फूड स्टाइलिंग में बनाएं कैरियर

Food Styling : किं बर्ली के अनुसार, फूड स्टाइलिंग का उद्देश्य आप के द्वारा बनाए गए किसी व्यंजन को सही तरीके से आप को पेश करना होता है. इस का लक्ष्य व्यंजन को स्वादिष्ठ बनाने के साथसाथ दिखने में भी अच्छा होना है.

आज की भागमभाग की जीवनशैली में भोजन को सुंदर तरीके से परोसा जाना सब से बड़ी चुनौती है, जबकि फूड की स्टाइलिंग होटलों में अच्छी तरह की जाती है ताकि खाने वाले को सजावट को देख कर खाने की उत्सुकता बढ़े यही वजह है कि हजारों रुपए खर्च कर व्यक्ति होटल या रेस्तरां में जा कर भोजन करना पसंद करते हैं.

भोजन परोसना है कला

अगर हम इस के इतिहास को देखें तो खाने को सजा कर परोसने की कला पुराने जमाने से रही है, जहां किसी भी खास अवसर पर या घर पर एक बड़ी थाली में छोटेछोटे कटोरों में व्यंजन डाल कर खूबसूरती से उसे परोसा जाता था, जिसे खाने वाले भी बड़े चाव से खाते थे. समय के साथ धीरेधीरे यह परंपरा धूमिल हो गई क्योंकि लोग रोजीरोटी कमाने के चक्कर में फूड स्टाइलिंग को भूल गए.

मगर होटलों और रेस्तराओं ने इसे अपनाया और अलगअलग सुंदर कला से होटलों के सेफ खाना परोसने लगे, जिसे लोगों ने पसंद किया और फूड स्टाइलिंग की कला घर से निकल कर होटलों में समा गई और हजारों रुपए खर्च कर लोग आज इन होटलों में खाने के लिए जाने लगे.

सोशल मीडिया जिम्मेदार

सोशल मीडिया के आने के बाद इस का प्रचलन और भी बढ़ा है. सब से लोकप्रिय पोस्ट उस फूड के फोटो की होती हैं जो दिखने में लजीज लगे क्योंकि सुंदर छवि हर खाने को लजीज बनाती है और लोग उसे खाने के लिए आकर्षित होते हैं. यही वजह है कि लोग कभी किसी ने दोपहर को खाने में कौन सी डिश बनाई, जन्मदिन पर कौन सा केक बनाया, कैसे पेश किया आदि की तसवीरों के रील की भरमार लगा देते हैं, जिन्हें लोग लाइक कर, समय मिलने पर वैसी ही डिश बनाने की कोशिश करते रहते हैं.

यह सही है कि किसी भी व्यंजन को अगर सुंदर तरीके से सजा कर पेश किया जाता है तो इस से उस पकवान की गरिमा बढ़ती है. मगर आज के परिवेश में भोजन को ले कर लोगों की सोच में काफी अंतर आया है. ‘नमकशमक’ फ्रेज से पहचाने जाने वाले सैलिब्रिटी शेफ हरपाल सिंह सोखी का कहना है कि आज के लोगों की सोच में खाने को ले कर काफी परिवर्तन देखने को मिल रहा है. उन का अपने काम में व्यस्तता की वजह से खाने का पर्सपैक्टिव ही बदल गया है.

डाइनिंग में बदलाव

शेफ हरपाल कहते हैं कि घर से अलग एक नए माहौल में जा कर भोजन करना, सैलिब्रेशन के अलावा प्रिय जनों के साथ बैठ कर कुछ समय बिताना आज अधिक पौपुलर हो गया है. इस प्रकार डाइनिंग को ले कर लोगों की सोच पहले से काफी बदल चुकी है, पहले होटलों या रेस्तरा से व्यंजन मंगा कर पूरे परिवार के साथ घर पर ही सैलिब्रेट कर लेते थे, पर आज यह संभव नहीं होता क्योंकि लोग घर को गंदा न कर रेस्तरां में जाने को अधिक प्रैफर करने लगे हैं.

यह होटल और रेस्तरां इंडस्ट्री के लिए बहुत अच्छा हुआ है, जिस में लोग घर से बाहर निकल रहे हैं और इस में मध्यवर्ग का वह युवा वर्ग है, से काम का स्ट्रैस बहुत रहता है. मग वे आर्थिक रूप से मजबूत हैं. इतना ही नहीं, व्यवसाय वाले भी बिजनैस करतेकरते स्ट्रेसआउट हो जाते हैं. ऐसे में कहीं बदले माहौल में जाना उन्हें पसंद होता है. इस प्रकार डाइनिंग में पिछले कुछ सालों में काफी बदलाव देखने को मिल रहा है.

फूड स्टाइलिंग

खाने में फूड स्टाइलिंग आज एक महत्त्वपूर्ण बात हो चुकी है और इस के लिए होटल और रेस्तरां वाले काफी मेहनत कर डिशेज को नया लुक देने की कोशिश करते हैं. इस की आवश्यकता के बारे में सैलिब्रिटी शेफ कहते हैं कि होटल में फूड स्टाइलिंग बहुत जरूरी भूमिका निभाती है, जहां कटलरी से ले कर क्रौकरी आदि पर काफी खर्च किया जाता है और नई स्टाइलिंग के लिए शेफ बहुत मेहनत करते हैं ताकि डिश देखने में लजीज लगे, जिस में नईनई तरह की गार्निशिंग से डिशेज को सजाया जाता है क्योंकि होटल्स और रेस्तरां में बहुत सारी चीजों का ऐक्सैस उन्हें मिलता है.

इस में अच्छी क्वालिटी की क्रौकरी, कटलरी, कई प्रकार के फल और हर्ब आसानी से मिल जाते हैं, जिस का प्रयोग वहां किया जाता है, लेकिन घर पर इस की लिमिटैशंज होती हैं. इसलिए घर पर कम समय में कम चीजों के साथ भी एक खूबसूरत स्टाइलिंग की जा सकती है.

सुझाव

अच्छी क्रौकरी का प्रयोग घर पर किया जा सकता है. उसे पहले से खरीद कर रखें.

भोजन को हलका गार्निश किया जा सकता है, जिस में ताजा धनियापत्ती और लालमिर्च को फ्राई कर तिल के साथ उसे छिड़क कर सजाया जा सकता है.

करीपत्ते के एक लंबे सीरीज को फ्राई कर ऊपर सजा सकते हैं. ऐसी छोटीछोटी चीजों को ले कर जो घर पर आसानी से मिल जाएं उन से गार्निश किया जा सकता है.

इस के अलावा अगर आप ने भोजन बाजार से भी मंगवाया है तो उसे किसी अच्छी क्रौकरी और कटलरी के साथ परोसें.

उस पर अपने हिसाब से गार्निश करें, जिस में लाल, पीले, हरे रंग के अच्छे कौंबिनेशन का प्रयोग करें. कुछ लोग बौक्स में रख कर ही खाना परोस देते हैं जो देखने में सही नहीं लगता क्योंकि किसी भी व्यंजन की विजुअल अपील का अच्छा होना सब से अधिक जरूरी होता है जो खाने की रुचि जगाती है.

पार्टी में गार्निश को ले कर बातें करने का मौका मिलता है, जिस में उस व्यक्ति का एफर्ट दिखता है. उस की इस रुचि को सराहा भी जाता है.

फूड स्टाइलिंग में बना सकते हैं कैरियर

मैगजीन, टीवी या फिर रेस्तरां के मैन्यू में अलगअलग तरह की डिश की तसवीरें देख कर आज के यूथ इस ओर काफी रुचि ले रहे हैं और इस का ट्रैंड आजकल काफी बढ़ा है. यही वजह है कि वे इस दिशा में ट्रेनिंग लेने से कतराते नहीं क्योंकि जिस डिश को आप तसवीरों में देखते हैं उसे सजाने का काम, फूड स्टाइलिस्ट ही करते हैं. फूड स्टाइलिस्ट फोटोग्राफर्स, आर्ट डाइरैक्टर, प्रोड्यूसर्स, एडिटर्स, मार्केटिंग टीम के साथ मिल कर काम करता है. उस का काम किसी खाने को सुंदर दिखाना होता है.

असल में फूड स्टाइलिस्ट का काम एक आर्ट वर्क है. ये आमतौर पर उन स्टूडियो में काम करते हैं, जहां पर किसी खाने का फोटो या वीडियो शूट करना हो. वे खाना तैयार करने से ले कर उसे सुंदर दिखने तक काम करते हैं.

Short Stories in Hindi : इज्जत का फालूदा – बीवी की बेइज्जती सहते पति की कहानी

Short Stories in Hindi :  यह सच है कि हमारी श्रीमतीजी अमीर परिवार से हैं, इसलिए हमें अकसर उन की वे बातें भी सुननी पड़ती हैं, जो हमें अच्छी नहीं लगती हैं.

बड़े जोड़तोड़ के बाद बैंक से लोन ले कर हम ने 2 कमरों का मकान शहर के बाहर लिया, वह भी इसलिए कि वह सस्ता था वरना पूरी जिंदगी किराए के मकान में ही कट जाती. यहां रहने आए तो गृहप्रवेश के समय हमारी एकमात्र सासूजी भी आ टपकीं. उन की सलाह मान कर आसपास के परिवारों को भी परिचय के लिए बुला लिया. अब परिचय यों तो होता नहीं. अत: उन के भोजन की व्यवस्था भी की गई. सासूजी की 1 पाई भी नहीं लगी और हमारे हजारों स्वाहा हो गए.

जितने भी परिवार आए थे उन से श्रीमतीजी अपने पति या अपने परिवार की बातें कम कर रही थीं, अपने मायके के मीठे गीत सुनासुना कर स्वयं को हलका फील कर रही थीं. और कोई उपाय भी तो न था. अत: हम चुपचाप सुनते रहे.

श्रीमतीजी किसी को बता रही थीं, ‘‘शादी में मम्मीजी ने पूरे 5 तोले का हार दिया था. 2 तोले की सोने की चूडि़यां, 3 तोले का मंगलसूत्र और भी न जाने क्याक्या…’’

वे गहनों से लदीफंदी पूरी सोने की दुकान लग रही थीं. हम क्या कहते… हमें तो 1 अंगूठी भी नहीं दी गई थी. लेकिन हम किस से शिकायत करते? फिर दामाद की क्या हिम्मत जो सास के सामने अपनी श्रीमतीजी की शिकायत कर सके. हम तो इस 2 कमरों के मकान में खुश थे. सोच रहे थे जीवन कट जाएगा. लेकिन उस रात जब पार्टी समाप्त हुई और हम थकहार कर बिस्तर पर पहुंचे तो श्रीमतीजी ने कहा, ‘‘मुझे आज बड़ी शर्म आ रही थी…’’

‘‘क्यों? किस बात पर…?’’

‘‘सब पूछ रहे थे कि इन डिजाइन के गहने यहां तो मिलते नहीं, आप कहां से लाईं?’’ तो मुझे मजबूरी में बताना पड़ा कि ये मम्मीजी ने दिए हैं,’’ कह कर वे चुप हो गईं.

‘‘आखिर क्या कहना चाहती हो?’’ हम ने थोड़े दुखी मन से पूछा.

‘‘आप को आपत्ति न हो तो एक बात कहूं?’’

‘‘कहो.’’

‘‘अगर आप चाहो तो…’’

‘‘क्या चाहो…’’ हम ने हैरानी से पूछा.

‘‘आप कुछ गहने खरीद कर मुझे दो ताकि मैं लोगों को बता सकूं कि ये आप ने ला कर दिए हैं,’’ कह कर वे चुप हो गईं और हमारी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगीं.

हम ने व्यंग्य से कहा, ‘‘क्यों नहीं… क्यों नहीं… मकान की किस्तें कौन चुकाएगा?’’

‘‘अरे, मैं गहनों की बातें कर रही हूं और आप हैं कि मकान की किस्तों का रोना रो रहे हैं,’’ कह श्रीमतीजी ने नाराजगी में करवट बदल ली.

‘ऊपर वाले ने क्या पीस हमारी किस्मत में लिखा है… हम अपनी पीड़ा किस से कहें?’ सोचतेसोचते कब नींद आ गई पता ही नहीं चला.

रात को छाती पर वजन पड़ा तो नींद खुल गई. हमारी छाती पर चढ़ीं श्रीमतीजी कोई टीवी सीरियल देख रही थीं. पूछने लगीं, ‘‘डार्लिंग क्या सोचा आप ने?’’

‘‘किस विषय में?’’

‘‘गहनों के बारे में.’’

‘‘बता तो दिया था… क्यों दिमाग खराब कर रहीं?’’

‘‘मैं अंतिम बार पूछ रही हूं… आखिर कब तक मायके के गहनों को पहनूंगी… आखिर आप की भी तो कोई जिम्मेदारी बनती है या नहीं?’’

‘‘अब सो जाओ. सुबह बात करेंगे.’’

‘‘अभी इसी समय फैसला हो जाए वरना…’’

‘‘वरना क्या?’’

‘‘वरना मैं जा रही हूं,’’ कह कर वे उठ कर मम्मी के पास सोने चली गईं.

सुबह नाश्ते में जली ब्रैड के साथ जले दूध की चाय मिली. हम बुझे मन से औफिस निकल गए. क्या कहते…

यह क्रम पूरे 7 दिनों तक चला. श्रीमतीजी अपनी मम्मी से पटरपटर बातें करती रहतीं. एक हम थे, जो दीवारों से सिर फोड़ते रहते थे. आखिर परेशान हो कर हम ने सोचा कि अब आरपार की लड़ाई हो ही जाए. पर अगले ही पल दिमाग में आया कि क्या आज तक कोई पति पत्नी से जीता है? अत: हम ने भी हार मान ली और श्रीमतीजी के कान में कह दिया, ‘‘आज शाम को तुम्हारी फरमाइश पूरी हो जाएगी.’’

‘‘सच?’’ कह कर वे फर्श पर भरत नाट्यम करने लगीं. मगर हमें डर लगने लगा कि कहीं फर्श में दरार न आ जाए.

शाम को हम ने जो वादा किया था उसे पूरा कर दिया. श्रीमतीजी को अपने कमरे में बुला कर लगभग आधा किलोग्राम के जेवर सामने रख दिए, जिन में नैकलैस, चूडि़यां, टीका, मंगलसूत्र, बाजूबंद आदि थे. उन्हें देख कर श्रीमतीजी हम से लिपट गईं.

हमें लगा कि उन की पकड़ में कहीं हमारी सांस न रुक जाए. फिर श्रीमतीजी सभी गहनों को पहन कर अपनी मां को दिखाने दौड़ गईं. हम चुपचाप पुस्तक पढ़ने में व्यस्त हो गए.

3-4 दिनों तक ऐसा लगा कि अगर सब की श्रीमतीजी ऐसी होतीं तो सब पतियों की मौत हार्टअटैक से होती.

खैर, जो दुर्घटना घटी हम उस पर आते हैं. श्रीमतीजी हमारे दिए गहनों से इतनी खुश थीं कि अपने पुराने गहने उतार कर रख दिए थे और हमारे गहनों से स्वयं को लाद लिया था.

एक रात किसी ने दरवाजा खटखटाया तो हमारी सासूजी ने दरवाजा खोल दिया. दरवाजा खुलते ही धड़धड़ाते 3-4 लुटेरे घर में आ गए. श्रीमतीजी साड़ी से गहनों को छिपाने की कोशिश कर रही थीं. सासूजी हाथ जोड़ कर दुहाइयां दे रही थीं.

एक लुटेरे ने कहा, ‘‘पूरे गहने उतार दो वरना सभी मारे जाओगे.’’

हम ने हाथ जोड़ कर श्रीमतीजी से कहा, ‘‘दे दो वरना जान से हाथ धोना पड़ेगा.’’

‘‘मैं नहीं देती,’’ कह कर वे जिद पर अड़ गईं.

एक लुटेरा थोड़ा शरीफ था. उस ने कहा, ‘‘मैं बालब्रह्मचारी हूं, महिलाओं को हाथ नहीं लगाता, इसलिए भाभीजी जल्दी से सभी गहने दे दो वरना आज अभी मेरा ब्रह्मचर्य व्रत टूट जाएगा.’’

उस की धमकी से हमारे माथे पर पसीना आ गया. एक ने मेरी सासूजी की गरदन पर चाकू लगा दिया. अब तो श्रीमतीजी बुक्का फाड़ कर रोने लगीं. हम मन ही मन खुश हुए. सासूजी थरथर कांपने लगीं.

एक सज्जन लुटेरे ने चीख कर श्रीमतीजी से कहा, ‘‘चुप…चुप…चुप… वरना एक सैकंड में गरदन अलग कर दूंगा.’’

श्रीमतीजी ने घबरा कर रोना बंद कर दिया. हम ने लुटेरों के हाथ जोड़े और फिर श्रीमतीजी के अंगों से गहने उतारउतार कर उन्हें दे दिए.

लुटेरे गहने ले कर तुरंत भाग निकले. उन के जाते ही दोनों मांबेटी विलाप करने लगीं.

अगली सुबह हम ने रिपोर्ट लिखाने की सोची, लेकिन शर्म के मारे चुप रह गए.

सासूजी ने कहा, ‘‘दामादजी, थाने में रिपोर्ट लिखवाओ.’’

श्रीमतीजी ने भी उन की हां मिलाई. तब हम ने उन्हें समझाया, ‘‘भाग्यवान, अगर हम पुलिस में रिपोर्ट करेंगे तो वह पहला सवाल यही करेगी कि आधा किलोग्राम सोना खरीदने के लिए तुम्हारे पास इतने रुपए कहां से आए?’’

इस प्रश्न से दोनों संतुष्ट तो हुईं, लेकिन लाखों का माल जाने का भारी दुख भी था. पूरे घर में मातम था. हम किसी से कह भी नहीं सकते थे. हमारी श्रीमतीजी खुद को कोस रही थीं कि क्यों वे हमारे पीछे पड़ीं और उधारी में इतने गहने खरीदवाए… अब मकान की किस्तें देंगे या गोल्ड की?

हमारा भी मुंह उतरा हुआ था. लेकिन हम किस से कहते? पूरा घर गम में डूबा था. आखिर इस महंगाई के जमाने में इतने गहनों की चोरी माने रखती थी. पूरे 1 सप्ताह का समय हो चुका था. घर का मातम कम ही नहीं हो रहा था.

एक दिन हम ने सासूजी और श्रीमतीजी से कहा, ‘‘हमें आप से कुछ कहना है.’’

‘‘अब रहने दीजिए अपना भाषण… हमें कुछ नहीं सुनना है,’’ मांबेटी दोनों एक स्वर में बोलीं.

हम चुपचाप घूमते पंखे को देखते रहे और फिर पता ही नहीं चला कि कब नींद आ गई.

श्रीमतीजी की जोर की चीख को सुन कर हमारी नींद खुली. सुबह हो चुकी थी. हम घबरा कर उठे तो पांव में लुंगी फंस गई. हम गिरतेगिरते बचे. बाहर जा कर देखा तो बरामदे की दीवार के पास मेरी सासूजी और श्रीमतीजी ऐसे खड़ी थीं मानों कोई छिपा हुआ बम देख लिया हो. हम भी वहां पहुंच गए. देखा एक थैली में गुम हो चुके जेवर पड़े थे. सासूजी बारबार ईश्वर को धन्यवाद दे रही थीं.

श्रीमतीजी ने कहा, ‘‘मैं ने भगवान से मन्नत मांगी थी. उसी के चलते गहने मिले हैं.’’

हम चुप रहे. दोनों ने गहनों को गिना. 1 भी गहना कम नहीं था. श्रीमतीजी ने कहा, ‘‘चोरों को प्रायश्चित्त हुआ होगा. तभी तो उन्होंने सभी गहने वापस कर दिए.’’

हम खुश थे. पूरे घर में खुशी लौट आई थी. तभी श्रीमतीजी पुन: चौंकीं. एक पत्र भी उस थैली में था अत: पत्र खोल कर पढ़ने लगीं. लिखा था, ‘‘शर्म नहीं आती लुटेरों के साथ ठगी करते हुए. डूब मरो… सब के सब गहने नकली हैं. केवल सोने की पौलिश किए गहने पहनते हो?’’

पत्र पढ़ कर श्रीमतीजी ने हमारी ओर देखा, फिर सासूजी ने भी अपनी गरदन हमारी ओर मोड़ी. हम ने स्वयं को संयत कर के कहा, ‘‘यही तो हम आप को रात में बताने वाले थे कि वे नकली जेवर थे. आप लोग दुख मत मनाओ, लेकिन आप ने कहां सुनी…’’

श्रीमतीजी ने हमारे बेबस चेहरे को देखा और फिर अपनी मम्मी से कहा, ‘‘अगर ये नकली गहने मुझ पर नहीं होते तो मम्मीजी वे असली ले जाते… इन के चलते असली गहने बच गए.’’

‘‘हां, ठीक कह रही हो,’’ सासूजी ने कहा.

‘‘हम तुम्हें खुश देखना चाहते थे और अपनी ईमानदारी भी छोड़ना नहीं चाहते थे, इसलिए पूरे 5 हजार खर्च कर के गोल्ड पौलिश वाले गहने लाया था.’’

‘‘5 हजार गए तो गए, कम से कम 50 हजार के गहने तो बच गए…’’ वाकई आप बहुत समझदार हो,’’ श्रीमतीजी ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘बेटी, दामादजी बुद्धिमान हैं तभी तो हम ने तुम्हारा विवाह इन से किया,’’ सासूजी ने अपनी बात रखी.

हम ने कहा, ‘‘प्लीज, अब ध्यान रखना. अपने गहनों का विज्ञापन मत करना. एक बार बच गए पता नहीं अगली बार…’’ अपनी बात अधूरी छोड़ कर हम चुप हो गए.

‘‘दामादजी, आज ही बैंक के लौकर रख आएंगे, पहन कर नकली ही निकलेंगे,’’ सासूजी ने हंसते हुए कहा.

उस दिन से ले कर आज तक हमारे घर चोर नहीं आए और न ही हम ने यह बात पड़ोस में किसी से शेयर की. किसी को बता कर अपनी इज्जत का फालूदा थोड़े ही बनवाना था.

Famous Hindi Stories : दोषी कौन था – बुआ की चुप्पी का क्या कारण था

Famous Hindi Stories : मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे हमेशा चहचहाने वाली बूआ कहीं खो सी गई हैं. बातबेबात ठहाका मार कर हंसने वाली बूआ पता नहीं क्यों चुपचुप सी लग रही थीं. सौतेली बेटी के ब्याह के बाद तो उन्हें खुश होना चाहिए था, कहा करती थीं कि इस की शादी कर के तर जाऊंगी. सौतेली बेटी बूआ को सदा बोझ ही लगा करती थी. उन के जीवन में अगर कुछ कड़वाहट थी तो वह यही थी कि वे एक दुहाजू की पत्नी हैं. मगर जहां चाह वहां राह, ससुराल आते ही बूआ ने पति को उंगलियों पर नचाना शुरू कर दिया और समझाबुझा कर सौतेली बेटी को उस के ननिहाल भेज दिया. सौत की निशानी वह बच्ची ही तो थी.

जब वह चली गई तो बूआ ने चैन की सांस ली. फूफा पहलेपहल तो अपनी बेटी के लिए उदास रहे, मगर धीरेधीरे नई पत्नी के मोहपाश में सब भूल गए. बूआ कभी तीजत्योहार पर भी उसे अपने घर नहीं लाती थीं. प्रकृति ने उन की झोली में 2 बेटे डाल दिए थे. अब वे यही चाहती थीं कि पति उन्हीं में उलझे रहें, भूल से भी उन्हें सौतेली बेटी को याद नहीं करने देती थीं. सुनने में आता था कि फूफा की बेटी मेधावी छात्रा है. ननिहाल में सारा काम संभालती है. परंतु नाना की मृत्यु के बाद मामा एक दिन उसे पिता के घर छोड़ गए. 19 बरस की युवा बहन, भाइयों के गले से भी नीचे नहीं उतरी थी. पिता ने भी पितातुल्य स्वागत नहीं किया था. मुझे याद है, उस शाम मैं भी बूआ के घर पर ही था. जैसे बूआ की हंसी पर किसी ने ताला ही लगा दिया था. मैं सोचने लगा, ‘घर की बेटी का ऐसा स्वागत?’ अनमने भाव से बूआ ने उसे अंदर वाले कमरे में बिठाया और आग्नेय दृष्टि से पति को देखा, जो अखबार में मुंह छिपाए यों अनजान बन रहे थे, मानो उन्हें इस बात से कुछ भी लेनादेना न हो. पहली बार मुझे इस सत्य पर विश्वास हुआ था कि सचमुच मां के मरते ही पिता का साया भी सिर से उठ जाता है.

‘सुनो, वे लोग इसे यहां क्यों छोड़ गए, आप ने कुछ कहा था क्या?’ बूआ ने गुस्से से पति से पूछा तो किसी अपराधी की तरह हिम्मत कर के फूफाजी ने सफाई दी, ‘इस के मामा के भी तो बेटियां हैं न… अब नाना की कमाई भी तो नहीं रही. यहीं रहेगी तो क्या बुरा है? तुम्हें काम में इस की मदद मिल जाएगी.’

‘अरे, ब्याहने को लाख, 2 लाख कहां से लाओगे? अपना तो पूरा नहीं पड़ता…’ बूआ मुझ से जब भी मिलतीं, यही कहतीं, ‘अरे गौतम, तू ही बता न कोई अच्छा सा लड़का. दानदहेज नहीं देना मुझे. किसी तरह यह ससुराल चली जाए तो मैं तर जाऊं.’ संयोग से मेरे एक मित्र का चचेरा भाई बिना दहेज के शादी करना चाहता था, आननफानन रिश्ता तय हो गया और जल्दी ही शादी भी हो गई. शादी के लगभग 2 महीने बाद मैं बूआ के घर गया तो पूछा, ‘‘क्या बात है, अब क्या परेशानी है?’’

‘‘बात क्या होगी, देवीजी वापस आ गई हैं मेरे कलेजे पर मूंग दलने. मुझे क्या पता था कि वह पागल है. ससुराल वाले बिठा गए हैं, कहते हैं, पागल को अपने ही पास रखो.’’

‘‘क्या?’’ मैं स्तब्ध रह गया.

‘‘जरा अपने दोस्त से बात तो करना,’’ बूआ का स्वर कानों में पड़ा. फिर उन्होंने सौतेली बेटी को पुकारा, ‘‘गीता, जरा चाय तो लाना, गौतम आया है.’’ गीता सिर झुकाए सामने चली आई. मैं ने तब शायद उसे पहली बार नजर भर कर देखा था. पागलपन जैसी तो कोई बात नहीं लगी. मैं सोचने लगा, ‘बूआ की गृहस्थी का बोझ संभालती, भागभाग कर सब के आदेशों का पालन करती गीता आखिर पागल कहां है?’ रिश्ता मैं ने करवाया था, इसलिए एक दिन उस के पति से मिलने चला गया. पर वह तो मुझे देखते ही भड़क उठा, ‘‘यार गौतम, तुम ने मुझ से किस बात का बदला लिया है?’’

‘‘आखिर ऐसी क्या बात है उस में, अच्छीभली तो है?’’

‘‘उस ने मुझे हाथ तक नहीं लगाने दिया. उसे सजाने के लिए तो यहां नहीं लाया था. पागल लड़की…’’ ‘‘क्या बकते हो? हाथ नहीं लगाने दिया? इस का अर्थ यह तो नहीं कि वह पागल…’’

‘‘बसबस गौतम, तलाक के कागजों पर वह हस्ताक्षर कर गई है. उस की वकालत की अब कोई जरूरत नहीं है. यह शादी तो टूटी ही समझो.’’

‘‘शादीब्याह मजाक है क्या?’’

‘‘मजाक नहीं, मगर कोई तो नाता हो, जो दोनों को बांध सके. उस ने तो कभी मुझे नजर भर कर देखा तक नहीं. बर्फ की शिला जैसी ठंडी. न कोई हावभाव, न कोई उत्साह.’’

‘‘अरे, सारी उम्र सामने है, इतनी जल्दी ऐसा निर्णय मत लो. उस गरीब पर जरा तो तरस खाओ.’’ ‘‘नहीं गौतम, मुझ से अब और इंतजार नहीं होता.’’ सचमुच एक दिन वह नाता टूट गया. एक तो सौतेली और उस पर परित्यक्ता, बूआ का सारा आक्रोश उस गरीब पर ही उतरता. उस के पिता मूक बने सब देखते रहते. मैं अकसर जाता और उस की दशा पर कुढ़ता रहता. जी चाहता कि उस से कुछ बात करूं कि आखिर क्यों वह पति से निभा नहीं पाई. चंद महीनों में ही क्यों सब समाप्त हो गया? मैं उस से बात करने की कोशिश करता, मगर वह कभी मौका ही न देती. एक दिन पता चला कि उस ने किसी स्कूल में नौकरी कर ली है, पर बूआ प्रसन्न नहीं हुईं, क्योंकि अब घर का काम उन्हें करना पड़ता था.

एक शाम औफिस से आतेआते मैं बारिश में घिर गया. स्कूटर भी खराब हो गया, इसलिए उसे मैकेनिक के पास छोड़ा और पैदल ही चल दिया. पर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा, जब बसस्टैंड पर गीता को भी खड़े पाया. थोड़ी देर बाद जब अंधेरा घिर आया तो मैं ने कहा, ‘‘टैक्सी कर लेते हैं गीता, मैं तुम्हें घर छोड़ दूंगा.’’

‘‘जी नहीं, अभी बस आ जाएगी.’’

‘‘आओ न, कहीं चाय पीते हैं, उस के बाद…’’

‘‘इस की जरूरत नहीं. मैं चली जाऊंगी.’’

‘‘गीता, अंधेरा हो रहा है. अच्छा, चाय रहने दो. अब चलो मेरे साथ.’’ अनमनी सी वह टैक्सी में मेरे साथ आ बैठी. घर पहुंचने पर बूआ ने तीखी नजरों से हम दोनों को देखा. तीसरे ही दिन पता चला कि बूआ ने मेरे पिताजी के कानों में अच्छी तरह यह बात भर दी है कि अब मेरी शादी कर देनी चाहिए. साथ ही अपनी सहेली की बेटी भी सुझा दी थी. मां और पिताजी लड़की भी देख आए. मैं सब देखसुन रहा था, मगर पता नहीं क्यों, निर्णय नहीं ले पा रहा था. एक दिन बूआ के घर गया तो उन्हें ऊंचे स्वर में चीखते सुन सहम गया. ‘‘अरी, यही लच्छन वहां भी दिखाए होंगे, तभी तो वह वापस पटक गए तुझे. तेरी उम्र गुड्डेगुडि़यों से खेलने की है क्या?’’ और ‘छनाक’ की आवाज के साथ एक डब्बा मेरे पैरों के पास आ गिरा. तभी आंखों में विचित्र सा भाव लिए गीता ने डब्बा उठा लिया. असमंजस में पड़ा मैं दोनों को निहार रहा था.

‘‘इसे मत फेंको मां, इसे मत फेंको,’’ गीता ने करुण स्वर में कहा.

‘‘खबरदार, जो मुझे मां कहा. पागल कहीं की,’’ एक झटके से बूआ ने उस के हाथ से वह डब्बा झपटा और सामने गली में फेंक दिया. उसी पल एक स्कूटर डब्बे के ऊपर से गुजर गया. टूटे खिलौनों को देख कर गीता वहीं पछाड़ खा कर गिर पड़ी. यह दृश्य मेरे अस्तित्व को पूरी तरह हिला गया. किसी तरह गीता को उठा कर मैं ने बिस्तर पर लिटाया.

‘‘रहने दे इसे गौतम, आ, बाहर आ जा,’’ बूआ शायद नहीं चाहती थीं कि मैं उस के समीप रहूं. दूसरे दिन एक निश्चय मन में ले कर मैं गीता के स्कूल जा पहुंचा और जबरदस्ती उसे मनोवैज्ञानिक के पास ले गया. 2 घंटे तक वह अकेले में उस से बातें करता रहा. गीता का पूरा जीवन और उस के कड़वे अनुभव उस के सामने किताब की तरह खुल गए. जब वह वापस आई तब आंखें रोरो कर सूज चुकी थीं. मैं ने समीप जा कर जब उस के सिर पर हाथ रखा तो वह फिर से रो पड़ी. मुझ पर शायद वह कुछकुछ विश्वास करने लगी थी. मैं अपने साथ उसे खाना खिलाने रेस्तरां में ले गया. अपने सामने बिठा कर उसे खाना खिलाया. नन्ही सी बच्ची की तरह वह मेरी हर बात मानती गई. ‘‘मैं कल शाम तुम्हारे घर आऊंगा, गीता. डाक्टर ने क्या कहा, सब के सामने ही बताऊंगा. अब तुम जाओ. बूआ नाराज न हों, इसलिए यह मत बताना कि तुम मेरे साथ थीं.’’ डूबते को जैसे तिनके का सहारा मिला. गरदन झुका कर वह चली गई.

दूसरे दिन डाक्टर से मिला. गीता की पीड़ा और उस के निदान के बारे में सबकुछ जाना. बचपन से यौवन तक पीड़ा और उपेक्षा सहने के कारण वह सामान्य रूप से पनप ही न पाई थी. पति ने छूना चाहा तो चीख उठी, क्योंकि पिता के स्पर्श की भूख ज्यादा बलवान थी. बालसुलभ इच्छाएं परिपक्वता पर हावी हो रही थीं. हृदय की भूख और आयु की मांग में वह सीमारेखा नहीं खींच पाई थी. फिर मैं उस के स्कूल गया. मुझे देख वह धीमे से मुसकरा पड़ी. आधे दिन की छुट्टी दिला कर मैं उसे समुद्र किनारे ले गया. तेज धूप में एक छायादार कोना खोज लिया. अचानक मेरे हाथ में अपना हाथ देख वह सहम गई थी. ‘‘एक बात बताना गीता, क्या तुम शादी के बाद पति के साथ निभा नहीं पाईं या उस का व्यवहार अच्छा नहीं था?’’

‘‘जी…’’ उस ने गरदन झुका ली.

‘‘उस का छूना तुम्हें बुरा क्यों लगता था? वह तो तुम्हारा पति था.’’

‘‘पता नहीं,’’ वह धीरे से बोली.

‘‘मुझे अपना मित्र समझो, अपने मन की बातें सचसच बता दो. मैं चाहता हूं कि तुम्हारा घरसंसार तुम्हें वापस मिल जाए.’’ ‘‘जी,’’ एकाएक उस ने मेरे हाथ से अपना हाथ खींच लिया और अविश्वास से मुझे निहारने लगी. ‘‘तुम पागल नहीं हो, यह बात मैं अच्छी तरह जानता हूं. तुम मुझे अच्छी लगती हो, इसलिए चाहता हूं कि सदा सुखी रहो. जरा सा तुम बदलो, जरा सा तुम्हारा पति. इस तरह घर टूटने से बच जाएगा.’’ ‘‘वह इंसान, जिस ने मेरा अपमान कर मुझे पागल ही बना दिया, वह क्या मुझे मेरा घर देगा?’’

‘‘उस ने तुम्हारा अपमान क्यों किया?’’

‘‘आप ये सब जानने वाले कौन होते हैं. जो कभी मेरा था, जब वही मेरा नहीं हुआ तो आप की इतनी दया मैं क्यों स्वीकार करूं?’’ ‘‘कौन था तुम्हारा, गीता? क्या किसी और से प्यार करती थीं?’’ ‘‘नहीं,’’ वह चौंक गई, शायद उस की चोरी पकड़ी गई थी या जो वह कहना चाह रही थी, उस का अर्थ मैं नहीं समझा था. उस ने गरदन झुका ली. ‘‘मैं तुम्हारी सहायता करूंगा, गीता, मैं ने कहा न, मुझे अपना मित्र समझो.’’ ‘‘मैं जैसी हूं वैसी ही अच्छी हूं. डाक्टर ने क्या कहा, बताइए?’’ ‘‘तुम पागल नहीं हो, डाक्टर ने यही कहा है. अब आगे क्या करना है, मैं तुम से यही पूछना चाहता हूं?’’

‘‘मेरा जो होना था, हो चुका. अब कुछ नहीं होगा. चलिए, वापस चलें.’’ उसी शाम मैं गीता के पति से मिला. उसे समझाना चाहा तो वह ठठा कर हंस पड़ा, ‘‘जानते हो, एक बार उस ने क्या कहा? कहने लगी, मेरी सूरत में उसे अपने पिता की सूरत

नजर आती है. बेवकूफ लड़की, मुझे उस में कोई दिलचस्पी नहीं है और अब तो मेरी दूसरी शादी भी पक्की हो गई है.’’ मेरा अंतिम प्रयास भी विफल रहा. उस रात मैं सो नहीं सका. सुबह मां ने बूआ की बताई लड़की देखने की बात की, तब लगा कि मन में कुछ चुभ सा गया है. गीता का शिला समान अस्तित्व मस्तिष्क में उभर आया . मैं सोचने लगा, अगर मेरी शादी गीता से हो जाए तो क्या बुरा है? उस में हर गुण तो हैं. जीवन का एक कोना सूना रह जाने से वह पनप नहीं पाई तो इस में उस का क्या दोष? पति की सूरत में पिता को तलाशती रही, यह इस सत्य का एक और प्रमाण था कि उस का बचपन उस के मन में कहीं सोया पड़ा है. सौतेली मां ने पिता छीन लिया और अब वह जवानी में उस छाया को पकड़ने का प्रयास कर रही है जिस का स्वरूप ही बदल चुका है. दूसरी शाम बूआ ने मुझे बुला भेजा. मैं वहां चला तो गया परंतु गीता के लिए कुछ ले जाना नहीं भूला. फूफाजी भी सामने थे और बूआ के दोनों बेटे भी. गीता सब के लिए चाय ले आई. उस दिन वह मुझे संसार की सब से सुंदर स्त्री लगी. शायद उस के प्रति जाग उठा स्नेह मेरी आंखों में उतर आया था. ‘‘कल लड़की देखने जाएगा न, मैं खबर भिजवा दूं?’’ बूआ ने पूछा.

कुछ देर मैं हिम्मत जुटाता रहा, फिर धीरे से बोला, ‘‘मैं लड़की देख चुका हूं, बूआ.’’

‘‘अच्छा, कहां देखी? मुझे तो उन्होंने नहीं बताया.’’

‘‘तुम्हारी यह सौतेली बेटी मुझे बहुत पसंद है.’’ सामने बैठे फूफाजी अखबार झटक कर खड़े हुए, जैसे उन्हें मुझ पर या अपने कानों पर विश्वास ही न हुआ हो. बोले, ‘‘ये पागल…’’ ‘‘यह पागल नहीं है, फूफाजी. मैं इसे मनोवैज्ञानिक को दिखा चुका हूं. पागल तो आप हैं कि अपनी दूधपीती बच्ची से बाप का साया ही छीन लिया. कभी नहीं सोचा कि यह आप के लिए तड़पती होगी, कितना रोई होगी अपने पिता के लिए. नए जीवन का आरंभ कर आप ने अपने अतीत से ऐसे हाथ झटक लिया कि वह चौराहे का मजाक बन गया. किसी ने इस मासूम लड़की को पागल कह कर छोड़ दिया और किसी ने…’’ ‘‘गौतम,’’ बूआ ने चीख कर विरोध करना चाहा, मगर उस पल जैसे मैं सारा आक्रोश निकाल कर ही दम लेना चाहता था. हक्कीबक्की सी खड़ी गीता सब को यों देख रही थी, मानो मन ही मन मेरी वजह से स्वयं को अपराधी महसूस कर रही थी. ‘‘पागल तो तुम भी हो बूआ, जिस ने संतान से उस का पिता छीन लिया.’’

बूआ के दोनों बेटे मुझे यों घूर रहे थे मानो उन्हें भी मेरे शब्दों पर विश्वास न हो रहा हो. फूफाजी गरदन झुका कर बैठ गए. हाथ में पकड़ा पैकेट गीता को थमा मैं ने फिर से हिम्मत बटोरी, ‘‘फूफाजी, मैं गीता को पसंद करता हूं. आप इजाजत दे दीजिए.’  मेरी मां ने गीता का विरोध किया, मगर मेरी जिद के सामने धीरेधीरे शांत हो गईं और एक दिन गीता मेरी हो गई. लेकिन मां ने मुझे घर छोड़ देने का आदेश दे दिया. उन्होंने कहा, ‘‘क्या कुंआरी लड़कियां मर गई थीं जो तुम ने एक तलाकशुदा, पागल लड़की से शादी करने की जिद पकड़ ली.’’ शादी के 3-4 दिन बाद ही मैं नए स्थान के लिए चल पड़ा. शादी से पहले ही पूना का तबादला करा लिया था. गृहस्थी के नाम पर बस मेरे पास एक अटैची थी. इतना शुक्र था कि क्वार्टर और थोड़ाबहुत फर्नीचर औफिस की तरफ से मिल गया था. कठपुतली सी गीता मेरे साथ चली आई थी. मां नाराज थीं, इसलिए चंद बरतन तक नहीं दिए थे कि जिन में मैं एक वक्त का खाना ही बना पाता. आतेआते अग्रिम तनख्वाह लेता आया था.

गीता को घर छोड़ होटल से खाना और बाजार से जरूरत का सामान ले आया. जैसेतैसे पेट भर कर सोने की तैयारी की तो बिस्तर की समस्या आड़े आ गई. ‘‘आप यहां सो जाइए,’’ गीता ने कहा. सामने अपनी सूती साड़ी बिछा कर उस ने मेरा बिस्तर लगा दिया था. तकिया भी अपनी साड़ी को ही 5-6 मोड़ दे कर बना दिया था. मैं चुपचाप लेट गया. पर दूसरे ही क्षण खाली पलंग की ओर बढ़ती गीता का हाथ पकड़ लिया, ‘‘जो है, उसी को आधाआधा बांटना है गीतू, सुखदुख भी, रोटी भी, तो फिर बिस्तर क्यों नहीं? देखो, यह क्या है, तुम्हारा खिलौना तो वहीं छूट गया था न, यह नया लाया हूं, रबड़ का गुड्डा.’’ जैसे किसी ने उस के रिसते घाव पर हाथ रख दिया हो. वह कभी मुझे और कभी खिलौने को निहारने लगी, जैसे सपना देख रही हो.

‘‘मेरे पास आओ, गीता. सच मानो, तुम्हारी इच्छा के बिना मैं कभी कुछ नहीं मांगूंगा. आओ, यहां आओ, मेरे पास.’’ उसे अपने समीप बिठाया. उस की डबडबाई बड़ीबड़ी आंखों में देखा, ‘‘क्या सोच रही हो, गीता? मैं तुम्हें अच्छा तो लगता हूं न?’’ उस ने नजरें झुका लीं. मैं ने बढ़ कर उस का माथा चूम लिया तो वह तड़प कर मेरे गले से लिपट कर बुरी तरह रोने लगी. ‘‘यह घर तुम्हारा है गीता, मैं भी तुम्हारा हूं. जैसा तुम चाहोगी, वैसा ही होगा. मैं तुम्हारा अपमान कभी नहीं होने दूंगा. बहुत सह लिया है तुम ने. अब कोई भी इंसान तुम्हें किसी तरह की पीड़ा नहीं पहुंचाएगा.’’ सुबकतेसुबकते वह मेरी बांहों में ही सो गई. सुबह वह उठी तो मेरी तरफ एक लजीली सी मुसकान लिए देखा. नए औफिस में मेरा पहला दिन अच्छा बीता. शाम को घर आया तो मेरी तरफ 5 हजार रुपए बढ़ा कर गीता धीरे से बोली, ‘‘यही मेरी जमापूंजी है. यह अब आप की ही है. चलिए, जरूरी सामान ले आएं. मैं ने सूची बना ली है.’’ मुझे उस के हाथ से रुपए लेने में संकोच हुआ. मेरे चेहरे के भाव पढ़ कर वह आगे बढ़ी और रुपए मेरी कमीज की जेब में डाल दिए. फिर अपनी हथेली मेरे हाथ पर रख दी.

उसी दिन हम ने और जरूरी सामान खरीदा और टूटीफूटी गृहस्थी की शुरुआत की. कहां पागल थी गीता? पलपल मेरे घर को सजातीसंवारती, मेरे सुखदुख का खयाल रखती. मुझे तो यह किसी भी कोण से पागल न लगी थी. हां, शरीर अवश्य एक नहीं हो पाए थे, मगर उस के लिए मुझे जरा भी अफसोस नहीं था. वह मुझे अपना समझती थी और मेरे सामीप्य में उसे सुख मिलता था, यही बहुत था. मैं सब को यह दिखा देना चाहता था कि उन्होंने गीता को कितना गलत समझा था. विशेषरूप से उस के पूर्व पति को जिस ने मात्र चंद पलों के शारीरिक सुख के अभाव में हर सुख को ताक पर रख दिया था. गीता मुझे अपने बचपन के खट्टेमीठे अनुभव सुनाती तो मैं बूआ पर खीझ उठता. मामामामी के पास अनाथों की तरह पलतेपलते उस ने क्याक्या नहीं सहा था. सुनातेसुनाते वह कई बार रो भी पड़ती. ऐसे में उसे बांहों में भर कर धीरज बंधाता. ‘‘मेरे पिता ने कभी मुड़ कर मेरी तरफ नहीं देखा. मां के जाते ही मैं अनाथ हो गई. अगर मैं मर गई तो क्या आप मेरे बच्चों को अनाथ कर देंगे? गौतम, क्या आप भी ऐसा करेंगे?’’

एकाएक उस के प्रश्न पर मैं अवाक् रह गया. रुंधे स्वर में उस ने फिर से पूछा, ‘‘क्या आप भी ऐसा ही करेंगे?’’ ‘‘ऐसा मत सोचो, गीता. मैं तुम से प्यार करता हूं, तुम्हारा अनिष्ट कभी नहीं चाहूंगा.’’ ‘‘मैं भी अपने पिता से बहुत प्यार करती हूं, उन का अनिष्ट नहीं चाहती थी, इसलिए कभी उन के पास नहीं आई. मां मुझे पसंद नहीं करतीं. मेरी वजह से उन की गृहस्थी में दरार न पड़े, ऐसा ही सोच सदा अपनी इच्छा मारती रही. लेकिन जब भी आप मेरी तरफ हाथ बढ़ाते हैं तो मेरी इच्छा एकाएक जी सी उठती है.’’ ‘‘मैं तुम्हारी इच्छा का सम्मान करता हूं, गीता. मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है,’’ उस के गाल थपक कर मैं हंस पड़ा. मैं स्वयं हैरान था कि कैसे एक ही रिश्ते में बंधे हुए 2-2 नातों को निभा रहा हूं. मेरे सामीप्य में उस की हर

अतृप्त इच्छा शांत हो रही थी. कभी खिलौने के लिए होशोहवास खो बैठने वाली गीता अब मेरे लिए पागल रहने लगी थी. एक शाम उस ने पूछा, ‘‘आप भी कहीं मेरे पिता की तरह मुझ से आंखें तो नहीं फेर लेंगे? मुझ से मन तो नहीं भर जाएगा?’’ मैं हतप्रभ रह गया. गीता आगे बोली, ‘‘मैं आप की हर स्वाभाविक इच्छा को मार रही हूं. कैसे निभ पाएगा हमारा साथ? अपने पिता के सिवा मुझे कुछ भी नहीं सूझता. आप भी, आप भी पिता जैसे लगते हैं. मैं कुछ और सोचना चाहती हूं, मगर कैसे सोचूं?’’ स्नेह से पास बिठा मैं ने उसे चूमा तो मुझे उस का माथा कुछ गरम लगा, ‘‘तबीयत ठीक नहीं है क्या? मैं अभी दवा ले कर आता हूं.’’

‘‘आप मेरे पास रहिए,’’ गीता ने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया. उस ने मुझे जाने नहीं दिया. काफी देर तक पास बैठा उस का सिर सहलाता रहा. हमारी शादी को लगभग 4 महीने हो गए थे. इस अंतराल में मैं ने यह महसूस कर लिया था कि गीता मेरे जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुकी है. एक दिन उस ने कहा, ‘‘कहीं मैं सचमुच तो पागल नहीं हूं? शायद यही सच हो.’’ ‘‘नहीं, तुम पागल नहीं हो, मैं कहता हूं न,’’ मैं ने दुलार कर उसे शांत कर दिया और उसी रात एक निश्चय ले लिया. दूसरी सुबह फूफाजी को गीता की बीमारी का झूठा तार दे दिया. सोचा, शायद बेटी का मोह उन्हें खींच लाए. तार देने के बाद मैं 2-3 दिन उन का इंतजार करता रहा. रहरह कर रोना आ जाता कि बेचारी गीता का ऐसा अनादर… तीसरे दिन मैं ने एक और तार दे दिया. उस का भी इंतजार किया, मगर कोई भी न आया. इसी तरह एक सप्ताह बीत गया. एक रात मैं बेहद बेचैन रहा. बारबार करवटें बदलता रहा, रहरह कर हर आहट पर उठ बैठता कि शायद मेरी गीता का हालचाल पूछने कोई आ रहा हो.

मैं सोचने लगा कि वे पिता हैं, पुरुष हैं, इतने मजबूर तो नहीं कि बेटी से चाह कर भी न मिल पाएं. आखिर क्यों वे इतने कठोर हो गए? उन दिनों मेरी हालत विचित्र सी हो गई थी. सुबह उठते ही मैं घर से निकल गया. मन में आ रहा था एक बार मुंबई जाऊं और फूफाजी को घसीट कर ले आऊं. स्टेशन पर गया, टिकट खरीदा. गाड़ी में बैठ गया, मगर पहले ही स्टेशन पर उतर गया. सोचा, क्यों जाऊं उन के पास? भटकभटक कर जब थक गया तो घर लौट आया.

‘‘कहां चले गए थे आप, सुबह से भूखेप्यासे?’’ गीता का घबराया स्वर कानों में पड़ा तो जैसे होश आया. मैं चुप ही रहा. नहाधो कर नाश्ता किया. गीता के अपमान पर बहुत गुस्सा आ रहा था. रात को मैं ने गीता को पास बुलाया, पर वह नीचे जमीन पर ही लेटी रही. तब स्वयं ही उठ कर नीचे चला आया और स्नेह से सहला दिया, ‘‘क्यों गीतू, मुझ से नाराज हो?’’ वह न जाने कब से रो रही थी. मैं अवाक् रह गया और उसे अपनी गोद में खींच लिया. ‘‘किसी ने कुछ कह दिया, गीता? क्या हुआ, रो क्यों रही हो?’’ अनायास ही उस के हाथों को पकड़ा तो कागज का एक मुड़ातुड़ा टुकड़ा मेरे हाथ में आ गया. उस के पिता को भेजे गए तार की वह रसीद थी.

‘‘आप ने पिताजी को तार क्यों भेजा? क्या मुझे वापस भेजना…?’’

‘‘नहीं गीता, पागल हो गई हो क्या?’’ एक झटके से उसे बांहों में भींच लिया. उस के भीगे चेहरे पर स्नेह चुंबन जड़ते हुए मुश्किल से मैं बोल पाया, ‘‘तुम्हें वापस भेज दूंगा, तुम ने यह कैसे सोच लिया?’’ फिर मैं उसे अपने पास बिस्तर पर ले आया और जबरदस्ती उस का चेहरा सामने किया, ‘‘तुम्हारे लिए सब को छोड़ दिया है गीता, भला तुम्हें…’’

‘‘तो आप ने उन्हें तार क्यों भेजा?’’ उस के मासूम प्रश्न का मैं ने उत्तर दे दिया. सब साफसाफ बताया तो वह तड़प उठी, क्योंकि उस की बीमारी की बात सुन कर भी पिता के सब्र का प्याला छलका नहीं था. मेरी छाती में समाई वह देर तक सुबकती रही. अपने प्रति अनायास झलक आए अविश्वास ने उस रात अनजाने ही मेरे शरीर की ऊष्मा को भड़का दिया था. मैं उसे कितना चाहता हूं, यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न करने लगा. मैं ने उसे यह एहसास भी दिलाना चाहा कि वह मेरे ही शरीर का एक अभिन्न अंग है. अपने अनछुए, अनकहे भाव रोमरोम से फूटते प्रतीत होने लगे. उन्हीं क्षणों में मेरे सीने में समाईसमाई वह मेरे अस्तित्व में भी कब समा गई, पता ही न चला. वे चंद क्षण आए और हमें पतिपत्नी बना कर चले गए. गीता मुझे एकदम नईनई सी लगने लगी थी. उस रात हम दोनों ने पहली बार महसूस किया कि शारीरिक सुख क्या होता है. यह मेरी विजय ही तो थी कि गीता अपनी कुंठाओं से मुक्त हो कर अभिसारिका बन गई थी. उस के मन की डगर से होता हुआ मैं उस के तन तक जा पहुंचा था.

फिर एक दिन मुझे पता चला कि मैं पिता बनने जा रहा हूं. मैं ने कहा, ‘‘मुझे प्यारी सी तुम्हारी जैसी बेटी चाहिए गीता, मैं उस से बहुत प्यार करूंगा.’’ लेकिन मेरा हर्ष और उत्साह एकाएक ठंडा पड़ गया, जब शून्य में निहारते हुए वह बोली, ‘‘प्यारव्यार सब धरा रह जाएगा. मैं मर गई तो आप भी उस से ऐसे ही आंखें फेर लेंगे, जैसे पिताजी ने मुझ से.’’

‘‘नहीं गीता, ऐसा नहीं सोचते.’’

Moral Stories in Hindi : प्रहरी – क्या समझ पाई सुषमा

Moral Stories in Hindi :  विभा रसोई में भरवां भिंडी और अरहर की दाल बनाने की तैयारी कर रही थी. भरवां भिंडी उस के बेटे तपन को पसंद थी और अरहर की दाल की शौकीन उस की बहू सुषमा थी. इसीलिए सुषमा के लाख मना करने पर भी वह रसोई में आ ही गई. सुषमा और तपन को अपने एक मित्र के बेटे के जन्मदिन की पार्टी में जाना था और उस के लिए उपहार भी खरीदना था. सो, दोनों घर से जल्दी निकल पड़े. जातेजाते सुषमा बोली, ‘‘मांजी, ज्यादा काम मत कीजिए, थोड़ा आराम भी कीजिए.’’

विभा ने मुसकरा कर सिर हिला दिया और उन के जाते ही दरवाजा बंद कर दोबारा अपने काम में लग गई. जल्दी ही उस ने सबकुछ बना लिया. दाल में छौंकभर लगाना बाकी था. कुछ थकान महसूस हुई तो उस ने कौफी बनाने के लिए पानी उबलने रख दिया. तभी दरवाजे की घंटी बजी. जैसे ही विभा ने दरवाजा खोला, सुषमा आंधी की तरह अंदर घुसी और सीधे अपने शयनकक्ष में जा कर दरवाजा अंदर से बंद कर लिया. विभा अवाक खड़ी देखती ही रह गई.

सिर झुकाए धीमी चाल से चलता तपन भी पीछेपीछे आया. उस का भावविहीन चेहरा देख कुछ भी अंदाजा लगाना कठिन था. विभा पिछले महीने ही तो यहां आई थी. किंतु इस दौरान में ही बेटेबहू के बीच चल रही तनातनी का अंदाजा उसे कुछकुछ हो गया था. फिर भी जब तक बेटा अपने मुंह से ही कुछ न बताए, उस का बीच में दखल देना ठीक न था. जमाने की बदली हवा वह बहुत देख चुकी थी. फिर भी न जाने क्यों इस समय उस का मन न माना और वह सोफे पर बैठे, सिगरेट फूंक रहे तपन के पास जा बैठी.

तपन ने सिगरेट बुझा दी तो विभा ने पूछा, ‘‘सुषमा को क्या हुआ है?’’ ‘‘कुछ भी नहीं,’’ वह झल्ला कर बोला, ‘‘कोई नई बात तो है नहीं…’’

‘‘वह तो मैं देख ही रही हूं, इसीलिए आज पूछ बैठी. यह रोजरोज की खींचतान अच्छी नहीं बेटा, अभी तुम्हारे विवाह को समय ही कितना हुआ है? अभी से दांपत्य जीवन में दरार पड़ जाएगी तो आगे क्या होगा?’’ विभा चिंतित सी बोली.

‘‘यह सब तुम मुझे समझाने के बजाय उसे क्यों नहीं समझातीं मां?’’ कह कर तपन उठ कर बाहर चला गया, जातेजाते क्रोध में दरवाजा भी जोर से ही बंद किया. विभा परेशान हो उठी कि तपन को क्या होता जा रहा है? बड़ी मुश्किल से तो वे लोग उस की रुचि के अनुसार लड़की ढूंढ़ पाए थे. उस ने तमाम गुणों की लिस्ट बना दी थी कि लड़की सुंदर हो, खूब पढ़ीलिखी हो, घर भी संभाल सके और उस के साथ ऊंची सोसाइटी में उठबैठ भी सके, फूहड़पन बिलकुल न हो आदिआदि.

कुछ सोचते हुए विभा फिर रसोई में चली गई. कौफी का पानी खौल चुका था. उस ने 3 प्यालों में कौफी बना ली. बाथरूम में पानी गिरने की आवाज से वह समझ गई कि सुषमा मुंह धो रही होगी, सो, उस ने आवाज लगाई, ‘‘सुषमा आओ, कौफी पी लो.’’ ‘‘आई मांजी,’’ और सुषमा मुंह पोंछतेपोंछते ही बाहर आ गई.

कौफी का कप उसे पकड़ाते विभा ने उस की सूजी आंखें देखीं तो पूछा, ‘‘क्या हुआ था, बेटी?’’ सुषमा सोचने लगी, पिछले पूरे एक महीने से मां उस के व तपन के झगड़ों में हमेशा खामोश ही रहीं. कभीकभी सुषमा को क्रोध भी आता था कि क्या मां को तपन से यह कहना नहीं चाहिए कि इस तरह अपनी पत्नी से झगड़ना उचित नहीं?

‘‘बताओ न बेटी, क्या बात है?’’ विभा का प्यारभरा स्वर दोबारा कानों में गूंजा तो सुषमा की आंखें छलछला उठीं, वह धीरे से बोली, ‘‘बात सिर्फ यह है कि इन्हें मुझ पर विश्वास नहीं है.’’ ‘‘यह कैसी बात कर रही हो?’’ विभा बेचैनी से बोली, ‘‘पति अपनी पत्नी पर विश्वास न करे, यह कभी हो सकता है भला?’’

‘‘यह आप उन से क्यों नहीं पूछतीं, जो भरी पार्टी में किसी दूसरे पुरुष से मुझे बातें करते देख कर ही बौखला उठते हैं और फिर किसी न किसी बहाने से बीच पार्टी से ही मुझे उठा कर ले आते हैं, भले ही मैं आना न चाहूं. मैं क्या बच्ची हूं, जो अपना भलाबुरा नहीं समझती?’’ विभा की समझ में बहुतकुछ आ रहा था. तसवीर का एक रुख साफ हो चुका था.अपनी सुंदर पत्नी पर अपना अधिकार जमाए रखने की धुन में पति का अहं पत्नी के अहं से टकरा रहा था. वह प्यार से बोली, ‘‘अच्छा, तुम कौफी पियो, ठंडी हो रही है. मैं तपन को समझाऊंगी,?’’ यह कह कर विभा रसोई में चली गई. कुकर का ढक्कन खोल दाल छौंकी तो उस की महक पूरे घर में फैल गई. तभी तपन भी अंदर आया और बिना किसी से कुछ बोले कौफी का कप रसोई से उठा कर अंदर कमरे में चला गया.

रात को जब तीनों खाना खाने बैठे, तब भी तपन का मूड ठीक नहीं था. इधर सुषमा भी अकड़ी हुई थी. वह डब्बे से रोटी निकाल कर अपनी व विभा की प्लेट में तो रखती, लेकिन तपन के आगे डब्बा ही खिसका देती. एकाध बार तो विभा चुप रही, फिर बोली, ‘‘बेटी, तपन की प्लेट में भी रोटी निकाल कर रखो.’’ इस पर सुषमा ने रोटी निकाल कर पहले तपन की प्लेट में रखी तो उस का तना हुआ चेहरा कुछ ढीला पड़ा.

खाने के बाद विभा रोज कुछ देर घर के सामने ही टहलती थी. सुषमा या तपन में से कोई एक उस के साथ हो लेता था. उन दोनों ने उसे यहां बुलाया था और दोनों चाहते थे कि जितने दिन विभा वहां रहे, उस का पूरा ध्यान रखा जाए. इसीलिए जब विभा ने बाहर जाने के लिए दरवाजा खोला तो पांव में चप्पल डाल कर तपन भी साथ हो लिया.

कुछ दूर तक मौन चलते रहने के बाद विभा ने पूछा, ‘‘सुषमा को क्या तुम पार्टी से जबरदस्ती जल्दी ले आए थे?’’ ‘‘मां, अच्छेबुरे लोग सभी जगह होते हैं. सुषमा जिस व्यक्ति के साथ बातें किए जा रही थी उस के बारे में दफ्तर में किसी की भी राय अच्छी नहीं है. दफ्तर में काम करने वाली हर लड़की उस से कतराती है. अब ऐसे में सुषमा का इतनी देर तक उस के साथ रहना…और ऊपर से वह नालायक भी ‘भाभीजी, भाभीजी’ करता उस के आगेपीछे ही लगा रहा, क्योंकि कोई और लड़की उसे लिफ्ट ही नहीं दे रही

‘‘मां, अब तुम ही बताओ, मेरे पास और क्या उपाय था, सिवा इस के कि मैं उसे वहां से वापस ले आता. उसे खुद भी तो अक्ल होनी चाहिए कि ऐसेवैसों को ज्यादा मुंह न लगाया करे. किसी भी बहाने से वह उस के पास से हट जाती तो भला मैं पार्टी बीच में छोड़ कर उसे जल्दी क्यों लाता?’’ तपन के स्वर में कुछ लाचारी थी, तो कुछ नाराजगी. विभा मन ही मन मुसकराई कि सुंदर पत्नी की चाह सभी को होती है, किंतु कभीकभी खूबसूरती भी सिरदर्द बन जाती है. वह बोली, ‘‘चलो छोड़ो, जाने दो. धीरेधीरे समझ जाएगी. तुम ही थोड़ा सब्र से काम लो,’’ और विभा घर की ओर पलट पड़ी.

विभा की सारी रात करवटें बदलते बीती. बेटा मानो उस के पति का ही प्रतिरूप बन सामने आ खड़ा हुआ था. अपने विवाह के तुरंत बाद के दिन विभा की बंद आंखों में किसी चलचित्र की भांति उभर आए. किसी भी पार्टी में जाने पर अपने पति सत्येंद्र का अपनी सुंदर पत्नी के चारों ओर मानो एक घेरा सा डाले रखना उसे भूला न था. कभीकभी सत्येंद्र के मित्रों की पत्नियां विभा को चिढ़ातीं तो उसे पति के इस व्यवहार पर क्रोध भी आता, किंतु उन के खिलाफ बोलना उस के स्वभाव में न था. सो, चुप रह जाती. युवावस्था के उन मादक, मधुर दिनों की यादें विभा के दिल को झकझोरने लगीं. कैसे थे वे मोहक दिन, जब दफ्तर से छूटते ही सत्येंद्र इस तरह घर भागते, जैसे किसी कैदखाने से छूटे हों. दोस्तों के व्यंग्यबाणों को वे सिर के ऊपर से ही निकल जाने देते. पहले दफ्तर के बाद लगभग रोज ही कौफी हाउस में दोस्तों के साथ एक प्याला कौफी जरूर पीते थे, तब कहीं घर आते थे, किंतु शादी के बाद तो जैसे दफ्तर का समय ही काटे न कटता था.

शाम के बाद भला सत्येंद्र कहां रुकने वाले थे. दोस्तों के हंसने की जरा भी परवा किए बिना अपनी छोटी सी पुरानी गाड़ी में बैठ कर सीधे घर भागते. लेकिन दोस्त भी कच्चे खिलाड़ी न थे. कभीकभी दोचार इकट्ठे मिल कर मोरचा बांध लेते और उन से पहले ही उन की गाड़ी के पास आ खड़े होते. तभी कोई कहता, ‘यार, बोर हो गए कौफी हाउस की कौफी पीपी कर. आज तो भाभीजी के हाथ की कौफी पीनी है.’ इस से पहले कि सत्येंद्र हां या ना कहें, सब के सब गाड़ी में चढ़ कर बैठ जाते.

इधर विभा रोज ही शाम को पति के आने के समय विशेषरूप से बनसंवर कर तैयार रहती थी. यह उस की मां का दिया मंत्र था कि दिनभर के थकेहारे पति की आधी थकान तो पत्नी का मोहक मुसकराता मुखड़ा देख कर ही उतर जाती है. किंतु जब सत्येंद्र मित्रों को लिए घर पहुंचता और वे

सब उस की सुंदर सजीधजी पत्नी को ‘भाभीजी, भाभीजी’ कह कर घेर लेते तो वह अलगथलग कुरसी पर जा बैठता.

मित्र भी तो कम शरारती न थे, सत्येंद्र के मनोभावों को समझ कर भी अनजान बने रहते. उधर विभा उन सब के सामने बढि़या नाश्ता रख कर, कौफी बना कर स्नेह से उन्हें खिलातीपिलाती. यह सब देख सत्येंद्र और कुढ़ जाता. विभा स्थिति की नजाकत समझती थी और अब तक वह सत्येंद्र के स्वभाव को अच्छी तरह जान भी चुकी थी, इसलिए वह उस के मित्रों को जल्दीजल्दी खिलापिला कर विदा करने की कोशिश करती. मित्रों के जाते ही सत्येंद्र पत्नी पर बरसते, ‘क्या जरूरत थी उन सब की इतनी आवभगत करने की? तुम थोड़ा रूखा व्यवहार करोगी तो खुद ही आना छोड़ देंगे. लेकिन तुम तो उन के सामने मक्खनमलाई हो जाती हो, वाहवाही लूटने का शौक जो है.’

सत्येंद्र की कटु आलोचना सुन कर विभा की आंखें भर आतीं, किंतु उस में गजब का धैर्य था. वह अच्छी तरह जानती थी कि इस स्थिति में वह उसे कुछ भी समझा नहीं पाएगी. वह चुपचाप रात के खाने की तैयारी में लग जाती. सत्येंद्र की मनपसंद चीजें बनाती और फिर भोजन निबटने के बाद रात में जब खुश व संतुष्ट पति की बांहों में होती तो उसे समझाने की कोशिश करते हुए पूछती, ‘अच्छा, बताओ तो, क्या तुम सचमुच ही अपने मित्रों का यहां

आना पसंद नहीं करते? मैं तो उन की खातिरदारी सिर्फ इसलिए करती हूं कि वे औफिस में तुम्हारे साथ काम करते हैं. उन के साथ तुम्हारा दिनभर का उठनाबैठना होता है, वरना मुझे उन की खातिरदारी करने की क्या पड़ी है? यदि तुम्हें ही पसंद नहीं, तो फिर अगली बार से उन्हें केवल चाय पिला कर ही टरका दूंगी.’ ‘अरे, नहींनहीं,’ सत्येंद्र और भी कस कर उसे अपनी बांहों में जकड़ लेते, ‘यह ठीक नहीं होगा. सच तो यह है कि जब वे सब दफ्तर में तुम्हारी इतनी तारीफ करते हैं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है. लेकिन क्या करूं, दिनभर के इंतजार के बाद जब शाम को तुम मुझे मिलती हो तो फिर बीच में कोई अड़ंगा मैं सहन नहीं कर सकता.’

‘कैसा अड़ंगा भला?’ उस के सीने में मुंह छिपाए विभा मीठे स्वर में कहती, ‘मैं तो सदा ही केवल तुम्हारी हूं, पूरी तरह तुम्हारी. तुम्हारे इन मित्रों की बचकानी हरकतें तो मेरे लिए तुम्हारे छोटे भाइयों की कमी पूरी करती हैं. अकसर सोचती हूं कि यदि तुम्हारे छोटे भाई होते तो वे यों ही ‘भाभीभाभी’ कह कर मुझे घेरे रहते. यही समझो कि तुम्हारे मित्रों द्वारा मेरे दिल की यही कमी पूरी होती है.’ ‘चलो, फिर ठीक है, अब बुरा नहीं मानूंगा. भूल जाओ सब.’

फिर धीरेधीरे सत्येंद्र इस सच को समझते गए कि घर आए मेहमान की उपेक्षा करना ठीक नहीं और अब विभा का अपने मित्रों से बातचीत करना, उन की खातिरदारी करना उन्हें बुरा नहीं लगता था. बदलते समय के साथ फिर तो बहुतकुछ बदलता गया. दोनों के जीवन में बच्चों के जन्म से ले कर उन के विवाह तक न जाने कितने उतारचढ़ाव आए. जिन्हें दोनों ने एकसाथ झेला. फिर कभी एक पल को भी सत्येंद्र का विश्वास न डगमगाया.

विभा की आंख जब लगी, तब शायद सुबह हो चुकी थी, क्योंकि फिर वह सुबह देर तक सोई रही. किंतु उस दिन शनिवार होने के कारण तपन की छुट्टी थी, सो, किसी काम की कोई जल्दी न थी. मुंह धो कर जब विभा रसोई में पहुंची तो सुषमा चाय बना चुकी थी. उसे देखते ही चिंतित सी बोली, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, वह तो ठीक है,’’ विभा ने कहा, ‘‘रात नींद ही बड़ी देर से आई.’’ सादगी से कही उस की इस बात पर तपन और सुषमा दोनों ही सोच में डूब गए. वे दोनों जानते थे कि उन के आपसी झगड़ों से मां का दिल दुखी हो उठता है और मुंह से कुछ भी न कह कर वे उस दुख को चुपचाप सह लेती हैं.

सुषमा के हाथ से कप ले कर विभा खामोशी से चाय पीने लगी. तपन पास आ कर बैठते हुए बोला, ‘‘चलो मां, तुम्हें कहीं घुमा लाते हैं.’’ ‘‘कहां चलना चाहते हो?’’ विभा ने हलके से हंस कर पूछा तो तपन और सुषमा दोनों के चेहरे चमक उठे.

‘‘चलो मां, किसी अच्छे गार्डन में चलते हैं. सुषमा थर्मस में चाय डाल लेगी और थोड़े सैंडविच भी बना लेगी, क्यों, ठीक है न?’’ ‘‘हांहां,’’ कहते हुए सुषमा ने जब तपन की ओर देखा तो उस नजर में उन दोनों के बीच हुए समझौते की झलक थी. विभा का चिंतित मन यह देख खुश हो गया.

नवंबर की धूप में गार्डन फूलों से लहलहा रहा था. शनिवार की छुट्टी होने के कारण अपने छोटे बच्चों को साथ ले कर आए बहुत से युवा जोड़े वहां घूम रहे थे. दिल्ली शहर के छोटे मकानों में रहने वाले मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चे खुली हवा के लिए तरसते रहते हैं. अब इस समय यहां मैदान में बड़ी ही मस्ती से होहल्ला मचाते एकदूसरे के पीछे भाग रहे थे. बच्चों की इस खुशी का रंग उन के मातापिता के चेहरों पर भी झलक रहा था.

विभा का मन भी यहां की रौनक में डूब कर हलका हो उठा. सब से बड़ी बात तो यह थी कि तपन और सुषमा के बीच कल वाला तनाव खत्म हो गया था और वे दोनों सहज हो कर आपस में बातें कर रहे थे. एक तरफ पेड़ की छाया में साफ जगह देख कर सुषमा ने दरी बिछा दी. ठंडी बयार में फूलों की महक घुली थी. विभा को यह सब आनंद दे रहा था. दरी पर बैठी वह मन ही मन सोच रही थी कि आने वाले दिनों में शायद तपन और सुषमा भी जब यहां आएंगे तो नन्हें हाथ उन की उंगलियां थामे होंगे. यह सोच कर विभा का दिल एक सुखद एहसास से भीग उठा. अचानक सुषमा की आवाज से उस की विचारशृंखला टूटी, ‘‘मांजी, यह चाय ले लीजिए.’’

अचानक तपन बोला, ‘‘सुषमा, वह देखो, उधर शंकर और सविता बैठे हैं. चलो, मिल कर आते हैं.’’ किंतु सुषमा बोली, ‘तुम हो आओ, मैं यहां मांजी के साथ ही बैठूंगी.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर तपन उधर चला गया. विभा ने एक गहरी नजर सुषमा पर डाली, जो घुटनों पर सिर रखे चुप बैठी थी. चाय पी कर गिलास नीचे रखते ही विभा उस के पास खिसक आई और पूछा, ‘‘तुम गई क्यों नहीं? शायद उस के दफ्तर का कोई दोस्त है.’’

‘‘क्या फायदा मांजी, फिर झगड़ाझंझट करेंगे. अब आप ही बताइए, इन के मित्र मुझ से बात करें तो क्या मैं अशिष्ट बन जाऊं? उन के साथ हंस कर बात करूं तो ये नाराज, और न करूं तो वे लोग बुरा मानेंगे. मैं तो बीच में फंस जाती हूं न. अब तो मैं इन के साथ पार्टियों में जाना भी बंद कर दूंगी, घर पर ही ठीक हूं,’’ सुषमा थोड़ा तल्खी से बोली.

विभा कुछ देर उस के खूबसूरत चेहरे को देखती रही जहां एक आहत सी अहं भावना की परछाईं थी. फिर कुछ सोच कर समझाते हुए बोली, ‘‘तपन तुम्हें बहुत चाहता है, इसी से उस में तुम्हारे प्रति यह भावना है. पति के दिल की एकछत्र स्वामिनी होना तो बड़े गर्व की बात है.’’

‘‘वह तो ठीक है,’’ सुषमा का चेहरा शर्म से लाल हो गया, ‘‘किंतु जब औरों को देखती हूं तो लगता है कि उन्हें इस बात की चिंता ही नहीं कि उन की पत्नियां कहां, किस से बातें कर रही हैं.’’ ‘‘तब तो तुम यह भी देखती होगी कि वही लोग कभीकभी शराब के नशे में डूबे उन से गलत व्यवहार भी करते होंगे?’’

‘‘यह सब तो कभीकभी चलता है, इन पार्टियों में सभी तरह के लोग होते हैं.’’

‘‘तो फिर अब इस बात को भी समझो कि तुम्हारे साथ किसी का गलत व्यवहार तपन को कभी सहन न होगा. विवाहित जीवन में पति का अंकुश पत्नी पर और पत्नी का अंकुश पति पर होना बहुत जरूरी है. यही एक सफल दांपत्य जीवन का मंत्र है, जहां पतिपत्नी दोनों एकदूसरे को गलत कामों के लिए टोक सकते हैं, एकदूसरे को सही राह दिखा सकते हैं. किंतु इस के लिए विश्वास की मजबूत नींव जरूरी है, जिस में एकदूसरे के इस टोकने को गलत न समझा जाए, बल्कि उस के मूल में छिपी सही विचारधारा को समझा जाए, सुषमा, इस अधिकार को एक का दूसरे पर शासन मत समझो बल्कि एक की दूसरे के प्रति अतिशय प्रेम की अभिव्यक्ति समझो. ‘‘यदि तुम्हें वह सदैव अपनी नजरों के सामने रखना चाहता है तो यह तुम्हारा बहुत बड़ा सम्मान है. पति जिस स्त्री का सम्मान करता है, उस का सम्मान सारी दुनिया करती है, इसे हमेशा याद रखना.’’

इतना सबकुछ एक सांस में ही कह चुकने के बाद विभा खामोश हो गई. उस की बातें बड़े गौर से सुनती सुषमा के सामने विवाहिता जीवन का एक नया ही रहस्य खुला था कि आज के इस नारीमुक्ति युग में पति का पत्नी पर अपना अधिकार साबित करना कोई अमानवीय काम नहीं बल्कि उस के अखंड प्रेम का संकेत है.

सुषमा सोचने लगी कि न जाने उस की कितनी सहेलियां अकेली घूमतीफिरती हैं, अकेली ही पार्टियों में भी जाती हैं. किंतु सच तो यह है कि सुषमा को उन पर बड़ी दया आती है, क्योेंकि अकसर ही उन्हें किसी न किसी पुरुष के गलत व्यवहार का शिकार होना पड़ता है, जिस से उन को बचाने वाला वहां कोई नहीं होता. लेकिन उस के साथ तो उलटा ही है, किसी की टेढ़ी तो क्या, सीधी नजर भी उस पर पड़े तो पति सह नहीं पाता. हमेशा ढाल बन कर खड़ा हो जाता है. इसलिए तो आज तक कभी किसी पार्टी में उस के साथ गलत व्यवहार करने की किसी की हिम्मत नहीं हुई. बुरे से बुरा व्यक्ति भी उस के सामने आ कर इज्जत से हाथ जोड़ कर उसे ‘भाभीजी’ ही कहता है. फिर वह खुद भी तो किसी को ऐसा ओछा व्यवहार करने का मौका नहीं देती.

किंतु उस की मर्यादा का सजग प्रहरी तो तपन ही है न, उस का अपना तपन, जो इन पार्टियों में हर समय साए की तरह उस के साथ रहता है. अकसर उस के दोस्त हंसते भी हैं और कहते भी हैं, ‘बीवी को कभी अकेला छोड़ता ही नहीं.’ किंतु तपन उन के हंसने या मजाक बनाने की कतई परवा नहीं करता. ये विचार मन में आते ही सुषमा को अपने तपन पर बहुत ज्यादा प्यार आया. उस की इच्छा हो रही थी कि दौड़ कर जाए और दूर खड़े तपन के गले में अपनी बांहें डाल दे और कहे, ‘अब मैं तुम्हारी किसी बात का बुरा नहीं मानूंगी. मांजी ने मेरी आंखों से नासमझी का परदा उठा दिया है. तुम्हारी नाराजगी का भी सम्मान करूंगी, क्योंकि वह मेरा सुरक्षाकवच है. मेरे अब तक के व्यवहार के लिए मुझे माफ कर दो.’

मन ही मन इन विचारों में घिरी सुषमा का चेहरा विश्वास की आभा से जगमगा रहा था. आंखों में मानो प्यार के दीए जल उठे थे. बड़ी बेसब्री से वह तपन के आने की प्रतीक्षा कर रही थी. सुषमा सोच रही थी कि कैसी अजीब बात है कि जब तक वह घटनाओं से खुद को जोड़े हुए थी, कुछ भी साफ देख, समझ नहीं पा रही थी, किंतु जब घटनाओं से अलग हो कर उस ने खुद को तटस्थ किया तो सबकुछ शीशे की तरह साफ हो गया. उस के अपने ही दिल ने पलभर में सहीगलत का फैसला कर लिया.

विभा की सारी रात करवटें बदलते बीती. बेटा मानो उस के पति का ही प्रतिरूप बन सामने आ खड़ा हुआ था. अपने विवाह के तुरंत बाद के दिन विभा की बंद आंखों में किसी चलचित्र की भांति उभर आए. किसी भी पार्टी में जाने पर अपने पति सत्येंद्र का अपनी सुंदर पत्नी के चारों ओर मानो एक घेरा सा डाले रखना उसे भूला न था. कभीकभी सत्येंद्र के मित्रों की पत्नियां विभा को चिढ़ातीं तो उसे पति के इस व्यवहार पर क्रोध भी आता, किंतु उन के खिलाफ बोलना उस के स्वभाव में न था. सो, चुप रह जाती. युवावस्था के उन मादक, मधुर दिनों की यादें विभा के दिल को झकझोरने लगीं. कैसे थे वे मोहक दिन, जब दफ्तर से छूटते ही सत्येंद्र इस तरह घर भागते, जैसे किसी कैदखाने से छूटे हों. दोस्तों के व्यंग्यबाणों को वे सिर के ऊपर से ही निकल जाने देते. पहले दफ्तर के बाद लगभग रोज ही कौफी हाउस में दोस्तों के साथ एक प्याला कौफी जरूर पीते थे, तब कहीं घर आते थे, किंतु शादी के बाद तो जैसे दफ्तर का समय ही काटे न कटता था.

शाम के बाद भला सत्येंद्र कहां रुकने वाले थे. दोस्तों के हंसने की जरा भी परवा किए बिना अपनी छोटी सी पुरानी गाड़ी में बैठ कर सीधे घर भागते. लेकिन दोस्त भी कच्चे खिलाड़ी न थे. कभीकभी दोचार इकट्ठे मिल कर मोरचा बांध लेते और उन से पहले ही उन की गाड़ी के पास आ खड़े होते. तभी कोई कहता, ‘यार, बोर हो गए कौफी हाउस की कौफी पीपी कर. आज तो भाभीजी के हाथ की कौफी पीनी है.’ इस से पहले कि सत्येंद्र हां या ना कहें, सब के सब गाड़ी में चढ़ कर बैठ जाते.

इधर विभा रोज ही शाम को पति के आने के समय विशेषरूप से बनसंवर कर तैयार रहती थी. यह उस की मां का दिया मंत्र था कि दिनभर के थकेहारे पति की आधी थकान तो पत्नी का मोहक मुसकराता मुखड़ा देख कर ही उतर जाती है. किंतु जब सत्येंद्र मित्रों को लिए घर पहुंचता और वे

सब उस की सुंदर सजीधजी पत्नी को ‘भाभीजी, भाभीजी’ कह कर घेर लेते तो वह अलगथलग कुरसी पर जा बैठता.

मित्र भी तो कम शरारती न थे, सत्येंद्र के मनोभावों को समझ कर भी अनजान बने रहते. उधर विभा उन सब के सामने बढि़या नाश्ता रख कर, कौफी बना कर स्नेह से उन्हें खिलातीपिलाती. यह सब देख सत्येंद्र और कुढ़ जाता. विभा स्थिति की नजाकत समझती थी और अब तक वह सत्येंद्र के स्वभाव को अच्छी तरह जान भी चुकी थी, इसलिए वह उस के मित्रों को जल्दीजल्दी खिलापिला कर विदा करने की कोशिश करती. मित्रों के जाते ही सत्येंद्र पत्नी पर बरसते, ‘क्या जरूरत थी उन सब की इतनी आवभगत करने की? तुम थोड़ा रूखा व्यवहार करोगी तो खुद ही आना छोड़ देंगे. लेकिन तुम तो उन के सामने मक्खनमलाई हो जाती हो, वाहवाही लूटने का शौक जो है.’

सत्येंद्र की कटु आलोचना सुन कर विभा की आंखें भर आतीं, किंतु उस में गजब का धैर्य था. वह अच्छी तरह जानती थी कि इस स्थिति में वह उसे कुछ भी समझा नहीं पाएगी. वह चुपचाप रात के खाने की तैयारी में लग जाती. सत्येंद्र की मनपसंद चीजें बनाती और फिर भोजन निबटने के बाद रात में जब खुश व संतुष्ट पति की बांहों में होती तो उसे समझाने की कोशिश करते हुए पूछती, ‘अच्छा, बताओ तो, क्या तुम सचमुच ही अपने मित्रों का यहां

आना पसंद नहीं करते? मैं तो उन की खातिरदारी सिर्फ इसलिए करती हूं कि वे औफिस में तुम्हारे साथ काम करते हैं. उन के साथ तुम्हारा दिनभर का उठनाबैठना होता है, वरना मुझे उन की खातिरदारी करने की क्या पड़ी है? यदि तुम्हें ही पसंद नहीं, तो फिर अगली बार से उन्हें केवल चाय पिला कर ही टरका दूंगी.’ ‘अरे, नहींनहीं,’ सत्येंद्र और भी कस कर उसे अपनी बांहों में जकड़ लेते, ‘यह ठीक नहीं होगा. सच तो यह है कि जब वे सब दफ्तर में तुम्हारी इतनी तारीफ करते हैं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है. लेकिन क्या करूं, दिनभर के इंतजार के बाद जब शाम को तुम मुझे मिलती हो तो फिर बीच में कोई अड़ंगा मैं सहन नहीं कर सकता.’

‘कैसा अड़ंगा भला?’ उस के सीने में मुंह छिपाए विभा मीठे स्वर में कहती, ‘मैं तो सदा ही केवल तुम्हारी हूं, पूरी तरह तुम्हारी. तुम्हारे इन मित्रों की बचकानी हरकतें तो मेरे लिए तुम्हारे छोटे भाइयों की कमी पूरी करती हैं. अकसर सोचती हूं कि यदि तुम्हारे छोटे भाई होते तो वे यों ही ‘भाभीभाभी’ कह कर मुझे घेरे रहते. यही समझो कि तुम्हारे मित्रों द्वारा मेरे दिल की यही कमी पूरी होती है.’ ‘चलो, फिर ठीक है, अब बुरा नहीं मानूंगा. भूल जाओ सब.’

फिर धीरेधीरे सत्येंद्र इस सच को समझते गए कि घर आए मेहमान की उपेक्षा करना ठीक नहीं और अब विभा का अपने मित्रों से बातचीत करना, उन की खातिरदारी करना उन्हें बुरा नहीं लगता था. बदलते समय के साथ फिर तो बहुतकुछ बदलता गया. दोनों के जीवन में बच्चों के जन्म से ले कर उन के विवाह तक न जाने कितने उतारचढ़ाव आए. जिन्हें दोनों ने एकसाथ झेला. फिर कभी एक पल को भी सत्येंद्र का विश्वास न डगमगाया.

विभा की आंख जब लगी, तब शायद सुबह हो चुकी थी, क्योंकि फिर वह सुबह देर तक सोई रही. किंतु उस दिन शनिवार होने के कारण तपन की छुट्टी थी, सो, किसी काम की कोई जल्दी न थी. मुंह धो कर जब विभा रसोई में पहुंची तो सुषमा चाय बना चुकी थी. उसे देखते ही चिंतित सी बोली, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, वह तो ठीक है,’’ विभा ने कहा, ‘‘रात नींद ही बड़ी देर से आई.’’ सादगी से कही उस की इस बात पर तपन और सुषमा दोनों ही सोच में डूब गए. वे दोनों जानते थे कि उन के आपसी झगड़ों से मां का दिल दुखी हो उठता है और मुंह से कुछ भी न कह कर वे उस दुख को चुपचाप सह लेती हैं.

सुषमा के हाथ से कप ले कर विभा खामोशी से चाय पीने लगी. तपन पास आ कर बैठते हुए बोला, ‘‘चलो मां, तुम्हें कहीं घुमा लाते हैं.’’ ‘‘कहां चलना चाहते हो?’’ विभा ने हलके से हंस कर पूछा तो तपन और सुषमा दोनों के चेहरे चमक उठे.

‘‘चलो मां, किसी अच्छे गार्डन में चलते हैं. सुषमा थर्मस में चाय डाल लेगी और थोड़े सैंडविच भी बना लेगी, क्यों, ठीक है न?’’ ‘‘हांहां,’’ कहते हुए सुषमा ने जब तपन की ओर देखा तो उस नजर में उन दोनों के बीच हुए समझौते की झलक थी. विभा का चिंतित मन यह देख खुश हो गया.

नवंबर की धूप में गार्डन फूलों से लहलहा रहा था. शनिवार की छुट्टी होने के कारण अपने छोटे बच्चों को साथ ले कर आए बहुत से युवा जोड़े वहां घूम रहे थे. दिल्ली शहर के छोटे मकानों में रहने वाले मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चे खुली हवा के लिए तरसते रहते हैं. अब इस समय यहां मैदान में बड़ी ही मस्ती से होहल्ला मचाते एकदूसरे के पीछे भाग रहे थे. बच्चों की इस खुशी का रंग उन के मातापिता के चेहरों पर भी झलक रहा था.

विभा का मन भी यहां की रौनक में डूब कर हलका हो उठा. सब से बड़ी बात तो यह थी कि तपन और सुषमा के बीच कल वाला तनाव खत्म हो गया था और वे दोनों सहज हो कर आपस में बातें कर रहे थे. एक तरफ पेड़ की छाया में साफ जगह देख कर सुषमा ने दरी बिछा दी. ठंडी बयार में फूलों की महक घुली थी. विभा को यह सब आनंद दे रहा था. दरी पर बैठी वह मन ही मन सोच रही थी कि आने वाले दिनों में शायद तपन और सुषमा भी जब यहां आएंगे तो नन्हें हाथ उन की उंगलियां थामे होंगे. यह सोच कर विभा का दिल एक सुखद एहसास से भीग उठा. अचानक सुषमा की आवाज से उस की विचारशृंखला टूटी, ‘‘मांजी, यह चाय ले लीजिए.’’

अचानक तपन बोला, ‘‘सुषमा, वह देखो, उधर शंकर और सविता बैठे हैं. चलो, मिल कर आते हैं.’’ किंतु सुषमा बोली, ‘तुम हो आओ, मैं यहां मांजी के साथ ही बैठूंगी.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर तपन उधर चला गया. विभा ने एक गहरी नजर सुषमा पर डाली, जो घुटनों पर सिर रखे चुप बैठी थी. चाय पी कर गिलास नीचे रखते ही विभा उस के पास खिसक आई और पूछा, ‘‘तुम गई क्यों नहीं? शायद उस के दफ्तर का कोई दोस्त है.’’

‘‘क्या फायदा मांजी, फिर झगड़ाझंझट करेंगे. अब आप ही बताइए, इन के मित्र मुझ से बात करें तो क्या मैं अशिष्ट बन जाऊं? उन के साथ हंस कर बात करूं तो ये नाराज, और न करूं तो वे लोग बुरा मानेंगे. मैं तो बीच में फंस जाती हूं न. अब तो मैं इन के साथ पार्टियों में जाना भी बंद कर दूंगी, घर पर ही ठीक हूं,’’ सुषमा थोड़ा तल्खी से बोली.

विभा कुछ देर उस के खूबसूरत चेहरे को देखती रही जहां एक आहत सी अहं भावना की परछाईं थी. फिर कुछ सोच कर समझाते हुए बोली, ‘‘तपन तुम्हें बहुत चाहता है, इसी से उस में तुम्हारे प्रति यह भावना है. पति के दिल की एकछत्र स्वामिनी होना तो बड़े गर्व की बात है.’’

‘‘वह तो ठीक है,’’ सुषमा का चेहरा शर्म से लाल हो गया, ‘‘किंतु जब औरों को देखती हूं तो लगता है कि उन्हें इस बात की चिंता ही नहीं कि उन की पत्नियां कहां, किस से बातें कर रही हैं.’’ ‘‘तब तो तुम यह भी देखती होगी कि वही लोग कभीकभी शराब के नशे में डूबे उन से गलत व्यवहार भी करते होंगे?’’

‘‘यह सब तो कभीकभी चलता है, इन पार्टियों में सभी तरह के लोग होते हैं.’’

‘‘तो फिर अब इस बात को भी समझो कि तुम्हारे साथ किसी का गलत व्यवहार तपन को कभी सहन न होगा. विवाहित जीवन में पति का अंकुश पत्नी पर और पत्नी का अंकुश पति पर होना बहुत जरूरी है. यही एक सफल दांपत्य जीवन का मंत्र है, जहां पतिपत्नी दोनों एकदूसरे को गलत कामों के लिए टोक सकते हैं, एकदूसरे को सही राह दिखा सकते हैं. किंतु इस के लिए विश्वास की मजबूत नींव जरूरी है, जिस में एकदूसरे के इस टोकने को गलत न समझा जाए, बल्कि उस के मूल में छिपी सही विचारधारा को समझा जाए, सुषमा, इस अधिकार को एक का दूसरे पर शासन मत समझो बल्कि एक की दूसरे के प्रति अतिशय प्रेम की अभिव्यक्ति समझो. ‘‘यदि तुम्हें वह सदैव अपनी नजरों के सामने रखना चाहता है तो यह तुम्हारा बहुत बड़ा सम्मान है. पति जिस स्त्री का सम्मान करता है, उस का सम्मान सारी दुनिया करती है, इसे हमेशा याद रखना.’’

इतना सबकुछ एक सांस में ही कह चुकने के बाद विभा खामोश हो गई. उस की बातें बड़े गौर से सुनती सुषमा के सामने विवाहिता जीवन का एक नया ही रहस्य खुला था कि आज के इस नारीमुक्ति युग में पति का पत्नी पर अपना अधिकार साबित करना कोई अमानवीय काम नहीं बल्कि उस के अखंड प्रेम का संकेत है.

सुषमा सोचने लगी कि न जाने उस की कितनी सहेलियां अकेली घूमतीफिरती हैं, अकेली ही पार्टियों में भी जाती हैं. किंतु सच तो यह है कि सुषमा को उन पर बड़ी दया आती है, क्योेंकि अकसर ही उन्हें किसी न किसी पुरुष के गलत व्यवहार का शिकार होना पड़ता है, जिस से उन को बचाने वाला वहां कोई नहीं होता. लेकिन उस के साथ तो उलटा ही है, किसी की टेढ़ी तो क्या, सीधी नजर भी उस पर पड़े तो पति सह नहीं पाता. हमेशा ढाल बन कर खड़ा हो जाता है. इसलिए तो आज तक कभी किसी पार्टी में उस के साथ गलत व्यवहार करने की किसी की हिम्मत नहीं हुई. बुरे से बुरा व्यक्ति भी उस के सामने आ कर इज्जत से हाथ जोड़ कर उसे ‘भाभीजी’ ही कहता है. फिर वह खुद भी तो किसी को ऐसा ओछा व्यवहार करने का मौका नहीं देती.

किंतु उस की मर्यादा का सजग प्रहरी तो तपन ही है न, उस का अपना तपन, जो इन पार्टियों में हर समय साए की तरह उस के साथ रहता है. अकसर उस के दोस्त हंसते भी हैं और कहते भी हैं, ‘बीवी को कभी अकेला छोड़ता ही नहीं.’ किंतु तपन उन के हंसने या मजाक बनाने की कतई परवा नहीं करता. ये विचार मन में आते ही सुषमा को अपने तपन पर बहुत ज्यादा प्यार आया. उस की इच्छा हो रही थी कि दौड़ कर जाए और दूर खड़े तपन के गले में अपनी बांहें डाल दे और कहे, ‘अब मैं तुम्हारी किसी बात का बुरा नहीं मानूंगी. मांजी ने मेरी आंखों से नासमझी का परदा उठा दिया है. तुम्हारी नाराजगी का भी सम्मान करूंगी, क्योंकि वह मेरा सुरक्षाकवच है. मेरे अब तक के व्यवहार के लिए मुझे माफ कर दो.’

मन ही मन इन विचारों में घिरी सुषमा का चेहरा विश्वास की आभा से जगमगा रहा था. आंखों में मानो प्यार के दीए जल उठे थे. बड़ी बेसब्री से वह तपन के आने की प्रतीक्षा कर रही थी. सुषमा सोच रही थी कि कैसी अजीब बात है कि जब तक वह घटनाओं से खुद को जोड़े हुए थी, कुछ भी साफ देख, समझ नहीं पा रही थी, किंतु जब घटनाओं से अलग हो कर उस ने खुद को तटस्थ किया तो सबकुछ शीशे की तरह साफ हो गया. उस के अपने ही दिल ने पलभर में सहीगलत का फैसला कर लिया.

Hindi Kahaniyan : तांती – क्यों रामदीन को गलत समझ रहे थे लोग

Hindi Kahaniyan : चलतेचलते रामदीन के पैर ठिठक गए. उस का ध्यान कानफोड़ू म्यूजिक के साथ तेज आवाज में बजते डीजे की तरफ चला गया. फिल्मी धुनों से सजे ये भजन उस के मन में किसी भी तरह से श्रद्धा का भाव नहीं जगा पा रहे थे. बस्ती के चौक में लगे भव्य पंडाल में नौजवानों और बच्चों का जोश देखते ही बनता था.

रामदीन ने सुना कि लोक गायक बहुत ही लुभावने अंदाज में नौलखा बाबा की महिमा गाता हुआ उन के चमत्कारों का बखान कर रहा था.

रामदीन खीज उठा और सोचने लगा, ‘बस्ती के बच्चों को तो बस जरा सा मौका मिलना चाहिए आवारागर्दी करने का… पढ़ाईलिखाई छोड़ कर बाबा की महिमा गा रहे हैं… मानो इम्तिहान में यही उन की नैया पार लगाएंगे…’

तभी पीछे से रामदीन के दोस्त सुखिया ने आ कर उस की पीठ पर हाथ रखा, ‘‘भजन सुन रहे हो रामदीन. बाबा की लीला ही कुछ ऐसी है कि जो भी सुनता है बस खो जाता है. अरे, जिस के सिर पर बाबा ने हाथ रख दिया समझो उस का बेड़ा पार है.’’

रामदीन मजाकिया लहजे में मुसकरा दिया, ‘‘तुम्हारे बाबा की कृपा तुम्हें ही मुबारक हो. मुझे तो अपने हाथों पर ज्यादा भरोसा है. बस, ये सलामत रहें,’’ रामदीन ने अपने मजबूत हाथों को मुट्ठी बना कर हवा में लहराया.

सुखिया को रामदीन का यों नौलखा बाबा की अहमियत को मानने से इनकार करना बुरा तो बहुत लगा मगर आज कुछ कड़वा सा बोल कर वह अपना मूड खराब नहीं करना चाहता था इसलिए चुप रहा और दोनों बस्ती की तरफ चल दिए.

विनोबा बस्ती में चहलपहल होनी शुरू हो गई थी. नौलखा बाबा का सालाना मेला जो आने वाला है. शहर से तकरीबन 250 किलोमीटर दूर देहाती अंचल में बनी बाबा की टेकरी पर हर साल यह मेला लगता है. 10 दिन तक चलने वाले इस मेले की रौनक देखते ही बनती है.

रामदीन को यह सब बिलकुल भी नहीं सुहाता था. पता नहीं क्यों मगर उस का मन यह बात मानने को कतई तैयार नहीं होता कि किसी तथाकथित बाबा के चमत्कारों से लोगों की सभी मनोकामनाएं पूरी हो सकती हैं. अरे, जिंदगी में अगर कुछ पाना है तो अपने काम का सहारा लो न. यह चमत्कारवमत्कार जैसा कुछ भी नहीं होता…

रामदीन बस्ती में सभी को समझाने की कोशिश किया करता था मगर लोगों की आंखों पर नौलखा बाबा के नाम की ऐसी पट्टी बंधी थी कि उस की सारी दलीलें वे हवा में उड़ा देते थे.

बाबा के सालाना मेले के दिनों में तो रामदीन से लोग दूरदूर ही रहते थे. कौन जाने, कहीं उस की रोकाटोकी से कोई अपशकुन ही न हो जाए…

विनोबा बस्ती से हर साल बाल्मीकि मित्र मंडल अपने 25-30 सदस्यों का दल ले कर इस मेले में जाता है. सुखिया की अगुआई में रवानगी से पहली रात बस्ती में बाबा के नाम का भव्य जागरण होता है जिस में संघ को अपने सफर पर खर्च करने के लिए भारी मात्रा में चढ़ावे के रूप में चंदा मिल जाता है. अलसुबह नाचतेगाते भक्त अपने सफर पर निकल पड़ते हैं.

इस साल सुखिया ने रामदीन को अपनी दोस्ती का वास्ता दे कर मेले में चलने के लिए राजी कर ही लिया… वह भी इस शर्त पर कि अगर रामदीन की मनोकामना पूरी नहीं हुई तो फिर सुखिया कभी भी उसे अपने साथ मेले में चलने की जिद नहीं करेगा…

अपने दोस्त का दिल रखने और उस की आंखों पर पड़ी अंधश्रद्धा की पट्टी हटाने की खातिर रामदीन ने सुखिया के साथ चलने का तय कर ही लिया, मगर शायद वक्त को कुछ और ही मंजूर था. इन्हीं दिनों ही छुटकी को डैंगू हो गया और रामदीन के लिए मेले में जाने से ज्यादा जरूरी था छुटकी का बेहतर इलाज कराना…

सुखिया ने उसे बहुत टोका कि क्यों डाक्टर के चक्कर में पड़ता है, बाबा के दरबार में माथा टेकने से ही छुटकी ठीक हो जाएगी मगर रामदीन ने उस की एक न सुनी और छुट्की का इलाज सरकारी डाक्टर से ही कराया.

रामदीन की इस हरकत पर तो सुखिया ने उसे खुल्लमखुल्ला अभागा ऐलान करते हुए कह ही दिया, ‘‘बाबा का हुक्म होगा तो ही दर्शन होंगे उन के… यह हर किसी के भाग्य में नहीं होता… बाबा खुद ही ऐसे नास्तिकों को अपने दरबार में बुलाना नहीं चाहते जो उन पर भरोसा नहीं करते…’’

रामदीन ने दोस्त की बात को बचपना समझते हुए टाल दिया.

सुखिया और रामदीन दोनों ही नगरनिगम में सफाई मुलाजिम हैं. रामदीन ज्यादा तो नहीं मगर 10वीं जमात तक स्कूल में पढ़ा है. उसे पढ़ने का बहुत शौक था मगर पिता की हुई अचानक मौत के बाद उसे स्कूल बीच में ही छोड़ना पड़ा और वह परिवार चलाने के लिए नगरनिगम में नौकरी करने लगा.

रामदीन ने केवल स्कूल छोड़ा था, पढ़ाई नहीं… उसे जब भी वक्त मिलता था, वह कुछ न कुछ पढ़ता ही रहता था. खुद का स्कूल छूटा तो क्या, वह अपने बच्चों को खूब पढ़ाना चाहता था.

सुखिया और रामदीन में इस नौलखा बाबा के मसले को छोड़ दिया जाए तो खूब छनती है. दोनों की पत्नियां भी आपस में सहेलियां हैं और आसपास के फ्लैटों में साफसफाई का काम कर के परिवार चलाने में अपना सहयोग देती हैं.

एक दिन रामदीन की पत्नी लक्ष्मी को अपने माथे पर बिंदी लगाने वाली जगह पर एक सफेद दाग सा दिखाई दिया. उस ने इसे हलके में लिया और बिंदी थोड़ी बड़ी साइज की लगाने लगी.

मगर कुछ दिनों बाद जब दाग बिंदी से बाहर झांकने लगा तो सुखिया की पत्नी शांति का ध्यान उस पर गया. उस ने पूछा, ‘‘लक्ष्मी, यह तुम्हारे माथे पर दाग कैसा है?’’

‘‘पता नहीं, यह कैसे हो गया. मैं ने तो कई देशी इलाज कर लिए मगर यह तो ठीक ही नहीं हो रहा, आगे से आगे बढ़ता ही जा रहा है,’’ कहते हुए लक्ष्मी रोंआसी सी हो गई.

‘‘अरे, बस इतनी सी बात. तुम नौलखा बाबा के नाम की तांती क्यों नहीं बांध लेती? इसे अपने दाएं हाथ पर बांध कर मन्नत मांग लो कि ठीक होते ही बाबा के दरबार में पैदल जा कर धोक लगा कर आओगी… फिर देखो चमत्कार… सफेद दाग जड़ से न चला जाए तो कहना…’’ शांति ने दावे से कहा.

‘‘क्या ऐसा करने से यह दाग सचमुच ठीक हो जाएगा?’’ लक्ष्मी ने हैरानी से पूछा.

‘‘यही तो परेशानी है… रामदीन भैया की तरह तुम्हें भी बाबा पर भरोसा नहीं… अरे, बाबा तो अंधों को आंखें, लंगड़ों को पैर और बांझ को बेटा देने वाले हैं… देखती नहीं, हर साल लाखों भक्त कैसे उन के दर पर दौड़े चले आते हैं… अगर उन में कोई अनहोनी ताकत न होती तो कोई जाता क्या?’’ शांति ने उस की कमअक्ली पर तरस खाते हुए समझाया.

लक्ष्मी को अब भी सफेद दाग के इतनी आसानी से खत्म होने का भरोसा नहीं था. उस ने शक की निगाह से शांति की तरफ देखा.

‘‘मेरा अपना ही किस्सा सुन… मेरी शादी के बाद 4 साल तक भी मेरी गोद हरी नहीं हुई थी. हम सारे उपाय कर के निराश हो चुके थे. डाक्टर और हकीम भी हार मान गए थे. एक डाक्टर ने तो यहां तक कह दिया था कि मैं कभी मां नहीं बन सकती क्योंकि इन में ही कुछ कमी है. तब हमें किसी ने बाबा के दरबार में जाने की भली सलाह दी.

‘‘हारे का सहारा… नौलखा बाबा हमारा… और हम दोनों गिर पड़े बाबा के चरणों में… पुजारीजी से बाबा के नाम की तांती बंधवाई और सब दवादारू छोड़ कर हर महीने उन के दर्शनों को जाते रहे. और देखो बाबा का चमत्कार… अगले साल ही हरिया मेरी गोद में खेल रहा था,’’ शांति ने पूरे यकीन से कहा.

शाम को अब रामदीन घर आया तो लक्ष्मी ने उसे अपने सफेद दाग के बारे में बताया और बाबा की तांती का भी जिक्र किया.

लक्ष्मी की सफेद दाग वाली बात सुन कर रामदीन के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं. उस ने पत्नी को समझा कर शहर के चमड़ी के किसी अच्छे डाक्टर को दिखाने की बात की मगर लक्ष्मी पर तो जैसे शांति की बातों का जादू चला हुआ था.

लक्ष्मी ने कहा, ‘‘ठीक है. डाक्टर और अस्पताल अपनी जगह हैं और आस्था अपनी जगह… एक बार शांति की बात मान कर तांती बांधने में हर्ज

ही क्या है? अगर फायदा न हुआ तो डाक्टर कहां भागे जा रहे हैं… बाद में दिखा देंगे.’’

रामदीन को गुस्से के साथसाथ हंसी भी आ गई. उस ने अपने बचपन का एक किस्सा लक्ष्मी को सुनाया कि उस की बड़ी बहन रानी की गरदन पर छोटेछोटे मस्से हो गए थे. मां ने उस की बांह पर तांती बांध कर मन्नत मांगी कि मस्से ठीक होते ही वे बाबा के मंदिर में 2 झाड़ू चढ़ा कर आएंगी. उन्हें बाबा के चमत्कार पर पूरा भरोसा था और सचमुच कुछ ही दिनों में रानी की गरदन से सारे मस्से गायब हो गए.

मां ने बहन के साथ बाबा के मंदिर में जा कर धोक लगाई और श्रद्धा से 2 झाड़ू वहां देवरे पर चढ़ाईं.

मेरा हंसतेहंसते बुरा हाल हो गया था जब रानी ने मुझे बताया कि उस ने चुपकेचुपके चमड़ी के माहिर डाक्टर की सलाह पर दवाएं खाई थीं.

रामदीन को हंसता देख लक्ष्मी आगबबूला हो गई. शांति से होते हुए बात सुखिया तक पहुंची तो वह भी आया रामदीन को समझाने के लिए. मगर रामदीन ने वहां जाने से साफ इनकार कर दिया.

लक्ष्मी ने उसे पति धर्म का वास्ता दिया और एक आखिरी बार अपनी बात मानने की गुजारिश की तो आखिर में रामदीन को रिश्तों के आगे झुकना ही पड़ा और वह न चाहते हुए भी अपनों का मन रखने के लिए सुखिया के साथ लक्ष्मी को ले कर नौलखा बाबा के देवरे पर जा पहुंचा.

मंदिर के पीछे ही बड़े पुजारी का बड़ा सा कमरा बना हुआ था. चूंकि वह सुखिया को पहले से ही जानता था इसलिए तुरंत ही उसे भीतर बुला लिया.

बाहर खड़ा रामदीन कमरे का मुआयना करने लगा. एक ही कमरे में पुजारीजी ने सारी मौडर्न सुखसुविधाएं जुटा रखी थीं. गजब की ठंडक थी अंदर… रामदीन का ध्यान दीवार पर लगे एयरकंडीशनर की तरफ चला गया. दीवार पर एक बड़ा सा टैलीविजन भी लगा था.

अभी रामदीन अचंभे से सबकुछ देख ही रहा था कि सुखिया ने उसे और लक्ष्मी को अंदर आने का इशारा किया. पुजारी ने लक्ष्मी पर एक भरपूर नजर डाल कर देखा, फिर उस ने कुछ मंत्रों का जाप करते हुए लक्ष्मी के दाएं हाथ पर काले धागे की तांती बांध दी.

तांती बांधते समय जिस तरह से पुजारी लक्ष्मी का हाथ सहला रहा था, उसे देख कर रामदीन की त्योरियां चढ़ गईं. लक्ष्मी भी थोड़ी परेशान हो गई तो पुजारी ने माहौल की नजाकत को भांपते हुए बाबा के चरणों में से थोड़ी सी भस्म ले कर उसे चटा दी और आशीर्वाद के बदले में एक मोटी रकम दक्षिणा के रूप में वसूल ली.

लक्ष्मी ने पूछा, ‘‘पुजारीजी, यह दाग कितने दिन में ठीक हो जाएगा?’’

‘‘यह तो बाबा की मेहर पर है… और साथ ही ही भक्त के भरोसे पर भी… कृपा तो वे ही करेंगे… मगर हां, जिन के मन में बाबा के प्रति जरा भी शक हो, उन पर बाबा की मेहर नहीं होती…’’ लक्ष्मी उस की गोलमोल बातों से कुछ समझी कुछ नहीं समझी और पुजारी को प्रणाम कर के कमरे से बाहर निकल आई.

रास्तेभर जहां सुखिया तो बाबा की ही महिमा का बखान करता रहा वहीं रामदीन की आंखों के सामने पुजारी का लक्ष्मी का हाथ सहलाना ही घूमता रहा.

2 महीने हो गए मगर दाग मिटने या कम होने के बजाय बढ़ ही रहा था. हालांकि लक्ष्मी को तांती पर पूरा भरोसा था, मगर रामदीन को चिंता होने लगी. उस ने सुखिया के सामने अपनी चिंता जाहिर की और लक्ष्मी को भी डाक्टर के पास चलने को कहा, तो सुखिया उखड़ गया.

वह बोला, ‘‘तुम्हारा यह अविश्वास ही भाभी की बीमारी ठीक नहीं होने दे रहा… तुम कल ही चलो मेरे साथ पुजारीजी के पास… तुम्हारा सारा शक दूर हो जाएगा.’’

‘‘तुम रहने दो, बेकार क्यों अपनी छुट्टी खराब करते हो… मैं और लक्ष्मी ही हो आएंगे,’’ रामदीन ने हथियार डालते हुए कहा. वह अपने दोस्त को नाराज नहीं करना चाहता था.

रामदीन को वहां जाने के लिए छुट्टी लेनी पड़ी. लक्ष्मी की तनख्वाह से भी एक दिन नागा होने से मालकिन ने पैसे काट लिए.

मंदिर पहुंचतेपहुंचते दोपहर हो चली थी. पुजारीजी अपने कमरे में एयरकंडीशनर चला कर आराम फरमा रहे थे. उन्हें अपने आराम में खलल अच्छा नहीं लगा. पहले तो उन्होंने रामदीन को पहचाना ही नहीं, फिर लक्ष्मी को देख कर खिल उठे.

अपने बिलकुल पास बिठा कर तांती को छूने के बहाने उस का हाथ पकड़ते हुए बोले, ‘‘अरे तुम… क्या, तुम्हारा दाग तो बढ़ रहा है.’’

‘‘वही तो मैं भी जानना चाहता हूं. आप ने तो कितने भरोसे के साथ कहा था कि यह ठीक हो जाएगा,’’ रामदीन जरा तेज आवाज में बोला.

‘‘लगता है कि तुम ने तांती के नियमों की पालना नहीं की,’’ पुजारीजी ने अब भी लक्ष्मी का हाथ थाम रखा था.

‘‘अब इस में भी नियमकायदे होते हैं क्या?’’ इस बार लक्ष्मी अपना हाथ छुड़ाते हुए धीरे से बोली.

‘‘और नहीं तो क्या. क्या जो दक्षिणा तुम ने बाबा के चरणों में चढ़ाई थी वह दान का पैसा नहीं था?’’ पुजारी ने पूछा.

‘‘दान का पैसा… क्या मतलब?’’ रामदीन ने पूछा.

‘‘मतलब यह कि तांती दान के पैसे से ही बांधी जाती है, वरना उस का असर नहीं होता. तुम एक काम करो, अपने पासपड़ोसियों और रिश्तेदारों से कुछ दान मांगो और वह रकम दक्षिणा के रूप में यहां भेंट करो… तब तांती सफल होगी,’’ पुजारीजी ने समझाया.

‘‘यानी हाथ पर बंधी यह तांती बेकार हो गई,’’ कहते हुए लक्ष्मी परेशान हो गई.

‘‘हां, अब इस का कोई मोल नहीं रहा. अब तुम जाओ और जब दक्षिणा लायक दान जमा हो जाए तब आ जाना… नई तांती बांधेंगे. और हां, नास्तिक लोगों को जरा इस से दूर ही रखना,’’ पुजारी ने कहा तो रामदीन उस का मतलब समझ गया कि उस का इशारा किस की तरफ है.

दोनों अपना सा मुंह ले कर लौट आए. सुखिया को जब पता चला तो वह बोला, ‘‘ठीक ही तो कह रहे हैं पुजारीजी…

तांती भी कोई जेब के पैसों से बांधता है क्या, तुम्हें इतना भी नहीं पता?’’

तांती के लिए दान जमा करतेकरते फिर से बाबा के सालाना मेले के दिन आ गए. इस बार सुखिया के रामदीन से कह दिया कि चाहे नगरनिगम से लोन लेना पड़े मगर उसे और भाभी को पैदल संघ के साथ चलना ही होगा.

रामदीन जाना तो नहीं चाहता था, उस ने एक बार फिर से लक्ष्मी को समझाने की कोशिश की कि चल कर डाक्टर को दिखा आए मगर लक्ष्मी को तांती की ताकत पर पूरा भरोसा था. वह इस बार पूरे विधिविधान के साथ इसे बांधना चाहती थी ताकि नाकाम होने की कोई गुंजाइश ही न रहे.

रामदीन को एक बार फिर अपनों के आगे हारना पड़ा. हमेशा की तरह रातभर के जागरण के बाद तड़के ही नाचतेगाते संघ रवाना हो गया. बस्ती पार करते ही मेन सड़क पर आस्था का सैलाब देख कर लक्ष्मी की आंखें हैरानी से फैल गईं. उस ने रामदीन की तरफ कुछ इस तरह से देखा मानो उसे अहसास दिला रही हो कि इतने सालों से वह क्या खोता आ रहा है. दूर निगाहों की सीमा तक भक्त ही भक्त… भक्ति की ऐसी हद उस ने पहली बार ही देखी थी.

अगले ही चौराहे पर सेवा शिविर लगा था. संघ को देखते ही सेवादार उन की ओर लपके और चायकौफी की मनुहार करने लगे. सब ने चाय पी और आगे चले. कुछ ही दूरी पर फ्रूट जूस और चाट की सेवा लगी थी. सब ने जीभर कर खाया और कुछ ने महंगे फल अपने साथ लाए झोले के हवाले किए. पानी का टैंकर तो पूरे रास्ते चक्कर ही लगा रहा था.

दिनभर तरहतरह की सेवा का मजा लेते हुए शाम ढलने पर संघ ने वहीं सड़क के किनारे अपना तंबू लगाया और सभी आराम करने लगे.

तभी अचानक कुछ सेवादार आ कर उन के पैर दबाने लगे. लक्ष्मी के लिए यह सब अद्भुत था. उसे वीआईपी होने जैसा गुमान हो रहा था.

उधर रामदीन सोच रहा था, ‘लक्ष्मी की मनोकामना पूरी होगी या नहीं पता नहीं मगर बच्चों की कई अधूरी कामनाएं जरूर पूरी हो जाएंगी. ऐसेऐसे फल, मिठाइयां, शरबत और मेवे खाने को मिल रहे हैं जिन के उन्होंने केवल नाम ही सुने थे.’

10 दिन मौजमस्ती करते, सेवा करवाते आखिर पहुंच ही गए बाबा के धाम… 3 किलोमीटर लंबी कतार देख कर रामदीन के होश उड़ गए. दर्शन होंगे या नहीं… वह अभी सोच ही रहा था कि सुखिया ने कहा, ‘‘वह देख. ऊपर बाबा के मंदिर की सफेद ध्वजा के दर्शन कर ले… और अपनी यात्रा को सफल मान.’’

‘‘मगर दर्शन?’’

‘‘मेले में ऐसे ही दर्शन होते हैं… चल पुजारीजी के पास भाभी को ले कर चलते हैं,’’ सुखिया ने समझाया.

पुजारीजी बड़े बिजी थे मगर लक्ष्मी को देखते ही खिल उठे. वे बोले, ‘‘अरे तुम. आओआओ… इस बार विधिवत तरीके से तुम्हें तांती बांधी जाएगी…’’ फिर अपने सहायक को इशारा कर के लक्ष्मी को भीतर आने को कहा.

रामदीन और सुखिया को बाहर ही इंतजार करने को कहा गया. काफी देर हो गई मगर लक्ष्मी अभी तक बाहर नहीं आई थी. सुखिया शांति और बच्चों को मेला घुमाने ले गया.

रामदीन परेशान सा वहीं बाबा के कमरे में चहलकदमी कर रहा था. एकदो बार उस ने भीतर कोठरी में झांकने की कोशिश भी की मगर बाबा के सहायकों ने उसे कामयाब नहीं होने दिया. अब तो उस का सब्र जवाब देने लगा था. मन अनजाने डर से घबरा रहा था.

रामदीन हिम्मत कर के कोठरी के दरवाजे की तरफ कदम बढ़ाए. सहायकों ने उसे रोकने की कोशिश की मगर रामदीन उन्हें धक्का देते हुए कोठरी में घुस गया.

कोठरी के भीतर नीम अंधेरा था. एक बार तो उसे कुछ भी दिखाई नहीं दिया. धीरेधीरे नजर साफ होने पर उसे जो सीन दिखाई दिया वह उस के होश उड़ाने के लिए काफी था. लक्ष्मी अचेत सी एक तख्त पर लेटी थी. वहीं बाबा अंधनगा सा उस के ऊपर तकरीबन झुका हुआ था.

रामदीन ने बाबा को जोर से धक्का दिया. बाबा को इस हमले की उम्मीद नहीं थी, वह धक्के के साथ ही एक तरफ लुढ़क गया.

रामदीन के शोर मचाने पर बहुत से लोग इकट्ठा हो गए और गुस्साए लोगों ने बाबा और उस के चेलों की जम कर धुनाई कर दी.

खबर लगते ही मेले का इंतजाम देख रही पुलिस आ गई और रामदीन की लिखित शिकायत पर बाबा को गिरफ्तार कर के ले गई.

तब तक लक्ष्मी को भी होश आ चुका था. घबराई हुई लक्ष्मी को जब पूरी घटना का पता चला तो वह शर्म और बेबसी से फूटफूट कर रो पड़ी.

रामदीन ने उसे समझाया, ‘‘तू क्यों रोती है पगली. रोना तो अब उस पाखंडी को है जो धर्म और आस्था की आड़ ले कर भोलीभाली औरतों की अस्मत से खेलता आया है.’’

सुखिया को जब पता चला तो वह दौड़ादौड़ा पुजारी के कमरे की तरफ आया. वह भी इस सारे मामले के लिए अपने आप को कुसूरवार ठहरा रहा था क्योंकि उसी की जिद के चलते रामदीन न चाहते हुए भी यहां आया था और लक्ष्मी इस वारदात का शिकार हुई थी.

सुखिया ने रामदीन से माफी मांगी तो रामदीन ने उसे गले से लगा कर कहा, ‘‘तुम क्यों उदास होते हो? अगर आज हम यहां न आते तो यह हवस का पुजारी पुलिस के हत्थे कैसे चढ़ता? इसलिए खुश रहो… जो हुआ अच्छा हुआ…’’

‘‘हम घर जाते ही किसी अच्छे डाक्टर को यह सफेद दाग दिखाएंगे,’’ लक्ष्मी ने अपने हाथ पर बंधी तांती तोड़ कर फेंकते हुए कहा और सब घर जाने के लिए बसस्टैंड की तरफ बढ़ गए.

शांति अपने बेटे हरिया की शक्ल के पीछे झांकती पुजारी की परछाईं को पहचानने की कोशिश कर रही थी.

Hindi Story Collection : एक वीडियो

Hindi Story Collection : सुबह के 6 बजे थे. 20 वर्षीय यशी अपने कमरे में गहरी नींद में सो रही थी क्योंकि आज संडे था. मोबाइल की घंटी से उस की नींद टूटी तो उस ने उनींदी आवाज में हैलो बोला. अपनी स्कूल फ्रैंड गीत की आवाज सुनते ही उस की नींद हवा में उड़ गई.

गीत और यशी दोनों बचपन की दोस्त थीं. दोनों के घर पासपास थे. दोनों ने ही प्रयागराज के सीएमपी डिगरी कालेज से बीकौम किया था. हमेशा दोनों सखियां साथ बैठ कर पढ़ाई करती थीं. परिवारों में भी आपस में एकदूसरे से मिलनाजुलना था लेकिन चूंकि दोनों परिवारों के जीवनस्तर में काफी अंतर था इसलिए गीत का परिवार थोड़ी दूरी बना कर रखता परंतु उन दोनों की दोस्ती में इस से कोई अंतर नहीं पड़ा था.

जब दोनों बीकौम कर रही थीं तो गीत की दोस्ती अंगद से हो गई. अंगद एमबीए कर रहा था और उस का व्यक्तित्व काफी आकर्षक  था.

यशी की दोस्ती उमंग से हो गई थी. दोनों  डेट पर जातीं और लौट कर दोनों ही अपनी डेट की 1-1 बात आपस में शेयर करतीं. आपस में खूब हंसतींखिलखिलातीं और मस्ती करतीं. यहां तक कि गीत और अंगद की जोड़ी तो कालेज में इतनी मशहूर हो गई कि सब की जबान पर उन दोनों के ही नाम सुनाई पड़ते.

उमंग तो यशी के नोट्स के चक्कर में प्यार का दिखावा कर रहा था क्योंकि यशी पढ़ने में बहुत तेज थी लेकिन जब यशी ने एक दिन उमंग की चैट कृति के फोन में पढ़ ली तो उस के सामने  उस की सारी असलियत खुल गई. पहले तो उसे बहुत गुस्सा आया लेकिन फिर उस से ब्रेकअप कर के उस ने अपने को पूरी तरह पढ़ाई में ?ांक दिया. दोनों ने आपस में तय किया कि बीकौम के बाद दोनों कैट की कोचिंग जौइन करेंगी.

यशी ने कालेज में टौप किया तो उसे सरकार की तरफ से स्कौलरशिप मिल गई. उस ने दिल्ली में कोचिंग जौइन करने का फैसला कर लिया.

यशी के दिल्ली जाने की बात सुनते ही गीत ने भी दिल्ली जाने की बहुत जिद की लेकिन उस के पापा ने साफ मना कर दिया. गीत कई दिनों तक रोईधोई लेकिन उस के पापा नहीं पिघले.

यशी के दिल्ली चले जाने के बाद दोनों फ्रैंड्स के बीच फोन पर बातें होतीं लेकिन अब चूंकि यशी अपनी क्लासेज में ज्यादा बिजी रहने लगी थी, इसलिए दोनों के बीच बातें कम होती थीं.

गीत पढ़ाई के नाम पर लैपटौप पर मूवी देखती और अंगद के साथ रोज देर रात तक चैट करती. वह अंगद से मिलने के लिए बेकरार हो रही थी, इसीलिए उस ने कैट ऐग्जाम का सैंटर दिल्ली रखने का निश्चय कर लिया और चुपचाप अपनी योजना पर अमल कर लिया.

गीत दिल्ली आ कर यशी को सरप्राइज देना चाहती थी. इसलिए वह जब दिल्ली पहुंच गई तब उस ने उसे फोन किया.

‘‘हाय, गीत… इतनी सुबहसुबह… क्या हुआ यार?’’

‘‘मैं प्रयागराज से दिल्ली आ गई हूं. अपने फ्लैट का ऐड्रैस मुझे व्हाट्सऐप पर भेज दो.’’

यशी ने झटपट ऐड्रैस व्हाट्सऐप पर भेजा और तेजी से उठ कर अपना रूम ठीक करने लगी स्विगी से दूधब्रैड का और्डर कर के फ्रैश हो कर अपनी फ्रैंड गीत का इंतजार करने लगी. उस के मन में प्रश्नचिह्न मुंह उठाए हुए दस्तक दे रहा था कि आखिर गीत को अकेले उस के पेरैंट्स ने दिल्ली कैसे भेज दिया?

बेसब्र मन से उस की ऊंगलियां अनायास गीत का नंबर मिला बैठीं, ‘‘हैलो गीत यह तो बता तुझे पापामम्मी ने अकेले कैसे भेज दिया?’’

‘‘तुम इतनी बेचैन क्यों हो? मैं बस 10-15 मिनट में पहुंचने वाली हूं. तुझे सारी बातें बता दूंगी. यहां टैक्सी ड्राइवर सारी बातें सुन लेगा.’’

यशी बहुत ऐक्साइटेड थी क्योंकि उस की फास्ट फ्रैंड आ रही थी. 20 वर्षीय यशी ने एमबीए गुरु कोचिंग जौइन की थी. वह कैट का कंपीटीशन पास कर के किसी सरकारी कालेज से एमबीए करना चाहती थी, इसलिए वह कड़ी मेहनत भी कर रही थी. वह रात मे लगभग 3 बजे तक पढ़ती रही थी इसीलिए सुबह के समय उस की आंख लग गई थी. उस के पापा बैंक में अकाउंटैंट हैं, मां गृहिणी… घर में दादादादी और छोटा भाई वह भी कालेज में पढ़ रहा था, इसलिए उस ने मन ही मन ठान लिया था कि वह कैट  पास कर के अपने पेरैंट्स के सपने को जरूर पूरा करेगी.

गीत के पापा का लंबाचौड़ा बिजनैस था. मां गृहिणी थीं जो हर समय पूजापाठ आदि में व्यस्त रहतीं. उन की दुनिया घरगृहस्थी और मंदिर तक ही सीमित थी.

गीत का गोरा रंग और सांचे में ढला छरहरा बदन देख लड़के आंहें भरा करते थे. इसलिए उस का बीकौम पूरा होते ही मम्मीपापा उस की शादी कर के अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाना चाहते थे, लेकिन गीत किसी तरह से भी शादी के लिए तैयार नहीं थी और उस ने जिद कर के कैट की परीक्षा के लिए आकाश औनलाइन कोचिंग के मैटीरियल, बुक्स, पेपर्स और वहां के लिटरेचर से घर पर तैयारी कर रही थी.

यशी ने दिल्ली में कोचिंग जौइन की थी. गीत दिल्ली अपनी फास्ट फ्रैंड यशी के साथ कंबाइंड स्टडी के बहाने से आई थी. वह अपनी प्लानिंग के अनुसार दिल्ली ऐग्जाम का सैंटर भर कर बहुत खुश थी. जब वह औनलाइन फौर्म भर रही थी तो उस ने चुपचाप परीक्षा केंद्र दिल्ली का औप्शन भर दिया क्योंकि उस का मनमीत दिल्ली में था.

गीत टैक्सी में बैठी हुई अंगद से मिलने की कल्पना में खोई हुई थी. उस के मन में पिछली बातें उमड़घुमड़ रही थीं.

जब वैबसाइट पर ऐग्जाम से संबंधित सूचना अपलोड हुई तो वह खुशी से नाच उठी क्योंकि ऐग्जाम तो केवल बहाना था, उस का खवाब तो अपने बौयफ्रैंड अंगद की बांहों में जल्द से जल्द खो जाने का था जो परीक्षा केंद्र के बहाने से पूरा होने वाला था.

गीत पिछले दिनों की यादों में खोई हुई सोच रही थी कि जब शाम को उस ने अपने पापा को दिल्ली सैंटर की बात बताई थी तो वे कितना नाराज हो कर बोले थे, ‘‘प्रयागराज की जगह दिल्ली का कालेज क्यों?’’

‘‘पापा मु?ो यशी के साथ कंबाइंड स्टडी करनी है.’’

‘‘मु?ो तो तुम्हारी कोई खास तैयारी दिखाई नहीं पड़ती,’’ वे धीमी आवाज में बोले, ‘‘पढ़नालिखना तो दिखाई नहीं पड़ता… केवल तुम्हारी शोशेबाजी दिख रही है. फौर्म भरने और ऐग्जाम दे देने से थोड़े ही कंपीटीशन पास हो जाते हैं… मन लगा कर तैयारी करनी पड़ती है.’’

 

मम्मी सुगंधा ?ाट से बोलीं, ‘‘आप तो बस हर समय उस से ऐसे ही बोलते हैं…

वह दिनभर तो लैपटौप खोल कर पढ़ती रहती है.’’

पापा पत्नी की तरफ आंखें तरेर कर बोले, ‘‘मैं अच्छी तरह से जानतासम?ाता हूं कि कितनी पढ़ाई हो रही है. कुछ उलटासीधा हुआ तो तुम ही जिम्मेदार होगी. कब जाना है?’’

‘‘पापा टिकट तो मैं ने कर लिया है.’’

‘‘तुम्हारा सब काम अब अपने मन से होने लगा है. टिकट कैंसिल करा दो, मैं चलूंगा तुम्हें पहुंचाने.’’

यह सुनते ही गीत का चेहरा उतर गया. लेकिन अचानक पापा को बुखार आ गया इसलिए मम्मी का भी उन के पास रहना जरूरी हो गया. अत: उस के चेहरे पर हलकी सी मुसकान छा गई.

यशी को गेट पर देखते ही हाय यशी कहते हुए गीत उस के गले लग गई. काफी दिनों के बाद मिलने पर दोनों सहेलियों की आंखें छलछला पड़ीं.

‘‘यशी, पापा को बुखार आ गया इसलिए उन्होंने रामू काका को मेरे साथ भेज दिया था.’’

रामू काका को उस ने उसी टैक्सी से सोसायटी के गेट पर आते ही वापस भेज दिया.

‘‘अरे वाह गीत तुम तो बहुत इंटैलीजैंट हो  गई हो… अंगद कभी दिखता है?’’

‘‘नहीं यार… कोचिंग के मारे दम मारने को फुरसत नहीं है.’’

‘‘अरे वाह मेरी पढ़ाकू सखी.’’

टेबल पर बुक्स और खुले लैपटौप को देख कर वह बोली, ‘‘यशी तुम तो लग रहा है कि  सीरियसली तैयारी कर रही हो.’’

‘‘हां यार, मैं तो जीजान से लगी हुई हूं. मु?ो तो हर हाल में कंपीटीशन पास करना ही है…. देखो अब रिजल्ट क्या होता है. वैसे उम्मीद तो पूरी है.’’

अंगद ने उसी कालेज से एमबीए की डिगरी ली थी. अंगद पढ़ने में बहुत तेज था,

वहीं गीत बहुत खूबसूरत थी. दोनों को अपनीअपनी खूबियों का एहसास था. शुरू के दिनों में तो आपस में नोक?ांक हुई लेकिन फिर दोस्ती गहरे प्यार में कब बदल गई पता ही नहीं लगा.

गीत तो कालेज समाप्त होते ही अंगद पर  शादी कर लेने के लिए जोर डालने लगी थी और वह कैंपस सलैक्शन की जौब जौइन कर लेने के लिए दबाव डाल रही थी लेकिन अंगद अपने लिए अच्छा पैकेज और कंपनी खोज कर अपनी काबिलीयत को परखना चाह रहा था इसलिए उस ने प्रतियोगी परीक्षाओं को पास करने के लिए दिल्ली के एक प्रतिष्ठित इंस्टिट्यूट में एडमिशन ले लिया था. उस ने गीत से कहा था कि मैं जब कुछ बन जाऊंगा तभी तो तुम्हें बेहतर भविष्य दे पाऊंगा.

हालांकि दोनों मोबाइल और सोशल मीडिया के माध्यम से जुड़े हुए थे लेकिन गीत अंगद से दूरी सहन नहीं कर पा रही थी. उस ने अपने पापा से दिल्ली जा कर कोचिंग करने के लिए बहुत जिद की थी लेकिन वह किसी भी तरह से राजी नहीं हुए थे और प्रयागराज के ही कोचिंग इंस्टिट्यूट में एडमिशन करवा दिया था.

गीत ने अंगद से मिलने के लिए यह तरीका निकाला और यशी के साथ कंबाइंड स्टडी के बहाने दिल्ली पहुंच गई. जब उस ने अंगद को सरप्राइज देते हुए बताया कि वह दिल्ली में है तो तुरंत अंगद अपनी बाइक ले कर उस की सोसायटी के पास पहुंच गया.

गीत अपने प्रियतम को देखते ही दौड़ती हुई बिना किसी की परवाह किए उस से लिपट गई. अंगद घबरा कर चारों ओर देखने लगा और आहिस्ता से उसे अपने से अलग किया. लेकिन गीत पर तो अंगद को पाने का नशा छाया हुआ था. वह उस की बाइक पर उस से चिपक कर बैठ गई. अंगद बहुत असहज महसूस कर रहा था. वह उसे एक पार्क में ले गया. वहां तो गीत कभी अंगद के कंधे पर सिर रखती तो कभी उस का हाथ पकड़ कर सहलाने लगती. अंगद पर भी नशा छाता जा रहा था.

तभी यशी का फोन आया कि वह लाइब्रेरी में स्टडी के लिए जा रही है. वहां उसे 2-3 घंटे लगेंगे. यशी उन दोनों की तड़प सम?ा रही थी इसलिए जानबू?ा कर उस ने लाइब्रेरी का बहाना बनाया जबकि वह अपनी फ्रैंड के पास चली गई थी.

अब तो अंगद और गीत दोनों कमरे में अकेले थे. एकांत पाते ही गीत अंगद की बांहों में समा गई. अब अंगद का भी अपनेआप से नियंत्रण खत्म हो चुका. फिर 2 जवान दिलों को एक होने में कितनी देर लगती है. आज दोनों के बीच वह दीवार भी ढह गई जिसे दोनों ने शादी के लिए बचा कर रखा था. उन दोनों को होश तब आया जब शाम को दिन ढले यशी ने घंटी बजाई.

अंगद तेजी से चला गया परंतु उस की नजरें ?ाकी सी थीं जैसे उसे अपनी गलती का पछतावा हो रहा हो. गीत की आंखों में खुशी की चमक देख यशी ने छेड़ते हुए कहा, ‘‘क्या बात है गीत बहुत खुश दिख रही हो?’’

‘‘दोस्त मैं तो तेरी जिंदगीभर के लिए कर्जदार बन गई हूं. जो खुशी तुम्हारी वजह से आज मु?ो मिली है उसे बयां करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं.’’

‘‘दोस्त किसी पर एहसान नहीं करते, समय आने पर वसूल भी कर लेते हैं,’’ कह कर यशी हंस पड़ी और सुनाओ, जब 2 दीवाने आपस में मिल बैठे तो क्याक्या कर गुजरे?’’

क्या यार तू भी क्या कहेगी? उस ने अपना मोबाइल औन किया और फिर अपने अंतरंग पलों का वीडियो दिखाया. वह अंतरंग पलों का वीडियो देख यशी का चेहरा लाल हो उठा. गीत की आंखें भी शर्म से ?ाकी थीं.

‘‘आखिर तूने यह शूट कैसे किया?’’ यशी ने पूछा.

‘‘बस मोबाइल पर कैमरा औन कर के टेबल पर रख दिया. अब मैं अंगद के प्यार के इन पलों की यादों को अपने साथ ले कर जाऊंगी. जब भी उस की याद आएगी इसे देख कर अपनी प्यास बु?ा लिया करूंगी,’’ अंगद के प्यार में आकंठ डूबी गीत ने खोए हुए अंदाज में कहा.

‘‘देख लो गीत, तुम्हारी यह नादानी कहीं तुम्हारे लिए कोई बड़ी मुसीबत न बन जाए,’’ लेकिन प्यार में डूबी गीत ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया. इस तरह से गीत अंगद के साथ अंतरंग संबंध बना कर बहुत खुश थी और ऐग्जाम दे कर लौट गई. अंगद को पा कर वह खुशियों के ?ाले पर ?ालती हुई आकाश में उड़ी जा रही थी.

कुछ दिनों से उसे यह महसूस हो रहा था कि अंगद अब उसे इग्नोर कर रहा है क्योंकि जब वह उसे कौल करती तो वह बिजी हूं, बाद में करता हूं कह कर फोन काट देता. कई बार कहता कि फोन साइलैंट पर था. हर बार कोई बहाना बना देता.

गीत को अंगद का यह रवैया बहुत परेशान कर रहा था. वह पछता रही थी कि उस ने क्यों इतनी बड़ी बेवकूफी कर डाली.

एक दिन गीत अपने व्हाट्सऐप पर मैसेज देख रही थी. तभी यशी का मैसेज देख वह चौंक पड़ी. उस ने वही वीडियो उसे भेजा था जो उस का और अंगद के अंतरंग पलों का था, जो उस ने यशी को दिखाया था.

एक पल को तो घबराहट के कारण उस के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं लेकिन फिर अपने को नौर्मल दिखाने की कोशिश करती हुई उस ने लिखा, ‘‘वाह यशी तुम तो पूरी उस्ताद निकलीं. मेरी आंखों से तुम ने काजल कब चुराया? यह तुम ने कब कर लिया?’’

‘‘अरे 10 मौके थे… बस कर लिया. अब मु?ो 5 हजार रुपयों की जरूरत है तुम तुरंत भेज दो नहीं तो अंजाम….’’

गीत समझ गई कि वह ब्लैकमेलिंग का शिकार बन चुकी है. यद्यपि जब से वह दिल्ली लौट कर आई थी, वह अपने कृत्य पर बहुत शर्मिंदा हो कर स्वयं को कठघरे में खड़ा कर रही थी कि उस ने इतनी बड़ी ब्लंडर आखिर क्यों कर दी. वह बारबार उस घड़ी को कोस रही थी जब वह अंगद के साथ अंतरंग हुई थी. वैसे तो वह अंगद को अपना भावी पति मान रही थी लेकिन उस ने अपने कौमार्य को अक्षत क्यों नहीं रखा… वह अपनी सुहागरात तक क्यों नहीं अपने कौमार्य को सुरक्षित न रख सकी.

गीत मन ही मन सोचती रहती कि यदि गर्भ ठहरने की आपात स्थिति आ जाती तो वह अपने मांपापा के सामने कैसे जाती. वह क्या कर बैठी है… यदि अंगद ने उस से शादी से मना कर दिया और मांपापा के दबाव में उसे कहीं और शादी करनी पड़ी… उस के पति को यह शक हो गया कि वह वर्जिन नहीं है तो वह जीतेजी मर जाएगी और मांपापा तो सचमुच में जहर खा लेंगे… यदि यशी उस के वीडियो को वायरल कर देगी तो इस के पास तो आत्महत्या कर लेने के सिवा दूसरा कोई रास्ता ही नहीं रह जाता.

उफ, वह क्या कर बैठी है… परंतु अब पछताए होत क्या, जब चिडि़यां चुग गईं खेत.

यशी उस की बचपन की सब से अच्छी दोस्त कितनी नीचता पर उतर आई है… सारी बातें उस के दिमाग में अपना बसेरा बना कर बैठ गईं… और इस वजह से उस की रातों की नींद उड़ी हुई थी. उसे अब अंगद से भी फोन पर बात करने से डर लगने लगा था. वह रातदिन यही सोचती रहती और जितना सोचती, उतना ही नैराश्य से घिरती जाती. उसे डिप्रैशन हो रहा था.

गीत के चेहरे की रंगत बिगड़ गई थी. वह अपने बैड पर पड़ी इन्हीं बातों में उल?ा छत को देखती रहती. उस ने जो किया वह तो उस समय का नशा था लेकिन यह वीडियो बनाने की कैसी नासम?ा वाली हरकत कर बैठी थी… और तो और यशी के सामने अपनी बेवकूफी जाहिर करते हुए वीडियो क्यों दिखाया… उस के समान दुनिया में कोई भी मूर्ख नहीं होगा… उफ, कितनी  बचकानी हरकत कर बैठी है… क्या जरूरत थी यशी को यह वीडियो दिखाने की…

गीत को अपने ऊपर गुस्सा आता कि एक तरफ ऐसी बचकानी हरकत और फिर आ बैल मु?ो मार कहावत चरितार्थ करते हुए यशी को वीडियो दिखा डाला… अब तो तीर कमान से निकल चुका है, इसलिए उसे इस स्थिति से  होशियारी से निबटना पड़ेगा. वह मन में तरहतरह की योजनाएं बनाती रहती लेकिन उसे अपने चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा दिखाई पड़ता.

मां बोलीं, ‘‘क्या हुआ है तु?ो? चलो डाक्टर के पास दिखा लाएं.

‘‘नहीं मां, मैं ठीक हूं.’’

उस ने किसी तरह 5 हजार रुपए यशी को भेज दिए लेकिन वह जानती थी कि यशी के लिए तो वह अब सोने का अंडा देने वाली मुरगी बन चुकी है… उस ने खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है तो उसे इस जख्म का इलाज भी खुद ही जल्दी से जल्दी करना पड़ेगा नहीं तो यह नासूर बन कर उसे ऐसा दर्द बारबार देता रहेगा. इसलिए अब उसे सम?ादारी से उस के फोन से इस वीडियो को डिलीट करना होगा.

गीत ने चुपचाप उस के घर से पता लगा लिया कि इस सैटरडे को यशी अपने घर आने वाली है… बस उस ने अपने मन में प्लान तैयार कर लिया. वह यशी के घर पहुंच गई और हायहैलो के बाद यशी से गले मिल कर हालचाल पूछने लगी लेकिन वीडियो या पैसे को ले कर  अपने चेहरे पर कोई शिकन नहीं आने दी.

तभी आंटी ने यशी को किसी काम के लिए पुकारा तो वह तेजी से अंदर गई. तब जल्दी से गीत ने फोन खोलने की कोशिश की तो वह तो बिना पासवर्ड के खुल ही नहीं सकता था क्योंकि फोन तो लौक्ड था… वह सोच नहीं पा रही थी कि अब उसे क्या करना चाहिए… उस ने अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाए और जब तक यशी आती उस ने फोन में से मैमोरी कार्ड निकाल कर अपने पर्स में रख लिया.

थोड़ी देर इधरउधर की बात करने के बाद गीत अपने घर लौटने लगी तो यशी बोली कि गीत मु?ो कल तक 5 हजार रुपए दे देना क्योंकि अगले दिन ही मु?ो जाना है.

गीत मन ही मन बहुत खुश थी अब तुम्हें एक पैसा भी नहीं मिल पाएगा… वह अपनी कामयाबी पर बहुत प्रसन्न थी कि उस ने बड़ी आसानी से अपना काम कर लिया है.

‘‘यशी ठीक है, तुम कल मेरे घर पर आ जाना… मैं कोशिश करती हूं… नहीं तो मम्मी से मांग कर दूंगी.’’

दोनों सखियों के चेहरे पर विजयी मुसकान थी. एक स्वर्ण मृग का शिकार कर के तो दूसरा शिकारी की गरदन पकड़ लेने की कल्पना कर के.

गीत ने घर पहुंचते ही मैमोरी कार्ड को चैक किया तो वह निराश हो गई क्योंकि उस में वह वीडियो नहीं था. इस का मतलब है कि वह वीडियो मोबाइल की हार्ड डिस्क में है… यदि किसी तरह से मोबाइल को फौर्मैट करवा दिया जाए तो बात बन सकती है. वह मन ही मन कई तरह के प्लान बना रही थी लेकिन कुछ सम?ा नहीं पा रही थी कि कैसे यशी का फोन उसे मिल सकता है…

अगली सुबह यशी का फोन आया, ‘‘गीत तुम ने रुपए तैयार कर लिए…’’

‘‘हां मैं ने मौम से रुपए मांगे तो उन्होंने दे दिए हैं, इसलिए आज आ जाना मौम भी तुम्हें बहुत याद कर रही थीं. मैं इंतजार करूंगी.’’

यशी की आंखों के सामने तो 5 हजार के करारे नोट नाच रहे थे. वह हमेशा की तरह गीत के घर आ गई.

‘‘आंटी कहां हैं?’’

‘‘जरा मार्केट तक गई हैं… आ ही रही होंगी. यशी रुपए तो मौम के आने के बाद ही मिल पाएंगे. मु?ो यह अंदाज नहीं था कि तुम इतनी जल्दी आ जाओगी. चाय पीएगी या कौफी?’’

‘‘कुछ भी पिला दो,’’ कह कर यशी मोबाइल पर गेम खेलने में बिजी हो गई थी. तभी गीत ने आवाज दी कि वहां अकेले क्या कर रही है? यहां आ जाओ तो कुछ बातें की जाएं.’’

यशी की उंगलियां तो गेम पर थिरक रही थीं. यह लैवल जीतने का नशा बड़ा ही अलबेला होता है. लोग होशहवास खो कर मोबाइल पर ही नजरें लगाए रहते हैं. यशी भी अपने गेम में बिजी,  कीबोर्ड पर अपनी उंगलियां चला रही थी. तभी गीत ने कनखियों से उस की ओर देखा और हलके से अपनी कुहनी उस के हाथ पर मार दी, उस के हाथ से मोबाइल छूट कर जमीन पर गिर गया.

यशी चिल्ला कर बोली, ‘‘यह क्या बद्तमीजी है? तुम ने मेरा मोबाइल…’’ वह नीचे ?ाक पाती कि उस से पहले ही चीते की तेजी से गीत ने मोबाइल उठा कर चाय के पैन के खौलते पानी में डाल दिया.

यशी ने तुरंत आंच बंद कर के मोबाइल निकाला और औन करने की कोशिश करने लगी लेकिन फोन औन नहीं हुआ तो वह चीख कर बोली, ‘‘तुम ने मेरा फोन जानबू?ा कर खौलते पानी में डाला है.’’

‘‘अरे नहीं वह तो मेरे हाथ से फिसल कर गिर गया.’’

‘‘अब तुम्हें ही इस की रिपेयरिंग करवानी पड़ेगी.’’

‘‘चलो यहीं पास में मोबाइल रिपेयरिंग की शौप है, वहीं चलते हैं… जो भी चार्ज होगा मैं दे दूंगी.’’

‘‘मेरे रुपए तो दे दो…’’

‘‘इतनी भी क्या जल्दी है यार फोन ठीक करवा कर यहीं तो आएंगे.’’

फोन मेकैनिक ने फोन खोल कर चैक किया तो वह बोला कि खौलते पानी में गिर जाने से

फोन की आईसी चली गई है इसलिए बदल कर नई लगानी पड़ेगी और इस का सारा डेटा करप्ट हो चुका है.

गीत के कान कब से यही बात सुनने को तरस रहे थे. उधर यशी के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. इतनी जल्दी उस के हाथ से सोने का अंडा देने वाली मुरगी निकल गई थी…

‘‘सौरी यार,’’ तुम्हारा फोन मेरी वजह से खराब हो गया. मु?ो बहुत अफसोस है कि तुम्हारे हाथ से सोने का अंडा देने वाली मुरगी इतनी जल्दी मर गई.’’

‘‘ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है वह वीडियो तो मेरे फोन के मैमोरी कार्ड में सेव है, इस में नहीं था.’’

गीत ने पर्स से मैमोरी कार्ड निकाल कर 2 टुकड़े कर के हवा में उछाल दिया,’’ लो ये रहा तुम्हारा बेचारा मैमोरी कार्ड.’’

यशी आंखें फाड़े गीत की होशियारी देखती रह गई थी.

‘‘यशी यार यू आर ग्रेट… तुम ने मु?ो बहुत कुछ सिखा दिया कि किसी को भी मेरी तरह की बेवकूफियां कभी नहीं करनी चाहिए और यदि कभी करनी भी हैं तो किसी को भी कभी भनक तक न लगने दो यहां तक कि अपने इस तरह के राज अपने सब से खास से भी छिपा कर रखो.

‘‘दूसरी बात यह कि कभी किसी पर आंख बंद कर के भरोसा मत करो… भविष्य में जाने कब वह आप के राज को सब के सामने उजागर कर के आप को मुसीबत में फंसा दे और सच तो यह है कि ऐसे राज अपनेआप से भी छिपा कर रखना चाहिए. सम?ा गई मेरी प्यारी दोस्त यशी?’’

गीत कुछ पलों तक उसे ध्यान से देखती रही. तभी यशी भी जोर से हंसने लगी. गीत को चौंकते देख कर बोली, ‘‘तो तू सम?ा रही थी कि मैं तु?ो ब्लैकमेल कर रही हूं. मेरी बन्नो, मेरा प्लान तो तु?ो सम?ाना था. तेरे दिए रुपए तो वैसे के वैसे पर्स में रखे हैं. ले वापस ले,’’ कहते हुए यशी ने पूरे पैसे लौटा दिए. यही नहीं उस ने गीत का मोबाइल ले कर उस के मोबाइल से भी उस का वीडियो डिलीट कर दिया.

‘‘लो अब न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी…’’ यशी ने पूरे आत्मविश्वास के साथ गीत को अपने गले से लगा लिया.

‘‘आ गले लग जा… यू यार माई रियल फ्रैंड,’’ गीत बोली.

Hindi Folk Tales : वह धुकधुक – आवारा लड़कों ने कविता के साथ क्या किया?

 Hindi Folk Tales :  सर घड़ी तो देखिए रात के 8 बज गए.’’

‘‘तो? वे तो रोज बजते हैं. उस में क्या? जाओ अपना काम करो.’’

‘‘आप जानते हैं कि मेरा घर यहां से बहुत दूर है और मैं अपनी छोटी बच्ची पड़ोस में छोड़ कर यहां काम करने आती हूं.’’

‘‘इस में हम क्या करें?’’

‘‘सर, प्लीज मु?ो जाने दीजिए कल सुबह जितनी जल्दी बुलाएंगे मैं पक्का आ जाऊंगी.’’

कविता फैक्टरी के मैनेजर राणे से हाथ जोड़ कर विनती करती रही पर उस की जायज याचना उस ने उस के साथ होने वाले परिणाम को बिना विचारे सिरे से नकार दी.

‘‘देखो हम ने आप को नौकरी पर रखने से पहले सारी बातें पानी की तरह साफ कर रखी थीं कि जब ज्यादा और्डर आएंगे तो आप को देर रात काम करना पड़ेगा. तब कोई बहाना नहीं चलेगा.’’

‘‘सर, प्लीज.’’

‘‘आप को जाना है तो बेशक जाइए पर फिर कल से काम पर आने की कोई जरूरत नहीं है.’’

मैनेजर राणे ने अपने असिस्टैंट को उस के सामने ही आवाज देते हुए कहा, ‘‘पुजारी., देखो ये मैडम जाना चाहती हैं, इन का हिसाब कर इन की छुट्टी कर दो और कल से गेट में घुसने मत देना. यहां हर किसी की सुनने बैठे रहे तो फिर चल गई फैक्टरी.’’

सब के सामने कविता को जिल्लत भरी बातें सुना कर अपने कड़वे मुंह में अपनी ऐंठनी हंसी दबाते मैनेजर राणे फैक्टरी में काम देखने चले गए.

कविता के पास कोई चारा न बचा. मजबूरी न होती तो आज ही नौकरी छोड़ देती पर अपनी लाचारी के आगे कोई ऐसावैसा कदम उठाने की हिम्मत न कर पाई. बु?ो मन से उस ने अपना ऐप्रन वापस पहना और काम पर लग गई.

आखिरकार रात के 10 बजे घंटाघर से काम समाप्ति का सायरन बजा और अन्य पुरुष स्टाफ के बीच गिनीचुनी महिलाओं की टुकड़ी लेडीज स्टाफरूम पहुंच लौकर से अपनाअपना सामान ले कर वहां से बाहर निकलने लगीं.

कइयों के घर वाले फैक्टरी के बाहर उन का इंतजार कर रहे थे और कुछ के घर पास की बस्ती में थे. उन में से मात्र कविता थी जिसे इतनी देर रात बिना किसी निर्धारित साधन के अपने घर का लंबा सफर तह करना था.

धीरधीरे कर स्टाफरूम में वह अब अकेली रह गई. अपना सामान लौकर से निकालते उस का दिमाग अन्य विषय में चलना बंद हो गया. उसे सिर्फ एक ही खयाल खाए जा रहा था कि क्या इतनी देर रात ऐसे निकलना उस के लिए सुरक्षित होगा? बिना यहां से न जाए उस के पास कोई और रास्ता भी तो नहीं है.

उस ने अपना पर्स निकाल कर लौकर बंद किया और उसी पल उसे कुछ अजीब सा आभास हुआ जैसे उस का मन उसे आने वाले अदृश्य प्रहार से सचेत कर रहा हो और वह अपना पर्स थाम कर यहांवहां देखते हुए कमरे से बाहर निकलते दौरान रूम पर लगे आईने के रिफ्लैक्शन से पाया कि मैनेजर राणे अपनी गरदन पर हाथ मल उसे आह भरते चुपचाप निहार रहे हैं.

कविता ने ऐसी प्रतिक्रिया दिखाई जैसे उस ने उन्हें देखा ही नहीं और उस जगह पर खुद को असहज महसूस कर वहां से जाने लगी.

इतने में कुछ घंटे पहले अपनी जबान से जहर के बाण चलाने वाले मैनेजर राणे ने इस पल पिघले हुए मक्खन की तरह बड़ी नरमी से कविता को पुकारा, ‘‘कविता ओ कविता, कहां भागी जा रही हो? तनिक 2 मिनट रुको तो सही.’’

‘‘जी सर, कहिए.’’

‘‘आज तुम्हें बहुत देर हो गई है, तुम्हें यहीं स्टाफ क्वार्टर में रुक जाना चाहिए. मैं भी यहीं रुक रहा हूं, तुम से कई सारी बातें भी हो जाएंगी और तुम चाहो तो उस से ज्यादा भी बहुत कुछ हो सकता है.’’

‘‘सर मैं समझ नहीं?’’

‘‘रुकोगी तब सब समझ दूंगा. तुम समझने को तैयार हो गई तो तनख्वाह में भी इजाफा होगा सो अलग,’’ मैनेजर राणे कविता के पहने ढीलेढाले कपड़ों से भी उस के स्तनों और नितंबों के उभारों को अपनी भद्दी आंखों से छूते हुए पूछने लगे.

‘‘आप का शुक्रिया सर, मेरी बच्ची मेरा इंतजार कर रही होगी, मैं निकलती हूं,’’ अपने स्तनों को अपने पर्स से छिपा वह कमरे से तुरंत बाहर निकल गई.

कविता का सहकर्मी अगर भरोसेमंद होता तो वहां रुकने की सोच भी सकती थी, पर उस की इंद्रियां राणे की बुरी नियत का पूर्वाभास कर उसे सचेत करने लगीं.

‘‘बसस्टौप पहुंचते रात के 11 बज जाएंगे. इतने समय में तुम्हें कौन सी बस मिलेगी?’’ मैनेजर राणे ने जाती हुई कविता को तेज अवाज लगाते हुए कहा जो उस की मजबूरी बखूबी जानता था. आज जानबू?ा कर फैक्टरी के काम के नाम पर वह उसे रोकने में सफल रहा, जिस से वह घर जाने को लेट हो व वहीं रुकने को बाध्य हो जाए और वह अपने महीनों से उबलते अपने नापाक इरादों को अंजाम दे सके.

‘‘कुछ न कुछ तो मिल ही जाएगा सर. मु?ो अब निकालना चाहिए.’’

‘‘रास्ते में तुम्हारे साथ कोई ऊंचनीच हो गई तो इस के लिए मु?ो जिम्मेदार मत ठहराना. यह बात याद रखना कि तुम्हारा शुभचिंतक तुम्हें जाने से रोक रहा था बाकी तुम्हारी मरजी.’’

कविता ने उन की बात का कोई उत्तर देना उचित न सम?ा और उसी बीच राणे एकदम से उस के समीप आ कर उस के कंधे पर हाथ फेरने लगा.

राणे की नीयत भांप कविता तुरंत वहां से चल दी.

आधी रात अकेले यात्रा करने से ज्यादा खतरा क्या उसे वहां कम था? वह वहां रुकती तो मैनेजर उसे नोच खाता. वह यही सोचती फैक्टरी के गेट तक आ पहुंची और रजिस्टर में साइन आउट करने लगी.

कविता ने अपने एक खतरे को तो टाल दिया पर आगे कितने खतरे उस का बेसब्री से इंतजार कर रहे होंगे उसे बिलकुल अंदाजा न था.

सिर्फ फैक्टरी से घर जाने तक का यह साधारण सा रास्ता तय करना आज उस के लिए किसी कांटों की सेज से कमतर नही साबित होने वाला है, कदम दर कदम वह अपने हर पड़ाव पर एकएक युद्ध का सामना करने को बाध्य हो उठेगी.

कविता फैक्टरी से बाहर निकल गई. चारों तरफ दूरदूर तक रोशनी नदारद थी, पेड़ों की पत्तियों की सरसराहट उस के कानों में फुसफुसाती जा रही थी कि कोई उसे चुपचाप छिप कर देख रहा है, उस के अकेलेपन का फायदा उठाने एक बेनामी साया उस का पीछा कर रहा है.

अपने विचारों की सिकुड़न महसूस करते कविता कुछ कदम आगे बढ़ी थी कि अचानक उस खौफनाक अंधेरे को चीरती एक चिखती हुई बिल्ली की डरावनी मियाऊं ने उस के रोंगटे खड़े कर दिए, दिन में शांत और रात में मुस्तैद कीटपतंगों की दूरदूर से आती अजीबोगरीब भयानक आवाजों से वह बुरी तरह डरने लगी. उस का मन और शरीर उस घोर अंधेरे के आगे हार मानने लगा.

वह घना सन्नाटा उसे दबोच कर जैसे उस पर हावी होना चाहता था. डरतीघबराती कविता अपना 1-1 कदम घसीटते रोड के करीब आ पहुंची.

दूर से दिखती जलती स्ट्रीट लाइट ने उस की थोड़ी हिम्मत बांध दी और वह उस की रोशनी की आड़ में अपनी चुन्नी को सिर से ढक अपना चेहरा छिपाती बसस्टौप की ओर जल्दीजल्दी तेज कदमों से कभी आगे तो कभी पीछे देख बढ़ती रही.

अकेली बसस्टौप पर आधे घंटे से खड़ी थी. इस बीच उस का फोन वाइब्रेंट होता जोरजोर से बजने लगा और उस की कंपन अपने हाथों में महसूस कर उस का कलेजा जैसे फट कर बाहर आ निकला.

‘कोई नहीं है, यह तो बस फोन था, इतना क्यों डरना? आराम से गहरी सांस ले और अपना फोन उठा,’ कविता ने खुद से कहा.

कविता ने अपने पर्स के भीतर हाथ डाला पर लो बैटरी के कारण फोन निकालने से पहले बंद हो गया.

‘‘जरूर लता दीदी का ही फोन होगा, 8 बजे तक तो मैं घर पहुंच जाती थी. अब तो रात के 11 बज चुके हैं. न जाने कब घर पहुंच पाऊंगी. मुझे उन्हें एक मैसेज ही दे देना था कि आज देर हो जाएगी. बिना वजह उन्हें मेरी फिक्र सता रही होगी या कहीं पाखी को तो कुछ न हो गया हो. उस ने मन ही मन हाथ जोड़ कर विनती की कि उस के घर पहुंचने तक सब सही रखना. तभी बिलकुल खाली बस देख उस ने हिम्मत और आत्मविश्वास के साथ उस बस की नंबर प्लेट का फोटो खींचने का नाटक करते हुए उसे अच्छे से याद कर लिया. कान पर फोन और स्पीकर पर हाथ लगाते हुए जिस से ड्राइवर को लगे कि चलती बस की आवाजें उस की बात पर बाधा न लाएं इसलिए ऐसा किया गया है न कि मोबाइल की लाइट न जलती देख उस के फोन औफ होने की शंका को छिपाना था.

फोन कान में दबाए बस के भीतर घुसने से पहले एक पैर रोड से उठा बस की सीढि़यों में रख जूते ठीक करने के बहाने वह ?ाकी और बस के भीतर जलती लाइट की रोशनी से सीट के नीचे चारों तरफ नजर घुमाने लगी. किसी के पैर न पा कर उसे थोड़ा आश्वासन मिला कि कोई छिपा नहीं है और वह सजगता के साथ खड़ी हो सामान्य से थोड़ा ऊंचा बात करते आपातकालीन निकास की खिड़की कहां है उसे देख पलट कर शुरुआती सीट में जा बैठी, जहां से ड्राइवर के संदेहजनक हावभाव साफसाफ देखे जा सकें और वह आगे क्या बात करने वाली वह उसे भलीभांति सुना सके.

‘‘हैलो भैया, हां. नहींनहीं आप को आने की जरूरत नहीं है, मुझे बस मिल गई है.’’

‘‘बस का नंबर? हां उस का फोटो ले लिया है आप को भेजती हूं.’’

‘‘ड्राइवर का नाम? एक मिनट पूछती हूं.’’

‘‘भैया आप का नाम क्या है? वह मेरे भैया कौंस्टेबल हैं न तो पूछपरख करते रहते हैं.’’

‘‘सुमेध.’’

‘‘भैया इन का नाम सुमेध है. ठीक है, ठीक है, मैं आप को निर्मला पारा स्टौप पर मिलती हूं,’’ यह कह कर कविता ने फोन काटने का नाटक कर अपने पर्स में रखा रामपुरी, मिर्ची स्प्रे और अपने कुछ जरूरी कागजात टटोले.

ऊपर से सामान्य दिखती हर पल अपनी रक्षा करने की प्रार्थना करती कविता का यह मात्र 35 मिनट का सफर रोज के मुकाबले आज देर रात सफर व मोबाइल बंद हो जाने के कारण ज्यादा धुकधुकी लिए गुजर रहा था क्योंकि खुद को सुरक्षित रखने वाला उस का ऐप एक बार बिना इंटरनैट, फोन लौक होने पर और लोकेशन चालू किए बिना काम तो कर सकता है पर बंद मोबाइल पर नहीं.

बस में सवार करीब सवा 11 बजे एक अकेली जवान औरत जिस का पति उस को और अपनी दुधमुंही बच्ची पाखी को इंसान के भेष में गिद्ध बने भेडि़यों के बीच शिकार बनने 2 वर्ष पहले भुखहाली में छोड़ कर भाग गया था.

अपने घर लौट कर आने के अलावा कोई और विकल्प न बचा पर बिन मां के घर ने उसे तिरस्कार के अलावा कुछ न दिया.

‘‘यहां मरने के लिए भी जीना पड़ता, जा खुद दो पैसे कमा तब सम?ा आएगा कि औरत की जिंदगी में एक मर्द की क्या कीमत होती है. भले वह मेरी तरह नकारा, पियक्कड़ क्यों न हो, चल दफा हो और यहां कभी पलट कर मत आना.’’

जब वह अपने मायके लौट आई तब जन्म देने वाले पिता ने अपनाने से ठुकरा दिया. काश, जब वह 8 वर्ष की थी तब अपनी आंखों के सामने पिता द्वारा मां को घासलेट छिड़क ?ालसाते वह उस रात उन्हें बचा पाने सामर्थ्य जुटा पाती तो उस की परवाह करने वाला आज कोई जिंदा होता.

पिता की कही एकएक कड़वी बात आकाशवाणी की तरह सही निकलती गई, अपना घर छोड़ने के उपरांत एक किराए के कमरे के लिए वह दरदर की ठोकरें खाने को मजबूर हो गई और अपनी एडि़यां हजार जगह घिसने के बाद घर से इतनी दूर यह नौकरी हासिल हुई.

उस के मन में, उस के न सुनने की इच्छा के विरुद्ध, औरों की कही कचोट भरी बातें रहरह कर एक टेप रिकौर्डर की तरह अनवरत बजने लगीं.

‘‘अकेली औरत ऊपर से बच्चा. क्या कमाएगी जो किराया भर सके, हम घर नहीं दे सकते,जा कहीं और ढूंढ़.’’

‘‘अभी तो जवान हो, चाहो तो ऐसा काम कर सकती हो जिस में मुंह मांगा दाम मिल सकता है.’’

‘‘अरे पति नहीं है तुम्हारा? तो क्या हुआ हर रात हम सेवा दे जाएंगे.’’

‘‘नौकरी तो दे दे पर यह बच्चा साथ नहीं ला सकती.’’

‘‘कई बार देर रात तक काम चलता है तब न नहीं कह सकती.’’

कविता ने किसी को कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई और अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करने लगी. समय ने भी साथ दिया और वे सब एक सीमा के बाद बक कर चुप होते चले गए.

वह तो भला हो पड़ोस में रहने वाली लता दीदी का, जिन्होंने एक मां की तरह कविता की हर कदम पर मदद की और पाखी को संभालने की जिम्मेदारी निभाई.

बस की तेज रफ्तार अचानक धीमी होने लगीं. कविता ने अपनी पिछली जिंदगी के खयालों को विराम देते हुए इस बात का कारण जानना चाहा और वह ड्राइवर के हावभाव देखने लगी जो बाहर मुसकराता किसी को हाथ हिलाता दिखाई दिया.

कविता को अंदेशा हुआ कि वह अपने किसी जानकार को प्रतिक्रिया दिखा रहा है. उस ने ?ाटपट अपनी गरदन घुमाई और खिड़की के बाहर उस घने अंधेरे के बीच बस की हैडलाइट की रोशनी से देखने का प्रयास किया. उसे कुछ दूर पर स्थित अगले स्टौप पर कुछ लफंगे लड़कों का ?ांड बस में चढ़ने के लिए हुड़दंग मचाते ड्राइवर को हाथ दिखाते हुए खड़े दिखे.

बस जैसेजैसे उन के समीप जा रही थी, कविता का मन किसी उनहोनी होने की चेतावनी चीखचीख कर उसे बता सजग करने लगा. वह अपनी कभी यहां नहीं तो वहां होती रोज की धुकधुक से बखूबी वाकिफ थी जो वर्तमान परिस्थिति में अपनी चरम पर जा पहुंची थी. वह उन 5 लड़कों को अपनी तरफ इशारा कर निहारते, ड्राइवर के साथ घटिया हंसीहंस करते देख घबराने लगी.

वे नशे में चूर एक के पीछे एक उस की ओर लड़खड़ाते बढ़ने लगे.

‘‘क्या मैडम इतनी रात इस बस में कैसे?’’

‘‘क्या हमारा इंतजार कर रही हो क्या?’’

‘‘लो हम आ गए बताओ आगे क्या करने का इरादा है?’’

‘‘अरे क्या मैडम कुछ तो कहिए?’’

‘‘क्या आप की खामोशी को हम आप की हामी भरता सम?ा लें?’’

‘‘देखदेख मैडम शरमा गई.’’

5 मुस्टंडे उस के सामने खड़े हो हंस रहे थे और अश्लील बातें कर रहे थे.

उन लड़कों को उसे अपनी संपत्ति सम?ाते देख कविता के मन ने उसे सिसकारते हुए पुकारा और कहा कि तू इन जैसे लफंगों से हार कतई नहीं मान सकती.

कविता को इतनी देर में समझ आ चुका था कि ड्राइवर उस की कोई मदद नहीं करने वाला, उस का मदद के लिए पुकार लगाना निरर्थक प्रयास होगा. जो भी करना है उसे ही करना है. अगर वह उन से डर गई और अपनी हार मान ली तो दोनों तरफ से नुकसान उसी का होगा. अगर साहस व सू?ाबू?ा से काम किया तो शायद इन से बच निकला जा सकता है.

उस ने उन की ओर देखते हुए चुपचाप पर्स के अंदर अपना हाथ सफाई से डाल रामपुरी निकाल कर अपनी जेब में रख लिया, अपने मिर्ची स्प्रे को टटोला और अपने हाथों में उस का स्प्रेयर बिलकुल ऐंगल में सैट कर मजबूती से पकड़ लिया.

लड़के जैसे ही उस के काफी नजदीक आ गए वह फट से खड़ी हो गई और अपना मिर्ची स्प्रे निकाल तुरंत 3 लड़कों की आंखों में डालने में कामयाब रही, पर इतनी देर में बाकी 2 ने उस का हाथ पकड़ कर स्प्रे पट लिया.

वे 3 चीखतेचिल्लाते बस में गिरतेपड़ते पिछली सीटों पर बैठ कर कराहने लगे.

अपने 3 साथियों की उम्मीद के बिलकुल विपरीत ऐसी हालत वह भी एक कमजोर सी दिखने वाली लड़की द्वारा करता देख बाकी बचे 2 बौखला गए.

‘‘कुत्तिया साली. होशियार बनती है, इस का पर्स छीन कर देख और क्याक्या सामान भर के रखा इस ने. तब तक मैं इस के किए की सजा देता हूं,’’ एक ने उस का पर्स लिया और दूसरा उस पर जैसे ही ?ापटा कविता अपना पूरा बल लगा कर उस से बचने का प्रयास करने लगी. अपने जूते के सोल पर लगी नुकीली कील उस की छाती पर कस कर दे मारी.

‘‘यह क्या पहन रखा है. हटा इसे,’’ वी उस के पैर से उस का जूता उतारने का प्रयास करने लगा और वह अपने दूसरे पैर से उस के हाथ पर जोरदार लात मारी.

‘‘अरे रुक जा अगले बसस्टौप में यात्री खड़ा है. लफड़ा हो जाएगा, तुम सब उतरो चलो शायद यह उस का कौंस्टेबल भाई हो सकता है,’’ ड्राइवर ने पीछे मुड़ कर आवाज लगाई.

‘‘जो भी हो इस को तो मैं आज छोड़ने नहीं वाला,’’ कविता ने जैसे ही उस की गरदन ड्राइवर की ओर घूमते हुए पाई उस ने जोरजोर से आवाज लगाना शुरू कर दिया, ‘‘बचाओ… बचाओ…’’

‘‘अबे ड्राइवर. बस को आगे बढ़ा बिलकुल रोकना मत नहीं तो तेरी खैर नहीं,’’ जिस ने कविता का पर्स पकड़ा था उस ने कहा.

बस मोड़ की वजह से धीमी जरूर हुई मगर स्टौप पर रुकी नहीं. उस बस का इंतजार करते नौजवान ने कविता के चीखने की आवाज सुनी और दौड़ कर उस चलती बस में सवार होने में सफल रहा.

‘‘क्या ड्राइवर तुम्हें को यात्री नहीं दिखता है?’’

‘‘वे ब्रेक नहीं लगे.’’

‘‘ब्रेक नहीं लगे. अब तेरी नौकरी में जरूर ब्रेक लगवाता हूं रुक,’’ उस ने चढ़ते ही ड्राइवर को सुनाया और जैसे ही उस ने पीछे देखा तो पाया कि 3 लड़के पिछली सीट पर अपनी आंखें मलते कराह रहे हैं, चौथे के हाथ में लेडीज पर्स और 5वां एक अकेली लड़की के हावभाव देख ऐसा लग रहा है जैसे वह उस के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश कर रहा है.

उसे स्थिति का आकलन करते 2 मिनट न लगे और सीधा कविता के पास गुस्से से गया और चिल्लाते हुए बोला, ‘‘तुम्हें मैं कब से फोन लगा रहा हूं? अपना फोन क्यों नहीं उठाती? और कितना नाराज होना है तुम्हें? भाई साहब जरा हटे मुझे अपनी पत्नी से बात करनी है,’’ उस नवयुवक ने उस चौथे लड़के से कहा.

वे 5 थे और ड्राइवर को मिला कर 6. उन के सामने अपना बल दिखाना सम?ादारी नहीं होगी इसलिए उस ने अपने दिमाग का इस्तेमाल करना सही समझ कविता भी समझ गई कि व्यक्ति उस की मदद करना चाह रहा है.

‘‘जा नहीं हटता क्या कर लेगा? तेरी बीवी से पहले मैं तेरे से निबटता हूं.’’

‘‘ठीक है मत हटिए आप को कोई आपत्ति तो नहीं जो मैं यहीं खड़ा रहूं?’’

‘‘नहीं.’’

वह नहीं हटा और जबरन उस का हाथ पकड़ने लगा. कविता ने अपना पैर उठाया और अपनी कील लगी हवाईचप्पल उस के अधखुले पैर पर दे मारी.

‘‘छोड़ साली. कभी यहां से मार रही है कभी वहां से,’’ वह 5वां जान चुका था कि यह लड़की उस के बस की नहीं, अब उस ने उसे परेशान करना छोड़ दिया पर अपनी जिद्द में उस सीट से नहीं हटा.

वह नवयुवक उस सीट के साथ उस लड़के के सिर पर खड़ा रहा. इतनी देर में उस चौथे लड़के ने उस का पूरा पर्स टटोल लिया और एक दस्तावेज देखपढ़ उस के हाथपैर ठंडे होने लगे.

‘‘दोस्त वहां से जल्दी उठ और इन तीनों

को ले कर नीचे उतर. अच्छा हुआ इस के साथ कुछ ऐसावैसा नहीं किया, नहीं तो हम सब बहुत बुरा मरते.’’

‘‘क्यों क्या हुआ? यह कोई कहीं की कमिश्नर है?’’

‘‘नहीं पागल इस कमीनी को एड्स है,’’ चौथे ने कहा और डरते, घबराते हुए पांचों बस से तुरंत अपनी जान कविता से बचा कर भागने की तैयारी करने लगे.

इतने में कविता ने अपने साथ बैठे लड़के का हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘‘तुम को तो मैं जाने नहीं दूंगी राजा. यह बीमारी मैं आज तुम को दे कर रहूंगी, आजा.’’

उस ने अपना हाथ छुड़ाना चाहा पर कविता शेरनी की तरह दहाड़ने लगी.

‘‘नहीं दीदी मु?ो माफ कर दो ऐसी भूल मैं क्या हम में से कोई कभी नहीं करेगा. प्लीज हमें छोड़ दो.’’

‘‘चुप बैठ. ज्यादा हिला तो तेरी गरदन चीर कर रख दूंगी. पति जी आप इन्हें कस कर पकड़े रहिए,’’ कविता ने अपनी जेब में छिपाया रामपुरी निकालते हुए कहा.

‘‘जो हुकुम.’’

‘‘अरे सालो कहां रह गए. यहां आ कर मुझे छुड़ाओ,’’ बाकी 4 ड्राइवर के पास दुबके खड़े कांपने लगे.

‘‘जो किसी ने भी ज्यादा दोस्ती निभानी चाही तो यह कांड तुम सब के साथ करूंगी. सम?ा आई. खड़े रहो वहीं के वहीं.’’

कविता अपनी फुलफौर्म में आ चुकी थी. उस ने एक हाथ से उस की कालर पकड़ी, दूसरे हाथ से अपनी रामपुरी निकाल अपने हाथ पर कट मारा और फिर उस के हाथ पर कट मार अपने खून को उस के खून में जबरदस्ती मिलाने लगी.

‘‘जा भाग यहां से,’’ कविता ने उसे धक्का मार कर भगाया और वह अपना बहता खून बारबार पोछता भाग खड़ा हुआ.

कविता ने राहत की सांस ली. वह देश में औरतों पर होते जुल्म और असुरक्षित महसूस करने की धुकधुक को बचपन से अनुभव करती आई थी. उस ने सम?ादारी आतेआते यह बात गांठ बांध ली थी कि यहां राह चलते अनेक सिरफिरे मर्द शिकारी के भेस में घात लगाए बैठे मिलेंगे, जिन्हें शिकार करने के लिए बस मौके की तलाश है. अगर नारी अपनी छठी इंद्री के संकेत, बल, बुद्धि का सही उपयोग करे तो इस पुरुषप्रधान समाज में अपने अलग रास्ते पर चल सकने की हिम्मत जुटा सकती है.

‘‘अबे देख क्या रहा है बस जल्दी रोक,’’ उन लड़कों में से एक ने कहा तो ड्राइवर ने ?ाटके से ब्रेक लगाए और वे सभी तुरंत उतर गए.

इसी बीच वह नवयुवक अचानक ब्रेक लगने के कारण अपना बैलेंस खो लड़खड़ा कविता की साथ वाली सीट पर जा गिरा.

‘‘माफ किजिएगा. मैं पीछे चला जाता हूं आप आराम से यहां बैठिए,’’ उस ने विनम्रतापूर्वक कहा.

‘‘आप यहा बैठ सकते हैं, मुझे कोई आपत्ति नहीं. कविता मुसकराई.

उस नवयुवक के साथ बैठ कर उसे जरा भी धुकधुक न हुई. वह अच्छी तरह सम?ा रही थी कि इस युवक के अंदर उस के प्रति कोई गलत भावना नहीं है.

उस लड़के ने मुसकराते हुए कविता से पूछा, ‘‘वैसे आप को कौन से स्टौप पर उतरना है? अगर आप न बताना चाहें तो कोई दिक्कत नहीं, मैं तो बस ऐसे ही…’’

‘‘जी मुझे बुढ़ापारा उतरना है. आप कहां जा रहे हैं?’’

‘‘मैं उस के पहले स्टौप पर निर्मला पारा.’’

उस नवयुवक ने अपना मोबाइल उस में कुछ टाइप कर किसी को सैंड कर दिया. कविता को अंदेशा हुआ कि इस युवक ने जरूर कुछ उस के संबंध में किसी को कुछ लिख कर भेजा है. उस ने मन ही मन सोचा कि अच्छा हुआ मैं ने उसे सचाई नहीं बताई कि मैं कहां उतरने वाली हूं और वह सामान्य रही.’’

कुछ सैकंड पश्चात उस ने संशय से पूछा, ‘‘क्या आप को सच में?’’

‘‘आप को क्या लगता है?’’ कविता ने उस की ओर देख कर पूछा.

‘‘मुझे नहीं लगता.’’

‘‘ऐसा हमारी बस्ती में एक औरत के साथ हुआ था न जाने क्या सोच कर मैं ने उस की कलर फोटो कौपी लेमिनेट करा कर रखी ली और देखिए आज काम आ गई.’’

‘‘वैसे आइडिया बुरा नहीं है.’’

‘‘ये सब लड़कियों के साथ रोज नहीं होता. मगर हर लड़की को अपनी तैयारी रोज कर के अपने घर से निकलना चाहिए.’’

‘‘वह तो ठीक है मगर ऐन टाइम पर अपनी हिम्मत दिखाना भी तो बहुत बड़ी बात है.’’

‘‘कई बार हम औरतों के पास कोई औप्शन नहीं होता, करो या मरो की स्थिति आ पड़ती है, इसलिए इस दुनिया में टिकना है तो मजबूत होना ही एकमात्र औप्शन होता है.’’

‘‘वैसे यह एड्स के सर्टिफिकेट की बात आप ने उन्हें पहले क्यों नहीं बताई? शायद वे यह जान कर आप के साथ कुछ न करते?’’

‘‘उन्हें मैं अपने बचाव की तैयारी शुरू में ही दिखा देती तो उन्हें मेरे फर्जी सर्टिफिकेट पर पक्का शक हो जाता.’’

‘‘और जो यह सर्टिफिकेट न देखते और बैग बाहर फेंक देते या अनपढ़ होते तो?’’

‘‘इसलिए मैं ने रामपुरी पहले से निकाल कर अपने पास रख लिया था. ऐसी स्थिति में हमेशा एक जगह सारा जरूरत का सामान नहीं रखना चाहिए.’’

‘‘चाकू भी छीन लेते तो?’’

‘‘फिर ये कीलों वाले जूते हैं और यह कमर पर बंधी मेरी मजबूत भारी बक्कल वाली बैल्ट, सच पूछिए बड़ी जोरदार लगती है इस से.’’

‘‘आप तो फुल तैयारी से निकलती हैं मैडम,’’ तैयारी तो हम लड़के अपने जोब इंटरव्यू के लिए न करें.’’

वह नवयुवक यहांवहां की बातें करता रहा. कुछ देर बाद आखिरकार उस की मंजिल करीब आने लगी. दूर अपने उतरने वाले स्टौप पर कुछ पहचान के लोगों को देख उस के चेहरे पर मुसकान जाग उठी. उस स्टौप के नजदीक एक लालबत्ती की गाड़ी भी दिखी. उस ने उस का कारण नहीं जानना चाहा और वह उतरने के लिए उस नवयुवक के साथ खड़ी हो गई.

‘‘निर्मला पारा बसस्टौप,’’ उस के कानों में ड्राइवर की तेज अवाज पड़ी. वह आज भी अपनी सजगता, सूझबूझ और आत्मविश्वास से सकुशल घर पहुंचने में कामयाब हुई.

‘‘आप का स्टौप अगला है यह बुढ़ापारा स्टौप है.’’

‘‘जी मुझे भी यहीं उतरना है.’’

‘‘पर आप ने तो कहा था कि…’’

‘‘जी मैं अपनी मंजिल का पता किसी अनजान को नहीं बताती.’’

‘‘मैं ने आप की मदद करनी चाही फिर भी आप को मुझ पर भरोसा नहीं?’’

‘‘नहीं, चलिए मैं निकलती हूं.’’

‘‘एक बात का उत्तर दीजिए, आप के साथ आज इतनी बड़ी वारदात हो गई, आप अब आगे क्या करेंगी?’’

‘‘देखिए कोर्टकचहरी के ?ां?ाट में मैं फंसना नहीं चाहती.’’

‘‘मतलब कोई रिपोर्ट नहीं लिखवाएंगी.’’

‘‘जी नहीं.’’

वह नौजवान उस के साथ पीछेपीछे उतरने लगा और उस ने उस ड्राइवर से कहा, ‘‘भैया आप भी जरा साथ में उतरिए.’’

‘‘क्यों तेरी बरात आनी है क्या?’’

‘‘नीचे उतरिए फिर सब सम?ा आ जाएगा. उस ने बस की चाबी निकाल कर अपनी जेब में रखते हुए कहा.

कविता तब तक नीचे उतर चुकी थी और अपने पहचान वालों के पास जा पहुंची.

‘‘लता दीदी आप इन सब को इतनी देर रात क्यों लाई हो?’’

‘‘ऐसे फोन कभी बंद नहीं रहता तेरा इसलिए घबरा गई थी, तेरी आखिरी लोकेशन देख आभास हुआ कि तू बस में होगी, जो कुछ देर और न आती तो रिपोर्ट करने जाते. अब घर चल पाखी तु?ो देखे बिना नहीं सोने वाली.’’

‘‘दीदी आप न होतीं तो मेरा क्या होता,’’ वह उन्हें गले लगा कर बोली.

जीवन में जरूरी नहीं जिन रिश्तों को समाज की सहमती और जन्म के नाते नाम दिया जाता है वही सच्चे और अपने होते हैं. उस की निम्न हालत में कुछ बेनाम रिश्ते उस का कदमकदम पर हौसला बढ़ाते रहे. ये वही लोग हैं जिन्हें वह कोई नाम तो नहीं दे पाई पर वे आज उस के सबकुछ हैं.

उन्हें विदा करने के उपरांत कविता ने पलट कर उस नौजवान को देखना चाहा जो लालबत्ती गाड़ी के ड्राइवर से बात कर रहा था. इस बीच पुलिस की वैन भी आ पहुंची. कुछ बातचीत के बाद उस ड्राइवर को गिरफ्तार कर पुलिस की एक टोली उसे अपने साथ ले गई.

कविता को मामला समझ नहीं आया, ‘‘लता दीदी आप घर जाए मैं 5 मिनट में आती हूं,’’ वह यह कह कर उस नवयुवक के पास पहुंची.

जैसे ही वह उस से बात करने लगी तभी एक पुलिसकर्मी ने उसे रोकते हुए पूछा, ‘‘क्या बात है? क्या बात करनी है? देख नहीं रहीं साहबजी अभी बिजी हैं.’’

‘‘उस ड्राइवर ने उन 5 लड़कों का बराबरी से साथ दिया है, अगर उस की नीयत साफ होती तो जरूर उन्हें रोकने का प्रयास करता मगर उस ने ऐसा कुछ नहीं किया. उस से कड़ाई से पूछताछ करिए और उन 5 लड़कों का पता निकलवाइए और तुरंत उन्हें ढूंढ़ने अपनी टीम रवाना करिए. मु?ो 2 घंटों के भीतर रिपोर्ट चाहिए,’’ वह नवयुवक रमेश नामक पुलिसकर्मी से बोला.

‘‘जी सर.’’

‘‘और यह अनिकेत फूड सर्विसेज में जा कर कल उन के मैनेजर से पूछताछ करीए. यह क्या नियम फौलो कर रहे हैं? देर रात बिना किसी महिला कर्मचारी की सहमति के रोक कर काम करवाया जा रहा है? जरा कड़ाई से पूछिए और ज्यादा नानाकुर करें तो सीधा केस फाइल करीए,’’ उस नवयुवक ने सब को अपनी ड्यूटी बता दी.

कविता उसे ऐसे रूप में देखती रह गई. उस ने उस पुलिस वाले से पूछा, ‘‘भैया ये हक्े कौन?’’

‘‘ये कौन है? बहनजी ये यहां के नए जिलाधिकारी हैं अविनाशजी.’’

‘‘जिलाधिकारी और वह भी लोकल बस में रात के 12 बजे क्या कर रहे थे?’’

‘‘सरजी कब क्या कर जाएं कोई नहीं बता सकता न समझ सकता है. आज की बात ही देख लो. बिना सिक्युरिटी रात को इलाके की ग्राउंड जीरो लैवल रिपोर्ट लेने ऐसे ही अकेले निकल पड़े और सब गड़बड़ पाया.’’

इतने सामान्य, इतने सरल बिलकुल आम नागरिक की तरह, न कोई अपने पद का अहंकार न रोब. उसे लगा जैसे ऐसे लोग मानवीय जाति से विलुप्त हो चुके होंगे. कविता ने मन ही मन सोचती रही.

इतने में अविनाश की नजर कविता पर पड़ी और उस ने सिपाही को उस के पास लाने का इशारा किया.

‘‘चलिए आप को साहब बुला रहे हैं.’’

‘‘अविनाशजी आप ने बताया क्यों नहीं कि आप इतने बड़े अफसर हैं?’’

‘‘इस में बताने जैसी कोई बात नहीं थी. मैं भी आप लोगों के बीच का ही हूं.’’

‘‘आप ने उस ड्राइवर को गिरफ्तार करवाया और उन 5 पर भी ऐक्शन लेने वाले हैं, उस के लिए धन्यवाद.’’

‘‘मैं जानता हूं आप रिपोर्ट लिखवाना

नहीं चाहतीं.’’

‘‘जी.’’

‘‘मगर क्या आप जानती हैं आप के रिपोर्ट न लिखाने की वजह से हम उन पर वह ऐक्शन नहीं ले पाएंगे जिस के लिए वे डिजरव करते हैं और टेसटिमोनी के अभाव के कारण उन्हें कुछ दिनों बाद छोड़ दिया जाएगा.’’

‘‘जी समझती हूं.’’

‘‘आप ने अपनी बहादुरी दिखा तो दी पर जब असली बहादुरी निभाने की बात आई तो आप पीछे हट कर उन का सीधेसीधे से मनोबल बढ़ा रही हैं.’’

‘‘सर, मेरी छोटी बच्ची है, कामकाज में पूरा दिन निकल जाता है फिर ये कोर्टकचहरी के चक्कर कैसे काट पाऊंगी.’’

‘‘जो आज आप ने उन्हें ढील दे दी तो मेरी एक बात याद रखिएगा, जो इन के हौसले बुलंद हुए तो इन की बदतमीजी सिर चढ़ कर कर बोलने लगेगी. आज ये 5 हैं तो कल 10 हो जाएंगे, फिर क्या करेगी? बेटी आप की भी है, इस इलाके में लाखों आप के जैसी औरतें हैं जो देर रात काम कर घर लौटती हैं. कुछ नहीं तो उन के लिए आप को एक भयमुक्त समाज की नींव रखनी चाहिए. जब तक आम नागरिक इस समाज में बदलाव लाने की चेष्टा नहीं करेगा यह दुनिया ऐसे ही चलती रहेगी और हम दोष सरकार पर मढ़ते रहेंगे. खैर, यह रहा मेरा कार्ड, अगर आप का मन कभी बदले तो मु?ो एक कौल करिएगा,’’ वह अपना विजिटिंग कार्ड देते बोला.

इसी बीच सिपाही फोन ले कर आ उस नवयुवक के पास आ पहुंचा.

‘‘साहब वायरलैस मैं इंस्पेक्टर रमेश लाइन पर हैं.’’

‘‘सर उन पांचों का पता चल गया है. हम उन्हें गोल बाजार थाने ले कर निकल रहे हैं.’’

‘‘गुड जौब.’’

कविता उन का कार्ड ले कर अपने पर्स में डाल उन की बातों सुन कर चुपचाप वहां से चली गई.

अगले दिन सुबह. कविता रोज की तरह फैक्टरी में काम करने लगी. कुछ घंटो बाद वहां इंस्पैक्टर रमेश और वह सिपाही मैनेजर राणे से पूछताछ करते दिखे.

वह कल रात से कुछ संशय में थी कि क्या उसे अविनाशजी की बात मान कर रिपोर्ट लिखाने का कदम उठाना चाहिए या नहीं? पर वह साहस न जुटा पाई और अपने साथ हुए उस हादसे को एक बुरा सपना मान कर भूलने का प्रयास करने लगी.

अगले कुछ दिन ऐसे ही गुजरते गए और एक दिन उसे घर लौटने में फिर से देर हो गई.

बस का इंतजार करते वह बसस्टौप पर

खड़ी थी कि दूसरी ओर से जाती खाली बस में वही 5 लफंगे लड़के 2 असहाय लड़कियों के साथ छेड़खानी करते दिखे.

उस की धुकधुक फिर से बढ़ने लगी. वह क्या करे. उसे ऐसे भाव आने लगे जैसे उन के

साथ बड़ी अनहोनी होने वाली है. उन के साथ होती इस घटना की जिम्मेदार कहीं न कहीं वह भी है इस बात का उसे भलीभांति एहसास होने लगा.

अविनाशजी ने सही कहा था आप को बहादुरी दिखाने के साथसाथ बहादुरी निभानी भी चाहिए. अगर उस दिन निभा जातीं तो ये बदमाश सलाखों के पीछे होते न कि अभी उन लड़कियों की इज्जत तारतार करते होते.

कविता ने आननफानन में अपने पर्स से अविनाशजी का दिया कार्ड निकाल तुरंत उन्हें फोन लगाया.

‘‘हैलोहैलो अविनाशजी मैं कविता बोल

रही हूं.’’

‘‘हां बोलिए आप ठीक तो हैं?’’

‘‘जी मैं तो ठीक हूं पर वे 2 लड़कियां.

‘‘कौन 2 लड़कियां?’’

और उस ने सारी बात विस्तार से बता दी.

‘‘ये लड़के आज सुबह ही कस्टडी से छूटे हैं. अगला दिन नहीं लगा और अपनी फितरत में लौट आए.’’

‘‘मु?ो अंदाजा नहीं था कि मेरी रिपोर्ट न लिखाने से आगे क्या हो सकता है.’’

‘‘आप को पता है 2018 में भारत को महिलाओं के लिए असुरक्षित स्थान घोषित किया गया था और आज भी हालात में ज्यादा बदलाव नहीं आया है, पता है क्यों?’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि लोकल सर्कल्स द्वारा निकाले गए आंकड़ों के अनुसार वे जो 29 फीसदी महिलाएं जिन के साथ पब्लिक प्लेस पर छेड़खानी की घटना हुई होती हैं, उन में से अपने साथ हुए यौन शोषण के विरुद्ध 75% पीडि़ताओं ने अपनी शिकायत फाइल तक नहीं की. उन में से एक आप भी हैं.’’

‘‘अविनाशजी मैं बहुत शर्मिंदा हूं पर अब और नहीं, मैं कल सुबह ही रिपोर्ट दर्ज कराऊंगी.’’

‘‘यह हुई न बात. मैं आप को ऐसे ही नहीं कह रहा था, समाज तब तक नहीं बदल सकता जब तक हम आम नागरिक अपनी ड्यूटी न निभाएं. मेरी बात मानने का आप का शुक्रिया.’’

‘‘आप का भी शुक्रिया.’’

कविता ने इस पल अपने भीतर बदलाव महसूस किया जो उस के खुद के विचार जोकि इन मुस्टंडों से अस्थाई रूप से बचाव करने भर के थे उलटफेर कर रहे थे. इस उलटफेर के साथ अब इस बात की पुष्टि उस का मन निश्चित रूप से कर रहा था कि इन का इलाज दोनों तरीकों से होना नितांत जरूरी है. एक वह जो वह अब तक करती आई थी और उस के बाद एक जरूरी कदम उठाना है वह यह कि बिना समय बरबाद किए उन के विरुद्ध रिपोर्ट लिखा देनी है.

एक औरत को तकलीफ तो कभी केस वापस लेने के दबाव के रूप में तो कभी धमकी के रूप में तब भी आएगी पर उस मुश्किल घड़ी में खुद को और मजबूत बनाए, खुद से कहे कि मैं ने बहुत सशक्त और सराहनीय काम किया है.

आप का यह कदम उन मुस्टंडों के कारनामों पर हमेशा के लिए अंकुश लगाने से आप खुद तो बचेंगी ही साथ ही अनेक को बचाते हुए उन सभी मुस्टंडों को और उन जैसे बनने वाले अन्य अनेक लड़कों को एक कड़ा संदेश दे जाएगी कि भई अब छेड़खानी पड़ेगी भारी. जब जरूरत आ पड़े तो बहादुरी दिखाएं भी और बहादुरी निभाएं भी.

Hindi Satire : चालू बहू के सासू मंत्र

Hindi Satire : इस दुनिया में सास से इतना डरने की क्या जरूरत है? आखिरकार वे भी तो कभी बहू थीं और बहू को भी देरसवेर सास तो बनना ही है. लेकिन ससुराल में अपना वर्चस्व कायम करना है तो सास को पटाना जरूरी है. इस के लिए घर की इस लाइफलाइन को सही ढंग से पकड़ना है, उस के हर उतारचढ़ाव पर नजर रखनी है और उस पर कितना दबाव डालना है इस का भी सहीसही अनुमान लगाना है. पेश हैं सास को पटाने के लिए आजमाए हुए कुछ नुसखे, जो एक बहू की जिंदगी को खुशियों से भर देंगे.

नुसखा नं. 1: आप सही कहती हैं सासू मौम. इस अद्वितीय मंत्र का जाप आप दिन में 10-15 बार करो. वे अगर दिन को रात कहें तो रात कहो. पर ध्यान रखो कि सास भी कभी बहू थी.

नुसखा नं. 2: चाणक्य नीति. सास का

मूड देख कर बात करो. अगर उन का मूड अच्छा है तो माने जाने की संभावना से अपने मन की बात कही जा सकती है. अगर वे मना कर दें तो तुरंत पलट जाओ, हां मम्मीजी, मैं भी यही सोच रही थी.

नुसखा नं. 3: भोली सूरत चालाक मूरत. सब से पहले इस में आप को करना यह है कि अपनेआप को ऐसा दिखाना है कि जैसे आप को कुछ आता ही नहीं है. सहीगलत की सम झ ही नहीं है. एकदम भोंदू हैं आप. ऐसे लोगों को सिखाने में सिखाने वालों को बड़ा मजा आता है. यह तो सीखने वाला ही जानता है कि उस ने कितने घाट का पानी पिया है. सास अगर घर की प्रधानमंत्री हैं तो रहने दो. आप बस प्रैसिडैंट वाली कुरसी पर नजर रखो. इस बात को एक उदाहरण से सम झो:

द्य सुबह जल्दी उठने के बजाय अपने टाइम पर उठो और जल्दीजल्दी पल्लू संभालते हुए सासू मौम के पास जा कर ऐसे दिखाओ कि आप तो जल्दी उठना चाहती थीं पर… आप का दिल आप का साथ नहीं देता, बस दगा ही देता है.

‘देखो मां अलार्म ही नहीं बजा, मोबाइल की बैटरी भी आज ही डाउन होनी थी,’ इस वाक्य को अच्छे से कंठस्थ कर लो, क्योंकि यह बहुत काम आएगा. सास को भला आजकल का स्मार्ट फोन चलाना कहां आता है. एक हफ्ता ऐसे ही बहाने बना लो और जरूरत पड़े तो नैट पर बहाने सर्च कर लो. एक हफ्ते बाद देखना सास टोकना बंद कर देंगी. फिर बहू का मोबाइल चार्जिंग के लिए लगाना शुरू कर देंगी.

नुसखा नं. 4: बारीक निरीक्षण. इस में आप को देखना है कि किस कैटेगरी की सास आप को मिली हैं, धार्मिक या मौडर्न.

धार्मिक हैं तो थोड़ी मुस्तैदी दिखा कर

2-4 भजन याद कर लो. गूगल है

न आप की मदद के लिए. आप को कोई संगीत अवार्ड थोड़े ही जीतना है. आप को तो बस अपनी सास के दिल में जगह बनानी है. फिर क्या? उन की कीर्तन मंडली में थोड़ी नानुकर कर के अपनी आवाज का जादू बिखेरो. फिर देखो लोग कैसे आप की वाहवाही करते हैं. बहू के ऐसा करने पर सास का सीना तो गर्व से फूल जाता है. वे वारीवारी जाती हैं अपनी बहू पर. पर आप को इसे अपने ऊपर हावी नहीं होने देना है. हाथ जोड़ कर ‘कहां मैं, कहां सासूमां’ वाली चाणक्य नीति अपनाए रखनी है.

नुसखा नं. 5: तारीफ पर तारीफ. बस यही एक अच्छी बहू की निशानी है. उसे सास की दबी इच्छाओं को नए सिरे से उभारना है. वे जो भी बनाएं जैसा भी बनाएं उन की पाक कला पर उंगली उठाने की कोशिश नहीं करनी है. वरना बतौर इनाम आप को ही रसोई में पिसना पड़ेगा.

नुसखा नं. 6: अपनी तारीफ को कभी सीरियसली न लें. आप के बनाए खाने की चाहे कितनी भी तारीफ हो उसे नजरअंदाज ही करें. वरना घर को एक परमानैंट कुक मिल जाएगा और घर के सभी सदस्य उस की तारीफ कर के उस शैफ बहू को रसोई में अपनी फरमाइशों में ही उल झाए रखेंगे.

आप को जबतब ‘मम्मीजी आप के खाने का जवाब नहीं. काश, मैं ऐसा खाना बना पाती,’ सिर्फ कहना है करना नहीं है. ‘आप तो मेरी मम्मी से भी ज्यादा अच्छा खाना बनाती हैं,’ आप के यह कहने पर तो आप की सास फूल कर कुप्पा हो जाएंगी और आप को रसोई से छुट्टी मिल जाएगी. ऐसा होने पर अकसर होता यही है कि सास का बस चले तो बहू को खिलाखिला कर ही मार डाले.

नुसखा नं. 7: स्मार्ट बनें. इस में आप को अपने ज्ञान को कदमकदम पर इस्तेमाल करना है. सारे ब्यूटी ट्रीटमैंट सास पर आजमाने हैं. कहीं जाने से पहले उन का फेशियल कर दें. उन्हें अच्छे से तैयार कर दें. सुंदर सा जूड़ा बना दें. इन सब कामों में तो हर बहू परफैक्ट होती ही है.

नुसखा नं. 8: खर्चा करें. सास को बहू का उन पर खर्चा करना अच्छा लगता है. इसलिए मौकों पर अगर बहू सास को उपहार दे तो सास तो बहू पर वारीवारी जाएगी.

नुसखा नं. 9: वाचाल बनो. वक्त देख

कर सही बात करने का हुनर विकसित करो. औफिस में काम करती हो तो आराम से दोस्तों

के साथ तफरीह कर के आओ और घर में घुसते ही ऐसे दिखाओ जैसे औफिस से घर पहुंच कर पता नहीं कितनी बड़ी जंग जीत ली या कोई किला फतह कर लिया. रोनी सूरत और भोली मूरत दर्शाते हुए, इस से पहले कि कोई आप पर चढ़े आप शुरू हो जाएं, ‘‘हाय राम आज फिर देर हो गई. सौरी मम्मीजी ये ट्रैफिक भी न… कोई साइड ही नहीं देता. अगर वह गाड़ी वाला थोड़ा रुक जाता तो क्या हो जाता उस का… आदिआदि.’’

नुसखा नं. 10: गुरुघंटाल बनो. यानी

बातें ज्यादा काम कम. एक बात को बारबार दोहराओगे तो वह भी सही लगने लगेगी. कुछ भी पकाओ तो पहले ही बोलना शुरू कर दो, ‘‘मु झे पता है कि आज खाना स्वादिष्ठ नहीं बना है. मम्मीजी (सास) तो बहुत टेस्टी खाना बनाती हैं. मैं जाने कब सीख पाऊंगी? शायद इस जनम में तो नहीं.’’

चेहरे पर ऐसे भाव लाओ कि सब की दयादृष्टि आप की  झोली में ही गिरे. सास तो अपनी तारीफ सुन कर फूल कर कुप्पा हो जाएंगी और कहेंगी, ‘‘बेटा, मैं तु झे सिखाऊंगी.’’

बस यह मौका हाथ से नहीं जाने देना है. खुशीखुशी उन की विद्यार्थी बन जाओ. रसोई में जा कर बस थोड़ा हाथ हिला दो और तारीफ खूब बटोर लो. अगर पति खाने में कोई कमी निकालें तो साफ मुकर जाओ यह बोल कर कि मम्मी ने बनाया है. अब बेचारे पति अपनी मां से थोड़े ही कुछ कहेंगे.

आप में से कई लोग सोचेंगे कि क्या ये नुसखे काम आएंगे? जी हां शतप्रतिशत काम आएंगे. यह बात और है कि सब बहुओं की किस्मत इतनी अच्छी नहीं होती कि उन्हें गाइड करने वाला मिल जाए.

अंत में गुरु मंत्र: विपक्षी पार्टी को कमजोर सम झने की भूल नहीं करनी है. अगर आप की चालाकी पकड़ी जाए तो दांत दिखा कर हंसते हुए कहना है, ‘‘मम्मीजी मैं तो मजाक कर रही थी. मेरा वह मतलब नहीं था, जो आप सम झ रही हैं. पर देखो आप ने मेरी चोरी पकड़ ली. आप महान हैं. आप ने तो सीआईडी वालों को भी पीछे छोड़ दिया आदिआदि. बस तारीफ पर तारीफ.’’

डरने की क्या बात है सास से? ये नुसखे जान कर कोई बहू नहीं डरती अपनी सास से. बस इतनी सी गुजारिश है बहुओं आप से कि इन्हें अपनी सासों से छिपा कर रखना वरना… वरना कुछ भी हो सकता है.

Famous Hindi Stories : किचन गार्डन – औनलाइन ठगी का शिकार हुई शिखा

Famous Hindi Stories : कुछदिन पहले कामकाजी महिलाओं पर एक सर्वे पढ़ने के बाद से अर्चना के मस्तिष्क में विचारों के घंटे टनटनाने लगे. उन्हें लगा कि उन की एमबीए डिगरी भी उन्होंने कौरपौडैंस कोर्स से ली थी और फाइलों में कुछ कर दिखाने को बेचैन हैं. सर्वे पढ़ने के बाद वे कई दिन तक  बड़ी अन्यमनस्क सी रहीं.

1-2 दिन तो मैं ने कुछ गौर नहीं किया. आखिर हमारी शादी को अभी 4 साल ही हुए थे. मैं वैसे भी जरा कम उल?ाता था क्योंकि उन की ऊंची जाति का कहना कई दफा हमारे प्रेम विवाह में बहस का मुद्दा बन चुका था. तीसरे दिन मु?ा से न रहा गया. मैं उन से उन के खोएखोए रहने का कारण पूछ ही बैठा.

वे जैसे इस के इंतजार में ही थीं, बिफर पड़ीं, ‘‘देखो प्रेम, मैं ने एमबीए पास किया और फिर भी घर पर बैठ कर 2 साल से कुछ खास काम नहीं किया है. कई बार तो जी में आता कि एक बीए की डिगरी को भी आग में जला दूं… वह अच्छी नौकरियों पर आईआईएस वाले कब्जा किए बैठे हैं.’’

मैं ने जवाब दिया, ‘‘जरूर करो पर जरा पहले अपना कंप्यूटर ज्ञान तो सुधार लीजिए. आजकल आप व्हाट्सऐप फौरवर्ड कर के और यूट्यूब देखदेख कर सब भूल चुकी हैं. नौकरी तो खैर कोई न कोई मिल ही जाएगी पर यह तो बताइए कि आप का ईमेल पढ़ा भला कोई और पढ़ सकता है. यानी जहां आप का ईमेल जाएगा वहां आप को भी जाना होगा क्योंकि औटो की करैक्ट के बाद भी क्या गारंटी है कि आप भी स्वयं अपना लिखा कुछ सम?ा लें.

एक राजस्थानी कहावत है न कि आला बचे न आप सूं और सूखा बचे न कोई बाप सूं यानी अपना लिखा जब गीला होता है तो आप स्वयं नहीं पढ़ सकतीं और अगर वह सूख गया तो किसी का बाप भी उसे नहीं पढ़ सकता है. आप के ईमेलों की भाषा ऐसी होती है कि आप का किसी भी दफ्तर में कैसे गुजारा हो सकता है?’’

अर्चना तुनक कर चली गईं. वे कुछ नहीं बोलीं क्योंकि अपनी इंग्लिश की कमजोरी से वे स्वयं भी घोर दुखी थीं.

मगर वे धुन की पक्की हैं. अत: दिनरात कुछ कर के दिखाने की सोचती रहीं. एक दिन शाम को दफ्तर से लौटा तो उन्होंने एक लंबी सी लिस्ट मेरे हाथ में पकड़ा दी. मैं ने प्रश्नसूचक नजरों से उन की ओर देखते हुए लिस्ट पकड़ ली.

वे बोलीं, ‘‘सुनो प्रेम, मु?ो मेरी पसंद का काम मिल गया. एक व्हाट्सऐप मिला आजपड़ोस कि वह कमरों के साथ बरामदों और छत पर सब्जी उगाने का काम खूब चल रहा है. अब मैं उस की औनलाइन व औफलाइन क्लासें लूंगी. हरेक को कहां पता है. किचन गार्डन चलते कैसे हैं, मैं अच्छीअच्छी साइटें पढ़पढ़ कर उस से भी अच्छी और ज्यादा सब्जी उगाने के तरीके ढूंढ़ लूंगी. आखिर मैं ने भी एमबीए पास किया है, मेरी ग्राहक वे होंगी जिन्होंने सिर्फ बीए किया है. पर पहले साल मु?ो खुद किचन गार्डन बनाना होगा ताकि वीडियो और फोटो तैयार कर सकूं.’’

अब मैं ने कुरसी पर आराम से बैठ कर लिस्ट को पढ़ना शुरू किया. इस में कोई 15 तरह के बीज, 2 तरह की खाद, बाड़े लगाने का कांटेदार तार और घरेलू खेतीबाड़ी पर कृषि पंडित मांगेराम गुर्जर की पुस्तक शामिल थी. मैं ने सोचा कि मांगेराम की पुस्तक तो किसी से मांगी भी जा सकती है पर और चीजों के तो पैसे लगेंगे. फिर विचार किया कि अगर मैं ने श्रीमतीजी की इस योजना का विरोध किया तो घर बंद या जैसे कुछ भी हो सकता है. अत: अपनी भलाई इसी में सम?ा कि लिस्ट में लिखी चीजें उन्हें उसी दिन औनलाइन और्डर कर दीं.

4-5 दिन में कई किश्तों में सामान घर पहुंच गया. अर्चना देख कर बहुत खुश हुईं. यह पूछना भी भूल गईं कि इस सब पर कितना खर्च हुआ. मु?ो जरा बुरा लगा कि  यहां तो आधे महीने की सैलरी चली गई और इन को फिक्र ही नहीं है. आखिर हार कर मैं ने उन्हें बताया कि किचन गार्डन के उन के शौक में मेरे क्व19,875 ठंडे हो गए हैं पर मेरा यह कहना था कि वे तो जैसे 7वें आसमान पर पहुंच चुकी थीं.

शान से गरदन तान कर बोलीं, ‘‘अजी,

आप चिंता मत करो, ये क्व20 हजार तो आप के 2-4 महीने में ही पूरे हो जाएंगे. जब आप घर की उगी ताजा सब्जियां खाया करेंगे तो मु?ो दुआ दिया करेंगे, घर की सब्जी होने से घर के खर्च में काफी कटौती होगी. ये मुए रिलायंस वाले आजकल बहुत ज्यादा पैसे लेने लग गए हैं. और्गेनिक के नाम पर लूट मचा रखी है. जब क्लासें शुरू करूंगी तो पैसे बरसेंगे.’’

हालांकि मैं श्रीमतीजी के उत्साह से पूरी तरह सहमत न था, फिर भी उन का दिल रखने को कहा, ‘‘और घर की कैमिकल फ्री सब्जी होती भी फायदेमंद है.’’

बस उन का किचन गार्डन बनाने का,

उगाने का उत्साह दोगुना हो गया. बाद में वे क्लासें शुरू करेंगी. कोचिंग वाले सरों से ज्यादा कमा कर दिखाएंगी.

मेरे खयाल से उस दिन उन को सारी रात नींद नहीं आई. वे सोफे पर पड़ीं कंप्यूटर खोले योजनाएं बनाती रहीं कि किस प्रकार कल सुबह से ही वे किचन गार्डन में जुट जाएंगी और व्हाट्सऐप भेजने वाली से अधिक और अच्छी सब्जी उगा कर सारे गु्रपों में अपने  एमबीए पढ़ेलिखे होने का सिक्का जमा देंगी.

अगली दोपहर 5 बजे वे घर की छत पर गमले रखने में लग गईं. वहां 18 फुट चौड़ी और लगभग 22 फुट लंबी छत थी. थोड़ी देर बाद वे मु?ो भी पकड़ कर ले गईं और रात 9 बजे तक मु?ा से पहले पौलिथीन की शीट लगनी हैं और फिर वे पेटी में आईं और्गेनिक फर्टीलाइजर मिलवाया था. उस समय तक मैं पसीने से नहा सा गया था. खाना पका नहीं था, सौ मैं ने स्विगी और जोमैटो दोनों से बर्गरपिज्जा मंगवा लिए या क्योंकि भूख कुछ ज्यादा लगी थी. अर्चना को पता लगा कि औनलाइन डिनर इतना सारा मंगवा लिया है तो उन के चेहरे पर ऐसे भाव आए जैसे वे मेरी इस बात की बहुत एहसानमंद हैं.

अगले दिन सुबह 5 बजे उठ कर मैं ने और अर्चना मतीज के कंधे से कंधा मिला कर काम कर के मैं ने बैगन, लौकी, तोरी, टिंडा, करेला, कद्दू, घिया, टमाटर आदि सभी 15 चीजों के बीज लगा दिए और ढेर सारी खाद भी डाल दी. पानी की बालटियां भरतेभरते मेरे कंधे व कमर दुखने लगी थी. पर मैं उन का जोश कम नहीं करना चाहता था. साथसाथ वीडियो बन रहा था. अर्चना स्क्रिप्ट के अनुसार बोलती जा रही थीं.

काम समाप्त करने की घोषणा उन्होंने 9 बजे की तो मैं थक कर टूट चुका था. अर्चना के चेहरे पर थकान का चिह्न मात्र भी न था. उन्होंने मु?ो गरमगरम चाय पिलाई तो जा कर कुछ होश आया. पर तभी घंटी बजी. दरवाजा खोला तो पड़ोस के रमेश थे. वे पूछने लगे कि सबकुछ ठीक है न. सुबह से अर्चना की जोरजोर से आवाजें आ रही थीं. सोचा कि कहीं परेशानी तो नहीं.

उन्हें सम?ाया कि हम तो छत पर किचन गार्डन बना रहे थे और अर्चना रिकौर्ड

करते समय कुछ ज्यादा जोर से बोल रही थीं. अब इन 4 मंजिला फ्लैट्स के कौंप्लैक्स में चाहे पड़ोसी एकदूसरे को न देखें, न मिलें, पर आवाजें तो जाती ही हैं न.

रमेश ने कहा, ‘‘अर्चनाजी किचन गार्डन में तो पानी भी ज्यादा लगेगा न.’’

अर्चना को थोड़ा एहसास हुआ कि कहीं कुछ गड़बड़ है.

रमेश ने आगे कहा, ‘‘फिर तो टैंक बारबार खाली हो जाएगा.’’

अर्चना ने सफाई दी, ‘‘इतनी जल्दी तो नहीं होगा पर कुछ ज्यादा तो लगेगा ही.’’

रमेश और सुषमा दोनों बोले, ‘‘कहीं ऐसा न हो कि हम बाथरूम में हों और टैंक का पानी खत्म हो जाए.’’

अर्चना को काटे तो खून नहीं.

रमेश ने कहा, ‘‘देख लेना, अगर जरूरत पड़े तो एक टैंक और लगवा लेना और बाजार से टैंकर मंगवा कर उसे भरवा लेना. कौरपोरेशन का फिल्टर पानी पौधों में देंगी तो अंडरग्राउंड टैंक भी खाली ही जाएगा और ओवरहैड भी. आखिर साथ रहना तो भई प्रेम यह तो देखना होगा ही न,’’ कह कर वे चलते बने.

अभी तो शुरुआत ही थी और टैंक की समस्या आ खड़ी हुई. अर्चना ने सारी साइटें खंगाल डालीं पर किसी ने इस प्रौब्लम पर कहीं कुछ नहीं लिखा था. हम ने सोचा देखा जाएगा जब नौबत आएगी तब देखेंगे. अर्चना के चेहरे का भाव देख कर सम?ा आने लगा कि यह मामला कुछ गंभीर है. पड़ोसी चाहे कभी मिलें नहीं पर उन से दुश्मनी भी तो नहीं ले सकते.

7वें दिन टैंक में पानी अचानक खत्म हो गया. नीचे के तीनों फ्लोरों के लोग जमा हो

गए. हमारे छोटे से ड्राइंगरूम में 8-9 जने कभी नहीं होते थे पर अब जब आए तो शिकायत ही शिकायत.

नीचे वाली नीरा कहने लगीं, ‘‘मु?ो लगता मेरी दीवारों में डैंपनैस आ गई है. क्या सुबह पानी का प्रैशर बहुत कम था?’’

सब से नीचे वाले सुरेंद्र बोले, ‘‘आजकल सारे कौंप्लैक्स में धूल ज्यादा होने लगी है. बाहर के लौन पर हर समय डस्क दिखती है.’’

दूसरे दिन से हम दोनों की दिनचर्या ही बदल गई. सुबह उठ कर अर्चनाजी जल्दीजल्दी मेरे लिए खाना पका कर मु?ो दफ्तर रवाना करतीं और खुद अपने किचन गार्डन में जा लगतीं. दिन भर वे वहीं लगी रहतीं. कभी एक गमले में गुड़ाई करती रहतीं तो कभी उन्हें सीधा लगाती रहतीं. रोज शाम को लौट कर आने पर चाय मैं बनाता क्योंकि वे तो थक चुकी होती थीं.

उन के किचन गार्डन का आंखों देखा हाल सुनने के लिए मु?ो उन की रिकौर्डिंग सुननी पड़ती. अर्चना मैसेज भेजतीं तो उस में किचन गार्डन की बात जरूर करतीं. हर रोज पौधों की तसवीरें पोस्ट करतीं. हर गु्रप में फोटो पोस्ट करतेकरते 11-12 तो बज ही जाते. मैं उन्हें छूता तो वे ?िड़क देतीं. उसे बैठाने से पहले श्रीमतीजी अपने किचन गार्डन में ले जातीं और उस से जी भर अपनी प्रशंसा करवातीं और फूली नहीं समातीं. रोजरोज अपने पौधों को बढ़ता देख उन्हें अपार हर्ष होता.

कई हजार रुपए खर्च कर के मैं ने अलग टैंक लगवाया. उस में हर चौथेपांचवें दिन बाहर से बड़ा टैंकर पानी ले कर आता और अपने पंप से पानी पाइप लगा कर भरता. जब टैंकर ड्राइव वे में खड़ा होता हो 1-2 की आवाजें आ ही जातीं कि अब बिखरा पानी कौन साफ करेगा.

शुरुआत में ही अर्चना रोआंसी होने लगीं.

ये बातें तो किसी साइट पर नहीं लिखी थीं.

उन्होंने अंदाजा ही नहीं लगाया था कि यह भी होता है. फिर भी सब की नाराजगी के बावजूद वे लगी रहीं.

जब लगभग सारे पौधे 2-2 फुट ऊंचे हो गए तो उन की खुशी का पारावार नहीं रहा. इसी खुशी में अर्चनाजी ने मु?ो एक 5 स्टार होटल में खाना भी खिलाया. बिल तो मैं ने ही दिया. मैं बहुत खुश था. वैसे भी आजकल अर्चना श्रीमतीजी अपने किचन गार्डन में उल?ा रहती थीं और वे मु?ा से कहीं चलने की फरमाइश कर के तंग नहीं किया करती थीं.

किचन गार्डन अब 2 माह पुराना हो चुका था. अर्चना ने 20-25 वीडियो बना लिए थे पर किसी में साउंड खराब थीं तो किसी में ऐंगल पर सब्जी के नाम पर केवल पुदीना ही खाने को मिला था. वे मु?ो आश्वासन देती रहती थीं कि बस अब फौरन सब्जी लगने ही वाली है.

एक दिन सुबह उठते ही उन्होंने देखा कि

कई पौधों में फूल आ गए. वे लगभग

दौड़ती हुईं और खुशी से चीखती हुईं मेरे पास आईं और मेरा हाथ पकड़ कर मु?ो खींचती हुई ऊपर किचन गार्डन में ले गईं. मु?ो फूल दिखा कर वे तालियां बजाबजा कर बच्चों की तरह नाचने लगीं, जैसे उन्होंने हिमालय की चोटी फतहकर ली हो.

कुछ दिन बाद फूल ?ाड़  गए और सब्जी उगी ही नहीं. इस दौरान पड़ोसियों की नाराजगी बढ़ती ही जा रही थी.

कुछ दिन तक वे बड़ी बेचैन रहीं. पर कई साइटें पढ़ कर भी उन की सम?ा में न आया कि क्या किया जाए. एक बार फिर उन्हें लगा कि उन की एमबीए की डिगरी बिलकुल बेकार है.

एक दिन उन्होंने एक ऐक्सपर्ट को बुलाया. वह एक और लंबी सूची और सालाना कौंट्रैक्ट का फौर्म भी दे दिया.

दूसरे दिन सुबह अर्चना का मुंह लटका हुआ था. वे बोलीं, ‘‘यह किचन गार्डन शिगूफा बेवकूफी थी. यूट्यूब या औनलाइन पर बड़ीबड़ी बातें सुन कर हम लोग न जाने कैसे पागल बन जाते हैं. असली कमाई तो कंसल्टैंसी की है जो बिना कुछ किए कमा लेते हैं.’’

मैं उस समय कुछ और सोच रहा था. फिर वे डरते हुए उन्होंने कुछ हजार रुपए खर्च कर दिए और 3-4 महीने जम कर मेहनत की तो हाथ क्या लगा चेहरे का काला रंग और 10-20 रुपए का पुदीना बस. बाज आए ऐसे किचन गार्डन से और यूट्यूब ऐक्सपर्ट कहां बताते हैं कि पानी कितना कहां से आएगा और सीलन आई तो क्या होगा.

अर्चना बोलीं, ‘‘हां मेरा मजाक उड़ाने का पूरा हक है बस एक बात साबित हो गई कि तुम जैसा हसबैंड मिलना आसान नहीं जिस ने इतने पापड़ मेरे लिए बेल लिए,’’ कह कर वे मुझे पकड़ कर बिस्तर पर ले गई और हम शायद हनीमून के बाद पहली बार इस तृष्ति से सोए कि सुबह उठने की इच्छा ही नहीं हो रही थी.

शब्बीर अहलूवालिया ने “आदर्श पति” की भूमिका से अलग हटकर “उफ्फ़… ये लव है मुश्किल” में खास किरदार निभाया

Shabbir Ahluwalia : रोमांस, हल्के-फुल्के पलों और पारिवारिक गतिशीलता के शानदार मिश्रण के साथ, सोनी सब ने दर्शकों के लिए नई, मनोरंजक और अच्छी कहानियां लाने का सिलसिला जारी रखा हैं! इसका अपकमिंग शो “उफ्फ़… ये लव है मुश्किल” इसी दिशा में एक कदम है. यह शो अपने संबंधित किरदारों और मनोरंजक कहानी के ज़रिए दिल जीतने का वादा करता है.

आदर्श पति की छवि से हट कर

अपनी लोकप्रिय “आदर्श पति” छवि से हटकर शब्बीर अहलूवालिया ने युग की भूमिका निभाई है, जो एक अप्रत्याशित और भावनात्मक रूप से सुरक्षित व्यक्ति है, जो अतीत में हुए विश्वासघात से प्रभावित है. एक ऐसा व्यक्ति जो खुलेआम महिलाओं से नफरत करने का दावा करता है, युग की दुनिया तब अस्त-व्यस्त हो जाती है जब उसकी मुलाकात आशी सिंह द्वारा अभिनीत कैरी से होती है, वो एक खुशमिजाज, आशावादी युवती हैं! जो प्यार में दृढ़ विश्वास रखती है.

Shabbir Ahluwalia
शब्बीर अहलूवालिया

स्क्रीन पर धमाकेदार प्रदर्शन

शब्बीर और आशी की जोड़ी स्क्रीन पर धमाकेदार प्रदर्शन का वादा करती है! क्योंकि उनके विपरीत व्यक्तित्व आपस में टकराते हैं. कैरी जहां खुले दिल से जीवन को गले लगाती है, वहीं युग सावधान और चिंतित होकर पीछे हट जाता है. शो में उनके बीच रस्साकशी की कहानी दिखाई गई है, जहां प्यार और विश्वास केंद्र में हैं.

युग की भूमिका निभाना एक रोमांचक चुनौती-

अपनी स्ट्रांग स्क्रीन प्रेजेन्स और अभिनय कौशल के साथ, शब्बीर अहलूवालिया इस ताजा जटिल भूमिका में दर्शकों को आश्चर्यचकित करने के लिए तैयार हैं और अपने चरित्र के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा, “युग की भूमिका निभाना एक रोमांचक चुनौती है, वह स्तरहीन, अप्रत्याशित और मेरे द्वारा पहले किए गए किसी भी काम से बहुत अलग है.

आदर्श पति के किरदारों से अलग भूमिका

आदर्श पति के किरदारों से अलग इस भूमिका के बारे में जो बात मुझे सबसे ज़्यादा पसंद आई, वह यह है कि यह मुझे उन ‘आदर्श’ या आदर्श पति के किरदारों से अलग करती है, जिनसे मैं अक्सर जुड़ा रहा हूँ! मुझे हमेशा ऐसी प्रेम कहानियाँ देखने में मज़ा आता है, जो विपरीत दुनियाओं और टकराते व्यक्तित्वों के ज़रिए जीवंत होती हैं, और मैं इस शो में स्क्रीन पर उस तरह की शानदार केमिस्ट्री बनाने के लिए वाकई उत्सुक हूं.”

“उफ्फ़… ये लव है मुश्किल”जल्द ही सोनी सब पर आ रहा है – ये एक ऐसी कहानी हैं, जहां प्यार अपना रास्ता खोज लेता है, तब भी जब दिल विरोध करता है.

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