तड़के चारों तरफ की हलचल ने मेरी आंख खोल दी. साढे 5 बजे थे, पर लग रहा था जैसे पूरा गांव काम पर लग गया था. गाय भैंसों के तबेले में काफ़ी काम चल रहा था. महिलाएं भी चूल्हेचौके की तैयारी में थीं. कहीं हैंडपंप चल रहा था तो कहीं कुओं से पानी खींचा जा रहा था. कोई कपड़े धो रहा था तो कोई मिट्टी से पीतल के बरतन रगड़ रहा था. गांव जाग चुका था.
मैं भी लोटा ले कर खेत हो आया. आदत नहीं थी आड़ देख कर खुले में बैठने की. अपने घर, कसबे और गांव का अंतर मुझे दिखने लगा और पहली बार मुझे लगा कि इस वातावरण में खुद को ढालने के लिए खासी मेहनत ही नहीं, बहुत सारा त्याग भी करना पड़ेगा. उस पुस्तक वाले चित्रकार के चित्र में लोटा, आड़ थोड़ी न दिखाया गया था.
कुंए पर पहली बार पानी ख़ुद खींच कर स्नान कर के कपड़े पहन कर रेडी होते ही चाय की तलब ने अपना काम करना शुरू कर दिया था. जीभ चाय का जुगाड़ ढूंढने लगी थी. पर गांव में कोई होटल नहीं था. इधरउधर देखा, बेचैनी बढ़ती जा रही थी.
तभी वही कल वाले बुजुर्ग आते दिखाई दिए और अभिवादन कर आत्मीयता से निकट आ बैठे, “’और सुनाओ माटसाब, कैसी रही रात, कौनो दिक्कत?” के साथ ही उन्होंने किसी राधे को आवाज़ दी जो कुंए पर कपड़े पटक रहा था. राधे कपड़े वैसे ही छोड़ कर पास आ गया.
बुजुर्ग उस से बोले, “जल्दी से नहा लेयो और दिनभर माटसाब के साथ रहो काहे से कि आज इन का पहला दिन है. अब जे गांव में रहेंगे, यहीं. कौनो दिक्कत न होय के चाही समझे, जाओ चाय ले आओ पहले.” राधे तुरंत बोला, “आप बैठा, हम गुड़ की चाय बनाये लात.”
बुजुर्ग ने मेरा चार्ज जवान राधे को सौंप दिया था. बुजुर्ग कुछ देर उसे अलग ले जा कर समझाते रहे और मुझ से विदा लेते हुए बोले. “हम इसे सहेज दिए हैं आप को. जो चाहिए, इसे बता दीजिए. अपना आदमी है.” मैं ने झुक कर बुजुर्ग का आभार माना. वे हंसते हुए खेतों की तरफ़ चले गए.
मुझे कुछ रिलैक्स फील हुआ कि चलो, मैं अकेला नही हूं और लोग जुड़ते जा रहे हैं. राधे कुछ ही देर में आ गया और हम दोनों खेतों की तरफ़ निकल पड़े. अभी 8 ही बजे थे. स्कूल तो 10 बजे खुलना था.
ज़ाहिर था कि ये खेत बुजुर्ग के ही थे. राधे सब बताता चल रहा था- कौन तिकड़मी है, कौन सज्जन, कौन नेता है और कौन सरपंच. प्रधानजी, पटवारीजी, पेशकारजी, पुलिस चौकी के मुंशी जी, दारोगा जी, वक़ील साहब, फौजदारी-दीवानी तहसील, ब्लौक दफ़्तर, नहर दफ़्तर, बिजली औफिस, मंडी, आढ़त और पता नहीं क्याक्या…राधे की बातें चलती ही जा रही थीं.
गांव का वह बाल पुस्तक चित्र अब स्वच्छता छोड़ छींटदार होता जा रहा था और अचानक चित्र के रंग मुझे उतने चटक नहीं लग रहे थे. अब मुझे यह भी लगा कि गांव शब्द चित्र को शहरी बच्चों के मन में अतिशुद्ध रूप में ही दिखाया गया था.
हम दोनों बात करते हुए एक खाद की दुकान के सामने आ खड़े हुए, जिस के बाहर एक टप्पर में चाय बनती दिखाई दी. चाय में शक्कर डलते देख मेरी जान में जान आई क्योंकि सवेरे वाली गुड़ की चाय से मेरा मूड और मुंह कसैले हो गए थे. सुनी तो थी पर गुड़ की चाय आज पी पहली बार. पर 2 कुल्हड़ शक्कर वाली चाय पीने से लगा जैसे जीभ पर चीनी चिपक गई हो. कुल्ला कर के जब हैंडपंप का खारा पानी पिया तब जा कर राहत महसूस हुई.
अचानक खाद की दुकान का शटर उठने की घड़घड़ाहट ने मेरा ध्यान खींचा. एक सज्जन दुकान खोल कर अंदर जाने की तैयारी कर रहे थे. उन्हें देखते ही लगा कि इन्हें अभीअभी कहीं देखा है. राधे ने ‘प्रसाद बाबू’ आवाज़ दे कर उन्हें बुलाया. प्रसाद बाबू ने राधे के साथ मुझ अजनबी को देख हम दोनों को दुकान में आने का इशारा किया.
“आप तो कल ही बस से उतरे थे न तिगाला पर?” ओहहो, तो मेरे आने की ख़बर फैल चुकी थी. गांव का सूचनातंत्र इतना चुस्त होता है, आज आंखों से देख लिया. बातचीत में अनोखी बातें पता चलीं. ये सज्जन मेरे स्कूल में ही सहायक शिक्षक थे. बगल के गांव में रहते थे. ख़ुशी हुई अपने एक सहकर्मी से मिल कर, पर इस वक़्त तो उन्हें स्कूल के लिए तैयार होना था, हालांकि, वे खाद भंडार खोल रहे थे…
दुसरी खबर जो उन्होंने दी, उस ने मुझे चौंका दिया. मेरे कल सवेरे बस से उतरने की ख़बर उन्हें कल दोपहर को मिली थी सुधा बहनजी से. ये बहनजी के गांव के ही थे जो आधे कोस पर था. सुधा बहनजी को खबर लग चुकी होगी, कल ही मुझे बताया गया था, यह बात सही निकली. कौन हैं ये सुधा बहनजी? मैं उत्सुक हो चला.
“आप नाश्ता कर लीजिए, मिलते हैं स्कूल में,” बोल कर वे दुकान की गद्दी सहेजने लगे और मैं व राधे सड़क पर निकल गां की तरफ चल पड़े. मुझे यह समझते देर न लगी कि स्कूल की नौकरी यहां साइड बिजनैस था. स्कूल की नौकरी पर गए, नहीं गए, सब चलता है. घर की दुकान छोड़ कर कोई नौकरी करता है क्या?
राधे मुझे स्कूल में छोड़ कर चला गया और मैं स्कूल का चक्कर मार कर एक क्लासरूम में आ गया. ज़मीन पर बिछी बेतरतीब दरियों को झटक कर उन पर जमीं धूल उड़ाई और आलों में रखी अगड़मबगड़म चीजों की साफसफाई में जुट गया. दीवारों पर मकड़ी के जाले लगे पड़े लटक रहे थे और पूरे फर्श पर किताबकौपियों के पन्ने, टूटी पैंसिल, चाक, और बकरी व कुत्ते की लीद भी बिखरी पड़ी थी. गंदगी देख कर मुझे जनून सा चढ़ गया कि क्लासरूम को आज साफ कर के ही रहूंगा. मेरे स्कूल में आने का असर कम से कम यह ख़ाली कक्षा ही देख ले.
“नमस्ते जी, मैं सुधा.” मेरे पीछे एक महिला की आवाज़ सुनाई दी और मैं मुड़ कर देखने लगा. औसत ऊंचाई और मध्यम कदकाठी की महिला दरवाज़े पर हाथ जोड़े खड़ी थी. मेरे हाथ में झाड़ू देख वह मुसकरा उठी और मैं थोड़ा झेंप कर उस के सामने आ कर खड़ा हो गया. अभिवादन के बाद परिचय हुआ और अचानक मुझे ध्यान आया कि महिला तो वही थी जो कल बस से उतरते ही दिखी थी और मेरे बारे में किसी को कुछ बता रही थी.
वह भी मुझ से यही बोली कि कल देखते ही वह समझ गई थी कि यह परदेसी व्यक्ति गांव के स्कूल का नया टीचर ही होना चाहिए. हम दोनों के बीच वातावरण सहज हो चला था. उस ने मेरी पूरी जानकारी ली और अपना बताना शुरू किया.
वह पड़ोस के गांव में ही रहती थी और ख़ुद से ही गांव की महिलाओं की भलाई के लिए कुछ अच्छा करने के विचार से उन्हें संगठित करने का प्रयास कर रही थी.
गरीब और अनपढ़ महिलाओं के समूह बनाने का कार्य उस ने लगभग 2 वर्ष पूर्व शुरू किया था. धीरे-धीरे गांव की महिलाओं का आनाजाना शुरू हुआ और समूह एक मनोरंजन व मिलनेजुलने का केंद्र बन चला जहां चूल्हेचौके, सिलाईबुनाई की बातों के अलावा नियमित अति लघु बचत की बात भी सुधा जी क़रतीं.
हर महीने एक बैठक होती, जिस में हर महिला 5 या 10 रुपए एक टिन के डब्बे वाली गुल्लक में डालती और सुधा जी एक कौपी में सब का हिसाबखाता लिखती जातीं. गुल्लक में अब तक दोएक हज़ार रुपए जमा हो चुके थे जिसे महिलाओं को अतिलघु ऋण राशि यानी सौपचास रुपए के रूप में दिया जा रहा था जिस से वे कभी डलिया, बरतन खरीदतीं तो कभी झोपड़ी ठीक करवातीं.
सुधा जी का यह महिला समूह, लघुतम बैंक, आसपास काफ़ी लोकप्रिय हो चला था. उन के पति आयुर्वेद के डाक्टर थे. घर में ही दवाखाना था. सस्ती व कारगर दवाइयां देने की वजह से उन का भी इलाके में नाम था. घर की खेतीबाड़ी थी, सो, कोई आर्थिक दिक्कत नहीं थी.
उन के दोनों बच्चों के नाम मेरे ही स्कूल में लिखे थे. पर पढ़ाईलिखाई ख़ास न होने से सुधा जी दुखी थीं. मुझे समझते देर न लगी कि एक मां अपने बच्चों की शिक्षा की आशा लिए भी मेरे पास आई थी. उन्होंने बताया कि उन के 2 वर्षों के ज़मीनी कार्य के अब अच्छे सकारात्मक परिणाम मिलने लगे थे और अब उन के लिए 2 मुख्य कार्य करने ज़रूरी थे. पहला कार्य, महिला समूह शक्ति के द्वारा गांव में लगी महुआ शराब की भट्टियों को हटाना और दूसरा, गांव के बच्चों को नियमित स्कूल भेजना ही नहीं बल्कि उन्हें वहां तीनचार घंटे बैठाना ताकि वे क़ायदे से पढ़ने की आदत डाल सकें.
ध्यान से देखने पर पता चल ही गया था कि दोनों बातों का आपस में गहरा संबंध था. सुधा जी के साथ हुई लंबी वार्त्ता ने मेरे अंदर उत्साह का संचार किया. मैं समझ गया कि अब आने वाले समय में हम दोनों को मिल कर कार्य करना होगा ताकि इस विद्यालय की शक्ल-सूरत ही नहीं, बल्कि सीरत भी बदल सके.
महुए की भट्टियां सिर्फ नशा ही नहीं बेच रही थीं बल्कि घरगांव में लड़ाईझगड़े, मारपीट, रोनाधोना मचाए रहने का भी कारण थीं. मजदूरीमेहनत का एक बड़ा हिस्सा निहोरे की जेब में जा रहा था जिस की वजह से गांव के बच्चों पर विपरीत असर पड़ रहा था.
सच तो यह भी था कि कुछ बच्चे भी महुए का नशा करने लगे थे. यह सब तुरंत रोकने की ज़रूरत सभी को लग रही थी पर बिल्ली के गले में घंटा बांधे कौन वाली बात थी. गांव मे फैली महुए की नशीली खुशबू को खत्म करने के लिए स्थानीय महिलाओं का लामबंद होना ज़रूरी था और यह कार्य सुधा जी ने बख़ूबी अपने हाथों में ले लिया था.
कसर थी तो बस विद्यालय से मदद मिलने की जो उन्हें अब तक मिल नहीं पाई थी क्योंकि यहां के वातावरण में भी स्थानीय महुआ घुलमिल चुका था. मेरा परदेसी होना सुधा जी को और उन का स्थानीय होना मुझे, इस मिशन के लिए वरदान ही लगा. महुए की क्यारी को हटा कर ज्ञान के केसर की पौध लगाने के लिए उचित मौसम की ज़रूरत थी जो अब बदलने वाला था.
समय बीत चला और मैं गांव के रहनसहन में ढल चला था. धीरेधीरे मेरी संगत बढ़ने लगी और मेरे दोनों सहकर्मी भी हमारे साथ जुड़ गए. सरकारी बजट का धन सही दिशा में लगने लगा. स्कूल के प्रांगण अब गुलज़ार हो चले थे और बच्चों की आमद में भारी इज़ाफ़ा हुआ. स्कूल में घंटा भी लग गया और तिपायी पर बड़ा सा मटका भी आ टिका और स्कूल का नाम भी नए पेंट से रंग दिया गया.
कुछ ही महीनों बाद स्कूल के मैदान में झूले भी लग गए. बचपन के उस कलाकार ने गांव के स्कूल का जो चित्र मनमस्तिष्क में चिपका दिया था, अब आंखों के सामने साकार हो चला था. सुधा जी की जीवटता के कारण स्थानीय प्रशासन भी साथ आया और महुए की भट्टियां जमींदोज हो गईं.
सुधा जी के कानों में मैं ने एक मंत्र और फूंक दिया, मुफ़्त प्रौढ़ शिक्षा का, जिसे सुनते ही उन्होंने महिला समूहों को इस का आधार बनाने की बात कर के मेरे मन की बात कर दी.
बच्चे हों या बड़ेबुजुर्ग, सभी को जातिधर्म, अगड़ेपिछड़े की दुर्गंध वाली महुए की भट्टी से निकाल कर शिक्षा व ज्ञान की ताज़ी हवा में लाने की इच्छा अब हक़ीक़त बनती नज़र आने लगी थी. नन्हें बच्चों की फ़ितरत तो केसर के फ़ूलों की तरह खिलने और सुगंधित होने की थी, महुए के फूल की शराब बन गंधाने की नहीं.