लेखिका- प्रतिभा सक्सेना
यह परिवर्तन बाबूजी के लिए सुखद था. अब तक सुमि कहां थी? अब उन का मन लगने लगा. धीरेधीरे उन में जीने की इच्छा जागने लगी. गों गों का स्वर धीरेधीरे अस्फुट शब्दों में परिवर्तित होने लगा. उंगलियों में हरकत होने लगी. सभी तो खुश लग रहे थे इस सुधार से.
सुमि के वापस जाने का समय नजदीक आ रहा था. एक दिन जब सुमि और बच्चे बाबूजी के पास बैठे थे कि मुकुल व मुकेश अपनीअपनी पत्नियों के साथ आ गए. बच्चों को बाहर भेज दिया गया. बाबूजी का दिल बैठने लगा. ऐसी क्या बात है जो बच्चों के सामने नहीं हो सकती?
बड़े बेटे मुकुल ने, अटकते हुए कहना शुरू किया, ‘‘बाबूजी, हमें आप को कुछ बताना है.’’
सुमि बोली, ‘‘क्या बात है, मुकुल?’’
मुकुल बोला, ‘‘दीदी, यह बड़ी अच्छी बात है कि आप के आने से बाबूजी की स्थिति में सुधार आ रहा है, पर…’’
‘‘हां, पर क्या, बोलो?’’
मुकुल थूक निगलते हुए बोला, ‘‘दीदी, बाबूजी की बीमारी के कारण अब हम दोनों की स्थिति ठीक नहीं है.’’
वह आगे कुछ कहता कि सुमि ने आंखें तरेरीं और चुप रहने का इशारा किया पर दोनों भाई तो ठान कर आए थे, सो चुप कैसे रहते, ‘‘बाबूजी, मुकेश आप की बीमारी का कुछ भी खर्चा उठाने को तैयार नहीं है. अभी तक मैं अकेला ही सब खर्चे का बोझ उठा रहा हूं.’’
मुकेश जो अब तक चुप था बोला, ‘‘बाबूजी, आप तो जानते ही हैं कि मेरी इस के जितनी तनख्वाह नहीं है.’’
‘‘तो मैं क्या करूं, अगर आप की तनख्वाह कम है,’’ मुकुल बोला, ‘‘आखिर मुझे भी तो अपने परिवार के भविष्य का खयाल रखना है.’’
‘‘तुम्हारा अपना परिवार? लेकिन मैं तो समझती थी कि यह पूरा परिवार एक ही है, नहीं है क्या?’’ सुमि ने कहा.
‘‘दीदी, किस जमाने की बातें कर रही हो आप. अब वह जमाना नहीं है जब सब एकसाथ हंसीखुशी रहते थे. देखना कुछ सालों बाद आप का यह लाड़ला मुझ से अपना हिस्सा मांगेगा. तो जो कल होना है वह आज अम्मांबाबूजी के सामने क्यों न हो जाए?’’
‘‘कुछ तो शर्म करो तुम दोनों, बाबूजी को ठीक तो होने देते, बेशर्मी करने से पहले,’’ सुमि ने डपटा, ‘‘और अब तो बाबूजी ठीक भी हो रहे हैं. कुछ दिन और सह लो, फिर बंटवारे की जरूरत ही नहीं रहेगी. बाबूजी स्वस्थ हो जाएं तो वह भी कुछ न कुछ कर लेंगे.’’
‘‘नहीं दीदी, आप नहीं समझ रही हैं. बात खर्चे की नहीं है, नीयत की है. मुकेश की नीयत ठीक नहीं,’’ मुकुल बोल पड़ा.
‘‘सोचसमझ कर बोलिए भैया, मेरी नीयत में कोई भी खोट नहीं, यह कहिए कि आप ही निबाहना नहीं चाहते,’’ मुकेश ने बात काटी. दोनों एकदूसरे को खूनी नजरों से घूर रहे थे.
‘‘चुप रहो दोनों. बाबूजी को ठीक होने दो फिर कर लेना जो दिल में आए.’’
‘‘देखिए दीदी, आप बाबूजी की बीमारी के बारे में जानने के बाद अब 1 वर्ष बाद आ पाई हैं. अब बुलाने पर तो आप आएंगी नहीं. यह बात आप के सामने हो तो बेहतर होगा. वरना बाद में आप ने कुछ आपत्ति उठाई तो?’’ मुकेश बोला.
‘‘मुकेश,’’ सुमि चीखी, ‘‘मैं तुम दोनों की तरह बेशर्म नहीं हूं, जो ऐसी बातें करूंगी और सुन लो, मुझे अपने अम्मांबाबूजी की खुशी के अलावा कुछ नहीं चाहिए. और हां, बंटवारे के बाद अम्मांबाबूजी कहां रहेंगे, बताओ तो जरा?’’
‘‘क्यों, मुकेश के पास. वही अम्मां का लाड़ला छोटा बेटा है,’’ मुकुल ने झट कहा.
‘‘मेरे पास क्यों? आप बड़े हैं. आप की जिम्मेदारी है,’’ मुकेश ने नहले पर दहला मारा.
विजयजी की आंखों की कोरों से 2 बूंद आंसू लुढ़क गए. उन के दोनों स्तंभ बड़े कमजोर निकले. उन का अभेद्य किला आज ध्वस्त हो गया था, जाने कब से अंदर ही अंदर यह ज्वालामुखी धधक रहा था. ललिता ने भी मुझे कुछ भनक नहीं लगने दी. अंदर का ज्वालामुखी मन में दबाए मेरे आगे हमेशा हंसती रही. उन की नजरें ललिता को खोजने लगीं. वह उन्हें दरवाजे की ओट में से भीतर झांकती दिखीं. बेहद डरीसहमी हुई. दोनों बहुएं भी वहीं थीं. शायद वे भी यह सब चाहती थीं, पर उन के चेहरों पर ऐसा कुछ भी नहीं था. उन की निगाहें झुकी हुई थीं, चुप थीं दोनों.
सुमि फिर दहाड़ी, ‘‘इतना सबकुछ तय कर लिया अपनेआप, यह भी बताओ, बंटवारा कैसे करना है, यह भी तो सोच ही लिया होगा? आखिर बाबूजी तो लाचार हैं, कुछ बोल नहीं सकेंगे, तो?’’
‘‘इतना बड़ा घर है. बीच से एक दीवार डाल देंगे, जो आंगन को भी बराबरबराबर बांट दे. रसोई काफी बड़ी है, आंगन के बीचोंबीच. उस में भी दीवार डाल देंगे,’’ मुकुल ने कहा.
‘‘और अम्मांबाबूजी के बारे में भी तो तुम दोनों ने सोच ही लिया होगा. उन का क्या होगा, क्या सोचा है?’’ सुमि का चेहरा लाल हो रहा था.
‘‘दीदी, आप अमेरिका में रह कर ऐसी नादानी भरी बातें करेंगी, आप से ऐसी उम्मीद नहीं थी. वहां बूढ़े और अपाहिज मातापिता का क्या करते हैं यह आप से बेहतर कोई क्या जानेगा?’’ मुकुल फुसफुसाया जो सब ने सुन लिया.
‘‘हां, भैया ठीक कह रहे हैं. आजकल यहां भारत में भी ऐसा इंतजाम है. यहां भी कई वृद्धाश्रम खुल गए हैं,’’ मुकेश ने कहा तो सुमि को लगा कि दोनों भाई कम से कम इस बारे में एकमत थे.
दोनों अपना फैसला सुना कर बाहर चल दिए. अम्मां दरवाजे के पास घुटनों में सिर दे कर बैठ गईं, सिसकते हुए अपने दिवंगत सासससुर को याद करने लगीं, ‘‘अब कहां हो अम्मांजी, बापूजी? हम तो एक बेटे एक बेटी में खुश थे. आप ही को 2-2 पोते चाहिए थे. अगर एक ही होता तो आज यह नौबत न आती.’’
सुमि दोनों हथेलियों में सिर थामे निर्जीव सी कुरसी पर ढह गई. जीजाजी, जो अब तक चुप थे, ने चुप ही रहने में अपनी भलाई समझी. कहीं यह न हो कि दोनों सालों को डांटें तो वह यह न कह दें कि जीजाजी, आप को क्या कमी है, आप क्यों नहीं ले जाते अपने साथ?
विजयजी बेबस परेशान अपने दिए संस्कारों में गलतियां खोज रहे थे. जिस भरोसे से उन्होंने अपने अटूट परिवार की नींव डाली थी, वह भरोसा ही खंडखंड हो गया था. सबकुछ तो उन के तय किए हुए खाके पर चल रहा था, शायद ऐसे ही चलता रहता, अगर उन पर इस पक्षाघात का कहर न टूट पड़ता.