Love Story in Hindi: काश यह बंधन पहले बंधा होता

Love Story in Hindi: अनुज और अनुजा एक ही दफ्तर में काम करते थे. साथसाथ काम करते हुए कब एकदूसरे की तरफ खिंचाव महसूस करने लगे, नहीं जान पाए. अब तो ऐसे लगता जैसे एकदूसरे को देखे बिना चैन नहीं आता. पूरा दिन औफिस में साथ रहने के बावजूद जब शाम को अपनेअपने घर जाते तो लगता मानो अभी तो मिले थे और अभी बिछड़ रहे हैं. आखिर एक दिन दोनों ने अपने प्यार का इजहार कर दिया. लगभग 1 साल तक उन के प्यार का पौधा फूलनेफलने लगा और प्यार में एक दिन वह सब कर बैठते हैं जो शादी के बिना करना गलत माना जाता है अर्थात अनुजा और अनुज केवल मन से ही नहीं तन से भी एकदूसरे के हो गए.

अनुजा अनुज के प्यार में इतनी पागल हो गई कि बिन शादी के ही अपनी अस्मत उस पर कुरबान कर दी. ‘‘अनुज मेरे मातापिता मुझ पर शादी के लिए ज़ोर दे रहे हैं. मुझे लगता है अब हमें भी इस बारे में सोचना चाहिए.’’ ‘‘अनुजा डियर, यह प्यार के बीच में शादी कहां से आ गई?’’ ‘‘लेकिन एक न एक दिन तो शादी करनी ही है न?’’ ‘‘मैं शादी में विश्वास नहीं करता. शादी तो बिना बात का झंझट है. एक ऐसा बंधन है जो इंसान को पूरी जिंदगी न चाहते हुए भी ढोना पड़ता है.’’ ‘‘तो क्या… तुम… तुम मुझ से शादी नहीं करोगे? क्या तुम मुझ से प्यार नहीं करते?’’ अनुजा ने आंखों में आंसू लाते हुए पूछा. ‘‘अनुजा… तुम ऐसा क्यों सोचती हो कि मैं तुम्हें प्यार नहीं करता. मैं तुम्हें अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करता हूं.

तुम कहो तो मैं पल में तुम्हारे लिए अपनी जान दे सकता हूं. क्या तुम्हें मेरे प्यार पर विश्वास नहीं? अगर हम दोनों को एकदूसरे पर विश्वास है तो हमें शादी के ढकोसले की आवश्यकता नहीं. जरा सोचो जब हम इन बेवजह के बंधनों में बंध जाएंगे तो क्या हम इस तरह से अपनी लाइफ को ऐंजौय कर पाएंगे? हर पल, हर क्षण हमें इस बंधन में बंधे होने का एहसास होगा. रिश्तेनाते, बच्चे, घरपरिवार इन्हीं सब के घेरे में ही हमारी जिंदगी बीत जाएगी और अंत में हम जिंदगी न जीने का मलाल लिए जिस तरह से रोते हुए इस दुनिया में आए थे उसी तरह पछतावा करते हुए रोते हुए चले जाएंगे.

कुदरत ने हमें अमूल्य जीवनरूपी धरोहर दी है तो क्यों न इसे संवारे, न कि इसे उजाड़ें,’’ इस तरह से अनुज ने अनुजा को शादी के बंधनों से मुक्त रहने के लिए कहा. तब अनुजा ने भी सोचा कि अनुज ठीक कह रहा है क्योंकि उस ने मातापिता को तथा औफिस में भी कुछ लोगों को घरपरिवार के झंझटों में उलझे हुए अपने अरमानों का गला घोटते हुए, लड़तेझगड़ते, जिंदगी को बोझ समझ कर ढोते हुए देखा. और फिर शादी न कर लेती है, जिस कारण उसे मातापिता से विमुख होना पड़ा. अब अनुज और अनुजा बिना शादी के पतिपत्नी की तरह अर्थात लिव इन रिलेशनशिप में रहने लगे. दोनों हर बंधन से मुक्त हंसीखुशी अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे. अचानक उन की जिंदगी में बहुत बड़ा बदलाव आया.

लगभग लिव इन रिलेशनशिप में 8-10 साल हंसीखुशी बिताने के बाद एक दिन अपनी ही जिंदगी के आनंद में खोई अनुजा को पता ही नहीं चला कि कब वह 1 से 2 होने की तैयारी में है अर्थात अनुजा को एक बार महावारी नहीं आई तो उस ने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया लेकिन जब अगले महीने फिर से महावारी नहीं आई तो उसे चिंता होने लगी. चैक कराने पर पता चला कि अनुजा मां बनने वाली है. हर औरत में एक कोना मां का भी होता है. उस के अंदर की सुषुप्त मां जिसे आज तक उस ने अपनी खोखली खुशियों के नीचे दबाया हुआ था वह जाग उठी. एक मां का दिल धड़कने लगा. वह खुशी से फूली न समाई. अब तक दोनों ही अपनी जौब में तरक्की कर चुके थे जिस से कि दोनों अलगअलग औफिस में सीईओ की ऊंची पोस्ट पर थे. अनुजा ने सोचा कि आज घर पहुंचते ही अनुज को वह बहुत बड़ा सरप्राइज देगी.

औफिस से लौटते हुए अनुजा मिठाई, फूलों का गुलदस्ता और बच्चे के छोटेछोटे 2-3 खिलौने तथा एक पालना भी लेती आई. जैसे ही घर आई अनुज ने सारा सामान देख कर पूछा, ‘‘अरे, किस कैदी के घर जाना है. (अर्थात वे शादीशुदा लोगों को कैदी कहा करते थे) किस का बच्चा हुआ है जो इतना सामान ले कर आई हो?’’ प्यार से अनुज के गले में बांहें डालते हुए अनुजा ने कहा, ‘‘आज मैं किसी और के बच्चे के लिए नहीं अपने बच्चे के लिए ये सब लाई हूं. हमारे बच्चे के लिए.’’ ‘‘क्या… तुम पागल तो नहीं हो गई? नहीं… नहीं… हमें नहीं चाहिए कोई बच्चा,’’ अनुज ने हंसते हुए कहा. ‘‘अनुज मैं सच कह रही हूं, मैं मां और तुम पापा बनने वाले हो. दरअसल, कुछ दिनों से मेरी तबीयत ठीक नहीं लग रही थी और मुझे 2 महीने से महावारी भी नहीं आई थी लेकिन मैं ने इस बारे में ज्यादा सोचा ही नहीं. लेकिन आज मैं ने डाक्टर से चैक कराया तो पता चला कि मैं मां बनने वाली हूं.’’ ‘‘तुम्हारा दिमाग तो ठीक है… जिन बंधनों से छूटने के लिए हम ने शादी नहीं की फिर से उन्हीं बंधनों में बंधने के लिए कह रही हो? मेरी मानो तो अभी चल कर अबौर्शन करा लो.

मेरे एक दोस्त की बीवी डाक्टर है. मैं उस से अभी फोन पर अपौइंटमैंट ले लेता हूं. तुम कल जा कर उन से मिल लेना और इस बंधन से छुटकारा पा लेना.’’ ‘‘नहीं अनुज मुझे यह बंधन जान से भी प्यारा है. मैं इस बंधन के लिए दिल से तैयार हूं. मैं मां बनना चाहती हूं अनुज… मां… हां अनुज आज मैं सचमुच इन बंधनों में बंधने के लिए तैयार हूं और तुम देखना एक दिन तुम्हें भी यह बच्चा अपने बंधन में बांध देगा.’’ ‘‘देखो अनुजा… तुम अभी उतावलेपन में निर्णय ले रही हो, इसलिए अभी तुम दिमाग से नहीं दिल से सोच रही हो और जिंदगी दिल से नहीं दिमाग से सोचने पर चलती है. हम दिमाग से सोचते हैं तभी हम कमाते हैं, खाते हैं, पहनते हैं, जीवन का आनन्द लेते हैं.

अगर दिल से सोचते तो हम काम के बदले में धन क्यों लेते? यही सोचते कि चलो कोई बात नहीं हम ने किसी की काम में मदद कर दी और अगर धनार्जन नहीं करते तो खाते कहां से? खाते नहीं तो जीते कैसे और इस अमूल्य जीवन का आनंद लेते कैसे? मेरी बात को शांत दिमाग से सोचो. इस बच्चे के आने से तुम्हारा जीवन अस्तव्यस्त हो जाएगा, तुम अपने जीवन को जी कर नहीं बल्कि एक बंधन निभाते हुए काट कर बिताओगी. शेष जैसे तुम चाहो लेकिन मुझ से कोई आशा न रखना. तुम अपने जीवन में स्वतंत्र हो, लेकिन तुम अगर सोचो कि मैं इस में तुम्हारे साथ हूं तो ऐसा नहीं.

तुम मेरी तरफ से आजाद हो.’’ तुम मेरी तरफ से आजाद हो यह शब्द सुन कर अनुजा पर तो मानो गाज गिर पड़ी. लगभग 40 साल की उम्र में अब वह कहां जाए? मातापिता रहे नहीं, भाई ने दुनिया के तानों से बचने के लिए बहन से रिश्ता ही खत्म कर लिया था और जिस के लिए घरपरिवार छोड़ा, लोगों के ताने सहे, आज वह भी उसे छोड़ने को तैयार बैठा है. लेकिन उस ने एक निर्णय मजबूत मन से लिया कि वह मां बन कर रहेगी. यही सोच कर उसी समय अपना सामान पैक किया और चल दी अनजान राह पर.

रात गैस्टहाउस में बिताई. सुबह ही अपने लिए कोई ठिकाना तलाश किया और दूसरे शहर में जौब के लिए अप्लाई किया. इत्तफाक से 2-4 दिनों में ही जौब मिल गई और अनुजा उस शहर को अलविदा कह कर चली गई. अनुजा अपना सामान्य जीवन जीने लगी लेकिन उस ने उस के बाद कभी अनुज से मिलने की कोशिश नहीं की और उधर अनुज कुछ समय में ही अनुजा को भूल कर किसी और के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रहने लगा. वक्त बीता अनुजा की प्यारी सी बेटी हुई.

मगर हर उस कदम पर अनुजा को मुश्किलों का सामना करना पड़ा जहां पिता के नाम की आवश्यकता होती है क्योंकि जब विधि से विवाह ही नहीं हुआ तो कौन उस का पति कहलाता और कौन बेटी का पिता? वह स्वयं को विधवा भी तो नहीं कह सकती थी. कहती भी तो किस की विधवा कहती वह खुद को? अनुजा की बेटी सारा आज 25 साल की खूबसूरत युवती है और इत्तफाक से अनुज के शहर उसी के ही औफिस में उस की नौकरी लगी.

न जाने क्यों पहले ही दिन से अनुज और सारा दोनों ने ही एकदूसरे की तरफ एक खिंचाव सा महसूस किया. लेकिन इस बीच जब अनुजा और अनुज का संबंध विच्छेद हुआ था तो उस बीच दोनों को ही एकदूसरे के बारे में जानकारी नहीं रही, दोनों अपने जीवन में आगे बढ़ चुके थे. लेकिन इस ढलती उम्र में अब अनुज के साथ कोई नहीं था क्योंकि उस के इस बिना शादी के साथ रहने के फैसले से उस के मातापिता ने भी संबंध विच्छेद कर लिया था और रही बात जीवनसाथी की तरह साथ रहने की तो इस अधेड़ उम्र में कोई भी लड़की या औरत साथ रहने को तैयार नहीं होती.

एक दिन अनुज को औफिस में बैठेबैठे ही हार्टअटैक आया. उसे तुरंत अस्पताल तो पहुंचाया गया मगर रिश्तेदार के नाम पर कोई न था जोकि उस की देखभाल करता. सारा स्टाफ शाम को अपनेअपने घर चला गया. मगर जब सारा ने देखा कि अनुज सर की देखभाल के लिए कोई भी नहीं है तो वह वहीं अस्पताल में रुक गई क्योंकि औफिस से आते ही रोज वह मां से बात किया करती और बात करतेकरते उन से वीडियो कालिंग पर पूछपूछ कर खाना बनाती थी.

लेकिन आज फोन न आने पर अनुजा को चिंता होने लगी तब अनुजा ने सारा को फोन किया. सारा ने मां को बताया कि वह आज अस्पताल में ही रुकेगी क्योंकि उस के बौस को हार्टअटैक आया है तथा उन की स्थिति चिंताजनक है. उन का कोई रिश्तेदार नहीं है जो उन के साथ रह सके. सारा की बात सुन कर अनुजा परेशान हो उठी कि अकेली लड़की को किसी पराए मर्द के साथ कैसे छोड़े? न जाने कल को यह जमाना उस पर क्याक्या तोहमत लगाए इसलिए वह फौरन सारा से अस्पताल का पता पूछ कर वहां के लिए निकल पड़ी.

इधर भोर होते ही जब डाक्टर चैक करने आए तो बताया कि सर अब खतरे से बाहर है. सर को खतरे से बाहर घोषित कर दिया गया था. अनुजा ने आतेआते सुना तो बेटी से बोली, ‘‘अब सर ठीक हैं तो तुम घर चलो, ऐसे यहां तुम्हारा अकेले रहना ठीक नहीं. अब कोई न कोई रिश्तेदार आ ही जाएंगे उन की देखभाल के लिए.’’ ‘‘ठीक है मां मैं सर से एक बार मिल कर आती हूं तो फिर चलते हैं. अरे हां मां, आप यहां तक तो आ ही गई हैं सर से तो मिल लीजिए, उन्हें भी अच्छा लगेगा.’’ ‘‘हां सारा यह तुम ने सही कहा. चलो एक बार मिल कर फिर घर चलते हैं.’’ लेकिन जैसे ही अनुज के कमरे में कदम रखा, अनुज को देख कर अनुजा के कदम रुक गए.

वह बुत की तरह जहां खड़ी थी वहीं की वहीं खड़ी रही गई. ‘‘मम्मां आओ न, रुक क्यों गए?’’ सारा ने अनुजा को झंझड़ा तो अनुजा जैसे अचेतन से चेतन अवस्था में आई. ‘‘अ… हां… हां… चलो बेटा.’’ ‘‘सर ये मेरी मम्मा हैं और मम्मा ये सर हैं. सर आप अपने परिवार वालों का नंबर दीजिए हम उन्हें फोन कर के बता दें ताकि वे समय पर आप के पास आ सकें.’’ अनुज भरी आंखों से अनुजा की तरफ देखे जा रहा था. उसे बोलने के लिए शब्द नहीं मिल रहे थे कि आज इतने बरसों बाद अनुजा को देख कर वह क्या कहे और क्या न कहे. दोनों को चुप देख कर सारा मां अर्थात अनुजा को कुहनी मार कर बोली, ‘‘मां… क्या कर रही हो सर को ग्रीड तो करो.’’

तब अनुजा एकदम जैसे सोते से जागी हो, ‘‘ओह… हां… हां… नमस्कार सर, अब तबीयत कैसी है आप की?’’ अनुजा के इस तरह बोलने से अनुज के दिल पर चोट लगी, ‘‘अनुजा… क्या…. क्या… यह… यह हमारी बेटी… हमारी बेटी है?’’ ‘‘सौरी सर… यह मेरी बेटी है.’’ ‘‘अनुजा… प्लीज…. मुझे माफ कर दो… मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया है. काश… मैं ने तुम्हारी बात मान ली होती.’’ सारा उन दोनों को बड़ी हैरानी से देखे जा रही थी कि ये एकदूसरे को कैसे जानते हैं और सर किस बात की उस की मां से माफी मांग रहे हैं. ‘‘सर, आप को कोई गलतफहमी हुई है, शायद आप को मेरा चेहरा किसी से मिलताजुलता लग रहा है,’’ और इतना कहते ही सारा मां हाथ पकड़ कर जाने के लिए मुड़ी. जैसे ही अनुजा जाने के लिए मुड़ी, ‘‘मुझ से शादी करोगी?’’ अनुज एकदम से बोला.

उस की बात सुन कर दोनों रुक गईं. लेकिन अब सारा चुप न रही. बोली, ‘‘मम्मा यह क्या है? क्या आप दोनों एकदूसरे को जानते हैं? सर आप… आप ऐसे किस तरह से मेरी मम्मा से बात कर रहे हैं? मैं कुछ समझ नहीं पा रही कि आखिर मामला क्या है?’’ ‘‘अनुजा मैं जानता हूं मैं ने बहुत गलत किया था उस समय, काश… मैं उस समय तुम्हारी बात को समझता, बंधनों का मूल्य जान पाता.

काश, मैं यह जान पाता कि ये शादी के बंधन कितने आवश्यक हैं, काश मैं इन बंधनों में बंधा होता. आज मेरा भी परिवार होता, मेरा भी कोई दुखसुख का साथी होता, मेरा भी कोई अपना कहने और कहलाने वाला होता. लेकिन मैं इन पवित्र बंधनों को बोझ समझता रहा और दूर भागता रहा इन से. आज मैं इन बंधनों का मूल्य जान पाया हूं. मुझे इस बंधन में बांध लो अनुजा, मुझे इतनी बड़ी सजा मत दो. मैं तुम्हारे लिए, अपने अंश के लिए बहुत तरसा हूं, मुझे और न तरसाओ. मेरा विश्वास करो मैं ने तुम्हें बहुत ढूंढ़ने की कोशिश की मगर तुम्हारा कुछ पता नहीं चला.

तुम्हारे सभी दोस्तों से जानने की कोशिश की लेकिन किसी ने भी कुछ न बताने का प्रण कर रखा हो जैसे. शायद कुदरत ने इसीलिए मुझे यह सजा दी है. अब मेरा परिवार मिला है तो अब मैं इस बंधन को कमजोर नहीं होने दूंगा.’’ अनुजा मूक खड़ी अनुज की बातें सुन रही थी. उस से कुछ बोलते न बना. अनुज की आंखों से झरझर गंगाजमुना बहने लगी. इधर अनुजा के भी आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे. इन सब में सारा हैरानपरेशान सी उन दोनों को देखते हुए मां से बोली, ‘‘मम्मा… आप रो क्यों रहे हो और जहां तक मैं समझ रही हूं कि आप दोनों एकदूसरे को अच्छे से जानते हो, लेकिन इस के पीछे क्या कहानी है यह मैं समझ नहीं पा रही.’’ ‘‘सारा मेरी बच्ची मैं तुम्हें सुनाता हूं अपने कर्मों की सारी कहानी.

तू मेरा अंश है मेरी बच्ची, आ एक बार मेरे सीने से लग कर अपने पापा की विरह में झलसते मन को ठंडक पहुंचा दो,’’ इतना कह कर अनुज ने बांहें फैलाईं और सारा को अपने सीने से लगा लिया. सारा की आंखों से भी गंगाजमुना बह रही थी, मगर वह क्या कहे और क्या न कहे कुछ समझ नहीं आ रहा था. अचानक अनुज को खून की उलटी हुई. अनुजा एकदम से चीख उठी, ‘‘अ…नु…ज…’’ क्योंकि प्यार कभी मरता नहीं, बेशक दोनों अलग थे मगर प्यार तो दिल में था. अनुजा ने सदा अनुज को ही अपना पति माना. अनुजा की चीख सुन कर डाक्टर, नर्स सभी दौड़े आए. इतनी ही देर में बहुत से प्रैस रिपोर्टर भी आ गए क्योंकि अमीर का कुत्ता भी बीमार हो तो अखबार की सुर्खियां बन जाता है और ये तो शहर की सब से बड़ी कंपनी के सीईओ और शहर के सब से बड़े अस्पताल में दाखिल कोई न्यूज न बने ऐसा तो हो नहीं सकता न.

सभी रिपोर्टर्स मना करने के बावजूद कमरे में घुस गए. उस पर लड़खड़ाती जबान में अनुज ने भी कहा कि रिपोर्टर्स को अंदर आने की इजाजत दी जाए क्योंकि वह अनुजा और सारा के साथ अपना रिश्ता सरेआम बताना चाहता था. इसलिए अनुज ने डाक्टरों के मना करने के बावजूद किसी को कमरे से बाहर नहीं जाने दिया. अनुज ने लड़खड़ाती जबान में बोलना शुरू किया, ‘‘डाक्टर मेरा समय आ गया है. मुझे इलाज की नहीं अपने परिवार की आवश्यकता है इसलिए मेरी विनती है कि मुझे अंतिम क्षण अपने परिवार के साथ बिताने दिए जाएं.’’ डाक्टर भी देख चुके थे कि अनुज की कंडीशन सीरियस है इसलिए उन्होंने अपना प्रयास जारी रखते हुए किसी को भी उन से दूर अर्थात कमरे से बाहर जाने को मजबूर नहीं किया.

अनुज ने अपने खून से अंगूठे को लगा कर अनुजा की मांग में लगा दिया और बोला, ‘‘जब तक मेरी सांसें हैं तब तक तुम मेरी पत्नी कहलाओगी और मेरे मरने के बाद तुम मेरी विधवा कहलाओगी. सारा आज और अभी से अनुज की बेटी है. अनुज की पोस्ट एवं प्रोपर्टी पर केवल सारा का हक है. मेरी मुखाग्नि देने का हक भी सारा को है,’’ इतना कहते ही अनुज चुप हो गया. उस की गरदन एक ओर लुढ़क गई. सारा और अनुजा चीखचीख कर अनुज को पुकारने लगीं कि काश यह बंधन पहले बांधा होता, मगर अनुज कहां था जो सुन पाता. लेकिन हां वह बंधन में तो आज खुशीखुशी बंध चुका था.’’

Love Story in Hindi

Fictional Story: वह एक थप्पड़

Fictional Story: पति से अलग होते ही नेहा के सामने पहली बड़ी समस्या आई कि रहा कहां जाए? रोहन तो ऐलीमनी देने को राजी था लेकिन नेहा के जमीर को यह गवारा न हुआ कि वह अपने स्वाभिमान को छोड़े, हालांकि कानूनी तौर पर वह ऐलीमनी की हकदार थी लेकिन कानूनी हक से ज्यादा वह अपने स्वाभिमान को स्पेस देती थी. रोहन नेहा के लिए बीती जिंदगी से अधिक कुछ नहीं था.

हां, कभी वह जीवन का हिस्सा था, पर जब उस ने पहली बार उस पर हाथ उठाया था तब से भीतर ही भीतर बहुत कुछ टूटने लगा था. नेहा ने उस थप्पड़ के बाद भी रिश्ता निभाने की कोशिश की थी, मगर हर बार वह थप्पड़ जैसे दीवार पर छपा निशान बन कर खड़ा रहा. आखिरकार नेहा ने तय किया कि अब नहीं. उस ने अब जिंदगी को नए सिरे से जीने का प्लान किया. रहने के लिए दिल्ली के वसंत कुंज में किराए पर नया घर लिया. एक दिन अचानक बिजली चली गई तो वह नीचे वाले फ्लैट में मोमबत्ती मांगने गई.

नई जगह शिफ्ट करने पर न चाहते हुए भी रोजमर्रा की जिंदगी की कितनी ही चीजें हम नहीं ला पाते. अचानक उन की जरूरत पड़े तो पड़ोसी आज भी काम आते हैं. नेहा को याद है, जब वह गांव में रहती थी तो खाने की वस्तुओं का आदानप्रदान पड़ोसपड़ोस में खूब चलता था, मूंग की दाल की कटोरी के बदले में उड़द की दाल एकदूसरे के घर से ली जाती थी. तब बाजार की दाम व्यवस्था ज्यादा माने नहीं रखती थी, आपसी मेलजोल को लोग ज्यादा तवज्जो देते थे.

उस समय को याद कर नेहा को हंसी आई. नीचे के फ्लैट की डोरबैल बजाते ही दरवाजा खुला तो सामने एक दुबलेपतले बुजुर्ग खिचड़ी में तड़का डाल रहे थे. सफेद कुरता, सादगी से सजी छोटी रसोई और दीवार पर कुछ पुराने फोटो. एक में उन की पत्नी, एक बेटे का दीक्षांत समारोह और एक में छोटा बच्चा केक काट रहा था. ‘‘मोमबत्ती चाहिए? ले लो बेटा.’’ ‘‘जी, लाइट चली गई है.’’ ‘‘हां, तुम नए आए हो शायद ऊपर वाले फ्लैट में?’’ ‘‘जी.’’ ‘‘अच्छा किया. अकेलापन थोड़ा कम लगता है जब घरों में लोग होते हैं.’’ धीरेधीरे बातचीत बढ़ी. कभी कोई काम, कभी कोई बहाना तो कभी बस यों ही शाम की हवा में 2 बातें.

वे पार्क की एक बैंच पर रोज शाम को बैठते. चाय की थर्मस लाते, नेहा भी शाम को पार्क घूमने जाती. वे नेहा को भी चाय का कप औफर करते. नेहा को धीरेधीरे उन के साथ एक मानसिक सुकून मिलने लगा.

शायद इसलिए कि उन के भीतर भी कोई टूटी चीज थी जो नेहा की अपनी टूटन से मेल खाती थी. एक दिन बारिश हो रही थी. वे दोनों पार्क के शैड के नीचे बैठे थे, जब उन्होंने अचानक पूछा, ‘‘कभी अमेरिका गई हो?’’ ‘‘नहीं,’’ नेहा ने जवाब दिया, ‘‘पर जाना चाहती हूं.’’ ‘‘अच्छा पर वापसी का टिकट खुला रखना.’’ नेहा मुसकराई पर उन की आंखों में मुसकान नहीं थी. उन्होंने कहना शुरू किया, बहुत धीरे और थमे हुए शब्दों में, ‘‘बेटा टैक्सास में रहता है. पढ़ाई कर के वहीं बस गया. बहू नौकरी करती है, आईटी कंपनी में.

नाती 8 साल का है, बहुत तेज. 2 साल पहले गया था मैं उन के पास, सोचा थोड़े दिन साथ रहूंगा, वक्त बिताऊंगा, पोते को जानूंगा. मेरी पत्नी नहीं रही, यहां अकेलापन खाता है.’’ उन्होंने हलकी सांस ली. फिर आगे बोले, ‘‘पहले कुछ दिन अच्छे रहे. घर बड़ा था, सब सुविधाएं थीं. पोता स्कूल जाता, शाम को मोबाइल और टैबलेट में खोया रहता. एक दिन वह गेम खेलतेखेलते गालियां देने लगा. मैं ने टोका. बोला तो और चिल्लाने लगा. आदतन जैसे अपने बेटे को कभीकभी थप्पड़ मार दिया करता था, वैसे ही हलके से एक थप्पड़ दे दिया. बस, यही गलती थी मेरी.’’ नेहा सुनते हुए हैरान थी. ‘‘पोता ने तुरंत चीखा कि डौंट टच मी, आई विल काल द पोलिस,’’ मैं ने सोचा, मजाक कर रहा है.

लेकिन वो सीधा कमरे में गया और 911 डायल कर दिया. 5 मिनट में पुलिस आ गई. बहू ने दरवाजा खोला और अंगरेजी में बताया कि डैड ने बच्चे को मारा है. मैं कुछ समझा नहीं पा रहा था. मुझे लगा, बेटा समझाएगा. लेकिन वह आया तो सिर्फ इतना कहा कि डैड यू कांट हिट किड्स हियर. इट इज सीरियस और फिर अपनी गरदन झाका ली. ‘‘पुलिस मुझे साथ ले गई. वहां घंटों बैठा रहा.

सवाल पूछे गए जैसे मैं कोई अपराधी हूं. वकील आया, बेल कराई गई. रात में बेटे ने घर ला कर सिर्फ इतना कहा कि पापा, आप को यहां के नियम समझने होंगे. बहू ने कहा कि हम आप को बहुत मानते हैं, लेकिन बच्चों को मारना यहां जुर्म है. मैं चुप रहा. अगली सुबह फ्लाइट बुक कर ली. बेटा एअरपोर्ट तक आया बहू नहीं. रास्ते भर कोई बात नहीं हुई.’’ बारिश अब धीमी हो गई थी.

वे सामने सड़क की ओर देख रहे थे जैसे कोई पुरानी बात याद कर रहे हों. वापस आया तो यह घर वीरान लग रहा था. पत्नी तो कब की जा चुकी थी पर कभीकभी फोन आता है बेटे का. बस हालचाल. नाती से बात नहीं होती. मैं पूछता भी नहीं. ‘‘पड़ोसी पूछते हैं, क्या हुआ जी, बहू से झागड़ा हो गया? कोई कहता है, बुजुर्ग वहां नहीं टिकते, बच्चों के बीच एडजस्ट नहीं कर पाते. मैं चुप रहता हूं.

किसी को क्या समझाऊं कि मेरी गलती क्या थी? बस एक थप्पड़.’’ अब वे चुप हो गए. नेहा भी चुप थी. ‘‘अब अकेले रहता हूं. सुबह खुद के लिए चाय बनाता हूं, खुद ही सब्जी काटता हूं. पुराने गाने सुनता हूं. कभीकभी फ्लैट में भजन बजा देता हूं, शायद उस सन्नाटे को भरने के लिए.’’ नेहा ने देखा, उन की आंखें भीग चुकी थीं. ‘‘जानता हूं, तुम भी कभी विदेश जाओगी. बस इतना याद रखना, संवेदनाओं का अनुवाद नहीं होता और वहां संस्कृति भी पासपोर्ट मांगती है. हमारे यहां प्यार में गुस्सा आता है, वहां गुस्से में मुकदमा हो जाता है.’’ फिर वे और छड़ी संभालते हुए बोले, ‘‘मुझे वह बच्चा अब भी याद आता है और सोचता हूं, क्या वह एक थप्पड़ इतना बड़ा अपराध था?’’ नेहा उन्हें जाते देखती रही.

उसे याद आया वह दिन जब रोहन ने उसे थप्पड़ ही तो मारा था, वह भीतर ही भीतर महसूस करती रही, वह थप्पड़ शायद किसी गाल पर नहीं, रिश्तों की नींव पर पड़ा था और उस दिन से आज तक वह नींव हिलती ही रही. मगर आज उन बुजुर्ग की कहानी सुन कर नेहा को लगा कि शायद गलती सिर्फ ‘थप्पड़’ में नहीं थी बल्कि उस समय और संवेदना में थी जो अब बीत चुकी है.

  • पूजा अग्निहोत्री

Fictional Story

Hindi Family Story: दोस्त बस और कुछ नहीं

Hindi Family Story: रचना ने दरवाजे का ताला खोला और अंदर आ गई. पीछेपीछे सामान का थैला उठाए प्रसून भी अंदर आ गया. रचना पूरे महीने का सामान इकट्ठा नहीं लाती थी. दुकान से वापस आते हुए हफ्ते में एक बार जितना जरूरी होता था उतना खरीद लाती थी. प्रसून ने थैला किचन में जा कर रख दिया और फिर रचना से बोला, ‘‘तुम फटाफट चाय बनाओ तब तक मैं प्रियांशु को ले आता हूं.’’ ‘‘जी ठीक है,’’ कह कर रचना हाथमुंह धोने बाथरूम में चली गई. प्रसून प्रियांशु को लेने चला गया.

2-3 घर छोड़ कर ही एक घर में बच्चों का झलाघर था जिस में 6 महीने से ले कर 13-14 वर्ष तक के बच्चे रहते थे. यह एक वृद्ध दंपती का घर था. उन के दोनों बच्चे अमेरिका में सैटल हो चुके थे और अपनीअपनी गृहस्थी में पूरी तरह रम गए थे और खुश थे. यह उन की खुशी का ही परिणाम था कि यह वृद्ध दंपती नातीपोतों से खेलने की उम्र में यहां अकेले एकाकी रह गए थे. अपना एकाकीपन काटने के लिए उन्होंने झलाघर खोल लिया. इस महल्ले में वे 40 वर्षों से रह रहे थे. स्वभाव के भी अच्छे थे. सब लोग उन्हें जानते और मानते थे. 1-1 कर दूर पास के कई बच्चे उन के पास आ गए. घर विभिन्न उम्र के नातीपोतों से भर गया, साथ ही अतिरिक्त आय भी हो जाती.

समय एक अच्छे काम में व्यतीत हो जाता. बच्चों को प्यार से संभालने वाले दादादादी मिल गए और मातापिता को बच्चों की अच्छी और सुरक्षित देखभाल का आश्वासन. सब की समस्याओं का समाधान हो गया. प्रसून रोहनजी के घर पहुंचा तो प्रियांशु उन की गोद में बैठा कहानी सुन रहा था. बाकी बच्चे दरी पर आसपास बैठे थे. प्रियांशु तो रोहन दंपती का खास प्यारा था. प्रसून को देखते ही प्रियांशु चहक उठा, ‘‘अंकल आ गए.’’ प्रसून ने हंस कर उसे गोद में ले लिया, ‘‘घर चलें बेटा?’’ ‘‘हां चलो,’’ प्रियांशु ने उस के गले से लिपटते हुए कहा. प्रसून ने प्रियांशु का स्कूल बैग लिया, रोहनजी को नमस्ते कहा और घर की ओर आ गया.

रचना ने चाय तैयार रखी थी और प्रियांशु के लिए दूध भी. प्रियांशु दूध पीने में नखरे करने लगा तो प्रसून ने थैली में रखे तरहतरह के बिस्कुट दिखा कर दूध पीने को राजी कर लिया. क्रीम वाले बिस्कुट देख कर प्रियांशु खुश हो कर दूध पी गया. रचना और प्रसून चाय पीने लगे. चाय पीने के बाद प्रसून जाने लगा तो रचना ने उसे रोक लिया कि वह रात का खाना खा कर ही जाए. ‘‘प्रिया दीदी तो है नहीं अब आप रात का खाना खाकर ही घर जाइए. अकेले क्या बनाएंगे.’’ ‘‘ठीक है तुम खाने की तैयारी करो तब तक मैं प्रियांशु को पार्क में झले पर झुला लाता हूं,’’ प्रसून ने कहा और प्रियांशु को ले कर बाहर चला गया. रचना जा कर रोहन दंपती को भी रात के खाने का न्योता दे आई.

झला घर के सब बच्चों के जाने के बाद थोड़ी देर आराम कर के रोहन रचना के पास चले आए उस की मदद कराने. दोनों रसोईघर में काम करते हुए गप्पें मारने लगीं. सुनीता यानी रोहन की पत्नी को अपनी दोनों ही बहुओं के साथ रहने, बातें करने का सुख तो मिला ही नहीं. एक बहू तो विदेशी ही थी. उसे तो उन्होंने आज तक देखा ही नहीं. उन के बड़े बेटे ने चर्च में शादी कर लेने के बाद अपनी शादी की खबर देते हुए फोन कर दिया और फोटो भेज दिए थे. उन्होंने बहुत कहा कि बस एक बार बहू को ले कर भारत आ जाओ तो वे लोग प्रत्यक्ष उस से मिल लेंगे लेकिन उन की अल्ट्रा मौडर्न विदेशी बहू यहां आने को किसी भी कीमत पर तैयार नहीं हुई.

दूसरे बेटे के लिए उन्होंने खुद लड़की देखी थी लेकिन वह भी शादी कर के अमेरिका जा बसी तो आज तक कभी 4 दिन भी उन के पास आ कर नहीं रही. 4 साल में उन का छोटा बेटाबहू 2 बार भारत आए लेकिन हर बार उन्हें न बता कर चुपचाप बहू के मायके में पूरी छुट्टियां बिता कर 2-4 दिन जाने के पहले उन के पास औपचारिकतावश रह जाते हैं. अब तो रोहन सुनीता ने अपना पूरा ध्यान झलाघर के बच्चों पर केंद्रित कर लिया है और अपने दिमाग से बेटेबहू को पूरी तरह निकाल दिया है.

जो भी खुशी है वह इन बच्चों और महल्ले के पुराने परिचितों में ही है. यही उन का सच्चा परिवार है. रचना से सुनीता आंटी को बहुत स्नेह है. वह भी हालात की मारी हुई और ससुराल से सताई हुई लड़की है. लेकिन उस ने हिम्मत और धीरज से काम लेते हुए अपनेआप को भी संभाला और अपने बच्चे को भी पाल रही है. सुनीता आंटी की मदद से रचना का काम काफी जल्दी हो गया. तब तक रोहन अंकल और प्रसून भी प्रियांशु को ले कर आ गए. सब ने साथ बैठ कर खाना खाया. खाने के बाद आंटी ने फटाफट किचन साफ कर दिया. 9 बजे प्रसून अपने घर चला गया. थोड़ी देर बाद अंकलआंटी भी अपने घर चले गए.

रचना ने दरवाजे पर ताला लगाया और प्रियांशु को ले कर कमरे में आ गई. सुबह 7 बजे ही प्रियांशु की बस आ जाती है तो वह रात में जल्दी सो जाता है. उस के सोते ही रचना की भी आंखें झपकने लगीं और जल्द ही वह भी सो गई. सुबह 5 बजे अलार्म बजने के साथ ही रचना की नींद खुल गई. वह जल्दी से उठी, हाथमुंह धो कर प्रियांशु का टिफिन बनाने लगी. एक तरफ उस ने चाय का पानी चढ़ा दिया.

प्रियांशु के लिए दूध गरम कर के उस ने उसे उठाया और नहला कर स्कूल के लिए तैयार कर दिया. दूधबिस्कुट खिला कर रचना ने पानी की बोतल और टिफिन उस के बैग में रखा और उसे बस स्टौप पर छोड़ने गई. 5-7 मिनट में ही बस आ गई. रचना ने प्रियांशु को बस में बैठाया और घर वापस आ गई. थोड़ी देर अखबार पढ़ते हुए रचना ने चाय पी और फिर घर के बाकी काम निबटाने लगी. काम भी क्या, रचना ने एक गहरी सांस ली, छोटा सा रसोईघर, थोड़े से बरतन, बाहर एक छोटी सी बैठक उसी से लगा हुआ डाइनिंग हाल और एक छोटा सा बेडरूम बस. अपने लिए 2-4 रोटियां बनाईं और खाना तैयार.

नहाधो कर उस ने लंच पैक किया और तैयार हो गई. 9 बजे प्रसून आ जाता था उसे लेने और उसे सुपरमार्केट में ड्रौप कर देता था जहां वह काम करती थी. उसी मार्केट से आगे प्रसून का औफिस था. शाम को लौटते हुए प्रसून उसे वापस ले आता था और घर पर ड्रौप कर देता था. पिछले 4 सालों से उस की यही दिनचर्या है. रोहन दंपती प्रसून और प्रियांशु यही उस की छोटी सी दुनिया और यही उस का परिवार है. कभीकभी प्रसून की पत्नी प्रिया और दोनों बच्चे भी आ जाते. प्रिया बहुत सुलझ हुई स्त्री थी. 8 बरस पहले पास के शहर में उस की शादी हुई थी. परिवार ने लड़के के बारे में बड़ीबड़ी बातें की थीं.

संपन्न घर था बड़ा सा मकान, गाड़ी. मध्यवर्गीय मातापिता ने तुरतफुरत उस का विवाह कर दिया. विवाह के बाद पता चला लड़का अर्थात आशीष कुछ करता नहीं है, बेरोजगार है. पिता और बड़े भाइयों की कमाई पर घर में पड़ा रहता है. घर में उस की कोई इज्जत नहीं है. भाईभाभियां सभी सारा समय उसे दुत्कारते रहते हैं. जब पति की कोई इज्जत न हो तब पत्नी का कौन सम्मान करता है.

शादी के 6 महीने बाद सासससुर का रवैया भी बदल गया. वे रचना को ही ताने देते कि हम ने तो सोचा था कि तुम उसे समझबुझ कर काम करने के लिए मना लोगी. जिम्मेदारी पड़ने से वह सुधर जाएगा लेकिन तुम पत्नी हो कर भी उसे जिम्मेदार नहीं बना पाई, सुधार नहीं पाई. क्या फायदा हुआ तुम्हें घर लाने का? 1 के बजाय 2 लोगों को बैठा कर खिलाना पड़ता है.’’ एकडेढ़ साल तक रचना ससुराल में अपमान के घूंट पीती नौकरों की तरह काम करती रही. आशीष को मनाती रही कोई कामधंधा या छोटीमोटी ही सही नौकरी करने को, लेकिन उस निठल्ले के बस का कुछ नहीं था.

हार कर रचना ने एक स्कूल में नौकरी कर ली. पैसा ज्यादा तो नहीं मिलता था लेकिन कम से कम उसे छोटीछोटी जरूरत के लिए घर में जेठानियों के आगे हाथ तो नहीं फैलाने पड़ते थे. मगर यहां भी दुख ने पीछा नहीं छोड़ा. आशीष ने उस के स्कूल के टीचर्स से पैसा उधार लेना शुरू कर दिया. जब आशीष उन टीचर्स को पैसा चुकता नहीं कर पाया तो उन्होंने रचना को बताया. रचना ने सिर पीट लिया. खुद तो कुछ कमाता नहीं है रचना कमा रही है तो वहां भी चैन नहीं. रचना की सारी कमाई तो आशीष की उधारी चुकाने में खत्म हो जाती. उस ने सारे टीचर्स से निवेदन किया कि वह अब आगे से आशीष को कोई पैसा उधार न दें. लेकिन अब तक की उधारी तो उसे चुकानी ही पड़ रही थी. रचना दोनों तरफ से पिस गई.

एक तरफ घर का सारा काम उसे करना पड़ता तो दूसरी तरफ स्कूल की नौकरी, उस पर भी हालत वैसी ही कि हाथ में एक फूटी कौड़ी नहीं आती और घर पर ताने पड़ते सो अलग. रचना को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे. उस के मातापिता अलग अपराधबोध से घिरे रहते थे कि जल्दबाजी में यह कैसे नकारा से ब्याह दिया उन्होंने अपनी बेटी को. जैसेतैसे आशीष के लिए हुए कर्ज से मुक्त हो ही पाई थी वह कि पता चला वह मां बनने वाली है. जैसेतैसे रचना कुछ महीनों तक अपने शरीर को और खींचती रही लेकिन फिर तकलीफ बढ़ जाने से उसे नौकरी छोड़नी पड़ी.

घर में आशीष की वजह से उसे हर कदम पर बेइज्जत होना पड़ता था. रातदिन ताने सुनने पड़ते थे. घरबाहर दोनों मोरचों पर पिस कर भी कुछ हासिल नहीं था. तंग आ कर वह अपनी मां के यहां आ गई. पिता अपने अपराधबोध में घुलते हुए अचानक एक दिन हार्ट अटैक से चल बसे. मां के ही घर प्रियांशु का जन्म हुआ. आशीष 2-3 बार उसे घर वापस ले जाने के नाम पर वहां आया और खुद भी वही टिक गया. पिता तो रहे नहीं मां स्वयं ही बड़े भाइयों पर आश्रित थी. भाई तो फिर भी कुछ कहते नहीं थे मगर भाभियों की जबान खुलने लगी. वे दोनों रातदिन ताने मारने लगीं. आशीष की वजह से ससुराल में रचना को जेठानियों के ताने सुनने पड़ते थे और अब मायके में भी उसे चैन नहीं.

बच्चे को ले कर अगर वह ससुराल वापस जाती तो भी आशीष की बेरोजगारी और आवारागर्दी उसे त्रस्त कर डालती. प्रियांशु की देखभाल के बहाने वह मायके में ही रही और जैसेतैसे उस ने आशीष को वहां से चलता किया और स्पष्ट बोल दिया कि अगर ढंग की नौकरी मिले तो ही उसे लेने आए वरना उसे और बच्चे को उन के हाल पर छोड़ दे. रचना ने फिर एक स्कूल में नौकरी कर ली. प्रियांशु की देखभाल मां कर ही लेती थी. लेकिन दुख ने यहां भी पीछा नहीं छोड़ा और प्रियांशु साल भर का हुआ ही था कि मां चल बसीं.

अब तक मां के कारण जो भाभियां जैसेतैसे रचना को सहन कर रही थीं उन्होंने मां की 13वीं होते ही रचना को अपनी ससुराल वापस चले जाने का फरमान सुना दिया. रचना किसी भी कीमत पर ससुराल वापस नहीं जाना चाहती थी. वह अब और जिल्लत से भरी जिंदगी नहीं जी सकती थी. उस ने ठान लिया कि अब वह अपने पैरों पर खड़ी हो कर सम्मान के साथ ही जीएगी. उस ने भाभियों से थोड़े दिनों की मोहलत मांगी और अपने नन्हें बच्चे के साथ दरदर भटकते हुए काम की तलाश करने लगी. कोई ऐसा काम जिस में इतना पैसा मिले कि वह एक कमरा किराए पर ले कर प्रियांशु को किसी अच्छे झलाघर में रख सके.

बहुत तलाशने के बाद रचना की मुलाकात रोहन दंपती से हुई. उन्होंने उसे मानसिक संबल दिया तथा पास ही एक कमरा किराए पर दिला दिया. उन्होंने ही उसे प्रसून से मिलाया. प्रसून ने रचना को अपने दोस्त के यहां सुपरमार्केट में नौकरी दिला दी. रचना प्रियांशु को ले कर यहां आ गई. उस ने किसी को भी अपना पता नहीं बताया था. वह अतीत के सारे अपमान, सारी तकलीफें, कड़वाहट सब भूल जाना चाहती थी.

भाईभाभियों ने भी राहत की सांस ली और अपने हाथ झटक लिए. उन्हें क्या परवाह थी कि वह कहीं भी रहे किसी भी हाल में रहे. 2 साल में अपनी मेहनत और ईमानदारी से रचना ने असिस्टैंट मैनेजर का पद प्राप्त कर लिया. अब एक कमरे की जगह उस ने यह छोटा सा पोर्शन किराए पर ले लिया था, जिस में छोटी सी किचन, बैडरूम, ड्राइंगरूम सब थे. इतने सालों में प्रसून ने हर तरह से हर कदम पर उस का भरपूर साथ दिया था. सुख में, दुख में, हर परेशानी में, चाहे कभी प्रियांशु बीमार पड़ा हो, चाहे वह खुद.

डाक्टर को दिखाने से ले कर दवाइयां लाने तक हर जिम्मेदारी पूरे अपनेपन और ईमानदारी से निभाता है प्रसून. दोनों में एक अव्यक्त अनाम मगर बहुत ही गहरा रिश्ता बन गया था. प्रिया ने भी कभी प्रसून को रोका नहीं रचना की मदद करने से या उस के यहां आनेजाने से बल्कि जब भी होता वह खुद भी रचना की मदद करती. अब तो रचना अपने बेटे के साथ अपने इस नए परिवार और नए जीवन में पूरी तरह से रम गई थी. पुरानी यादें रात के बुरे सपने की तरह बीत चुकी थीं. अब जीवन की नई सुबह आ गई.

रोहन अंकलआंटी कभी मातापिता की कमी महसूस नहीं होने देते. एक बार जब प्रियांशु बहुत बीमार पड़ गया तो आंटी दिनरात उसे गोद में ले कर बैठी रहती थीं. रचना को कभी लगा ही नहीं कि उस की मां नहीं है. रचना के घाव भर चुके थे. वर्षों के संघर्ष के बाद अब वह आर्थिक एवं मानसिक रूप से समर्थ और स्वतंत्र व्यक्ति थी, पूरी तरह आत्मनिर्भर थी. पेपर समेटते हुए रचना की नजर घड़ी पर पड़ी उफ, आज तो वह काफी देर तक पेपर पढ़ती रह गई. बाकी काम उस ने काफी स्फूर्ति से निबटाए.

वह तैयार हो कर लंच बौक्स रख ही रही थी कि नीचे से प्रसून की बाइक का हौर्न सुनाई दिया. जल्दी से उस ने अपना पर्स संभाला और ताला लगा कर बाहर आ गई. प्रसून ने बाइक स्टार्ट की और रचना को ले कर सुपर मार्केट में ड्रौप कर के अपने औफिस चला गया. रचना की दिनचर्या और जीवन सुख से चल रहा था. दिन बीत रहे थे. सबकुछ व्यवस्थित था कि एक दिन अचानक उस के जीवन में एक भूचाल आ गया. एक दिन वह प्रसून के साथ शाम को घर लौटी तो दरवाजे पर आशीष को खड़ा देख कर बुरी तरह चौंक गई.

प्रसून ने उसे चौंकते हुए देख कर पूछा कि यह व्यक्ति कौन है? रचना पिछले सालों में बुरे अतीत के साथ आशीष को भी पूरी तरह से भूल चुकी थी. उस के नाम को, व्यक्तित्व को पूरी तरह से अपने जीवन से अलग कर चुकी थी. अब अचानक उसे सामने देख कर उस के मन में संदेह के कांटे चुभने लगे. उस ने धीरे से प्रसून से कहा कि यह आशीष है. बेचारा प्रसून हकबका गया इस नई परिस्थिति से सामना होने पर. वह भी रचना के जीवन में आशीष नाम के किसी प्राणी के अस्तित्व के बारे में भूल ही गया था.

आज आशीष को देख कर उसे रचना के साथ जोड़ कर देखने की कल्पना से ही उसे अजीब सा लग रहा था. कुछ पलों तक सब किंकर्तव्यविमूड़ से खड़े रह गए. ‘‘क्या हुआ रचना दरवाजा खोलो तुम्हारा पति आया है, उसे अंदर भी नहीं बैठाओगी क्या?’’ आशीष ने ही चुप्पी तोड़ी. आशीष के मुंह से पति शब्द सुन कर रचना के शरीर में वितृष्णा की एक लहर दौड़ गई. प्रसून के चेहरे के भाव भी सख्त हो गए क्योंकि वह रचना के दुखद और संघर्ष भरे अतीत से भलीभांति परिचित था. ‘‘मैं प्रियांशु को ले कर आता हूं,’’ और कुछ समझ न आने पर उसे असमंजस से उबरने का यही एक तरीका समझ आया. मगर अचानक रचना सख्त लहजे में बोली, ‘‘नहीं आप कहीं नहीं जाएंगे.’’

आशीष की ओर कठोर नजरों से देखते हुए रचना ने उस से पूछा, ‘‘आप यहां क्यों आए हैं?’’ ‘‘क्यों आया? क्या मतलब? मैं पति हूं तुम्हारा. प्रियांशु का बाप हूं,’’ आशीष ने अपने स्वर में भरसक अधिकार भाव भरते हुए कहा. ‘‘वाह इतने सालों बाद आप को याद आया है कि आप का हम से क्या रिश्ता है?’’ रचना के स्वर में व्यंग्य था. प्रसून ने रचना से कहा कि अंदर बैठ कर बातें करते हैं यहां पासपड़ोस वाले सुनेंगे तो क्या कहेंगे.

आशीष को प्रसून की उपस्थिति नागवार लग रही थी. रचना ने ताला खोला और सब अंदर आ गए. जब प्रसून भी अंदर आ गया और सोफे पर बैठ गया तो आशीष गुस्सा भरे स्वर में बोला, ‘‘ये महाशय कौन हैं? हम पतिपत्नी के बीच में इन का क्या काम?’’ बारबार आशीष के मुंह से पति शब्द सुन कर रचना झल्ला पड़ी, ‘‘कौन पति, कैसा पति, किस का पति?’’ ‘‘मैं तुम्हारा पति,’’ आशीष उस के चिल्लाने से अचकचा गया. ‘‘कोई रिश्ता नहीं है मेरा तुम से. आज तुम्हें याद आ रहा है कि तुम मेरे पति हो, तब क्यों नहीं याद आया जब मैं नौकरों की तरह तुम्हारे घर पर काम करती थी और तुम्हारा कर्ज चुकाने के लिए स्कूल की नौकरी में पिस कर भी पैसेपैसे को मुहताज थी.

तब कहां थे तुम जब मैं अपने छोटे बच्चे को ले कर नौकरी की तलाश में दरदर भटक रही थी?’’ रचना क्षोभ से भर कर बोली. ‘‘कोई रिश्ता कैसे नहीं है, धर्म को साक्षी मान कर विवाह हुआ है हमारा. मैं तुम्हारा पति हूं,’’ आशीष ने फिर अपने स्वर में अधिकार भाव ला कर रचना पर हावी होना चाहा. ‘‘धर्म को साक्षी मान कर तुम्हारे जैसा पति मिलता है तो मैं आज उस धर्म को ही मानने से इनकार करती हूं. मैं तुम्हें बहुत अच्छे से पहचानती हूं. जरूर उस घर से तुम्हें धक्के मार कर बाहर निकाल दिया गया होगा तभी तुम तलाश करते हुए यहां आ धमके हो. मगर कान खोल कर सुन लो अब यहां तुम्हारी दाल नहीं गलेगी. बरसों की मेहनत के बाद मेरे जीवन में इज्जत और चैन के दिन आए हैं. मैं अब किसी को भी उन्हें छीनने नहीं दूंगी. बहुत मेहनत से यह छोटा सा नीड बनाया है मैं ने.

अब इसे किसी कीमत पर बरबाद नहीं होने दूंगी. तुम अभी के अभी इस घर से निकल जाओ और फिर जिंदगी में कभी मुझे अपनी सूरत मत दिखाना,’’ रचना तलख स्वर में बोली. ‘‘क्यों निकल जाऊं मेरा पूरा हक है तुम पर. कानूनन भी मैं ही तुम्हारा पति हूं,’’ आशीष अब भी अपनी बात पर बेशर्मों की तरह अड़ा रहा. ‘‘कोई हक नहीं है तुम्हारा मुझ पर. मैं तुम्हारे जैसे निकम्मे, नकारा आदमी के साथ रहना तो दूर सूरत तक देखना नहीं चाहती और कानून की धमकी मु?ो मत दो. मैं वैसे भी 7 साल से तुम से अलग रह रही हूं.

यह शादी तो वैसे भी टूट चुकी है और जल्द ही मैं कागजी काररवाई भी कर दूंगी अब तो,’’ रचना का स्वर दृढ़ था. ‘‘तो इस के कारण तुम मुझे दुत्कार रही हो. अच्छा यार फंसा रखा है. पति को तो छोड़ दिया इस को रख लिया,’’ जब रचना पर जोर नहीं चला तो आशीष प्रसून की ओर इशारा कर के अभद्र तरीके से उस पर लांछन लगाते हुए बोला. इस अपमान पर प्रसून और रचना दोनों ही स्तब्ध रह गए.

स्त्रीपुरुष में पवित्र और मर्यादित सखा भाव वाला शालीन रिश्ता भी हो सकता है यह तो समाज सोच ही नहीं सकता. स्त्रीपुरुष को साथ देखा नहीं की सब की शक भरी उंगलियां ही उठती हैं उन की ओर. कोई स्वस्थ नजरिए से तो देख ही नहीं सकता. 2 लोगों के बीच इंसानियत का रिश्ता भी हो सकता है यह समाज पचा नहीं पाता. ‘‘तुम जैसा बेशर्म और गिरा हुआ इंसान और सोच भी क्या सकता है. जब मनुष्य की स्वयं की नजर ही कीचड़ से सनी हो तो उसे सब ओर गंदगी ही नजर आती है. इस से पहले कि मैं तुम्हें धक्के मार कर बाहर निकालूं चुपचाप यहां से चले जाओ,’’ प्रसून कठोर स्वर में बोला.

आशीष प्रसून को नीचा दिखाने और रचना को अपमानित कर उस पर हावी होने की आखिरी कोशिश करने में दोनों के संबंधों को ले कर अनर्गल और अनापशनाप बोलने लगा. प्रसून का मन किया कि आशीष को 2-4 तमाचे जड़ दे मगर वह संयम रख कर खड़ा रहा. मगर रचना का और अधिक अपमान उस से सहा नहीं गया. ‘‘मेरा दोस्त शहर का एसपी है. अगर तुम चुपचाप यहां से दफा नहीं हो गए तो मैं अभी तुम्हें थाने में बंद करवा दूंगा. सारी जिंदगी जेल में सड़ते रहोगे. जाओ यहां से और आइंदा रचना के आसपास नजर भी मत आना,’’ प्रसून ने गुस्से से हुए कहा. धमकी असर कर गई.

आशीष अचानक बौखला गया जब उस ने देखा कि प्रसून ने अपनी जेब से अपना मोबाइल निकाला और किसी को फोन करने लगा. आशीष की जबान तालू से चिपक गई. वह चुपचाप उठा और वहां से खिसक गया. प्रसून ने रचना की ओर देखा. किस मुश्किल से रचना ने अपनेआप को संभाल कर जीवन को व्यवस्थित किया था, मगर आज आशीष आ कर सब अस्तव्यस्त कर गया. बेचारी आशीष के घिनौने इलजाम सुन कर प्रसून से नजर नहीं मिल पा रही थी. प्रसून जानता था कि रचना के मन में उसे ले कर कोई ऐसीवैसी भावना या इच्छा नहीं है.

उस का मन शीशे की तरह साफ है. ‘‘छोड़ो रचना, आशीष जैसों की बातों से अपना मन खराब नहीं करते. मुझे तुम पर भी पूरा भरोसा है और अपनेआप पर भी. हमारे मन पूरी तरह साफ हैं और हमारा रिश्ता भी. हम दोस्त हैं बस और कुछ नहीं और इसी रिश्ते में सारी पवित्रता है. यह तो कुछ लोगों का नजरिया ही गंदा होता है कि वे औरतमर्द के रिश्ते को ले कर कभी स्वस्थ सोच रख ही नहीं सकते. हमेशा गंदा ही सोचते हैं. मगर हमें इन लोगों से क्या लेनादेना. हमारी अपनी एक सुंदर साफसुथरी खुशहाल दुनिया है,’’ प्रसून ने रचना के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे सांत्वना दी. ‘‘हां बेटी प्रसून ठीक कह रहा है. हमें भी तुम पर पूरा भरोसा है. आशीष की बातों से अपना मन खराब मत करो और डरो मत, हम सब तुम्हारे साथ हैं,’’ रोहन दंपती प्रियांशु को ले कर अंदर आए.

जब देर तक आज प्रसून या रचना उसे लेने नहीं आए तो उन्हें चिंता हुई और वे खुद ही चले आए. बाहर उन्होंने सारी बातें सुन ली थीं. ‘‘तुम्हे लोगों की बातों की परवाह करने की कोई जरूरत नहीं. आप भला तो जग भला. दुनिया की सोच की जिम्मेदारी तुम्हारी नहीं है, तुम केवल अपने सहीगलत की जिम्मेदार हो और हम जानते हैं कि तुम सही हो,’’ सुनीता आंटी ने रचना के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा. रचना के सिर से मानो बोझ हट गया. समाज में आशीष जैसे गिरी हुई सोच वाले व्यक्ति हैं तो प्रसून और रोहन दंपती जैसे परिपक्व व स्वस्थ विचारों वाले व्यक्ति भी हैं. प्रियांशु प्रसून से खेल रहा था.

रचना ने कृतज्ञ और संतुष्टि भरी नजर अपने इस खुशहाल परिवार पर डाली. बाहर अंधेरा घिरने लगा था, मगर उस के जीवन में आज संबंधों का एक नया उजाला छा गया था. ‘‘भई दिमाग बड़ा पक गया आज तो, इस समय मुझे तो गरमागरम चाय की सख्त जरूरत है,’’ रोहन अंकल बोले. ‘‘और मुझे भी,’’ प्रसून भी बोला तो सुनीता आंटी हंसने लगीं. ‘‘अभी लाती हूं मैं सब के लिए गरमगरम चाय और साथ में कुछ नाश्ता भी. आप प्रिया दीदी और बच्चों को भी फोन कर के यहीं बुला लीजिए. आज डिनर पूरा परिवार साथ ही करेगा,’’ रचना मुसकराते हुए चाय बनाने किचन में चली गई.

Hindi Family Story

Surname After Marriage: विवाह बाद सरनेम एकतरफा परंपरा क्यों

Surname After Marriage: लड़कियों के नाम के साथ 2 सरनेम देखा जाना आम हो गया है. एक पिता का, दूसरा पति का. कुछ महिलाएं विवाह के बाद पति का सरनेम पहले और पिता का बाद में लगाती हैं, तो कुछ ने अपने पूर्व नाम को अपरिवर्तित रखते हुए पति का नाम केवल जोड़ा है. यह बात अब केवल नाम तक सीमित नहीं रह गई है. यह पहचान, सामाजिक सत्ता, लैंगिक समानता और व्यक्तिगत अधिकार से जुड़ गया है.

अब यह सिर्फ पारिवारिक परंपरा या दस्तावेजों की सुविधा का विषय नहीं है. यह इस बात की अभिव्यक्ति है कि एक स्त्री अपनी पूर्व पहचान को कितना स्वीकारती है और विवाह के बाद उस में कितना और क्या जोड़ना चाहती है. एक तबका इसे महिलाओं की प्रगतिशीलता से जोड़ कर देखता है और कहता है कि अब तक केवल स्त्री ही विवाह के बाद अपना सरनेम बदलती आई है, पुरुष नहीं. यह एक असंतुलित सामाजिक संरचना को दर्शाता है.

व्यावहारिक यथार्थ: नाम बदलना आसान नहीं

आज एक सामान्य युवती के पास शैक्षणिक, आर्थिक, डिजिटल, मैडिकल और शासकीय दर्जनों दस्तावेज होते हैं. विवाह के बाद उन में नाम बदलना एक जटिल और कभीकभी अपमानजनक प्रक्रिया बन जाती है. अगर विवाह टूटे तो उस पहचान को फिर से बदलना, सिर्फ मानसिक ही नहीं, तकनीकी त्रासदी भी बन सकता है.

नाम बदलना अब भावनात्मक नहीं

इस में सब से महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पुरुषों के लिए यह कभी प्रश्न ही नहीं बनता.

उन का नाम अडिग रहता है, अपरिवर्तनीय और प्रतिष्ठित.

कभी आप ने सुना कि किसी पुरुष ने विवाह के बाद पत्नी का सरनेम अपनाया हो? नहीं न? क्योंकि सरनेम अब भी एक पितृसत्तात्मक गौरव का प्रतीक बना हुआ है खासकर जो जातियां या समुदाय ‘श्रेष्ठ’ समझे जाते हैं वे अपने सरनेम को छोड़ना तो दूर उस में तनिक भी बदलाव को अपमान समझते हैं. उन के लिए यह जातिगत मान का प्रतीक है, एक ब्रैंड है.

तो क्या स्त्रियां उस व्यवस्था में समाहित हो कर ही अपनी पहचान बनाएंगी, जहां उन का नाम हर चरण पर बदला जाता है?

फिल्म और समाज की हलचल

इस विमर्श को व्यापक पहचान तब मिली जब कुछ फिल्म अभिनेत्रियों के नाम चर्चा में आए- सोनम कपूर आहूजा, करीना कपूर खान, ऐश्वर्या राय बच्चन जैसे उदाहरणों ने लोगों का ध्यान इस ओर खींचा. वहीं दूसरी ओर शबाना आजमी, किरण राव, विद्याबालन जैसी कलाकारों ने यह दिखाया कि विवाह पहचान बदलने का कारण नहीं बनना चाहिए.

‘‘नाम, शादी की उपाधि नहीं है. वह आप की यात्रा की पहचान है.’’

बच्चों के नाम: जाति और वंश से परे

बात सिर्फ स्त्रियों तक सीमित नहीं है. बच्चों के नामों में जाति, उपजाति, स्थान या वंश के संकेत जोड़ना भी पुनर्विचार योग्य है. एक लोकतांत्रिक समाज में नाम समानता का प्रतीक होना चाहिए, श्रेष्ठता या वंशवाद का नहीं. यदि हम एक समतामूलक समाज की ओर बढ़ना चाहते हैं तो बच्चों के नामों से जातिगत, क्षेत्रीय या कुल विशेष के संकेतों को हटाना जरूरी है. नाम सिर्फ व्यक्ति की पहचान हो न कि विशेषाधिकार या पूर्वाग्रह का सूचक.

दो नाम क्यों नहीं

कुछ स्त्रियां दोनों नामों को रखती हैं, पिता और पति का. उन का तर्क है कि पति का सरनेम हमारे साथ जुड़ता है पर पिता का त्याग क्यों करें?

श्रुति कस्बेकर जोशी कहती हैं, ‘‘यह प्रतिस्पर्धा नहीं, आत्मसम्मान की बात है. पति के नाम के प्रति आदर है पर अपनी पूर्व पहचान का भी सम्मान है.’’

इस में कोई विरोध नहीं. यह तो सम्मिलन है. लेकिन सब से बड़ा सवाल यह है कि क्या कोई महिला चाहे तो दोनों नाम न रखे या कोई भी न रखे, क्या यह स्वतंत्रता समाज उसे देगा?

और अब आगे

यह बहस यहीं खत्म नहीं होती. क्या विवाह स्त्री के लिए नई पहचान की शुरुआत है या पूर्व की समाप्ति? क्या ‘मिस’ से ‘मिसेज’ बनना एक सामाजिक परिवर्तन है या केवल एक नामांतरण? अब वक्त आ गया है कि नाम को एक विकल्प माना जाए न कि बंधन. स्त्री चाहे तो अपना नाम न बदले, चाहे तो पतिपिता दोनों के नाम रखे या न रखे. यह निर्णय उस का हो, समाज का नहीं.

Surname After Marriage

DIY Body Scrubs: त्वचा को ऐक्सफोलिएट और बैलेंस करने के 3 DIY स्क्रब्स

DIY Body Scrubs: हर मौसम में खूबसूरत और हैल्दी स्किन सब से पहली जरूरत है साफ, संतुलित और दमकती त्वचा. पर जमी डैड स्किन, धूलमिट्टी और औयल बिल्डअप अगर समय पर साफ न हों तो इस से रोमछिद्र बंद हो सकते हैं और त्वचा बेजान दिख सकती है. ऐसे में स्क्रबिंग यानी ऐक्सफौलिएशन बेहद जरूरी स्टैप बन जाता है.

ऐक्सफौलिएशन से त्वचा की ऊपरी परत पर जमी डैड स्किन हटती है, ब्लड सर्कुलेशन बेहतर होता है और स्किन का नैचुरल ग्लो वापस आता है, साथ ही इस से स्किन के पोर्स साफ होते हैं और अगले स्किनकेयर स्टैप्स ज्यादा प्रभावी हो जाते हैं.

हम बता रहे हैं 3 बेहतरीन डाई स्क्रब्स जो हर स्किन टाइप के लिए फायदेमंद हैं: चाहे आप का लक्ष्य हो त्वचा को डीप क्लीन करना, उस में नैचुरल ग्लो लाना या उम्र से जुड़ी समस्याओं को कम करना, इन सभी स्क्रब्स में इस्तेमाल की गई सामग्री आसानी से घर पर उपलब्ध होती है और ये पूरी तरह से नैचुरल, असरदार और बजट फ्रैंडली हैं.

3 शानदार घरेलू स्क्रब रैसिपीज, जो न केवल गरमियों के लिए उपयुक्त हैं बल्कि त्वचा को प्राकृतिक रूप से संतुलित और निखरा भी बनाती हैं.

ऐक्सफौलिएशन और डीप क्लीनिंग के लिए स्क्रब

रैसिपी

मुलतानी मिट्टी, चने का आटा और चंदन पाउडर को बराबर मात्रा में मिलाएं और किसी एअरटाइट डब्बे में स्टोर कर लें. जब भी स्क्रब करना हो 1 चम्मच मिश्रण में थोड़ा सा पानी मिला कर पेस्ट बना लें. इस पेस्ट को हलके हाथों से चेहरे और गरदन पर रगड़ें और फिर साफ पानी से धो लें. मुलतानी मिट्टी अतिरिक्त तेल को सोखती है, चंदन ठंडक देता है और चने का आटा त्वचा को ऐक्सफौलिएट करता है. हफ्ते में 3 बार इस स्क्रब का इस्तेमाल त्वचा को साफ, मुलायम और ताजगी से भर देता है.

त्वचा में नैचुरल ग्लो लाने वाला स्क्रब

रैसिपी

हरे मूंग और चने की दाल को बराबर मात्रा में पीस लें और एक कंटेनर में भर लें. जब उपयोग करना हो इस पाउडर में दूध या चावल का पानी मिला कर पेस्ट बना लें. इसे चेहरे और शरीर पर हलके हाथों से स्क्रब करें और फिर धो लें. यह स्क्रब साबुन का बेहतरीन विकल्प है. यह त्वचा की गहराई से सफाई करता है, डलनैस हटाता है और प्राकृतिक चमक लाता है. सप्ताह में 1 या 2 बार इस्तेमाल करें.

ऐजिंग स्किन

रेसिपी

पिसे हुए बादाम की 1 बड़ी चुटकी लें और उस में 1/4 टी स्पून अपनी पसंद की क्लींजिंग क्रीम मिलाएं. इस मिश्रण से चेहरे पर सर्कुलर मोशन में हलके हाथों से मसाज करें और फिर कुनकुने पानी से धो लें. बादाम में विटामिन ई भरपूर होता है जो त्वचा को पोषण देता है और झुर्रियों को कम करने में मदद करता है. यह स्क्रब त्वचा को जवां बनाए रखता है.

स्क्रबिंग करते समय इन बातों का रखें ध्यान

स्क्रब को जोर से न रगड़ें खासकर संवेदनशील या ऐक्टिव ऐक्ने वाली त्वचा पर. स्क्रबिंग के बाद त्वचा को मौइस्चराइज करना न भूलें. अगर आप बाहर जा रही हैं तो हर स्क्रब के बाद सनस्क्रीन लगाना जरूरी है. स्क्रब हमेशा साफ चेहरे और हाथों से करें.

त्वचा को संतुलित रखने के अतिरिक्त टिप्स

नियमित व्यायाम करें. रोज 30 मिनट वाक या योगाभ्यास करने से रक्तसंचार बढ़ता है.

सही आहार लें: फल, हरी सब्जियां, साबूत अनाज और पर्याप्त पानी पीने से त्वचा को अंदर से पोषण मिलता है. चीनी, जंक फूड और तलेभुने खाने से बचें क्योंकि ये त्वचा को नुकसान पहुंचा सकते हैं.

डिटौक्स करें: सोने से पहले गरम पानी में नीबू या शहद मिला कर पीने से शरीर से विषाक्त पदार्थ बाहर निकलते हैं और त्वचा साफ दिखती है. पर्याप्त नींद लें. रात की नींद आप की त्वचा को रिपेयर और रिफ्रैश करती है. 7-8 घंटे की नींद आप की त्वचा को प्राकृतिक ग्लो दे सकती है.

त्वचा की देखभाल का नियमित रूटीन अपनाएं

CTM सीटीएम यानी (क्लींजिंग, टोनिंग, मौइस्चराइजिंग रूटीन को अपनाएं. सप्ताह में

1-2 बार स्क्रब करें और हफ्ते में कम से कम 1 बार फेस पैक जरूर लगाएं.

इन आसान घरेलू स्क्रब्स और लाइफस्टाइल टिप्स को अपने डेली स्किन केयर रूटीन में शामिल कर आप भी पा सकती हैं दमकती, संतुलित और स्वस्थ त्वचा.

-ब्लौसम कोचर,सौंदर्य विशेषज्ञा

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Relationship Advice: उसे प्यार करें कंट्रोल नहीं

Relationship Advice: हाल ही में एक ऐसा मामला सामने आया, जिस में बिंदी लगाने को ले कर पतिपत्नी के बीच विवाद हो गया. दरअसल, पत्नी को अपने माथे पर रोजरोज नई बिंदी लगाना अच्छा लगता था. लेकिन यह बात महिला के  पति को नागवार गुजरती थी. पति का कहना था कि वह हर दिन काफी बिंदियां लगाती हैं और बरबाद करती है. बिंदी की बात को ले कर पतिपत्नी के बीच झगड़ा इस हद तक बढ़ गया कि बात तलाक तक पहुंच गई.

वहीं एक और मामले में ‘हाई हील्स सैंडल’ के कारण पतिपत्नी के बीच झगड़ा हो गया. पति ने पत्नी के सेफ्टी का हवाला देते हुए उसे ‘हाई हील्स सैंडल पहनने से मना किया जो पत्नी को अच्छा नहीं लगा और इसी बात को ले कर उन के बीच झगड़ा इतने ज्यादा बढ़ गया कि मामला कोर्ट तक पहुंच गया.

कुछ समय पहले एक मामला आया था जिस में एक महिला के सिंदूर और मंगलसूत्र न पहनने को ले कर पति को इतना एतराज हुआ कि उस ने गुवाहाटी हाई कोर्ट में तलाक के लिए याचिका दाखिल कर दी. ‘शादीशुदा होते हुए भी अगर एक पत्नी सिंदूर और मंगलसूत्र नहीं पहनती है तो यह पति के लिए मानसिक क्रूरता समझा जाएगा’ यह टिप्पणी करते हुए हाई कोर्ट ने पति की तलाक की अर्जी को मंजूरी दे दी.

कोर्ट ने यह भी कहा कि  हिंदू रीतिरिवाजों के हिसाब से शादी करने वाली महिला अगर सिंदूर नहीं लगाती और चूढ़ी नहीं पहनती है तो ऐसा करने से वह अविवाहित लगेगी. कोर्ट के कहने का मतलब था कि एक औरत के लिए शादी के बाद शादी का टैग लगाना जरूरी है.

कटघरे में महिला

विवाह के बाद एक औरत अपनी मांग में सिंदूर लगाना चाहती है या नहीं, यह मरजी खुद उस महिला की होनी चाहिए. लेकिन इस के लिए उस महिला का पति और जज, जो खुद एक पुरुष हैं, इसे क्रूरता बताते हुए महिला को कटघरे में खड़ा कर दिया.

बात चाहे बिंदी, सिंदूर लगाने की हो या हाई हील्स पहनने की, यह महिलाओं की अपनी मरजी और चौइस होनी चाहिए. लेकिन अकसर देखा गया है कि पति ही यह डिसाइड करता है कि उस की पत्नी क्या पहनेगी और उस पर क्या अच्छा लगेगा. यहां तक कि पत्नी के कहीं आनेजाने पर भी पति की पैनी नजर होती है. वह कब बहार गई और इतने बजे तक घर क्यों नहीं आई? सवाल दागे जाते हैं. कहीं न कहीं पति अपनी पत्नी को नियंत्रित करने की कोशिश करता है. कई पति तो पत्नी को नौकरी तक नहीं करने देना चाहते हैं. वे चाहते हैं औरत घर, बच्चे और उन के बूढ़े मांबाप को संभाले. कई जगह पत्नी के कमाए पैसों पर पति ही अधिकार जताता है. वे पैसे कहां जमा और खर्च होंगे यह पति ही तय करता है.

नीता एक स्कूल टीचर है. वह कहती है कि मैं ने कभी भी बेतुके कपड़े नहीं पहने. लेकिन फिर भी मेरा पति मेरे पहनावे को ले कर मुझे रोकताटोकता रहता है. वह मेरे जीवन में हर चीज नियंत्रण करने की कोशिश करता है. यहां तक कि अगर कभी घर आने में जरा लेट हो जाए तो सवालों की झड़ी लगा देता है, जैसे मैं कुछ गलत कर के आई हूं. किसी काम को ले कर कोई मेल टीचर का मैसेज या फोन आ जाए तो मुंह बना लेता है. वह मेरे मैसेज और मेल चैक करता है. मेरे कमाए पैसों पर भी हक जताता है यह कह कर कि ये पैसे वह सही जगह लगाएगा.

पहले तो मुझे लगता था वह मुझे प्यार करता है, मेरी केयर करता है लेकिन अब समझ में आने लगा कि वह मेरे जीवन को नियंत्रित करने की कोशिश करता है. कैसे बताऊं कि मैं उस की गुलाम नहीं हूं और न ही वह मेरा मालिक और न ही वह मेरे जीवन को नियंत्रित कर सकता है. उसे यह बात कैसे बताऊं कि मेरा अपना दिमाग और व्यक्तित्व है. मुझे उस के सलाह की कोई जरूरत नहीं है. मैं अपने कमाए पैसे संभाल सकती हूं. लेकिन चाह कर भी कुछ इसलिए नहीं बोल पाती कि बेकार में घर में झगड़े होंगे. मेरी 2 छोटी बेटियां हैं, उन पर हमारे झगड़ों का नैगेटिव असर पड़ेगा.

कोर्ट तक पहुंचा मामला

एक पति अपनी पत्नी को सरकारी नौकरी छोड़ कर भोपाल में अपने साथ आ कर रहने के लिए मानसिक तौर पर परेशान करने लगा. पति वहां भोपाल में अपने घर पर रह कर जौब की तैयारी कर रहा था और चाहता था कि उस की पत्नी अपना जौब छोड़ कर उस के पास भोपाल आ कर रहे. पति का कहना था कि भोपाल में उसे कोई दूसरी नौकरी मिल ही जाएगी. जबकि पत्नी अपनी इतनी अच्छी सरकारी नौकरी नहीं छोड़ना चाहती थी. दोनों के बीच बात इतनी बढ़ गई कि मामला कोर्ट तक पहुंच गया. जहां कोर्ट ने पत्नी के हक में फैसला सुनाते हुए कहा कि पति या पत्नी एकसाथ रहना चाहते हैं या नहीं, यह उन की अपनी इच्छा होनी चाहिए. कोर्ट ने यह भी कहा कि पत्नी को नौकरी छोड़ने और उसे पति की इच्छा एवं तौरतरीके के अनुसार रहने के लिए मजबूर किया जाना क्रूरता की श्रेणी में आता है.

पुरुष क्यों महिला को कंट्रोल में रखना चाहते

भारतीय परिवार में जब एक बेटी का जन्म होता है तब से ही परिवार और रिश्तेदार यह कहने लग जाते हैं कि बेटी हुई है अब इस की परवरिश अच्छे से करनी पड़ेगी. बेटी घर की इज्जत होती है, घर की इज्जत खराब न हो इसलिए बेटी को कंट्रोल में रखने की जरूरत है. शादी के बाद भी पति उसे अपने कंट्रोल में रखने की कोशिश करता है. चाहे पिता का घर हो या पति का, देखा गया है कि महिलाओं को कंट्रोल करने की कोशिश की जाती है. वह क्या पहनेगी, कहां जाएगी, ये सब घर के मर्द ही डिसाइड करते हैं.

रामायण में भी सीता के लिए एक लक्ष्मण रेखा खीची गई थी और कहा गया था कि वह इसे पार न करे. आज भी कुछ ज्यादा बदलाव नहीं आया है. कहने को तो औरतों को आजादी मिली, उन्हें उड़ने के लिए आकाश दिया गया लेकिन कहीं न कहीं उन के पंखों को बांध दिया गया ताकि वे अपनी हद पार न कर सकें. यानी एक औरत अपनी मरजी से एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकती है. हर चीज उसे घर के मर्दों से पूछ कर करनी होगी. अगर नहीं किया तो सजा मिलेगी जैसे सीता को मिली.

एक औरत क्या पहनेगी क्या नहीं, यह बात क्या उसे दूसरे लोग बताएंगे? क्या एक औरत अपनी जिंदगी अपनी मरजी से नहीं जी सकती है? क्यों उसे हर बात घर के मर्दों से पूछ कर करनी पड़ती है? यहां तक कि वह अपनी पसंद के कपड़े तक नहीं पहन सकती? कपड़ों को लेकर मर्द दुहाई देते हैं कि जमाना खराब है. लेकिन जमाना किस ने खराब किया? मर्दों ने ही न? उस की वजह से ही औरतें रात के समय घर से बाहर नहीं निकल सकती हैं, खुल कर जी नहीं सकती हैं. यहां तक की अपनी पसंद के लड़के से शादी तक नहीं कर सकतीं.

बिहार के रोहतास जिले में अपनी पसंद के लडके से शादी करने पर गुस्साए पिता और भाई ने लड़की की कुलहाड़ी से हत्या कर दी. ऐसे कितने ही मामले सुनने और देखने को मिलते हैं जहां अपनी पसंद के लड़के से शादी करने पर पिता और भाई ही लड़की की हत्या कर देते हैं क्योंकि उन के लिए बेटी की खुशियों से ज्यादा अपनी इज्जत प्यारी होती है.

मगर मर्दों के लिए कोई ऐसा रूल नहीं है. वे जो चाहे पहन सकते हैं, जहां चाहें, जब चाहें जाआ सकते हैं, जिस से चाहे शादी कर सकते हैं और छोड़ सकते हैं. उन के ऐसे कदमों से घर की इज्जत को ठेस नहीं पहुंचती है. अपने घर में, पासपड़ोस या रिश्तेदारों में देख लीजिए, घर के सारे फैसले पुरुष ही लेते हैं. शादी के बाद लड़की जौब करेगी या घर संभालेगी, बच्चा कब और कितने पैदा करेगी, मायके जाएगी तो कितने दिन रुकेगी आदि बातें पति और ससुराल वाले ही डिसाइड करते हैं.

कोई लड़की अपने मायके आना चाहे तो यहां भी उसे समझाइश के सिवा कुछ नहीं मिलता है. मायके वाले भी यही कहते हैं कि हम ने तुम्हारी शादी कर दी है, अब तुम्हारा पति ही डिसाइड करेगा कि तुम्हें नौकरी करनी है या नहीं. अरे, पति है वह तुम्हारा, एक थप्पड़ मार ही दिया तो क्या हो गया. थोड़ा एडजस्ट करने में क्या हरज है? थोड़ा सह लेगी तो क्या चला जाएगा तुम्हारा? ये सब सलाहें मां अपनी बेटी को देती है क्योंकि शुरू से वह भी यही सब सहती आई है. शायद इसलिए एक लड़की अपनी ससुराल में हिंसा की शिकार होती है क्योंकि शादी के बाद उस का मायका भी अपना नहीं रहता.

नियंत्रण संबंधों में दरार लाता है

नियंत्रित संबंधों का अनुभव कभी सुखद नहीं होता है. हालांकि ज्यादातर औरतें अभी भी यह समझ नहीं पाती हैं कि वे एक नियंत्रित रिश्ते में हैं. वे यह बात स्वीकार ही नहीं कर पातीं कि उन के साथी का व्यवहार नियंत्रणकारी और हानिकारक है. उन्हें अपने पार्टनर का ऐसा व्यवहार अकसर देखभाल, सुरक्षात्मक, परवाह करने जैसा लगता है. लेकिन ऐसे लोग अकसर देखभाल या चिंता की आड़ में अपने साथी के जीवन पर अपना अधिकार जता रहे होते हैं जो समय के साथ बद से बदतर होता जाता है.

मनोवैज्ञानिक के अनुसार, कुछ पुरुष पत्नियों पर नियंत्रण करके सुरक्षा और स्थिरता की भावना प्राप्त करने की कोशिश करते हैं. जो पुरुष असुरक्षित महसूस करते हैं, वे पत्नियों पर नियंत्रण कर के अपनी कमियों को पूरा करने की कोशिश करते हैं. वहीं कुछ पुरुषों की पत्नियों पर अपनी पसंदनापसंद थोपने की आदत होती है. वे बेमतलब अपनी बात मनवाने की कोशिश करते हैं और चाहते हैं कि पत्नी वैसा ही करे जैसा वे कह रहे हैं.

आज कई महिलाएं स्ट्रैस और ऐंग्जायटी की शिकार बन रही हैं. वे बीमारियों से जूझ रही हैं तो इसलिए क्योंकि वे अपने जीवन में खुश नहीं हैं. अपनी इच्छाओं को मार कर सब को खुश रखने की कोशिश में लगी रहती हैं. घर और औफिस दोनों की जिम्मेदारी निभा रही हैं, लेकिन उस पर भी उन्हें यही सुनने को मिलता कि छोड़ दो न नौकरी, किस ने कहा करने को. कौन सा एहसान कर रही हो नौकरी कर के.

आज भी समाज और परिवारों में पुरुषों को ही घर का मुखिया माना जाता है और यही मानसिकता महिलाओं पर अपनी बात थोपने को सही ठहराती है. पुरुष बचपन से ही अपने परिवार में यही देखते बड़े होते हैं, जहां उन के घर की औरतें मर्दों के बताए रास्ते पर चलती हैं तो उन्हें ये सामान्य बातें लगती है.

एक शोध से पता चलता है कि रिश्तों में नियंत्रणकारी व्यवहार घरेलू दुर्व्यवहार का एक महत्त्वपूर्ण पूर्वानुमान है. भावनात्मक नियंत्रण शारीरिक हिंसा जितना ही हानिकारक हो सकता है.

महिलाएं शिक्षित होते हुए पुरुषों से पीछे

देश में महिला सशक्तीकरण पर कई योजनाएं और प्रयास चल रहे हैं. फिर भी कौरपोरेट जगत में महिलाओं की भागीदारी बेहद सीमित है. हाल की रिपोर्ट्स के अनुसार, देश में सी सूट यानी सीईओ, सीएफओ, सीओओ जैसे शीर्ष पदों पर महिलाओं की हिस्सेदारी केवल

17 से 19त्न ही है. यह आंकड़ा लैंगिग समानता की दिशा में गंभीर चिंताओं का विषय है.

क्या है सी सूट

सी सूट उन शीर्ष पदों को कहा जाता है, जिन में चीफ ऐग्जिक्यूटिव औफिसर, चीफ फाइनैंशियल औफिसर, चीफ औपरेटिंग औफिसर आदि शामिल होते हैं. ये पद किसी भी संगठन की रणनीति दिशा तय करते हैं, महत्त्वपूर्ण निर्णयों के केंद्र में होते हैं.

अस्तित्व और अधिकार के प्रति सजग

दुनिया के हर हिस्से में बसे लोगों को अपने इंसानी अधिकारों को पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है. पर महिलाओं को अपने अधिकार पाने के लिए ज्यादा संघर्ष करना पड़ता है.

आज की नारी नहीं है बेचारी

महिला कभी भी कमजोर नहीं रही बल्कि उसे कमजोर बनाया गया. लेकिन अब समय आ गया है कि आप यह खुद फैसला करें कि आप क्या खाना और पहनना चाहती हैं? आप पर क्या अच्छा लगता है और किस के साथ आप खुश हैं? अपने जीवन में किसी की दखलंदाजी सहन न करें, चाहे वह आदमी आप का पति ही क्यों न हो. आप जौब करना चाहती हैं, जौब करें, जैसे कपडे़ पहनना चाहती हैं, पहनें. अपने दोस्त और परिवार से मिलने जाएं, भले ही इस के लिए आप का पति गुस्सा हो जाए, परवाह न करें. लाइफ में बिजी रहने की कोशिश करें. सकारात्मक लोगों के करीब रहें और नकारात्मक लोगों से दूरी बना कर रखें.

अगर फिर भी पति बारबार आप को रोकताटोकता है तो उसे अच्छे से समझा दें कि आप में भी दिमाग है. आप को पता है कि आप के लिए क्या सही है और क्या गलत. अपने अनुसार जीने में कोई बुराई नहीं है. इस से आप कमजोर नहीं दिखता बल्कि इस से यह पता चलता है कि आप अपने फैसले लेने में सक्षम हैं और अपने फैसले खुद ले सकती हैं.

हमेशा शांत रहते हुए बात करें. अच्छीअच्छी किताबें पढ़ें, अपने मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता दें. ध्यान और मैडिटेशन का रोज अभ्यास करें. इस से मन शांत रहेगा और आप खुद को स्ट्रौंग महसूस करेंगी. दोस्तों और परिवार के साथ घूमने जाएं.

एक ऐसे भविष्य की कल्पना करें जहां आप अपने सपनों और इच्छाओं के आधार पर निर्णय ले सकें. आप विचार करें कि आप वास्तव में एक रिश्ते में क्या चाहती हैं और क्या पाने की हकदार हैं? आप अपनी सेहत और खुशियों को प्राथमिकता दें, न कि दूसरों की.

डा. जानगौटमैन, जो रिश्तों के बड़े विशेषज्ञ माने जाते हैं, कहते हैं कि मजबूत रिश्ते विश्वास, सम्मान और भावनात्मक समझ पर टिके होते हैं. रिश्तों में आलोचना, तिरस्कार, रक्षात्मकता और चुप्पी साधना ये 4 सब से खतरनाक आदतें होती हैं जो रिश्ते को बरबाद करती हैं. वहीं थेरैपिस्ट एस्थरपेरेल कहती हैं कि शादी में स्वतंत्रता और जुड़ाव के बीच संतुलन बनाए रखना बेहद जरूरी है.

जब पतिपत्नी दोनों में से किसी की अपेक्षाओं को नजरअंदाज किया जाता है, उस पर किसी काम को ले कर दबाव डाला जाता है तो रिश्तों में दूरियां बढ़ने लगती हैं. शादी करने के बाद पति का पत्नी पर मालिकाना हक नहीं हो जाता कि वह जो कहे पत्नी को करना होगा. रिश्तों में सम्मान देंगे तभी सम्मान पाएंगे भी.

Relationship Advice

Hindi Drama Story: मोहभंग- आंचल को पति के बारे में क्या पता चला

Hindi Drama Story: 5 साल पहले अंसल दंपती ने उस पौश कालोनी में यह विशाल बंगला खरीदा था. उन के आते ही कालोनी की महिलाएं उन को अपनी किट्टी पार्टी में शामिल करने पहुंच गई थीं. उस पहली मुलाकात में भी रागिनी ने बिदा करते समय सब को एकएक आयातित सेंट की बोतल दी थी और साथ में यह भी कहा था, ‘‘आप सब ने मुझे अपनी किट्टी पार्टी में शामिल कर जो एहसान किया है उस के बदले यह उपहार कुछ भी नहीं है.’’

आयातित उपहार पा कर महिलाएं खुश होती थीं, पर प्रेमा भगत कुछ ज्यादा ही खुश होती थी जो रागिनी अंसल की अनुभवी आंखों से छिपा नहीं था. वह ताड़ गई थीं कि इस औरत में विदेशी सामान के प्रति मोह कुछ ज्यादा ही है. इस तरह रागिनी अंसल ने 5 साल की किट्टी पार्टी की हर सदस्य को 6 उपहार दे डाले थे, सेंट, म्यूजिकल गुडि़या, नेल पालिश, नाइटक्रीम, लिपस्टिक तथा एक शो पीस, जिस का अजीब सा जिगजैग आकार था. इस शो पीस को सब ने बड़े गर्व से अपने ड्राइंगरूम में सजा लिया था.

उपहार देते हुए अकसर रागिनी अंसल कहतीं, ‘‘क्या करूं, इतना सबकुछ है पर भोगने वाला कोई नहीं. बस, एक भतीजा है, वह भी विवाह नहीं करता. कोई लड़की उसे पसंद ही नहीं आती. परिवार बढ़े तो कैसे बढ़े?’’

जब से रागिनी ने अपने कुंआरे भतीजे के बारे में महिलाओं को बताया है तब से प्रेमा भगत अपनी बेटी आंचल का उस के साथ विवाह करने का सपना देखने लगी. पर मन की बात नहीं कह पाती क्योंकि करोड़ों में खेलने वाली रागिनी अंसल के सामने वह अपनेआप को बौना समझती थी. यद्यपि रागिनी अंसल आंचल के रूपलावण्य पर मुग्ध थीं पर वह खुद आगे बढ़ कर लड़की वालों से बात चलाना हेय समझती थीं.

इन सब से बेखबर आंचल अपनी दुनिया में व्यस्त थी. वह अपनी मां के एकदम विपरीत थी. इंजीनियरिंग कर के वह बंगलौर की एक प्रतिष्ठित कंपनी में कार्यरत थी. उसे विदेश व विदेशी वस्तुएं तनिक भी नहीं लुभाती थीं.

सादा जीवन उच्च विचार की सोच वाली आंचल के साथ की लड़कियों ने जहां बाल कटवाए हुए थे वहीं वह अपने लंबे काले घने केशों को एक चोटी में बांधे रखती थी.

प्रेमा भगत बेटी के इस तरह से रहने पर अकसर खीज उठती, ‘‘पता नहीं यह लड़की किस पर गई है. तनिक भी कपड़े पहनने का ढंग नहीं है. इस के साथ की सब लड़कियां इंजीनियर बन कर अपने सहयोगियों के साथ प्रेम विवाह कर विदेश चली गईं पर यह अभी तक यहीं बैठी हुई है.’’

आंचल मां की बातें सुन कर हंस देती. उस पर मां की बड़बड़ का तनिक भी असर नहीं होता.

इस बार की किट्टी पार्टी से लौट कर प्रेमा भगत ने ठान ली थी कि वह आज आंचल से बात कर के ही रहेगी. जैसे ही बेटी घर आई उस ने रागिनी अंसल से मिली लिपस्टिक को दिखाते हुए पूछा, ‘‘आंचल, इस का शेड कैसा है? आयातित है, रागिनी अंसल ने दी है.’’

आंचल ने लिपस्टिक बिना हाथ में लिए दूर से देख कर कहा, ‘‘अच्छा शेड है मां, आप पर खूब फबेगा.’’

‘‘मैं अपनी नहीं तेरी बात कर रही हूं.’’

‘‘मैं तो लिपस्टिक नहीं लगाती.’’

‘‘क्यों नहीं लगाती? कब तक ऐसे चलेगा? दूसरी लड़कियों की तरह तू क्यों नहीं ओढ़तीपहनती और अपनी मार्केट वेल्यू बढ़ाती.’’

‘‘मार्केट वेल्यू? मां, मैं क्या कोई बेचने की वस्तु हूं?’’ नाराज हो गई आंचल.

मांबेटी की बातचीत को ध्यान से सुन रहे पिता स्थिति बिगड़ती देख पत्नी को झिड़कने वाले अंदाज में बोले, ‘‘पढ़ीलिखी बेटी से कैसे बात करनी है इस की तुम्हें जरा भी तमीज नहीं,’’ और फिर बेटी को दुलार कर दूसरे कमरे में ले गए. पिता ने रात के एकांत में प्रेमा से पूछा, ‘‘क्यों, आंचल के लिए कोई लड़का ढूंढ़ रखा है क्या?’’

‘‘ढूंढ़ना क्या है, समझ लीजिए कि अपनी पकड़ के अंदर है. केवल आंचल को उस के अनुसार ढालना बाकी है.’’

फिर अपने पति को रागिनी अंसल के अमेरिका प्रवासी भतीजे तथा उन के विशालकाय बंगले के बारे में बता कर बोली, ‘‘रागिनी के न कोई आगे है न कोई पीछे. सबकुछ अपनी आंचल का होगा. ऐश करेगी वह अमेरिका में जा कर.’’

भारतीय संस्कृति के परिवेश में डूबे बापबेटी को विदेश में बसने के नाम से बड़ी कोफ्त होती थी. वैसे भी वह अपनी इकलौती बेटी को इतनी दूर भेजने के पक्ष में नहीं थे. बोले, ‘‘कोई यहीं का लड़का ढूंढ़ना चाहिए ताकि आंचल हमारी आंखों से ओझल न हो.’’

2 माह बाद रागिनी अंसल के यहां तीसरा चेहरा देख कर कालोनी के लोग चौंक उठे. एक नौजवान चोटियां बांधे अंसल दंपती के साथ कार में अकसर दिखाई देता. पता लगा कि वही उन का भतीजा देव अंसल है.

प्रेमा भगत उसे देख कर कुछ निराश हुई. बेटी आंचल को दिखाया तो वह बोली, ‘‘इस अजीबोगरीब चुटियाधारी जानवर को मुझ से दूर ही रखो मां, अन्यथा मैं इसे स्वयं खदेड़ दूंगी.’’

मां ने समझाया, ‘‘बेटी, आदमी का रूप नहीं, धन देखा जाता है.’’

आंचल ने मुंह बिचकाया, ‘‘ऊंह, पैसा तो मेरे पास भी बहुत है पर आकर्षक व्यक्तित्व पसंद है.’’

मां बेटी को समझाने में लगी ही थी कि रागिनी अंसल का निमंत्रण आ गया. अपने भतीजे से परिचय कराने के लिए सभी सपरिवार अगले दिन शाम पार्टी में आमंत्रित थे.

आंचल जाने को तैयार नहीं थी, पर मां के रोनेधोने के कारण तैयार हुई. पार्टी क्या थी, एक अच्छाखासा बड़ा आयोजन था जिस में शहर के तमाम बड़ेबड़े उद्योगपति, बड़ेबड़े नेता, सरकारी अफसर सपरिवार आए थे. उन के साथ उन के परिवार की बेटियां भी आई थीं जो एक से बढ़ कर एक डिजाइन की पोशाक पहने अपने शरीर की नुमाइश लगाने में लगी हुई थीं. आंचल सब से अलग कुरसी पर बैठी हाथ में ठंडा पेय ले कर उन्हें देखने में लगी हुई थी.

अचानक देव अंसल ने आंचलके पास आ कर हाथ बढ़ाते हुए विनम्रता के साथ डांस के लिए आग्रह किया तो आंचल ने बेहद शालीनता से मना कर दिया. तभी प्रेमा भगत दनदनाती हुई आई और बोली, ‘‘यह आंचल है, मेरी बेटी. पसंद आई तुम्हें?’’

उस के इस बेतुके सवाल पर देव चौंक पड़ा और आंचल नाराज हो कर पिता के साथ घर चली आई.

अगले दिन अंसल दंपती के घर लड़कियों के मातापिता की ओर से देव के लिए विवाह प्रस्तावों की झड़ी

लग गई. रागिनी अंसल के जोर दे कर पूछने पर देव बोला, ‘‘मुझे आंचल पसंद है.’’

चौंक गईं रागिनी. क्योंकि भगत दंपती की ओर से कोई प्रस्ताव नहीं आया था. एक सप्ताह के बाद रागिनी अंसल को भतीजे के लिए झुकना पड़ा. उन्होंने प्रेमा भगत को फोन लगाया और बोलीं, ‘‘आप ने मेरे भतीजे को देख कर अभी तक अपनी कोई राय नहीं दी.’’

‘‘क्यों नहीं, क्यों नहीं रागिनीजी, मैं ने आप के भतीजे को देखा और पसंद भी किया पर आप को क्या बताऊं…’’ कहतेकहते प्रेमा रुक गई.

‘‘नहीं, आप को बात तो बतानी ही पड़ेगी,’’ श्रीमती अंसल की रौबीली आवाज सुन कर प्रेमा भगत का मुख अपनेआप खुल गया और वह बोल पड़ी, ‘‘आंचल को देव की चुटिया पसंद नहीं है.’’

आंचल की नापसंदगी सुन कर रागिनी को धक्का सा लगा और उन्होंने आहत हो कर फोन रख दिया.

यह पता चलते ही देव अंसल ने आम भारतीय युवाओं की तरह तुरंत बाल कटवा लिए और पहुंच गया आंचल के आफिस. देव को इस नए रूप में सामने खड़ा देख कर आंचल चौंक उठी.

देव बड़ी विनम्रता के साथ आंचल से बोला, ‘‘मिस, क्या आज शाम आफिस के बाद आप मेरे साथ एक कप चाय पीना पसंद करेंगी?’’

उस के निमंत्रण में एक अनोखी आतुरता का भाव देख कर आंचल मना नहीं कर सकी.

इस पहली मुलाकात के बाद तो दोनों की शामें एकसाथ गुजरने लगीं.

दोनों के ही घर वाले देव व आंचल की मुलाकातों से अनजान थे पर बाहर वालों की नजरों से कब तक बचे रहते, खासकर तब जब मामला अंसल परिवार से जुड़ा हो. दोनों के घर वालों को जब उन के आपस में मिलने की जानकारी हुई तो भगत परिवार बेहद खुश हुआ पर रागिनी अंसल के पैरों तले धरती खिसक गई.

इस बीच देव ने आंचल के सामने विवाह का प्रस्ताव रख दिया. आंचल ने भी हां कर दी. बेटी के हां करने की बात सुन कर प्रेमा भगत ने उसे खुशी से चूमते हुए कहा, ‘‘आखिर बेटी किस की है.’’

एक भव्य समारोह में देव व आंचल का विवाह हो गया. चूंकि अंसल परिवार के साथ रिश्ता हुआ था और आंचल के मांबाप ने यह पता लगाने की कोशिश नहीं की कि देव अमेरिका के किस शहर में रहता है तथा वहां काम क्या कर रहा है. फिर भी आंचल के बौस केशवन ने उस का त्यागपत्र अस्वीकार करते हुए उसे समझाया, ‘‘आंचल, मैं तुम्हारे पिता समान हूं. बहुत अनुभवी हूं. अनजान देश में अनजान पुरुष के साथ जा रही हो. बेशक देव तुम्हारा पति है पर तुम उस के बारे में अधिक तो नहीं जानतीं इसलिए नौकरी मत छोड़ो. वहां न्यूयार्क में भी हमारी कंपनी की एक शाखा है, मैं तुम्हारी पोस्टिंग वहीं कर दे रहा हूं. अवश्य ज्वाइन कर लेना.’’

देव को बिना बताए आंचल ने वहां का नियुक्तिपत्र संभाल कर रख लिया था.

एअरपोर्ट पर विदा करने आए लोगों की भीड़ देख कर आंचल को अपने भाग्य पर रश्क होने लगा. लगभग 16 घंटे का हवाई सफर था पर देव अपने ही खयालों में खोया था. बड़ा विचित्र लगा आंचल को.

पहली बार आंचल को ध्यान आया कि देव ने अपने बिजनेस के बारे में उसे कुछ भी नहीं बताया था. पूछने पर बोला, ‘‘दूर जा रही हो तो खुद ही सब देख लेना. न्यूयार्क शहर की सीमा से लगा मेरा कारखाना है, कारों के कलपुर्जे बनते हैं.’’

आश्वस्त हुई आंचल जान कर.

न्यूयार्क पहुंच कर अगले ही दिन सुबह देव कारखाने चला गया तो उस विशालकाय बंगले में आंचल अकेली ही रह गई. देव जब तीसरे दिन भी नहीं लौटा तो चौथे दिन बोर हो कर आंचल ने नौकरी ज्वाइन करने का मन बनाया.

कंपनी की न्यूयार्क शाखा के बौस रेमंड ने उस का बेहद गर्मजोशी से स्वागत किया. पूरे स्टाफ से परिचय करवाया. पति के रूप में देव अंसल का नाम सुनते ही वहां अचानक चुप्पी छा गई. आंचल ने चौंक कर रेमंड की ओर देखा तो उन्होंने इशारे से आंचल को अपने केबिन में बुलाया और पूछा, ‘‘क्या वास्तव में तुम्हारे पति देव अंसल ही हैं?’’

रेमंड के प्रश्न और स्टाफ के लोगों की चुप्पी को देख कर उसे किसी अनहोनी का पूर्वाभास हो रहा था.

कुछ रुक कर रेमंड ने फिर पूछा, ‘‘मैडम, देव अंसल से आप का विधिवत विवाह हुआ है? या आप दोनों की ‘लिव इन’ व्यवस्था है?’’

‘‘यह ‘लिव इन’ व्यवस्था क्या होती है, मैं समझी नहीं, सर. स्पष्ट बताइए,’’ आंचल कांपते हुए बोली.

‘‘जब बिना विवाह के लड़का और लड़की पतिपत्नी की तरह साथ रहने लगते हैं तो उसे ‘लिव इन’ व्यवस्था कहते हैं,’’  रेमंड बोले, ‘‘विश्वास नहीं होता कि देव अंसल जैसे व्यक्ति ने विवाह कैसे कर लिया. वह तो ‘लिव इन’ व्यवस्था का पक्षधर है. तकरीबन 2 साल पहले अरुणा नाम की एक लड़की देव के साथ ‘लिव इन’ थी. गर्भवती हो गई तो देव पर विवाह के लिए जोर डालने लगी तब देव ने उसे अपने घर से निकाल बाहर किया. सुनते हैं उस ने…’’

‘‘आत्महत्या कर ली,’’ आंचल ने उन का वाक्य पूरा किया.

चौंक कर रेमंड ने आंचल की ओर देखा और बोले, ‘‘नहीं, उस ने आत्महत्या नहीं की थी, उस की हत्या हुई थी. पुलिस को देव पर शक था. वह इस मामले में जेल भी गया था पर सुबूत के अभाव में छूट गया.’’

आंचल याद करने लगी अरुणा को, जो उस के साथ कालिज में पढ़ती थी और अचानक पता चला कि उस को किसी एन.आर.आई. से प्रेम हो गया था और वह हमेशा के लिए अमेरिका चली गई थी.

रेमंड ने बताया कि देव ने अपने कारखाने में ही एक छोटा सा बंगला बनवा रखा है. वहां आजकल मिली नाम की एक अमेरिकन लड़की ‘लिव इन’ व्यवस्था में देव के साथ रह रही है,’’ फिर कुछ रुक कर बोले, ‘‘यहां आने वाले कुछ भारतीय पुरुष दोहरा मानदंड अपनाते हैं, अकेले में यहां कुछ और भारत में मातापिता तथा रिश्तेदारों के सामने कुछ अलग मुखौटा ओढ़े रहते हैं.’’

आंचल सोच रही थी कि देव का असली चेहरा सब के सामने लाना होगा ताकि वह आगे किसी लड़की की भावनाओं से खिलवाड़ न कर सके.

अपने दफ्तर के एक अमेरिकन सहयोगी के साथ वह अंसल के कारखाने की ओर चल पड़ी.

ठिकाने पर पहुंच कर आंचल ने देखा कि कारखाने के पश्चिमी छोर पर स्थित बंगला दूर से ही लुभा रहा था. वह कारखाने के सामने वाले दरवाजे से न जा कर बंगले की दूसरी तरफ वाले दरवाजे से अंदर घुसी. कुत्तों के भौंकने की आवाज सुन कर अंदर से एक बेहद खूबसूरत युवती बाहर निकली. बड़े ही सहज भाव से आंचल ने आगे बढ़ कर उस का अभिवादन किया और बोली, ‘‘मैं आंचल हूं. देव से मिलने के लिए भारत से यहां आई हूं.’’

उस लड़की ने अंगरेजी में कहा, ‘‘देव बाहर गया है. एक घंटे के बाद लौटेगा. आप यहां बैठ कर इंतजार कर सकती हैं.’’

आंचल यही तो चाहती थी. उसे अंदर ले जाते हुए मिली ने अपना परिचय दिया, ‘‘मैं देव की पत्नी मिली हूं.’’

तपाक से आंचल बोली, ‘‘मैं भी देव की कानूनन ब्याहता पत्नी हूं. उस ने 15 दिन पहले भारत में मुझ से विवाह किया था.’’

एक घंटे बाद जब देव लौटा तो मिली और आंचल को एकसाथ एक सोफे पर बैठा देख कर बौखला गया. वह घबरा कर उलटे पांव वापस लौटने ही वाला था कि दोनों ने उसे लपक कर पकड़ लिया और अंदर ले जा कर एक कमरे में बंद कर दिया.

इस के बाद आंचल और मिली ने फोन कर पुलिस को बुलाया और देव को धोखा दे कर विवाह करने के अपराध में पुलिस के हवाले कर दिया. यही नहीं दोनों ने मिल कर अरुणा की संदेहास्पद मौत की फाइल को दोबारा खुलवा दिया.

बेटी आंचल को सहीसलामत वापस पा कर प्रेमा भगत एक अलग ही सुकून महसूस कर रही थी. रागिनी अंसल ने किट्टी ग्रुप से हमेशा के लिए अपना नाता तोड़ लिया तथा उन की भव्य पार्टी में अपनीअपनी बेटियों को सजा कर लाए मातापिता एकदूसरे से यही कह रहे थे, अच्छा हुआ जो हम बालबाल बच गए.

Hindi Drama Story

Social Story in Hindi: समाधान- क्या थी असीम की कहानी

Social Story in Hindi: ‘‘मैं ने पहचाना नहीं आप को,’’ असीम के मुंह से निकला.

‘‘अजी जनाब, पहचानोगे भी कैसे…खैर मेरा नाम रूपेश है, रूपेश मनकड़. मैं इंडियन बैंक में प्रबंधक हूं,’’ आगुंतक ने अपना परिचय देते हुए कहा.

‘‘आप से मिल कर बड़ी खुशी हुई. कहिए, आप की क्या सेवा करूं?’’ दरवाजे पर खड़ेखड़े ही असीम बोला.

‘‘यदि आप अंदर आने की अनुमति दें तो विस्तार से सभी बातें हो जाएंगी.’’

‘‘हांहां आइए, क्यों नहीं,’’ झेंपते हुए असीम बोला, ‘‘इस अशिष्टता के लिए माफ करें.’’

ड्राइंगरूम में आ कर वे दोनों सोफे पर आमनेसामने बैठ गए.

‘‘कहिए, क्या लेंगे, चाय या फिर कोई ठंडा पेय?’’

‘‘नहींनहीं, कुछ नहीं, बस आप का थोड़ा सा समय लूंगा.’’

‘‘कहिए.’’

‘‘कुछ दिन पहले आप के बड़े भाई साहब मिले थे. हम दोनों ही ‘सिकंदराबाद क्लब’ के सदस्य थे और कभीकभी साथसाथ गोल्फ भी खेल लेते…’’

‘‘अच्छा…यह तो बहुत ही अच्छी बात है कि आप से उन की मुलाकात हो जाती है वरना वह तो इतने व्यस्त रहते हैं कि हम से मिले महीनों हो जाते हैं,’’ असीम ने शिकायती लहजे में कहा.

‘‘डाक्टरों की जीवनशैली तो होती ही ऐसी है, पर सच मानिए उन्हें आप की बहुत चिंता रहती है. बातोंबातों में उन्होंने बताया कि 3 साल पहले आप की पत्नी का आकस्मिक निधन हो गया था. आप का 4 साल का एक बेटा भी है…’’

‘‘जी हां, वह दिन मुझे आज भी याद है. मेरी पत्नी आभा का जन्मदिन था. टैंक चौराहे के पास सड़क पार करते समय पुलिस की जीप उसे टक्कर मारती निकल गई थी. मेरा पुत्र अनुनय उस की गोद में था. उसे भी हलकी सी खरोंचें आई थीं, पर आभा तो ऐसी गिरी कि फिर उठी ही नहीं…’’

‘‘मुझे बहुत दुख है, आप की पत्नी के असमय निधन का, पर मैं यहां किसी और ही कारण से आया हूं.’’

‘‘हांहां, कहिए न,’’ असीम अतीत को बिसारते बोला.

‘‘जी, बात यह है कि मेरी ममेरी बहन मीता ऐसी ही हालत में विवाह के ठीक 2 माह बाद अपना पति खो बैठी थी. मैं ने सोचा यदि आप दोनों एकदूसरे का हाथ थाम लें तो जीवन में पहले जैसी खुशियां पुन: लौट सकती हैं,’’ कह कर रूपेश तो चुप हो गया, मगर असीम को किंकर्तव्यविमूढ़ कर गया.

‘‘देखिए रूपेश बाबू, मैं ने तो दूसरे विवाह के संबंध में कभी कुछ सोचा ही नहीं. पहले भी कई प्रस्ताव आए पर मैं ने अस्वीकार कर दिए. मैं नहीं चाहता कि मेरे पुत्र पर सौतेली मां का साया पड़े,’’ कहते हुए असीम ने अपना मंतव्य स्पष्ट किया.

‘‘मैं अपनी बहन की तारीफ केवल इसलिए नहीं कर रहा हूं कि मैं उस का भाई हूं बल्कि इसलिए कि उस का स्वभाव इतना मोहक है कि वह परायों को भी अपना बना ले. फिर भी मैं आप पर कोई जोर नहीं डालना चाहता. आप दोनों एकदूसरे से मिल लीजिए, जानसमझ लीजिए. यदि आप दोनों को लगे कि आप एकदूसरे का दुखसुख बांट सकते हैं, तभी हम बात आगे बढ़ाएंगे,’’ कहते हुए रूपेश ने अपनी जेब से एक कागज निकाल कर असीम को थमा दिया, जिस में मीता का जीवनपरिचय था. मीता नव विज्ञान विद्यालय में भौतिकी की व्याख्याता थी.

फिर रूपेश एक प्याला चाय पी कर असीम से विदा लेते हुए बोला, ‘‘आप जब चाहें मुझ से फोन पर संपर्क कर सकते हैं,’’ कह कर वह चला गया.

इस मामले में ज्यादा सोचविचार के लिए असीम के पास समय नहीं था. उसे तैयार हो कर कार्यालय पहुंचना था, इस जल्दी में वह रूपेश और उस की बहन मीता की बात पूरी तरह भूल गया.

कार्यालय पहुंचते ही ‘नीलिमा’ उस के सामने पड़ गई. हालांकि वह उस से बच कर निकल जाना चाहता था.

‘‘कहिए महाशय, कहां रहते हैं आजकल? आज सुबह पूरे आधे घंटे तक बस स्टाप पर लाइन में खड़ी आप का इंतजार करती रही,’’ नीलिमा ने शिकायती लहजे में कहा.

‘‘यानी मुझ में और बस में कोई अंतर ही नहीं है…’’ कहते हुए असीम मुसकराया.

‘‘है, बहुत बड़ा अंतर है. बस तो फिर भी ठीक समय पर आ गई थी पर श्रीमान असीम नहीं पधारे थे.’’

‘‘बहुत नाराज हो? चलो, आज सारी नाराजगी दूर कर दूंगा. आज अच्छी सी एक फिल्म देखेंगे और रात का खाना भी अच्छे से एक रेस्तरां में…’’ असीम बोला.

‘‘नहीं, आज नहीं. इंदौर से मेरे मांपिताजी आए हुए हैं. 3 दिन तक यहीं रुकेंगे. उन के जाने के बाद ही मैं तुम्हारे साथ कहीं जा पाऊंगी.’’

‘‘अरे वाह, तुम तो अपने पति और सासससुर तक की परवा नहीं करतीं फिर मांपिताजी…’’ असीम ने व्यंग्य में कहा.

‘‘मांपिताजी की परवा करनी पड़ती है. तुम तो जानते ही हो कि देर से जाने पर सवालों की झड़ी लगा देंगे. परिवार के सम्मान और समाज की दुहाई देंगे. फिर 3 दिन की ही तो बात है, क्यों खिटपिट मोल लेना. पति और सासससुर भी कहतेसुनते रहते हैं, पर सदा साथ ही रहना है, लिहाजा, मैं चिंता नहीं करती,’’ कहती हुई नीलिमा हंसी.

‘‘पता नहीं, तुम्हारे तर्क तो बहुत ही विचित्र होते हैं. पर नीलू आज शाम की चाय साथ पिएंगे, तुम से जरूरी बात करनी है,’’ असीम बोला.

‘‘नहीं, तुम्हारे साथ चाय पी तो मेरी बस निकल जाएगी. दोपहर का भोजन साथ लेंगे. आज तुम्हारे लिए विशेष पकवान लाई हूं.’’

‘‘ठीक है, आशा करता हूं उस समय कोई मीटिंग न चल रही हो.’’

‘‘देर हो भी गई तो मैं इंतजार करूंगी,’’ कहती हुई नीलिमा अपने केबिन की ओर बढ़ गई.

कार्यालय की व्यस्तता में असीम भोजन की बात भूल ही गया था पर भोजनावकाश में दूसरों को जाते देख उसे नीलिमा की याद आई तो वह लपक कर कैंटीन में जा पहुंचा.

‘‘यह देखो, गुलाबजामुन और मलाईकोफ्ता…’’ नीलिमा अपना टिफिन खोलते हुए बोली.’’

‘‘मेरे मुंह में तो देख कर ही पानी आ रहा है. मैं तो आज केवल डबलरोटी और अचार लाया हूं. समय ही नहीं मिला,’’ असीम कोफ्ते के साथ रोटी खाते हुए बोला.

‘‘ऐसा क्या करते रहते हो जो अपने लिए कुछ बना कर भी नहीं ला सकते? सच कहूं, तुम्हें कैंटिन के भोजन की आदत पड़ गई है.’’

‘‘तुम जो ले आती हो रोजाना कुछ न कुछ…पर सुनो, आज बहुत ही अजीब बात हुई. एक अजनबी आ टपका. रूपेश नाम था उस का, उम्र में मुझ से 1-2 साल का अंतर होगा. कहने लगा, मेरे भाई डाक्टर उत्तम से उस का अच्छा परिचय है,’’ असीम ने बताया.

‘‘अरे, तो कह देते तुम्हें कार्यालय जाने को देर हो रही है.’’

‘‘बात इतनी ही नहीं थी नीलू, वह अपनी ममेरी बहन का विवाह प्रस्ताव लाया था. विवाह के कुछ माह बाद ही बेचारी के पति का निधन हो गया था.’’

‘‘तुम ने कहा नहीं कि दोबारा से ऐसा साहस न करें.’’

‘‘नहीं, मैं ने ऐसा कुछ नहीं कहा बल्कि मैं ने तो कह दिया कि विवाह प्रस्ताव पर विचार करूंगा.’’

‘‘देखो असीम, फिर से वही प्रकरण दोहराने से क्या फायदा है. मैं ने कहा था न कि तुम ने दूसरे विवाह की बात भी की तो मैं आत्महत्या कर लूंगी,’’ कहती हुई नीलिमा तैश में आ गई.

‘‘हां, याद है. पिछली बार तुम ने नींद की गोलियां भी खा ली थीं. मैं ने भी तुम से कहा था कि ऐसी हरकतें मुझे पसंद नहीं हैं. तुम्हारा पति है, बच्चे हैं भरापूरा परिवार है. हम मित्र हैं, इस का मतलब यह तो नहीं कि तुम इतनी स्वार्थी हो जाओ कि मेरा जीना ही मुश्किल कर दो…’’ कहते हुए असीम का स्वर इतना ऊंचा हो गया कि कैंटीन में मौजूद लोग उन्हीं को देखने लगे.

‘‘मैं सब के सामने तमाशा करना नहीं चाहती, पर तुम मेरे हो और मेरे ही रहोगे. यदि तुम ने किसी और से विवाह करने का साहस किया तो मुझ से बुरा कोई न होगा,’’ कहती हुई नीलिमा अपना टिफिन बंद कर के चली गई और असीम हक्काबक्का सा शून्य में ताकता बैठा रह गया.

‘‘क्या हुआ मित्र? आज तो नीलिमाजी बहुत गुस्से में थीं?’’ तभी कुछ दूर बैठा भोजन कर रहा उस का मित्र सोमेंद्र उस के सामने आ बैठा.

‘‘वही पुराना राग सोमेंद्र, मैं उस से अपना परिवार छोड़ कर विवाह करने को कहता हूं तो परिवार और समाज की दुहाई देने लगती है, पर मेरे विवाह की बात सुन कर बिफरी हुई शेरनी की तरह भड़क उठती है,’’ असीम दुखी स्वर में बोला.

‘‘बहुत ही विचित्र स्त्री है मित्र, पर तुम भी कम विचित्र नहीं हो,’’ सोमेंद्र गंभीर स्वर में बोला.

‘‘वह कैसे?’’ कहता हुआ असीम वहां से उठ कर अपने कक्ष की ओर जाने लगा.

‘‘उस के कारण तुम्हारी कितनी बदनामी हो रही है, क्या तुम नहीं जानते? अपने हर विवाह प्रस्ताव पर उस से चर्चा करना क्या जरूरी है? ऐसी दोस्ती जो जंजाल बन जाए, शत्रुता से भी ज्यादा घातक होती है…’’ सोमेंद्र ने समझाया.

‘‘शायद तुम ठीक कह रहे हो, तुम ने तो मुझे कई बार समझाया भी पर मैं ही अपनी कमजोरी पर नियंत्रण नहीं कर पाया,’’ कहता हुआ असीम मन ही मन कुछ निर्णय ले अपने कार्य में व्यस्त हो गया.

उस के बाद घटनाचक्र इतनी तेजी से घूमा कि स्वयं असीम भी हक्काबक्का रह गया.

रूपेश ने न केवल उसे मीता से मिलवाया बल्कि उसे समझाबुझा कर विवाह के लिए तैयार भी कर लिया.

विवाह समारोह के दिन शहनाई के स्वरों के बीच जब असीम मित्रों व संबंधियों की बधाइयां स्वीकार कर रहा था, उसे रूपेश और नीलिमा आते दिखाई दिए. एक क्षण को तो वह सिहर उठा कि न जाने नीलिमा क्या तमाशा खड़ा कर दे.

‘‘असीम बाबू, इन से मिलिए यह है मेरी पत्नी नीलिमा. आप के ही कार्यालय में कार्य करती है. आप तो इन से अच्छी तरह परिचित होंगे ही, अलबत्ता मैं रूपेश नहीं सर्वेश हूं. मैं ने आप से थोड़ा झूठ बोला अवश्य था, पर अपने परिवार की सुखशांति बचाने के लिए. आशा है आप माफ कर देंगे,’’ रूपेश बोला.

‘‘कैसी बातें कर रहे हैं आप, माफी तो मुझे मांगनी चाहिए. आप की सुखी गृहस्थी में मेरे कारण ही तो भूचाल आया था,’’ असीम धीरे से बोला.

‘‘आप व्यर्थ ही स्वयं को दोषी ठहरा रहे हैं, असीम बाबू. हमारे पारिवारिक जीवन में तो ऐसे अनगिनत भूचाल आते रहे हैं, पर अपनी संतान के भविष्य के लिए मैं ने हर भूचाल का डट कर सामना किया है. इस में आप का कोई दोष नहीं है. अपना ही सिक्का जब खोटा हो तो परखने वाले का क्या दोष?’’ कहते हुए सर्वेश ने बधाई दे कर अपना चेहरा घुमा लिया. असीम भी नहीं देख पाया था कि उस की आंखें डबडबा आई थीं. वह नीलिमा पर हकारत भरी नजर डाल कर अन्य मेहमानों के स्वागत में व्यस्त हो गया.

Social Story in Hindi

Hindi Fiction Story: बेशरम- क्या टूट गया गिरधारीलाल शर्मा का परिवार

Hindi Fiction Story: पारिवारिक विघटन के इस दौर में जब भी किसी पारिवारिक समस्या का निदान करना होता तो लोग गिरधारीलाल को बुला लाते. न जाने वह किस प्रकार समझाते थे कि लोग उन की बात सुन कर भीतर से इतने प्रभावित हो जाते कि बिगड़ती हुई बात बन जाती.

गिरधारीलाल का सदा से यही कहना रहा था कि जोड़ने में वर्षों लगते हैं और तोड़ने में एक क्षण भी नहीं लगता. संबंध बड़े नाजुक होते हैं. यदि एक बार संबंधों की डोर टूट जाए तो उन्हें जोड़ने में गांठ तो पड़ ही जाती है, उम्र भर की गांठ…..

गिरधारीलाल ने सनातनधर्मी परिवार में जन्म लिया था पर जब उन की विदुषी मां  ने पंडितों के ढकोसले देखे, छुआछूत और धर्म के नाम पर बहुओं पर अत्याचार देखा तो न जाने कैसे वह अपनी एक सहेली के साथ आर्यसमाज पहुंच गईं. वहां पर विद्वानों के व्याख्यान से उन के विकसित मस्तिष्क का और भी विकास हुआ. अब उन्हें जातपांत और ढकोसले से ग्लानि सी महसूस होने लगी और उन्होंने अपनी बहुओं को स्वतंत्र रूप से जीवन जीने की कला सिखाई. इसी कारण उन का परिवार एक वैदिक परिवार के रूप में प्रतिष्ठित हो गया था.

आर्ची को अच्छी तरह से याद है कि जब बूआजी को बेटा हुआ था और  उसे ले कर अपने पिता के घर आई थीं तब पता लगातेलगाते हिजड़े भी घर पर आ गए थे. आंगन में आ कर उन्होंने दादाजी के नाम की गुहार लगानी शुरू की और गानेनाचने लगे थे. दादीमां ने उन्हें उन की मांग से भी अधिक दे कर घर से आदर सहित विदा किया था. उन का कहना था कि इन्हें क्यों दुत्कारा जाता है? ये भी तो हाड़मांस के ही बने हुए हैं. इन्हें भी कुदरत ने ही बनाया है, फिर इन का अपमान क्यों?

दादी की यह बात आर्ची के मस्तिष्क में इस प्रकार घर कर गई थी कि जब भी कहीं हिजड़ों को देखती, उस के मन में उन के प्रति सहानुभूति उमड़ आती. वह कभी उन्हें धिक्कार की दृष्टि से नहीं देख पाई. ससुराल में शुरू में तो उसे कुछेक तीखी नजरों का सामना करना पड़ा पर धीरेधीरे सबकुछ सरल, सहज होता गया.

मेरठ में पल कर बड़ी होने वाली आर्ची मुंबई पहुंच गई थी. एकदम भिन्न, खुला वातावरण, तेज रफ्तार की जिंदगी. शादी हो कर दिल्ली गई तब भी उसे माहौल इतना अलग नहीं लगा था जितना मुंबई आने पर. साल में घर के 2 चक्कर लग जाते थे. विवाह के 5 वर्ष बीत जाने पर भी मायके जाने का नाम सुन कर उस के पंख लग जाते.

बहुत खुश थी आर्ची. फटाफट पैकिंग किए जा रही थी. मायके जाना उस के पैरों में बिजलियां भर देता था. आखिर इतनी दूर जो आ गई थी. अपने शहर में होती थी तो सारे त्योहारों में कैसी चटकमटक करती घूमती रहती थी. दादा कहते, ‘अरी आर्ची, जिस दिन तू इस घर से जाएगी घर सूना हो जाएगा.’ ‘क्यों, मैं कहां और क्यों जाऊंगी, दादू? मैं तो यहीं रहूंगी, अपने घर में, आप के पास.’

दादी लाड़ से उसे अपने अंक में भर लेतीं, ‘अरी बिटिया, लड़की का

तो जन्म ही होता है पराए घर जाने के लिए. देख, मैं भी अपने घर से आई हूं, तेरी मम्मी भी अपने घर से आई हैं, तेरी बूआ यहां से गई हैं, अब तेरी बारी आएगी.’

13 वर्षीय आर्ची की समझ में यह नहीं आ पाता कि जब दादी और मां अपने घर से आई हैं तब यह उन का घर कैसे हो गया. और बूआ अपने घर से गई हैं तो उन का वह घर कैसे हो गया. और अब वह अपने घर से जाएगी…

क्या उधेड़बुन है… आर्ची अपना घर, उन का घर सोचतीसोचती फिर से रस्सी कूदने लगती या फिर किसी सहेली की आवाज से बाहर भाग जाती या कोई भाई आवाज लगा देता, ‘आर्ची, देख तो तेरे लिए क्या लाया हूं.’

इस तरह आर्ची फिर व्यस्त हो जाती. एक भरेपूरे परिवार में रहते हुए आर्ची को कितना लाड़प्यार मिला था वह कभी उसे तोल ही नहीं सकती. उस का मन उस प्यार से भीतर तक भीगा हुआ था. वैसे भी प्यार कहीं तोला जा सकता है क्या? अपने 3 सगे भाई, चाचा के 4 बेटे और सब से छोटी आर्ची.

‘‘क्या बात है भई, बड़ी फास्ट पैकिंग हो रही है,’’ किशोर ने कहा.

‘‘कितना काम पड़ा है. आप भी तो जरा हाथ लगाइए,’’ आर्ची ने पति से कहा.

‘‘भई, मायके आप जा रही हैं और मेहनत हम से करवाएंगी,’’ किशोर आर्ची की खिंचाई करने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देते थे.

‘‘हद करते हैं आप भी. आप भी तो जा रहे हैं अपने मायके…’’

‘‘भई, हम तो काम से जा रहे हैं, फिर 2 दिन में लौट भी आएंगे. लंबी छुट्टियां तो आप को मिलती हैं, हमें कहां?’’

किशोर को कंपनी की किसी मीटिंग के सिलसिले में दिल्ली जाना था सो तय कर लिया गया था कि दिल्ली तक आर्ची भी फ्लाइट से चली जाएगी. दिल्ली में किशोर उसे और बच्चों को टे्रन में बैठा देंगे. मेरठ में कोईर् आ कर उसे उतार लेगा. एक सप्ताह अपने मायके मेरठ रह कर आर्ची 2-3 दिन के लिए ससुराल में दिल्ली आ जाएगी जबकि किशोर को 2 दिन बाद ही वापस आना था. बच्चे छोटे थे अत: इतनी लंबी यात्रा बच्चों के साथ अकेले करना जरा कठिन ही था.

किशोर को दिल्ली एअरपोर्ट पर कंपनी की गाड़ी लेने के लिए आ गई, सो उस ने आर्ची और बच्चों को स्टेशन ले जा कर मेरठ जाने वाली गाड़ी में बिठा दिया और फोन कर दिया कि आर्ची इतने बजे मेरठ पहुंचेगी. फोन पर डांट भी खानी पड़ी उसे. अरे, भाई, पहले से फोन कर देते तो दिल्ली ही न आ जाता कोई लेने. आजकल के बच्चे भी…दामाद को इस से अधिक कहा भी क्या जा सकताथा.

किशोर ने आर्ची को प्रथम दरजे में बैठाया था और इस बात से संतुष्ट हो गए थे कि उस डब्बे में एक संभ्रांत वृद्धा भी बैठी थी. आर्ची को कुछ हिदायतें दे कर किशोर गाड़ी छूटने पर अपने गंतव्य की ओर निकल गए.

अब आर्ची की अपनी यात्रा प्रारंभहुई थी, जुगनू 2 वर्ष के करीब था और बिटिया एनी अभी केवल 7 माह की थी. डब्बे में बैठी संभ्रांत महिला उसे घूरे जा रही थी.

‘‘कहां जा रही हो बिटिया?’’ वृद्धा ने पूछा.

‘‘जी, मेरठ?’’

‘‘ये तुम्हारे बच्चे हैं?’’

‘‘जी हां,’’ आर्ची को कुछ अजीब सा लगा.

‘‘आप कहां जा रही हैं?’’ उस ने माला फेरती उस महिला से पूछा.

‘‘मेरठ,’’ उस ने छोटा सा उत्तर दिया फिर उसे मानो बेचैनी सी हुई. बोली, ‘‘वे तुम्हारे घर वाले थे?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘रहती कहां हो…मेरठ?’’

‘‘जी नहीं, मुंबई…’’

‘‘तो मेरठ?’’

‘‘मायका है मेरा.’’

‘‘किस जगह?’’

‘‘नंदन में…’’ नंदन मेरठ की एक पौश व बड़ी कालोनी है.

‘‘अरे, वहीं तो हम भी रहते हैं. हम गोल मार्किट के पास रहते हैं, और तुम?’’

‘‘जी, गोल मार्किट से थोड़ा आगे चल कर दाहिनी ओर ‘साकेत’ बंगला है, वहीं.’’

‘‘वह तो गिरधारीलालजी का है,’’ फिर कुछ रुक कर वह वृद्धा बोली, ‘‘तुम उन की पोती तो नहीं हो?’’

‘‘जी हां, मैं उन की पोती ही हूं.’’

‘‘बेटी, तुम तो घर की निकलीं, अरे, मेरे तो उस परिवार से बड़े अच्छे संबंध हैं. कोई लेने आएगा?’’

‘‘जी हां, घर से कोई भी आ जाएगा, भैया, कोई से भी.’’

वृद्धा निश्ंिचत हो माला फेरने लगीं.

‘‘तुम्हारी दादी ने मुझे आर्यसमाज का सदस्य बनवा दिया था. पहले ‘हरे राम’ कहती थी अब ‘हरिओम’ कहने लगी हूं,’’ वह हंसी.

आर्ची मुसकरा कर चुप हो गई.

वृद्धा माला फेरती रही.

गाड़ी की रफ्तार कुछ कम हुई. मुरादनगर आया था. गाड़ी ने पटरी बदली. खटरपटर की आवाज में आर्ची को किसी के दरवाजा पीटने की आवाज आई. उस ने एनी को देखा वह गहरी नींद में सो रही थी. जुगनू भी हाथ में खिलौना लिए नींद के झटके खा रहा था. आर्ची ने उसे भी बर्थ पर लिटा दिया और अपने कूपे से गलियारे में पहुंच कर मुख्यद्वार पर पहुंच गई.

कोई बाहर लटका हुआ था. अंदर से दरवाजा बंद होने के कारण वह दस्तक दे रहा था. आर्ची ने इधरउधर देखा, उसे कोई दिखाई नहीं दिया. सब अपनेअपने कूपों में बंद थे. आर्ची ने आगे बढ़ कर दरवाजा खोल दिया और वह मनुष्य बदहवास सा अंदर आ गया. वृद्धा वहीं से चिल्लाई, ‘‘अरे, क्या कर रही हो? क्यों घुसाए ले रही हो इस मरे बेशरम को, हिजड़ा है.’’

‘‘मांजी, मुझे दूसरे स्टेशन तक ही जाना है, मैं तो गाड़ी धीमी होते ही उतर जाऊंगा, देखो, यहीं दरवाजे के पास बैठ रहा हूं…’’ और वह भीतर से दरवाजा बंद कर वहीं गैलरी में उकड़ूूं बैठ गया.

आर्ची अपने कूपे में आ गई. वृद्धा का मुंह फूल गया था. उस ने आर्ची की ओर से मुंह घुमा कर दूसरी ओर कर लिया और जोरजोर से अपने हाथ की माला घुमाने लगी.

आर्ची को बहुत दुख हुआ. बेचारा गाड़ी से लटक कर गिर जाता तो? कुछ पल बाद ही आर्ची को बाथरूम जाने की जरूरत महसूस हुई. दोनों बच्चे खूब गहरी नींद सो रहे थे.

‘‘मांजी, प्लीज, जरा इन्हें देखेंगी. मैं अभी 2 मिनट में आई,’’ कह कर आर्ची  बाथरूम की ओर गई. उस का कूपा दरवाजे के पास था, अत: गैलरी से निकलते ही थोड़ा मुड़ कर बाथरूम था. जैसे ही आर्ची ने बाथरूम में प्रवेश किया गाड़ी फिर से खटरपटर कर पटरियां बदलने लगी. उसे लगा बच्चे कहीं गिर न पड़ें. जब तक बाथरूम से वह बाहर भागी तब तक गाड़ी स्थिर हो चुकी थी. सीट पर से गिरती हुई एनी को उस ‘बेशरम’ व्यक्ति ने संभाल लिया था.

वृद्धा क्रोधपूर्ण मुद्रा में खूब तेज रफ्तार से माला पर उंगलियां फेर रही थी. जुगनू बेखबर सो रहा था. उस बेशरम व्यक्ति का झुका हुआ एक हाथ जुगनू को संभालने की मुद्रा में उस के पेट पर रखा हुआ था. यह देख कर आर्ची भीतर से भीग उठी. यदि उस ने बच्चे संभाले न होते तो उन्हें गहरी चोट लग सकती थी.

‘‘थैंक्यू…’’ आर्ची ने कहा और एनी को अपनी गोद में ले लिया.

उस बेशरम की आंखों से चमक जैसे अचानक कहीं खो गई. हिचकिचाते हुए उस ने कहा, ‘‘मेरा स्टेशन आ रहा है. बस, 2 मिनट आप की बेटी को गोद में ले लूं?’’

आर्ची ने बिना कुछ कहे एनी को उस की गोद में थमा दिया. वृद्धा के मुंह से ‘हरिओम’ शब्द जोरजोर से बाहर निकलने लगा.

बारबार गोद बदले जाने के कारण एनी कुनमुन करने लगी थी. उस हिजड़े ने एनी को अपने सीने से लगा कर आंखें मूंद लीं तो 2 बूंद आंसू उस की आंखों की कोरों पर चिपक गए. आर्ची ने देखा कैसी तृप्ति फैल गई थी उस के चेहरे पर. एनी को उस की गोदी में देते हुए उस ने कहा, ‘‘यहां गाड़ी धीमी होगी, बस, आप जरा एक मिनट दरवाजा बंद मत करना…’’ और धीमी होती हुईर् गाड़ी से वह नीचे कूद गया. आर्ची ने खुले हुए दरवाजे से देखा, वह भाग कर सामने के टी स्टाल पर गया. वहां से बिस्कुट का एक पैकेट उठाया, भागतेभागते बोला, ‘‘पैसा देता हूं अभी…’’ और पैकेट दरवाजे के पास हाथ लंबा कर आर्ची की ओर बढ़ाते हुए बोला, ‘‘बहन, इसे अपने बच्चों को जरूर खिलाना.’’

गाड़ी रफ्तार पकड़ रही थी. आर्ची कुछ आगे बढ़ी, उस ने पैकेट पकड़ना चाहा पर गोद में एनी के होने के कारण वह और आगे बढ़ने में झिझक गई और पैकेट हाथ में आतेआते गाड़ी के नीचे जा गिरा. आर्ची का मन धक्क से हो गया. बेबसी से उस ने नजर उठा कर देखा वह ‘बेशरम’ व्यक्ति हाथ हिलाता हुआ अपनी आंखों के आंसू पोंछ रहा था.

Hindi Fiction Story

Hindi Short Story: देह – क्या औरत का मतलब देह है

Hindi Short Story: चारपाई पर लेटी हुई बुधिया साफसाफ देख रही थी कि सूरज अब ऊंघने लगा था और दिन की लालिमा मानो रात की कालिमा में तेजी से समाती जा रही थी.

देखते ही देखते अंधेरा घिरने लगा था… बुधिया के आसपास और उस के अंदर भी. लगा जैसे वह कालिमा उस की जिंदगी का एक हिस्सा बन गई है…

एक ऐसा हिस्सा, जिस से चाह कर भी वह अलग नहीं हो सकती. मन किसी व्याकुल पक्षी की तरह तड़प रहा था. अंदर की घुटन और चुभन ने बुधिया को हिला कर रख दिया. समय के क्रूर पंजों में फंसीउलझी बुधिया का मन हाहाकार कर उठा है.

तभी ‘ठक’ की आवाज ने बुधिया को चौंका दिया. उस के तनमन में एक सिहरन सी दौड़ गई. पीछे मुड़ कर देखा तो दीवार का पलस्तर टूट कर नीचे बिखरा पड़ा था. मां की तसवीर भी खूंटी के साथ ही गिरी पड़ी थी जो मलबे के ढेर में दबे किसी निरीह इनसान की तरह ही लग रही थी.

बुधिया को पुराने दिन याद हो आए, जब वह मां की आंखों में वही निरीहता देखा करती थी.

शाम को बापू जब दारू के नशे में धुत्त घर पहुंचता था तो मां की छोटी सी गलती पर भी बरस पड़ता था और पीटतेपीटते बेदम कर देता था. एक बार जवान होती बुधिया के सामने उस के जालिम बाप ने उस की मां को ऐसा पीटा था कि वह घंटों बेहोश पड़ी रही थी. बुधिया डरीसहमी सी एक कोने में खड़ी रही थी. उस का मन भीतर ही भीतर कराह उठा था.

बुधिया को याद है, उस दिन उस की मां खेत पर गई हुई थी… धान की कटाई में. तभी ‘धड़ाक’ की आवाज के साथ दरवाजा खुला था और उस का दारूखोर बाप अंदर दाखिल हुआ था. आते ही उस ने अपनी सिंदूरी आंखें बुधिया के ऊपर ऐसे गड़ा दी थीं मानो वह उस की बेटी नहीं महज एक देह हो.

‘बापू…’ बस इतना ही निकल पाया था बुधिया की जबान से.

‘आ… हां… सुन… बुधिया…’ बापू जैसे आपे से बाहर हो कर बोले थे, ‘यह दारू की बोतल रख दे…’

‘जी अच्छा…’ किसी मशीन की तरह बुधिया ने सिर हिलाया था और दारू की बोतल अपने बापू के हाथ से ले कर कोने में रख आई थी. उस की आंखों में डर की रेखाएं खिंच आई थीं.

तभी बापू की आवाज किसी हथौड़े की तरह सीधे उसे आ कर लगी थी, ‘बुधिया… वहां खड़ीखड़ी क्या देख रही है… यहां आ कर बैठ… मेरे पास… आ… आ…’

बुधिया को तो जैसे काटो तो खून नहीं. उस की सांसें तेजतेज चलने लगी थीं, धौंकनी की तरह. उस का मन तो किया था कि दरवाजे से बाहर भाग जाए, लेकिन हिम्मत नहीं हुई थी. उसी पल बापू की गरजदार आवाज गूंजी थी, ‘बुधिया…’

न चाहते हुए भी बुधिया उस तरफ बढ़ चली थी, जहां उस का बाप खटिया पर पसरा हुआ था. उस ने झट से बुधिया का हाथ पकड़ा और अपनी ओर ऐसे खींच लिया था जैसे वह उस की जोरू हो.

‘बापू…’ बुधिया के गले से एक घुटीघुटी सी चीख निकली थी, ‘यह क्या कर रहे हो बापू…’

‘चुप…’ बुधिया का बापू जोर से गरजा और एक झन्नाटेदार थप्पड़ उस के दाएं गाल पर दे मारा था.

बुधिया छटपटा कर रह गई थी. उस में अब विरोध करने की जरा भी ताकत नहीं बची थी. फिर भी वह बहेलिए के जाल में फंसे परिंदे की तरह छूटने की नाकाम कोशिश करती रही थी. थकहार कर उस ने हथियार डाल दिए थे.

उस भूखे भेडि़ए के आगे वह चीखती रही, चिल्लाती रही, मगर यह सिलसिला थमा नहीं, चलता रहा था लगातार…

बुधिया ने मां को इस बाबत कई बार बताना चाहा था, मगर बापू की सुलगती सिंदूरी आंखें उस के तनमन में झुरझुरी सी भर देती थीं और उस पर खौफ पसरता चला जाता था, वह भीतर ही भीतर घुटघुट कर जी रही थी.

फिर एक दिन बापू की मार से बेदम हो कर बुधिया की मां ने बिस्तर पकड़ लिया था. महीनों बिस्तर पर पड़ी तड़़पती रही थी वह. और उस दिन जबरदस्त उस के पेट में तेज दर्द उठा. तब बुधिया दौड़ पड़ी थी मंगरू चाचा के घर. मंगरू चाचा को झाड़फूंक में महारत हासिल थी.

बुधिया से आने की वजह जान कर मंगरू ने पूछा था, ‘तेरे बापू कहां हैं?’

‘पता नहीं चाचा,’ इतना ही कह पाई थी बुधिया.

‘ठीक है, तुम चलो. मैं आ रहा हूं,’ मंगरू ने कहा तो बुधिया उलटे पैर अपने झोंपड़े में वापस चली आई थी.

थोड़ी ही देर में मंगरू भी आ गया था. उस ने आते ही झाड़फूंक का काम शुरू कर दिया था, लेकिन बुधिया की मां की तबीयत में कोई सुधार आने के बजाय दर्द बढ़ता गया था.

मंगरू अपना काम कर के चला गया और जातेजाते कह गया, ‘बुधिया, मंत्र का असर जैसे ही शुरू होगा, तुम्हारी मां का दर्द भी कम हो जाएगा… तू चिंता मत कर…’

बुधिया को लगा जैसे मंगरू चाचा ठीक ही कह रहा है. वह घंटों इंतजार करती रही लेकिन न तो मंत्र का असर शुरू हुआ और न ही उस की मां के दर्द में कमी आई. देखते ही देखते बुधिया की मां का सारा शरीर बर्फ की तरह ठंडा पड़ गया.

आंखें पथराई सी बुधिया को ही देख रही थीं, मानो कुछ कहना चाह रही हों. तब बुधिया फूटफूट कर रोने लगी थी.

उस के बापू देर रात घर तो आए, लेकिन नशे में चूर. अगली सुबह किसी तरह कफनदफन का इंतजाम हुआ था.

बुधिया की यादों का तार टूट कर दोबारा आज से जुड़ गया. बापू की ज्यादतियों की वजह से बुधिया की जिंदगी तबाह हो गई. पता नहीं, वह कितनी बार मरती है, फिर जीती है… सैकड़ों बार मर चुकी है वह. फिर भी जिंदा है… महज एक लाश बन कर.

बापू के प्रति बुधिया का मन विद्रोह कर उठता है, लेकिन वह खुद को दबाती आ रही है.

मगर आज बुधिया ने मन ही मन एक फैसला कर लिया. यहां से दूर भाग जाएगी वह… बहुत दूर… जहां बापू की नजर उस तक कभी नहीं पहुंच पाएगी.

अगले दिन बुधिया मास्टरनी के यहां गई कि वह अपने ऊपर हुई ज्यादतियों की सारी कहानी उन्हें बता देगी. मास्टरनी का नाम कलावती था, मगर सारा गांव उन्हें मास्टरनी के नाम से ही जानता है.

कलावती गांव के ही प्राइमरी स्कूल में पढ़ाती हैं. बुधिया को भी उन्होंने ही पढ़ाया था. यह बात और है कि बुधिया 2 जमात से ज्यादा पढ़ नहीं पाई थी.

‘‘क्या बात है बुधिया? कुछ बोलो तो सही… जब से तुम आई हो, तब से रोए जा रही हो. आखिर बात क्या हो गई?’’

मास्टरनी ने पूछा तो बुधिया का गला भर आया. उस के मुंह से निकला, ‘मास्टरनीजी.’’

‘‘हां… हां… बताओ बुधिया… मैं वादा करती हूं, तुम्हारी मदद करूंगी,’’ मास्टरनी ने कहा तो बुधिया ने बताया, ‘‘मास्टरनीजी… उस ने हम को खराब किया… हमारे साथ गंदा… काम…’’ सुन कर मास्टरनी की भौंहें तन गईं. वे बुधिया की बात बीच में ही काट कर बोलीं, ‘‘किस ने किया तुम्हारे साथ गलत काम?’’

‘‘बापू ने…’’ और बुधिया सबकुछ सिलसिलेवार बताती चली गई.

मास्टरनी कलावती की आंखें फटी की फटी रह गईं और चेहरे पर हैरानी की लकीरें गहराती गईं. फिर वे बोलीं, ‘‘तुम्हारा बाप इनसान है या जानवर… उसे तो चुल्लूभर पानी में डूब मरना चाहिए. उस ने अपनी बेटी को खराब किया.

‘‘खैर, तू चिंता मत कर बुधिया. तू आज शाम की गाड़ी से मेरे साथ शहर चल. वहां मेरी बेटी और दामाद रहते हैं. तू वहीं रह कर उन के काम करना, बच्चे संभालना. तुम्हें भरपेट खाना और कपड़ा मिलता रहेगा. वहां तू पूरी तरह महफूज रहेगी.’’

बुधिया का सिर मास्टरनी के प्रति इज्जत से झुक गया. नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरते ही बुधिया को लगा जैसे वह किसी नई दुनिया में आ गई हो. सबकुछ अलग और शानदार था.

बुधिया बस में बैठ कर गगनचुंबी इमारतों को ऐसे देख रही थी मानो कोई अजूबा हो.

तभी मास्टरनीजी ने एक बड़ी इमारत की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘‘देख बुधिया… यहां औरतमर्द सब एकसाथ कंधे से कंधा मिला कर काम करते हैं.’’

‘‘सच…’’ बुधिया को जैसे हैरानी हुई. उस का अल्हड़ व गंवई मन पता नहीं क्याक्या कयास लगाता रहा.

बस एक झटके से रुकी तो मास्टरनी के साथ वह वहीं उतर पड़ी. चंद कदमों का फासला तय करने के बाद वे दोनों एक बड़ी व खूबसूरत कोठी के सामने पहुंचीं. फिर एक बड़े से फाटक के अंदर बुधिया मास्टरनीजी के साथ ही दाखिल हो गई. बुधिया की आंखें अंदर की सजावट देख कर फटी की फटी रह गईं.

मास्टरनीजी ने एक मौडर्न औरत से बुधिया का परिचय कराया और कुछ जरूरी हिदायतें दे कर शाम की गाड़ी से ही वे गांव वापस लौट गईं.

शहर की आबोहवा में बुधिया खुद को महफूज समझने लगी. कोठी के चारों तरफ खड़ी कंक्रीट की मजबूत दीवारें और लोहे की सलाखें उसे अपनी हिफाजत के प्रति आश्वस्त करती थीं.

बेफिक्री के आलम से गुजरता बुधिया का भरम रेत के घरौंदे की तरह भरभरा कर तब टूटा जब उसे उस दिन कोठी के मालिक हरिशंकर बाबू ने मौका देख कर अपने कमरे में बुलाया और देखते ही देखते भेडि़या बन गया. बुधिया को अपना दारूबाज बाप याद हो आया.

नशे में चूर… सिंदूरी आंखें और उन में कुलबुलाते वासना के कीड़े. कहां बचा पाई बुधिया उस दिन भी खुद को हरिशंकर बाबू के आगोश से.

कंक्रीट की दीवारें और लोहे की मजबूत सलाखों को अपना सुरक्षा घेरा मान बैठी बुधिया को अब वह छलावे की तरह लगने लगा और फिर एक रात उस ने देखा कि नितिन और श्वेता अपने कमरे में अमरबेल की तरह एकदूसरे से लिपटे बेजा हरकतें कर रहे थे. टैलीविजन पर किसी गंदी फिल्म के बेहूदा सीन चल रहे थे.

‘‘ये दोनों सगे भाईबहन हैं या…’’ बुदबुदाते हुए बुधिया अपने कमरे में चली आई.

सुबह हरिशंकर बाबू की पत्नी अपनी बड़ी बेटी को समझा रही थीं, ‘‘देख… कालेज जाते वक्त सावधान रहा कर. दिल्ली में हर दिन लड़कियों के साथ छेड़छाड़ व बलात्कार की वारदातें बढ़ रही हैं. तू जबजब बाहर निकलती है तो मेरा मन घबराता रहता है. पता नहीं, क्या हो गया है इस शहर को.’’

बुधिया छोटी मालकिन की बातों पर मन ही मन हंस पड़ी. उसे सारे रिश्तेनाते बेमानी लगने लगे. वह जिस घर को, जिस शहर को अपने लिए महफूज समझ रही थी, वही उसे महफूज नहीं लग रहा था.

बुधिया के सामने एक अबूझ सवाल तलवार की तरह लटकता सा लगता था कि क्या औरत का मतलब देह है, सिर्फ देह?

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