ही अपराधी मान रहे थे. प्रथम दृष्टया में हत्या विष दे कर की गई लगती थी.

काफी देर से कोने में खामोश बैठी रेखा अचानक ही बोल पड़ी थी, ‘‘कल्पना पिछली रात ही अपने प्रेमी के साथ भाग गई है. इन सब को मैं ने मारा है.’’

रेखा की आवाज में लेश मात्र भी कंपन नहीं था. ‘‘ऐ लड़की, तुझे पता भी है क्या कह रही है, फांसी भी हो सकती है,’’ एक पुलिस वाली चिल्ला कर बोली.

रेखा ने एक गहरी सांस ले कर उत्तर दिया, ‘‘वैसे भी, बस सांस ले रही हूं. मैं एक मुर्दा ही हूं.’’

अपराध स्वीकार कर लेने के कारण रेखा को उसी पल गिरफ्तार कर लिया गया. कोर्ट में भी वह अपने बयान से नहीं पलटी थी. पूरे आत्मविश्वास के साथ जज की आंखों में आंखें डाल कर अपनी हर बात स्पष्ट रूप से सामने रखी थी. चाहे वह प्रथा की बात हो, चाहे वह कल्पना और पूजा को घर से भागने में सहयोग की बात हो या खुद उन सभी के खाने में विष मिलाने की बात हो.

उस का कहना था कि यदि रेखा भी कल्पना के साथ भाग जाती, तो परिवार वाले कुछ न कुछ कर के उन्हें ढूंढ़ ही लाते. इसी कारण से रेखा ने यहां रहने का निश्चय किया था. परंतु कल्पना भी यह नहीं जानती थी कि रेखा के मन में कब इस योजना ने जन्म ले लिया था.

इस स्वीकारोक्ति के बाद रेखा को जेल हो गई थी. पिछले 4 सालों से रेखा इस जेल में बंद थी. अपने मधुर व्यवहार की बदौलत रेखा ने सभी का दिल जीत लिया था. आरती की पहल पर ही एक समाजसेवी संगठन के तत्त्वावधान में रेखा की पढ़ाई भी शुरू हो गई थी. जेल की सुपरिटैंडैंट एम के गुप्ता रेखा की स्थिति से अवगत थीं, उन्हें उस से लगाव भी हो गया था. उन्हीं की पहल पर रेखा को खाना बनाने वालों की सहायता में लगा दिया गया था.

इधर, रेखा अविचलित अपने जीवन में आगे बढ़ रही थी, उधर आरती निरंतर उस की रिहाई के प्रयत्न में लगी हुई थी. काफी दिनों के अथक परिश्रम के बाद आज रेखा के केस का फैसला आने वाला था. पिछली बार की सुनवाई में आरोप तय हो गए थे, परंतु आरती न जाने किनकिन से मिल कर रेखा की सजा कम कराने को प्रयत्नशील थीं. फैसले वाले दिन रेखा का जाना आवश्यक नहीं था, वह जाना भी नहीं चाहती थी.

रेखा मनयोग से रोटी बेलने में लगी हुई थी कि तभी लेडी कांस्टेबल ने उसे आरती के आने की सूचना दी थी, ‘‘रेखा, चल तुझ से मिलने तेरी आरती दीदी आई हैं.’’

प्रसन्न मुख के साथ रेखा उस लेडी कांस्टेबल के पीछे चल दी थी.

आरती के मुख पर स्याह बादलों को देख लिया था रेखा ने, परंतु जाहिर में कुछ बोली नहीं थी.

‘‘कैसी हो रेखा?’’

आरती की आवाज की पीड़ा को भी रेखा ने भांप लिया था.

‘‘दीदी, आप परेशान न हों. मैं खुश हूं.’’

‘‘हम्म.’’

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद आरती ने दोबारा बोलना शुरू किया, ‘‘कल्पना का पता चल गया है. वो और पूजा रमन के साथ भागी थीं.’’

‘‘दीदी, इतने दिनों में पहली अच्छी खबर सुनी है. वह रमन ही पूजा का बाप है, कल्पना का दूसरा ग्राहक.’’

रेखा के चेहरे पर मुसकान खिल गई थी. परंतु अपने केस के फैसले के बारे में उस की कोई जिज्ञासा न देख कर आरती ने खुद ही पूछ लिया था.‘‘रेखा, अपने केस के फैसले के बारे में नहीं पूछोगी?’’

‘‘वह क्या पूछना है?’’

‘‘तुम कल्पना को बुलाने क्यों नहीं देतीं. वह तो आने…’’

‘‘नहीं दीदी, आप ने मुझ से वादा किया था,’’ रेखा ने आरती का हाथ थाम लिया था.

‘‘हां, तभी तो जब आज कोर्ट में जज फैसला सुना रहा था, मैं चाह कर भी नहीं कह पाई कि उन सभी लोगों को जहर तुम ने नहीं, कल्पना ने दिया था.’’ इस बार आरती की आवाज में रोष स्पष्ट था. पिछले कुछ सालों में रेखा के साथ उस का एक खूबसूरत रिश्ता बन गया था, जो खून से नहीं दिल से जुड़ा हुआ था.

‘‘नाराज न हों दीदी, अच्छा बताइए क्या फैसला आया है?’’ रेखा ने आरती के हाथों को सहलाते हुए कहा.

‘‘आजीवन कारावास,’’ इतना कह कर आरती ने रेखा के चेहरे की तरफ देखा. किंतु रेखा के चेहरे पर शांति और संतोष के भाव एकसाथ थे. आरती ने आगे कहा, ‘‘पर तू चिंता मत कर. हमारे पास बड़ी अदालत का विकल्प शेष है.’’

आरती जैसे रेखा को नहीं स्वयं को समझाने लगी थी. रेखा के चमकते मुख को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे अकस्मात ही सूर्य के ऊपर से बादलों का जमावड़ा हट गया हो और उस की समस्त किरणों का प्रकाश रेखा के चेहरे पर सिमट आया हो.

उस ने पूर्ण आत्मविश्वास के साथ आरती की आंखों में झांक कर कहा, ‘‘दीदी, आप अब कहीं अपील नहीं करेंगी. मुझे यह फैसला स्वीकार है.’’

‘‘तू यह क्या…’’

‘‘दीदी, मेरे केस ने शायद देश के सामने इस कुप्रथा को उजागर कर दिया है. परंतु यह प्रथा तब तक नहीं थमेगी जब तक सरकार तक हमारी बात नहीं पहुंचेगी. धर्म और संस्कृति के ठेकेदार इस मार्ग में चुनौती बन कर खड़े हैं. आप से बस इतनी प्रार्थना है, यह लौ, जो जलाई है, बुझने मत देना.’

आरती उसे आश्चर्य से देख रही थी. ‘‘तुम शायद समझीं नहीं. अब तुम आजीवन बंदिनी ही रहोगी,’’ आरती की आवाज में कंपन था.

आरती की आवाज सुन कर दो पल को थम गई थी रेखा, फिर उस के होंठों पर एक मनमोहक मुसकान फैल गई थी. ‘‘मुझे भी ऐसा ही लगा था कि मैं आजीवन बंदिनी ही रह जाऊंगी. परंतु…’’

‘‘परंतु क्या?’’ आरती उस साहसी स्त्री को श्रद्धा के साथ देखते हुए बोली, ‘‘आज का दिन पावन है, आज बंदिनी की रिहाई की खबर आई है.’’

जीवन की मुसकान

मैं बच्चों के साथ उदयपुर (राजस्थान) गया था. वहां हमारा 3-4 दिनों का कार्यक्रम था. मगर पहले ही दिन जब हम घूमफिर कर वापस होटल पहुंचे ही थे कि मेरे भांजे संजय का फोन आया, ‘‘डैडी (मेरे जीजाजी) के हृदय की शल्य चिकित्सा होने वाली है, सो आप को कल ही दिल्ली पहुंचना है.’’

वापसी में हमें रात 12 बजे की बस की पिछली सीट मिली. सुबह घर पहुंच कर रिकशे वाले को पैसे देने के लिए ज्यों ही पौकेट में हाथ डाला, मेरे होश उड़ गए. पर्स गायब था. उलटेपांव उसी रिकशे से मैं वापस बसस्टैंड गया. देखा, बस अड्डे से बाहर निकल रही है. मैं झट बस पर चढ़ गया और पीछे की सीट पर नजर दौड़ाने लगा. इतने में कंडकटर ने पूछा, ‘‘साहब, क्या देख रहे हैं?’’

मैं ने बताया कि रात को इसी बस से हम उदयपुर से आए थे. अंतिम सीट थी. वहां मेरा पर्र्स गिर गया. इतना जान कर कंडक्टर ने अपनी जेब से निकाल कर पर्स मुझे पकड़ा दिया. पर्स पा कर मैं खुशी से झूम उठा. मैं ने कंडक्टर को बख्शिश देनी चाही, मगर उस ने लेने से मना कर दिया, कहा कि आप को अपना सामान मिल गया, इसी में उसे खुशी है.

उस ने कुछ भी लेने से मना कर दिया. मैं ने सोचा कि आज की इस लालची व स्वार्थभरी दुनिया में इतने ईमानदार लोग भी हैं.    राजकुमार जैन

मेरे दोस्त के बेटे की जन्मदिन की पार्र्टी थी. मैं पूरे परिवार के साथ बर्थडे पार्टी में गया था.

हम सब खाना खा रहे थे. मेरे दोस्त ने शराब की भी व्यवस्था कर रखी थी. कुछ लोग शराब पी रहे थे और मुझे

भी पीने के लिए बारबार बोल रहे

थे. मेरे पास ही मेरा बेटा भी खाना खा रहा था.

बेटे ने कहा, ‘‘मेरे पापा शराब नहीं पीते है. पापा कहते हैं, शराब पीने से कैंसर और कई भयानक बीमारियां होती हैं, जो जानलेवा होती हैं. शराब पी कर लोग घर में बीवीबच्चों से गालीगलौज और मारपीट करते हैं, जो बुरी बात है. आप लोग भी शराब मत पीजिए, सेहत के लिए खराब है.’’

वहां बैठे सभी लोगों का सिर शर्म से झुक गया. जहां बेटे की बात दिल को छू गई वहीं इस बात की भी खुशी हुई कि आज का युवावर्ग शराब जैसी गंभीर समस्याओं के प्रति जागरूक है.

Hindi Fiction Stories : अब हमारी बारी है – भाइयों ने बनाया बहन को सफल

Hindi Fiction Stories  : उसदिन पहली बार नीरज उन के घर सब के साथ लंच लेने आ रहा था. अंजलि के दोनों छोटे भाई और उन की पत्नियां सुबह से ही उस की शानदार आवभगत करने की तैयारी में जुटे हुए थे. उस के दोनों भतीजे और भतीजी बढि़या कपड़ों से सजधज कर बड़ी आतुरता से नीरज के पहुंचने का इंतजार कर रहे थे.

अंजलि की ढंग से तैयार होने में उस की छोटी भाभी शिखा ने काफी सहायता की थी. और दिनों की तुलना में वह ज्यादा आकर्षक और स्मार्ट नजर आ रही थी. लेकिन यह बात उस के मन की चिंता और बेचैनी को कम करने में असफल रही.

‘‘तुम सब 35 साल की उम्र में मु झ पर शादी करने का दबाव क्यों बना रहे हो? क्या मैं तुम सब पर बो झ बन गई हूं? मु झे जबरदस्ती धक्का क्यों देना चाहते हो?’’ ऐसी बातें कह कर अंजलि अपने भैयाभाभियों से पिछले हफ्ते में कई बार  झगड़ी पर उन्होंने उस के हर विरोध को हंसी में उड़ा दिया था.

कुछ देर बाद अंजलि से 2 साल छोटे उस के भाई अरुण ने कमरे में आ कर सूचना दी, ‘‘दीदी, नीरजजी आ गए हैं.’’

अंजलि ड्राइंगरूम में जाने को नहीं उठी, तो अरुण ने बड़े प्यार से बाजू पकड़ कर उसे खड़ा किया और फिर भावुक लहजे में बोला, ‘‘दीदी, मन में कोई टैंशन मत रखो. आप की मरजी के खिलाफ हम कुछ नहीं करेंगे.’’

‘‘मैं शादी नहीं करना चाहती हूं,’’ अंजलि रुंधी आवाज में बोली.

‘‘तो मत करना, पर घर आए मेहमान का स्वागत करने तो चलो,’’ और अरुण उस का हाथ पकड़ कर ड्राइंगरूम की तरफ चल पड़ा. अंजलि की आंखों में चिंता और बेचैनी के भाव और बढ़

गए थे.

ड्राइंगरूम में नीरज को तीनों छोटे बच्चों ने घेर रखा था. उस के सामने उन्होंने कई पैंसिलें और ड्राइंगपेपर रखे हुए थे.

नीरज चित्रकार था. वे सब अपनाअपना चित्र पहले बनवाने के लिए शोर

मचा रहे थे. उन के खुले व्यवहार से यह साफ जाहिर हो रहा था कि नीरज ने उन तीनों के दिल चंद मिनटों की मुलाकात में ही जीत लिए थे.

अरुण की 6 वर्षीय बेटी महक ने चित्र बनवाने के लिए गाल पर उंगली रख कर इस अदा से पोज बनाया कि कोई भी बड़ा व्यक्ति खुद को हंसने से नहीं रोक पाया.

अंजलि ने हंसतेहंसते महक का माथा चूमा और फिर हाथ जोड़ कर नीरज का अभिवादन किया.

‘‘यह तुम्हारे लिए है,’’ नीरज ने खड़े हो कर एक चौड़े कागज का रोल अंजलि के हाथ

में पकड़ाया.

‘‘आप की बनाई कोई पेंटिंग है इस में?’’ अरुण की पत्नी मंजु ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘जी, हां,’’ नीरज ने शरमाते हुए जवाब दिया.

‘‘हम सब इसे देख लें, दीदी?’’ अंजलि के छोटे भाई अजय की पत्नी शिखा ने प्रसन्न लहजे में पूछा.

अंजलि ने रोल शिखा को पकड़ा दिया.

वह अपनी जेठानी की सहायता से गिफ्ट पेपर खोलने लगी.

नीरज ने अंजलि को उसी का रंगीन पोर्ट्रेट बना कर भेंट किया था. तसवीर बड़ी सुंदर बनी थी. सब मिल कर तसवीर की प्रशंसा करने लगे.

अंजलि ने धीमी आवाज में नीरज से प्रश्न किया, ‘‘यह कब बनाई आप ने?’’

‘‘क्या तुम्हें अपनी तसवीर पसंद नहीं आई?’’ नीरज ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘तसवीर तो बहुत अच्छी है… पर आप ने बनाई कैसे?’’

‘‘शिखा ने तुम्हारा 1 पासपोर्ट साइज फोटो दिया था. कुछ उस की सहायता ली और बाकी काम मेरी कल्पनाशक्ति ने किया.’’

‘‘कलाकार को सत्य दर्शाना चाहिए, नीरजजी. मैं तो बिलकुल भी सुंदर नहीं हूं.’’

‘‘मैं ने इस कागज पर सत्य ही उतारा है… मु झे तुम इतनी ही सुंदर नजर आती हो.’’

नीरज की इस बात को सुन कर अंजलि ने कुछ घबरा और कुछ शरमा कर नजरें  झुका लीं.

सब लोग नीरज के पास आ कर अंजलि की तसवीर की प्रशंसा करने लगे. अंजलि ने कभी अपने रंगरूप की वैसी तारीफ नहीं सुनी थी, इसलिए असहज सी हो कर नीरज के लिए चाय बनाने रसोई में चली गई.

नीरज से उस की पहली मुलाकात शिखा ने अपनी सहेली कविता के घर पर करीब

2 महीने पहले करवाई थी.

42 वर्षीय चित्रकार नीरज कविता के जेठ थे. उन्होंने शादी नहीं की थी. घर की तीसरी मंजिल पर 1 कमरे के सैट में रहते थे और वहीं उन का स्टूडियो भी था.

उस दिन नीरज के स्टूडियो में अपना पैंसिल से बनाया एक चित्र देख कर वह चौंकी थी. नीरज ने खुलासा करते हुए उन सब को जानकारी दी थी, ‘‘अंजलि पार्क में 3 छोटे बच्चों के साथ घूमने आई थीं. बच्चे खेलने में व्यस्त हो गए और ये बैंच पर बैठीबैठी गहरे सोचविचार में खो गईं. मैं ने इन की जानकारी में आए बिना इस चित्र में इन के चेहरे के विशेष भावों को पकड़ने की कोशिश की थी.’’

‘‘2 दिन पहले अंजलि दीदी का यह चित्र यहां देख कर मैं चौंकी थी. मैं ने भाई साहब को दीदी के बारे में बताया, तो इन्होंने दीदी से मिलने की इच्छा जाहिर की. तभी मैं ने 2 दिन पहले तुम्हें फोन किया था, शिखा,’’ कविता के इस स्पष्टीकरण को सुन कर अंजलि को पूरी बात सम झ में आ गई थी.

कुछ दिनों बाद कविता उसे बाजार में मिली और अपने घर चाय पिलाने ले गई. अपने बेटे की चौथी सालगिरह की पार्टी में भी उस ने अंजलि को बुलाया. इन दोनों अवसरों पर उस की नीरज से खूब बातें हुईं.

इन 2 मुलाकातों के बाद नीरज उसे पार्क में कई बार मिला था. अंजलि वहां अपने भतीजों व भतीजी के साथ शाम को औफिस से आने के बाद अकसर जाती थी. वहीं नीरज ने उस का मोबाइल नंबर भी ले लिया था. अब वे फोन पर भी बातें कर लेते थे.

फिर कविता और शिखा ने एक दिन उस के सामने नीरज के साथ शादी करने की

चर्चा छेड़ी, तो उस ने उन दोनों को डांट दिया, ‘‘मु झे शादी करनी होती तो 10 साल पहले कर लेती. इस  झं झट में अब फंसने का मेरा रत्ती भर इरादा नहीं है. मेरे सामने ऐसी चर्चा फिर कभी मत करना,’’ उन्हें यों डपटने के बाद वह अपने कमरे में चली आई थी.

उस दिन के बाद अंजलि ने नीरज के साथ मिलना और बातें करना बिलकुल कम कर दिया. उस ने पार्क में जाना भी छोड़ दिया. फोन पर भी व्यस्तता का  झूठा बहाना बना कर जल्दी फोन काट देती.

उस की अनिच्छा को नजरअंदाज करते हुए उस के दोनों छोटे भाई और भाभियां अकसर नीरज की चर्चा छेड़ देते. उस से हर कोई कविता के घर या पार्क में मिल चुका था. सभी उसे हंसमुख और सीधासादा इंसान मानते थे. उन के मुंह से निकले प्रशंसा के शब्द यह साफ दर्शाते कि उन सब को नीरज पसंद है.

अंजलि की कई बार की नाराजगी उन

की इस इच्छा को जड़ से समाप्त करने में असफल रही थी. किसी को यह बात नहीं जंची थी कि अंजलि ने नीरज से बातें करना कम कर दिया है.

उन के द्वारा रविवार को नीरज को लंच पर आमंत्रित करने के बाद ही इस बात की सूचना अंजलि को पिछली रात को मिली थी.

कुछ देर बाद जब अंजलि चाय की ट्रे ले कर ड्राइंगरूम में दाखिल हुई, तो वहां बहुत शोर मचा था. नीरज ने तीनों बच्चों के पैंसिल स्कैच बड़े मनोरंजक ढंग से बनाए थे. नन्हे राहुल की उन्होंने बड़ीबड़ी मूंछें बना दी थीं. महक को पंखों वाली परी बना दिया था और मयंक के चेहरे के साथ शेर का धड़ जोड़ा था.

इन तीनों बच्चों ने बड़ी मुश्किल से नीरज को चाय पीने दी. वे उस के साथ अभी और खेलना चाहते थे.

‘‘बिलकुल मेरी पसंद की चाय बनाई है तुम ने, अंजलि. चायपत्ती तेज और चीनी व दूध कम. थैंक्यू,’’ पहला घूंट भरते ही नीरज ने अंजलि को

धन्यवाद दिया.

‘‘कविता ने एक बार दीदी को बताया था कि आप कैसी चाय पीते

हैं. दीदी ने उस के कहे को याद रखा और आप की मनपसंद चाय बना दी,’’ शिखा की इस बात को सुन कर अंजलि पहले शरमाई और फिर बेचैनी से भर उठी.

‘‘चाय मेरी कमजोरी है. एक वक्त था

जब मैं दिन भर में 10-12 कप चाय पी लेता था,’’ नीरज ने हलकेफुलके अंदाज में बात

आगे बढ़ाई.

‘‘आप जो भी तसवीर बनाते हैं, उस में चेहरे के भाव बड़ी खूबी से उभारते हैं,’’ शिखा ने उस की तारीफ की.

‘‘इतनी अच्छी तसवीरें भी नहीं बनाता हूं मैं.’’

‘‘ऐसा क्यों कह रहे हैं?’’

‘‘क्योंकि मेरी बनाई तसवीरें इतनी ही ज्यादा शानदार होतीं तो खूब बिकतीं. अपने चित्रों के बल पर मैं हर महीने कठिनाई से 5-7 हजार कमा पाता हूं. मेरा अपना गुजारा मुश्किल से चलता है. इसीलिए आज तक घर बसाने की हिम्मत नहीं कर पाया.’’

‘‘शादी करने के बारे में क्या सोचते हैं अब आप?’’ अरुण ने सवाल उठाया तो नीरज सब की दिलचस्पी का केंद्र बन गया.

‘‘जीवनसाथी की जरूरत तो हर उम्र के इंसान को महसूस होती ही है, अरुण. अगर मु झ जैसे बेढंगे कलाकार के लिए कोई लड़की होगी, तो किसी दिन मेरी शादी भी हो जाएगी,’’ हंसी भरे अंदाज में ऐसा जवाब दे कर नीरज ने खाली कप मेज पर रखा और फिर से बच्चों के साथ खेल में लग गया.

नीरज वहां से करीब 5 बजे शाम को गया. तीनों बच्चे उस के ऐसे प्रशंसक बन गए थे कि उसे जाने ही नहीं देना चाहते थे. बड़ों ने भी उसे बड़े प्रेम और आदरसम्मान से विदाई दी थी.

उस के जाते ही अंजलि बिना किसी से कुछ कहेसुने अपने कमरे में चली आई. अचानक उस का मन रोने को करने लगा, पर आंसू थे कि पलकें भिगोने के लिए बाहर आ ही नहीं रहे थे.

करीब 15 मिनट बाद अंजलि के दोनों छोटे भाई और भाभियां उस से मिलने कमरे में आ गए. उन के गंभीर चेहरे देखते ही अंजलि उन के आने का मकसद सम झ गई और किसी के बोलने से पहले ही भड़क उठी, ‘‘मैं बिलकुल शादी नहीं करूंगी. इस टौपिक पर चर्चा छेड़ कर कोई मेरा दिमाग खराब करने की कतई कोशिश न करे.’’

अजय उस के सामने घुटने मोड़ कर फर्श पर बैठ गया और उस का दूसरा हाथ

प्यार से पकड़ कर भावुक स्वर में बोला, ‘‘दीदी, 12 साल पहले पापा के असमय गुजर जाने के बाद आप ही हमारा मजबूत सहारा बनी थीं. आप ने अपनी खुशियों और सुखसुविधाओं को नजरअंदाज कर हमें काबिल बनाया… हमारे घर बसाए. हम आप का वह कर्ज कभी नहीं चुका पाएंगे.’’

‘‘पागल, मेरे कर्तव्यों को कर्ज क्यों सम झ रहा है? आज तुम दोनों को खुश और सुखी देख कर मु झे बहुत गर्व होता है,’’  झुक कर अजय का सिर चूमते हुए अंजलि बोली.

अरुण ने भरे गले से बातचीत को आगे बढ़ाया, ‘‘दीदी, आप के आशीर्वाद से आज हम इतने समर्थ हो गए हैं कि आप की जिंदगी में

भी खुशियां और सुख भर सकें. अब हमारी

बारी है और आप प्लीज इस मौके को हम दोनों से मत छीनो.’’

‘‘भैया, मु झ पर शादी करने का दबाव न बनाओ. मेरे मन में अब शादी करने की इच्छा नहीं उठती. बिलकुल नए माहौल में एक नए इंसान के साथ नई जिंदगी शुरू करने का खयाल ही मन को डराता है,’’ अंजलि ने कांपती आवाज में अपना भय पहली बार सब को बता दिया.

‘‘लेकिन…’’

‘‘दीदी, नीरजजी बड़े सीधे, सच्चे और नेकदिल इंसान हैं. उन जैसा सम झदार जीवनसाथी आप को बहुत सुखी रखेगा… बहुत प्यार देगा,’’ अरुण ने अंजलि को शादी के विरोध में कुछ बोलने ही नहीं दिया.

‘‘मैं तो तुम सब के साथ ही बहुत सुखी हूं. मु झे शादी के  झं झट में नहीं पड़ना है,’’ अंजलि

रो पड़ी.

‘‘दीदी, हम आप की विवाहित जिंदगी में  झं झट पैदा ही नहीं होने देंगे,’’ उस की बड़ी भाभी मंजु ने उस का हौसला बढ़ाया, ‘‘हमारे होते किसी तरह की कमी या अभाव आप दोनों को कभी महसूस नहीं होगा.’’

‘‘मैं जानता हूं कि नीरजजी अपने बलबूते पर अभी मकान नहीं बना सकते हैं. इसलिए हम ने फैसला किया है कि अपना नया फ्लैट हम तुम दोनों के नाम कर देंगे,’’ अरुण की इस घोषणा को सुन कर अंजलि चौंक पड़ी.

अजय ने अपने मन की बात बताई, ‘‘भैया से उपहार में मिले फ्लैट को सुखसुविधा की हर चीज से भरने की जिम्मेदारी मैं खुशखुशी उठाऊंगा. जो चीज घर में है, वह आप के फ्लैट में भी होगी, यह मेरा वादा है.’’

‘‘आप के लिए सारी ज्वैलरी मैं अपनी तरफ से तैयार कराऊंगी,’’ मंजु ने अपने मन की इच्छा जाहिर की.

‘‘आप के नए कपड़े, परदे, फ्लैट का नया रंगरोगन और मोटरसाइकिल भी हम देंगे आप को उपहार में. आप बस हां कर दो दीदी,’’ आंसू बहा रही शिखा ने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की तो अंजलि ने खड़े हो कर उसे गले से लगा लिया.

‘‘दीदी ‘हां’ कह दो,’’ अंजलि जिस की तरफ भी देखती, वही हाथ जोड़ कर यह प्रार्थना दोहरा देता.

‘‘ठीक है, लेकिन शादी में इतना कुछ मु झे नहीं चाहिए. तुम दोनों कोई करोड़पति नहीं हो, जो इतना कुछ मु झे देने की कोशिश करो,’’ अंतत: बड़ी धीमी आवाज में अंजलि ने अपनी स्वीकृति दे दी.

‘‘हुर्रा,’’ वे चारों छोटे बच्चों की तरह खुशी से उछल पड़े.

अंजलि के दिलोदिमाग पर बना तनाव का बो झ अचानक हट गया और उसे अपनी जिंदगी भरीभरी और खुशहाल प्रतीत होने लगी.उसदिन पहली बार नीरज उन के घर सब के साथ लंच लेने आ रहा था. अंजलि के दोनों छोटे भाई और उन की पत्नियां सुबह से ही उस की शानदार आवभगत करने की तैयारी में जुटे हुए थे. उस के दोनों भतीजे और भतीजी बढि़या कपड़ों से सजधज कर बड़ी आतुरता से नीरज के पहुंचने का इंतजार कर रहे थे.

अंजलि की ढंग से तैयार होने में उस की छोटी भाभी शिखा ने काफी सहायता की थी. और दिनों की तुलना में वह ज्यादा आकर्षक और स्मार्ट नजर आ रही थी. लेकिन यह बात उस के मन की चिंता और बेचैनी को कम करने में असफल रही.

‘‘तुम सब 35 साल की उम्र में मु झ पर शादी करने का दबाव क्यों बना रहे हो? क्या मैं तुम सब पर बो झ बन गई हूं? मु झे जबरदस्ती धक्का क्यों देना चाहते हो?’’ ऐसी बातें कह कर अंजलि अपने भैयाभाभियों से पिछले हफ्ते में कई बार  झगड़ी पर उन्होंने उस के हर विरोध को हंसी में उड़ा दिया था.

कुछ देर बाद अंजलि से 2 साल छोटे उस के भाई अरुण ने कमरे में आ कर सूचना दी, ‘‘दीदी, नीरजजी आ गए हैं.’’

अंजलि ड्राइंगरूम में जाने को नहीं उठी, तो अरुण ने बड़े प्यार से बाजू पकड़ कर उसे खड़ा किया और फिर भावुक लहजे में बोला, ‘‘दीदी, मन में कोई टैंशन मत रखो. आप की मरजी के खिलाफ हम कुछ नहीं करेंगे.’’

‘‘मैं शादी नहीं करना चाहती हूं,’’ अंजलि रुंधी आवाज में बोली.

‘‘तो मत करना, पर घर आए मेहमान का स्वागत करने तो चलो,’’ और अरुण उस का हाथ पकड़ कर ड्राइंगरूम की तरफ चल पड़ा. अंजलि की आंखों में चिंता और बेचैनी के भाव और बढ़

गए थे.

ड्राइंगरूम में नीरज को तीनों छोटे बच्चों ने घेर रखा था. उस के सामने उन्होंने कई पैंसिलें और ड्राइंगपेपर रखे हुए थे.

नीरज चित्रकार था. वे सब अपनाअपना चित्र पहले बनवाने के लिए शोर

मचा रहे थे. उन के खुले व्यवहार से यह साफ जाहिर हो रहा था कि नीरज ने उन तीनों के दिल चंद मिनटों की मुलाकात में ही जीत लिए थे.

अरुण की 6 वर्षीय बेटी महक ने चित्र बनवाने के लिए गाल पर उंगली रख कर इस अदा से पोज बनाया कि कोई भी बड़ा व्यक्ति खुद को हंसने से नहीं रोक पाया.

अंजलि ने हंसतेहंसते महक का माथा चूमा और फिर हाथ जोड़ कर नीरज का अभिवादन किया.

‘‘यह तुम्हारे लिए है,’’ नीरज ने खड़े हो कर एक चौड़े कागज का रोल अंजलि के हाथ

में पकड़ाया.

‘‘आप की बनाई कोई पेंटिंग है इस में?’’ अरुण की पत्नी मंजु ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘जी, हां,’’ नीरज ने शरमाते हुए जवाब दिया.

‘‘हम सब इसे देख लें, दीदी?’’ अंजलि के छोटे भाई अजय की पत्नी शिखा ने प्रसन्न लहजे में पूछा.

अंजलि ने रोल शिखा को पकड़ा दिया.

वह अपनी जेठानी की सहायता से गिफ्ट पेपर खोलने लगी.

नीरज ने अंजलि को उसी का रंगीन पोर्ट्रेट बना कर भेंट किया था. तसवीर बड़ी सुंदर बनी थी. सब मिल कर तसवीर की प्रशंसा करने लगे.

अंजलि ने धीमी आवाज में नीरज से प्रश्न किया, ‘‘यह कब बनाई आप ने?’’

‘‘क्या तुम्हें अपनी तसवीर पसंद नहीं आई?’’ नीरज ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘तसवीर तो बहुत अच्छी है… पर आप ने बनाई कैसे?’’

‘‘शिखा ने तुम्हारा 1 पासपोर्ट साइज फोटो दिया था. कुछ उस की सहायता ली और बाकी काम मेरी कल्पनाशक्ति ने किया.’’

‘‘कलाकार को सत्य दर्शाना चाहिए, नीरजजी. मैं तो बिलकुल भी सुंदर नहीं हूं.’’

‘‘मैं ने इस कागज पर सत्य ही उतारा है… मु झे तुम इतनी ही सुंदर नजर आती हो.’’

नीरज की इस बात को सुन कर अंजलि ने कुछ घबरा और कुछ शरमा कर नजरें  झुका लीं.

सब लोग नीरज के पास आ कर अंजलि की तसवीर की प्रशंसा करने लगे. अंजलि ने कभी अपने रंगरूप की वैसी तारीफ नहीं सुनी थी, इसलिए असहज सी हो कर नीरज के लिए चाय बनाने रसोई में चली गई.

नीरज से उस की पहली मुलाकात शिखा ने अपनी सहेली कविता के घर पर करीब

2 महीने पहले करवाई थी.

42 वर्षीय चित्रकार नीरज कविता के जेठ थे. उन्होंने शादी नहीं की थी. घर की तीसरी मंजिल पर 1 कमरे के सैट में रहते थे और वहीं उन का स्टूडियो भी था.

उस दिन नीरज के स्टूडियो में अपना पैंसिल से बनाया एक चित्र देख कर वह चौंकी थी. नीरज ने खुलासा करते हुए उन सब को जानकारी दी थी, ‘‘अंजलि पार्क में 3 छोटे बच्चों के साथ घूमने आई थीं. बच्चे खेलने में व्यस्त हो गए और ये बैंच पर बैठीबैठी गहरे सोचविचार में खो गईं. मैं ने इन की जानकारी में आए बिना इस चित्र में इन के चेहरे के विशेष भावों को पकड़ने की कोशिश की थी.’’

‘‘2 दिन पहले अंजलि दीदी का यह चित्र यहां देख कर मैं चौंकी थी. मैं ने भाई साहब को दीदी के बारे में बताया, तो इन्होंने दीदी से मिलने की इच्छा जाहिर की. तभी मैं ने 2 दिन पहले तुम्हें फोन किया था, शिखा,’’ कविता के इस स्पष्टीकरण को सुन कर अंजलि को पूरी बात सम झ में आ गई थी.

कुछ दिनों बाद कविता उसे बाजार में मिली और अपने घर चाय पिलाने ले गई. अपने बेटे की चौथी सालगिरह की पार्टी में भी उस ने अंजलि को बुलाया. इन दोनों अवसरों पर उस की नीरज से खूब बातें हुईं.

इन 2 मुलाकातों के बाद नीरज उसे पार्क में कई बार मिला था. अंजलि वहां अपने भतीजों व भतीजी के साथ शाम को औफिस से आने के बाद अकसर जाती थी. वहीं नीरज ने उस का मोबाइल नंबर भी ले लिया था. अब वे फोन पर भी बातें कर लेते थे.

फिर कविता और शिखा ने एक दिन उस के सामने नीरज के साथ शादी करने की

चर्चा छेड़ी, तो उस ने उन दोनों को डांट दिया, ‘‘मु झे शादी करनी होती तो 10 साल पहले कर लेती. इस  झं झट में अब फंसने का मेरा रत्ती भर इरादा नहीं है. मेरे सामने ऐसी चर्चा फिर कभी मत करना,’’ उन्हें यों डपटने के बाद वह अपने कमरे में चली आई थी.

उस दिन के बाद अंजलि ने नीरज के साथ मिलना और बातें करना बिलकुल कम कर दिया. उस ने पार्क में जाना भी छोड़ दिया. फोन पर भी व्यस्तता का  झूठा बहाना बना कर जल्दी फोन काट देती.

उस की अनिच्छा को नजरअंदाज करते हुए उस के दोनों छोटे भाई और भाभियां अकसर नीरज की चर्चा छेड़ देते. उस से हर कोई कविता के घर या पार्क में मिल चुका था. सभी उसे हंसमुख और सीधासादा इंसान मानते थे. उन के मुंह से निकले प्रशंसा के शब्द यह साफ दर्शाते कि उन सब को नीरज पसंद है.

अंजलि की कई बार की नाराजगी उन

की इस इच्छा को जड़ से समाप्त करने में असफल रही थी. किसी को यह बात नहीं जंची थी कि अंजलि ने नीरज से बातें करना कम कर दिया है.

उन के द्वारा रविवार को नीरज को लंच पर आमंत्रित करने के बाद ही इस बात की सूचना अंजलि को पिछली रात को मिली थी.

कुछ देर बाद जब अंजलि चाय की ट्रे ले कर ड्राइंगरूम में दाखिल हुई, तो वहां बहुत शोर मचा था. नीरज ने तीनों बच्चों के पैंसिल स्कैच बड़े मनोरंजक ढंग से बनाए थे. नन्हे राहुल की उन्होंने बड़ीबड़ी मूंछें बना दी थीं. महक को पंखों वाली परी बना दिया था और मयंक के चेहरे के साथ शेर का धड़ जोड़ा था.

इन तीनों बच्चों ने बड़ी मुश्किल से नीरज को चाय पीने दी. वे उस के साथ अभी और खेलना चाहते थे.

‘‘बिलकुल मेरी पसंद की चाय बनाई है तुम ने, अंजलि. चायपत्ती तेज और चीनी व दूध कम. थैंक्यू,’’ पहला घूंट भरते ही नीरज ने अंजलि को

धन्यवाद दिया.

‘‘कविता ने एक बार दीदी को बताया था कि आप कैसी चाय पीते

हैं. दीदी ने उस के कहे को याद रखा और आप की मनपसंद चाय बना दी,’’ शिखा की इस बात को सुन कर अंजलि पहले शरमाई और फिर बेचैनी से भर उठी.

‘‘चाय मेरी कमजोरी है. एक वक्त था

जब मैं दिन भर में 10-12 कप चाय पी लेता था,’’ नीरज ने हलकेफुलके अंदाज में बात

आगे बढ़ाई.

‘‘आप जो भी तसवीर बनाते हैं, उस में चेहरे के भाव बड़ी खूबी से उभारते हैं,’’ शिखा ने उस की तारीफ की.

‘‘इतनी अच्छी तसवीरें भी नहीं बनाता हूं मैं.’’

‘‘ऐसा क्यों कह रहे हैं?’’

‘‘क्योंकि मेरी बनाई तसवीरें इतनी ही ज्यादा शानदार होतीं तो खूब बिकतीं. अपने चित्रों के बल पर मैं हर महीने कठिनाई से 5-7 हजार कमा पाता हूं. मेरा अपना गुजारा मुश्किल से चलता है. इसीलिए आज तक घर बसाने की हिम्मत नहीं कर पाया.’’

‘‘शादी करने के बारे में क्या सोचते हैं अब आप?’’ अरुण ने सवाल उठाया तो नीरज सब की दिलचस्पी का केंद्र बन गया.

‘‘जीवनसाथी की जरूरत तो हर उम्र के इंसान को महसूस होती ही है, अरुण. अगर मु झ जैसे बेढंगे कलाकार के लिए कोई लड़की होगी, तो किसी दिन मेरी शादी भी हो जाएगी,’’ हंसी भरे अंदाज में ऐसा जवाब दे कर नीरज ने खाली कप मेज पर रखा और फिर से बच्चों के साथ खेल में लग गया.

नीरज वहां से करीब 5 बजे शाम को गया. तीनों बच्चे उस के ऐसे प्रशंसक बन गए थे कि उसे जाने ही नहीं देना चाहते थे. बड़ों ने भी उसे बड़े प्रेम और आदरसम्मान से विदाई दी थी.

उस के जाते ही अंजलि बिना किसी से कुछ कहेसुने अपने कमरे में चली आई. अचानक उस का मन रोने को करने लगा, पर आंसू थे कि पलकें भिगोने के लिए बाहर आ ही नहीं रहे थे.

करीब 15 मिनट बाद अंजलि के दोनों छोटे भाई और भाभियां उस से मिलने कमरे में आ गए. उन के गंभीर चेहरे देखते ही अंजलि उन के आने का मकसद सम झ गई और किसी के बोलने से पहले ही भड़क उठी, ‘‘मैं बिलकुल शादी नहीं करूंगी. इस टौपिक पर चर्चा छेड़ कर कोई मेरा दिमाग खराब करने की कतई कोशिश न करे.’’

अजय उस के सामने घुटने मोड़ कर फर्श पर बैठ गया और उस का दूसरा हाथ

प्यार से पकड़ कर भावुक स्वर में बोला, ‘‘दीदी, 12 साल पहले पापा के असमय गुजर जाने के बाद आप ही हमारा मजबूत सहारा बनी थीं. आप ने अपनी खुशियों और सुखसुविधाओं को नजरअंदाज कर हमें काबिल बनाया… हमारे घर बसाए. हम आप का वह कर्ज कभी नहीं चुका पाएंगे.’’

‘‘पागल, मेरे कर्तव्यों को कर्ज क्यों सम झ रहा है? आज तुम दोनों को खुश और सुखी देख कर मु झे बहुत गर्व होता है,’’  झुक कर अजय का सिर चूमते हुए अंजलि बोली.

अरुण ने भरे गले से बातचीत को आगे बढ़ाया, ‘‘दीदी, आप के आशीर्वाद से आज हम इतने समर्थ हो गए हैं कि आप की जिंदगी में

भी खुशियां और सुख भर सकें. अब हमारी

बारी है और आप प्लीज इस मौके को हम दोनों से मत छीनो.’’

‘‘भैया, मु झ पर शादी करने का दबाव न बनाओ. मेरे मन में अब शादी करने की इच्छा नहीं उठती. बिलकुल नए माहौल में एक नए इंसान के साथ नई जिंदगी शुरू करने का खयाल ही मन को डराता है,’’ अंजलि ने कांपती आवाज में अपना भय पहली बार सब को बता दिया.

‘‘लेकिन…’’

‘‘दीदी, नीरजजी बड़े सीधे, सच्चे और नेकदिल इंसान हैं. उन जैसा सम झदार जीवनसाथी आप को बहुत सुखी रखेगा… बहुत प्यार देगा,’’ अरुण ने अंजलि को शादी के विरोध में कुछ बोलने ही नहीं दिया.

‘‘मैं तो तुम सब के साथ ही बहुत सुखी हूं. मु झे शादी के  झं झट में नहीं पड़ना है,’’ अंजलि

रो पड़ी.

‘‘दीदी, हम आप की विवाहित जिंदगी में  झं झट पैदा ही नहीं होने देंगे,’’ उस की बड़ी भाभी मंजु ने उस का हौसला बढ़ाया, ‘‘हमारे होते किसी तरह की कमी या अभाव आप दोनों को कभी महसूस नहीं होगा.’’

‘‘मैं जानता हूं कि नीरजजी अपने बलबूते पर अभी मकान नहीं बना सकते हैं. इसलिए हम ने फैसला किया है कि अपना नया फ्लैट हम तुम दोनों के नाम कर देंगे,’’ अरुण की इस घोषणा को सुन कर अंजलि चौंक पड़ी.

अजय ने अपने मन की बात बताई, ‘‘भैया से उपहार में मिले फ्लैट को सुखसुविधा की हर चीज से भरने की जिम्मेदारी मैं खुशखुशी उठाऊंगा. जो चीज घर में है, वह आप के फ्लैट में भी होगी, यह मेरा वादा है.’’

‘‘आप के लिए सारी ज्वैलरी मैं अपनी तरफ से तैयार कराऊंगी,’’ मंजु ने अपने मन की इच्छा जाहिर की.

‘‘आप के नए कपड़े, परदे, फ्लैट का नया रंगरोगन और मोटरसाइकिल भी हम देंगे आप को उपहार में. आप बस हां कर दो दीदी,’’ आंसू बहा रही शिखा ने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की तो अंजलि ने खड़े हो कर उसे गले से लगा लिया.

‘‘दीदी ‘हां’ कह दो,’’ अंजलि जिस की तरफ भी देखती, वही हाथ जोड़ कर यह प्रार्थना दोहरा देता.

‘‘ठीक है, लेकिन शादी में इतना कुछ मु झे नहीं चाहिए. तुम दोनों कोई करोड़पति नहीं हो, जो इतना कुछ मु झे देने की कोशिश करो,’’ अंतत: बड़ी धीमी आवाज में अंजलि ने अपनी स्वीकृति दे दी.

‘‘हुर्रा,’’ वे चारों छोटे बच्चों की तरह खुशी से उछल पड़े.

अंजलि के दिलोदिमाग पर बना तनाव का बोझ अचानक हट गया और उसे अपनी जिंदगी भरीभरी और खुशहाल प्रतीत होने लगी.

Hindi Story Collection : हुनर – आरती को किसका साथ मिला था

Hindi Story Collection :  हाथों में ब्रश पकड़ आरती अपने हुनर को निखारने में लगी थी जबकि उस की बड़ीछोटी बहनें बिगाड़ने में. पर मां ही थीं, जो उसे समझतीं तो वह फिर से बनाती. शादी के बाद पति का साथ मिला तो उस को इसी हुनर से नई पहचान मिली. क्या वह बड़ीछोटी बहनों द्वारा की गई शरारतों को भूल पाई… आरती ने पलट कर अपनी बड़ीछोटी बहनों की ओर देखा. किसी बात पर दोनों खिलखिला उठी थीं. बेमौसम बरसात की तरह यों उन का ठहाका लगाना आरती को भीतर तक छेद गया. ‘सोच क्या रही है, तू भी सुन ले हमारी योजना और इस में शामिल हो जा,’ बड़ी फुसफुसाई. ‘कैसी योजना?’

‘है कुछ,’ छोटी फुसफुसाई. आरती की निगाहें बरबस ओसारे पर बिछी तख्त पर जा टिकीं. दुग्धधवल चादर बिछी हुई है. उसे भ्रम हुआ जैसे अम्मा उस पर बैठी उसे बुला रही हैं, ‘आ बिटिया, बैठ मेरे पास.’ ‘क्या है अम्मा?’ ‘तू इतनी गुमसुम क्यों रहती है री, देख तो तेरी बड़ीछोटी बहनें कैसे सारा दिन चहकती रहती हैं.’ आरती हौले से मुसकरा दी. फिर तो अम्मा ऊंचनीच समझतीं और वह ‘हां…हूं’ में जवाब देती जाती. बड़ी बहन बाबूजी की लाड़ली थी, तो छोटी अम्मा की. आरती का व्यक्तित्व उन दोनों बहनों की शोखी तले दब सा गया था. वह चाह कर भी बड़ीछोटी की तरह न तो इठला पाती थी, न अपनी उचितअनुचित फरमाइशों से घर वालों को परेशान कर सकती थी. वह अपने मनोभावों को चित्रों द्वारा प्रकट करने लगी. हाथों में तूलिका पकड़ वह अपने चित्रों के संसार में खो जाती जहां न अम्मा का लाड़, न बाबूजी का संरक्षण, न बहनों का बेतुका प्रदर्शन और न ही भाई की जल्दबाजी.

रंगोंलकीरों में उस का पूरा संसार सन्निहित था. जो मिल जाता, पहन लेती, चौके में जो पकता, खा लेती. न तो कभी ठेले के पास खड़े हो कर किसी ने उसे चाट खाते देखा और न वह कभी छिपछिप कर सहेलियों के संग सिनेमा देखने गई. बड़ीछोटी बेटियों की ऊंटपटांग हरकतों से अम्मा झल्ला पड़तीं, ‘आखिर आरती भी हमारी ही बेटी है. हमें जरा सा भी परेशान नहीं करती और तुम दोनों जब देखो, कोई न कोई उत्पात मचाती रहती हो.’ ‘भोंदू है आरती, सिर्फ लकीरें खींच कर कोई काबिल नहीं बनता,’ बड़ी अपमान से तिलमिला उठती. ‘अम्मा, तुम भी किस का उदाहरण दे कर हमें छोटा बताती हो, उस घरघुस्सी का,’ छोटी भला कब पीछे रहने वाली थी. ‘वह भोंदू, मूर्ख है और तुम लोग…’ अम्मा देर तक भुनभुनाती रहतीं, जिस का परिणाम आरती को भुगतना पड़ता.

पता नहीं, कब बड़ीछोटी आंखों से इशारा करतीं, एकदूसरे के कानों में कुछ फुसकतीं और दूसरे दिन आरती के चित्रों का सत्यानाश हो गया होता. फटे कागज के बिखरे टुकड़े, लुढ़का रंगों का प्याला… ब्रश की ऐसी हालत कर दी गई होती कि वह दोबारा किसी काम का न रहे. बिलखती आरती अम्मा से फरियाद करती, ‘अम्मा, अम्मा, देखो मेरी पेंटिंग की हालत… मैं ने कितनी मेहनत से बनाई थी.’ ‘फिर से बना लेना. हाथ का हुनर भला कौन छीन सकता है,’ अम्मा आरती को दिलासा दे कर अपनी बड़ीछोटी बेटियों पर बरस पड़तीं, ‘यह कौन सा बहादुरी का काम किया तुम लोगों ने आरती को दुख पहुंचा कर.’ अम्मा देर तक भुनभुनाती रहतीं और बड़ीछोटी बेहयाई से कंधे उचकाती आरती को परेशान करने के लिए नई खोज में डूब जातीं. वहीं, वे दोनों आज आरती को किस योजना में शामिल होने का न्योता दे रही हैं,

इसे आरती का निश्चल हृदय खूब समझता है. अम्मा की तेरहवीं हुए अभी 2 दिन भी नहीं बीते, नातेरिश्तेदार एकएक कर चले गए. सिर्फ बच गए हैं हम पांचों भाईबहन. ‘‘भाभी, मैं कल जाऊंगी,’’ आरती ने रोटी खाते हुए कहा. ‘‘दोचार दिन और रुक जातीं.’’ ‘‘नहीं भाभी, वहां बच्चे अकेले हैं. आनाजाना लगा ही रहेगा.’’ जिस घर में उस का जन्म हुआ, पलीबढ़ी, जवान हुई, सपनों ने उड़ान भरी, वहां से निकल जाना ही उचित है. पता नहीं, बहनें कौन से कुचक्र में भागीदार बनने पर मजबूर करें. वह थकीहारी अपने आशियाने लौटी, तो पति सुदर्शन और दोनों प्यारे बच्चे उस का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे. ‘‘सब कुशलमंगल तो है न. नहाधो कर फ्रैश हो जाओ. मैं ने डिनर तैयार कर लिया है.’’ पति का स्नेह, बच्चों का ‘मम्मा, मम्मा’ करते लिपटना…

वह सारी कड़वाहटें भूल गई. ‘‘यह तुम्हारे लिए…’’ ‘‘क्या है लिफाफे में…’’ ‘‘स्वतंत्रता दिवस पर बनाई गई तुम्हारी पेंटिंग, पोस्टर को प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है. बुलाहट है दिल्ली के लालकिले पर पुरस्कार के लिए, उसी का निमंत्रणपत्र है.’’ ‘‘मम्मा, हम भी चलेंगे लालकिला देखने,’’ बच्चे मचल उठे. ‘‘अरे, हम सभी चलेंगे. चलने की तैयारी करो,’’ पति के उल्लासमय आह्वान पर आरती का दुखी हृदय खुशियों से भर उठा. जिस हुनर को मायके में हंसी का पात्र बनाया गया, वही पुरुषार्थी पति का सहयोग पा कर राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पहचान बना रहा है. ‘मां, यह तुम्हारा प्यार है शायद जिस ने मु?ो कभी भी कमजोर पड़ने न दिया, अपने मार्ग से भटका न सका और जिस की वजह से मेरा जनून मेरी ताकत बना…’ मन ही मन सोचती आरती का भावुक होना स्वाभाविक था. आरती का मन पाखी पुरानी यादों में खो गया

… खामोश, काम से काम रखने वाली आरती को अपने सहकर्मी के विनम्र, सुल?ो हुए साहसी स्वभाव ने आकर्षित कर लिया. अनाथ यश का प्रस्ताव, ‘मुझ से विवाह करोगी?’ ‘मां से बात करनी पड़ेगी,’ कहती हुई आरती ने नजरें झका लीं. उस ने डरतेडरते मां से बात की, ‘मां, यश आप से मिलना चाहता है. मेरा सहकर्मी है.’ ‘किसलिए,’ अनुभवी मां की आंखें चौड़ी हो गईं. यश की सज्जनता को देख परिवार प्रभावित हुआ, किंतु विजातीय विवाह की अनुमति नहीं, ‘लोग क्या कहेंगे…’ बहनों ने घर सिर पर उठा लिया, ‘विवाह में खर्च कौन करेगा…’ इस बार आरती ने दिल से काम लिया. कोर्ट में विवाह कर दूल्हे के संग मां का आशीर्वाद लेने पहुंची. तब सब ने मुंह मोड़ लिया किंतु मां के मुख से निकला, ‘सदा सुहागन रहो.’ बचपन से ही आरती को पेंटिंग, कढ़ाईसिलाई के अलावा रचनात्मक कार्यों में अभिरुचि थी. पति का साथ पा कर उस ने अपनी प्रतिभा को निखारना शुरू किया.

उस की खूबसूरत डिजाइन के परिधानों ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया. मांग बढ़ने लगी. इसी बीच वह 2 बच्चों की मां बनी. ससुराल में कोई था नहीं और मायके से कोई उम्मीद नहीं. इधर, बुटीक का काम चल निकला. नौकरी पहले ही छोड़ चुकी थी वह. अब पति ने भी अपना पूरा समय बुटीक को देना शुरू कर दिया. एक कमरे के व्यवसाय से प्रारंभ बुटीक का कारोबार आज शहर के बीच में है. आज उस की आमदनी हजारों में है. 4 कारीगर रखे हुए हैं. जब भी मां की याद आती, आरती उन से मिल आती, रुपएपैसे से उन की मदद करती. मां को अपने पास ला कर सेवासुश्रुषा करती.

मां के दिल से यही दुआ निकलती, ‘तुम्हें दुनियाजहान की सारी खुशियां मिलें.’ उसे भाईभाभी से कोई शिकायत नहीं थी किंतु बहनों को अपनी कामयाबी की भनक तक नहीं लगने दी. आरती को उन के खुराफाती दिमाग और कुटिल चालों की छाया तक अपने संसार पर गवारा नहीं थी. उसी धैर्य और हुनर का परिणाम है कि आज उसे पुरस्कृत किया जा रहा है… उस ने मन ही मन मृत मां को धन्यवाद दिया. सुखसंतोष से वह पुलकित हो उठी.

Ajay Devgn ने अपने 14 वर्षीय बेटे युग से अंतर्राष्ट्रीय फिल्म कराटे किड लीजेंड्स के लिए करवाई डबिंग

Ajay Devgn: फिल्म इंडस्ट्री में नेपोटिजम का बोलबाला शुरू से ही है जिसके चलते ज्यादातर स्टार्स के बच्चे अभिनय क्षेत्र में या ग्लैमर वर्ल्ड से ही जुड़ते है. लेकिन अब शाहरुख खान ने एक नया ट्रेंड शुरू किया जिसे अजय देवगन ने भी फॉलो किया. हाल ही में अजय देवगन भी शाहरुख खान की तरह अपने बेटे युग को मीडिया के सामने लेकर आए और बेटे की एक खूबी से दर्शको और मीडिया को अवगत कराया.

हाल ही में देवगन फैमिली की तीसरी पीढ़ी की बौलीवुड में एंट्री हुई वह कोई और नहीं बल्कि अजय देवगन के 14 वर्षीय बेटे युग है. युग बतौर डबिंग आर्टिस्ट अंतरराष्ट्रीय फिल्म कराटे किड लीजेंड्स के हिंदी वर्जन में अपनी आवाज देने वाले हैं जिसका ट्रेलर हाल ही में चर्चा में आया. इस फिल्म में जहां जैकी चैन की आवाज अजय देवगन देने वाले हैं वही युग मेंली फाग बेन वांग की आवाज के रूप में अपना डेब्यू किया है.

क्योंकि यह अजय देवगन के 14 वर्षीय बेटे की बतौर डबिंग आर्टिस्ट यह पहली कोशिश है, इसलिए अजय देवगन ने इसे सेलिब्रेट करने के लिए स्पेशल प्रेस कॉन्फ्रेंस रखी जहां पर दोनों बाप बेटे मुस्कुराते नजर आए. अजय देवगन जहां अपने बेटे को लेकर थोड़ा टेंशन में थे कि कही युग मीडिया के सामने कोई शैतानी ना कर दे, क्योंकि युग अक्सर काजोल के साथ धमाल मस्ती करते हुए सोशल मीडिया पर दिखाई देते रहते हैं. वही युग पहली बार मीडिया के सामने आने को लेकर बेहद खुश और शर्माते नजर आ रहे थे .
गौरतलब है शाहरुख खान के तीनों बच्चे भी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ग्लैमर वर्ल्ड से जुड़ चुके हैं.

उनका बेटा आर्यन खान जहां बतौर डायरेक्टर स्टारडम वेब सीरीज बना रहा है तो बेटी सुहाना एक्टिंग क्षेत्र में अपनी तकदीर आजमा रही है . इन दोनों के अलावा छोटा बेटा अबराम भी बतौर डबिंग आर्टिस्ट अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त कर चुका है. छोटे बेटे अब्राहम ने फिल्म मुफासा द लायन किंग के हिंदी वर्जन में युवा मुफ़ासा की आवाज की डबिंग की है . वही शाहरुख खान ने मुफांसा की और आर्यन खान ने सिंबा कैरेक्टर के लिए डबिंग की थी. जिस तरह शाहरुख खान और परिवार के लिए मुफ़सा द लायन किंग के लिए डबिंग करना एक खास प्रोजेक्ट था. ठीक उसी तरह अजय देवगन भी युग के कराटे किड लीजेंड्स में डबिंग करने को लेकर बेहद खुश है और गर्व महसूस कर रहे हैं. और खुद भी जैकी चेन के लिए अपनी आवाज में डबिंग करके नया रिकौर्ड बना रहे है.

ऋतिक रोशन एनटीआर के लिए War 2 के साथ ला रहे हैं धमाकेदार बर्थडे सरप्राइज

War 2  : शाहरुख सलमान से रणबीर कपूर ऋतिक रोशन तक बौलीवुड के ज्यादातर हीरोज साउथ इंडस्ट्री पर फिदा है. और अगर बात जूनियर एन टी आर की हो तो करीबन 300 फिल्मों में काम करके और हाल ही में राजामौली की फिल्म आरआर आर के गाने नाटू नाटू. गाने के लिए औस्कर अवार्ड जीत कर साउथ ही नहीं हिंदी फिल्मों के दर्शकों के बीच भी अपनी अलग जगह बना ली है . फिलहाल जूनियर एन टी आर  ऋतिक रोशन के साथ फिल्म वार 2 कर रहे है.

इस फिल्म की शूटिंग के दौरान ऋतिक और एन टी आर के बीच अच्छी खासी दोस्ती हो गई है जिसके चलते हाल ही में बौलीवुड सुपरस्टार ऋतिक रोशन ने सोशल मीडिया पर तहलका मचा दिया है. उन्होंने खुलासा किया है कि वह एनटीआर के जन्मदिन (20 मई 2025) के मौके पर ‘वॉर 2’ के जरिए एक धमाकेदार सरप्राइज देने वाले हैं.

ऋतिक ने अपने सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा है ,”हे एनटीआर, लगता है तुम्हें पता है 20 मई को क्या होने वाला है? यकीन मानो, तुम्हें बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं है कि क्या आने वाला है, तैयार हो?” इस पोस्ट ने इंटरनेट पर आग लगा दी! फैंस के बीच ‘वॉर 2’ से जुड़ी किसी बड़ी घोषणा की चर्चा शुरू हो गई है.

वॉर 2’ में ऋतिक रोशन फिर एक बार ‘कबीर’ के रूप में लौट रहे हैं और इस बार उनके साथ होंगे पैन इंडिया सुपरस्टार एनटीआर.इस हाई-ऑक्टेन फिल्म का निर्देशन कर रहे हैं अयान मुखर्जी, जिन्हें युवा और प्रतिभाशाली निर्देशक के रूप में जाना जाता है.

फिल्म 14 अगस्त 2025 को हिंदी, तेलुगु और तमिल भाषाओं में रिलीज होगी. वाईआरएफ स्पाई यूनिवर्स आज भारतीय सिनेमा की सबसे बड़ी और सफल फ्रेंचाइजी है, जिसमें अब तक सिर्फ ब्लॉकबस्टर फिल्में ही आई हैं .जैसे ‘एक था टाइगर’, ‘टाइगर ज़िंदा है’, ‘वॉर’, ‘पठान’ और ‘टाइगर 3’. ‘वॉर 2’ इस यूनिवर्स की छठी फिल्म होगी.

अब सभी का ध्यान इस बात पर है कि 20 मई को क्या होगा. तैयार हो जाइए, क्योंकि ऋतिक और एनटीआर का एक साथ आना निश्चित रूप से कुछ अद्भु ही होने वाला है . वार 2 में इन दोनों की जोड़ी क्या कमाल दिखाने वाली है ,ये तो फिल्म रिलीज के बाद ही पता चलेगा.

Women Rights : समान जिंदगी जीने का देता है हक

Women Rights : हर शहर में एक बदनाम औरत होती है. अकसर वह पढ़ीलिखी प्रगल्भ तथा अपेक्षाकृत खुली हुई होती है,’’ ये पंक्तियां हिंदी के प्रसिद्ध कवि विष्णु खरे की कविता से ली गई हैं. ये बहुत ही सटीक तरीके से पढ़ीलिखी महिलाओं के प्रति हमारे समाज की मानसिकता को बयां करती हैं. यह समाज महिलाओं को अपनी सुविधा के अनुसार कितनी ही बातें सिखाता है. उन्हें बताया जाता है कि किचन में रहोगी, अच्छाअच्छा खाना सब के लिए बनाओगी सब तुम से खुश रहेंगे, तुम्हारी इज्जत करेंगे. काफी महिलाएं इस तरह अपना सारा जीवन परिवार के लिए जी कर निकाल देती हैं.

आजकल थोड़ा, बदलाव यह हुआ है कि मनोरंजन के लिए वे इंस्टा पर रील्स देख लेती हैं, नईनई रैसिपीज के लिए यूट्यूब देख कर खुश हो जाती हैं. किताबें उन के हाथ से छूट चुकी हैं, पढ़नेलिखने का महत्त्व उन के लिए उतना नहीं रहा तो वे अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों को इग्नोर करने की कोशिश करती हैं और उन्हें अपने अधिकार पता ही नहीं हैं. सही तरह से पढ़नेलिखने के शौक, रुचि के बिना उन्हें अपने अधिकारों से कितनी चीजों से, वंचित रखा जाता है, यह उन्हें भी नहीं पता.

अधिकारों के प्रति सजग

यूनेस्को के अनुसार, लड़कियों में माध्यमिक शिक्षा को छोड़ने का बड़ा कारण उन की कम उम्र में शादी और उन का गर्भवती होना है. कम पढ़ालिखा होना उन की मैंटल हैल्थ पर भी बुरा असर डालता है. हमारे आसपास ऐसी कितनी लड़कियां हैं जिन की शादी उन के पेरैंट्स बहुत जल्दी करवा देते हैं. कारण पूछने पर जवाब मिलता है, जमाना बहुत खराब है. कुछ अनहोनी हो, उस से पहले यह काम हो जाए.
समाज में महिलाओं के खिलाफ जिस तरह अत्याचार बढ़ रहे हैं उन का इलाज पेरैंट्स को यही समझ आता है कि लड़की की शादी जल्दी कर के उस की आजादी को छीन कर अपनी जिम्मेदारी खत्म की जाए. उस से पूछा भी नहीं जाता कि तुम्हें आगे पढ़ कर अपने पैरों पर खड़े होना भी है या नहीं, जीवन जीने के लिए अपने अधिकार जानने भी हैं या नहीं.

रेनू मध्य प्रदेश के एक छोटे से कसबे से मुंबई आई थी. घरपरिवार में लड़कियों की शिक्षा का महत्त्व नहीं था तो वह अल्पशिक्षित ही थी. मुंबई आई तो देखा, घरों में काम करने वाली, साफसफाई, बरतन धोने वाली स्त्रियां भी अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं. वह एक अलग ही दुनिया देख रही थी. पढ़ने वाली लड़कियां, नौकरी करने वाली लड़कियां आत्मविश्वास के साथ सड़कों पर उत्साह से भागती दिखतीं.

उस ने गौर किया कि उसे दुनिया का पता ही नहीं है. पति से रिक्वैस्ट की. आगे पढ़ीलिखी, शिक्षा हासिल की. उस की हिंदी अच्छी थी ही, मुंबई में साउथ इंडियन बच्चों को हिंदी पढ़ने की परेशानी होती है. 1-1 कर के वह कई बच्चों को ट्यूशंस पढ़ाने लगी. अब उसे कितनी ही बातें समझ आई हैं, कितने ही अधिकारों की बातें वह आत्मविश्वास से करती है. परिवार भी उस पर गर्व करता है. अब वह अलग ही रेनू है.

महिलाओं के व्यक्तित्व के विकास में पढ़ाई, लिखाई बहुत महत्त्वपूर्ण है. महिलाओं के पढ़नेलिखने की बात है तो सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख को भी याद कर लेना चाहिए. ये दोनों हमारे देश की पहली महिलाओं में से एक थीं जिन्होंने लड़कियों को पढ़ाया और उन्हें प्रोत्साहित किया. इन्हें रोकने के लिए कितनी कोशिशें की गईं. अनेक तरह की दलीलें दी गईं. यह कहा जाने लगा कि यदि महिलाएं पढ़ने लगीं तो वे हर किसी को तरहतरह की चिट्ठियां लिखने लगेंगी. उन पर लोग गोबर और पत्थर फेंका करते थे.

अवधारणा को बदलें

यह बात 19वीं शताब्दी की है. थोड़ा आगे बढ़ कर देखें तो 2012 में 15 साल की मलाला नाम की एक लड़की के सिर पर गोली दाग दी जाती है क्योंकि उस ने पढ़लिख कर सवाल पढ़ने शुरू कर दिए, हकों की बात की. उस ने दूसरी लड़कियों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया. हालात बदले हैं, पर ज्यादा नहीं. कई पेरैंट्स लड़कियों को इसलिए पढ़ा रहे हैं कि उन की अच्छे घर में शादी हो जाए, वे सैट हो जाएं.

इस सैट होने की अवधारणा को बदल कर लड़कियां इसलिए पढ़ें कि वे आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो सकें, वे अपने हक के बारे में जागरूक रहें. वे सही और गलत का अंतर करना जानें. वे समझें कि कब उन्हें शादी करनी है, कब बच्चा पैदा करना है. पढ़ेंगी तो अपनी हैल्थ के बारे में जागरूक रहेंगी, एड्स जैसी बीमारियां उन्हें तकलीफ नहीं देंगी, वे उन से बच सकेंगी.

सैक्स के मुद्दे पर बात करना अपराध है, यह उन्हें बचपन में ही सिखा दिया जाता है. वे अपने अधिकारों के बारे में जान कर इस विषय पर खुल कर सोच सकेंगीं, बोल सकेंगी. जब महिलाएं पढ़तीलिखती हैं तो उन्हें यह पता चलता है कि उन के पास समानता का अधिकार है, उन्हें नौकरी में समान वेतन मिलना चाहिए और किसी भी प्रकार के भेदभाव के खिलाफ वे कानूनी रूप से अपना पक्ष रख सकती हैं.

इसी तरह महिलाओं को घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न जैसे मुद्दों पर जागरूकता मिलती है और वे इन से निबटने के लिए कदम उठा सकती हैं. अब बात सामान्य व्यक्ति की- चाहे स्त्री हो या पुरुष, पढ़नालिखना केवल कोई डिगरी लेने का माध्यम नहीं है बल्कि यह समाज में हमारे अधिकारों को समझने और उन्हें सही तरीके से प्राप्त करने की दिशा में भी सहायक है. पढ़नेलिखने से मतलब सिर्फ किताबों से नहीं है बल्कि यह हमें अपने अधिकारों और कर्तव्यों से परिचित कराता है. जब हम पढ़लिख रहे होते हैं तो हम न केवल अपने ज्ञान में वृद्धि कर रहे होते हैं बल्कि समाज में अपनी स्थिति और अधिकारों के प्रति भी जागरूक हो रहे होते हैं.

शिक्षा को बनाएं हथियार

पढ़नेलिखने से व्यक्ति को अपने अधिकारों के बारे में समझने का अवसर मिलता है जैसेकि संविधान में दिए गए अधिकारों, जैसेकि समानता का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि. इन का ज्ञान होने से व्यक्ति अपनी स्थिति को बेहतर तरीके से समझ सकता है और अपने अधिकारों की रक्षा कर सकता है. भारतीय संविधान में हर नागरिक को पढ़नेलिखने का अधिकार है (आरटीई- राइट टु ऐजुकेशन).

पढ़ने के माध्यम से व्यक्ति अपने कानूनी अधिकारों को जानता है. संविधान, न्यायपालिका और अन्य कानूनी तंत्र के बारे में जागरूकता होने से व्यक्ति को अपनी रक्षा करने और न्याय प्राप्त करने का अधिकार मिलता है. यदि कोई व्यक्ति अपने कानूनी अधिकारों के बारे में नहीं जानता तो वह उन का सही तरह से उपयोग नहीं कर सकता है.

पढ़लिख कर व्यक्ति को यह समझ आने लगता है कि समाज में उस के क्या अधिकार हैं. यह बात न केवल निजी आजादी के बारे में है बल्कि यह बात सामाजिक अधिकारों के बारे में भी है जैसेकि स्वास्थ्य सेवाएं, महिला अधिकार, बच्चों का अधिकार और अन्य सामाजिक न्याय के मुद्दे. जब व्यक्ति इन अधिकारों को जानता है तो वह अपने और दूसरों के अधिकारों की रक्षा कर सकता है.

पढ़लिख कर न केवल व्यक्तिगत विकास होता है बल्कि यह समाज को एक सशक्त नागरिक भी देता है. एक शिक्षित नागरिक अपने समाज और राष्ट्र के बारे में सोचता है और अपने कर्तव्यों को समझता है.
यदि एक बच्चा पढ़तालिखता है तो उसे यह समझ आता है कि बाल श्रम गलत है और उसे खेलने, पढ़ने और अपने बचपन का आनंद लेने का अधिकार है. इस के परिणामस्वरूप समाज में यह जागरूकता फैलती है और बाल श्रम के खिलाफ लड़ाई को मजबूती मिलती है.

पढ़लिख कर लड़कियां यह जान पाती हैं कि उन्हें बाल विवाह से बचने का अधिकार है. यदि एक लड़की पढ़तीलिखती है तो उसे यह समझ आ जाता है कि उस की शादी के लिए उस की उम्र, उस की सहमति और उस की भलाई को महत्त्व दिया जाना चाहिए. यह अधिकार उसे अपने जीवन के फैसले लेने का आत्मविश्वास देता है.

शादी में म्यूजिकल फेरे का ट्रैंड

Musical Rounds : आजकल शादियों में बहुत कुछ नया और अनोखा देखने को मिल रहा है. चाहे वह थीम वैडिंग हो, डैस्टिनेशन वैन्यू हो या फिर खास ऐंट्री स्टाइल, हरकोई चाहता है कि उस की शादी सब से अलग और यादगार हो और हो भी क्यों न शादी हर किसी के जीवन का सब से खास और यादगार दिन होता है. हर कपल चाहता है कि उन की शादी कुछ हट कर और अनोखी हो, जिसे लोग लंबे समय तक याद रखें. आजकल ऐसी ही एक नई और खूबसूरत परंपरा तेजी से लोकप्रिय हो रही है और वह है म्यूजिकल फेरे.

क्या हैं म्यूजिकल फेरे

पारंपरिक फेरों में जहां पंडित मंत्रोच्चार करते हैं और दूल्हादुलहन 7 फेरे लेते हैं, वहीं म्यूजिकल फेरों में हर फेरे के साथ भावनात्मक और सुंदर संगीत जुड़ जाता है. इन फेरों में हर फेरे के अर्थ को म्यूजिक और वौइसओवर के जरीए सम?ाया जाता है और बैकग्राउंड में चल रहा सौफ्ट इंस्ट्रुमैंटल म्यूजिक माहौल को बेहद भावुक और दिल छू लेने वाला बना देता है.

क्यों हैं ये ट्रैंड में

इमोशनल कनैक्शन: म्यूजिकल फेरे दूल्हादुलहन और परिवार के सदस्यों को भावनात्मक रूप से उस पल से जोड़ देते हैं. हर वचन को जब खूबसूरत शब्दों और संगीत के साथ पेश किया जाता है तो वह क्षण हमेशा के लिए यादगार बन जाता है.

सोशल मीडिया फ्रैंडली: आज की जैनरेशन हर पल को कैमरे में कैद करना चाहती है. म्यूजिकल फेरों का वीडियो बेहद सिनेमैटिक और भावुक होता है, जिसे सोशल मीडिया पर शेयर करना लोगों को खास पसंद आता है.

पारंपरिकता में आधुनिकता: यह ट्रैंड परंपरा को तोड़ता नहीं बल्कि उसे एक नया रूप देता है. जहां रीतिरिवाज और आधुनिक प्रेजैंटेशन का सुंदर मेल होता है.

कैसे करें प्लानिंग

एक अच्छे वौइस आर्टिस्ट और साउंड डिजाइनर से संपर्क करें.

फेरे वाले मंडप में साउंड सिस्टम अच्छा होना चाहिए ताकि सभी को स्पष्ट रूप से सबकुछ सुनाई दे.

दूल्हादुलहन के लिए उस समय का अनुभव और भी खास बनाने के लिए हलका और भावनात्मक संगीत चुनें.

चाहें तो बीचबीच में दूल्हादुलहन की खुद की रिकौर्ड की गई कुछ लाइनें भी जोड़ी जा सकती हैं.

Travel Tips : ये गोल्डन टिप्स आपके ट्रिप को बनाएंगे मजेदार

Travel Tips : रितिक अपने परिवार के साथ साल में 2-3 बार ट्रिप पर जाता है. दिल खोल कर खर्च करता है, फिर भी न तो बच्चे खुश होते हैं और न ही वाइफ. सब की अपनीअपनी शिकायतें होती हैं. किसी को होटल पसंद नहीं आता तो किसी को खाना. किसी को डैस्टिनेशन का चुनाव गलत लगता.

रितिक की प्रौबल्म यह है कि वह खुद कुछ भी प्लान नहीं करता. जैसे ही घूमने का डिसीजन हुआ, अपने ट्रैवल एजेंट को फोन मिलाता पूछता कि कहां जाएं. एजेंट उस के बजट के हिसाब से 2-4 डैस्टिनेशन बताता. रितिक बच्चों और वाइफ से कहता है कि उन में से कोई एक चुन लें.

बहुत सारे किंतुपरंतु के साथ एक डैस्टिनेशन फाइनल होती है. एजेंट सब बुक कर देता है. न रितिक को, न बच्चों को और न ही वाइफ को पता होता है कि वहां उन्हें कैसा होटल मिलेगा, कैसा ब्रेकफास्ट मिलेगा और वे क्याक्या उम्मीद कर सकते हैं.

नतीजा यह होता है कि वहां जा कर उन्हें कई सरप्राइज मिलते हैं. जाहिर है वे नैगेटिव ही होते हैं, जिस वजह से सब निराश हो जाते हैं.

प्लानिंग करना है जरूरी

कहीं भी घूमने जाने से पहले पूरी प्लानिंग नहीं करेंगे तो रितिक की तरह परेशान रहेंगे. डैस्टिनेशन आप की पसंद की होनी चाहिए न कि जो एजेंट बताए. बहुत बार एजेंट अपने हिसाब से चीजें थोपने लगते हैं. उन की बातों में न आएं. एक बजट तय करें. उस के बाद परिवार के साथ मिल कर पूरी रिसर्च करें. डैस्टिनेशन के लिए सब की सहमति होनी जरूरी है. पूरी प्लानिंग में बच्चों को जरूर शामिल करें ताकि बाद में वे शिकायत न कर पाएं. वैसे भी आजकल के बच्चे टेक सैवी हैं तो उन्हें ऐसा करने में मजा भी आएगा.

वहां कैसे जाना है, होटल सस्ता पड़ेगा या गैस्टहाउस अथवा एअर बीएनबी, अच्छे से पता कर लें. गूगल पर सब मिल जाता है. वहां के यूट्यूब वीडियो देख सकते हैं. ट्रेन, बस या फ्लाइट के टिकट बुक कराने के बाद तुरंत होटल बुक करने का प्रोसीजर शुरू कर दें. सब के रेट और सुविधाओं को मैच करें. जो सब से अच्छा लगे उसी को बुक करें. वैसे शहर के सैंटर में रहना ज्यादा अच्छा रहता है क्योंकि वहां से घूमने की जगहें ज्यादा दूर नहीं होतीं, साथ ही ट्रांसपोर्ट की सुविधा भी अच्छी होती है.

उस के बाद होटल के आसपास के रैस्टोरैंट देख लें, जहां पर आप डिनर करेंगे क्योंकि लंच तो वहीं होगा, जहां घूमने जाएंगे. एक बात और होटल में नाश्ता नहीं मिलेगा तो पहले ही पता करें कि नाश्ता कहां करेंगे. होटल के आसपास कोई जगह देख सकते हैं. उन से फोन कर के पूछ लें कि नाश्ता कितने बजे मिल जाएगा. आप को घूमने के लिए भी निकलना होगा. दूर की जगहों पर घूमने के लिए जल्दी निकलना होता है. इसलिए 7-8 बजे नाश्ता मिल जाना चाहिए. नाश्ते में क्याक्या मिलेगा, यह भी पता कर लें.

जहांजहां घूमने जाएंगे, वहां खाने के क्या औप्शन मिलेंगे, यह भी नोट कर लें. वैजिटेरियन हैं तो देख लें कि वहां आप के मतलब का कुछ मिलेगा भी कि नहीं खासकर विदेश जाते समय क्योंकि वहां वैजिटेरियंस को अकसर दिक्कत होती है. बेहतर है कि लोकल स्टोर से कुछ फ्रूट्स खरीद कर ले जाएं या घर से बिस्कुट, मठरी, लड्डू बना कर ले जा सकते हैं.

जो लोग नौनवैजिटेरियन हैं, विदेशों का नौनवेज उन की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता क्योंकि वहां अलग तरह का नौनवेज बनता है. इसलिए यह सोच कर खुश न हों कि हम तो नौनवैजिटेरियन हैं, कुछ भी खा लेंगे. आप को ढूंढना पड़ेगा कि कहां आप की चौइस का नौनवेज मिलेगा.

कब, कहां, क्या पहनना है

जहां जा रहे हैं, वहां के मुताबिक कपड़े चुनें. वहां का टैंपरेचर चैक कर लें कि आप की डेट्स पर वहां कैसा मौसम होगा. सफर लंबा हो या छोटा, जरूरी कपड़े ही रखें. वहां फैशन शो में तो जा नहीं रहे जो थोड़ीथोड़ी देर बाद कपड़े बदलेंगे. एक हफ्ते के सफर में 2 डैनिम के साथ आराम से घूम सकते हैं. टौप रोजाना बदला जा सकता है.

नितिका अपने हनीमून पर बाली गई तो उस ने ढेर सारे कपड़े रख लिए. वहां जा कर उसे बैक पेन शुरू हो गया. लिहाजा, सारे बैग उस के हस्बैंड को संभालने पड़े. रास्ते में ही दोनों की तकरार हो गई.

बेहतर है कि मिक्स और मैच कर के कपड़े रख लें.

कृतिका ने मनाली जाते समय यही किया. कभी शाल को स्वैटर की तरह पहन लिया, कभी शाल की तरह ओढ़ लिया. लेयर्स में कपड़े पहन लिए. इस से सामान ज्यादा नहीं हुआ और बिना टैंशन के मजेदार सफर गुजरा.

जूते, चप्पल पर भी ध्यान दें. हील की जगह आरामदायक जूते, जूतियां पहनें. स्पोर्ट्स शूज बेहतर रहते हैं. अच्छी कंपनी के स्पोर्ट्स शूज पहनेंगे तो पैरों में दर्द नहीं होगा.

नो मेकअप लुक

किसीकिसी जगह के लिए सुबह जल्दी निकलना होता है. ऐसे में मेकअप के लिए कम टाइम होता है. अगर शेयरिंग राइड से जा रहे हैं तो और भी जल्दी जाना पड़ता है क्योंकि बस, वैन या गाड़ी को कई होटलों से सब को इकट्ठा करना होता है. ढेर सारा मेकअप लगाना जरूरी नहीं है. हां, अगर आप को वीडियो बनाने हैं, वलौग बनाने हैं तो अलग बात है लेकिन उस में भी कभीकभार नैचुरल लुक अच्छा रहेगा.

खानेपीने का रखना होगा खयाल

लोकल क्चिजीन ट्राई करने से पहले अपने पेट की हालत का जायजा लें. आप को किस चीज से ऐलर्जी है, उस का भी खयाल कर लें वरना लेने के देने पड़ सकते हैं. बिना सोचेसम?ो लोकल चीजें ट्राई करने की गलती न करें. विदेश में तो ऐसा बिलकुल न करें. वहां इंडियन रैस्टोरैंट में भी जरूरी नहीं कि इंडियन शैफ ही हों. वहां जा कर आप निराश हो सकते हैं क्योंकि हो सकता है कि खाने में आप को वह स्वाद न मिले, जिस की तलाश में आप वहां पहुंचते हैं. रिसर्च कर के जाएंगे तो मुश्किल नहीं होगी.

यूट्यूब पर रैस्टोरैंट के वीडियो देखें. नौर्थ इंडियन खाने में रोटी, नान और दाल को करीब से देखें. वे सही हैं तो मतलब खाना इंडियन शैफ ने बनाया है.

होटल या गैस्टहाउस में ब्रेकफास्ट मिलेगा तो उसे भी देख लें. अपने देश में कोई खास दिक्कत नहीं होगी लेकिन विदेश जा रहे हैं तो होटल वालों को फोन या ईमेल कर के पूछ लें कि ब्रेकफास्ट में इंडियन औप्शन होंगे या नहीं.अगर नहीं हैं तो पहले से जान लें कि वहां आप को ब्रैड, फ्रूट्स, ड्राई फ्रूट्स, जूस, पेस्ट्री आदि पर ही गुजारा करना होगा. हां, अगर अंडा खाते हैं तो आप का काम बन जाएगा. एग स्टेशन पर जा कर अपनी पसंद का आमलेट बनवा सकते हैं.

वेज या नौनवेज भी पूछ लें. ज्यादातर देशों में वेज खाने को ‘नो मीट’ कहते हैं क्योंकि अंडा भी उन के लिए वेज होता है. तो आप कह सकते हैं कि आप को ‘नो मीट’ ऐंड ‘नो एग’ औप्शन चाहिए.

वहां से कोई चिप्स वगैरह खरीदें तो सावधान रहें क्योंकि चिप्स में भी नौनवेज होता है. ज्यादातर देशों में प्रोडक्ट की डिटेल इंग्लिश में न हो कर लोकल भाषा में होती है जिसे शायद आप पढ़ नहीं पाएंगे. जरूरी नहीं है कि नौनवेज वाले चिप्स पर लाल निशान दिया ही हो, जिस से आप सम?ा जाएं कि वह नौनवेज है. आप लोकल फू्रट्स ले सकते हैं. इस से आप के शरीर को पोषण भी मिलेगा. बेहतर है कि ऐसी चीजें इंडिया से ही ले कर जाएं.

सजग रहें

मीरा अपने परिवार के साथ मारीशस गई तो जिस दिन लौटना था, वहां तूफान आ गया. सभी फ्लाइट्स बंद हो गईं. वे होटल से चैक आउट कर चुके थे. पता किया तो होटल के सारे कमरे बुक थे. आननफानन में एक अपार्टमैंट बुक कराया. लेकिन खाने के लिए पास में कुछ नहीं था. पूरा मारीशस बंद हो चुका था. अपार्टमैंट की मालकिन के पास भी कुछ खास औप्शन नहीं थे. इसलिए उन्हें भूखे रहना पड़ा. वह ट्रिप उन के लिए एक बुरी याद बन कर रह गया. उस ने अपने साथ कुछ रखा होता, तो इस स्थिति से बच सकती थी.

शीना और वीरेन ने इस के बिलकुल उलट किया. अपने बच्चों के साथ सिंगापुर गए तो ढेर सारा खाने का सामान पैक कर लिया. रैडी टू ईट फूड की इतनी सारी वैरायटीज रख लीं लेकिन वहां कुछ नहीं खा पाए क्योंकि सिंगापुर में, ‘लिटल इंडिया’ नाम की जगह है, जहां हर तरह का इंडियन खाना बड़े आराम से और बजट में मिल जाता है. उन्हें चाहिए था कि बस थोड़ी सी चीजें इमरजैंसी के लिए रख लेते.

शौपिंग करना क्यों जरूरी

नीलेश और रिद्धिमा हनीमून पर घूमने दुबई गए. वहां से आते हुए उन के पास 5 सूटकेस थे. उन में से 3 तो शौपिंग के सामान से भरे थे. इस से उन का बजट कई गुणा बढ़ गया. एअरपोर्ट पर सामान के पैसे देने पड़े, सो अलग.

अकसर लोग अपने सगेसंबंधियों, दोस्तों के लिए खूब सारी शौपिंग कर के लाते हैं. इस से बजट तो बिगड़ता ही है, साथ ही सामान उठाने का झंझट अलग से. इस का नुकसान यह होता है कि वे कम बार घूमने जा पाते हैं क्योंकि बजट बहुत ज्यादा हो जाता है. एक बार किसी के लिए कुछ ले आए तो हर बार लाना पड़ता है.

अंजना और सागर हनीमून पर श्रीनगर गए तो उन्होंने अपनेअपने पेरैंट्स के लिए शाल और स्वैटर लिए. इस से उन के बजट पर भी असर नहीं पड़ा और उन्हें ज्यादा सामान भी नहीं उठाना पड़ा.

खुद के लिए भी शौपिंग करनी हो तो बहुत सोचसम?ा कर करें. रेट वगैरह चैक कर लें. घूमने आए हैं तो शौपिंग करना जरूरी है, यह किसी किताब में नहीं लिखा है. लिमिट में शौपिंग करेंगे या नहीं करेंगे तो घूमने का ज्यादा मजा ले पाएंगे.

मसाज कराना रहेगा फायदेमंद

आप कहीं भी घूमने जाते हैं तो पैरों में दर्द होना स्वाभाविक है. बड़ों के ही नहीं, बच्चों के पैरों में भी दर्द होता है. हर जगह आप को फुट मसाज वाले मिल जाएंगे, चाहे आप अपने देश में हों या कहीं विदेश में.

रात को होटल लौटते समय रास्ते में ही डिनर वगैरह निबटा कर मसाज जरूर करवाएं. इस से आप को नींद अच्छी आएगी और अगले दिन घूमने में परेशानी नहीं होगी.

मगर मसाज कराने से पहले मसाज करने वाले को अपनी फिजीकल कंडीशन बता दें. अगर कहीं दर्द है या डाक्टर ने कोई खास इंस्ट्रक्शन दी है तो जरूर बताएं वरना आप को फायदे की जगह नुकसान हो सकता है.

ये गोल्डन टिप्स आप के ट्रिप को मजेदार बना देंगे

घूमने की सभी जगहों की लिस्ट की 3 कौपीज साथ रखें. एक कौपी अपने हैंडबैग में, दूसरी कौपी सूटकेस में रखें क्योंकि अगर एक कौपी खो भी जाए तो दूसरी काम आ जाएगी. दूसरी के बाद तीसरी यूज कर सकते हैं. उस की 2-3 सौफ्ट कौपी भी अपने फोन, लैपटौप, ईमेल में जरूर रखें ताकि जरूरत पड़ने पर आप उसे यूज कर पाएं.

बस, ट्रेन, फ्लाइट के टिकट एडवांस में बुक कराने पर कुछ डिस्काउंट मिल सकता है या कहें कि सस्ते टिकट मिल सकते हैं.

टिकट पर अपना नाम जरूर चैक कर लें खासकर फ्लाइट टिकट में. एक भी स्पैलिंग की गलती होगी तो आप नहीं जा पाएंगे.

अपने टिकट की भी 2-3 कौपी करवा लें. एक कौपी घर वालों को जरूर दे कर जाएं ताकि उन्हें पता हो कि आप कौन सी बस, ट्रेन या फ्लाइट से जा रहे हैं. टिकट की भी सौफ्ट कौपी अपने मोबाइल, व्हाट्सऐप, ईमेल में जरूर रखें.

औनलाइन होटल की बुकिंग करने के बाद तुरंत होटल वालों से फोन पर बात कर लें. उन से ईमेल पर भी कन्फर्मेशन मंगवा लें. ऐसा न हो कि वहां जा कर आप को सरप्राइज मिल जाए. होटल वाले कहें कि आप की बुकिंग है ही नहीं. कोई भी कारण हो सकता है. इंटरनैट की कोई गलती हो सकती है. किसी व्यक्ति की गलती हो सकती है. अगर एजेंट ने होटल बुक किया है तो भी यह जरूरी है.

होटल चैक इन का टाइम अकसर दोपहर

बाद ही होता है. अगर आप डैस्टिनेशन पर जल्दी पहुंचने वाले हैं तो होटल वालों से बात कर लें, शायद वे आप को जल्दी चैक इन दे दें. अगर उन के पास रूम होता है तो वे दोपहर से पहले भी चैकइन दे देते हैं. लेकिन आप को पहले उन्हें इन्फार्म करना होगा कि आप किस समय पहुंचने वाले हैं. फोन पर बात हो तो ईमेल पर भी कन्फर्मेशन जरूर मंगवा लें क्योंकि हो सकता है कि जिस से आप की

बात हुई है वह नोट करना भूल जाए और जब आप पहुंचे उस समय डैस्क पर न हो, आप के पास ईमेल होगा तो आप दूसरे व्यक्ति को दिखा पाएंगे.

यह भी देख लें कि बसस्टौप, रेलवे स्टेशन या एअरपोर्ट से होटल या गैस्टहाउस तक कैसे पहुंचना है. कुछ होटल अपनी शटल सेवा चलाते हैं. मतलब वे अपने गैस्ट को लेने के लिए अपनी वैन या गाड़ी, एअरपोर्ट भेजते हैं. अगर आप का होटल शटल देता है तो उस की टाइमिंग जरूर पूछ लें. यह भी पूछ लें कि कौन सी गाड़ी आप को लेने आएगी. कभीकभी पता नहीं होता और शटल पास से हो कर निकल जाती है. उस के बाद वाली शटल आधा घंटा या इस से भी बाद में आती है. गाड़ी का फोटो मंगवा लें तो बेहतर है. इस से आप को उसे पहचानने में परेशानी नहीं होगी.

लगेज जितना कम होगा, आप घूमने का उतना ही ज्यादा मजा ले पाएंगे. फ्लाइट से जा रहे हैं तो एअरपोर्ट पर आप को आसानी होगी. डैस्टिनेशन पर पहुंचेंगे तो वहां बैल्ट पर सामान लेने में मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी. सूटकेस ज्यादा होते हैं तो वे बैल्ट पर अकसर एकसाथ नहीं आते. सामान लेने में ही आप को घंटों लग सकते हैं. बस या ट्रेन पर भी सामान चढ़ानेउतारने में आप को परेशानी होगी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें