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नया सफर: ससुराल के पाखंड और अंधविश्वास के माहौल में क्या बस पाई मंजू

“पापा, मैं यह शादी नहीं करना चाहती. प्लीज, आप मेरी बात मान लो…”

“क्या कह रही हो तुम? आखिर क्या कमी है मुनेंद्र में? भरापूरा परिवार है. खेतखलिहान हैं उस के पास. दोमंजिले मकान का मालिक है. घर में कोई कमी नहीं. हमारी टक्कर के लोग हैं,” उस के पिता ने गुस्से में कहा.

“पर पापा, आप भी जानते हैं, मुनेंद्र 5वीं फेल है जबकि मैं ग्रैजुएट हूं. हमारा क्या मेल?” मंजू ने अपनी बात रखी.

“मंजू, याद रख पढ़नेलिखने का यह मतलब नहीं कि तू अपने बाप से जबान लड़ाए और फिर पढ़ाई में क्या रखा है? जब लड़का इतना कमाखा रहा है, वह दानधर्म करने वाले इतने ऊंचे खानदान से है फिर तुझे बीच में बोलने का हक किस ने दिया? देख बेटा, हम तेरे भले की ही बात करेंगे. हम तेरे मांबाप हैं कोई दुश्मन तो हैं नहीं,” मां ने सख्त आवाज में उसे समझाने की कोशिश की.

“पर मां आप जानते हो न मुझे पढ़नेलिखने का कितना शौक है. मैं आगे बीएड कर टीचर बनना चाहती हूं. बाहर निकल कर काम करना है, रूपए कमाने हैं मुझे,” मंजू गिड़गिड़ाई.

“बहुत हो गई पढ़ाई. जब से पैदा हुई है यह लड़की पढ़ाई के पीछे पड़ी है. देख, अब तू चेत जा. लड़की का जन्म घर संभालने के लिए होता है, रुपए कमाने के लिए नहीं. तेरे ससुराल में इतना पैसा है कि बिना कमाई किए आराम से जी सकती है. चल, ज्यादा नखरे मत कर और शादी के लिए तैयार हो जा. हम तेरे नखरे और नहीं सह सकते. अपने घर जा और हमें चैन से रहने दे,” उस के पिता ने अपना फैसला सुना दिया था.

हार कर मंजू को शादी की सहमति देनी पड़ी. मुनेंद्र के साथ सात फेरे ले कर वह उस के घर आ गई. मंजू का मायका बहुत पूजापाठ करने वाला था. उस के पिता गांव के बड़े किसान थे. अब उसे ससुराल भी वैसा ही मिला था. पूजापाठ और अंधविश्वास में ये लोग दो कदम आगे ही थे.

किस दिन कौन से रंग के कपड़े पहनने हैं, किस दिन बाल धोना है, किस दिन नाखून काटने हैं और किस दिन बहू के हाथ दानपुण्य कराना है यह सब पहले से निश्चित रहता था.

सप्ताह के 7 में से 4 दिन उस से अपेक्षा रखी जाती थी कि वह किसी न किसी देवता के नाम पर व्रत रखे. व्रत नहीं तो कम से कम नियम से चले. रीतिरिवाजों का पालन करे. मंजू को अपनी डिगरी के कागज उठा कर अलमारी में रख देने पड़े. इस डिगरी की इस घर में कोई अहमियत नहीं थी.

उस का काम केवल सासससुर की सेवा करना, पति को सैक्स सुख देना और घर भर को स्वादिष्ठ खाना बनाबना कर खिलाना मात्र था. उस की खुशी, उस की संतुष्टि और उस के सपनों की कोई अहमियत नहीं थी.

समय इसी तरह गुजरता जा रहा था. बहुत बुझे मन से मंजू अपनी शादीशुदा जिंदगी गुजार रही थी. शादी के 1 साल बीत जाने के बाद भी जब मंजू ने सास को कोई खुशखबरी नहीं सुनाई तो घर में नए शगूफे शुरू हो गए.

सास कभी उसे बाबा के पास ले जाती तो कभी टोटके करवाती, कभी भस्म खिलाती तो कभी पूजापाठ रखवाती. लंबे समय तक इसी तरह बच्चे के जन्म की आस में परिवार वाले उसे टौर्चर करते रहे. मंजू समझ नहीं पाती थी कि आखिर इस अनपढ़, जाहिल और अंधविश्वासी परिवार के साथ कैसे निभाए?

इस बीच खाली समय में बैठेबैठे उस ने फेसबुक पर एक लड़के अंकित से दोस्ती कर ली. अंकित पढ़ालिखा था और उसी की उम्र का भी था. दोनों बैचमेट थे. उस के साथ मंजू हर तरह की बातें करने लगी. अंकित मंजू की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहता. उसे नईनई बातें बताता. दोनों के बीच थोड़ा बहुत अट्रैक्शन भी था मगर अंकित जानता था कि मंजू विवाहित है सो वह कभी अपनी सीमारेखा नहीं भूलता था.

एक दिन उस ने मंजू को बताया कि वह सिंगापुर अपनी आंटी के पास रहने जा रहा है. उसे वहां जौब भी मिल जाएगी. इस पर मंजू के मन में भी उम्मीद की एक किरण जागी. उसे लगा जैसे वह इन सारे झमेलों से दूर किसी और दुनिया में अपनी जिंदगी की शुरुआत कर सकती है.

उस ने अंकित से सवाल किया,” क्या मैं तुम्हारे साथ सिंगापुर चल सकती हूं?”

“पर तुम्हारे ससुराल वाले तुम्हें जाने की अनुमति दे देंगे?” अंकित ने पूछा.

“मैं उन से अनुमति मांगने जाऊंगी भी नहीं. मुझे तो बस यहां से बहुत दूर निकल जाना है, ” मंजू ने बिंदास हो कर कहा.

“इतनी हिम्मत है तुम्हारे अंदर?” अंकित को विश्वास नहीं हो रहा था.

“हां, बहुत हिम्मत है. अपने सपनों को पूरा करने के लिए मैं कुछ भी कर सकती हूं.”

“तो ठीक है मगर सिंगापुर जाना इतना आसान नहीं है. पहले तुम्हें पासपोर्ट, वीजा वगैरह तैयार करवाना पड़ेगा. उस में काफी समय लग जाता है. वैसे मेरा एक फ्रैंड है जो यह काम जल्दी कराने में मेरी मदद कर सकता है. लेकिन तुम्हें इस के लिए सारे कागजात और पैसे ले कर आना पड़ेगा. कुछ औपचारिकता हैं उन्हें पूरी करनी होगी,” अंकित ने समझाया.

“ठीक है, मैं कोई बहाना बना कर वहां पहुंच जाऊंगी. मेरे पास कुछ गहने पड़े हैं उन्हें ले आऊंगी. तुम मुझे बता दो कब और कहां आना है.”

अगले ही दिन मंजू कालेज में सर्टिफिकेट जमा करने और सहेली के घर जाने के बहाने घर से निकली और अंकित के पास पहुंच गई. दोनों ने फटाफट सारे काम किए और मंजू वापस लौट आई. घर में किसी को कानोंकान खबर भी नहीं हुई कि वह क्या कदम उठाने जा रही है.

इस बीच मंजू चुपकेचुपके अपनी पैकिंग करती रही और फिर वह दिन भी आ गया जब उसे सब को अलविदा कह कर बहुत दूर निकल जाना था. अंकित ने उसे व्हाट्सऐप पर सारे डिटेल्स भेज दिए थे.

शाम के 7 बजे की फ्लाइट थी. उसे 2-3 घंटे पहले ही निकलना था. उस ने अंकित को फोन कर दिया था. अंकित ठीक 3 बजे गाड़ी ले कर उस के घर के पीछे की तरफ खड़ा हो गया. इस वक्त घर में सब सो रहे थे. मौका देख कर मंजू बैग और सूटकेस ले कर चुपके से निकली और अंकित के साथ गाड़ी में बैठ कर एअरपोर्ट की ओर चल पड़ी.

फ्लाइट में बैठ कर उसे एहसास हुआ जैसे आज उस के सपनों को पंख लग गए हैं. आज से उस की जिंदगी पर किसी और का नहीं बल्कि खुद उस का हक होगा. वह छूट रही इस दुनिया में कभी भी वापस लौटना नहीं चाहती थी.

रास्ते में अंकित जानबूझ कर माहौल को हलका बनाने की कोशिश कर रहा था. वह जानता था कि मंजू अंदर से काफी डरी हुई थी. अंकित ने अपनी जेब से कई सारे चुइंगम निकाल कर उसे देते हुए पूछा,”तुम्हें चुइंगम पसंद हैं?”

मंजू ने हंसते हुए कहा,”हां, बहुत पसंद हैं. बचपन में पिताजी से छिप कर ढेर सारी चुइंगम खरीद लाती थी.”

“पर अब भूल जाओ. सिंगापुर में चुइंगम नहीं खा पाओगी.”

“ऐसा क्यों?”

“क्योंकि वहां चुइंगम खाना बैन है. सफाई को ध्यान में रखते हुए सिंगापुर सरकार ने साल 1992 में चुइंगम बैन कर दिया था.”

अंकित के मुंह से यह बात सुन कर मंजू को हंसी आ गई. चेहरा बनाते हुए बोली,” हाय, यह वियोग मैं कैसे सहूंगी?”

“जैसे मैं सहता हूं,” कहते हुए अंकित भी हंस पड़ा.

“वैसे वहां की और क्या खासियतें हैं? मंजू ने उत्सुकता से पूछा.

“वहां की नाईटलाइफ बहुत खूबसूरत होती है. वहां की रातें लाखों टिमटिमाती डिगाइनर लेजर लाइटों से लैस होती हैं जैसे रौशनी में नहा रही हों.

“तुम्हें पता है, सिंगापुर हमारे देश के एक छोटे से शहर जितना ही बड़ा होगा. लेकिन वहां की साफसुथरी सड़कें, शांत, हराभरा वातावरण किसी का भी दिल जीतने के लिए काफी है. वहां संस्कृति के अनोखे और विभिन्न रंग देखने को मिलते हैं. वहां की शानदार सड़कों और गगनचुंबी इमारतों में एक अलग ही आकर्षण है. सिंगापुर में सड़कों और अन्य स्थलों पर लगे पेड़ों की खास देखभाल की जाती है और उन्हें एक विशेष आकार दिया जाता है. यह बात इस जगह की खूबसूरती को और भी बढ़ा देते हैं. ”

“ग्रेट, पर तुम्हें इतना सब कैसे पता? पहले आ चुके हो लगता है?”

“हां, आंटी के यहां कई बार आ चुका हूं।”

सिंगापुर पहुंच कर अंकित ने उसे अपनी आंटी से मिलवाया. 2-3 दिन दोनों आंटी के पास ही रुके.

आंटी ने मंजू को सिंगापुर की लाइफ और वर्क कल्चर के बारे में विस्तार से समझाते हुए कहा,” वैसे तो तेरी जितनी शिक्षा है वह कहीं भी गुजरबसर करने के लिए काफी है. पर याद रख, तू फिलहाल सिंगापुर में है और वह डिगरी भारत की है जिस का यहां ज्यादा फायदा नहीं मिलने वाला.

“तेरे पास जो सब से अच्छा विकल्प है वह है हाउसहोल्ड वर्क का. सिंगापुर में घर संभालने के लिए काफी अच्छी सैलरी मिलती है. वैसे कपल्स जो दिन भर औफिस में रहते हैं उन्हें पीछे से बच्चों और बुजुर्गों को संभालने के लिए किसी की जरूरत पड़ती है. यह काम तू आसानी से कर सकेगी. बाद में काम करतेकरते कोई और अच्छी जौब भी ढूंढ़ सकती है.”

मंजू को यह आइडिया पसंद आया. उस ने आंटी की ही एक जानपहचान वाली के यहां बच्चे को संभालने का काम शुरू किया. दिनभर पतिपत्नी औफिस चले जाते थे. पीछे से वह बेबी को संभालने के साथ घर के काम करती. इस के लिए उसे भारतीय रुपयों में ₹20 हजार मिल रहे थे. खानापीना भी घर में ही था. ऐसे में वह सैलरी का ज्यादातर हिस्सा जमा करने लगी.

धीरेधीरे उस के पास काफी रुपए जमा हो गए. घर में सब उसे प्यार भी बहुत करते थे. बच्चों का खयाल रखतेरखते वह उन से गहराई से जुड़ती चली गई थी. अब उसे अपनी पुरानी जिंदगी और उस जिंदगी से जुड़े लोग बिलकुल भी याद नहीं आते थे. वह अपनी नई दुनिया में बहुत खुश थी. अंकित जैसे सच्चे दोस्त के साथसाथ उसे एक पूरा परिवार मिल गया था.

अपनी मालकिन सीमा की सलाह पर मंजू ने ऐडवांस कंप्यूटर कोर्स भी जौइन कर लिया ताकि उसे समय आने पर कोई अच्छी जौब का मौका भी मिल जाए. वह अब सिंगापुर और यहां के लोगों से भी काफी हद तक परिचित हो चुकी थी. यहां के लोगों की सोच और रहनसहन उसे पसंद आने लगी थी. यहां का साफसुथरा माहौल उसे बहुत अच्छा लगता. अंकित से भी उस की दोस्ती काफी खूबसूरत मोड़ पर थी. अंकित को जौब मिल चुकी थी और वह एक अलग कमरा ले कर रहता था.

हर रविवार जिद कर के वह मंजू को आसपास घुमाने भी ले जाता. वह मंजू की हर तरह से मदद करने को हमेशा तैयार रहता. कभीकभी मंजू को लगता जैसे वह अंकित से प्यार करने लगी है. अंकित की आंखों में भी उसे अपने लिए वही भाव नजर आते. मगर सामने से दोनों ने ही एकदूसरे से कुछ नहीं कहा था.

एक दिन शाम में अंकित उस से मिलने आया. उस ने घबराए हुए स्वर में मंजू को बताया,”मंजू, तुम्हारे पति को कहीं से खबर लग गई कि तुम मेरे साथ कहीं दूर आ गई हो. दरअसल, किसी ने तुम्हें मेरे साथ एअरपोर्ट के पास देख लिया था. यह सुन कर तुम्हारा पति मेरे भाई के घर पहुंचा और डराधमका कर सच उस से उगलवा लिया कि हम सिंगापुर में हैं.

“दोनों को यह लग रहा है कि तुम मेरे साथ भाग आई हो. हो सकता है कि तुम्हारा पीछा करतेकरते वे यहां भी पहुंच जाएं.”

“लेकिन उन के लिए सिंगापुर आना इतना आसान तो नहीं और यदि वे यहां आ भी जाते हैं तो उस से पहले ही मुझे यहां से निकलना पड़ेगा.”

“हां पर तुम जाओगी कहां?” चिंतित स्वर में अंकित ने पूछा.

“ऐसा करो मंजू तुम मलयेशिया निकल जाओ. वहां मेरी बहन रहती है. उस के घर में बूढ़े सासससुर और एक छोटा बेबी है. जीजू और दीदी जौब पर जाते हैं. पीछे से सास बेबी को संभालती हैं. मगर अब उन की भी उम्र काफी हो चुकी है. तुम कुछ दिनों के लिए उन के घर में फैमिली मैंबर की तरह रहो. मैं तुम्हारे बारे में उन्हें सब कुछ बता दूंगी. तुम बेबी संभालने का काम कर लेना. बाद में जब तुम्हारे पति और भाई यहां से चले जाएं तो वापस आ जाना. अंकित तुम्हें वहां भेजने का प्रबंध कर देगा,” सीमा ने समाधान सुझाया.

मंजू ने अंकित की तरफ देखा. अंकित ने हामी भरते हुए कहा,” डोंट वरी मंजू मैं तुम्हें सुरक्षित मलेशिया तक पहुंचाऊंगा मगर वीजा बनने में कुछ समय लगेगा. तब तक तुम्हें यहां छिप कर रहना होगा.”

“हां, अंकित मुझे अपनी पढ़ाई भी छोड़नी होगी. मैं नहीं चाहती कि मेरा पति या भाई मुझे पकड़ लें और फिर से उसी नरक में ले जाएं जहां से बच कर मैं आई हूं. आई विल बी ग्रेटफुल टू यू अंकित.”

“ओके, तुम डरो नहीं मैं इंतजाम करता हूं,” कह कर अंकित चला गया और मंजू उसे जाता देखती रही. फिर वह सीमा के गले लग गई. सीमा बड़ी बहन की तरह प्यार से उस का माथा सहलाने लगी.

इस बात को कई दिन बीत गए. एक दिन मंजू कंप्यूटर क्लास से निकलने वाली थी कि उसे अपने भाई की शक्ल वाला लड़का नजर आया. वह इस बात को मन का भ्रम मान कर आगे बढ़ने को हुई कि तभी उसे भाई के साथ अपना पति मुनेंद्र भी नजर आ गया. मंजू वहीं ठहर गई. वह नहीं चाहती थी कि उन दोनों को उस की झलक भी मिले. उस का पति और भाई इधरउधर देखते दूसरी सड़क पर आगे बढ़ गए तो वह दुपट्टे से चेहरा ढंक कर बाहर निकली और तेजी से अपने घर की तरफ चल दी. उसे बहुत डर लग रहा था. वह समझ गई थी कि उस का भाई और पति उस की तलाश में सिंगापुर पहुंच चुके हैं और अब यहां उस का बचना मुश्किल है.

घर आ कर उस ने सारी बात सीमा और अंकित को बताई. जाहिर था कि अब मंजू का सिंगापुर में रहना खतरे से खाली नहीं था. अब तक अंकित ने मंजू की वीजा का इंतजाम कर दिया था. अगले दिन ही उस के जाने का प्रबंध कर दिया गया. अपना सामान पैक करते समय मंजू सीमा के गले लग कर देर तक रोती रही. बच्चे भी मंजू को छोड़ने को तैयार नहीं थे.

छोटी परी ने तो उसे कस कर पकड़ लिया और कहने लगी,” नहीं दीदी, आप कहीं नहीं जाओगे हमें छोड़ कर.”

मंजू का दिल भर आया था. उस की आंखों से खुशी के आंसू बह निकले. अंकित के साथ एअरपोर्ट की तरफ जाते हुए भी वही सोच रही थी कि एक अनजान देश में अनजानों के बीच उसे अपने परिवार से कहीं ज्यादा प्यार मिला. यही नहीं, अंकित जैसा दोस्त मिला जो रिश्ते में कुछ न होते हुए भी उस के लिए इतनी भागदौड़ करता रहता है, उसे सुरक्षा देता है, उस की परवाह करता है. काश अंकित हमेशा के लिए उस का बन जाता. इसी तरह हमेशा उस के बढ़ते कदमों को हौंसला और संबल देता.

मंजू ने इन्हीं भावों के साथ अंकित की तरफ देखा. अंकित की नजरों में भी शायद यही भाव थे. एक अनकहा सा प्यार दोनों की आंखों में झलक रहा था पर दोनों ही कुछ कह नहीं पा रहे थे. अंकित ने उदास स्वर में कहा,”अपना ध्यान रखना मंजू।”

“देखो, तुम भी बच के रहना. कहीं वे तुम्हें देख न लें,” मंजू ने भी चिंतित हो कर कहा.

“नहींनहीं आजकल मेरी नाईटशिफ्ट चल रही है. मैं दिन में वैसे भी घर में ही रहता हूं सो पकड़ में नहीं आने वाला. अगर वे मुझे खोजते हुए घर तक आ भी गए तो मैं यही कहूंगा कि तुम मेरे साथ आई जरूर थी मगर अब कहां हो यह खबर नहीं है. तुम घबराओ नहीं आराम से रहना और अपना ध्यान रखना.”

मलयेशिया की फ्लाइट में बैठी हुई मंजू का दिल अभी भी अंकित को याद कर रहा था. शायद वह अंकित से दूर जाना नहीं चाहती थी. वह एक नए सफर की तरफ निकल तो चुकी थी पर इस बार पीछे जो छूट रहा था वह सब फिर से पा लेने की चाहत थी.

Printed SilK Saree : ट्रैंड में हैं प्रिंटेड सिल्क साड़ियां, फंक्शन में चाहिए स्टाइलिश लुक तो करें कैरी

Printed SilK Saree:  रेशम यानि सिल्क की साड़ियों को पारंपरिक और शानदार साड़ियों के रूप में माना जाता है, जो महिलाओं के लिए पारंपरिक शैली का एहसास कराती हैं. भारत में रेशम की साड़ियों के अलगअलग प्रकार हैं, जहां प्रत्येक अपने स्वयं के क्षेत्रीय और सांस्कृतिक महत्त्व को दिखते हुए बनाई जाती हैं. कुछ शहतूत रेशम जैसे बहुत महीन रेशम से बने होते हैं जबकि कुछ रेशम कपास से बने होते हैं, जिस से सूती रेशम साड़ियां बनती हैं. इस में बनारसी सिल्क साड़ियों से ले कर दक्षिण भारतीय सिल्क साड़ियों तक, प्रत्येक सिल्क साड़ी की अपनी विशिष्टता, सांस्कृतिक विरासत और शिल्प कौशल अपनेआप में अनूठी होती है.

सिल्क बनता कैसे है

यह एक खास तरह का कीड़ा होता है, जिस का वैज्ञानिक नाम बौंबेक्स मोरी है. यह कीड़ा सिर्फ 3-4 दिन ही जिंदा रहता है और सिर्फ 2-3 दिनों में ही कई अंडे दे देता है. इस के बाद ये कीड़ा अपने लार्वे से अपने चारों तरफ एक शेप बना लेता है यानि धागे का एक जाल सा बुन लेता है। ऐसा ही जाल मकड़ी भी बुनती है, लेकिन रेशम का कीड़ा अपने शरीर के चारों तरफ बुनता है.

इस के बाद यह लार्वा हवा के संपर्क में आ कर रेशम का धागा बन जाता है. फिर सिल्क अपने चारों तरफ जो धागा लिपटा है, उस से बाहर आने की कोशिश करता है. वैसे उस वक्त धागे के इस आवरण को ककून कहा जाता है. लेकिन अगर धागे के कोए से कीड़ा बाहर आ जाए, तो पूरा रेशम बिखर जाता है, इसलिए इस के निकलने से पहले ही इसे गरम पानी में डाल कर मार दिया जाता है. इस के साथ ही धागे को अलग कर दिया जाता है और धागे का पूरा रोल बना लिया जाता है. इस तरह सिल्क बनता है. फिर इसे जरूरत के अनुसार रंग दिया जाता है.

भारत में सिल्क उत्पादन पश्चिमी बंगाल, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडू आदि जगहों पर होता है.

प्रिंटेड साड़ियों का मौडर्न क्रेज

यहां हम बात कर रहे हैं सिल्क की प्रिंटेड साड़ियों की, जिस में समय के साथसाथ परिवर्तन हुआ है. आमतौर पर देखा गया है कि सिल्क की साड़ी का नाम लेते ही महिलाओं के मन में खुशी की लहर दौड़ जाती है, क्योंकि पुराने जमाने से सिल्क साड़ियों को खास अवसरों पर पहनने का प्रचलन रहा है। ऐसी साड़ियों को पहन कर कहीं भी जाने पर सब की नजरें आप पर पड़ती हैं. यही वजह है कि किसी खास अवसर पर महिलाएं आज भी सिल्क की साड़ियां पहनना पसंद करती हैं. सिल्क की साड़ियां किसी भी रंग और रूप की महिला को सूट करती है.

फिल्म इंडस्ट्री ने भी इन सिल्क की प्रिंटेड साड़ियों को आगे लाने में मदद की है, क्योंकि सिल्क की साड़ियों का नाम आते ही रेखा और राखी गुलजार का नाम मन में सब से पहले आता है. राखी गुलजार ने वर्ष 1978 में आई फिल्म ‘कसमे वादे’ में अलगअलग प्रिंटेड सिल्क की साड़ियां पहन कर हर महिला के मन में इसे स्थापित कर दिया. उस के बाद से आज भी हर उम्र की महिलाएं इसे पहनती हैं.

प्रिंटेड साड़ी का इतिहास

प्रिंटेड सिल्क साड़ियों का इतिहास सालों से रिच और ऐलीगेंट दिखता रहा है, इन साड़ियों ने हर महिला के वार्डरोब को हर युग के हर जैनरेशन को प्रिंटिंग के द्वारा जीवित रखा है। पहले इन साड़ियों पर प्रिंट कारीगर हाथ से किया करते थे, जिस में काफी मात्रा में कुशलता और धीरज की जरूरत पड़ती थी, लेकिन समय के साथ इन में तकनीकी बदलाव आया और प्रिंटिंग एक अलग इंडस्ट्री बनी, जिस से एक बड़ी मात्रा में साड़ियों पर प्रिंट होने लगा. साथ ही महिलाओं के लिए बजट फ्रैंडली भी हुआ. इस में भी परंपरा की शैली को ध्यान में रखते हुए तकनीक को विकसित किया गया है.

आज की प्रिंटेड साड़ियां

आज की प्रिंटेड सिल्क साड़ियां परंपरा और कौंटेंपररी के फ्यूजन को ध्यान में रख कर बनाया जाने लगा है, क्योंकि आज इस की मांग बहुत अधिक है. साथ ही ये हर अवसर पर पहनी जाने वाली टाइमलेस साड़ियां हैं. ये महंगी भले ही हों, लेकिन हर महिला इसे खरीदती है. इन साड़ियों में ट्रैडिशन को ब्लैंड कर कौंटैंपररी लुक दिया जाता है, जो किसी महिला के व्यक्तित्व को निखारती है. ये कई प्रकार के प्रिंट्स में आती हैं.

फ्लोरल प्रिंट साड़ीज फ्लोरल प्रिंट सदाबहार मौसम का प्रतीक होता है, इसलिए ऐसी साड़ियां आजकल ट्रैंड में हैं. प्रकृति प्रेमी महिलाएं हर मौसम में इसे पहनना पसंद करती हैं. इन साड़ियों में फ्लोरल पैटर्न के साथ फैमिनिटी की सुंदरता को बारीकी से दिखाया जाता है, ऐसे में इन साड़ियों को चाहे गार्डन पार्टी हो या कैजुअल, हर अवसर पर पहना जा सकता है. ये आजकल सभी महिलाओं की खास पसंद है. इस में दिखाए जाने वाले प्रिंट में डैलीकेट फूलपत्तियों के साथ वाइब्रेंट कलर हर साड़ी को एक अलग और ऐलिगेंट लुक देते हैं.

ब्लौक प्रिंटेड साड़ीज

ब्लौक प्रिंटिंग एक परंपरिक प्रिंटिंग पद्यति है, जिस का प्रयोग सालों से होता आ रह है. सिल्क पर सुंदर डिजाइन को ब्लौक्स के द्वारा बनाया जाता है. ये साड़ियां महंगी होती हैं, क्योंकि इन की डिजाइन जटिल हने के साथसाथ महंगे फैब्रिक पर बनाई जाती हैं.

डिजिटल प्रिंट साड़ीज

इन दिनों सिल्क साड़ीज पर डिजिटल प्रिंट का भी क्रेज है, इस से किया गया प्रिंट हाई क्वालिटी का होता है, जिस में समय कम लगता है और काफी मात्रा में प्रोडक्ट बाजार तक आ जाता है. ऐसी साड़ियों की कास्ट भी बजट फ्रैंडली होती है. इस में व्यक्ति कंप्यूटर पर डिजाइन बना लेता है और सीधे सिल्क साड़ी पर वाटर बेस्ड रंगों के साथ प्रिंट कर सकता है.

मल्टी कलर्ड प्रिंट

मल्टी कलर्ड साड़ियों में कई रंगों के प्रयोग से ऐब्स्ट्रैक्ट प्रिंट किए जाते हैं, जिसे आज के यूथ बहुत पसंद करते है. इन साड़ियों में कलमकारी का भी प्रयोग होता है, जिस में कई डार्क रंगों के प्रयोग से प्रिंटिंग की जाती है. ये साड़ियां हर अवसर पर मिक्स ऐंड मैच करते हुए सिल्क की ब्लाउज के साथ कभी भी पहनी जा सकती हैं.

परफैक्ट प्रिंटेड सिल्क साड़ी चुनने के कुछ खास टिप्स

हमेशा अपना सिग्नेचर स्टाइल चुनने की कोशिश करें। जब भी आप प्रिंटेड सिल्क साड़ी खरीदने जाएं तो निम्न बातों का खास ध्यान रखें :

* प्रिंटेड साड़ियां हमेशा विभिन्न रंगों के कौंबिनेशन में आती हैं। अपने
स्किनटोन के हिसाब से साड़ी के रंग का चुनाव करना सही होता है, जिसे आप हर अवसर पर पहन सकती हैं.
* सही प्रिंट की डिजाइन को चुनना भी बहुत जरूरी होता है, फिर चाहे वह ट्रैडिशनल मोटिफ्स हो या कौंटेंपररी पैटर्न्स, खुद की पर्सनल चौइस का सहारा लें.

* किस अवसर पर इसे पहनना है, इस का ध्यान अवश्य रखें मसलन वैडिंग,कैजुअल, या फौर्मल इवेंट उस के अनुसार ही प्रिंट को चुनें.

* प्रिंटेड सिल्क साड़ियां कई प्रकार के होते हैं, लेकिन आप के बजट के
अनुसार सिल्क फैब्रिक को चुनें, ऐसे में आप को किस तरह की प्रिंटेड
सिल्क चाहिए उसे देख लें.

* ब्लाउज की डिजाइन को भी इग्नोर न करें, क्योंकि सही सिल्क की ब्लाउज पहनने पर ही आप को साड़ी सुंदर लगेगी.

इस प्रकार प्रिंटेड सिल्क साड़ियां टाइमलेस और ऐलीगेस होती हैं, इसलिए इन साड़ियों को किसी भी समय पहनना सही होता है. इन में अच्छी बात यह है कि समय के साथसाथ इन साड़ियों में मौडर्न फैशन टच और ट्रैडिशनल चार्म को भी ध्यान में रखा जाता है. इन साड़ियों को पहनना और कैरी करना भी आसान होता है, क्योंकि ये हलकी और फ्री फ्लोइंग होती हैं साथ ही फैशन ट्रैंड को समय के साथ बनाए रखने में सक्षम होती हैं.

Gold Buying Tips : महंगी गोल्ड ज्वैलरी खरीदने की कर रहे हैं प्लानिंग, तो इन बातों का रखें ध्यान

Gold Buying Tips : हमारे यहां शादीब्याह के मौके पर गोल्ड ज्वैलरी (Gold Jewellery) खरीदना एक रिवाज है और जब हम इस में अपनी पूंजी निवेश करते हैं तो यह हमारी एक कीमती संपत्ति बन जाती है इसलिए महंगी गोल्ड ज्वैलरी खरीदते समय सही जानकारी और सावधानी बहुत जरूरी है.

शुद्धता, वजन, मेकिंग चार्जेज और बायबैक पौलिसी जैसी बातों पर ध्यान दे कर आप एक अच्छा निर्णय ले सकते हैं. खरीदारी के पहले अच्छे से रिसर्च करें और केवल भरोसेमंद ज्वैलर से ही खरीदारी करें. सही कदम उठाने से आप का यह निवेश न केवल सुरक्षित रहेगा, बल्कि भविष्य में आप को अच्छा मुनाफा भी दे सकता है.

गोल्ड की शुद्धता

महंगी गोल्ड ज्वैलरी खरीदने से पहले उस की शुद्धता की जांच करना सब से जरूरी है. आमतौर पर गोल्ड की शुद्धता कैरेट में मापी जाती है. 24 कैरेट सोना सब से शुद्ध होता है, लेकिन यह ज्वैलरी के लिए बहुत नरम होता है. इसलिए, ज्यादातर ज्वैलरी 22 कैरेट या 18 कैरेट गोल्ड से बनाई जाती है.अगर आप डायमंड या अन्य कीमती पत्थरों के साथ ज्वैलरी ले रहे हैं, तो 18 कैरेट सोना एक अच्छा विकल्प हो सकता है, क्योंकि यह अधिक टिकाऊ और मजबूत होता है.

प्योरिटी के साथ डिजाइन भी टिकाऊ हो

हमें गोल्ड ज्वैलरी खरीदते वक्त इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि शुद्धता के साथ इस का डिजाइन भी मजबूत हो. कुछ डिजाइन में वजन का बड़ा हिस्सा केवल सजावटी होता है, जैसे पत्थरों या अतिरिक्त सजावटी चीजें उस में लगी रहती हैं. इसलिए, यदि आप केवल सोने में निवेश करना चाहते हैं, तो सादे और पारंपरिक डिजाइन चुनें, जिन में केवल सोने का उपयोग हुआ हो.
छोटीछोटी लटकन या रौना (छोटेछोटे घुंघरू) या फिर हुक वाले डिजाइनों को खरीदने से बचें क्योंकि शादी की ज्वैलरी सिर्फ एक दिन के लिए नहीं होती, इसे सालों तक इस्तेमाल किया जाता है. इसलिए डिजाइन ऐसा हो जो मजबूत हो और टूटफूट से बचा रहे.

मेकिंग चार्जेस पर ध्यान दें

गोल्ड ज्वैलरी में सोने की कीमत के साथसाथ मेकिंग चार्जेज भी जोड़ दिए जाते हैं, जो ज्वैलरी बनाने की लागत होती है. आमतौर पर मेकिंग चार्जेज सोने की कुल कीमत का 8% से 25% तक हो सकते हैं.शकोशिश करें कि ऐसी दुकान से खरीदें जहां मेकिंग चार्जेज कम हों या पहले से तय हो. आप मेकिंग चार्जेज पर भी मोलभाव कर सकते हैं ताकि आप को सही कीमत में ज्वैलरी मिल सके.

बायबैक और रीसेल पौलिसी की जानकारी लें

कई दफा स्थिति ऐसी बन जाती है कि हमें अपना खरीदा हुआ गोल्ड वापस बेचना पड़ जाता है. ऐसे में ज्वैलरी खरीदने से पहले बायबैक पौलिसी के बारे में जानकारी अवश्य लें कि अगर आप ने ₹10 लाख की ज्वैलरी खरीदी है तो आप को ज्वैलरी वापसी पर अधिक से अधिक रकम मिलें. इस तरह की जानकारी पहले से लेना काफी बेहतर होता है ताकि आप अपने हिसाब से गोल्ड में निवेश करें.

ऐसे कई ज्वैलर हैं जो बाद में ज्वैलरी को वापस खरीदने का विकल्प देते हैं, लेकिन इस के लिए कुछ शर्तें होती हैं. कुछ ज्वैलर्स ऐक्सचेंज पौलिसी भी देते हैं, जिस में आप पुरानी ज्वैलरी को बदल कर नई ज्वैलरी खरीद सकते हैं.

यह जानना जरूरी है कि किस दर पर वे सोने को वापस खरीदते हैं या बदलते हैं. वैसे, बायबैक और रीसेल पौलिसी से आप को अच्छा मुनाफा मिल सकता है.

रसीद और शुद्धता प्रमाणपत्र जरूर लें

ज्वैलरी खरीदने के बाद रसीद और शुद्धता प्रमाणपत्र लेना न भूलें. रसीद में ज्वैलरी की शुद्धता, वजन, कैरेट और कुल मूल्य का विवरण होना चाहिए. यह प्रमाणपत्र आप को भविष्य में ज्वैलरी बेचने या बदलने में काम आएगा और यह प्रमाणित करेगा कि आप की ज्वैलरी असली है.

कीमतों की तुलना करें

अलगअलग ज्वैलर के यहां जा कर सोने के दाम और मेकिंग चार्जेस की तुलना करें. इस से आप को सही जगह से सही दाम पर ज्वैलरी खरीदने में मदद मिलेगी. कभीकभी औफर्स या डिस्काउंट्स भी मिलते हैं, जिस से आप कुछ पैसे बचा सकते हैं.

लाख लगी ज्वैलरी न लें

गोल्ड ज्वैलरी में लाख का उपयोग पुराने समय में सामान्य था, लेकिन आजकल इस के उपयोग से बचना चाहिए. लाख वाली ज्वैलरी कमजोर होती है अगर ज्वैलरी टूट जाए या उसे फिर से आकार देना हो, तो लाख को हटा कर नए सिरे से बनाना पड़ता है जिस वजह से इस की मरम्मत करना मुश्किल होता है. इस कारण से इस की रीसेल वैल्यू भी कम होती है.

कास्टिंग और जड़ाई का काम

जड़ाई या कास्टिंग में इस्तेमाल होने वाले पत्थरों का कोई रीसेल वैल्यू नहीं होता. सोने की कीमत से इन्हें अलग कर के ही ज्वैलरी की रीसेल वैल्यू निकाली जाती है. इसलिए, यह सुनिश्चित करें कि आप जड़ाई वाली ज्वैलरी खरीद रहे हैं तो उस की असली कीमत का पता कर लें.

चुनिंदा और भरोसेमंद ज्वैलर से खरीदारी करें

महंगी गोल्ड ज्वैलरी खरीदते समय हमेशा प्रतिष्ठित और भरोसेमंद ज्वैलर से ही खरीदारी करें. नामी ज्वैलर्स शुद्धता और क्वालिटी की गारंटी देते हैं. साथ ही, वे सही वजन, शुद्धता और उचित बायबैक पौलिसी का भी पालन करते हैं.

रखरखाव पर भी ध्यान दें

शादी के बाद गोल्ड ज्वैलरी का सही रखरखाव बेहद जरूरी होता है. इसे समयसमय पर साफ करवाएं और किसी विश्वसनीय ज्वैलर के पास से इसशकी मरम्मत करवाएं ताकि इस की चमक और मजबूती बनी रहे.

इंश्यारैंस का विकल्प

महंगी ज्वैलरी खरीदते समय उसे सुरक्षित रखने के लिए बीमा कराने पर भी विचार करें. बीमा आप की ज्वैलरी को चोरी, नुकसान या अन्य अप्रत्याशित घटनाओं से बचाने का एक तरीका हो सकता है. कई बीमा कंपनियां गोल्ड ज्वैलरी के लिए विशेष योजनाएं पेश करती हैं, जिस से आप का निवेश सुरक्षित रहता है.

दर्शकों को ऐक्टर से अधिक निर्देशकों पर भरोसा रहता है : Devanshu Singh

Devanshu Singh : बिहार के मुंगेर से मुंबई तक के फिल्मी सफर में आई अड़चनों को पार कर देवांशु सिंह एक राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म डाइरैक्टर बने हैं. उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत निखिल आडवाणी और विक्रमादित्य मोटवानी की फीचर और विज्ञापन फिल्मों में सहायता कर के की थी.

देवांशु की पहली, लघु फिल्म ‘तमाश’ ने उन्हें 61वां सिल्वर लोटस राष्ट्रीय पुरस्कार दिलाया. इस के बाद उन्होंने फिल्म ’14 फेरे’ और ‘चिंटू का बर्थडे’ का निर्देशन किया, जिसे दर्शकों ने काफी पसंद किया. लीक से हट कर कहानी करना उन्हें पसंद है. यही वजह है कि आज वे एक मशहूर डाइरैक्टर बन चुके हैं और हर तरह की फिल्में बनाना पसंद करते हैं.

जियोसिनेमा पर उन की वैब सीरीज ‘खलबली रेकौर्ड्स’ रिलीज हो चुकी है, जो एक म्यूजिकल ड्रामा सीरीज है जिसे दर्शक पसंद कर रहे हैं. उन से बात हुई। पेश हैं, कुछ खास अंश :

अलग है कौंसेप्ट

इस सीरीज की कौंनसेप्ट को सोचने के बारे में पूछने पर देवांशु कहते हैं,”टीवी स्टूडियोज जब बन रहा था, तब 2 प्रतिभावान लेखक प्रतीक और शालिनी सेठी वहां मौजूद थे। उन दोनों ने इस कहानी को सोचा था। यह कहानी फिल्म ‘गली बौय’ बनाने से पहले सोची गई थी, लेकिन बन नहीं पाई, क्योंकि हिपहौप
गाने वाली सीरीज को जनता पसंद करेगी या नहीं, इस बात पर हम सभी की सोच अलगअलग थी. ‘गली बौय’ के रिलीज के बाद इस आइडिया पर काम किया गया। इस में काफी चीजों को मैं ने बदला अवश्य है, लेकिन बेसिक सोच उन दोनों लेखकों की ही रही. इस शो का कौंसेप्ट थोड़ा अलग है। यह एक ड्रामा बेस्ड शो है, जो संगीत को बीच में रख कर बनाई गई है. इस में मैं ने कई नएनए उभरते कलाकारों के जीवन को भी दर्शाया है ताकि आम लोग उस से खुद को जोड़ सकें, क्योंकि इस में परिवार, दोस्ती, प्यार, दुख आदि सब कुछ दिखाने की कोशिश की गई और लोगों को पसंद आ भी आई.”

मिली प्रेरणा

फिल्म निर्देशन के क्षेत्र में आने की प्रेरणा के बारे में पूछने पर देवांशु कहते हैं,”6 साल की उम्र से मुझे फिल्में देखने का शौक रहा। मेरे मातापिता भी फिल्म देखने के काफी शौकीन रहे. मेरे नाना उदय नारायण सिंह खुद में ही एक बड़े आर्टिस्ट रहे। खुद गाने लिखते और कंपोज करते थे. नाटकों का मंचन
करते थे, जिसे देखने दूरदूर से लोग आते थे. मेरी मां कहती थीं कि उन्हें जो पहचान नहीं मिली, वह मुझे मिला है. इसलिए मुझे मेहनत कर आगे बढ़ना है.”

सच्ची फिल्म बनाने की कोशिश

देवांशु हमेशा एक सच्ची फिल्म बनाने की कोशिश करते है, जिस में वे सफल रहे, लेकिन असफलता को भी वे सहजता से लेते हैं. किसी फिल्म की सफलता का श्रेय कलाकारों को मिलता है जबकि फ्लौप होने पर डाइरैक्टर को भलाबुरा सुनने को मिलता है। इस बारें में उन की राय पूछे जाने पर वे हंसते हुए कहते हैं,”एक बार फिल्म बना देने के बाद वह औडियंस की हो जाती है, मेरी नहीं होती। उस के बाद मुझे ताली मिले या गाली सबकुछ सह लेता हूं. मेरा विश्वास यह भी है कि ऐक्टर किसी फिल्म की फेस होते हैं, क्योंकि अधिकतर दर्शक उन्हें देखने ही हौल तक आते हैं, ऐसे में उन्हें तारीफ मिलती है, तो कोई
गलत नहीं, लेकिन कुछ फिल्में ऐसी हैं, जिसे लोग ऐक्टर से अधिक निर्देशक पर अपना विश्वास रखते हैं. फिल्म ‘लापता लेडीज’ ऐसी ही फिल्म है, जिस में किरन राव बड़े शहर की होने के बावजूद गांव की संजीदगी को परदे पर उतारा है, जिसे लोग पसंद कर रहे हैं और आज यह फिल्म 48वें टोरंटो अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में प्रदर्शित की गई. फिल्म की कहानी से दर्शकों को रिलेट कर पाना जरूरी होता है और दर्शक उसे पसंद भी करते हैं.”

बदला है दौर

आज की फिल्मों में हिंसा और मारधाड़ अधिक दिखाए जाने की वजह के बारे में देवांशु कहते है कि एक जमाना था, जब मूक फिल्में बनती थीं, इस के बाद गानों का दौर आया। अशोक कुमार, दिलीप कुमार की फिल्में चलने लगीं. फिर राजेश खन्ना के दौर में स्वीट रोमांटिक फिल्में आईं, फिर अमिताभ बच्चन के आने से ऐंग्री फिल्में बनने लगीं। हम वही कौपी करने लगते हैं, जिसे दर्शकों का
प्यार मिलता है और ऐसे ही इंडस्ट्री की हर दौर चलती है.

“एक समय था जब बिमल रौय हर साल एक अच्छी फिल्म बनाते थे। हर साल उन्हें अवार्ड भी मिलता था और फिल्म सफल भी होती थी. 1951 से ले कर 1956 तक सिर्फ 1 साल उन्होंने फिल्म नहीं बनाई। उन्होंने सफल फिल्में बनाई, हर फिल्म एकदूसरे से अलग होने के बावजूद सफल रही. आज भी एक अच्छी फिल्म बनाने पर लोग देख लेते हैं, लेकिन हम सब की कमजोरी है कि हम कुछ नया करने से घबराते हैं, क्योंकि यस एक व्यवसाय है और महंगा माध्यम है। कुछ गलत होने पर पैसे निकालना मुश्किल होता है. अगर कोई करोड़ों रुपए किसी फिल्म पर लगा रहा है तो उसे पैसे वापस मिलने चाहिए, ये हमारी जिम्मेदारी है। मैं खुद अपना हाथ नहीं झाड़ सकता। मैं इन सभी को बैलैंस करता हुआ चलता हूं.”

लेखकों की कमी नहीं

फिल्म लेखकों की कमी के बारें में देवांशु का कहना है कि लिखने वालों की कमी नहीं है। कहनियां बहुत सारी पड़ी हुई हैं, लेकिन बनाने वाले नहीं हैं, क्योंकि वैब सीरीज ‘मिर्जापुर 1,2,3’ बनी और दर्शकों ने पसंद भी किया. इस सीरीज को बनाने वाले थक चुके हैं और अब वे कुछ नया बना रहे हैं. सचाई यही है कि जो भी चीज एक बार चल जाए, लोग उसे ही कौपी करते जाते हैं, रिस्क लेना नहीं चाहते.”

आगे देवांशु को एक ऐक्शन, ट्रैजेडी, लव स्टोरी, वर्ष 1940-45 वाला पंजाब पर एक रोमांटिक फिल्म बनानी है. इस के अलावा उन्हें शिव कुमार बटालवी पर बायोपिक बनाने की भी इच्छा है.

Festive Look 2024 : फैस्टिवल में दिखना है सबसे खास, तो एक्सपर्ट के बताए टिप्स को करें फौलो

जिस तरह से अब समय के साथ जिंदगी जीने से ले कर रोजमर्रा में इस्तेमाल की जाने वाली चीजों में बदलाव आ रहा है, ठीक उसी तरह अब फैशन भी काफी बदल गया है. अब लाइफस्टाइल के हिसाब से हमारी स्किनकेयर, ब्यूटी और ग्रूमिंग नीड्स भी बदल रही हैं, जो जरूरी भी है. ऐसे में इस फैस्टिवल सीजन जरूरी है कि हम अलग व कुछ नया ट्राई करें ताकि हमारी खुशियां भी दोगुनी हो जाएं. इस के लिए जरूरी है न्यू ऐज कौस्मैटिक प्रोडक्ट्स से न्यू व अमेजिंग लुक देने की.

तो आइए जानते हैं इस बारे में डर्मैटोलौजिस्ट डाक्टर भारती तनेजा से:

1. न्यू ऐज कौस्मैटिक प्रोडक्ट्स

अब महिलाएं व लड़कियां न्यू ऐज कौस्मैटिक प्रोडक्ट्स की ओर रुख कर रही हैं ताकि उन की स्किन ज्यादा अट्रैक्टिव, ग्लोइंग लगने के साथसाथ हैल्दी भी बनी रहे क्योंकि ये न्यू ऐज कौस्मैटिक प्रोडक्ट्स ऐंटीऔक्सीडैंट्स से भरपूर होने के साथसाथ नैचुरल चीजों जैसे विटामिंस व ऐसैंशियल औयल इत्यादि से ज्यादा बने होते हैं ताकि स्किन को ज्यादा से ज्यादा फायदा मिल सके. ये प्रोडक्ट्स हैं इस लिस्ट में:

2. एडवांस्ड ऐंटीरिंकल रैटिनोल फेस क्रीम

आज चेहरे पर रिंकल्स किसी को गवारा नहीं हैं. महिलाएं चाहती हैं कि उन की स्किन हमेशा स्वीट 16 जैसी बनी रहे. लेकिन कभी गलत ब्यूटी प्रोडक्ट्स के कारण, तो कभी स्किन की प्रौपर केयर नहीं करने के कारण तो कई बार हारमोंस में बदलाव होने के कारण स्किन पर ऐजिंग जैसी समस्या हो जाती है. ऐसे में न्यू ऐज कौस्मैटिक प्रोडक्ट्स में एडवांस्ड ऐंटीरिंकल्स रैटिनोल फेस क्रीम का नाम भी आता है, जो नैचुरल और क्लीनिकली टैस्टेड होने के साथसाथ यह फेशियल मसल्स को रिलैक्स करने का काम करता है.

इस में विटामिन सी की प्रौपर्टीज स्वाभाविक रूप से कोलेजन का निर्माण कर के आप की उम्र बढ़ाने वाली त्वचा कोशिकाओं को हैल्दी रखने का काम करती है, जिस से स्किन पर  झुर्रियों का असर नहीं दिखता है. विटामिन सी युक्त फेशियल मौइस्चराइजर स्किन में विटामिंस के लैवल्स को बैलेंस में बनाए रखने का काम करता है. इस फेस क्रीम को चेहरे पर लगाने से चेहरा सौफ्ट दिखने के साथसाथ इस पर फैस्टिवल के लिए किया गया मेकअप भी काफी अच्छा लगेगा. इस की खास बात यह होती है कि यह हर तरह की स्किन पर सूट करने के साथसाथ इसे किसी भी ऐज ग्रुप के लोग लगा सकते हैं.

3. विटामिन सी सीरम

जब तक स्किन अंदर से हील नहीं होती है, तब तक चाहे उस पर कैसा भी मेकअप कर लें वह निखार व लुक नहीं आ पाता, जो आना चाहिए. ऐसे में यह विटामिन सी सीरम स्किन को सुपर हाइड्रेट करता है, जिस से स्किन नैचुरली ग्लो करने लगती है. इस में नैचुरल इनग्रीडिएंट होने के कारण यह स्किन को किसी भी तरह का कोई नुकसान नहीं पहुंचाता है. इसे रोज व हरकोई अपनी स्किन पर अप्लाई कर सकता है. इस का वाटरी टैक्स्चर स्किन में आसानी से ऐब्जौर्ब होने के कारण यह इजी टू यूज होने के साथ स्किन के लिए किसी मैजिक से भी कम नहीं होता.

4. ऐज डिफाइंग क्रीम

ऐज डिफाइंग क्रीम, न्यू ऐज कौस्मैटिक प्रोडक्ट्स की लिस्ट में आजकल काफी क्रेज में है क्योंकि यह स्किन के मौइस्चर को रिस्टोर करने के साथसाथ स्किन को नौरिश करता है, साथ ही स्किन पर होने वाली फाइन लाइंस को भी कम कर के स्किन को यूथफुल बनाने का काम करता है. यह सैल्युलर टिशूज व कोलेजन का पुनर्निर्माण कर के स्किन ऐजिंग को स्लो करने का काम करता है.

इस की खास बात यह है कि यह स्किन की इलास्टिसिटी को बनाए रख कर स्किन पर होने वाले डार्क पैचेज,  झुर्रियों को काफी हद तक कम करने में सहायक है. यह क्रीम फ्री रैडिकल्स से फाइट करने के साथसाथ औक्सिडेशन डैमेज से स्किन को बचाने का काम भी करती है. इस में विटामिन सी, ई, विटामिन बी3, ऐसैंशियल औयल जैसे इनग्रीडिएंट्स होने के कारण यह क्रीम स्किन को काफी फायदा पहुंचाती है. ऐसे में आप इसे अपने डे व नाइट रूटीन में शामिल कर के फैस्टिवल्स के लिए स्किन को नए अंदाज में तैयार कर सकती हैं.

5. कोजिक ऐसिड फौर व्हाइटनिंग 

फेशियल में इस इनग्रीडिएंट का इस्तेमाल स्किन व्हाइटनिंग के लिए किया जाता है. यह आजकल काफी चलन में है. जैसे अगर आप की स्किन को सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणों से नुकसान पहुंचाता है, चेहरे पर दागधब्बे हो जाते हैं या फिर ऐज स्पौट्स दिखने लगते हैं, तब फेशियल में कोजिक ऐसिड का इस्तेमाल कर के इन समस्याओं को ठीक करने के साथ ही स्किन में इस ट्रीटमैंट से ब्राइटनैस भी आती है क्योंकि यह इनग्रीडिएंट लाइटनिंग एजेंट के रूप में काम करता है.

कोजिक ऐसिड टैरोसाइन नामक अमीनो ऐसिड को ब्लौक करने का काम करता है, जो मैलानिन के उत्पादन को रोकता है. इस में ऐंटीबैक्टीरियल व ऐंटीफंगल प्रौपर्टीज होने के कारण स्किन को बैक्टीरियल इन्फैक्शन से बचाने के साथसाथ स्किन पर होने वाले धब्बों को कम करने में भी मददगार है.

ऐसे में इन फैस्टिवल्स स्किन वाइटनिंग के लिए कोजिक एसिड युक्त इंग्रीडिएंट वाला फेशियल करवाना न भूलें ताकि त्योहारों पर स्किन खिलीखिली व चमकती दिखे.

6. बीबी ग्लो ट्रीटमेंट

यह एक खास तरह का ट्रीटमैंट होता है, जो स्किन को फाउंडेशन की तरह इवन टोन देने का काम करता है. यह एक अत्याधुनिक तकनीक है, जो असमान स्किन टोन, काले धब्बों व निशानों को कम करने में मददगार है. यह प्रक्रिया न सिर्फ स्किन पिगमैंटेशन को कम करने का काम करती है, बल्कि स्किन की इलास्टिसिटी को भी बेहतर करती है. यह सेमी परमानैंट मेकअप ट्रीटमैंट है, जो कम इनवेसिव व नौनसर्जिकल प्रोसीजर है. इस में नैनो नीडल्स को त्वचा पर पेनिट्रेट किया जाता है.

यह स्किन रिजुविनशन और कोलेजन उत्पादन को बढ़ाने का काम करता है. बीबी ग्लो सीरम स्किन में जरूरी न्यूट्रिएंट्स को पहुंचा कर स्किन टोन को इंप्रूव करने का काम करता है. यह फाइन लाइंस, ब्लैकहेड्स,  झुर्रियों को भी कम कर के स्किन को तुरंत ग्लोइंग बनाने में मददगार है. इस ट्रीटमैंट को लेने के बाद आप को 1 महीने तक कोई मेकअप करने की जरूरत नहीं पड़ती है. स्किन पर इंस्टैंट ग्लो नजर आता है. यह ट्रीटमैंट सभी स्किन व कंप्लैक्सन पर सूट करता है.

7. कौपर पेपटाइड फेशियल

इस ट्रीटमैंट में स्किन पर सीरम के साथ थ्रैड को अप्लाई किया जाता है और उस के ऊपर अल्ट्रा सोनिक मशीन से कौपर पेपटाइड के थ्रैड्स को स्किन में पेनिट्रेट किया जाता है, जिस से फेस अपलिफ्ट हो जाता है. यह स्किन की फर्मनैस को इंप्रूव करने व स्किन को स्मूद बनाने के साथसाथ कोलेजन के उत्पादन को बढ़ाता है, जिस से  झुर्रियां, फाइन लाइंस कम होने के साथसाथ स्किन की इलास्टिसिटी भी इंपू्रव होती है.

साथ ही यह स्किन को हाइड्रेट कर के उस पर यूथफुल ग्लो देने का काम करता है. असल में इस में ऐंटीऔक्सीडैंट्स प्रौपर्टीज होती हैं, जो फ्री रेडिकल्स से स्किन को बचाने के साथसाथ कोलेजन और स्किन की इलास्टिसिटी को बढ़ाने में मदद करता है. इस फेशियल को लेने मात्र से ही स्किन प्रौब्लम्स दूर हो कर स्किन फूलों की तरह खिल उठती है. फिर फैस्टिवल्स हों या नौर्मल डेज हर किसी को ऐसी ही स्किन की चाह जो होती है.

8. ट्रैंडी नेलआर्ट

फैस्टिवल्स की बात हो, न्यू ड्रैस के साथ लेटैस्ट मेकअप हो और हाथों को न सजाया जाए, ऐसा हो ही नहीं सकता. ऐसे में इन फैस्टिवल्स लेटैस्ट नेलआर्ट तकनीक का इस्तेमाल करें.

आजकल ट्रैडिंग में हैं डौटेड डिजाइन, मैट लुक शाइन डिजाइन, रोज गोल्ड ग्लिटर नेल्स, प्ले विद टू कलर्स औन नेल्स, ग्लिटरी डिजाइन. इस से नेल्स खूबसूरत लगने के साथसाथ पूरे फैस्टिवल्स के दौरान इस नेल आर्ट को ऐंजौय कर सकती हैं और अगर आप फैस्टिवल्स पर नेलआर्ट नहीं बल्कि बदलबदल कर नेलपैंट लगाना चाहती हैं तो बता दें कि 2022 में ट्रैंड में हैं, इलैक्ट्रिक ब्लू, चैरी, ज्वैल टोन्स, शेड्स औफ पिंक जैसे शेड्स, जिन्हें आप अपनी ड्रेस के साथ मैच कर के फैस्टिवल्स के चार्म को और बढ़ा सकती हैं.

9. लिपस्टिक बढ़ाए चेहरे का चार्म

चाहे कितना भी अच्छा मेकअप कर लें या कितना भी फेस पर ग्लो लाने के लिए फेस ट्रीटमैंट ले लें, अगर लिप्स पर मैचिंग या मिलतीजुलती लिपस्टिक न लगाई जाए तो सारी मेहनत बेकार होने के साथसाथ फेस फीकाफीका ही नजर आता है. ऐसे में इन फैस्टिवल्स ट्रैंडी लिपस्टिक्स अप्लाई करना न भूलें. इस के लिए चैरी रैड, डार्क पिंक, न्यूड पिंक, न्यूड ब्राउन, कोरल, पर्पल, कूल टोंड पिंक, पल्म, चौकलेट ब्राउन, ब्राइट औरेंज जैसे शेड्स अप्लाई कर के खुद को ट्रैंडी दिखाने के साथसाथ ब्यूटीफुल लुक भी पा सकती हैं.

पिता ने बुआ के कहने पर हमें घर से निकाल दिया है, मैं क्या करूं?

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

सवाल-

मेरे पापा के घर में हमारी बूआ अपने बच्चों के साथ आ कर रहने लगी हैं. उन्होंने हमारे पापा को बहलाफुसला कर प्रौपर्टी के पेपर अपने नाम कर लिए हैं और हम दोनों भाईबहन को घर से निकाल दिया है. हम किराए के घर में रह रहे हैं. हम क्या करें जिस से घर हमें मिल जाए?

जवाब-

आप ने पूरी बात नहीं लिखी है कि पिता ने अपने ही बच्चों को घर से क्यों निकाल दिया. कोई कितना भी भड़काए पिता अपने बच्चों को घर से बेघर नहीं करता. आप ने अपनी मां का भी कोई जिक्र नहीं किया. क्या उन्होंने भी पिता को नहीं समझाया? आप अपने किसी सगेसंबंधी या पारिवारिक मित्र को मध्यस्थ बना कर पिता से बात कर सकते हैं. वे उन्हें समझा सकते हैं बशर्ते उस संबंधी या मित्र की बात को आप के पिता तवज्जो देते हों. यदि किसी भी तरह से बात न बने तो किसी वकील से संपर्क करें. यदि संपत्ति पुश्तैनी है, तो आप के पिता को आप का हिस्सा देना ही होगा.

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बस में बहुत भीड़ थी, दम घुटा जा रहा था. मैं ने खिड़की से बाहर मुंह निकाल कर 2-3 गहरीगहरी सांसें लीं. चंद लमहे धूप की तपिश बरदाश्त की, फिर सिर को अंदर कर लिया. छोटे बच्चे ने फिर ‘पानीपानी’ की रट लगा दी. थर्मस में पानी कब का खत्म हो चुका था और इस भीड़ से गुजर कर बाहर जा कर पानी लाना बहुत मुश्किल काम था. मैं ने उस को बहुत बहलाया, डराया, धमकाया, तंग आ कर उस के फूल से गाल पर चुटकी भी ली, मगर वह न माना.

मैं ने बेबसी से इधरउधर देखा. मेरी निगाह सामने की सीट पर बैठी हुई एक अधेड़ उम्र की औरत पर पड़ी और जैसे जम कर ही रह गई, ‘इसे कहीं देखा है, कहां देखा है, कब देखा है?’

मैं अपने दिमाग पर जोर दे रही थी. उसी वक्त उस औरत ने भी मेरी तरफ देखा और उस की आंखों में जो चमक उभरी, वह साफ बता गई कि उस ने मुझे पहचान लिया है. लेकिन दूसरे ही पल वह चमक बुझ गई. औरत ने अजीब बेरुखी से अपना चेहरा दूसरी तरफ मोड़ लिया और हाथ उठा कर अपना आंचल ठीक करने लगी. ऐसा करते हुए उस के हाथ में पड़ी हुई सोने की मोटीमोटी चूडि़यां आपस में टकराईं और उन से जो झंकार निकली, उस ने गोया मेरे दिमाग के पट खोल दिए.

उन खुले पटों से चांदी की चूडि़यां टकरा रही थीं…सलीमन बूआ…सलीमन बूआ…हां, वे सलीमन बूआ ही थीं. बरसों बाद उन्हें देखा था, लेकिन फिर भी पहचान लिया था. वे बहुत बदल चुकी थीं. अगर मैं ने उन को बहुत करीब से न देखा होता तो कभी न पहचान पाती.

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या हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- sampadak@delhipress.biz सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

हिल स्टेशन पर तबादला

भगत राम का तबादला एक सुंदर से हिल स्टेशन पर हुआ तो वे खुश हो गए, वे प्रकृति और शांत वातावरण के प्रेमी थे, सो, सोचने लगे, जीवन में कम से कम 4-5 साल तो शहरी भागमभाग, धुएं, घुटन से दूर सुखचैन से बीतेंगे. पहाड़ों की सुंदरता उन्हें इतनी पसंद थी कि हर साल गरमी में 1-2 हफ्ते की छुट्टी ले कर परिवार सहित घूमने के लिए किसी न किसी हिल स्टेशन पर अवश्य ही जाते थे और फिर वर्षभर उस की ताजगी मन में बसाए रखते थे.

तबादला 4-5 वर्षों के लिए होता था. सो, लौटने के बाद ताजगी की जीवनभर ही मन में बसे रहने की उम्मीद थी. दूसरी खुशी यह थी कि उन्हें पदोन्नति दे कर हिल स्टेशन पर भेजा जा रहा था. साहब ने तबादले का आदेश देते हुए बधाई दे कर कहा था, ‘‘अब तो 4 वर्षों तक आनंद ही आनंद लूटोगे. हर साल छुट्टियां और रुपए बरबाद करने की जरूरत भी नहीं रह जाएगी. कभी हमारी भी घूमनेफिरने की इच्छा हुई तो कम से कम एक ठिकाना तो वहां पर रहेगा.’’

‘‘जी हां, आप की जब इच्छा हो, तब चले आइएगा,’’ भगत राम ने आदर के साथ कहा और बाहर आ गए. बाहर साथी भी उन्हें बधाई देने लगे. एक सहकर्मी ने कहा, ‘‘ऐसा सुअवसर तो विरलों को ही मिलता है. लोग तो ऐसी जगह पर एक घंटा बिताने के लिए तरसते हैं, हजारों रुपए खर्च कर डालते हैं. तुम्हें तो यह सुअवसर एक तरह से सरकारी खर्चे पर मिल रहा है, वह भी पूरे 4 वर्षों के लिए.’’

‘‘वहां जा कर हम लोगों को भूल मत जाना. जब सीजन अच्छा हो तो पत्र लिख देना. तुम्हारी कृपा से 1-2 दिनों के लिए हिल स्टेशन का आनंद हम भी लूट लेंगे,’’ दूसरे मित्र ने कहा. ‘‘जरूरजरूर, भला यह भी कोई कहने की बात है,’’ वे सब से यही कहते रहे.

घर लौट कर तबादले की खबर सुनाई तो दोनों बच्चे खुश हो गए. ‘‘बड़ा मजा आएगा. हम ने बर्फ गिरते हुए कभी भी नहीं देखी. आप तो घुमाने केवल गरमी में ले जाते थे. जाड़ों में तो हम कभी गए ही नहीं,’’ बड़ा बेटा खुश होता हुआ बोला.

‘‘जब फिल्मों में बर्फीले पहाड़ दिखाते हैं तो कितना मजा आता है. अब हम वह सब सचमुच में देख सकेंगे,’’ छोटे ने भी ताली बजाई. मगर पत्नी सुजाता कुछ गंभीर सी हो गई. भगत राम को लगा कि उसे शायद तबादले वाली बात रास नहीं आई है. उन्होंने पूछा, ‘‘क्या बात है, गुमसुम क्यों हो गई हो?’’

‘‘तबादला ही कराना था तो आसपास के किसी शहर में करा लेते. सुबह जा कर शाम को आराम से घर लौट आते, जैसे दूसरे कई लोग करते हैं. अब पूरा सामान समेट कर दोबारा से वहां गृहस्थी जमानी पड़ेगी. पता नहीं, वहां का वातावरण हमें रास आएगा भी या नहीं,’’ सुजाता ने अपनी शंका जताई. ‘‘सब ठीक हो जाएगा. मकान तो सरकारी मिलेगा, इसलिए कोई दिक्कत नहीं होगी. और फिर, पहाड़ों में भी लोग रहते हैं. जैसे वे सब रहते हैं वैसे ही हम भी रह लेंगे.’’

‘‘लेकिन सुना है, पहाड़ी शहरों में बहुत सारी परेशानियां होती हैं-स्कूल की, अस्पताल की, यातायात की और बाजारों में शहरों की तरह हर चीज नहीं मिल पाती,’’ सुजाता बोली.

भगत राम हंस पड़े, ‘‘किस युग की बातें कर रही हो. आज के पहाड़ी शहर मैदानी शहरों से किसी भी तरह से कम नहीं हैं. दूरदराज के इलाकों में वह बात हो सकती है, लेकिन मेरा तबादला एक अच्छे शहर में हुआ है. वहां स्कूल, अस्पताल जैसी सारी सुविधाएं हैं. आजकल तो बड़ेबड़े करोड़पति लाखों रुपए खर्च कर के अपनी संतानों को मसूरी और शिमला के स्कूलों में पढ़ाते हैं. कारण, वहां का वातावरण बड़ा ही शांत है. हमें तो यह मौका एक तरह से मुफ्त ही मिल रहा है.’’ ‘‘उन्नति होने पर तबादला तो होता ही है. अगर तबादला रुकवाने की कोशिश करूंगा तो कई पापड़ बेलने पड़ेंगे. हो सकता है 10-20 हजार रुपए की भेंटपूजा भी करनी पड़ जाए और उस पर भी आसपास की कोई सड़ीगली जगह ही मिल पाए. इस से तो अच्छा है, हिल स्टेशन का ही आनंद उठाया जाए.’’

यह सुन कर सुजाता ने फिर कुछ न कहा. दफ्तर से विदाई ले कर भगत राम पहले एक चक्कर अकेले ही अपने नियुक्तिस्थल का लगा आए और

15 दिनों बाद उन का पूरा परिवार वहां पहुंच गया. बच्चे काफी खुश थे. शुरूशुरू की छोटीमोटी परेशानी के बाद जीवन पटरी पर आ ही गया. अगस्त के महीने में ही वहां पर अच्छीखासी ठंड हो गई थी. अभी से धूप में गरमी न रही थी. जाड़ों की ठंड कैसी होगी, इसी प्रतीक्षा में दिन बीतने लगे थे.

फरवरी तक के दिन रजाई और अंगीठी के सहारे ही बीते, फिर भी सबकुछ अच्छा था. सब के गालों पर लाली आ गई थी. बच्चों का स्नोफौल देखने का सपना भी पूरा हो गया. मार्च में मौसम सुहावना हो गया था. अगले 4 महीने के मनभावन मौसम की कल्पना से भगत राम का मन असीम उत्साह से भर गया था. उसी उत्साह में वे एक सुबह दफ्तर पहुंचे तो प्रधान कार्यालय का ‘अत्यंत आवश्यक’ मुहर वाला पत्र मेज पर पड़ा था.

उन्होंने पत्र पढ़ा, जिस में पूछा गया था कि ‘सीजन कब आरंभ हो रहा है, लौटती डाक से सूचित करें. विभाग के निदेशक महोदय सपरिवार आप के पास घूमने आना चाहते हैं.’ सीजन की घोषणा प्रशासन द्वारा अप्रैल मध्य में की जाती थी, सो, भगत राम ने वही सूचना भिजवा दी, जिस के उत्तर में एक सप्ताह में ही तार आ गया कि निदेशक महोदय 15 तारीख को पहुंच रहे हैं. उन के रहने आदि की व्यवस्था हो जानी चाहिए.

निदेशक के आने की बात सुन कर सारे दफ्तर में हड़कंप सा मच गया. ‘‘यही तो मुसीबत है इस हिल स्टेशन की, सीजन शुरू हुआ नहीं, कि अधिकारियों का तांता लग जाता है. अब पूरे 4 महीने इसी तरह से नाक में दम बना रहेगा,’’ एक पुराना चपरासी बोल पड़ा.

भगत राम वहां के प्रभारी थे. सारा प्रबंध करने का उत्तरदायित्व एक प्रकार से उन्हीं का था. उन का पहला अनुभव था, इसलिए समझ नहीं पा रहे थे कि कैसे और क्या किया जाए.

सारे स्टाफ की एक बैठक बुला कर उन्होंने विचारविमर्श किया. जो पुराने थे, उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर राय भी दे डालीं. ‘‘सब से पहले तो गैस्टहाउस बुक करा लीजिए. यहां केवल 2 गैस्टहाउस हैं. अगर किसी और ने बुक करवा लिए तो होटल की शरण लेनी पड़ेगी. बाद में निदेशक साहब जहांजहां भी घूमना चाहेंगे, आप बारीबारी से हमारी ड्यूटी लगा दीजिएगा. आप को तो सुबह 7 बजे से रात 10 बजे तक उन के साथ ही रहना पड़ेगा,’’ एक कर्मचारी ने कहा तो भगत राम ने तुरंत गैस्टहाउस की ओर दौड़ लगा दी.

जो गैस्टहाउस नगर के बीचोंबीच था, वहां काम बन नहीं पाया. दूसरा गैस्टहाउस नगर से बाहर 2 किलोमीटर की दूरी पर जंगल में बना हुआ था. वहां के प्रबंधक ने कहा, ‘‘बुक तो हो जाएगा साहब, लेकिन अगर इस बीच कोई मंत्रीवंत्री आ गया तो खाली करना पड़ सकता है. वैसे तो मंत्री लोग यहां जंगल में आ कर रहना पसंद नहीं करते, लेकिन किसी के मूड का क्या भरोसा. यहां अभी सिर्फ 4 कमरे हैं, आप को कितने चाहिए?’’ भगत राम समझ नहीं पाए कि कितने कमरे लेने चाहिए. साथ गए चपरासी ने उन्हें चुप देख कर तुरंत राय दी, ‘‘कमरे तो चारों लेने पड़ेंगे, क्या पता साहब के साथ कितने लोग आ जाएं, सपरिवार आने के लिए लिखा है न?’’

भगत राम को भी यही ठीक लगा. सो, उन्होंने पूरा गैस्टहाउस बुक कर दिया. ठीक 15 अप्रैल को निदेशक महोदय का काफिला वहां पहुंच गया. परिवार के नाम पर अच्छीखासी फौज उन के साथ थी. बेटा, बेटी, दामाद और साले साहब भी अपने बच्चों सहित पधारे थे. साथ में 2 छोटे अधिकारी और एक अरदली भी था.

सुबह 11 बजे उन की रेल 60 किलोमीटर की दूरी वाले शहर में पहुंची थी. भगत राम उन का स्वागत करने टैक्सी ले कर वहीं पहुंच गए थे. मेहमानों की संख्या ज्यादा देखी तो वहीं खड़ेखड़े एक मैटाडोर और बुक करवा ली. शाम 4 बजे वे सब गैस्टहाउस पहुंचे. निदेशक साहब की इच्छा आराम करने की थी, लेकिन भगत राम का आराम उसी क्षण से हराम हो गया था.

‘‘रहने के लिए बाजार में कोई ढंग की जगह नहीं थी क्या? लेकिन चलो, हमें कौन सा यहां स्थायी रूप से रहना है. खाने का प्रबंध ठीक हो जाना चाहिए,’’ निदेशक महोदय की पत्नी ने गैस्टहाउस पहुंचते ही मुंह बना कर कहा. उन की यह बात कुछ ही क्षणों में आदेश बन कर भगत राम के कानों में पहुंच गई थी. खाने की सूची में सभी की पसंद और नापंसद का ध्यान रखा गया था. भगत राम अपनी देखरेख में सारा प्रबंध करवाने में जुट गए थे. रहीसही कसर अरदली ने पूरी कर दी थी. वह बिना किसी संकोच के भगत राम के पास आ कर बोला, ‘‘व्हिस्की अगर अच्छी हो तो खाना कैसा भी हो, चल जाता है. साहब अपने साले के साथ और उन का बेटा अपने बहनोई के साथ 2-2 पेग तो लेंगे ही. बहती गंगा में साथ आए साहब लोग भी हाथ धो लेंगे. रही बात मेरी, तो मैं तो देसी से भी काम चला लूंगा.’’

भगत राम कभी शराब के आसपास भी नहीं फटके थे, लेकिन उस दिन उन्हें अच्छी और खराब व्हिस्कियों के नाम व भाव, दोनों पता चल गए थे.

गैस्टहाउस से घर जाने की फुरसत भगत राम को रात 10 बजे ही मिल पाई, वह भी सुबह 7 बजे फिर से हाजिर हो जाने की शर्त पर. निदेशक साहब ने 10 दिनों तक सैरसपाटा किया और हर दिन यही सिलसिला चलता रहा. भगत राम की हैसियत निदेशक साहब के अरदली के अरदली जैसी हो कर रह गई.

निदेशक साहब गए तो उन्होंने राहत की सांस ली. मगर जो खर्च हुआ था, उस की भरपाई कहां से होगी, यह समझ नहीं पा रहे थे. दफ्तर में दूसरे कर्मचारियों से बात की तो तुरंत ही परंपरा का पता चल गया.

‘‘खर्च तो दफ्तर ही देगा, साहब, मरम्मत और पुताईरंगाई जैसे खर्चों के बिल बनाने पड़ेंगे. हर साल यही होता है,’’ एक कर्मचारी ने बताया. दफ्तर की हालत तो ऐसी थी जैसी किसी कबाड़ी की दुकान की होती है, लेकिन साफसफाई के बिलों का भुगतान वास्तव में ही नियमितरूप से हो रहा था. भगत राम ने भी वही किया, फिर भी अनुभव की कमी के कारण 2 हजार रुपए का गच्चा खा ही गए.

निदेशक का दौरा सकुशल निबट जाने का संतोष लिए वे घर लौटे तो पाया कि साले साहब सपरिवार पधारे हुए हैं. ‘‘जिस दिन आप के ट्रांसफर की बात सुनी, उसी दिन सोच लिया था कि इस बार गरमी में इधर ही आएंगे. एक हफ्ते की छुट्टी मिल ही गई है,’’ साले साहब खुशी के साथ बोले.

भगत राम की इच्छा आराम करने की थी, मगर कह नहीं सके. जीजा, साले का रिश्ता वैसे भी बड़ा नाजुक होता है. ‘‘अच्छा किया, साले साहब आप ने. मिलनेजुलने तो वैसे भी कभीकभी आते रहना चाहिए,’’ भगत राम ने केवल इतना ही कहा.

साले साहब के अनुरोध पर उन्हें दफ्तर से 3 दिनों की छुट्टी लेनी पड़ी और गाइड बन कर उन्हें घुमाना भी पड़ा. छुट्टियां तो शायद और भी लेनी पड़ जातीं, मगर बीच में ही बदहवासी की हालत में दौड़ता हुआ दफ्तर का चपरासी आ गया. उस ने बताया कि दफ्तर में औडिट पार्टी आ गई है, अब उन के लिए सारा प्रबंध करना है.

सुनते ही भगत राम तुरंत दफ्तर पहुंच गए और औडिट पार्टी की सेवाटहल में जुट गए. साले साहब 3 दिनों बाद ‘सारी खुदाई एक तरफ…’ वाली कहावत को चरितार्थ कर के चले गए, मगर औडिट पार्टी के सदस्यों का व्यवहार भी सगे सालों से कुछ कम न था. दफ्तर का औडिट तो एक दिनों में ही खत्म हो गया था लेकिन पूरे हिल स्टेशन का औडिट करने में एक सप्ताह से भी अधिक का समय लग गया.

औडिट चल ही रहा था कि दूर की मौसी का लड़का अपनी गर्लफ्रैंड सहित घर पर आ धमका. जब तक भगत राम मैदानी क्षेत्र के दफ्तर में नियुक्त थे, उस के दर्शन नहीं होते थे, लेकिन अचानक ही वह सब से सगा लगने लगा था. एक हफ्ते तक वह भी बड़े अधिकारपूर्वक घर में डेरा जमाए रहा. औडिट पार्टी भगत राम को निचोड़ कर गई तो किसी दूसरे वरिष्ठ अधिकारी के पधारने की सूचना आ गई.

‘‘समझ में नहीं आता कि यह सिलसिला कब तक चलेगा?’’ भगत राम बड़बड़ाए. ‘‘जब तक सीजन चलेगा,’’ एक कर्मचारी ने बता दिया.

भगत राम ने अपना सिर दोनों हाथों से थाम लिया. घर पर जा कर भी सिर हाथों से हट न पाया क्योंकि वहां फूफाजी आए हुए थे. बाद में दूसरे अवसर पर तो बेचारे चाह कर भी ठीक से मुसकरा तक नहीं पाए थे, जब घर में दूर के एक रिश्तेदार का बेटा हनीमून मनाने चला आया था.

उसी समय सुजाता की एक रिश्तेदार महिला भी पति व बच्चों सहित आ गई थी. और अचानक उन के दफ्तर के एक पुराने साथी को भी प्रकृतिप्रेम उमड़ आया था. भगत राम को रजाईगद्दे किराए पर मंगाने पड़ गए थे. वे खुद तो गाइड की नौकरी कर ही रहे थे, पत्नी को भी आया की नौकरी करनी पड़ गई थी. सुजाता की रिश्तेदार अपने पति के साथ प्रकृति का नजारा लेने के लिए अपने छोटेछोटे बच्चों को घर पर ही छोड़ जाया करती थी.

उधर, दफ्तर में भी यही हाल था. एक अधिकारी से निबटते ही दूसरे अधिकारी के दौरे की सूचना आ जाती थी. शांति की तलाश में भगत राम दफ्तर में आ जाते थे और फिर दफ्तर से घर में. लेकिन मानसिक शांति के साथसाथ आर्थिक शांति भी छिन्नभिन्न हो गई थी. 4 महीने कब गुजर गए, कुछ पता ही न चला. हां, 2 बातों का ज्ञान भगत राम को अवश्य हो गया था. एक तो यह कि दफ्तर के कुल कितने बड़ेबड़े अधिकारी हैं और दूसरी यह कि दुनिया में उन के रिश्तेदार और अभिन्न मित्रों की कोई कमी नहीं है.

‘‘सच पूछिए तो यहां रहने का मजा ही आ गया…जाने की इच्छा ही नहीं हो रही है, लेकिन छुट्टियां इतनी ही थीं, इसलिए जाना ही पड़ेगा. अगले साल जरूर फुरसत से आएंगे.’’ रिश्तेदार और मित्र यही कह कर विदा ले रहे थे. उन की फिर आने की धमकी से भगत राम बुरी तरह से विचलित होते जा रहे थे. ‘‘क्योंजी, अगले साल भी यही सब होगा क्या?’’ सुजाता ने पूछा. शायद वह भी विचलित थी.

‘‘बिलकुल नहीं,’’ भगत राम निर्णायक स्वर में चीख से पड़े, ‘‘मैं आज ही तबादले का आवदेन भिजवाए देता हूं. यहां से तबादला करवा कर ही रहूंगा, चाहे 10-20 हजार रुपए खर्च ही क्यों न करने पड़ें.’’ ?सुजाता ने कुछ न कहा. भगत राम तबादले का आवेदनपत्र भेजने के लिए दफ्तर की ओर चल पड़े.

मुक्ति : मां के मनोभावों से अनभिज्ञ नहीं था सुनील

टनटनटन मोबाइल की घंटी बजी और सुनील के फोन उठाने के पहले ही बंद भी हो गई. लगता है यह फोन भारत से आया होगा. भारत क्या, रांची से, शिवानी का. शिवानी, वह मुंहबोली भांजी, जिस के यहां वह अपनी मां को अमेरिका से ले जा कर छोड़ आया था. वहां से आए फोन के साथ ऐसा ही होता रहता है. घंटी बजती है और बंद हो जाती है, थोड़ी देर बाद फिर घंटी बज उठती है.

सुनील मोबाइल पर घंटी के फिर से बजने की प्रतीक्षा करने लगा है. इस के साथ ही उस के मन में एक दहशत सी पैदा हो जाती है. न जाने क्या खबर होगी? फोन तो रांची से ही आया होगा. बात यह थी कि उस की 90 वर्षीया मां गिर गई थीं और उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया था. सुनील को पता था कि मां इस चोट से उबर नहीं पाएंगी, इलाज पर चाहे कितना भी खर्च क्यों न किया जाए और पैसा वसूलने के लिए हड्डी वाले डाक्टर कितनी भी दिलासा क्यों न दिलाएं. मां के सुकून के लिए और खासकर दुनिया व समाज को दिखाने के लिए भी इलाज तो कराना ही था, वह भी विदेश में काम कर के डौलर कमाने वाले इकलौते पुत्र की हैसियत के मुताबिक.

वैसे उस की पत्नी चेतावनी दे चुकी थी कि इस तरह हम अपने पैसे बरबाद ही कर रहे हैं. मां की बीमारी के नाम पर जितने भी पैसे वहां भेजे जा रहे हैं उन सब का क्या हो रहा है, इस का लेखाजोखा तो है नहीं? शिवानी का घर जरूर भर रहा है. आएदिन पैसे की मांग रखी जाती है. हालांकि यह सब को पता था कि इस उम्र में गिर कर कमर तोड़ लेना और बिस्तर पकड़ लेना मौत को बुलावा ही देना था.

शिवानी ने सुनील की मां की देखभाल के नाम पर दिनरात के लिए एक नर्स रख ली थी और उन्हीं के नाम पर घर में काफी सुविधाएं भी इकट्ठी कर ली थीं, फर्नीचर से ले कर फ्रिज, टीवी और एयरकंडीशनर तक. डाक्टर, दवा, फिजियोथेरैपिस्ट और बारबार टैक्सी पर अस्पताल का चक्कर लगाना तो जायज बात थी.

सुनील की पत्नी को इन सब दिखावे से चिढ़ थी. वह कहती  थी कि एक गाड़ी की मांग रह गई है, वह भी शिवानी मां के जिंदा रहते पूरा कर ही लेगी. कमर टूटने के बाद हवाखोरी के लिए मां के नाम पर गाड़ी तो चाहिए ही थी. सुनील चुप रह जाता. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता था कि शिवानी की मांगें बढ़ी हुई लगती थीं किंतु उन्हें नाजायज नहीं कहा जा सकता था.

शिवानी अपनी हैसियत के मुताबिक जो भी करती वह उस की मां के लिए काफी नहीं होता. मां के लिए गांवों में चलने वाली खाटें तो नहीं चल सकती थीं, घर में सीमित रहने पर मन बहलाने के लिए टीवी रखना जरूरी था, फिर वहां की गरमी से बचनेबचाने को एक एनआरआई की मां के लिए फ्रिज और एसी को फुजूलखर्ची नहीं कहा जा सकता था.

अब यह कहां तक संभव या उचित था कि जब ये चीजें मां के नाम पर आई हों तो घर का दूसरा व्यक्ति उन का उपयोग ही न करे? पैसा बचा कर अगर शिवानी ने एक के बदले 2 एसी खरीद लिए तो इस के लिए उसे कुसूरवार क्यों ठहराया जाए? फ्रिज भी बड़ा लिया गया तो क्या हुआ, क्या मां भर का खाना रखने के लिए ही फ्रिज लेना चाहिए था?

आखिर मां की जो सेवा करता है उसे भी इतनी सुविधा तो मिलनी ही चाहिए थी. पर उस की पत्नी को यह सब गलत लगता था. सामान तो आ ही गया था, अब यह बात थोड़े थी कि मां के मरने के बाद कोई उन सब को उस से वापस मांगने जाता?

सुनील के मन के किसी कोने में यह भाव चोर की तरह छिपा था कि यह फोन शिवानी का न हो तो अच्छा है, क्योंकि वहां से फोन आने का मतलब था किसी न किसी नई समस्या का उठ खड़ा होना. साथ ही, हर बार शिवानी से बात कर के उसे अपने में एक छोटापन महसूस हुआ करता था.

अपनी बात के लहजे से वह उसे बराबर महसूस कराती रहती थी कि वह अपनी मां के प्रति अपने कर्तव्य का ठीक से पालन नहीं कर रहा. केवल पैसा भेज देने से ही वह अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो सकता था, भारतीय संस्कृति में पैसा ही सबकुछ नहीं होता, उस की उपस्थिति ही अधिक कारगर हो सकती थी. और यहीं पर सुनील का अपराधबोध हृदय के अंतराल में एक और गांठ की परत बना देता. इस से वह बचना चाहता था और शायद यही वह मर्मस्थल भी था जिसे शिवानी बारबार कुरेदती रहती थी.

शिवानी का कहना था कि उसे तथा उस के पति को डाक्टर डांट कर भगा देते थे, जबकि सुनील की बात वे सुनते थे. सुनील का नाम तथा उस का पता जान कर ही लोग ज्यादा प्रभावित होते थे, न कि मात्र पैसा देने से. आजकल भारत में भी पैसे देने वाले कितने हैं, पर क्या अस्पताल के अधिकारी उन लोगों की बात सुनते भी हैं? सुनील फोन पर ही उन लोगों से जितनी बात कर लेता था वही वहां के अधिकारियों पर बहुत प्रभाव डाल देती थी.

इस के अतिरिक्त उस का खुद का भारत आना अधिक माने रखता था, मां की तसल्ली के लिए ही सही. थोड़ी हरारत भी आने पर मां सुनील का ही नाम जपना शुरू कर देती थीं.

शिवानी को लगता कि वह अपना शरीर खटा कर दिनरात उन की सेवा करती रहती है, जबकि उसे पैसे के लालच में काम करने वाली में शुमार कर के मां ही नहीं, परोक्ष रूप से सुनील भी उस के प्रति बहुत बड़ा अन्याय कर रहे हैं. यह खीझ शिवानी मां पर ही नहीं, बल्कि किसी न किसी तरह सुनील पर भी उतार लेती थी.

कुछ ही महीने पहले की बात थी. जिस दिन मां की कमर की हड्डी टूटी थी, अस्पताल में जब तक इमरजैंसी में मां को छोड़ कर शिवानी और उस के पति डाक्टर के लिए इधरउधर भागदौड़ कर रहे थे कि फोन पर इस दुर्घटना की खबर मिलने पर सुनील ने अमेरिका में बैठेबैठे न जाने किसकिस डाक्टर के फोन नंबर का ही पता नहीं लगा लिया बल्कि डाक्टर को तुरंत मां के पास भेज भी दिया. ऐसा क्या वहां किसी अन्य के किए पर हो सकता था?

और उस के बाद तो अनेक परेशानियों का सिलसिला शुरू हो गया था. उधर, सुनील फोन पर लगातार हिदायतों पर हिदायतें देता जा रहा था और इधर शिवानी पर शामत आ रही थी. अपने पति पर घर छोड़ कर और एंबुलैंस पर मां को अकेले अपने दम पर पटना ले जाना, किसी विशेषज्ञ जिस का नाम सुनील ने ही बताया था उस से संपर्क करना और प्राइवेट वार्ड में रख कर मां का औपरेशन करवाना, नर्स के रहते भी दिनरात उन की सेवा करते रहना इत्यादि कितनी ही जहमतों का काम वह 3 हफ्तों तक करती रही थी. इस का एकमात्र पुरस्कार शिवानी को यह मिला था कि मां का प्यार उस के प्रति बढ़ गया था और अब वे उसी का नाम जपने लगी थीं.

सुनील के न चाहने पर भी मोबाइल की घंटी फिर बज उठी. एक झिझक के साथ सुनील ने मोबाइल उठाया. उधर शिवानी ही थी, जोर से बोल उठी, ‘‘अंकल, मैं शिवानी बोल रही हूं.’’

शिवानी के मुंह से अंकल शब्द सुन कर सुनील को ऐसा लगता था जैसे वह उस के कानों पर पत्थर मार रही हो. लाख याद दिलाने पर भी कि वह उस का मामा है, शिवानी उसे अंकल ही कहती थी. स्पष्ट था कि यह संबोधन उसे एक व्यावसायिक संबंध की ही याद दिलाता था, रिश्ते की नहीं.

‘‘हां, हां, मैं समझ गया, बोलो.’’

‘‘प्रणाम अंकल.’’

‘‘खुश रहो, बोलो, क्या बात है?’’

‘‘आप लोग कैसे हैं, अंकल?’’

सुनील जल्दी में था, इसलिए खीझ गया पर शांत स्वर में ही बोला, ‘‘हम लोग सब ठीक हैं, पर तुम बताओ मां कैसी हैं?’’

‘‘नानीजी ने तो खानापीना सब छोड़ रखा है,’’ सुनील को लगा जैसे उस की छाती पर किसी ने हथौड़ा चला दिया हो. उसे चिंता हुई, ‘‘कब से?’’

‘‘कल रात से. कल रात कुछ नहीं खाया, आज भी न नाश्ता लिया और न दोपहर का खाना ही खाया.’’

‘‘अब रात का खाना उन्हें अवश्य खिलाओ. जो उन को पसंद आए वही बना कर दो. खाना थोड़ा गला कर देना ताकि उसे वे आसानी से निगल सकें. निगलने में दिक्कत होने से भी वे नहीं खाती होंगी.’’

‘‘हम ने तो कल खिचड़ी दी थी.’’

‘‘उसे भी जरा पतला कर के दो और घी वगैरह मिला दिया करो. मां को खिचड़ी अच्छी लगती है.’’

‘‘इसीलिए तो अंकल, लेकिन कहती हैं कि भूख नहीं है.’’

‘‘डाक्टर से पूछ कर देखो. भूख न लगने का भी इलाज हो सकता है.’’

‘‘वे कहती हैं, खाने की रुचि ही खत्म हो गई है. इस का क्या इलाज है? शायद मेरे हाथ से खाना ही नहीं चाहतीं.’’

उस लड़की की बात में सुनील को साफ व्यंग्य झलकता दिखाई पड़ा. ‘‘फिर भी, तुम डाक्टर से पूछो,’’ वह शांत स्वर में ही बोला.

‘‘जी अच्छा, अंकल.’’

‘‘फिर जैसा हो बताना. तुम चाहो तो व्हाट्सऐप कौल कर सकती हो.’’

‘‘नहीं अंकल, अब तो अमेरिका फोन करना सस्ता हो गया है. कोई बात नहीं. रात में फिर से कोशिश कर के देखती हूं.’’ वास्तव में शिवानी के पास पैसे की कोई कमी तो थी नहीं, फिर भी, उस की उदारता की उस ने जिस तरह उपेक्षा कर दी वह उसे अच्छा नहीं लगा.

‘‘जरूर.’’

‘‘अंकल, वहां अभी क्या समय हो रहा है?’’

‘‘यहां सुबह के 7 बज रहे हैं.’’

‘‘अच्छा, प्रणाम अंकल.’’

‘‘खुश रहो.’’

शिवानी सुनील के दूर के रिश्ते की बहन की बेटी थी. उस का घर तो भरापूरा था, उस का पति, 3 बेटे और 2 बेटियां. पर आय सीमित थी. हाईस्कूल कर के उस का पति किसी तरह कोई सिफारिश पहुंचा कर रांची के एंप्लौयमैंट एक्सचेंज औफिस में लोअर डिवीजन क्लर्क बन गया था.

सुनील जब किसी तरह मां को  अपने साथ अमेरिका में नहीं रख  सका तो वह भारत में एक ऐसा परिवार ढूंढ़ने लगा जो मां को अपने साथ रखे तथा उन की देखभाल करे, खर्च चाहे जो लगे. पर उसे ऐसा कोई परिवार जल्दी नहीं मिला. कोई इस तरह की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होता था. नजदीकी रिश्तेदारी में तो कोई मिला ही नहीं. किसी तरह उसे शिवानी का पता चला.

शिवानी को उस ने पहले देखा भी नहीं था, पर इस पारस्परिक रिश्ते को वे दोनों जानते थे. इस में संदेह नहीं था कि शिवानी को लगा कि सुनील की मां, जिसे वह नानी कहती थी, को रखने से उस की आर्थिक स्थिति में सुधार आ जाएगा. सुनील ने शुरू में ही उसे सबकुछ समझा दिया था. हफ्तों खोज करने के बाद उसे यह परिवार मिला था. सो वह उन पर ज्यादा ही निर्भर हो गया था. शिवानी को उस की मां को केवल पनाह देनी थी. काम करने के लिए उस ने अलग से एक नर्स रखने की अनुमति दे रखी थी. खर्च के लिए पैसे देने में उस ने कंजूसी नहीं की. मां को समझा दिया कि शिवानी के यहां उन्हें कोई तकलीफ नहीं होगी.

चलते समय मां की आंखें उसे वैसी ही लगीं जैसा बचपन में वह अपनी गाय को बछड़े से बिछुड़ते हुए देखा करता था. दुखभरी आवाज में मां ने पूछा, ‘आते तो रहोगे न, बेटा?’

सुनील ने तपाक से उत्तर दिया था, ‘जरूर मां, कुछ ही महीनों में यहां फिर आना है. और फिर मोबाइल तो है ही, मोबाइल पर जब कभी भी बात हो जाया करेगी.’

‘बेटा, मैं तो बहरी हो गई हूं, फोन पर क्या बात कर सकूंगी?’

‘मां, तुम नहीं, शिवानी तुम्हारा समाचार देती रहेगी. यह भी तो नतिनी ही हुई तुम्हारी. तुम्हें यह बहुत अच्छी तरह रखेगी.’

‘यह क्या रखेगी, तुम्हारा पैसा रखाएगा,’ मां ने धीरे से कहा.

बेटे ने चलते समय मां के पैर छुए, तो मां ने कहा, ‘जुगजुग जियो. अब हमारे लिए एक तुम्हीं रह गए हो, बेटा.’

सुनील अपनी सफाई में किसी तरह यही बोल पाया, ‘मां, अगर मैं तुम्हें अमेरिका में रख पाता तो जरूर रखता. तुम्हें कई बार बता चुका हूं. मैं तो वहां तुम्हारा इलाज भी नहीं करा सकता.’

‘तुम ने तो कहा था कि साल दो साल में तुम रिटायरमैंट ले लोगे और फिर भारत वापस आ जाओगे.’

सुनील की जैसे चोरी पकड़ी गई. इस बात की तसल्ली उस ने मां को बारबार दी थी कि वह उन्हें शिवानी के पास अधिक से अधिक 2 साल के लिए रख रहा था, जैसे ही वह रिटायर होगा, भारत आ जाएगा और उन्हें साथ रखेगा. उस घटना को 5 साल बीत गए थे. पर सुनील नहीं जा पाया था मां से मिलने.

वैसे वह रिटायर हो चुका था. यह नहीं कि इस बीच वह भारत गया ही नहीं. हर वर्ष वह भारत जाता रहा था किंतु कभी ऐसा जुगाड़ नहीं बन पाया कि वह मां से मिलने जाने की जहमत उठाता. कभी अपने काम से तो कभी पत्नी को भारतभ्रमण कराने के चलते. किंतु रांची जाने में जितनी तकलीफ उठानी पड़ती थी, उस के लिए वह समय ही नहीं निकाल पाता था. मां को या शिवानी को पता भी नहीं चल पाता कि वह इस बीच कभी भारत आया भी है.

अमेरिका से फोन करकर वह यह बताता रहता कि अभी वह बहुत व्यस्त है, छुट्टी मिलते ही मां से मिलने जरूर आएगा. और मन को हलका करने के लिए वह कुछ अधिक डौलर भेज देता केवल मां के ही लिए नहीं, शिवानी के बच्चों के लिए या खुद शिवानी और उस के पति के लिए भी. तब शिवानी संक्षेप में अपना आभार प्रकट करते हुए फोन पर कह देती कि वह उस की व्यस्तता को समझ सकती है. पता नहीं शिवानी के उस कथन में उसे क्या मिलता कि वह उस में आभार कम और व्यंग्य अधिक पाता था.

सुनील के अमेरिका जाने के बाद से उस की मां उस की बहन यानी अपनी बेटी सुषमा के पास वर्षों रहीं. सुनील के पिता पहले ही मर चुके थे. इस बीच सुनील अमेरिका में खुद को व्यवस्थित करने में लगा रहा. संघर्ष का समय खत्म हो जाने के बाद उस ने मां को अमेरिका नहीं बुलाया.

बहन तथा बहनोई ने बारबार लिखा कि आप मां को अपने साथ ले जाइए पर सुनील इस के लिए कभी तैयार नहीं हुआ. उस के सामने 2 मुख्य बहाने थे, एक तो यह कि मां का वहां के समाज में मन नहीं लगेगा जैसा कि वहां अन्य बुजुर्ग व रिटायर्ड लोगों के साथ होता है और दूसरे, वहां इन की दवा या इलाज के लिए कोई मदद नहीं मिल सकती. हालांकि वह इस बात को दबा गया कि इस बीच वह उन के भारत रहतेरहते भी उन्हें ग्रीनकार्ड दिला सकता था और अमेरिका पहुंचने पर उन्हें सरकारी मदद भी मिल सकती थी.

एक बार जब वह सुषमा की बीमारी पर भारत आया तो बहन ने ही रोरो कर बताया कि मां के व्यवहार से उन के पति ही नहीं, उस के बच्चे भी तंग रहते हैं. अपनी बात यदि वह बेटी होने के कारण छोड़ भी दे तो भी वह उन लोगों की खातिर मां को अपने साथ नहीं रख सकती. दूसरी ओर मां का यह दृढ़ निश्चय था कि जब तक सुषमा ठीक नहीं  हो जाती तब तक वे उसे छोड़ नहीं सकतीं.

सुनील ने अपने स्वार्थवश मां की हां में हां मिलाई. सुषमा कैंसर से पीडि़त थी. कभी भी उस का बुलावा आ सकता था. सुनील को उस स्थिति के लिए अपने को तैयार करना था.

सुषमा की मृत्यु पर सुनील भारत नहीं आ सका पर उस ने मां को जरूर अमेरिका बुलवा लिया अपने किसी संबंधी के साथ. अमेरिका में मां को सबकुछ बहुत बदलाबदला सा लगा. उन की निर्भरता बहुत बढ़ गई. बिना गाड़ी के कहीं जाया नहीं जा सकता था और गाड़ी उन का बेटा यानी सुनील चलाता था या बहू. घर में बंद, कोई सामाजिक प्राणी नहीं. बेटे को अपने काम के अलावा इधरउधर आनेजाने व काम करने की व्यस्तता लगी रहती थी. बहू पर घर के काम की जिम्मेदारी अधिक थी. यहां कोई कामवाली तो आती नहीं थी, घर की सफाई से ले कर बाहर के भी काम बहू संभालती थी.

मां के लिए परेशानी की बात यह थी कि सुनील को कभीकभी घर के काम में अपनी पत्नी की सहायता करनी पड़ती थी. घर का मर्द घर में इस तरह काम करे, घर की सफाई करे, बरतन मांजे, कपड़े धोए, यह सब देख कर मां के जन्मजन्मांतर के संस्कार को चोट पहुंचती थी. सुनील के बारबार यह समझाने पर भी कि यहां अमेरिका में दाईनौकर की प्रथा नहीं है, और यहां सभी घरों में पतिपत्नी मिल कर घर के काम करते हैं, मां संतुष्ट नहीं होतीं.

मां को यही लगता कि उन की बहू ही उन के बेटे से रोज काम लिया करती है. सभी कामों में वे खुद हाथ बंटाना चाहतीं ताकि बेटे को वह सब नहीं करना पड़े, पर 85 साल की उम्र में उन पर कुछ छोड़ा नहीं जा सकता था. कहीं भूल से उन्हें चोट न लग जाए, घर में आग न लग जाए, वे गिर न पड़ें, इन आशंकाओं के मारे कोई उन्हें घर का काम नहीं करने देता था.

सुनील अपनी मां का इलाज  करवाने में समर्थ नहीं था.

अमेरिका में कितने लोग सारा का सारा पैसा अपनी गांठ से लगा कर इलाज करवा सकते थे? मां ऐसी बातें सुन कर इस तरह चुप्पी साध लेती थीं जैसे उन्हें ये बातें तर्क या बहाना मात्र लगती हों. उन की आंखों में अविश्वास इस तरह तीखा हो कर छलक उठता था जिसे झेल न सकने के कारण, अपनी बात सही होने के बावजूद सुनील दूसरी तरफ देखने लग जाता था. उन की आंखें जैसे बोल पड़तीं कि क्या ऐसा कभी हो सकता है कि कोई सरकार अपने ही नागरिक की बूढ़ी मां के लिए कोई प्रबंध न करे. भारत जैसे गरीब देश में तो ऐसा होता ही नहीं, फिर अमेरिका जैसे संपन्न देश में ऐसा कैसे हो सकता था?

सुनील के मन में वर्षों तक मां के लिए जो उपेक्षा भाव बना रहा था या उन्हें वह जो अपने पास अमेरिका बुलाने से कतराता रहा था शायद इस कारण ही उस में एक ऐसा अपराधबोध समा गया था कि वह अपनी सही बात भी उन से नहीं मनवा सकता था. कभीकभी वे रोंआसी हो कर यहां तक कह बैठती थीं कि दूसरे बच्चों का पेट काटकाट कर भी उन्होंने उसे डबल एमए कराया था और सुनील यह बिना कहे ही समझ जाता था कि वास्तव में वे कह रही हैं कि उस का बदला वह अब तक उन की उपेक्षा कर के देता रहा है जबकि उस की पाईपाई पर उन का हक पहले है और सब से ज्यादा है.

सुनील के सामने उन दिनों के वे दृश्य उभर आते जब वह कालेज की छुट्टियों में घर लौटता था और अपने मातापिता के साथ भाईबहनों को भी वह रूखासूखा खाना बिना किसी सब्जीतरकारी के खाते देखता था.

मां को सब से अधिक परेशानी इस बात की थी कि परदेश में उन्हें हंसनेबोलने के लिए कोई संगीसाथी नहीं मिल पाता था, और अकेले कहीं जा कर किसी से अपना परिचय भी नहीं बढ़ा सकती थीं. शिकागो जैसे बड़े शहर में भारतीयों की कोई कमी तो नहीं थी, पर सुनील दंपती लोगों से कम ही मिलाजुला करते थे.

कभीकभी मां को वे मंदिर ले जाते थे. उन्हें वहां पूरा माहौल भारत का सा मिलता था. उस परिसर में घूमती हुई किसी भी बुजुर्ग स्त्री को देखते ही वे देर तक उन से बातें करने के लिए आतुर हो जातीं. वे चाहती थीं कि वे वहां बराबर जाया करें, पर यह  भी कर सकना सुनील या उस की पत्नी के लिए संभव नहीं था. अपनी व्यस्तता के बीच तथा अपनी रुचि के प्रतिकूल सुनील के लिए सप्ताहदोसप्ताह में एक बार से अधिक मंदिर जाना संभव नहीं था और वह भी थोड़े समय के लिए.

कुछ ही समय में सुनील की मां को लगा कि अमेरिका में रहना भारी पड़ रहा है. उन्हें अपने उस घर की याद बहुत तेजी से व्यथित कर जाती जो कभी उन का एकदम अपना था, अपने पति का बनवाया हुआ. वे भूलती नहीं थीं कि अपने घर को बनवाने में उन्होंने खुद भी कितना परिश्रम किया था, निगरानी की थी और दुख झेले थे. और यह भी कि जब वह दोमंजिला मकान बन कर तैयार हो गया था तो उन्हें कितना अधिक गर्व हुआ था.

आज यदि उन के पति जीवित होते तो कहीं और किसी के साथ रहने या अमेरिका आने के चक्कर में उन्हें अपने उस घर को बेचना नहीं पड़ता. उन के हाथों से उन का एकमात्र जीवनाधार जाता रहा था. उन के मन में जबतब अपने उस घर को फिर से देखने और अपनी पुरानी यादों को फिर से जीने की लालसा तेज हो जाती.

पर अमेरिका आने के बाद तो फिर से भारत जाने और अपने घर को देखने का कोई अवसर ही आता नहीं दिखता था. न तो सुनील को और न ही उस की पत्नी को भारत से कोई लगाव रह गया था या भारत में टूटते अपने सामाजिक संबंधों को फिर से जोड़ने की लालसा. तब सुनील की मां को लगता कि भारत ही नहीं छूटा, उन का सारा अतीत पीछे छूट गया था, सारा जीवन बिछुड़ गया था. यह बेचैनी उन को जबतब हृदय में शूल की तरह चुभा करती. उन्हें लगता कि वे अपनी छायामात्र बन कर रह गई हैं और जीतेजी किसी कुएं में ढकेल दी गई हैं. ऐसी हालत में उन का अमेरिका में रहना जेल में रहने से कम न था.

मां के मन में अतीत के प्रति यह लगाव सुनील को जबतब चिंतित करता. वह जानता था कि उन का यह भाव अतीत के प्रति नहीं, अपने अधिकार के न रहने के प्रति है. मकान को बेच कर जो भी पैसा आया था, जिस का मूल्य अमेरिकी डौलर में बहुत ही कम था, फिर भी उसे वे अपने पुराने चमड़े के बौक्स में इस तरह रखती थीं जैसे वह बहुत बड़ी पूंजी हो और जिसे वे अपने किसी भी बड़े काम के लिए निकाल सकती थीं. कम से कम भारत जाने के लिए वे कई बार कह चुकी थीं कि उन के पास अपना पैसा है, उन्हें बस किसी का साथ चाहिए था.

सुनील देखता था कि वे किस प्रकार घर का काम करने, विशेषकर खाना बनाने के लिए आगे बढ़ा करती थीं पर सुनील की पत्नी उन्हें ऐसा नहीं करने दे सकती थी. कहीं कुछ दुर्घटना घट जाती तो लेने के देने पड़ जाते. बिना इंश्योरैंस के सैकड़ों डौलर बैठेबिठाए फुंक जाते. तब भी, जबतब मां की अपनी विशेषज्ञता जोर पकड़ लेती और वे बहू से कह बैठतीं, यह ऐसे थोड़े बनता है, यह तो इस तरह बनता है. साफ था कि उस की पत्नी को उन से सीख लेने की कोई जरूरत नहीं रह गई थी.

सुनील की मां के लिए अमेरिका छोड़ना हर प्रकार सुखकर हो, ऐसी भी बात नहीं थी. अपने बेटे की नजदीकी ही नहीं, बल्कि सारी मुसीबतों के बावजूद उस की आंखों में चमकता अपनी मां के प्रति प्यार आंखों के बूढ़ी होने के बाद भी उन्हें साफ दिख जाता था. दूसरी ओर अमेरिका में रहने का दुख भी कम नहीं था. उन का जीवन अपने ही पर भार बन कर रह गया था.

अब जहां वे जा रही थीं वहां से पारिवारिक संबंध या स्नेह संबंध तो नाममात्र का था, यह तो एक व्यापारिक संबंध स्थापित होने जा रहा था. ऐसी स्थिति में शिवानी से महीनों तक उन का किसी प्रकार का स्नेहसंबंध नहीं हो पाया. जो केवल पैसे के लिए उन्हें रख रही हो उस से स्नेहसंबंध क्या?

उन का यह बरताव उन की अपनी और अपने बेटे की गौरवगाथा में ही नहीं, बल्कि दिनप्रतिदिन की सामान्य बातचीत में भी जाहिर हो जाता था. उस में मेरातेरा का भाव भरा होता था. यह एसी मेरे बेटे का है, यह फ्रिज मेरा है, यह आया मेरे बेटे के पैसे से रखी गई है, इसलिए मेरा काम पहले करेगी, इत्यादि.

शिवानी को यह सब सिर झुका कर स्वीकार करना पड़ता, कुछ नानी की उम्र का लिहाज कर के, कुछ अपनी दयनीय स्थिति को याद कर के और कुछ इस भार को स्वीकार करने की गलती का एहसास कर के.

मोबाइल की घंटी रात के 2 बजे फिर बज उठी. यह भी समय है फोन करने का? लेकिन होश आया, फोन जरूर मां की बीमारी की गंभीरता के कारण किया गया होगा. सुनील को डर लगा. फोन उठाना ही पड़ा. उधर से आवाज आई, ‘‘अंकल, नानी तो अपना होश खो बैठी हैं.’’

‘‘क्या मतलब, होश खो बैठी हैं? डाक्टर को बुलाया’’ सुनील ने चिंता जताई.

‘‘डाक्टर ने कहा कि आखिरी वक्त आ गया है, अब कुछ नहीं होगा.’’

सुनील को लगा कि शिवानी अब उसे रांची आने को कहेगी, ‘‘शिवानी, तुम्हीं कुछ उपाय करो वहां. हमारा आना तो नहीं हो सकता. इतनी जल्दी वीजा मिलना, फिर हवाईजहाज का टिकट मिलना दोनों मुश्किल होगा.’’

‘‘हां अंकल, मैं समझती हूं. आप कैसे आ सकते हैं?’’ सुनील को लगा जैसे व्यंग्य का एक करारा तमाचा उस के मुंह पर पड़ा हो.

‘‘किसी दूसरे डाक्टर को भी बुला लो.’’

‘‘अंकल, अब कोई भी डाक्टर क्या करेगा?’’

‘‘पैसे हैं न काफी?’’

‘‘आप ने अभी तो पैसे भेजे थे. उस में सब हो जाएगा.’’

शिवानी की आवाज कांप रही थी, शायद वह रो रही थी. दोनों ओर से सांकेतिक भाषा का ही प्रयोग हो रहा था. कोई भी उस भयंकर शब्द को मुंह में लाना नहीं चाहता था. मोबाइल अचानक बंद हो गया. शायद कट गया था.

3 घंटे के बाद मोबाइल की घंटी बजी. सुनील बारबार के आघातों से बच कर एकबारगी ही अंतिम परिणाम सुनना चाहता था.

शिवानी थी, ‘‘अंकल, जान निकल नहीं रही है. शायद वे किसी को याद कर रही हैं या किसी को अंतिम क्षण में देखना चाहती हैं.’’

सुनील को जैसे पसीना आ गया, ‘‘शिवानी, पानी के घूंट डालो उन के मुंह में.’’

‘‘अंकल, मुंह में पानी नहीं जा रहा.’’ और वह सुबकती रही. फोन बंद हो गया.

सुबह होने से पहले घंटी फिर बजी. सुनील बेफिक्र हो गया कि इस बार वह जिस समाचार की प्रतीक्षा कर रहा था वही मिलेगा. अब किसी और अपराधबोध का सामना करने की चिंता उसे नहीं थी. उस ने बेफिक्री की सांस लेते हुए फोन उठाया और दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘अंकल, नानीजी को मुक्ति मिल गई.’’ सुनील के कानों में शब्द गूंजने लगे, बोलना चाहता था लेकिन होंठ जैसे सिल गए थे.

तलाक की खबरों के बीच Abhishek Bachchan ने खरीदा आलीशान घर, क्या इस अपार्टमेंट में रहेंगी ऐश्वर्या

ऐश्वर्या राय (Aishwarya Rai) इन दिनों सुर्खियों में छायी हुई हैं. हाल ही में ऐक्ट्रैस अपनी बेटी आराध्या बच्चन के साथ किसी अवार्ड फंक्शन में शिरकत की थी. जहां दोनों मां बेटी की बौन्डिंग देखते बन रही थी. कुछ महीनों पहले खबर आई थी कि ऐश्वर्या राय और अभिषेक बच्चन (Abhishek Bachchan)  का तलाक होने वाला है. हालांकि बाद में यह अफवाह भी बताया गया था, लेकिन कुछ महीनों पहले अभिषेक ने डिवोर्स पोस्ट लाइक किया था जिसके बाद कहा जाने लगा कि ऐश और अभिषेक का तलाक कन्फर्म है.

अभिषेक बच्चने के फ्लौन्ट किया अपना वेडिंग रिंग

लेकिन एक इंटरव्यू के अनुसार, अभिषेक बच्चन ने अपनी वेडिंग रिंग फ्लौन्ट करके अफवाहों का खंडन किया था. तो वहीं दूसरी तरफ ऐश्वर्या राय को दुबई एयरपोर्ट पर पैपराजी ने स्पौट किया. यूजर्स ने गौर किया कि ऐश ने वेडिंग रिंग नहीं पहना था. जिसके बाद फिर से कपल के तलाक की खबरे आने लगी.

पिता अमिताभ के बंगले के करीब अभिषेक बच्चन ने खरीदा नया अपार्टमेंट

अब बताया जा रहा है कि अभिषेक बच्चन ने एक नई प्रौपर्टी खरीदी है. रिपोर्ट के मुताबिक अभिषेक बच्चन का नया अपार्टमेंट अपने पिता के बंगले ‘जलसा’ के नजदीक है. रिपोर्ट के अनुसार बच्चन परिवार के पास एक ही क्षेत्र में कई संपत्तियां हैं और यह उनके कलेक्शन में एक नया प्रौपर्टी जुड़ गया है.

रिपोर्ट्स के मुताबिक, एक ऊंची बिल्डिंग की 57वीं मंजिल पर स्थित इन 6 अपार्टमेंटों में दस कार पार्किंग की जगह है. अभिषेक ने अभी तक इन खबरों पर कोई रिएक्शन नहीं दिया है. कहा जाता है कि ऐश्वर्या अपनी मां वृंदा राय के साथ रहती हैं. लेकिन अभिषेक के नए अपार्टमेंट खरीदने के बाद अटकले लगाई जा रही है कि ऐश्वर्या, अभिषेक और आराध्या इसी घर में रहेंगे.

क्या नए घर में ऐश्वर्या-अभिषेक एकसाथ रहेंगे?

सोशल मीडिया पर यूजर्स अभिषेक बच्चन के नए घर को लेकर कई कमेंट्स भी कर रहे हैं. कुछ यूजर्स का कहना है कि ऐश-अभिषेक तलाक न लें और दोनों नए घर में साथ रहे. तो वहीं कई यूजर्स जया बच्चन को भी ट्रोल किया है, उनके कारण अभिषेक-ऐश्वर्या का घर टूट रहा है.

ऐश्वर्या अपनी ननद श्वेता बच्चन से क्यों रहती हैं नाराज

आपको बता दें कि ये भी खबर आई थी कि ऐश्वर्या राय और  उनकी ननद श्वेता बच्चन के बीच रिश्ता कुछ अच्छा नहीं रहा.  अमिताभ बच्चन और पत्नी जया बच्चन ने बेटी श्वेता को एक बंगला गिफ्ट किया था. इस खबर के बाद कई मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया गया था कि इस फैसले से ऐश्वर्या राय नाराज है.

अंबानी परिवार के फंक्शन में ऐश्वर्या राय बच्चन परिवार के साथ नहीं दिखीं

हाल ही में राधिका मर्चेंट और अनंत अंबानी की शादी में पूरा बच्चन परिवार चर्चे में रहा. ऐश्वर्या राय और बेटी आराध्या बच्चन अलग नजर आ रही थी. पूरी फैमिली एक तरफ और ऐश-आराध्या एक तरफ.  हालांकि, फंक्शन की इनसाइड तस्वीरों में  अभिषेक बच्चन अपनी पत्नी और बेटी के साथ दिखे थे.

Jhanak : जिंदगी और मौत के बीच जूझ रही है झनक, अर्शी को ठुकरा कर हौस्पिटल पहुंंचा अनिरुद्ध

Jhanak Episode update : स्टार प्लस के शो झनक की कहानी दर्शकों का दिल जीत रहा है. शो में अब तक आपने देखा कि अनिरुद्ध अर्शी और पूरे परिवार से लड़कर मुंबई झनक के पास पहुंचता है. बोस परिवार में इस बात को लेकर तीखी बहस होती है. तो दूसरी तरफ अनिरुद्ध हौस्पिटल में जाकर झनक से मिलने के लिए रिस्पेसनिस्ट से रिक्वेस्ट करता है.

आदित्य और अनिरुद्ध में होगी बहस

लेकिन आदित्य बीच में उसे रोकता है ऐसे में अनिरुद्ध का पारा चढ़ जाता है और वह कहता है कि किस हक से वह उसे रोक रहा है, ऐसे में आदित्य कहता है कि वह झनक का दोस्त है. आदित्य अनिरुद्ध को झनक के लिए बांड पेपर पर सिग्नेचर करने के बारे में भी बताता है, लेकिन अनिरुद्ध उस पर सिग्नेचर करता है. वह नर्स से भी पूछता है कि अस्पताल की फीस कितनी है. डौक्टर उसे बताते हैं कि आदित्य पहले ही पैसे दे चुके हैं. झनक के साथ बुरा व्यवहार करने और उसका सम्मान न करने के लिए आदित्य अनिरुद्ध का मजाक उड़ाता है.

झनक से अनिरुद्ध कहता है अपने दिल की बात

दूसरी तरफ झनक अनिरुद्ध को देखकर चौंक जाती है. झनक पूछती है कि वह क्यों आया है, और अनिरुद्ध कहता है कि जब उसने उसके स्वास्थ्य के बारे में सुना, तो वह दूर नहीं रह सका. फिर झनक उससे पूछती है कि अगर उसकी डिलिवरी होती तो क्या वह आता?

आज के एपिसोड में आप देखेंगे कि अनिरुद्ध बात ही बातों से झनक से कहने की कोशिश करता है कि वह उसके लिए बहुत इम्पोर्टेन्ट है और वह उससे पत्नी मानता है. झनक से अनि ये भी कहता है कि औपरेशन के बाद झनक सबसे पहले उसका चेहरा देखेगी. शो में आप ये भी देखेंगे कि बोस हाउस में अर्शी और उसकी मां ने बखेड़ा खड़ा किया है. दूसरी तरफ अनि की भाभी उन दोनों को भड़काते नजर आ रही है. शो में आप ये भी देखेंगे कि झनक का औपरेशन होगा. वह जिंदगी और मौत के बीच जूझेगी. दूसरी तरफ आदित्य और अनिरुद्ध घबरा जाएंगे. झनक की हालत खराब होती जाएगी.

क्या आदित्य से शादी करेगी झनक

शो के बिते एपिसोड में आपने देखा कि आदित्य कपूर झनक को शादी के लिए प्रपोज करता है. लेकिन झनक इनकार कर देती है, कहती है कि प्यार एक बार होता है और वह अनिरुद्ध से करती है. झनक आदित्य से ये भी कहती है कि वह उसका दोस्त है और हमेशा रहेगा. उसने उसका बहुत साथ दिया है. रिपोर्ट्स के मुताबिक शो में ट्विस्ट आएगा और दिखाया जाएगा कि झनक आदित्य से शादी कर के अपनी जिंदगी में आगे बढ़ जाएगी.

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