लेखिका- रत्ना पांडे
वह कुछ बोले, उस से पहले वसुंधरा ने ही बोल दिया, “बिलकुल चुप रह बसंती, सालों से तेरी बकबक सुन रही हूं, आज तुझे मेरी पूरी बात सुननी होगी. तुझे क्या लगता है, मेरी बहू खराब है, वह मेरा खयाल नहीं रखती या औफ़िस में आराम करने जाती है. आज उसी की वजह से मैं ठीक हो पाई हूं. नौकरी के साथ ही वह अपने घर की पूरी जिम्मेदारियां उठाती है. मेरा इतना खयाल रखती है कि मुझे कभी बेटी की कमी महसूस ही नहीं होती. आज उस की वजह से बच्चे इतने बड़े स्कूल में पढ़ रहे हैं. घर में हर सुखसुविधा है, दोदो कारें हैं, कामवाली है. यहां तक कि मेरी देखभाल के लिए यह सरोज भी है, जो हर वक़्त मेरे पास रहती है जब तक अंजलि न आ जाए और हां, मुझे सिर्फ़ आधा घंटा ही अकेले रहना पड़ता है. अंजलि के जाने के आधे घंटे के अंदर ही सरोज आ जाती है.”
“सिर्फ़ उसी दिन गड़बड़ हो गई थी. अंजलि की ख़ास मीटिंग थी, इसलिए औफ़िस से वह फोन नहीं कर पाई, वरना जाते ही उस का फोन आ जाता है, मां, सरोज आ गई न. किंतु उस दिन सरोज की साइकिल पंचर हो गई, इसलिए उसे देर हो गई. मेरी भी तबीयत उसी दिन बिगड़ गई. उस दिन मैं ने ही अंजलि से कहा था कि बाहर से ताला लगा दे बेटा, मैं सो रही हूं, सरोज ताला खोल कर ख़ुद ही अंदर आ जाएगी.”
“बसंती, तुझे क्या लगता है, तू ठीक कर रही है कामिनी के साथ. इतनी पढ़ीलिखी, होशियार लड़की ले कर आई है, उसे घर में कैद कर रखा है. तू क्यों उसे उस की जिंदगी जीने नहीं देती? क्यों अपनी इच्छाओं को उस पर लाद रही है? उस के उज्ज्वल भविष्य को क्यों बरबाद कर रही है? तुझे क्या लगता है, कामिनी बहुत खुश है? मैं ने उस की आंखों में हमेशा दर्द देखा है, जो तुझे कभी दिखाई नहीं देता. तुझे हमेशा तू ही सही लगती है, कोई और लड़की होती तो तेरी एक न सुनती, अपनी मरजी से नौकरी ढूंढ कर चली जाती. अरे, आजकल की लड़कियां तो अपने साथ बेटे का तबादला तक करवा लेती है ताकि सासससुर के साथ रहना न पड़े.
“लेकिन, कामिनी वैसी लड़की नहीं है. तू तो समय की बलवान है जो तुझे कामिनी जैसी बहू मिली है. हमें यदि अपने बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए कुछ देर अकेले रहना पड़े, थोड़ाबहुत त्याग करना पड़े, अपने ही घर की जवाबदारी में हाथ बंटाना पड़े, तो उस में गलत क्या है बसंती? बच्चे भी हमारे ही तो हैं, बहू भी हमारी बेटी ही तो है, फ़िर ऐसा भेदभाव क्यों? बसंती, तुझे सोचना होगा कि तू जो कर रही है, वह गलत है.
“एक बार सोच बसंती, हम अपनी ज़िंदगी में कुछ भी नहीं कर सके. हम भी पढ़ेलिखे थे. इस बात का दुख आज भी मन को शूल की तरह चुभता है. लेकिन वह और ज़माना था, आज का दौर कुछ और है. आज हम से कहीं ज्यादा पढ़ीलिखी लड़कियां हैं और समय भी तो बदल गया है न बसंती. आज और कल के फ़र्क को एक अकेले की कमाई से पूरा नहीं किया जा सकता. पतिपत्नी दोनों को कंधे से कंधा मिला कर काम करना पड़ता है. हम अपने स्वार्थ के लिए उन का रास्ता नहीं रोक सकते.”
वसुंधरा की बातें सुनतेसुनते बसंती की आंखों से आंसू की बूंदें टपटप कर के गिर रही थीं.
वसुंधरा ने उस का हाथ अपने हाथों में ले कर प्यार से कहा, “बसंती, सोच, सही सोच, अभी भी ज़्यादा देर नहीं हुई है, इंसान चाहे तो बिगड़ी बात ज़रूर बन सकती है.”
बसंती ने चश्मा उतार कर अपने आंसू पोंछे और उठ कर खड़ी हो गई, “मैं जा रही हूं वसु, मुझे देर हो रही है,” इतना कह कर बसंती चली गई.
वसुंधरा सोच रही थी, ‘मैं ने कुछ ज़्यादा तो नहीं कह दिया, बसंती को बुरा तो नहीं लग गया होगा.’ इतने में अंजलि भी आ गई. तब वसुंधरा ने अंजलि को सारी बात बताई.
अंजलि ने कहा, “ठीक ही तो है मां, आप ने ठीक किया. बसंती ताई को समझाना बहुत ज़रूरी था. उन्हें समझना ही होगा, तभी कामिनी का जीवन सुखी होगा.”
बसंती घर पहुंचते ही सोफे पर जा कर बैठ गई. उसे देख कर कामिनी तुरंत ही उस के पास आ कर बैठ गई और पूछने लगी, “मम्मी, कैसी हैं वसु आंटी? इतना पूछतेपूछते ही कामिनी ने बसंती की रोई हुई आंखों को पहचान लिया. क्या हुआ मम्मी, आप की आंखें ऐसी क्यों लग रही हैं? वसु आंटी ठीक हैं न?”
बसंती फफकफफक कर रो पड़ी और कामिनी को अपनी बांहों में भर लिया. वह बहुत देर तक रोती रही, कुछ बोल ही नहीं पा रही थी.
कुछ देर में जब वह सामान्य हुई, तब कामिनी से बोली, “बेटा, आज मेरी आंखें खुल गई हैं, सब से पहले तो मैं तुझ से माफ़ी मांगती हूं. मुझे माफ़ कर दे कामिनी बेटा. मैं ने तुम्हारे पांव में ज़ंजीर बांध रखी थी. मैं तुम्हारे भविष्य के आड़े आ गई थी. कुछ देर तो अवश्य ही हो गई है, पर बहुत देर नहीं हुई न कामिनी?”
“मम्मी, आप यह क्या बोल रही हैं? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा और मुझ से माफी क्यों मांग रही हैं आप?”
“कामिनी बेटा, मैं चाहती हूं, तुम भी नौकरी करो, तुम भी अपनी ज़िंदगी अपने मुताबिक ही जियो. हमारे बच्चे भी हर सुख उठा सकें और सचिन को भी मदद मिल सके. हमारे घर के सामने भी एक कार खड़ी हो. कामिनी बेटा, मैं स्वार्थी हो गई थी, मैं अपने लिए ही सोचती रही. मैं ने बहुत बड़ी गलती कर दी है, लेकिन आज वसुंधरा ने मेरी आंखें खोल दीं. अब मैं वसु से तभी मिलूंगी जब मिठाई ले कर उस के घर जाऊंगी.”
इतना सुनते ही कामिनी को मानो दुनिया की सब से बड़ी ख़ुशी मिल गई. उस ने झुक कर बसंती के पांव छुए. उस की आंखें अश्कों से भीग गई थीं, किंतु वे दुख के नहीं, ख़ुशी के मोती बनकर टपक रहे थे. कामिनी को बसंती ने सीने से लगा लिया. बसंती के दिमाग से एक गलत धारणा के निकलने से पूरे घर में ख़ुशी की लहर दौड़ गई.
वसुंधरा रोज़ बसंती की रास्ता देखती रही. वह जानती थी बसंती ज़रूर वापस आएगी, किंतु खाली हाथ नहीं मिठाई और कामिनी की नौकरी की खबर ले कर.
कुछ ही सप्ताह में कामिनी को नौकरी मिल गई. बसंती, सचिन और कामिनी मिठाई ले कर सब से पहले वसुंधरा के घर आए. बसंती के हाथों में मिठाई का डब्बा और कामिनी के चेहरे की ख़ुशी देख कर वसुंधरा बिना सुने ही सबकुछ समझ गई. बसंती ने मिठाई का टुकड़ा निकाल कर अपने हाथों से वसुंधरा को खिलाया और उस के गले लग गई. वसुंधरा ने भी उसे प्यार से अपनी ओर खींच लिया. आज दोनों सहेलियों के इस पुनर्मिलन में न जाने कितनी ख़ुशियां, कितनी समझदारी, कितना त्याग, कितना प्यार और अपने परिवार का कितना हित छिपा हुआ था.
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उस दिन बसंती कुछ न कह पाई थी जब वसुंधरा उसे समझा रही थी. लेकिन आज कुछ ख़ुशी और कुछ बहते हुए आंसुओं के साथ बसंती के मुंह से जो पहला वाक्य निकला, वह था, “वसु, मैं स्वार्थी हो गई थी.”