निशुल्‍क शिक्षा देकर बच्‍चों के भविष्‍य को रोशन कर रहीं हैं गरिमा सिंह

जीवन में असली उड़ान अभी बाकी है,

हमारे इरादों का इम्तिहान अभी बाकी है,

अभी तो नापी है बस मुट्ठी भर जमीन,

अभी तो सारा आसमान बाकी है…

ये पक्तियां भारतीय प्रशासनिक सेवा से जुड़े अधिकारी शिशिर सिंह की पत्‍नी गरिमा सिंह पर एकदम सटीक बैठती हैं. जरूरतमंद परिवारों की सेवा और उनके बच्‍चों को शिक्षा की मुख्‍यधारा से जोड़ने का काम कर रही गरिमा सिंह गाजीपुर की रहने वाली हैं. महज 21 साल में शादी के गठबंधन में बंधने के बाद इन्‍होंने अपनी लगन, मेहनत और पति के सहयोग से स्‍नातक के आगे की पढ़ाई को जारी रखा. शादी के बाद स्‍नातकोत्‍तर, बीएड और पीएचडी कर परिवार के साथ समाज की सेवा के लिए जमीनी स्‍तर पर काम शुरू किया. वर्तमान में गरीब बच्‍चों को निशुल्‍क शिक्षा देने संग पर्यावरण व गौ सेवा के कार्यों को कर अपनी सकारात्‍मक सहभागिता समाज में दर्ज करा रही हैं. पेश है उनसे बातचीत के कुछ अंश.

लगभग 200 जरूरतमंद बच्‍चों को दे रहीं निशुल्‍क शिक्षा

बच्‍चों को निशुल्‍क शिक्षा देने का काम मैं 2002 से कर रही हूं. जब मैं लखनऊ आई तो मैंने ग्रामीण क्षेत्रों के बच्‍चों और झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले बच्‍चों को शिक्षा की मुख्‍याधारा से जोड़ने का काम किया. सीतापुर से शुरू हुए इस सिलसिले में मैंने अपनी टीम संग गांव-गांव जाकर लोगों को बच्‍चों की शिक्षा के प्रति जागरूक किया. जिसके बाद गांव के गरीब परिवारों के लोग अपने बच्‍चों का दाखिला प्राथमिक स्‍कूलों में कराने लगे. अपनी टीम के संग नेवादा में एक स्‍कूल खोला जिसमें गांव के सभी बच्‍चों को निशुल्‍क शिक्षा दी जा रही है. हमारी टीम के जरिए लगभग 250 बच्‍चों को निशुल्‍क शिक्षा मिल रही है. मेरा मानना है कि शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है जिसको आप दुनिया बदलने के लिए इस्‍तेमाल कर सकते हैं.

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लखनऊ में शुरू करूंगी चलता-फिरता स्‍कूल

मजदूर वर्ग के बच्‍चों को शिक्षा के क्षेत्र में प्रोत्‍साहित करने के लिए  लखनऊ में चलता-फिरता स्‍कूल शुरू करने का मेरा सपना है जिसके जरिए गरीब और मेहनतकश लोगों के बच्‍चों के पंखों में रंग भर सकूं ताकि वो आसमान में ऊंची उड़ान भर सकें. इसके लिए मैं तीन सालों के भीतर राजधानी में चलते फिरते स्‍कूल की सेवा शुरू करने के लिए प्रयासरत हूं. इस सेवा से मजदूर वर्ग के बच्‍चों को दो से चार घंटे तक आस-पास के क्षेत्र में शिक्षा दी जाएगी.

प्रकृति से है मुझे बेहद लगाव

मुझे प्रकृति से बेहद लगाव है. मैंने अपने घर में 600 गमलों में अलग अलग तरह के कई पौधे लगाए हैं. इसके साथ ही खुद से तैयार बोनसाई को घर में लगाया है. पर्यावरण बचाने के लिए सभी को आगे आना चाहिए. ताकि हमारे आस पास का वातावरण सुन्‍दर हो और हम सब स्‍वस्‍थ्‍य रह सकें.

मेरा परिवार मेरी प्राथमिकता

किसी भी महिला के लिए उसका परिवार ही सब कुछ होता है. घर की पूरी जिम्‍मेदारियों संग रिश्‍तों को सहेजना और सामाजिक सेवा के ध्‍येय को पूरा करना आसान नहीं था पर परिवार के सहयोग से मैंने दोनों में ही संतुलन बनाकर काम किया. आज मैं दोनों बेटों की परवरिश संग जिम्‍मेदारियों को निभाते हुए सामाजिक सेवा के लिए रोजाना पांच घंटे निकाल लेती हूं.

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स्‍व सुषमा स्‍वराज जी हैं मेरी आदर्श

मेरी आदर्श स्‍व सुषमा स्‍वराज जी हैं. भारतीय राजनीति में सुषमा स्वराज एक ऐसा नाम था, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता. हाजिर जवाब, अपनी रणनीति और लोगों की मदद के लिए हमेशा खड़ी रहने वाली सुषमा जी ने संस्‍कृति और संस्‍कारों को सहेज देश विदेश में भारतीय नारी का परचम लहराया. सिन्‍दूर से भरी मांग और पारंपरिक परिधान में हमेशा नजर आने वाली सुषमा जी ने देश को गौरव की पगड़ी पहनाकर महिलाओं व बेटियों के सामने नजीर पेश की.

संस्‍कार हैं बिन्‍दी तो बेटियों के लिए शिक्षा है गहना

आप अगर एक बेटे को शिक्षित करते हैं तो आप सिर्फ एक बेटे को शिक्षित करते हैं पर अगर आप एक बेटी को शिक्षित करते हैं तो आप एक पूरी पीढ़ी को शिक्षित करते हैं. मेरा मानना है कि आज बेटियों की शिक्षा को लेकर समाज की सोच में काफी बदलाव आया है. आज शिक्षा से लेकर खेल, व्‍यापार जगत से लेकर राजनीति जगत तक महिलाओं ने खुद को साबित किया है. अगर संस्‍कार बेटियों के माथे की बिन्‍दी है तो शिक्षा उनका गहना है.

रोजाना करती हूं योग

भागदौड़ भरी जिन्‍दगी में आज तनाव को दूर करने के लिए मैं योग को बेहद जरूरी मानती हूं. मैं रोजाना योग करती हूं. अध्‍यात्‍म और योग से सकारात्‍मक ऊर्जा मिलती है और आज जब चारों ओर नकारात्‍मकता है तो ऐसे में खुद को शांत वातावरण देने के लिए योग और अध्‍यात्‍म से अच्‍छा कुछ नहीं हैं.

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1999 से कर रही हूं गौ सेवा

गायों की सेवा मैं साल 1999 से कर रही हूं मेरे पापा के घर में 25 गाय हैं जिनकी सेवा हम सब करते हैं. सीतापुर में मेरी बहन की एक गौशाला है जिसमें 200 गाय हैं. मुझे गौ मां की सेवा कर शान्ति मिलती है. इसके साथ ही गौशाला में जरूरतमंद परिवारों को जोड़ उनको रोजगार की मुख्‍यधारा से जोड़ने का काम कर रही हूं.

मेरे पति ने हर मोड़ पर दिया मेरा साथ

गरिमा बताती हैं कि मेरे पति ने मेरी पढ़ाई को पूरा कराने के साथ मेरे सपनों को साकार करने में मेरी मदद की. बीए थर्ड ईयर में शादी होने से आगे की पढ़ाई मेरे लिए एक सपना सा लगती थी पर मेरे पति ने मेरी पढ़ाई को पूरा कराने में मेरा सहयोग किया. मुझे बीएड और पीएचडी कराने मे पूरा योगदान उन्‍ही का ही है.

जीवन में संतुलन की है अहम भूमिका

मेरा मानना है कि कोई काम अगर आप ठान लें तो वो आपकी हिम्‍मत, मेहनत व संतुलन से पूरा हो जाता है. जीवन में संतुलन की भूमिका अहम है. परिवार हो या फिर बाहरी दुनिया अगर आपने दोनों में संतुलन बनाकर काम करना सीख लिया तो जीवन आसान हो जाता है.

शारीरिक तौर पर नहीं हैं महिलाएं कमजोर

हजारों वर्षों से दुनिया समाज में एक रूढ़िवादी अवधारणा अपनी जड़ जमाए हुए है, जो कहती है, ‘पौराणिक समय से ही भगवान व प्रकृति ने महिला और पुरुष के बीच भेद किया है. इस वजह से पुरुष का काम अलग और महिलाओं का काम अलग है.’

यह धारणा हमेशा कहती रही, ‘आदिम समाज को जब भी खाना जुटाने जैसा कठोर काम करना पड़ा, चाहे वह पुराने समय में शिकार करना हो या आज के समय में बाहर निकल कर परिवार के लिए पैसा जुटाना हो, पुरुष ही इस का जुगाड़ करने के काबिल रहे हैं और महिलाओं की शारीरिक दुर्बलता के कारण उन के हिस्से घर के हलके काम आए हैं.’

इस लैंगिक भेद में महिलाओं का बाहर निकल कर काम न करने का एक बड़ा तर्क उन की शारीरिक दुर्बलता को बताया गया. उन के शारीरिक ढांचे की बनावट को पुरुषों के मुकाबले कमजोर और अशुद्ध बताया गया. यही कारण भी रहा कि एक लंबे इतिहास तक महिलाओं के पैरों को घर में लगी दीवारों की जंजीरों से बांध दिया गया. उन पर कई तरह की रोकटोक लगाई गई. इस बात का एहसास उन्हें करवाया गया कि आप पुरुषों के मुकाबले शारीरिक तौर पर दुर्बल हैं. आप बाहर का काम करने के योग्य नहीं हैं, और परिवार का भरणपोषण नहीं कर सकती हैं.

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यही वजह रही कि आज लिंग आधारित असमानता पर दुनियाभर में एक बहस खड़ी हुई. इस बहस में एक बड़ा हिस्सा महिलाओं की शारीरिक दुर्बलता का भी रहा. हाल ही में इसी बहस के बीच वैज्ञानिकों ने दक्षिणी अमेरिका के एंडीज पर्वतमाला में 9000 साल पुराने एक ऐसे स्थान का पता लगाया है, जहां महिला शिकारियों को दफनाया जाता था. इस खोज से लंबे समय से चली आ रही इस पुरुष प्रधान अवधारणा को चुनौती मिली है.

कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से जुड़े और इस शोध के प्रमुख वैज्ञानिक रैंडी हास ने कहा, ‘पुरातन काल में दफनाने की प्रक्रिया की एक यह पुरातात्विक खोज और विश्लेषण से सिर्फ पुरुषों के ही शिकारी होने की अवधारणा को खारिज करती है.’

इस खोज में यह बात पुख्ता हुई कि प्राचीन समय में पुरुषों की ही तरह महिलाएं भी बाहर निकल कर शिकार किया करती थीं. उस समय बाहर निकल कर शिकार करना पूरी तरह से श्रम आधारित था, ना कि लिंग आधारित.

2018 में पेरू के पहाड़ों की ऊंचाइयों पर पुरातात्विक उत्खनन के दौरान शोधकर्ताओं ने दफनाने को ले कर एक पुराने शिकारियों को दफनाने के लिए एक पुराने स्थान की खोज की थी. यहां पर शिकार करने और जानवरों को काटने के नुकीले औजार मिले थे. उसी जगह पर 9000 वर्षों से दफन मानव कंकाल भी बरामद हुए, जिन की हड्डियों और दांतों के विश्लेषण से पता चल सका कि वह किसी महिला के कंकाल थे.

उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका में मिले ऐसे 107 प्राचीन स्थानों के परीक्षण से शोधकर्ताओं ने 429 कंकालों की पहचान की. इन में से वैज्ञानिकों ने बताया कि कुल 27 शिकारी कंकाल थे, जिन में 11 महिलाएं और 16 पुरुष थे.

कंकालों और वैज्ञानिकों द्वारा किए शोध में इस बात को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त थे कि प्राचीन समय में महिलाएं भी शिकार किया करती थीं. इन मिले कंकालों में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का अनुपात लगभग बराबर का रहा है.

वैज्ञानिकों का इस आधार पर कहना रहा है कि उस समय के दौरान बराबर अनुपात में महिला व पुरुष शिकार करते रहे. महिलाओं के शिकार में शामिल होने की यह हिस्सेदारी लगभग 30-50 प्रतिशत तक थी.

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उत्खनन में मिले कंकालों के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसी कोई रोकटोक (प्राकृतिक या देवीय) महिलाओं को उस समय नहीं थी, जिस से कहा जाए कि उन के बीच वर्क डिवीजन रहा हो.

इस शोध के माने

यह शोध लैंगिक समानता की दिशा में बहुत महत्व रखता है. इस की एक बड़ी वजह पुराने समय से छिड़ी लगातार महिला और पुरुष के बीच काम के बंटवारे को ले कर बहस का होना है.

इस शोध में जो महत्वपूर्ण बात सामने उठ कर आई है, वह यह कि उस दौरान महिलाओं का खुद पर पूरी तरह आत्मनिर्भरता होना था. अपने निर्णय वे अपने अनुसार लेती थीं. किसी महिला का शिकारी होना अपनेआप में यह निर्धारित करता है कि वह अपने कुनबे अथवा परिवार के लिए कामगारू थी. अपने बच्चों का पेट वह खुद पाल सकती थी, उसे किसी पुरुष के कंधों की निर्भरता की आवश्यकता नहीं थी. इस तौर पर शिकार में एकत्र किए गए मांस का वितरण किस तरीके से करना है, कितना करना है और किसे करना है, यह सारे निर्णय महिलाओं के ही होते थे.

जाहिर सी बात है, जो कुनबे का पेट पाल रहा है, वह कुनबे पर अपना आधिपत्य भी जमाने का अधिकार रखता है, ऐसे में वह समाज जहां महिला और पुरुष समान तौर पर परिवार का भरणपोषण कर रहे हों, वहां संभवतः दोनों के अधिकार समान होंगे.

शिकारी होने का एक अर्थ यह भी है कि उन महिलाओं के पास अपनी खुद की सुरक्षा के हथियार मौजूद थे. ये हथियार न सिर्फ उन्हें सुरक्षा प्रदान करते थे, बल्कि यह उन के बहुमूल्य संसाधनों में से भी थे.

महिलाओं के पास संसाधन का होना कई बातें बयान करता है, जिस पुरुष समाज में महिला को संपत्ति रखने का अधिकार ना रहा हो, बल्कि उस समाज में महिलाओं को ही मात्र संपत्ति माना गया. ऐसे में एक ऐसा समाज, जहां महिलाओं के पास संपत्ति के तौर पर हथियार का होना बहुत बड़ी बात है.
इसी तौर पर वह जरूरी तर्क, जो पुरुष समाज हमेशा महिलाओं के खिलाफ इस्तेमाल करते आए कि महिलाएं शारीरिक तौर पर दुर्बल अथवा कमजोर होती हैं, इस कारण वे बाहर के काम करने योग्य नहीं हैं, को इस शोध ने गहरी चोट पहुंचाई है.

शिकार करने जैसे काम में शारीरिक चपलता, ताकत और हिम्मत न सिर्फ महिलाओं में थी, बल्कि वह पुरुषों से इस मामले में कहीं भी कम नहीं थीं. ऐसे में सवाल उठता है कि जब पुराने समय में महिलाएं शारीरिक तौर पर पुरुषों के बराबर थीं तो उन की आज यह विपरीत कमजोर वाली छवि समाज में कैसे कायम हुई?

धर्म की पाबंदियां

दुनिया में कई भौतिकवादी इतिहासकारों ने महिलाओं पर पुरुषों की अधीनता को ले कर कई शोध पहले भी किए. इस में उन्होंने बताया कि आदियुग में ऐसे कबीलाई समाज का वजूद रहा, जहां महिलाएं हर चीज को ले कर उन्मुक्त थीं. लेकिन इन शोधों के खिलाफ सब से ज्यादा तीखा और प्रत्यक्ष हमला जिन लोगों द्वारा किया गया, वे धर्मकर्म से जुड़े वे रूढ़िवादी लोग रहे, जिन के अनुसार दुनिया भगवान ने बनाई, और इस दुनिया को तमाम मौजूद महिलाओं की प्रकृति को कमजोर और पुरुषों की प्रकृति को मजबूत के तौर पर संतुलित किया गया. इसीलिए पुरुष को प्रोटैक्टर और महिला को अबला का दर्जा दिया गया.

इसे पूरी तरह से महिलाओं के दिमाग में सहमति उगलवाने के लिए हर धर्म में उन कथाओं, ग्रंथों को आधार बनाया जाने लगा, जो महिला को आदर्श नारी या पतिव्रता बनने के लिए लगातार उकसाते रहे. महिला का पतिव्रता बने रहना मात्र अपने वंश की शुद्धी के लिए ही नहीं, बल्कि दूसरी जाति के लोगों के साथ संबंध न बन पाए, उस के लिए जरूरी माना जाने लगा.

हिंदू समाज के शास्त्रों, पुराणों, रामायण, महाभारत, गीता, वेदों और इन से संबंधित कहानी, कथाओं में सामूहिक तौर पर कहा गया कि “महिला को स्वतंत्र नहीं होना चाहिए”.

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मनुस्मृति, जिसे सामंती संविधान माना गया, उस में महिलाओं को पुरुष से कमजोर और गौण होने की कई बातें लिखी गईं. लगभग सभी सुसंगठित धर्मों में पृथ्वी के संतुलन के लिए लिंग भेदभाव को आधार बनाया गया. जिन पौराणिक ग्रंथों में महिला के उन्मुक्त और बलवान होने की बात सामने आई, वहां वे या तो राक्षसनी, बदसूरत या महिलाओं के लिए नकारात्मक प्रतीक के तौर पर मानी गईं, बल्कि इन की जगह डरी, सहमी, कमजोर, घरेलू महिला को ही आदर्श बताया गया.

इन सब क्रियाकलापों में न सिर्फ उन्हें बाहर जाने से रोका, बल्कि रहनसहन, कपड़ालत्ता, हंसनाबोलना, यौन शुचिता, हर तरीके से नियंत्रण किया गया. इस का दूरगामी असर यह रहा कि महिलाओं से जोरजबरन या लूप में ले कर इस बात की सहमति उगलवाई गई कि उन का व्यक्तित्व प्राकृतिक रूप से ही पुरुष से कमजोर है. इसलिए उन्हें खुद की रक्षा के लिए पुरुष के अधीन आ जाना चाहिए.

खैर, इस शोध से 2 बातें सामने आती हैं, एक तो यह कि महिलाओं का व्यक्तित्व प्राकृतिक तौर से कमजोर नहीं है. दूसरा, धर्म में महिलाओं के लिए लिखी सारी कुरुतियां किसी भगवान के मुख से कही बातें नहीं, बल्कि धर्म के पुरुष ठेकेदारों द्वारा आधी आबादी से मुफ्त में श्रम लिए जाने और भोग विलास करने से रहा है.

पहले भी नहीं थीं कमजोर और अब भी नहीं हैं

उत्तराखंड के पौड़ी जिले के जलेथा गांव की रहने वाली 44 वर्षीय बसंती भंडारी का गांव कोटद्वार शहर से काफी दूर, दुर्गम इलाके में पड़ता है. इस गांव का जनजीवन इलाके के नजदीक बाकी गावों की तरह काफी कठिन है. पहाड़ी इलाका होने के कारण आज भी लोगों को अपने जीवन को चलाने के लिए दूरदूर खेती करने जाना पड़ता है, जिस के लिए बसंती भंडारी को पालतू मवेशियों का भारीभरकम मल, जिस की खाद बना कर, अपने सिर पर लाद कर 2 से 3 किलोमीटर पहाड़ के दुर्गम इलाकों से हो कर गुजरना होता है, कई बार कई किलोमीटर दूर जंगलों से भारी घास की गठरी और लकड़ी के गट्ठरों का बोझा अपने सिर पर उठा कर लाना होता है. ऐसे काम को करने के लिए बहुत हिम्मत और ताकत की जरूरत पड़ती है. जिसे यहां की अधिकतर महिलाएं रोजमर्रा के जीवन में जीती हैं.

बसंती भंडारी कहती हैं, ‘मेरी आधी जिंदगी ऐसे ही कट गई. सैलानियों को यह पहाड़ अच्छे लगते हैं, लेकिन मैं ने हमेशा यहां ख्हैर (कष्ट) ही खाए हैं.’

इतने भारी वजन को सिर पर ढोने को ले कर उन का कहना था कि, ‘पुरुष का काम तो बस खेत में बेलों को हंका कर हल चलाना भर है, लेकिन महिला को ही रोपाई, खाद डालना, कटाई, घास लाना, दूर से पानी लाना, लकड़ी लाना जैसे भारीभरकम काम करने पड़ते हैं, जो गिनती में भी नहीं आते. ऐसे में ज्यादा जोर (ताकत) वाला काम तो हमारा ही रहता है.’

यह सिर्फ दूरदराज के गांव की बात नहीं है, दिल्ली शहर में दिहाड़ी पर मजदूरी करने वाली 26 वर्षीय मुनमुन देवी का गांव उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में है. मुनमुन 4 साल पहले शादी के 1 साल बाद ही दिल्ली शहर में अपने पति के साथ आ गई थी.

मुनमुन के 2 बच्चे हैं, जिस में एक बेटी, जो मुश्किल से डेढ़ साल की होगी और एक बड़ा बेटा 3 साल के आसपास होगा. दिल्ली के बलजीत नगर इलाके में सीवर और रोड के कंस्ट्रक्शन में सरकारी ठेके पर काम करते हुए, मुनमुन एक हाथ में अपने 3 साल के रोते बच्चे को कमर से टिका कर थामी हुई थी और वहीं सिर पर सीमेंट मसाले से भरा तसला रखी हुई थी.

मुनमुन का कहना है, ‘मैं सुबह 9 बजे से शाम 6 बजे तक अपने पति के साथ मजदूरी करती हूं. हम ज्यादातर महिलाओं का काम सिर पर ईंट उठा कर लाना, सीमेंट का बना मसाला लाना, गड्ढा खोदना रहता है. इस काम में भी उतनी ही ताकत लगती है, जितनी किसी मरद की लगती है. फिर हम कमजोर कैसे? बल्कि बहुत बार तो हमारे बच्चों को बीचबीच में अपना दूध भी पिलाना होता है.’

यूनाइटेड नेशन की रिपोर्ट में बताया गया कि भारत की महिलाओं का कुल काम का 51 फीसदी काम अनपेड होता है. वहीं दुनियाभर में 75 फीसदी ‘केयर सर्विस’ महिलाएं बिना किसी दाम के करती हैं. किंतु उस के बावजूद भी विश्व की 60 प्रतिशत महिलाएं या लड़कियां भूख से पीड़ित रहती हैं, जबकि उन में भुखमरी की दर अधिक होती है.

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एक स्टडी कहती है कि अफ्रीका और एशिया में लगभग 60 प्रतिशत लेबर फोर्स महिलाओं का होता है, किंतु उस के बावजूद पुरुष प्रधान समाज में उन्हें किसान का दर्जा प्राप्त नहीं होता यानी महिलाएं श्रम में अपना योगदान देती रही हैं. वे भी अपने परिवार का भरणपोषण करती रही हैं.
हालांकि उन के श्रम को अधिकतर समय या तो कम में आंका जाता है या नगण्य मान लिया जाता है, लेकिन इस समाज में उन का योगदान घर की दहलीज से कहीं अधिक दहलीज के बाहर का होना जरूरी है.

ऐसे में यह जाहिर है कि महिलाएं पहले भी कमजोर नहीं थीं और आज भी नहीं हैं. वे शारीरिक तौर पर सक्षम हैं, वे पुरुषों की तरह हर कार्यक्षेत्रों में अपनी मजबूत भागीदारी निभाने के लिए पूरी तरह काबिल हैं. बस समाज के दिमाग में महिलाओं को कमजोर समझने के कुतर्क को दूर किए जाने की सख्त जरूरत है.

सैक्स के दौरान चरम पर नहीं पहुंच पाती, मैं क्या करूं?

सवाल

मैं 37 साल की हूं. सैक्स के दौरान चरम पर नहीं पहुंच पाती. इस से मन बेचैन रहने लगा है. बताएं मैं क्या करूं?

जवाब-

यह महिलाओं में एक आम समस्या है, जिसे दवा से ज्यादा आप खुद ही दूर कर सकती हैं. इस बारे में आप पति से बात करें. सोने से 2-3 घंटे पहले खाना खाएं और हलका भोजन करें. सैक्स के दौरान जल्दबाजी दिखाने से भी यह समस्या होती है. इसलिए बेहतर होगा कि सैक्स से पहले फोरप्ले की प्रक्रिया अपनाएं, जो लंबी हो.

इस मामले में गलती पुरुषों की भी होती है. सैक्स को निबटाने की सोच रखने वाले ऐसे पुरुषों की संख्या ज्यादा है, जो खुद की संतुष्टि को ही ज्यादा तवज्जो देते हैं और सैक्स के तुरंत बाद करवट बदल कर सो जाते हैं. बेहतर होगा कि सैक्स से पहले ऐसा माहौल बनाएं जो सैक्स प्रक्रिया को उबाऊ न बना कर प्यारभरा व रोमांचक बनाए.

सैक्स से पहले कमरे में मध्यम रोशनी के बीच मधुर आवाज में संगीत चला दें, एकदूसरे से प्यारभरी बातें करें, एकदूसरे के अंगों की तारीफ करें यानी देर तक फोरप्ले करने के बाद ही सैक्स करें. यकीनन ऐसा करने से आप की समस्या दूर हो जाएगी.

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अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz
 
सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

जब पेरेंट्स चाचा, दादा, नानी से सम्बन्ध बनाने पर जरुरत से अधिक जोर दें

मिनल हमेशा अपने दोनों टीनेजर्स बच्चों को कहती रहती है कि घर में बड़ा कोई भी आये, उसके पाँव
छुओ या फिर उनसे बातचीत करों, कई बार तो बच्चे ऐसा करते है, पर कई बार वे इसका विरोध
करने लगते है, जो मिनल को बुरा लगता है.

असल में आज के बच्चों की परवरिश अलग तरीके से होती है, क्योंकि वे एकाकी परिवार में रहते है, जहाँ दादा-दादी या नाना-नानी नहीं होते, या बीच-बीच में वे आते जाते है, ऐसे में उनके साथ गहरा रिश्ता नहीं बन पाता. वे उनकी आदतों या बातों से परिचित नहीं होते. उनके साथ वे किसी भी रूप में सहज नहीं हो पाते. उनके लिए दादा या चाचा एक आम व्यक्ति से अधिक कुछ भी नहीं होता. इसके अलावा कई बार बड़ों का व्यवहार बच्चों को पसंद नहीं होता. बड़े अगर खुद को मेंटर समझने लगे, तो बातें बिगड़ती है.

सिखाएं बचपन से आदतें
8 साल की रिया अपने दादाजी को इसलिए नहीं पहचान पायी, क्योंकि उसने होश सम्हालने के बाद
उन्हें नहीं देखा. दादा के उसके घर आने पर, जब उनके पिता ने दादाजी के पैर छुने के लिए कहा तो
वह घबराकर कमरे में भाग गई और दरवाजे के पीछे से उन्हें देखती रही. इस बारे में मनोचिकित्सक
डॉ. पारुल टांक कहती है कि बच्चों को छोटी अवस्था से ही अपने बड़ो का आदर सम्मान, अनुशासन,
शिष्टाचार आदि सिखाने की आवश्यकता होती है. रातों-रात कुछ नहीं होता. उन्हें धीरे-धीरे परिवार में
सबका महत्व समझ में आता है. इसे धैर्य के साथ करना पड़ता है. आज के भागदौड़ भरी जिंदगी में
बच्चों के माता-पिता खुद ही अपने परिवार और रिश्तेदारों से दूर होते जा रहे है. ऐसे बच्चों को दोष
देना उचित नहीं. अगर बच्चे नहीं मानते या परिवार से सम्बन्ध बनाने से अनाकानी करते है तो उन्हें
छोड़ देना चाहिए, अधिक जोर देना उचित नहीं. उन्हें समझाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. कई
बार माता-पिता उनकी बातें न सुनने पर हाथ उठा देते है, जो ठीक नहीं. बच्चों की मानसिक दशा को
समझने की जरुरत है.

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दें खाली समय बच्चों को
इसके आगे डॉ. पारुल का कहना है कि आदर्श स्थिति हर परिवार में नहीं होती. अच्छी पढाई कर
बच्चा आगे बढ़ जाए ये जरुरी नहीं. आज के दौर में प्रतियोगिता बहुत है, उन्हें इससे हर साल
गुजरना पड़ता है. इसके अलावा कई पेरेंट्स बच्चों के माध्यम से अपनी इच्छाओं को पूरी करना चाहते
है, मसलन नाच ,गाना, खेलकूद, स्विमिंग, ट्यूशन आदि कई चीजों में उन्हें व्यस्त कर देते है, उनके
पास खुद के लिए कोई समय नहीं बचता और बच्चा चिडचिडा हो जाता है. उनकी व्यस्तता की वजह
से भी वे अपने रिश्तेदारों के करीब नहीं हो पाते, अचानक माता-पिता का उन्हें मेंटर करना पसंद नहीं
होता.

बड़ों का व्यवहार हो सही
अब पहले जैसे पारिवारिक माहौल नहीं रहा, जहाँ सही गलत का फैसला बड़े करते हो और उसे बिना
किसी हिचकिचाहट के सभी मान लेते हो. अब हर बच्चे की व्यक्तिगत रूचि और देखने का नजरिया अलग होता है, जिसका मान माता-पिता को देने की आवशयकता है. मुंबई के हीरानंदानी अस्पताल के
मनोचिकित्सक डॉ. हरीश शेट्टी कहते है कि आजकल के बच्चे ब्लाइंड फैथ किसी पर नहीं करते.
परम पूजनीय उनके लिए कोई नहीं होता. वे बिना किसी लोजिक के अंध श्रध्दा किसी को नहीं कर
पाते, जो पहले हुआ करता था. उन्हें लगता है कि अगर किसी का व्यवहार उनके प्रति अच्छा है तो
वे सम्मान देंगे. दादा,चाचा, नाना जो भी हो, उनके स्वभाव बच्चे को अच्छा लगना चाहिए.
माता-पिता अगर बच्चे को बड़ो से अच्छे सम्बन्ध बनाने पर जोर देते है, तो ठीक नहीं, क्योंकि बच्चे
व्यवहार को सम्मान देते है, व्यक्ति को नहीं. अगर उनका व्यवहार अच्छा नहीं, तो वे उठकर भाग
जाते है. बच्चों को किसी काम के लिए पेरेंट्स का जोर देना गलत है, बड़ो को चाहिए कि वे बच्चों
को कमांड न करें, न ही कुछ डिमांड करें. प्रवचन बच्चों को न दें, जो उन्हें पसंद नहीं होता. उनका
वर्ताव ही बच्चे को करीब लाता है. बच्चे को जो सही लगता है, उसे ही वे अपनी इच्छा से करते है.
बच्चों को हमउम्र के साथ अधिक मिलने की जरुरत होती है, चाचा, मामा के बहुत अधिक करीब रहेंगे
तो वे वैसी ही बाते करना शुरू कर देते है. पेरेंट्स को लगता है कि उनका बच्चा मैच्योर हो गया है,
जो बाद में समस्या होती है. बच्चों को उनके उम्र के बच्चों के साथ मिलने से वे अच्छी तरह उम्र के
हिसाब से ग्रो करते है.

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कई पुराने लोग खुद को मेंटर समझते है. बच्चों को बिलकुल भी ये पसंद नहीं होता. इसके अलावा
कभी-कभी उन्हें ये करों ये न करों की भाषण देते है, जो उन्हें अच्छा नहीं लगता. उन्हें वे लोग पसंद
है, जो उनको रेस्पेक्ट दें, उनसे वे अच्छी तरह से बातें करें. कुछ लोग अक्सर बच्चों को कहते रहते है
कि वे छोटे है, उनकी समझदारी अभी नहीं हुई है और अपनी सच्ची कहानी सुनाते रहते है, जिसमें
दुःख, सुख, जीत और हार सब शामिल होती है, ऐसी बातें उन्हें दुखी करती है.

इसके आगे डॉ.हरीश कहते है कि बच्चे में कुछ आदतें अवश्य विकास करें, ताकि वह एक अच्छा
व्यक्ति बन सकें, सुझाव निम्न है,

 भावना को व्यक्त करने की हिम्मत का विकास करना,
 शारीरिक ताकत के साथ मानसिक ताकत को बढ़ाना,
 करुणा के भाव को विकसित करना,
 बैड न्यूज़ को शेयर करने से न डरना,
 कुछ भी गलत हुआ तो मदद मांगने की हिम्मत का होना आदि.

बढ़ते बच्चे के लिए ध्यान रखें ये बातें

आप जब अस्पताल से अपने नन्हेमुन्ने को घर ले कर आती हैं, तो मन में उस की परवरिश को ले कर ढेरों सवाल होते हैं. कैसे मैं इसे बड़ा करूंगी? कब यह बोलना सीखेगा? कब चलेगा? कब यह मेरी बातों को समझेगा? सच कहें तो बच्चे को बड़ा करना अपनेआप में बहुत बड़ी जिम्मेदारी का काम होता है. उस के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए प्यारदुलार बेहद जरूरी होता है. जब भी आप अपने बच्चे का कोई काम करें तो उसे इसलिए न करें कि यह आप की ड्यूटी है वरन इसलिए करें कि आप अपने बच्चे से प्यार करती हैं. आप की यही भावना आप को अपने बच्चे को सही तरीके से बड़ा करने में मददगार साबित होगी. औफिस में कार्यरत रजनी अरोड़ा का कहना है, ‘‘मैं जब औफिस से घर आती हूं तो अपने बच्चों को देख कर दिन भर की सारी थकान भूल जाती हूं. अपनी 3 साल की बेटी में तो मैं हर दिन कुछ न कुछ नया देखती हूं. उस का प्यार जताने का तरीका, अपनी बात कहने का तरीका सब कुछ अलग सा लगता है.’’

इस संबंध में बाल मनोवैज्ञानिक डा. विनीत झा का कहना है कि बच्चे 4 साल की उम्र तक अपने जीवन का 80 प्रतिशत तक सीख लेते हैं बाकी का 20 प्रतिशत वे अपने पूरे जीवनकाल में सीखते हैं. अगर यह कहा जाए कि बच्चे नन्हे साइंटिस्ट की तरह होते हैं, तो गलत न होगा. उन की आंखों में देखें तो उन में मासूमियत के साथसाथ कुछ नया सीखने और जानने की जिज्ञासा भी भरी होती है. 1 साल से कम उम्र का बच्चा हर चीज को अपने मुंह में डालता है. इस का कारण यह है कि उस समय उस के टेस्ट और्गन विकसित होते हैं.

बच्चे की परवरिश का लें मजा

बच्चे को अपने सामने बड़ा होते देखने का एहसास बेहद रोमानी होता है. पहली बार जब आप उसे गोद में लेते हैं, तो उस समय ऐसा लगता है जैसे जीवन की सारी खुशियां आप की गोद में सिमट आई हैं. जन्म से ले कर हर दिन बच्चे के व्यवहार में बदलाव आता है. वह बड़ी तेजी से सब कुछ सीखता है. बच्चे के सही विकास के लिए यह बेहद जरूरी है कि आप उस की परवरिश को जिम्मेदारी की तरह नहीं सुखद अनुभूति की तरह लें. बच्चा बेहद सैंसिटिव होता है, इसलिए कभी उस से डांट कर बात न करें. स्पर्श बच्चे के विकास में बेहद महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. जब भी आप कहीं से आएं तो बच्चे को गले लगाएं, उसे प्यार करें. उसे इस बात का एहसास दिलाएं कि वह आप के लिए बहुत माने रखता है. उसे बताएं कि आप उसे बहुत प्यार करती हैं. भले ही वह आप से बात न कर पाए, लेकिन आप की फीलिंग्स को समझता है. जब आप अपने बच्चे को गले लगा कर उसे जताती हैं कि आप उसे प्यार करती हैं, तो बदले में वह भी आप के गले में अपनी छोटीछोटी बांहें डाल देता है. आप के गाल को सहलाता है और अपनी तोतली भाषा में कुछ कहता है, जिस का मतलब होता है मां मैं भी आप से बहुत प्यार करता हूं. अपने बच्चे से खूब बातें करें, जितना ज्यादा आप उस से बातें करेंगी उतनी ही जल्दी वह बोलना सीखेगा.

हर दिन बढ़ता है बच्चा

जन्म से ले कर 5 साल तक बच्चे का विकास बहुत तेजी से होता है. यह उस के सीखने की उम्र होती है, जिस में वह खानेपीने से ले कर चलनाफिरना, उठनाबैठना, बातचीत करना और दूसरों से दोस्ती करना यह सब सीखता है. इस समय बच्चे में हर दिन बदलाव होता है. मातापिता का यह दायित्व है कि इस समय वे बच्चे के मन में उठने वाली हर जिज्ञासा का समाधान करें. उस के मन में उठने वाले सभी सवालों के जवाब दें. बच्चों की सही परवरिश के लिए यह बेहद जरूरी है कि आप जिस तरह के व्यवहार की अपेक्षा उस से करती हैं वैसा ही व्यवहार खुद उस से करें. 

मसलन, अगर आप यह चाहती हैं कि बच्चा सब से अच्छा व्यवहार करे तो आप को भी उस के सामने सब के साथ अच्छा व्यवहार करना होगा. बच्चे के सामने कभी चिल्ला कर बात न करें और न ही अपशब्दों का प्रयोग करें. सच तो यह है कि बच्चा कच्ची मिट्टी के समान होता है. उस की सोच को, उस के विचारों को सही आकार देने की जिम्मेदारी आप की है. इस में उस के खानेपीने की हैबिट से ले कर आसपास के लोगों के साथ उस का व्यवहार भी शामिल है. इस समय आप अपने बच्चे को जिस तरह की परवरिश देंगी पूरी जिंदगी वह उसी पर चलेगा. यही वह समय है जब बच्चे को प्यार और अनुशासन का भेद समझाना भी जरूरी है.

खानपान संबंधी आदतें करें विकसित

यह वह उम्र है जब बच्चे में दूध के अलावा अन्य पौष्टिक चीजें खाने की आदत डालनी जरूरी है. उसे थोड़ाथोड़ा कर के अपने घर में बनने वाली सभी चीजें खिलाएं. हरी सब्जियां और मौसमी फल बच्चों के दिमागी विकास के साथसाथ उसे मानसिक और शारीरिक तौर पर स्वस्थ रखने के लिए भी बेहद जरूरी हैं. उस के भोजन में दाल, चावल, रोटी, सब्जी, दही, सलाद आदि चीजें शामिल करें. इस से न केवल वह फूड हैबिट सीखेगा वरन फिजिकली और मैंटली हैल्दी भी रहेगा. कुछ तो खा ले के चक्कर में उसे बाजार की चटपटी चीजें खाने की आदत न डालें क्योंकि एक बार उसे इन चीजों को खाने की आदत पड़ गई तो फिर आप चाह कर भी उसे हैल्दी खाना खाने के लिए प्रेरित नहीं कर पाएंगी. मैगी और बिस्कुट आदि कभीकभार के लिए तो ठीक हैं, लेकिन इन्हें रोज की आदत न बनाएं.

सुरक्षित वातावरण

बच्चे के समुचित विकास के लिए घर का वातावरण सुरक्षित होना बेहद जरूरी है. जब तक आप का बच्चा छोटा है, तब तक अपने घर के लिए ऐसे फर्नीचर का चयन करें, जो न तो बहुत ऊंचा हो और न ही उस के किनारे नुकीले हों. अकसर बच्चे बैड से गिर जाते हैं, जिस से उन को चोट लग जाती है. अगर बच्चा गिर गया हो और उस के सिर पर चोट लग जाए, तो उसे तुरंत डाक्टर के पास ले जाएं. बच्चे को बिना बात के भी अपने से चिपका लें, ताकि उसे सुरक्षा का एहसास हो. बच्चे को घर में कभी अकेला छोड़ कर न जाएं. बिजली के प्लग आदि पर टेप लगा दें ताकि बच्चा उस में उंगली न डाले. बच्चे बेहद जिज्ञासु प्रवृत्ति के होते हैं. उन्हें नईनई खोज करने की आदत होती है. अकसर बच्चे बिजली के प्लग से खेलते हैं और स्विचबोर्ड में उंगली डालते हैं. मोबाइल चार्जर आदि को प्लग में लगा न छोड़ें, क्योंकि अकसर बच्चे बिजली के तार को मुंह में डाल लेते हैं. रसोईघर में चाकू आदि नुकीली चीजों को बच्चों की पहुंच से दूर रखें. गैस को भी इस्तेमाल करने के बाद रैग्युलेटर औफ कर दें.

खेल-खिलौने और दोस्त

बच्चों के खेलखिलौनों का चयन करते समय भी ध्यान रखें. अगर बच्चा 1 साल से कम का है, तो वह सभी चीजों को मुंह में डालेगा. इसलिए यह बेहद जरूरी है कि उस के लिए जो भी खिलौने लें वे अच्छी कंपनी के हों. इस के अलावा छोटे बच्चों के लिए नुकीले खिलौने भी न लें. जब भी आप के पास समय हो बच्चे को पार्क ले जाएं. वहां उसे अपनी निगरानी में अपनी मरजी से खेलने दें. खुले में खेलने से उस का शारीरिक और मानसिक विकास होता है. बच्चे को अपने ऐजग्रुप के बच्चों के साथ खेलने का अवसर दें. अपनी उम्र के बच्चों के साथ बच्चे कोई भी काम करना ज्यादा तेजी से सीखते हैं. अगर बच्चा खानेपीने में टालमटोल करता है, तो फिर उसे उस की उम्र के बच्चों के साथ खिलाएं, वह खाने में नखरे नहीं करेगा.

घरेलू हिंसा के मामलों पर कृति सैनन ने उठाई आवाज, शेयर किया ये Video

कोरोना महामारी के दौरान लगे लॉक डाउन में पारिवारिक झगड़ों और घरेलू हिंसा के मामलों में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है. लॉक डाउन के लगते ही जब घरेलू हिंसा की घटनाएं सामने आने लगी थीं, तब अभिनेत्री कृति सैनन ने घरेलू हिंसा के मुद्दे पर एक दिल दहला देने वाली कविता सोशल मीडिया पर सुनाई थी और सभी पीड़ितों के समर्थन में खड़ी नजर आयी थीं.

अब पांच माह के अंतराल के बाद एक बार फिर कृति सैनन ने घरेलू हिंसा के खिलाफ अपनी आवाज को बुलंद करते हुए सोशल मीडिया पर एक वीडियो साझा किया है. कृति सैनन ने यह वीडियो उस वक्त जारी किया है, जब राष्ट्रीय महिला आयोग 25 से 27 नवंबर तक इंडिया अगेंस्ट एब्यूज ऑन वुमन के विषय पर 3 दिवसीय आभासी चर्चा आयोजित कर रहा है. इस वीडियो में कृति सैनन ने देश में घरेलू हिंसा के बढ़ते मामलों के साथ ही लॉक डाउन/ तालाबंदी पर भी प्रकाश डाला है.

 

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अभिनेत्री कृति सैनन ने आगे कहा- ‘‘राष्ट्रीय महिला आयोग 25 से 27 नवंबर तक इंडिया अगेंस्ट एब्यूज ऑन वुमनके विषय पर 3 दिवसीय आभासी चर्चा आयोजित कर रहा है, जहाँ आयोग का उद्देश्य संगठनों और व्यक्तियों को एक साथ लाना है.देश भर में महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ दुर्व्यवहार को रोकने के तरीकों के बारे में समावेशी प्रवचन हो रहा है.’’

अपने वीडियो में कृति सैनन ने कहा-‘‘जब हम सभी इस महामारी के बीच में रहे हैं, घरेलू हिंसा और लिंग आधारित उत्पीड़न के कथित मामलों की दर वास्तव में बढ़ रही है और यह चिंताजनक है.मुझे लगता है कि यह हम सभी के लिए बेहद महत्वपूर्ण है.एक साथ आओ और इस मुद्दे को अपनी गहरी जड़ से खत्म करो.यदि आप किसी ऐसे व्यक्ति के माध्यम से जा रहे हैं,जो किसी भी तरह की घरेलू हिंसा या उत्पीड़न से गुजर रहा है, या यदि आप किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में जानते हैं जो इस तरह से कुछ कर रहा है, तो कृपया उसके खिलाफ रपट दर्ज कराएं.उसके खिलाफ राष्ट्रीय महिला आयोग की वेबसाइट पर शिकायत दर्ज करें.

 

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वैसे कृति सैनन को अपनी फिल्म ‘‘मिमी’’ के प्रदर्शन का ंइतजार है,जिसमें उन्होने सरोगेट मां की भूमिका निभायी है.तो वहीं उन्हें अक्षय कुमार के साथ बहुप्रतीक्षित फिल्म बच्चन पांडे की शूटिंग शूरू होने का भी बेसब्री से इंतजार है.

मीका सिंह के साथ इस सॉन्ग में दिखेगीं अरबाज खान की गर्लफ्रेंड, Video हुआ वायरल

बौलीवुड में पिछले कुछ वर्षों से पुराने क्लासिकल गीतों को नए बीट्स और धुनों से सजाकर रीमेक बनाने का चलन बन गया है.‘‘तम्मा तम्मा..’’से लेकर ‘‘आंख मारे…’’तक कई सफलतम गीत के रीमेक न सिर्फ लोगों को पसंद आए,बल्कि सभी इन रीमिक्स धुनों पर थिरकते हुआ नजर आ जाते हैं.

अब 1972 में स्व.किशोर कुमार द्वारा स्वबद्ध और शर्मिला टैगोर पर फिल्माए गए सफलतम गाने ‘‘रूप तेरा मस्ताना‘’ का रीमिक्स कर मीका सिंह ने अपने अंदाज में गया है. जिसका वीडियो नृत्य निर्देशक फिरोज खान ने निर्देशित किया है. इस इस गाने के वीडियो में इटालियन मॉडल और अभिनेत्री जॉर्जिया  एंड्रियानी रीमेक किंग मीका सिंह के साथ कदम से कदम मिलाते हुए नजर आ रही है.इस गाने के वीडियो का ट्रेलर  सोशल मीडिया पर वायरल हो चुका है. इस गाने के वीडियो में जॉर्जिया ने एक रंगीन क्रिस्टल मोजेक पोशाक पहनी हुई है और साथ में उनका हेयर स्टाइल देखकर नब्बे के दशक के डिस्को थीम की याद दिलाती है.

इस गीत की चर्चा करते हुए जाॅर्जिया ने कहा-‘‘जब मैं यूरोप में मॉडलिंग करती थी,तब बहुत सारे क्लब रीमिक्स वर्जन के गानो को बजाया करते थ.उसके बाद मैंने एक दिन खुद इस गाने को देखने का फैसला किया.तभी मुझे शर्मिला टैगोर नजर आई.उनका गीत ‘रूप तेरा मस्ताना‘ को काफी संवेदना के साथ फिल्माया गया था,जिसमें वह काफी हॉट और ब्यूटीफुल लग रही थी.यह देखकर मैंने इस गीत का किसी भी तरह से हिस्सा बनने का फैसला कर लिया.मुझे भारत आने से पहले भी यह गीत पसंद था.मुझे लगता है कि सभी रीमिक्स बनाने के प्रयासों को केवल महान लोगों को श्रद्धांजलि देने के हमारे प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए.‘‘

इस गाने के ट्रेलर को देखते हुए एक डिस्को और रेट्रो म्यूजिक का फील मिलता है,जिसे काफी पसंद किया जा रहा है.साथ ही इस गाने में जॉर्जिया के शर्मिला टैगोर जैसे दिखने और उनके जैसे नृत्य की कुछ झलक भी देखने को मिलती है.

इटालियन माॅडल व अभिनेत्री जॉर्जिया हिंदी सिनेमा में अपने पैर धीरे धीरे मजबूत से जमाते हुए नजर आ रही हैं.वह हाल ही में तमिल कॉमेडी वेब सीरीज, ‘‘कैरोलीन कामाक्षी‘‘और एक लघु फिल्म ‘‘विक्टिम‘‘ में नजर आयी थीं,जहां एंड्रियानी ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा और अभिनय कौशल का परिचय दिया था.वह बहुत जल्द बौलीवुड में हिंदी फिल्म ‘‘श्री देवी बंगलो ‘‘ के अलावा श्रेयस तलपड़े के साथ ‘‘वेलकम टू बजरंगपुर‘‘में नजर आने वाली हैं.

सेल्फ-साइकल IVF: किसे इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है?

जब कोई भी जोड़ा (कपल) इनफर्टिलिटी (बांझपन) की वजह से बच्चा नहीं पैदा कर पाता है तो उनके लिए यह बहुत ही दुःख की बात होती है. बच्चा न पैदा कर पाने की वजह से जोड़ों को कई सारी भावनाओं और बांझपन के कलंक को झेलना पड़ता है. इससे सबसे ज्यादा महिलाएं प्रभावित होती हैं.

इनफर्टिलिटी का डायग्नोसिस और ट्रीटमेंट मानसिक और शारीरिक दोनों रूप से चुनौतीपूर्ण होता है.  इनफर्टिलिटी ट्रीटमेंट के सफल होने का दर कई सारे कारणों पर निर्भर करता है. जिसमे प्रभावित जोड़ों की उम्र, इनफर्टिलिटी होने का कारण के साथ-साथ इसके लिए किस तरह का इलाज किया जा सकता है, यह सभी कारण भी शामिल होते है.

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डोनर साइकल आईवीएफ या सेल्फसाइकल को समझना

समय के साथ.साथ इनफर्टिलिटी के ट्रीटमेंट में भी उन्नति हुई है.जिसकी वजह से इसके सफल होने की दर में सुधार हुआ है. ट्रीटिंग फिजिसियन होने के नाते हमारे पास व्यक्तिगत (इंडीविजुअल) जोड़ों के लिए इनफर्टिलिटी के ट्रीटमेंट को पर्सनलाइज्ड करने के लिए कई विकल्प मौजूद हैं. तकनीक में कई सारी उन्नति हुई है और रोग के प्रति हमारी समझ भी बढ़ी है. इन विट्रो फर्टिलाइज़ेशन (आईवीएफ) सबसे विकसित ट्रीटमेंट विकल्पों में से एक माना जाता है. आईवीएफ को “सेल्फ-साइकल आईवीएफ” या “डोनर साइकल आईवीएफ” के रूप में जोड़ों की यूनीक स्थिति के आधार पर उनका इलाज किया जाता है.

अगर हम साधारण शब्दों में कहें तो सेल्फ-साइकल आईवीएफ में जोड़ों के खुद के गैमेट्स (स्पर्म या अण्डों) का इस्तेमाल किया जाता है. जबकि डोनर साइकल आईवीएफ में डोनर स्पर्म या डोनर अंडा का इस्तेमाल किया जाता है. इसलिए इसे डोनर साइकल आईवीएफ कहा जाता है. डोनर साइकल आईवीएफ के सफल होने की दर सेल्फ-साइकल आईवीएफ की तुलना में ज्यादा होती है. लेकिन इस प्रक्रिया से जो बच्चा पैदा होता है उसमे बायोलोजिकल माता-पिता का जन्मजात डीएनए नहीं होता है. इसलिए सेल्फ-साइकल आईवीएफ, जिसमे बच्चा बायोलोजिकल माता-पिता के डीएनए से पैदा होता है, लोग वह ज्यादा कराना पसंद करते हैं. जब यह किसी क्लिनिकल दिक्कत की वजह से सफल नहीं होता है तो वह डोनर साइकल आईवीएफ ट्रीटमेंट को चुनते है. इलसिए यह जरूरी है कि प्रभावित जोड़ा इसके बारें में जागरूक हो और इन दोनों आईवीएफ विकल्पों को चुनने से पहले उन्हें इसके लाभ और हानि के बारे में विधिवत जानकारी होनी चाहिए.

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जोड़ों के लिए किसी एक विकल्प पर मौहर लगाना आसान नहीं होता है. इसके लिए उन्हें किसी अनुभवी इनफर्टिलिटी एक्सपर्ट से सलाह लेनी चाहिए और उनके लिए कौन सा विकाल्प ज्यादा बेहतर होगा इसको समझना चाहिए ताकि ट्रीटमेंट के सफल होने संभावना ज्यादा हो सके.

सेल्फसाइकल से किसको सबसे ज्यादा फायदा होता है?

ज्यादातर जोड़ों के लिए पहली बार अपना ट्रीटमेंट शुरू कराने के लिए उनके लिए सेल्फ-साइकल ट्रीटमेंट सबसे बेहतर विकल्प होता है. हालांकि कोई भी जोड़ा सेल्फ-साइकल आईवीएफ से लाभान्वित नहीं हो सकता है अगर उसमे नीचे बताई गई बाते लागू होती हैं-

  1. जब महिला की उम्र 42 से ज्यादा होती है तो उसके अंडे की क्वालिटी और क्वांटिटी उम्र की वजह से कम होने लगती है. सेल्फ-साइकल आईवीएफ जवान महिलाओं में ज्यादा सफल होता है. जब महिला की उम्र 35 के पार होती है तो इसके सफल होने की दर घटती जाती है.
  2. जब पुरुष में स्पर्म काउंट जीरो होता है खासकर उन पुरुषों में जिनमे – एक्सट्रैक्टिंग स्पर्म्स (एक्स-टेस्टिकुलर बायोप्सी) सर्जिकल ट्रीटमेंट असफल हो चुका होता है उनमे स्वस्थ स्पर्म नहीं होते हैं ऐसे पुरषों में सेल्फ-साइकल आईवीएफ सफल नहीं होता है.
  3. उन जोड़ों में जिनमे पिछले ट्रीटमेंट के रिकार्ड्स से स्पर्म और अण्डों की क्वालिटी ख़राब सत्यापित हो चुकी होती है उनमे सेल्फ-साइकल आईवीएफ सफल नहीं होता है.

इस प्रकार, यह बहुत जरूरी है कि प्रभावित जोड़ें खुद से इसके बारें में जाने और जब भी बात सेल्फ-साइकल आईवीएफ और डोनर साइकल आईवीएफ चुनने की आये तो किसी भी ट्रीटमेंट के फैसले पर पहुँचने से पहले किसी अनुभवी इनफर्टिलिटी एक्सपर्ट से सलाह लें.

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नोवा आईवीएफ के फर्टिलिटी कंसल्टेंट डॉ पारुल कटियार से बातचीत पर आधारित.

कोरोना इफेक्ट: ब्यूटी पार्लर्स की मुश्किलें और उनसे कैसे निबटें 

कोरोना से पहले नोएडा में ब्यूटी पार्लर चलाने वाली दीप्ति काफी खुश थी. क्योंकि एक तो पार्लर चलाने
का पैशन और दूसरा उसके यहां कस्टमर्स की लाइन लगी रहती थी. क्योंकि भले ही उसका पार्लर छोटा
था, लेकिन अनुभवी स्टाफ होने के कारण सब उसके पार्लर में ही सर्विस लेना पसंद करते थे. लेकिन
किसी को क्या पता था कि समय कब पलट जाएगा. जैसे ही कोरोना ने दस्तक दी मानो पार्लर्स पर तो
कहर ही टूट गया हो. फिर चाहे उसमें दीप्ति का पार्लर हो या फिर किसी और का. क्योंकि पार्लर्स को बंद
करने के आदेश जो आ गए थे. और जब खुले भी तो लोगों के मन में इतनी दहशत थी कि लोग पार्लर जाने
से कतराने लगे थे. ऐसे में भले ही अब पार्लर्स में जरूरत से ज्यादा सावधानियां बरती जा रही हैं , लेकिन
यह कहना गलत नहीं होगा कि ये समय पार्लर वालों के लिए चुनौतियों भरा है. फूंकफूंक कर कदम रखने
के बावजूद भी  कस्टमर्स पार्लर में आने से कतराने लगे हैं,  लुभाने ऑफर्स भी उन्हें अपनी और नहीं खींच
पा रहे हैं .

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तो जानते हैं  ब्यूटी एक्सपर्ट दीप्ति से कि  इन दिनों पार्लर्स कैसीकैसी मुसीबतों का सामना कर रहे  हैं  –

– स्पेस की दिक्कत
जहां बड़े पार्लर्स खुद को ऐसे समय में संभाल नहीं पा रहे हैं , जिसके कारण वे बंद हो गए हैं , वहीं छोटे
पार्लर्स खुद के वजूद को जीवित रखने के लिए हर संभव कोशिश कर रहे हैं.  लेकिन उनके सामने स्पेस की सबसे बड़ी समस्या सामने आ खड़ी हो गई है. क्योंकि जहां इस समय सोशल डिस्टैन्सिंग के कारण दूरी
बनाने में ही समझदारी है, वहीं स्पेस की दिक्कत होने के कारण वे एक बार में सिर्फ 1-2 लोगों को ही
एंटरटेन कर पा रहे हैं. और वो भी काफी सावधानियां बरत कर. जिसके काऱण कमाई कम और लागत
ज्यादा आ रही है.

– कस्टमर्स के मन से डर निकालना
जहां इस समय हर किसी के मन में कोरोना का डर है, ऐसे माहौल में अपने कस्टमर्स को दोबारा अपनी
और खींचना काफी मुश्किल हो गया है. भले ही पार्लर में हर सावधानी बरती जा रही है, लेकिन फिर भी
उन्हें खुद के पार्लर में आने के लिए राजी करना काफी मुश्किल हो गया है. ऐसे समय में कुछ तो अभी भी
अपनी सुंदरता से समझौता करने को ही तैयार हो गए हैं. या फिर घर में ब्यूटी प्रोडक्ट्स लाकर अपनी
ब्यूटी को बढ़ाने का काम कर रहे हैं, जिससे पार्लर्स का धंधा काफी चौपट हो गया है .

– बेसिक सर्विस तक ही सीमित

पहले जहां महिलाएं ब्यूटी पार्लर में हर सर्विस लेने के लिए तुरंत तैयार हो जाती थीं , लेकिन अब उन्हें
अगर पार्लर में जाना भी पड़ रहा है तो सिर्फ वे बेसिक सर्विस ही लेती हैं , जैसे हेयर कट, ट्रेडिंग आदि.
यानि जितना जरूरत उतना ही काम करवाने में अभी विश्वास है. ऐसे में अगर हम ओफर्स भी देते हैं तो
भी वे इसके लिए राजी नहीं होती हैं.  इसलिए इस समय हमारे पार्लर्स सिर्फ बेसिक सर्विस तक ही सीमित
होकर रह गए हैं, जिससे मुनाफा काफी कम हो गया है .

– कम्पीटिशन में खुद को संभालना चैलेंज
कोरोना ने ब्यूटी पार्लर्स के बीच इस कदर  कम्पीटिशन खड़ा कर दिया है, कि ऐसे समय में खुद को
संभालना काफी मुश्किल हो गया है. इस समय लोग वही औप्शन चूज़ करना चाहते हैं तो सेफ होने के
साथसाथ आसानी से उपलब्ध हो सके और इंतजार भी नहीं करना पड़े. ऐसे में एक तरफ जगह जगह खुले
पार्लर्स और दूसरा ऑनलाइन पार्लर की सुविधा होने के कारण अब कम्पीटिशन काफी बढ़ गया है. खुद को
दूसरे से बेहतर दिखाने के लिए उसी तरह से मेहनत करनी पड़ रही है , जिस तरह से किसी भी नए
बिज़नेस को शुरू करने के लिए.

– कॉस्ट कटिंग
अपने ही कस्टमर्स को अपनी और खींचने के लिए पैकेजेस बनाए गए हैं, जिनके रेट पहले से काफी काफी
कम कर दिए हैं. लेकिन हमें तो प्रोडक्ट्स की कीमत वही पड़ रही है . और दूसरा इतना कम कीमत रखने
के बावजूद भी जो थोड़े बहुत कस्टमर्स आते हैं , उससे पार्लर और स्टाफ का खर्चा निकालना काफी
मुश्किल हो गया है.

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निबटने के लिए कैसीकैसी  तैयारियां

– अपॉइंटमेंट है बेस्ट विकल्प
अगर इस समय पार्लर की सेफ्टी को मैंटेन करके रखना है, तो अपॉइंटमेंट से ही सर्विस देने की सुविधा
बेस्ट है. इससे कस्टमर्स को इंतजार भी नहीं करना पड़ेगा और पार्लर में भीड़ लगने से भी बचा जा सकता
है. आजकल अधिकांश पार्लर इस तरह से ही अपॉइंटमेंट देकर कस्टमर्स को सर्विस दे रहे हैं.

– डिस्पोजेबल शीट्स हैं जरूरी
कस्टमर तभी आपके पार्लर की ओर खिंचेगा,  जब उसे वहां पर सभी वो सुविधाएं मिलेंगी , जिससे वो खुद
को सुरक्षित महसूस कर सके. ऐसे में पार्लर्स में टोवेल इस्तेमाल करने के बजाय डिस्पोजेबल शीट्स,
मास्क, हैंड ग्लव्स का इस्तेमाल करें. इसमें भले ही कोस्ट थोड़ा ज्यादा आएगा, लेकिन सेफ्टी के
साथसाथ आप पर  कस्टमर्स भरोसा करके आपके पास ही आएगा. और आपको भी तो यही चाहिए कि
आप अपने पार्लर का विश्वास अपने कस्टमर्स पर बनाकर उन्हें फिर से अपनी और खींच सकें.

– हैंड सैनीटाईजर व टेम्परेचर चैक करें
वैसे कई लोगों को कोरोना होने के बावजूद भी उनमें लक्षण नहीं दिखते हैं , लेकिन कहते हैं न कि
सावधानी बरतकर चलने में कोई बुराई नहीं होती है. ऐसे में आप चाहे खुद की बात हो , स्टाफ की या फिर
कस्टमर्स की उन्हें हैंड सैनीटाईज व  टेम्परेचर चेक करके ही पार्लर में जाने की अनुमति दें. इससे आपकी
सुरक्षा के साथसाथ कस्टमर्स के आपके सेफ्टी प्रोटोकाल्स को देखकर आपके प्रति विश्वास बनेगा और वे
आपके पार्लर्स से ही सेवाएं लेने के लिए खुद को राजी कर पाएंगे. ऐसा अब अधिकांश पार्लर्स कर रहे हैं.

–  ऑनलाइन पैमेंट के विकल्प को चुनें
जब हर सावधानी बरती जा रही है तो फिर पैमेंट लेने में भी सावधानी बरतें. जैसे आप यूपीआई , फोन पे
आदि के माध्यम से पैमेंट ले सकते हैं. इससे पैसों को व एकदूसरे को छूने से भी बचेंगे और संक्रमण के
चांसेस भी काफी कम हो जाएंगे.  इस तरह से बिज़नेस को चलाने में आसानी होगी.  आजकल अधिकांश
लोग भी ऑनलाइन पैमेंट के विकल्प को ही चुनना बेहतर समझते हैं.

– ब्यूटी प्रोडक्ट्स को करते रहें सैनीटाईज
पार्लर में इस्तेमाल किए जाने वाले ब्यूटी प्रोडक्ट्स को सैनीटाईज करना बहुत जरूरी है . ताकि अगर
किसी ने उसे टच भी किया है, तो उससे किसी को इंफेक्शन न हो. साथ ही अगर आप वैक्स के लिए
स्पेक्टूला इस्तेमाल कर रहे हैं , तो कोशिश करें कि वो वुडेन हो, जिसे एक वयक्ति पर  इस्तेमाल करने के
बाद दोबारा इस्तेमाल करने की जरूरत न हो. इसलिए ये समय जहां मुश्किलों से भरा हुआ है, ऐसे में
सावधानी बरतकर व सयम रखने की बहुत जरूरत है.

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Work From Home Effect: क्या खत्म हो जाएगा ‘ऑफिस वाइफ-ऑफिस हसबैंड’ मुहावरा

कुछ साल पहले इंग्लैंड के गार्जियन अखबार ने एक सीरीज छापी थी, जिसका विषय था ‘आॅफिस वाइफ, ऑफिस हसबैंड’. वास्तव में यह विषय उस अमरीकी मुहावरे का तर्जुमाभर था, जिसका नाम है ‘वर्क-स्पाउस’. वर्क स्पाउस यानी कार्यस्थल के पति-पत्नी. दरअसल अमरीकी कार्यसंस्कृति में यह मुहावरा पिछली सदी के 70 और 80 के दशक में खूब हिट हुआ था, जब वहां उन दिनों बड़े बड़े कारपोरेट दफ्तरों वाले बिजनेस माॅल खुलने शुरु हुए थे, जैसे बिजनेस माॅल हिंदुस्तान में अभी कुछ सालों पहले खुलने शुरु हुए हैं. इस मुहावरे के मूल में धारणा यह है कि सालों साल एक साथ काम करते हुए एक औरत और एक आदमी आपस में पति-पत्नी जैसा व्यवहार करने लगते हैं. खासतौर पर तब, जब उन दोनों में हर कोई बहुत अच्छी अंडरस्टैंडिंग नोट करता हो.

वास्तव में यह कोई राजनीतिक या रसायनिक प्रक्रिया का नतीजा नहीं होता बल्कि यह एक सहज मानवीय प्रवृत्ति है. कहते हैं कि अगर कुछ साल कुत्ते के साथ भी बिता लिये जाएं तो उससे दिली लगाव हो जाता है. तब भला सालों साल साथ काम करने वाले दो लोग, वह भी तब जब वे विपरीत लिंगी हों, भला एक दूसरे के लिए लगाव क्यों नहीं पैदा होगा. दरअसल जब साथ काम करते-करते हमें काफी वक्त गुजर जाता है, तो हम एक दूसरे की सिर्फ काम की क्षमताएं ही नहीं, आपस में एक दूसरे की मानसिक बुनावटों और भावनात्मक झुकावों से भी अच्छी तरह से परिचित हो जाते हैं. जाहिर है ऐसे में दो विपरीत सेक्स के सहकर्मी एक दूसरे के लिए अपने आपको कुछ इस तरह समायोजित करते हैं कि वे एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं.

इस स्थिति के बाद उनमें आपस में झगड़ा नहीं होता, वे दोनो मिलकर काम करते हैं और काम भी ज्यादा करते हैं. उन्हें काम से थकान भी नहीं होती. दोनो साथ रहते हुए खुश भी रहते हैं. कुल जमा बात कहने की यह है कि ऐसे सहकर्मी मियां-बीवी की तरह का व्यवहार करने लगते हैं. इसलिए ऐसे लोगों को समाजशास्त्र में परिभाषित करने के लिए ‘वर्क-हसबैंड और वर्क-वाइफ’ की कैटेगिरी में रखा जाता है. धीरे धीरे इनके बीच हर वह भावना घटने लगती है, जो आमतौर पर किसी शादीशुदा जोड़ों के बीच घटती है. यहां तक कि इनमें भी कई बार तलाक तक होता है. कई बार इनके रिश्ते आपस में काफी ठंडे पड़ जाते हैं और कई बार इनके बीच अलगाव हो जाता है.

जब इस तरह के जोड़ों में से कोई एक किसी दूसरी कंपनी में चला जाता है तो अकेला बचा शख्स अपने लिए नया साथी तलाशता है, ठीक यही बात दूसरी कंपनी में गये शख्स के साथ भी लागू होती है. कई बार यह बिछुड़न ब्रेकअप जैसा एहसास कराती है, जबकि कई बार यह राहत भी देती है. कहने का मतलब यह कि लंबे समय तक टीम मेट के रूप में काम करने वाले दो विपरीतलिंगियों के बीच जबरदस्त भावनात्मक लगाव हो जाता है. इसलिए इन्हें उन तमाम एहसासों से गुजरना पड़ता है, जिससे कोई सामान्य जोड़ा गुजरता है. अमेरिका और यूरोप में तो तमाम मनोविद ऐसे भावनात्मक अलगाव से गुजरने वाले लोगों को काउंसलिंग की सुविधा भी देते हैं.

बहरहाल विशेषज्ञों का कहना है कि भले फिलहाल कोरोना के दबाव में पूरी दुनिया में वर्क फ्राम होम का चलन काफी तेजी से बढ़ गया हो और इस तरह के रिश्तों पर तलवार लटकने लगी हो. लेकिन ये ऐसी भावनात्मक जरूरत वाले रिश्ते हैं जो कभी भी खत्म नहीं हो सकते. जैसे ही स्थितियां सुधरेंगी, कोरोना का डर कम होगा. फिर से दफ्तर गुलजार होंगे. लोग एक दूसरे की नजदीकी से डरेंगे नहीं, झिझकेंगे नहीं, वैसे ही ये रिश्ते फिर से हरे हो जाएंगे. क्योंकि इन रिश्तों में बहुत गहरे तक भावनाएं जुड़ी होती हैं. यहां तक कि कई बार ऐसे जोड़े एक दूसरे का भावनात्मक साथ पाने के लिए अपनी उन्नति और अपनी तरक्की तक को दांव में लगा देते हैं. हालांकि विशेषज्ञों के मुताबिक यह व्यवहारिक कदम नहीं है. इस तरह के रिश्तों के भावनात्मक जाल में फंसकर अपनी बेहतरी के मौके को गंवा देना ठीक नहीं होता.

कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ने का अगर मौका मिला है तो हर हाल में उनमें चढ़ना चाहिए क्या मालूम ऊपर की सीढ़ियों में कोई और बेहतर साथी आपका इंतजार कर रहा हो, जो आपके प्रोफेशनल और भावनात्मक दोनो ही किस्म की जरूरतों को पहले साथी से बेहतर ढंग से पूरा कर सकता है. लेकिन इन बातों का ज्यादातर ऐसे जोड़ों में प्रभाव कम होता है. हां, जो इस तरह की भावनात्मक जकड़बंदी से उबरने के लिए मनोविदों का सहारा लेते हैं, उन्हें जरूर ऐसी बातें सहारा देती हैं. बहरहाल इस तरह के संबंधों को लेकर समाजशास्त्री कहते हैं कि कार्यस्थल पर किसी के साथ काम की जरूरतों और संस्कृति के चलते झुकाव होना गलत नहीं है यानी वर्क-हसबैंड या वर्क-वाइफ होना सामाजिक अनैतिकता नहीं है. इसलिए जैसे ही दफ्तर फिर से पुरानी रौ में आएंगे, यह मुहावरा फिर जिंदा हो जायेगा.

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