Winter Special: एगलेस चाकलेट कुकीज

बच्चों से लेकर बड़ों तक सबकी पसंद होती है चाकलेट. फिर चाहे वह चाकलेट से बनी मिल्कशेक, केक या कुकीज हो. आइए हम आपको बताते हैं एगलेस चाकेलट कुकीज कैसे बनाई जाती है.

सामग्री

3/4 कप बटर

1/2 कप पिसी हुई शक्कर

1 टी स्पून वेनीला एसेंस

3/4 कप आटा

1/4 कप कोको पाउडर

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1/4 टी स्पून बेकिंग सोडा

1 चुटकी नमक

चाकलेट के चौकोर कटे टुकड़े

विधि

बटर और शक्कर को मिलाकर पेस्ट बना लें. अब इसमें वेनीला एसेंस को अच्छे से मिक्स कर लें. आटा, कोको पाउडर, बेकिंग सोड़ा और नमक को मिला लें. इसमें बटर वाला मिक्स मिलाएं. इसका कड़ा आटा गूंध लें.

अब इसे कवर करके तीस मिनट के लिए फ्रिज में रख दें. तैयार आटे की छोटी-छोटी गोलियां बनाएं. इसके बाद चाकलेट के छोटे टुकड़ों को हर गोली के अंदर रखकर उसे पूरी तरह कवर करें. हल्के हाथ से दबाकर इसे कुकीज का आकार दें.

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अब इन तैयार कुकीज को बेकिंग ट्रेमें रखकर 180 डिग्री सेल्सियस पर प्रीहीटेड ओवन में बारह मिनट के लिए बेक करें. ठंडा होने के बाद सर्व करें. आप चाहें तो इस कुकीज में कुछ मेवे डाल सकती हैं.

बढ़ते वजन को कंट्रोल करने के लिए रोजाना करें ये 5 एक्सरसाइज

आजकल के व्यस्त दिनचर्या में खुद को चुस्त-दुरुस्त बनाए रखना हर किसी के लिए एक बड़ा चैलेंज है. ऐसे में जरूरी है कि आप एक्सरसाइज करें. कई बार समय के अभाव में या ज्यादा खर्च के चलते हमारा जिम जाना संभव नहीं हो पाता. ऐसे में आपको परेशान होने की जरूरत नहीं है. ऐसे में आप खुद को ही घर पर बस 20 से 25 मिनट दें मिनट दें तो शरीर सारा दिन चुस्त बना रहेगा. आइए आपको बताते हैं कुछ ऐसी एक्सरसाइज जिन्हें आप घर पर आसानी से कर सकती हैं. यह एक्सरसाइज आपको पूरी तरह से फिट रखने और तरोताजा महसूस कराने के साथ ही आपके बढ़ते वजन को कंट्रोल करने में आपकी मदद करेगा.

1. सूर्य नमस्कार

यह एक कार्डियो-वस्कुलर व्यायाम है. इसमें 12 से ज्यादा आसन होते हैं. यदि आपके पास समय की कमी हो तो इससे बेहतर कोई व्यायाम हो ही नहीं सकता. इसे सुबह उठकर खाली पेट करें. इसे रोजाना 10-15 मिनट करें.

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2. सीढ़ियों पर चढ़े-उतरे

अगर आप मार्निग वाक पर नहीं जा सके हैं तो घर की सीढ़ियों पर ही 10 से 15 मिनट चढ़े-उतरे. ये 45 मिनट के वर्कआउट के बराबर होता है. सीढ़ियां चढ़ने से सबसे ज्यादा ऊर्जा खर्च होती है. माना जाता है कि 30 सीढ़ियां चढ़ने से कम से कम 100 कैलोरी बर्न होती है.

3. प्रणाम मुद्रा

दोनों पंजे एक साथ जोड़ कर रखें और पूरा वजन दोनों पैरों पर समान रूप से डालें. अपनी छाती फुलाएं और कंधे ढीले रखें. सांस लेते वक्त दोनों हाथ बगल से ऊपर से उठाएं और सांस छोड़ते वक्त हथेलियों को जोड़ते छाती के सामने प्रणाम मुद्रा में ले आएं. यह एक्सरसाइज रोजाना करें. इससे आप कुछ ही हफ्ते में तरोताजा महसूस करने लगेंगी.

4. कूल डाडन जपिंग

इसमें पंजों के बल पर खड़े होकर जंप करना है. हाथ को मोड़कर ऊपर ले जाने हैं. इसके भी एक मिनट के तीन से चार सेट करने हैं. इससे पूरी बाडी वार्मअप होती. इससे स्टैमिना बनता है. ज्यादा देर तक करने से शरीर से वजन भी कम होता है.

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5. जंपिंग जैक

यह एक कार्डियो एक्सरसाइज है. इससे भी वजन में कंट्रोल में रहेगा और काफी एनर्जी खर्च होती है. शरीर को चुस्त व दुरुस्त बनाने के लिए जंपिंग जैक भी एक कारगर और बेहतरीन तरीका है. इसमें दोनों पैर को पंजों के पास से जोड़िए और उन्हें खोलते हुए दोनों हाथ को ऊपर लेकर जाएं. एक से डेढ़ मिनट के तीन से चार सेट करने से बौडी अच्छी खासी स्ट्रैच हो जाती है.

पार्टनर: कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है

आवाज में वही मधुरता, जैसे कुछ हुआ ही नहीं. काम है, करना तो पड़ेगा, कोई लिहाज नहीं है. दुखी हो तो हो जाओ, किसे पड़ी है. बिजनैस देना है तो प्यार से बोलना पड़ेगा. छवि अब भी फोन पर बात करती तो उसी मिठास के साथ कि मानो कुछ हुआ ही नहीं. वैसे कुछ हुआ भी नहीं. बस, एक धुंधली तसवीर को डैस्क से ड्रौअर के नीचे वाले हिस्से में रखा ही तो है. अब उस की औफिस डैस्क पर केवल एक कंप्यूटर, एक पैनहोल्डर और उस के पसंदीदा गुलाबी कप में अलगअलग रंग के हाइलाइटर्स रखे थे. 2 हफ्ते पहले तक उस की डैस्क की शान थी ब्रांच मैनेजर मिस्टर दीपक से बैस्ट एंप्लौयी की ट्रौफी लेते हुए फोटो. कैसे बड़े भाई की तरह उस के सिर पर हाथ रख वे उसे आगे बढ़ने को प्रेरित कर रहे थे.

आज उस ने फोटो को नीचे ड्रौअर में रख दिया. अब वह ड्रौअर के निचले हिस्से को बंद ही रखती. वह फोटो उस के लिए बहुत माने रखती थी. इस कंपनी में पिछले 6 महीने से छवि सभी एंप्लौयीज के लिए रोलमौडल थी और दीपक सर के लिए एक मिसाल. छवि ने घड़ी देखी, 5 बजने में अब भी 25 मिनट बाकी थे. अगर उस के पास कोई अदृश्य ताकत होती तो समय की इस बाधा को हाथ से पकड़ कर पूरा कर देती. समय चूंकि अपनी गति से धीरेधीरे आगे बढ़ रहा था, छवि ने अपने चेहरे पर हाथ रख, आंखों को ढक अपनी विवशता को कुछ कम किया.

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अभी तो उसे लौगआउट करने से पहले रीजनल मैनेजर विनोद को दिनभर की रिपोर्टिंग करनी थी, यही सोच कर उस का मन रोने को कर रहा था. अगर उस ने फोन नहीं किया तो कभी भी उन का फोन आ सकता है. औफिस का काम औफिस में ही खत्म हो जाए तो अच्छा है. घर तक ले जाने की न तो उस की ताकत थी और न ही मंशा. यह आखिरी काम खत्म कर छवि एक पंख के कबूतर की तरह अपनी कंपनी के वन बैडरूम फ्लैट में आ गई. फ्लैट की औफव्हाइट दीवारों ने उस का स्वागत उसी तरह किया जैसे उस ने किसी अनजान पड़ोसी को गुडमौर्निंग कहा हो. फ्लैट में कंपनी ने उसे बेसिक मगर ब्रैंडेड फर्नीचर मुहैया करवा रखे थे. कभी उसे लगता घर भी औफिस का ही एक हिस्सा है और वह कभी घर आती ही नहीं. सच भी तो है, पिछले 6 महीने में वह एक बार भी घर नहीं गई थी.

मात्र 100 किलोमीटर की दूरी पर उस का कसबा था, सराय अजीतमल. पर वहां दिलों की बहुत दूरी थी. पिता के देहांत के बाद मां ने पिता के एक दोस्त प्रोफैसर महेश से लिवइन रिलेशन बना लिए. अब छवि का घर, जहां वह 22 साल रही, 2 प्रेमियों का अड्डा बन गया जहां उस के पहुंचने से पहले ही उस के जाने के बारे में जानकारी ले ली जाती.

कभीकभी तो उसे अपनी मां पर आश्चर्य होता कि वह क्या उस के पिता के मरने का ही इंतजार कर रही थी. पिता पिछले 5 सालों से कैंसर से जूझ रहे थे. इसी कारण छवि को बीच में पढ़ाई छोड़ जौब करनी पड़ी और महेश अंकल ने तो मदद की ही थी. यह बात और है कि उसे न चाहते हुए भी अब उन्हें पापा कहना पड़ता.

छवि ने अपनेआप को आईने में देखा और थोड़ा मुसकराई, वह सुंदर लग रही थी. औफिस में नौजवान एंप्लौयी चोरीछिपे उसे देखने का बहाना ढूंढ़ते और कुछेक अधेड़ बेशर्मी के साथ उस से कौफी पीने का अनुरोध करते. दीपक सर की चहेती होने से कोई सीधा हमला नहीं कर पाता. क्या फोन पर रिपोर्टिंग करते समय विनोद सर जान पाते होंगे कि यह एक पंख की कबूतर कौन्ट्रैक्ट की वजह से अब तक इस नौकरी को निभा रही है, हां…दीपक सर का अपनापन भी एक प्रमुख कारण था कि वह दूसरा जौब नहीं ढूंढ़ पाई. क्या पता उन्हें मालूम हो कि औफिस जाना उसे कितना गंदा लगता है. वह नीचे झुकी, ड्रैसिंग टेबल पर फाइवस्टार रिजोर्ट में 2 दिन और 3 रातों का पैकेज टिकट पड़ा था. मन किया उस के टुकड़ेटुकड़े कर फाड़ कर फेंक दे, पर उस ने केवल एक आह भरी और कमरे की दीवारों को देखने लगी. दीवारों की सफेदी ने उसे पिछले महीने गोवा में समंदर किनारे हुई क्लाइंट मीटिंग की याद दिला दी. मन कसैला हो गया. कैसे समुद्र का चिपचिपा नमकीन पानी बारबार कमर तक टकरा रहा था और 2 क्लाइंट उस से अगलबगल चिपके खड़े थे. उन दोनों की बांहों के किले में वह जकड़ी थी और विनोद सर से ‘चीज’ कह कर एक ग्रुप फोटो लेने में व्यस्त थे.

छवि एक बिन ताज की महारानी की तरह कंपनी और क्लाइंट के बीच होने वाली डील में पिस रही थी. एक लहर ने आ कर उसे गिरा दिया, वह सोचने लगी कि क्या वह सचमुच गिर गई थी. बस, विनोद सर बीचबीच में हौसला बढ़ाते रहते, ‘बिजनैस है, हंसना तो पड़ेगा.’ उन के शब्द याद आते ही उस का मन रोने का किया. उसे लगा इस कमरे की दीवारें सफेद लहरें हैं जो उस के मुंह पर उछलउछल कर गिर रही हैं. वह जमीन पर बैठ गईर् और घुटनों को सीने से लगा सुबकने लगी. अपनी कंपनी से एक कौन्ट्रैक्ट साइन कर उस ने 3 साल की सैलरी का 60 प्रतिशत हिस्सा पहले ही ले लिया था. सारा पैसा पिता की बीमारी में लग गया. छवि का मन रोने से हलका हो गया. थोड़ी राहत मिली तो उठ कर बैड पर बैठ गई. डिनर करने का मन नहीं था, इसलिए सो गई.

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सुबह 7 बजे सूरज की किरणें जब परदे को पार कर आंखों में चुभने लगीं तो वह हड़बड़ा कर उठी. वह ठीक 9 बजे औफिस पहुंच गई, उस के पास एक छोटा बैग था. दीपक सर उसे देख कर हलका सा मुसकराए. वह उन से भी छिपती हुई जल्दी से अपने कैबिन में आ कर बैठ गई. 1 घंटा प्रैजैंटेशन बनाने के बाद उसे बड़ी थकान लगने लगी, लगता था कल के रोने ने उस की बहुत ताकत खींच ली थी. तभी फोन बजा और उस का आलस टूटा. दूसरी लाइन पर दीपक सर थे, बोले, ‘‘तुम ने क्या सोचा?’’

ड्रौअर के नीचे के आखिरी खाने में कौन्ट्रैक्ट की कौपी और दीपक सर के साथ उस की फोटो थी. उस ने कौन्ट्रैक्ट को बिना देखे, फोटो को उठा अपने बैग में डाल लिया और बोली, ‘‘आप के साथ पार्टनरशिप,’’ और छवि ने फोन काट दिया. यह कोई पागलपन नहीं था, बल्कि एक सोचासमझा फैसला था. छवि ने ड्रौअर को ताला लगाया और चाबियों को झिझकते हुए, पर दृढ़ता से, पर्स में डाल दिया. 15 दिन लगे पर उसे अपने फैसले पर विश्वास था. फोटो को बैग से निकाल कर एक बार फिर देखा, थोड़ा धुंधला लग रहा था पर उस में अब भी चमक थी.

छवि की आंखों में हलका गीलापन था, कौन्ट्रैक्ट का पैसा दीपक सर की हैल्प से भर पा रही थी. अब वह कंपनी में कभी नहीं आएगी. वह अब आजाद थी. पर 2 दिन और 3 रातें दीपक सर के साथ रिजोर्ट में बिता कर वह उन्हीं के नए फ्लैट में रहेगी, एक पार्टनर बन कर.

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जब छूट जाए जीवनसाथी का साथ

पहले के समय में 50 वर्ष के बाद वानप्रस्थ का नियम घर में सही तालमेल व पारिवारिक शांति के दृष्टिकोण से बनाया गया होगा. बेटे का गृहस्थाश्रम में प्रवेश और बहू के आगमन के साथ ही परिवार की सत्ता का हस्तांतरण स्वाभाविक समझ कर वानप्रस्थ की कल्पना की गई होगी.

लेकिन, आज परिस्थितियां बदल चुकी हैं. आधुनिक मैडिकल साइंस ने विभिन्न बीमारियों से नजात दिला कर उत्तम स्वास्थ्य का विकल्प दिया है. उस ने मनुष्य को स्वस्थ जीवन दे कर उस की आयु बढ़ा दी है. आज पुरुष हो या स्त्री, स्वस्थ जीवनशैली अपना कर 80-85 वर्ष की आयु में भी वे खुशहाल जीवन जी रहे हैं.

समाज में आजकल एकल परिवारों का चलन बढ़ गया है. मांबाप बच्चे को अच्छी शिक्षा के लिए बचपन से ही होस्टल या अपने से दूर दूसरे शहर में भेज देते हैं. उच्च शिक्षा के लिए तो उसे घर से दूर जाना ही होता है, यहां तक कि महानगरों में रहने पर भी बच्चों को होस्टल में रखा जाता है. नौकरी करने के लिए तो उन्हें अपने घरों से दूर जाना ही होता है.

नतीजतन, मांबाप लंबे समय तक स्वतंत्र रूप से अपना जीवन जीते हैं. घर से दूर रह कर बच्चों का भी स्वतंत्र रूप से जीने का स्टाइल और अपना अलग तौरतरीका बन जाता है.

ऐसी स्थिति में दोनों के लिए एकदूसरे की जीवनशैली के साथ सामंजस्य बिठाना कठिन होता है. इसलिए न तो मांबाप और न ही बच्चे अपनेअपने जीवन में हस्तक्षेप पसंद करते हैं. यही कारण है कि जब पतिपत्नी में से कोई एक अकेला बचता है तो अब वह क्या करे या कहां जाए जैसी समस्या उठ खड़ी होती है.

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गोंडा के सतीश और उन की पत्नी विमला खुशहाल जीवन जी रहे थे. फलताफूलता व्यापार था. 1 बेटी पूजा, 2 जुड़वां बेटे. संपन्न परिवार का समाज में मानसम्मान भी खूब था. दोनों बेटों की आंखें बचपन से कमजोर थीं.

16 वर्ष की उम्र तक आतेआते दोनों बेटे आंखों की रोशनी खो बैठे. वे बेटों के इलाज को ले कर दिल्लीमुंबई भागदौड़ कर रहे थे, तभी दबे पांव पत्नी कैंसर से पीडि़त हो गई और शीघ्र ही उन की दुनिया उजड़ गई.

23 वर्ष की पूजा मां, भाई और गृहस्थी सबकुछ संभाल रही थी. उस की शादी की उम्र हो चुकी थी. बेटी की विदाई हुई तो वे फूटफूट कर रो पड़े थे. उस समय उन की उम्र 62 वर्ष थी. वे शरीर से स्वस्थ थे. 2 बेटे जवान परंतु उन का दृष्टिहीन जीवन व्यर्थ सा था. मेड के सहारे किसी तरह दिन बीतने लगे. जीवन अव्यवस्थित था. हर नया दिन नई उलझन और परेशानी ले कर आता.

तभी उन की बहन एक 50 वर्षीय अपनी परिचित महिला को ले कर उन के घर आई और एक हफ्ते उन के घर में साथ रही. महिला के पास अपने 2 बच्चे थे. वह तलाकशुदा थी. बहन सुधा ने उन के सामने उस महिला के साथ शादी का प्रस्ताव रखा था. काफी सोचविचार कर के सतीश ने अपनी बहन के सुझाव को स्वीकार कर लिया. शादी हो गई.

उन की बेटी पूजा ने नाराज हो कर उन से रिश्ता तोड़ लिया. सगेसंबंधियों ने भी समाज में उन का मजाक बनाया परंतु वे अपने निर्णय पर दृढ़ रहे और आज प्रसन्नतापूर्वक अपना जीवन जी रहे हैं. उन के  जीवन में फिर खुशियां लौट आई हैं. दूसरी पत्नी ने अपने अच्छे व्यवहार से टूटे रिश्तों को जोड़ लिया. उन की बेटी को भी उस ने अपने लाड़प्यार के बंधन में बांध कर अपना बनाया.

जिंदगी को मिली राह

इलाहाबाद की नीरजा बैंक मैनेजर की पत्नी थीं. वे दिमाग से थोड़ी कमजोर थीं और कभीकभी उन्हें हिस्टीरिया के दौरे पड़ जाते थे. पति नवीन ने प्यार से देखभाल की थी, इसलिए नीरजा की बीमारी के विषय में कोई कुछ नहीं जानता था. खुशहाल परिवार, 1 बेटी और 2 बेटे. सबकुछ सुखमय. बेटे, बेटी की शादियां संपन्न परिवारों में धूमधाम से हो चुकी थीं.

पति नवीन कैंसर रोग की गिरफ्त में आ गए और जल्द ही इस दुनिया से विदा हो गए. नीरजा को उन के छोटे बेटे ने संभाला. दोनों एकदूसरे का सहारा बन गए. 2 साल बीततेबीतते बेटे की शादी हुई. बहू के आते ही घर और रसोई के अधिकार उन के हाथ से फिसलने लगे. वे अवसाद से ग्रस्त होने लगीं. वे फुटबौल की तरह कभी बेटी, तो कभी बड़े बेटे, तो कभी छोटे बेटे के सहारे दिन गुजारने लगीं. उन को फिर से दौरा पड़ा. डाक्टर ने उन्हें अकेले न छोड़ने की सलाह दी. छोटी बहू को किसी प्रोजैक्ट के सिलसिले में सालभर के  लिए अमेरिका जाना था. वैसे भी नीरजा दिनभर घर में अकेली रह कर अपने जीवन से परेशान एवं निराश हो चुकी थीं.

उन्होंने स्वयं ही वृद्धाश्रम जाने का निश्चय किया. सब ने आपस में विचारविमर्श कर उन के निर्णय को स्वीकार कर लिया. अब वे वहां अन्य वृद्धों के बीच अधिक प्रसन्न व स्वस्थ हैं. उन के बच्चे आजादी से अपना जीवन जी रहे हैं. वे स्वयं भी अपने निर्णय से खुश व संतुष्ट हैं. अपने बच्चों के साथ अब उन के रिश्ते बहुत अच्छे हैं.

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फर्रूखाबाद के श्रीनिवास पेशे से इंजीनियर थे. नौकरचाकर, बंगला सबकुछ था. 2 बेटियों की शादी कर चुके थे. तीसरी बेटी की शादी की तैयारी में लगे थे. बेटा 16 वर्ष का ही था.

तभी पत्नी गीता को हृदयरोग हो गया. उसी वर्ष वे रिटायर हो कर अपने पुश्तैनी घर लौटे परंतु पत्नी को ससुराल की चौखट नहीं भायी. अच्छे से अच्छे इलाज के बाद भी 6 महीने में ही उन की मृत्यु हो गई.

श्रीनिवास अपने अकेलेपन को ले कर मानसिक रूप से तैयार थे क्योंकि डाक्टरों ने उन्हें पहले ही आगाह कर दिया था कि उन की पत्नी कुछ ही दिनों की मेहमान है. उन्होंने मेड के सहारे अकेले अपनी गृहस्थी चलाई. अपनी कंसल्टैंसी शुरू की. अपने स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए मौर्निंग वाक, कसरत, नाश्ता आदि सबकुछ समय से करते. अपने शौक पूरे किए.

वे दैनिक समाचारपत्र में शहर की समस्याओं के विषय में पत्र लिखते थे. दवाइयों पर उन की अच्छी पकड़ थी, इसलिए छोटेमोटे मर्जों के लिए लोगों को मुफ्त दवा भी दिया करते थे. उन्हें अपने अकेलेपन से कोई शिकायत नहीं थी. उन्होंने प्रसन्न मन से जीवन को जिया.

सच को स्वीकारें

ग्वालियर की सुनीता वर्मा का जीवन पलभर में बदल गया. तीनों बच्चों की शादी कर के वे पति के साथ आजाद जिंदगी जी रही थीं. बच्चे अपने जीवन में सुखी एवं व्यस्त थे और अपने घरौंदों में थे. सुनीता बड़ी सी कोठी की मालकिन थीं. आखिर, पति किसी समय में एक बड़ी कंपनी के वाइसप्रैसिडैंट रह चुके थे. सुखीसंपन्न जीवन था उन का.

पति उन पर जान छिड़कते थे. वे स्वयं अकसर बीमार रहने लगी थीं, तो बेटे को दिल्ली से भागभाग कर आना पड़ता. ढलती उम्र और बीमारी को देखते हुए बेटे ने दोनों को अपने साथ दिल्ली ले जाने का निर्णय कर लिया. बेटा सीनियर इंजीनियर था, बड़ा सा फ्लैट, वहां कोई परेशानी नहीं थी. परंतु अपनी इतनी प्यार से संजोई हुई गृहस्थी को छिन्नभिन्न होते देख वे मन ही मन बहुत आहत हो उठी थीं.

मजबूरी के कारण वे उदास मन से बेटे के घर में शिफ्ट हो गईं. वे वहां एडजस्ट होने का प्रयास कर ही रही थीं कि साल बीतने के पहले ही एक रात पति को दिल का दौरा पड़ा और लाख प्रयास करने पर भी वे उन का साथ छोड़ कर दुनिया से विदा हो गए.

सुनीता के लिए दुनिया सूनी हो गई थी. जो पति हर समय उन के आगेपीछे घूमते रहते थे उन की सारी इच्छाओं, आवश्यकताओं को बिना कहे समझ लेते थे, उन के बिना वे कैसे जिएं. वे नकारात्मक विचारों से घिर गई थीं. यद्यपि कि उन की उम्र 72 वर्ष थी परंतु सही इलाज से पूर्णतया स्वस्थ हो गई थीं.

धीरेधीरे बहू संध्या ने उन्हें अपने साथ कभी मौल, कभी फंक्शन, कभी किटी पार्टी आदि के बहाने घर से बाहर निकलने को पे्ररित किया. जल्दी ही उन्होंने सच को स्वीकार कर लिया कि अब उन्हें अकेले मजबूत बन कर जीवन जीना है.

बचपन से ही उन्हें पढ़ने व जानकारी हासिल करने का शौक था. अब वे रोज सुबह घंटों समाचारपत्र, पत्रिकाएं पढ़तीं और शाम को 5 बजे नजदीक के एक महिला क्लब में जातीं जहां महिलाएं सामाजिक विषयों पर चर्चा करती हैं. महिलाएं अपने लेख या कहीं से कुछ अच्छा विषय पढ़ कर एकदूसरे को सुनाती हैं. जीवन की इस नई पारी में वे व्यस्त एवं प्रसन्न हैं.

बेटे, बहू और बेटियां उन की व्यस्त दिनचर्या से खुश हैं. परिवार में कोई तनाव या नोकझोंक नहीं, बल्कि सबकुछ व्यवस्थित है.

चलती रहे जिंदगी

फतेहपुर के किशनपुर गांव के मदनमोहन पांडे पेशे से अध्यापक थे. अपनी पत्नी राधा के साथ सुखी जीवन जी रहे थे. दोनों एकदूसरे को पूर्णतया समर्पित थे. बच्चे हुए नहीं, परंतु उन के मन में कोई अफसोस नहीं था. अचानक एक दुर्घटना में पत्नी इस दुनिया से विदा हो गई. उसी साल उन का रिटायरमैंट हुआ था. न कोई कामकाज, न कोई जिम्मेदारी. उन की दुनिया सूनी हो गई थी.

उस समय उन के घर की मेड ने घर को संभाला. महल्ले के बच्चों के प्यारभरे अनुरोध को वे नहीं टाल सके थे और घर पर निशुल्क कोचिंग शुरू कर दी. बच्चों को अच्छी पुस्तकों के लिए यहांवहां भटकते देख उन्होंने साथी अध्यापकों और परिचितों की मदद से अपने घर में ही लाइब्रेरी बनाने का निर्णय किया.

उन का छोटा सा प्रयास जन आंदोलन बन गया. आज 75 वर्ष की अवस्था में वे अपने कार्य में लीन हैं. छोटे से गांव में समाज के विरोध को नकारते हुए उन्होंने अपनी मेड सरोज को अपने घर में रखा, उस के बेटे को पढ़ालिखा कर इंजीनियर बनाया और उसे ही अपने घर का उत्तराधिकारी बना कर वसीयत कर दी.

दैनिक समाचारपत्र, पत्रिकाओं आदि के लिए लोगों की भीड़ उन के सूने घर को रौनक से भर देती है. आज समाज में वे सम्मानित दृष्टि से देखे जाते हैं.

निष्कर्ष यह है कि यदि आप का जीवनसाथी इस दुनिया से विदा हो गया है और अब आप अकेले रह गए हैं तो इस सच को स्वीकार करना होगा कि सबकुछ समाप्त नहीं हुआ है बल्कि आगे जाना है. हमें अपने जीवन को रचनात्मकता देनी है. यदि हमें अपने बेटे या बेटी के साथ ही रहना है तो उस से अनावश्यक अपेक्षा एवं कदमकदम पर टोकाटाकी के स्थान पर स्वयं को उस की परिस्थिति पर रख कर विचार करने की जरूरत है. आज स्थितियां बदल चुकी हैं.

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जीवन के संघर्ष एवं आपाधापी में हमारे बच्चे अपने झंझावातों से गुजर रहे हैं. उन्हें अपने कार्यक्षेत्र में, अपने परिवार में हर क्षण नई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. यह सही है कि आप के पास अनुभव अधिक है परंतु अपने समय को याद करें जब आप को भी अपने बुजुर्गों का अनावश्यक हस्तक्षेप या मीनमेख रुचिकर नहीं लगता था. संभवतया आप ने चुप रह कर उन्हें अनसुना कर दिया था. परंतु आज की पीढ़ी चुप रहने वाली नहीं है, मुंहफट है.

यदि जीवन में नई शुरुआत करनी है तो कभी देर नहीं होती. उम्र के हर पायदान पर जीवन की खुशियां झोली फैला कर आप की राह देखती रहती हैं.

 

आखिर कब तक: मनु ने शुभेंदु की ऐसी कौन सी करतूत जान ली

Serial Story: आखिर कब तक (भाग-1)

न जाने मैं कितनी बार मानसी का लिखा मेल पढ़ चुकी थी. हर बार नजर 2 लाइनों पर आ कर ठहर जाती, जिन में उस ने शुभेंदु से तलाक लेने की बात की थी.

20 साल तक विवाह की मजबूत डोर में बंधी जिंदगी जीतेजीते पतिपत्नी एकदूसरे की आदत बन जाते हैं. एकदूसरे के अनुसार ढल जाते हैं. फिर अलग होने का प्रश्न ही कहां उठता है. पर सचाई उन 2 लाइनों के रूप में मेरे सामने था. कैसे भरोसा करूं, समझ नहीं पा रही थी. सब कुछ झूठ सा लग रहा था.

कुछ भी हो मनु मेरी सब से प्रिय सखी थी. पहली बार हम दोनों एक संगीत समारोह में मिले थे. उसे संगीत से बेहद पे्रम था और मेरी तो दुनिया ही संगीत है. मानसी नाम बड़ा लगता था, इसलिए मैं उसे घर के नाम से पुकारने लगी थी. पहले मानसीजी, फिर मानसी और बाद में वह मनु हो गई. हमारे बीच कोई दुरावछिपाव नहीं था. यहां तक कि अपने जीवन में शुभेंदु के आने और उन से जुड़े तमाम प्रेमप्रसंगों को भी वह मुझ से शेयर कर लिया करती थी.

एक दिन उस ने शुभेंदु से मेरा परिचय भी करवाया था, ‘‘बसु, ये मेरे बौस…सीनियर आर्किटैक्ट शुभेंदु और मेरे….’’

उस का वाक्य पूरा होने से पहले ही मैं ने नमस्कार किया.

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‘‘आप वसुधाजी… मनु से आप के बारे में इतना सुन चुका हूं कि आप की पूरी जन्मपत्री मेरे पास है.’’

उन का यों परिहास करना अच्छा लगा था. लंबे, आकर्षक शुभेंदु से मिल कर पलभर को सखी के प्रति जलन का भाव जागा था. पर दूसरे ही पल यह संतुष्टि का भाव भी बना था कि मनु जैसी युवती के लिए शुभेंदु के अलावा और कोई अयोग्य वर हो ही नहीं सकता था. कुदरत ने उसे रूप भी तो खूब बख्शा था. छरहरी देह, सोने जैसा दमकता रंग, बड़ीबड़ी तीखी पलकों से ढकी आंखें, काले घने बाल और गुलाबी अधरों पर छलकती मोहक हंसी, जो सहज ही किसी को अपनी ओर खींच लेती थी.

‘‘मैं अकसर उसे चिढ़ाती, मनु तू इतनी दुबलीपतली कमसिन सी है कि फूंक मारूं तो मक्खी की तरह उड़ जाए. क्या रोब पड़ता होगा तेरा औफिस में?’’

‘‘चल, हट. एक दिन औफिस आ कर देख ले. गस खा कर गिर जाएगी मेरा रुतबा देख कर.’’

‘‘अच्छा यह बता तेरे बौस तुझे लाइननहीं मारते?’’

‘‘नहीं, वे बहुत ही सज्जन इंसान हैं. उन का व्यवहार बहुत अच्छा है. काम को भी बहुत अच्छी तरह समझाते हैं. तारीफ करने में माहिर.’’

‘‘मैं नहीं मानती. एक सुंदर लड़की बगल में बैठी हो और वह लाइन न मारे.’’

सवाल ही नहीं उठता. मैं लड़का होती तो, कब का उड़ा ले जाती तुझे.

ब्याह के बाद मनु अकसर मुझे अपने घर ले जाती थी. इस में मेरा कोई श्रेय नहीं था. उन लोगों का मीठामीठा सा आमंत्रण भी रहता था. शुभेंदु का आग्रह मनु से भी अधिक रहता था. शुभेंदु की वाकपटुता का कोई सानी नहीं था. वे बात को ऐसे कहते, जैसे एक विषय को उन्होंने अपने भीतर से निकाला हो. मैं और मनु दोनों मूक श्रोता की तरह वे जो कहते उसे सुनते रहते.

एक दिन हम तीनों टीवी देखते हुए खाना खा रहे थे. खाना खत्म हुआ तो शुभेंदु हम तीनों की प्लेट किचन में रख आए.  मैं ने मजाक में कहा, ‘‘शुभेंदु, आप दूसरों का बहुत ध्यान रखते हैं.’’

वे एक विजयी मुसकान चेहरे पर लिए बोले, ‘‘वसुधाजी, जो इंसान दूसरों का आदर नहीं करता वह अपनी इज्जत क्या करेगा? उसे तो इज्जत की परिभाषा भी मालूम नहीं होगी. जिसे स्त्रियों की इज्जत करना नहीं आता उन से मुझे घृणा होती है.’’

शुभेंदु भाषण की टोन में बोल रहे थे. उन का बोलना भाषण नहीं लग रहा था. सचाई, ईमानदारी, और इंसानियत का तकाजा लग रहा था.

मैं ने देखा मनु कुछ नहीं बोली, हाथ धोने अंदर चली गई. मैं भी उस के पीछेपीछे चली गई. बोली, ‘‘मनु, जूठी प्लेटें उठाना बहुत बड़ी बात है. तूने शुभेंदु को थैंक्स भी नहीं कहा?’’

‘‘वसु, जिंदगी औपचारिकताओं से नहीं जी जाती. जीने के लिए एक साफसुथरी स्फटिक सी शिला पैरों के नीचे होनी चाहिए. वरना आदमी फिसलन से औंधे मुंह गिरता है.’’

‘‘वाह रे, इतनी बड़ीबड़ी बातें कहां से सीखीं?’’

उस ने मुसकरा कर विषय बदल दिया, ‘‘वसु, शादी को कब तक टालती रहेगी?’’

‘‘क्या करूं कोई मेरी पसंद का मिलता ही नहीं है?’’

‘‘तेरी पसंद क्या है. जरा मैं भी तो सुनूं?’’

न जाने किस अनजानेपन में मैं झट से बोल पड़ी, शुभेंदु जैसा.

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मनु के चेहरे पर सन्नाटे की लकीरें सी खिंच गईं. वह कुछ बोली नहीं. मैं ने ही उस के गले में बांहें डाल कर उस का डर दूर किया, ‘‘मनु, डर गई क्या?’’ मैं शुभेंदु को तुझ से नहीं छीनूंगी. तेरी गृहस्थी में आग नहीं लगाऊंगी.’’

‘‘एक बात याद रखना परदे पर उभरने वाला दृश्य जितना सुलक्षण और सौंदर्यशाली होता है, उन के पीछे उतने ही घिनौने रास्ते होते हैं.’’

‘‘क्या बात है मनु… तेरी यह भाषा कहीं गहरे चोट करती है.’’

‘‘मुझे मनु पर बहुत गुस्सा आ रहा था कि ये औरतें हमेशा अपने पतियों की बुराई ही क्यों करती हैं? मनु भी मुझे उन बेअकल औरतों की कतार में बैठी दिखी. हैरानी तो मुझे उस दिन हुई कि मैं अपनी आंखों पर कैसे सम्मोहन का परदा डाले हुए थी. एक दिन यह सम्मोहन परदे को चीरता हुआ बिखर गया. शुभेंदु मेरे ही सामने मनु पर बिफर रहे थे, जबकि वे बड़े गुमान से कहते थे कि आदमी की शालीनता उस की भाषा में होती है.’’

‘‘बराबरी तो हर समय करती हैं तुम औरतें, लेकिन अकल जरा भी नहीं है…’’

वे भुनभुना रहे थे. भूल गए थे कि मैं वहां बैठी हूं. उन का यह रूप मैं ने पहली बार देखा था. मैं हैरान सी कभी शुभेंदु को देखती तो कभी मनु को.

शुभेंदु, इतना गुस्सा, इतनी सी बात पर? आज चाटर्ड बस नहीं आई थी, इसलिए तुम्हारी गाड़ी ले गई, मनु ने धीरे से कहा. सुन कर शुभेंदु का पारा 1 डिग्री और चढ़ गया, ‘‘तुम इसे छोटी सी बात कह रही हो? समझदारी भी कोई चीज होती है. पेट्रोल की कीमतें आसमान छू रही हैं और इन्हें ऐयाशी सूझ रही है.’’

‘‘शुभेंदु, आज मेरी कंपनी हैड के साथ मीटिंग थी. समय पर पहुंचना जरूरी था.’’

‘‘तो 7 बजे तक बिस्तर पर पड़े रहने की क्या जरूरत थी? जल्दी उठती.’’

लेकिन इस बार मनु ने कोई जवाबदेही नहीं की. मनु ने चुपचाप मेरा हाथ पकड़ा और फिर हम घर से बाहर निकल आईं.

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Serial Story: आखिर कब तक (भाग-2)

‘‘मनु, तू अपनी गाड़ी क्यों नहीं खरीद लेती? बेकार की चिकचिक से बच जाएगी. आजकल सभी कंपनियां ईएमआई की सुविधा देती हैं.’’

‘‘कितनी गाडि़यों की ईएमआई भरूंगी मैं वसु. फिलहाल, घर खर्च से ले कर मकान का किराया सब मेरी पगार से चल रहा है.’’

‘‘क्यों शुभेंदु की पगार भी तो अच्छीखासी होगी. इतने बड़े पद पर हैं?’’

‘‘उन्होंने अपनी कंपनी से रिजाइन कर दिया है. अच्छा अब बहुत हो गई बातें, चल कोल्ड कौफी विद आईसक्रीम ले कर आते हैं. शुभेंदु को बहुत पसंद है. मैं ने अमानत मौल में एक सुंदर सी शर्ट भी देखी है वह भी खरीदनी है मुझे. चल जल्दी कर,’’ वह सहज हो रही थी.

‘‘किस के लिए शर्ट?’’

‘‘शुभेंदु के लिए. खुश हो जाएंगे.’’

‘‘खुश हो जाएंगे मतलब. उन की खुशी का तुझे इतना खयाल है?’’

‘‘और क्या? आखिर वे मेरे पति हैं. मैं उन से प्यार करती हूं,’’ वह खिलखिला रही थी.

‘‘और वह शुभेंदु का गुस्सा,’’ मैं ने उसे याद दिलाया.

‘‘छोड़ यार, रात गई बात गई. शादीशुदा जिंदगी में ये सब चलता ही रहता है.’’

‘‘मगर शुभेंदु ऐसे होंगे, मैं सोच भी नहीं सकती. उन की वे बड़ीबड़ी बातें…’’

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‘‘आजकल शुभेंदु की चिड़चिड़ाहट कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है. एक तरफ जौब की परेशानी तो दूसरी तरफ मेरी पै्रगनैंसी. 5 महीने बाद मेरी डिलिवरी है. कहीं न कहीं तो अपना फ्रस्ट्रेशन उतारना ही है न?’’ वह अब भी शुभेंदु का पक्ष ले रही थी.

देखते ही देखते 5 महीने बीत गए. इस बीच मेरा रिश्ता पलाश से तय हो गया. मनु मेरी सगाई पर नहीं आ पाई थी. न ही शुभेंदु आए.

उस दिन उस ने अस्पताल में जुड़वां बच्चों को जन्म दिया था.

नामकरण वाले दिन मैं उस से मिलने गई तो वह फूटफूट कर कर रो पड़ी, ‘‘आज फुरसत मिली तुझे. एक बार आ कर देख तो लेती. तेरी मनु अस्पताल में अकेली किस तरह प्रसवपीड़ा से छटपटा रही थी… और कुछ नहीं तो… कम से कम… मौरल सपोर्ट तो दे ही सकती थी.’’

मैं उस के आंसू पोंछती रही, दिलासा देती रही. थोड़ी शांत हुई तो मैं ने पूछा, ‘‘शुभेंदु कहां थे उस दिन?’’

पति की बात चलते ही उस के चेहरे से भावुकता के भाव एकदम लोप हो गए. पहले से धीमी आवाज को और दबा कर तटस्थ भाव से बोली, ‘‘एक इंटरव्यू के सिलसिले में वरसोवा गए थे. वसु आजकल मार्केट का बुरा हाल है. कामना कर उन्हें नौकरी मिल जाए. अभी तक हम 2 थे. अब साइना और विराम भी आ गए हैं. दिन ब दिन खर्चे बढ़ेंगे. पहले स्कूल, फिर कालेज… फिर शादी.’’

‘‘अरे, इतनी दूर कहां पहुंच गई तू बसु? शुभेंदु उच्च शिक्षित हैं, अनुभवी भी. उन्हें जौब मिल जाएगी.’’

हम बातें कर ही रहे थे कि शुभेंदु हाथ में गरमगरम समोसे की प्लेटें और कलाकंद का डब्बा हाथ में ले कर हाजिर हुए. उन्होंने फरमाइश की, ‘‘वसुधाजी, आप को दूरदर्शन और आकाशवाणी पर बहुत सुना है. आप यहां भी कुछ सुनाइए. खुशी का मौका है?’’

‘‘अभी यहां? न हारमोनियम, न तानपुरा…’’ मैं ने कहा.

‘‘तो क्या हुआ… तभी तो तुम्हारी आवाज अपने असली रूप में आएगी.’’

असली शब्द मेरे मस्तिष्क दिमाग में लगातार वर्षा की बूंदों की तरह टपटप कर उठा था. मनु ने एक बार कहा था कि असलियत क्या है वसु. तुझे इस का एहसास भी नहीं हो सकता.’’

मनु ने भी आग्रह किया तो मैं मना नहीं कर सकी. आंखें बंद कर के एक ठुमरी शुरू कर दी. कमरे में सिर्फ मेरी आवाज थी. उन दोनों की सांसों की भी कोई आवाज वातावरण में नहीं थी. गाना खत्म होने पर शुभेंदु वाहवाह कर उठे थे. अचानक उठ कर उन्होंने मुझे आलिंगन में ले लिया और गालों पर हलका सा एक चुंबन भी अंकित कर दिया. मैं हैरान रह गई. पर उसी समय मनु ने भी शुभेंदु की नकल कर दी. उन की दृष्टि में बात सामान्य हो गई. पर उसी समय मेरे अंतस में एक फांस सी चुभ गई शुभेंदु के प्रति, उन के व्यवहार के प्रति, चरित्र के प्रति.

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कुछ दिनों से मैं महसूस कर रही थी कि मनु जरूरत की चीजें खरीदने के लिए भी अपने हाथ रोक लेती, यहां तक कि बच्चों के खिलौने और कपड़ों की शौपिंग तक भी टाल जाती.

उन दिनों ‘बेबी केयर’ में सेल लगी थी. मैं ने उसे अपने साथ चलने के लिए कहा. सोचा, इसी बहाने से विराम और साइना के लिए कुछ खरीद लूंगी. मनु भी शौपिंग कर लेगी. बच्चों को मैं ने कुछ भी नहीं दिया था.

शुभेंदु नहीं मानेंगे, वह साफ टाल गई.

‘‘पर तू खुद भी तो कमाती है मनु? एटीएम से पैसे निकाल और अपनी मरजी का कुछ भी खरीद ले.’’

‘‘मेरे सारे कार्ड उन के पास हैं. उन से पूछे बिना मैं एक रूमाल तक नहीं खरीदती.’’

‘‘क्यों, मना करते हैं क्या?’’

‘‘नहीं, मुझे लगता है, इस से उन के अहं को संतुष्टि मिलती है.’’

जैसेजैसे शादी की तारीख निकट

आती जा रही थी मेरी मसरूफियत भी बढ़ती जा रही थी. शादी के बाद मैं पलाश के साथ कैलिफोर्निया शिफ्ट होने वाली थी. मां और भाभी मेहमानों की आवभगत की तैयारी में जुटी थीं. कार्डों को छपवाने और बंटवाने का जिम्मा मुझ पर और भैया पर था.

समय कम था, इसलिए अपने निकटस्थ मित्रों, परिजनों को छोड़ कर औरों को औनलाइन कार्ड भेज दिए. मनु से मिले हुए काफी दिन हो गए थे. प्रोजैक्ट के सिलसिले में मुझे 2 दिन के लिए मुंबई भी जाना था. सोचा उन सब से मिलती हुई, कार्ड देती मैं एअरपोर्ट निकल जाऊंगी.

जब घर पहुंची तो मनु अपने कमरे में लेटी थी. उसे तेज बुखार था. बच्चे सो रहे थे. शुभेंदु, ड्राइंगरूम में टीवी देख रहे थे.

मेरा लैपटौप बैग देख कर बोले, ‘‘कहां जाने की तैयारी है?’’

‘‘मुंबई जाना है, उस के बाद 20 दिन का अवकाश,’’ मैं अपने ही खयालों में खोई हुई थी.

‘‘मैं कौफी लाता हूं.’’

‘‘आप बैठिए. मैं बढि़या कौफी बनाती हूं. कह में किचन में चली गई.’’

मैं किचन में जा कर कौफी घोट रही थी कि शुभेंदु ने पीछे से आ कर मुझे अपनी बांहों में घेर लिया. कप और चम्मच हाथ में लिए मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में ले कर बोले, ‘‘ऐसे नहीं, ऐसे घोटी जाती है कौफी.’’

उन के मजाक को पूर्णतया हंसी में उड़ा कर उन की बांहों के नीचे से मैं बाहर निकल आई. लेकिन यह शुभेंदु का मजाक नहीं था. उन की आंखों में पहली बार मैं ने कुछ देखा था, जो एक मित्र की आंखों में नहीं, एक पुरुष का स्त्री को देख कर उपजता है.

‘‘शुभेंदु बिहेव योर सैल्फ,’’ मैं उन का बड़प्पन भूल गई. उन के लिए मेरे मन में जो आदरसम्मान की भावना थी वह धुएं की तरह उड़ गई. उस की जगह घृणा पनप उठी. मैं चीख पड़ी, ‘‘मैं सब मनु को बताऊंगी.’’

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लेकिन शुभेंदु ढीठता से हंस रहे थे. मैं अपने मन की उथलपुथल से पिस रही थी. क्या करूं? मनु को सब बता दूं? सुन कर वह सहन भी कर सकेगी. पता नहीं उस की प्रतिक्रिया कैसी होगी. एक अच्छी मित्रता के टूटने का अवसाद दिल पर भारी पड़ने लगा था.

आगे पढें- मनु सब जानती थी. वह…

Serial Story: आखिर कब तक (भाग-3)

मगर मनु सब जानती थी. वह यह भी जानती थी कि शुभेंदु वरसोवा में किसी कंसलटैंट से नहीं, रूपा नाम की एक टीचर से मिलने जाते हैं.

‘‘मैं उन की पत्नी हूं. उन को बाहर और भीतर से जानती हूं. मैं ने तुझ से कहा तो था. वास्तविकता क्या है. तुझे इस का एहसास भी नहीं हो सकता.’’

‘‘पर मनु, तू ऐसी दोहरी जिंदगी कैसे जी लेती है, मैं समझ नहीं पा रही हूं,’’ सबकुछ जानते हुए उस जहर को अपने गले से कैसे उतार रही है.’’

‘‘वसु ये मजबूरियां… औरत के लिए 2 ही रास्ते हैं, या तो चुप रह कर घर की शांति हर कीमत पर खरीदती रहे या फिर काट ले खुद को इन सब से. पर वह अकेले जी भी कहां पाती है?’’

‘‘मैं तो नहीं मानती… तू पढ़ीलिखी है. आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी है. छोड़ दे शुभेंदु को.’’

‘‘और अपने बच्चों को उसी वंचित बचपन की तृष्णा भुगतने दूं, जो मैं ने भुगती थी? वसु चिडि़या भी अपने बच्चों की देखभाल तब तक करती है जब तक ये उड़ना नहीं सीख जाते. मेरे मातापिता ने तो आज तक मेरी सुध ही नहीं ली. जिस उम्र में लड़कियां गुड्डेगुडि़यों के ब्याह रचाती हैं, मैं ने उस उम्र में दरदर की ठोकरें खाई हैं. कई बार मन विचलित हुआ था. यदि मुझे पाल नहीं सकते थे तो जन्म ही क्यों दिया था? नहींनहीं… मैं शुभेंदु से कभी तलाक नहीं लूंगी… मैं ने अपनी नियति से समझौता कर लिया है.’’

कैलिफोर्निया में बराबर उस के मेल मिलते रहते थे मुझे. कई बार फोन पर भी बात हुई, लेकिन शुभेंदु से तलाक लेने की बात उस ने कभी नहीं की. फिर ऐसा क्या घटा जो वज्र जैसी छाती को चीर गया. बच्चों की खातिर कराहते वैवाहिक बंधन का निर्वहन करने का दम भरने वाली मनु स्वयं कैसा कठोर निर्णय ले बैठी? क्या पतिपत्नी का जुड़ाव नासूर बन कर ऐसी लहूलुहान पीड़ा दे गया कि अब दूसरा कोई विकल्प ही नहीं रह गया था.

अचानक टैक्सी रुकने की आवाज ने मुझे ऊहापोह की यात्रा से लौट आने के लिए विवश कर दिया. मेल पर भेजे पते को खोजती हुई मैं सही स्थान पर पहुंच गई थी.

दिल्ली के एक पौश इलाके में स्थित बहुमंजिला इमारत में उस का सुंदर सा फ्लैट था. घर की सजावट देख कर लगा उस के पास जीविका के सभी साधन हैं. किसी की दया की मुहताज नहीं है वह. टेबल पर लगे फाइलों के ढेर, बारबार बजती फोन की घंटी उस की मसरूफियत के साफ परिचायक थे.

कुछ ही देर में मनु मेरे सामने थी. उसे आलिंगन में ले कर उस के माथे को चूम लिया मैं ने… उस की आंखों से आंसू बहने लगे. आंसू दांपत्य की टूटन और उस से उत्पन्न हताशा के सूचक थे या किसी अपने करीबी से मिलने की खुशी में तनमन भिगो गए थे, नहीं जान पाई थी. 20 साल के इस अंतराल में बहुत कुछ दरक गया था. सबकुछ पूछने ही तो आई थी उस के पास.

काफी समय इधरउधर की बातों में ही निकल गया. कभी वह पलाश के बारे में पूछती कभी मेरे बेटे सुहास के विषय में. मैं कनखियों से उस के दिव्यरूप को निहार रही थी. वही गौर वर्ण, मृगनयनी सी आंखें… कुल मिला कर अभी भी किसी पुरुष को आकर्षित कर सकती थी. वही मृदुभाषिता, वही सौम्य व्यवहार कुछ भी तो नहीं बदला था. उस की मांग का सिंदूर, कलाइयों में खनकती लाल चूडि़यां और माथे पर लाल बिंदिया देख कर मन शंकित हो उठा था. ये निशानियां तो पति के वजूद की सूचक हैं. फिर मेल.

मुझे अपने प्रश्नों के उत्तर तलाशने में ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा. उस का शांत चेहरा सहसा कठोर हो गया. होंठों पर जबरन बनावटी मुसकान बिखेरती मनु धीमे स्वर में बोली, ‘‘वसु, बचपन में एक पोंगा पंडित की कहानी पढ़ी थी, जिस ने वरदान के महत्त्व को न समझ कर उसे व्यर्थ ही खो दिया था. कहानी का अंत कुछ इस प्रकार से था कि दान सदा सुपात्र को ही देना चाहिए. वरना देने वाले और पाने वाले दोनों का ही कल्याण नहीं होता.’’

‘‘लेकिन, यहां इस कहानी का क्या मतलब है?’’

‘‘शुभेंदु वह पात्र नहीं था, जो मेरे प्रेम, समर्पण, त्याग और निष्ठा को समझ पाता.’’

‘‘लेकिन, तूने तो उसे मन से अपनाया था.’’

‘‘लोग तो पत्थर को पूजते हैं. लेकिन मैं ने जीतेजागते इंसान को पूजा था. समझ में नहीं आता, ऐसी क्या कमी रह गई मेरी पूजा में, जो जीताजागता इंसान पत्थर निकला,’’ वह आंखों से शून्य में ताकती रही.

‘‘जाने दे मनु, जो तेरे योग्य ही नहीं था उसे खोने का दुख क्यों?’’

मैं ने उसे सांत्वना देने के लिए कहा. मगर वह अपने में ही खोई बोलती रही. ‘‘शुभेंदु ने कभी पैसा नहीं कमाया. मैं चुप रही. मेरे शरीर को जागीर समझ कर पीड़ा दी. मैं अपने होंठ सिले रही. मेरी कमाई को अपनी रखैल पर लुटाते रहे. मैं ने उफ तक नहीं की कि लोगों को अगर भनक भी लग गई कि लड़की का पिता बदचलन है, तो साइना की शादी में अड़चन पड़ेगी.

‘‘विराम और साइना पिता के संबंध में कई प्रश्न पूछते. उन के अनर्गल वाक्यों के मर्म को समझने की चेष्टा करते. मैं बड़ी ही सतर्कता से उत्तर देती उन के प्रश्नों के. उन के मन में मैं ने पिता का ऐसा रूप साकार किया कि आदरणीय हो उठे थे उन के मन में. शायद कोई भी महिला अपने पति का अनादर अपने बेटी या बेटे से नहीं करवाना चाहती.

‘‘कई संभ्रांत परिवारों से मुझे आमंत्रण मिलते. आखिर मेरा भी कोई वजूद है और फिर प्रतिष्ठा, मान, यश, धन सबकुछ तो था मेरे पास. लेकिन जी नहीं करता था कहीं जाने का. लोग पति से संबंधित प्रश्न पूछते, तो क्या उत्तर देती उन्हें? मेरा पति, मुफ्त की रोटियां तोड़ने वाला एक आलसी पुरुष है या एक शक्की, क्रोधी, चरित्रहीन व्यक्ति के रूप में परिचय देती.

‘‘एक कुशल योद्धा की तरह मैं ने हर कर्त्तव्य का पालन किया और फिर मैं ने तो एक सभ्य, सुसंस्कृत और शिक्षित व्यक्ति से ब्याह किया था और उस ने असभ्यता की हर सीमा का उल्लंघन किया. मेरी अनमोल धरोहर मेरे बच्चों तक को छल से मुझ से दूर कर दिया.

‘‘शुभेंदु के मन में मेरे लिए घृणा थी, प्यार नहीं, नीचा दिखाने की चाहत थी. एकतरफा संबंध था हमारा. संबंध भी नहीं समझौता कहो इसे?’’

‘‘आजकल शुभेंदु कहां है?’’

‘‘कुछ दिन पहले तक तो रूपा के घर पर ही था. बच्चे सिंगापुर चले गए तो उस की रहीसही शर्म और मर्यादा भी समाप्त हो गई. रूपा की मौत के बाद वह आया था मेरे पास. मेरे पैर पकड़ कर बोला कि तुम मेरे अंधेरे जीवन की चांदनी हो. एक ऐसी चांदनी, जो सीखचों में कैद रही. अब तुम मेरे जीवन को अपनी चांदनी से नहला कर मेरे गुनाह माफ कर दो.’’

‘‘मैं चुप रही तो, शुभेंदु ने फिर से हाथ जोड़ कर विनती की कि इस बुढ़ापे के प्रभात में तुम्हें छोड़ कर मेरा अब कोईर् सहारा नहीं. आंखों की रोशनी कम हो गई है. अंधा हो जाऊंगा.

‘‘तब मैं ने कहा कि शुभेंदु, संध्या के धूमिल पहर में कोई सवेरे का वरदान मांगे, तो यह उस की भूल है. तुम्हें बहुत देर से होश आया है. मुझे इन रंगीन और झूठी बातों से बहुत दूर रहना है समझे. मुझे बहकाना बंद करो. मेरी आंखों की पट्टी खुल चुकी है.’’

मनु की तरह ऐसी कई औरतें हैं, जो समय रहते गलत बात का विरोध नहीं कर पातीं. पता नहीं क्यों? शायद मन में छिपा डर कोई कदम उठाते समय फैल कर उन की शक्ति को कम कर देता है या फिर संस्कारगत दब्बूपना जागृत हो कर उस की समग्र सोचनेसमझने की ताकत कम कर देता है. काश, मनु ने भी इस सच को समझा होता तो आने वाली कई समस्याओं से छुटकारा पा लेती.

मनु के स्वर में छिपी पीड़ा मुझे गहरे तक कचोट गई. तेज डग भरती, मन ही मन कामना करती मैं उठ खड़ी हुई कि सुखद हो इस आत्मविश्वासी नारी की एकाकी यात्रा.

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REVIEW: चेहरे पर मुस्कान लाने के साथ गुदगुदाती है “गुल्लक सीजन 2”

रेटिंग: 4 स्टार

निर्माता: अरुणाभ कुमार, टीवीएफ क्रिएशंस

निर्देशक: पलाश वासवानी

कलाकार: जमील खान, गीतांजलि कुलकर्णी, हर्ष मयार, वैभव राज गुप्ता,साद बिलग्रामी, दीपक कुमार मिश्रा, अभिषेक झा, कीर्ति सिंहा, शिवांगी भदोरिया, शिवांगी जय पवार, संघ रत्ना , सुनीता राजभर व अन्य

अवधि: 30 से 42 मिनट के 5 एपिसोड

ओटीटी प्लेटफॉर्म: सोनी लिव

मध्यम वर्गीय परिवारों की रोजमर्रा की जिंदगी में तमाम छोटे-मोटे वाकिया ऐसे होते हैं , जिन्हें देखकर लोगों के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है. तो वहीं यह कहीं ना कहीं मध्यम वर्गीय परिवारों की पीड़ा को भी चित्रित करते हैं. ऐसी ही एक वेब सीरीज निर्देशक पलाश वासवानी लेकर आए हैं जिसका नाम है “गुल्लक सीजन 2.”

यह सीरीज मिश्रा परिवार के अपूर्ण रिश्तों और आकांक्षाओं की पड़ताल करती है. फिल्मकार ने कथाकथन के लिए अपरंपरागत शैली में उनके जीवन के किस्सों का उपयोग किया है.

कहानी:

कहानी है बिजली विभाग में कार्यरत संतोष मिश्रा( जमील खान)के परिवार की. संतोष मिश्रा के परिवार में उनकी पत्नी (गीतांजलि कुलकर्णी) के अलावा बड़ा बेटा अनु मिश्रा(वैभव राजपुरोहित) और छोटा बेटा अमन मिश्रा(हर्ष मयार) है .अनु मिश्रा पढ़ाई में फिसड्डी हैं और शादी की उम्र हो जाने पर भी बेरोजगार हैं .जबकि अमन मिश्रा हाई स्कूल की परीक्षा देने की तैयारी कर रहे हैं. हर एपिसोड में अलग-अलग घटनाक्रम हैं. मसलन, पहले एपिसोड में परिवार की जरूरतों को देखते हुए अनु मिश्रा की सलाह पर उनके पिता संतोष मिश्रा सुविधा शुल्क यानी की घूस लेने का निर्णय लेते हैं, मगर फिर विचार बदल जाता है. दूसरे एपिसोड में किटी पार्टी का मसला है, कैसे किटी पार्टी के समय परिवार के सभी पुरुष शांति मिश्रा की मदद करते हैं. एपिसोड 3 में शादी के निमंत्रण पत्र के इर्द गिर्द कहानी घूमती है. चौथे एपिसोड में अमन की परीक्षा है और तो दूसरी तरफ क्रिकेट मैच. अमन क्रिकेट के शौकीन है. पांचवा एपिसोड बहुत ही ज्यादा इमोशनल है. इसमें अनु मिश्रा को उम्मीद होती है कि वह गैस एजेंसी पा जाएगा, पर ऐसा नहीं हो पाता है और उम्मीद के विपरीत अमन मिश्रा अच्छे नंबरों से हाई स्कूल की परीक्षा में पास होता है.स्कूल की तरफ से उसकी तस्वीरें खींच कर पोस्टर बनाए जाते हैं. और तब जिस तरह से अनु और अमन के बीच एकजुट होने की बात नजर आती है और कैसे पूरा परिवार एकजुट होता है कमाल की कहानी है.

लेखन व निर्देशन:

यह मध्यम वर्गीय परिवार अपने जीवन को बेहतर बनाने का प्रयास करते हुए एकजुट रहता है है .इसमें गुदगुदी भी हैं. चीखना चिल्लाना भी है. पर दिन की समाप्ति तक एक दूसरे के साथ हो जाते हैं. मां का प्यार भी व्यंग में डूबा हुआ है, लोग समझते हैं कि मां की झुनझुनाहट में भी बेपनाह मोहब्बत मिलती है . सीरीज में जीवन मूल्य भी हैं. तो वहीं नए मोबाइल फोन और डियो परफ्यूम की चाहत भी है. प्यार ,भावनाएं पुरानी यादें सब कुछ बहुत ही अच्छी तरीके से निर्देशक ने पिरोया है .कहीं कोई बनावट नहीं है. वेब सीरीज देखते हुए लगता है कि जैसे कि यह हमारे अपने घर की कहानी है.

निर्देशक पलाश वासवानी बधाई के पात्र हैं .उन्होंने भावनाओं को खुलकर उभरने का मौका दिया है, तो वहीं इस बात का भी ध्यान रखा है कि नाटकीयता जरूरत से ज्यादा ना हो ने पाए. हर एपिसोड के कुछ पल दर्शकों के साथ रह जाते हैं.

अभिनय

परिवार के सभी कलाकारों के बीच अभिनय की जुगलबंदी कमाल की है .पत्नी वह मां के रूप में गीतांजलि कुलकर्णी अद्भुत धूरी बनाती है. वह पति व बच्चों को समान ऊर्जा प्रदान करती हैं, ताकि अपना सर्वश्रेष्ठ दे सकें .उन्हें पर्दे पर देखकर दर्शकों को भी लगता है कि एक पत्नी और एक मां ऐसी ही होनी चाहिए. पापा के किरदार में जमील खान ने भी कमाल का अभिनय किया है. वहीं वैभव राज गुप्ता भावनाओं की रेंज को उकेरने में सक्षम रहे हैं. उनकी कॉमिक टाइमिंग भी कमाल की है. हर्ष मयार का सपाट चेहरा अमन के किरदार को उकेरने में हथियार के रूप में काम करता है. सभी कलाकारों ने अपने अपने किरदारों को बाखूबी जिया है. वहीं गुदगुदी लाने के लिए सुनीता राजभर ने कमाल का अभिनय किया है.

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