लेखिका- रमा प्रभाकर
समय बीत रहा था, विनीत के साथ निधि ने भी स्कूल जाना शुरू कर दिया तो एक बार फिर सुधा को अपनी छूटी हुई पढ़ाई का ध्यान आया. इस बार वह सबकुछ भूल कर अपनी पढ़ाई में जुट गई. धीरेंद्र के साथ उस के संबंध फिर से सामान्य हो चले थे. अब की बार सुधा ने पूरी तैयारी के साथ परीक्षा दी और पास हो गई. सुधा को धीरेंद्र ने भी खुले दिल से बधाई दी.
सुधा और धीरेंद्र के सामान्य गति से चलते जीवन में पल्लवी के पत्र से एक नया तूफान उठ खड़ा हुआ. एक दिन दुखी हो कर उस ने धीरेंद्र से पूछ ही लिया, ‘‘तुम कितनी बार मेरे धीरज की परीक्षा लोगे? क्यों बारबार मुझे इस तरह सलीब पर चढ़ाते हो? आखिर यह किस दोष के लिए सजा देते हो, मुझे पता तो चले…’’
‘‘क्या बेकार की बकवास करती हो. तुम्हें कौन फांसी पर चढ़ाए दे रहा है? मैं क्या करता हूं, क्या नहीं करता, इस से तुम्हारे घर में तो कोई कमी नहीं आ रही है. फिर क्यों हर समय अपना दुखड़ा रोती रहती हो? मैं तो तुम से कोई शिकायत नहीं करता, न तुम से कुछ चाहता ही हूं.’’
धीरेंद्र की यह बात सुधा समझ नहीं पाती थी. बोली, ‘‘मेरा रोनाधोना कुछ नहीं है. मैं तो बस, यही जानना चाहती हूं कि आखिर ऐसा क्या है जो तुम्हें घर में नहीं मिलता और उस के लिए तुम्हें बाहर भागना पड़ता है. आखिर मुझ में क्या कमी है? क्या मैं बदसूरत हूं, अनपढ़ हूं. बेशऊर हूं, जो तुम्हारे लायक नहीं हूं और इसलिए तुम्हें बाहर भागना पड़ता है. बताओ, आखिर कब तक यह बरदाश्त करती रहूंगी कि बाहर तुम से पहली बार मिलने वाला किसी सोना को, या रीना को, या पल्लवी को तुम्हारी पत्नी समझता रहे.’’
धीरेंद्र ने सुधा की इस बात का उत्तर नहीं दिया. इन दिनों धीरेंद्र के पास घर के लिए कम ही समय होता था. उतने कम समय में भी उन के और सुधा के बीच बहुत ही सीमित बातों का आदानप्रदान होता था.
एक दिन धीरेंद्र जल्दी ही दफ्तर से घर आ गया. लेकिन जब वह अपनी अटैची में कुछ कपड़े भर कर बाहर जाने लगा तो सूचना देने भर को सुधा को बोलता गया था, ‘‘बाहर जा रहा हूं. एक हफ्ते में लौट आऊंगा.’’
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लेकिन वह तीसरे दिन ही लौट आया. 2 दिन से वह गुमसुम बना घर में ही रह रहा था. सुधा ने धीरेंद्र को ऐसा तो कभी नहीं देखा था. उसे कारण जानने की उत्सुकता तो जरूर थी, लेकिन खुद बोल कर वह धीरेंद्र से कुछ पूछने में हिचकिचा रही थी.
उस दिन रात को खाना खा कर बच्चे सोने के लिए अपने कमरे में चले गए थे. धीरेंद्र सोफे पर बैठा कोई किताब पढ़ रहा था और सुधा क्रोशिया धागे में उलझी उंगलियां चलाती पता नहीं किस सोच में डूबी थी.
टनटन कर के घड़ी ने 10 बजाए तो धीरेंद्र ने अपने हाथ की किताब बंद कर के एक ओर रख दी. सुधा भी अपने हाथ के क्रोशिए और धागे को लपेट कर उठ खड़ी हुई. धीरेंद्र काफी समय से अपनी बात करने के लिए उपयुक्त अवसर का इंतजार कर रहा था. अभी जैसे उसे वह समय मिल गया. अपनी जगह से उठ कर जाने को तैयार सुधा को संबोधित कर के वह बोला, ‘‘तुम्हें जान कर खुशी होगी कि पल्लवी ने शादी कर ली है.’’
‘‘क्या…’’ आश्चर्य से सुधा जहां खड़ी थी वहीं रुक गई.
‘‘पल्लवी को अपना समझ कर मैं ने उस के लिए क्या कुछ नहीं किया था. उस की तरक्की के लिए कितनी कोशिश मैं ने की है, यह मैं ही जानता हूं. जैसे ही तरक्की पर तबादला हो कर वह यहां से गई, उस ने मुझ से संबंध ही तोड़ लिए. अब उस ने शादी भी कर ली है.
‘‘उसी से मिलने गया था. मुझे देख कर वह ऐसा नाटक करने लगी जैसे वह मुझे ठीक से जानती तक नहीं है. नाशुकरेपन की कहीं तो कोई हद होती है. लेकिन तुम्हें इन बातों से क्या मतलब? तुम तो सुन कर खुश ही होगी,’’ धीरेंद्र स्वगत भाषण सा कर रहा था.
जब वह अपना बोलना खत्म कर चुका तब सुधा बोली, ‘‘यह पल्लवी की कहानी बंद होना मेरे लिए कोई नई बात नहीं रह गई है. पहले भी कितनी ही ऐसी कहानियां बंद हो चुकी हैं और आगे भी न जाने कितनी ऐसी कहानियां शुरू होंगी और बंद होंगी. अब तो इन बातों से खुश या दुखी होने की स्थितियों से मैं काफी आगे आ चुकी हूं.
‘‘इस समय तो मैं एक ही बात सोच रही हूं, तुम्हारी ललिता, सोना, रीना, पल्लवी की तरह मैं भी स्त्री हूं. देखने- भालने में मैं उन से कम सुंदर नहीं रही हूं. पढ़ाई में भी अब मुझे शर्मिंदा हो कर मुंह छिपाने की जरूरत नहीं है. फिर क्या कारण है कि ये सब तो तुम्हारे प्यार के योग्य साबित हुईं और खूब सुखी रहीं, जबकि अपनी सारी एकनिष्ठता और अपने इस घर को बनाए रखने के सारे प्रयत्नों के बाद भी मुझे सिवा कुढ़न और जलन के कुछ नहीं मिला.
‘‘मैं तुम्हारी पत्नी हूं, लेकिन तुम्हारा कुछ भी मेरे लिए कभी नहीं रहा. वे तुम्हारी कुछ भी नहीं थीं, फिर भी तुम्हारा सबकुछ उन का था. सारी जिंदगी मैं तुम्हारी ओर इस आशा में ताकती रही कि कभी कुछ समय को ही सही तुम केवल मेरे ही बन कर रहोगे. लेकिन यह मेरी मृगतृष्णा है. जानती हूं, यह इच्छा इस जीवन में तो शायद कभी पूरी नहीं होगी.
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‘‘पल्लवी ने शादी कर ली, तुम कहते हो कि मुझे खुशी होगी. लेकिन तुम्हारी इस पल्लवी की शादी ने मेरे सामने एक और ही सत्य उजागर किया है. मैं अभी यह सोच रही थी कि अपने जीवन के उन सालों में जब छोटेछोटे दुखसुख भी बहुत महसूस होते हैं तब मैं, बस तुम्हारी ही ओर आशा भरी निगाहों से क्यों ताकती रही? तुम्हारी तरह मैं ने भी अपने विवाह और अपने सुख को अलगअलग कर के क्यों नहीं देखा?
‘‘अगर पति जीवन में सुख और संतोष नहीं भर पा रहा तो खाली जीवन जीना कोई मजबूरी तो नहीं थी. जैसे तुम ललिता, सोना, रीना या पल्लवी में सुखसंतोष पाते रहे, वैसे मैं भी किसी अन्य व्यक्ति का सहारा ले कर क्यों नहीं सुखी बन गई? क्यों आदर्शों की वेदी पर अपनी बलि चढ़ाती रही?’’
सुधा की बातों को सुन कर धीरेंद्र का चेहरा सफेद पड़ गया. अचानक वह आगे बढ़ आया. सुधा को कंधों से पकड़ कर बोला, ‘‘क्या बकवास कर रही हो? तुम होश में तो हो कि तुम क्या कह रही हो?’’
‘‘मुझे मालूम है कि मैं क्या कह रही हूं. मैं पूरे होश में तो अब आई हूं. जीवन भर तुम मेरे सामने जो कुछ करते रहे, उस से सीख लेने की अक्ल मुझे पहले कभी क्यों नहीं आई. अब मैं यही सोच कर तो परेशान हो रही हूं.
‘‘पहले मेरी व्यथा का कारण तुम्हारे प्रेम प्रसंग ही थे. जब भी तुम्हारे साथ किसी का नाम सुनती थी, मेरे अंतर में कहीं कुछ टूटता सा चला जाता था. हर नए प्रसंग के साथ यह टूटना बढ़ता जाता था और उस टूटन को मेरे साथ मेरे बच्चे भी भुगतते थे.
‘‘अब तो मेरी व्यथा दोगुनी हो गई है. तुम्हीं बताओ, अगर मैं ने तुम्हारे जैसे रास्ते को पकड़ लिया होता तो क्या मैं भी पल्लवी की तरह सुखी न रहती? जब वह तुम्हारे साथ थी, तब तुम्हारा सबकुछ पल्लवी का था अब शादी कर के वह अपने घर में पहुंच गई है तो वहां भी सबकुछ उस का है. पल्लवी को प्रेमी भी मिला था और फिर अब पति भी मिल गया है, और मुझे क्या मिला? मुझे कुछ भी नहीं मिला…’’
सुधा इतनी बिलख कर पहले कभी नहीं रोई थी जितनी अपनी बात खत्म करने से पहले ही वह इस समय रो दी थी.
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