Social Story : ‘‘मम्मा, 1 कप ब्लैक कौफी.,’’ अपने कमरे से ही 23 साल की श्लोका चिल्लाई.
‘‘मुझे भी कौफी पर दूध वाली चाहिए.’’ उधर से अपने कमरे से 20 साल का अंश बोला.
‘‘अब मुझे भी और 1 कप चाय पिला ही दो फिर नहाने जाऊंगा,’’ अखबार मोड़ कर एक तरफ रखते हुए समीर बोले और मोबाइल उठा कर चलाने लगे.
मैं हांफती हुई समीर को चाय दे कर बेटे अंश के कमरे में कौफी ले कर पहुंची तो पता नहीं वह फोन पर किस से बातें कर रहा था कि उसे बड़ी हंसी आ रही थी. इशारे से उस ने मुझे कौफी टेबल पर रखने को कहा. जब मैं श्लोका के कमरे में उस के लिए ब्लैक कौफी ले कर पहुंची तो वह लैपटौप पर आंखें गड़ाए कुछ देख रही थी.
‘‘यह क्या देख रही हो?’’ टेबल पर कौफी का मग रखते हुए मैं ने पूछा तो श्लोका यह कह कर कौफी का मग उठा कर चुसकी भरने लगी कि आप नहीं सम?ोंगी.
‘‘क्यों नहीं समझोगी, बताओ तो जरा?’’
‘‘मम्मा, यह सोलो ट्रिप है, जहां हम अकेले कहीं भी घूमने जा सकते हैं,’’ लैपटौप पर आंखें गड़ाए, उंगलियों को कीबोर्ड पर थिरकाते हुए श्लोका बोली.
‘‘पता है मुझे ‘सोलो ट्रिप’ का मतलब. लेकिन क्या तुम अकेले घूमने जाने का प्रोग्राम बना रही हो?’’ मैं ने बिस्तर पर फैले कंबल को समेटते हुए पूछा.
‘‘हां, इस बार मैं अकेले घूमने जाना चाहती हूं. मेरे कितने सारे दोस्त सोलो ट्रिप पर जा चुके हैं. उन्होंने ही कहा कि मुझे भी सोलो ट्रिप पर जाना चाहिए, बहुत मजा आएगा तो मैं ने भी जाने का मन बना लिया. वाह कितना मजा आएगा न.’’
पहाड़ों पर घूमना श्लोका को बहुत पसंद है इसलिए उस ने सिक्किम जाने का प्रोग्राम बनाया था. लेकिन मुझे चिंता इस बात की हो रही थी कि लड़की जात अकेले घूमने जाएगी, कुछ होहवा गया तो क्या करेंगे हम? लेकिन इस बारे में समीर से बोलने का कोई फायदा नहीं क्योंकि वे तो बच्चों का ही साथ देंगे. उलटा मुझे ही नसीहत देंगे कि पुरानी सोच से बाहर निकलो तूलिका. दुनिया कहां की कहां पहुंच गई है और तुम आज भी ‘ढाक के तीन पात’ बनी घूम रही हो.
‘‘अरे, क्या करने लग गई वहां. औफिस जाना है मुझे, देखो जरा मेरे कपड़े प्रैस हैं या नहीं,’’ समीर ने आवाज लगाई तो मेरी मुंह की बात मुंह में ही रह गई.
मैं श्लोका से कहना चाहती थी कि उस के साथ कोई दोस्त होता तो अच्छा रहता क्योंकि ‘एक से भले दो.’ समीर भी न अजीब इंसान है. छोटीछोटी बातों को भी ऐसे चिल्ला कर बोलेगा जैसे बहुत बड़ा तूफान आ गया हो.
‘‘कुछ चाहिए तुम्हें? मैं ने पूछा तो घूर कर समीर ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा. फिर बोले, ‘‘हां, डांस करने बुला रहा हूं. अरे भई, मेरे कपड़े प्रैस हुए या नहीं यही पूछ रहा हूं.’’
‘‘वे तो सुबह ही हो गए थे.’’
‘किस तरह से बात करता है यह इंसान कि डांस करने बुला रहा हूं. सुबह से शाम तक इन लोगों की चाकरी करना, डांस नहीं तो और क्या है,’ मन ही मन भुनभुनाते हुए मैं जूठे कप उठ कर किचन में चली गई. खुद तो जब देखो मोबाइल पर लगे रहते हैं और मु?ा पर और्डर झड़ते रहते हैं कि चाय लाओ, कपड़े प्रैस क्यों नहीं हुए. जैसे मैं उन की नौकर हूं. पता नहीं क्या देखते रहते हैं मोबाइल में कि हंसी रुकती ही नहीं है. बैठेबैठे बेमतलब का मोबाइल चला सकते हैं लेकिन अपने कपड़े प्रैस नहीं कर सकते. वह भी मेरी ही ड्यूटी है. इन लाट साहब को तो धोबी के प्रैस किए हुए कपड़े भी नहीं पसंद. इन्हें तो रोज के रोज प्रैस किए कपड़े चाहिए, एकदम गरमगरम कपड़े पर जरा भी सिलवट दिख जाए तो यह कह कर कपड़े घुमा कर फेंक देते हैं कि मुझ से एक भी काम ढंग से नहीं होता. तो खुद ही कर लो न ढंग का काम. मुझसे क्यों कहते हो. लेकिन यह भी नहीं कह सकती मैं. नहीं तो कहेंगे कि अब क्या घरबाहर मैं ही करूं? फिर तुम क्या करोगी.
खैर, एक चूल्हे पर दाल और दूसरे पर सब्जी छौंक कर मैं जल्दीजल्दी आटा गूंधने लगी. नाश्ता बनने में अगर जरा भी देर हो जाती है तो समीर का गुस्सा 7वें आसमान पर पहुंच जाता है कि नाश्ता बनाने में इतनी देर क्यों लगा दी? कोई भी काम जल्दी नहीं होता तुम से. याद नहीं कि कभी मैं ने सुबह की चाय गरम पी हो. फिर भी मुझे कोई शिकायत नहीं है. लेकिन इस के बावजूद जब सब मुझ में ही दोष निकालने लगते हैं तब बहुत दुख होता है.
बच्चों को भी खाना तो चटकदार चाहिए पर करना कुछ नहीं है. एक अकेली जान मैं 3-3 लोगों की फरमाइशें पूरी करतेकरते थक जाती हूं. लेकिन किसी को यह नहीं सूझता कि किचन में मेरी थोड़ी मदद कर दे. समीर का हर बात पर यह कहना कि यह ऐसा क्यों नहीं हुआ? यह वैसा क्यों हुआ? सुन कर मन चीख उठता है. कभी तो मन करता है सबकुछ छोड़छाड़ कहीं भाग जाऊं. लेकिन फिर सोचती हूं यह घरपरिवार मेरा ही तो है और समीर भी तो बाहर जा कर मेहनत करते हैं.
‘‘मम्मा…मेरा मैरून कलर की टीशर्ट नहीं मिल रही. प्रैस कर के कहां रख दी आप ने,’’ श्लोका कमरे से ही चिल्लाई.
‘‘अरे, तुम्हारी अलमारी में ही तो रखी थी. जरा ध्यान से देखो न. मिली? अच्छा आती हूं,’’ मैं बोली तो श्लोका बोली कि मिल गई.
‘‘अच्छा ठीक है,’’ कह कर मैं रोटियां सेंकने लगी. नजर घुमा कर देखा तो समीर अभी भी मोबाइल से चिपके हुए थे. लेकिन मेरी इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि कह सकूं कि अब कितना मोबाइल देखोगे. औफिस नहीं जाना है क्या? समीर से क्या, बच्चों से भी कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ती मेरी. तुरंत कहेंगे कि आप अपने काम से काम क्यों नहीं रखतीं? बेकार में बड़बड़ करती रहतीं. तब मेरा ही मुंह उतर जाता है, इसलिए अपनी इज्जत अपने हाथ.
‘‘बाजार से कुछ सामान लाना है घर के लिए. क्रैडिट कार्ड देते जाना,’’ समीर की प्लेट में रोटी डालते हुए मैं बोली.
‘‘कोई जरूरत नहीं क्योंकि तुम्हारा कोई ठिकाना नहीं कि फिर किसी दुकान पर क्रैडिट कार्ड छोड़ आओ. वह तो दुकानदार हमारी पहचान वाला था तो कार्ड लौटा गया वरना तो तुम्हारी मूर्खता के कारण मैं लुट गया होता,’’ ?ाल्लाते हुए समीर बोले तो मैं चुप हो गई. हां, उस दिन क्रैडिट कार्ड मैं दुकान पर ही भूल आई थी. दुकानदार अच्छा इंसान है, इसलिए बेचारा खुद ही कार्ड लौटाने घर आ गया था. लेकिन उसी बात के लिए दुकानदार के सामने ही समीर ने मुझे कितना सुनाया था कि मुझ में जरा भी अवेयरनैस नहीं है. बहुत ही लापरवाह औरत हूं मैं. समीर इतना बोलने लगे कि दुकानदार को ही बुरा लग गया और उसे कहना पड़ा कि गलती तो किसी से भी हो सकती है, जाने दीजिए न.
कै्रडिट कार्ड मैं इसलिए भूल गई थी क्योंकि समीर का फोन आ गया था कि वे अपनी फाइल घर पर ही भूल आए हैं तो जल्दी ड्राइवर के हाथों भिजवा दो और उसी जल्दी के चक्कर में मैं दुकानदार से कार्ड लेना भूल गई थी. लेकिन उसी बात के लिए बारबार ताने मारना क्या सही है? क्या समीर से गलती नहीं होती है? लेकिन लोगों को अपनी गलती दिखाई ही कहां देती है. उन्हें तो दूसरों की गलती कुरेदने में मजा आता है.
‘‘ये पैसे रखो. हो जाएगा न इतने में? नहीं होगा तो मैनेज कर लेना. वैसे भी खर्चे कम नहीं हैं घर में,’’ समीर ने अनमना सा होते हुए पैसे टेबल पर रख दिए और उठ कर औफिस जाने के लिए तैयार होने लगे. समीर के तेवर से लग रहा था कि पैसे मैंने घरखर्च के लिए नहीं बल्कि अपने शौक के लिए मांगे हैं.
मगर वहीं जब श्लोका शौपिंग के लिए पैसे मांगने आई तो कितने प्यार से समीर ने उसे क्रैडिट कार्ड पकड़ाते हुए कहा, ‘‘यह कार्ड रखो, जितनी चाहे शौपिंग कर लेना.’’
श्लोका को पापा से पैसे मांगते देख अंश भी बच्चे की तरह ठुनकने लगा कि उसे भी पैसे चाहिए.
‘‘अब तुम्हें किसलिए पैसे चाहिए? तुम्हें भी सोलो ट्रिप पर जाना है क्या?’’ बच्चों से बात करते हुए कैसे समीर की हंसी फूट रही थी. मगर न जाने क्यों मु?ा से ही बात करते उन के कंठ में कड़वाहट भर जाती है.
‘‘बोलो, तुम्हें क्या चाहिए,’’ समीर ने अंश से पूछा तो वह कहने लगा कि उसे भी अपने दोस्तों के साथ गोवा घूमने जाना है.
‘‘हां, तो जाओ न, रोका किस ने है,’’ कह समीर औफिस जाने के लिए तैयार होने लगे और मैं उन का लंच पैक करने लगी.
‘‘लंच रहने दो क्योंकि आज एक कलाइंट के साथ मीटिंग है तो उस के साथ ही लंच करना पड़ेगा.’’
समीर की बात पर मु?ो इतनी जोर का गुस्सा आया कि इतनी गरमी में मैं सुबह से किचन में मर रही हूं, लेकिन जरा यह नहीं हुआ कि बता दें आज लंच नहीं ले जाना है. श्लोका भी यह बोलकर कालेज जाने लगी कि आज उस की ऐक्स्ट्रा क्लास है तो जल्दी जाना है.
‘‘अरे, पर नाश्ता तो करती जाओ’’ पीछे से मैं बोली. मगर वह यह बोल कर स्कूटी से फुर्र हो गई कि कालेज की कैंटीन में खा लेगी. अंश भी ‘कैंटीन में खा लूंगा’ बोल कर कालेज के लिए निकल गया.
सब के जाने के बाद रोज की तरह मैं सोफा चादर ठीक करने लगी क्योंकि कुछ ही देर में मंजु, (बाई) आ जाएगी. वह 11 साढ़े 11 बजे तक आ जाती है काम करने. श्लोका के कमरे में गई तो पूरे पलंग पर कपड़े फैले हुए. एक टीशर्ट ढूंढ़ने के चक्कर में इस लड़की ने अलमारी के सारे कपड़े पलंग पर रख दिए. मगर यह नहीं हुआ कि कपड़े वापस अलमारी में रख दे. क्यों रखेगी. मां नाम की नौकरानी जो है घर में.
अंश का भी कमरा अस्तव्यस्त था. समीर ने भी हमेशा की तरह गीला तौलिया बिस्तर पर रख छोड़ा था. सारा घर व्यवस्थित कर मैं नहाने जा ही रही थी कि मंजु आ गई. ‘‘अरे, तू आज इतनी जल्दी कैसे आ गई? अच्छा कोई नहीं, तू काम कर ले, फिर मैं नहाने जाऊंगी,’’ कह कर मैं मैगजीन उठा कर पलटने लगी. मन हुआ चाय पीने का तो किचन में जा कर चाय रख दी. सुबह काम की इतनी मारामारी होती है कि ठीक से चाय भी नहीं पी पाती मैं.
‘‘मंजु, चाय पीएगी?’’ मैं ने पूछा तो उस ने हां कहा. बना हुआ खाना या तो मैं फेंक देती या खुद खा कर खत्म करती. लेकिन मैं कोई जानवर थोड़े ही हूं जो 3-3 जनों का खाना अकेले खा सकती हूं. इसलिए मैं ने सारा खाना मंजु को दे दिया.
‘‘क्या हुआ दीदी, आज किसी ने खाना नहीं खाया क्या?’’ चाय की चुसकी लेते हुए मंजू बोली. उसके तो आज मजे ही हो गए कि घर जा कर खाना नहीं बनाना पड़ेगा.
‘‘हां, वह मुझे नहीं पता था कि आज सब का बाहर खाने का प्रोगाम है. अब खाना बरबाद हो. उस से अच्छा तू लेती जा.’’
घर में झाड़ू लगाते हुए मंजु बताने लगी कि 66 नंबर वाली अर्चना मैडम शिमला घूमने गई हैं इसलिए वह काम करने जल्दी आ गई.
‘‘अर्चना घूमने गई? पर यों अचानक?’’ मैं ने पूछा.
‘‘अरे दीदी, अचानक कहां हर साल छुट्टियों में जाती तो रहती हैं घूमने. भूल गईं. आप पिछले साल भी वे अपने पति के साथ मसूरी घूमने गई थीं और उस के पिछले साल सिंगापुर.’’
‘‘अच्छाअच्छा, सम?ा गई. अब तुम काम खत्म करो जल्दी से. नहाई भी नहीं हूं. बाजार भी जाना है मु?ो,’’ मैं बोली तो वह जल्दीजल्दी हाथ चलाने लगी.
अर्चना के घूमने की बात सुन कर मुझे जलन हुई कि जब देखो कहीं न कहीं घूमती ही रहती है और एक मैं. याद नहीं पिछली बार कब घूमने गई थी. अर्चना अपने पति के साथ साल में 1-2 बार देशविदेश घूम ही आती है. हफ्ते में एक बार मूवी देखना, होटलों में खाना.
एक लंबी सांस भरते हुए मैं फिर मैगजीन में खो गई. लेकिन मेरा ध्यान बारबार अर्चना पर ही जा टिकता कि कितनी अच्छी जिंदगी हैं उस की. मजे से घूमतीफिरती है, खुश रहती है और एक मैं घर में पड़ेपड़े सड़ रही हूं. कितनी बार कहा समीर से कहीं घूमने चलते हैं. लेकिन हर बार काम बहुत है, बाद में देखते हैं कह कर मु?ो चुप करा देते हैं और अगर कभी मैं जिद करने लगती हूं तो चिढ़ते हुए कहते हैं कि क्या घूमनाघूमना करती रहती हो. घर में रहो न चुपचाप जैसे मैं कोई जानवर हूं. मेरी कोई फीलिंग्स ही नहीं हैं.
अर्चना मेरे घर से 3 घर छोड़ कर रहती है. उस का पति बैंक में बड़ी पोस्ट पर कार्यरत है.
2 बेटियां हैं उस की. बड़ी बेटी बैंगलुरु में मैडिकल की पढ़ाई कर रही है और छोटी बेटी इंजीनियरिंग के फर्स्ट ईयर में है. वैसे मैं अर्चना से किसी भी बात में कम नहीं हूं. समीर अच्छी जौब में हैं. साल में 2-3 बार उन का औफिशियल टूर होता ही है. मेरी बेटी श्लोका, ग्रेजुएशन के बाद यूपीएसी की तैयारी कर रही है और अंश कालेज के सैकंड ईयर में है. वह पायलेट बनना चाहता है. सपने तो बड़ेबड़े पाल रखे हैं मेरे बच्चों ने पर पढ़ना नहीं है. जब देखो, दोनों मोबाइल, लैपटौप में लगे रहते हैं और पढ़ने को बोलो तो मु?ा पर ही चिल्लाना शुरू कर देते हैं कि मैं बकबक करती रहती हूं.
अभी परसों ही मैं ने अंश से बस इतना ही कहा था कि कितना मोबाइल देखते हो. आंखें खराब हो जाएंगी बेटा. उसी बात पर उस ने चिल्लाना शुरू कर दिया कि मैं हमेशा उसे समझती रहती हूं. उस का साथ देते हुए श्लोका भी कहने लगी कि मेरे बारबार कहते रहने से ही उन का पढ़ने का मन होता यानी वे नहीं पढ़ रहे हैं उस में भी मैं ही दोषी हूं.
‘‘अरे, पर मैं ने तो सिर्फ यही कहा कि ज्यादा मोबाइल देखने से आंखों पर असर पड़ता है,’’ लेकिन बच्चों को डांटने के बदले समीर मु?ा पर ही चढ़ बैठे कि मैं बिना बात बच्चों के पीछे पड़ी रहती हूं.
‘‘मैं बच्चों के पीछे पड़ी रहती हूं?’’ गुस्सा आ गया मुझे भी कि कैसे बाप हैं ये. बच्चों को प्यार करने का यह मतलब तो नहीं कि उन की गलतियों पर कुछ बोलें भी न, ‘‘तुम्हें दिखाई नहीं देता कि पढ़ाई छोड़ कर दोनों लैपटौप पर सीरीज देखते रहते हैं और फिर भी मुझे ही दोष दे रहे हो कि मैं बच्चों के पीछे पड़ी रहती हूं? तो ठीक है आज के बाद मैं इन्हें कुछ भी नहीं बोलूंगी. ये पढ़ें न पढ़ें, मुझे कोई मतलब नहीं.’’
मेरी बात पर समीर बोले, ‘‘हां, मत बोलो, कोई जरूरत नहीं है बोलने की क्योंकि ये खुद ही समझदार हैं.’’
बड़े समझदार हैं. समझदार होते तो पढ़ते न कि समय बर्बाद करते. लेकिन जब बाप ही बच्चों को शह दे रहा हैं तो बच्चे तो ढीठ बनेंगे ही न. बच्चों के बिगड़ने में कहीं न कहीं मांबाप भी जिम्मेदार होते हैं क्योंकि हम भारतीय मांबाप अपने बच्चों के प्रति या तो बहुत सख्त हो जाते हैं या बहुत ही लिब्रल और ये दोनों चीजें सही नहीं हैं. बच्चे चाहे कितने भी पैसे खर्च कर दें एक बार भी नहीं पूछेंगे.लेकिन मु?ा से एकएक पैसे का हिसाब चाहिए समीर को जैसे मैं उस के पैसे ले कर कहीं भाग जाऊंगी. अपनी पसंद का कुछ ले भी आऊं तो तुरंत कहेंगे कि बकवास है. क्या जरूरत थी यह सब लाने की. बेकार में पैसे खर्च करती हो. लेकिन खुद दुनियाभर का उलटापुलटा बेहिसाब सामान उठा लाएंगे तो कुछ नहीं.
समीर के हिसाब से मुझे चीजें खरीदने का सलीका नहीं है और उन्हें बड़ा है. मन तो किया बोल दे लेकिन कहेगा कि तुम्हें क्या. मैं कमाता हूं, जो चाहे करूं मर्द जो चाहे करे क्योंकि वह कमाता है. लेकिन औरत अपने मन का कुछ भी नहीं कर सकती क्योंकि वह नहीं कमाती है. लेकिन औरतें मर्दों से कम करती हैं क्या बल्कि वे तो मर्दों से ज्यादा काम करती हैं. फिर भी औरतों की कोई इज्जत नहीं है. न तो वे पति से पूछे बगैर कहीं जा सकती है न अपने मन का कर सकती हैं.
समीर के घर वाले जब पहली दफा मुझे देखने आए थे तब मैं हया की सुर्खी में लिपटी, हाथों में चाय की ट्रे लिए, नजरें नीची किए उन के अटपटे सवालों के जवाब दे रही थी कि मैं खाना बनाना जानती हूं या नहीं? मेरे क्याक्या शौक हैं? कहां तक पढ़ाई की है मैं ने? लेकिन मुझे पता चला था कि समीर और उस के घर वालों को कमाऊं लड़की नहीं बल्कि घरेलू लड़की चाहिए जो घरपरिवार को अच्छे से संभाल सके, उन का वंश बढ़ सके. उन का कहना था कि उन के पूरे खानदान में किसी औरत ने आज तक नौकरी नहीं की है और इसीलिए मेरी लगीलगाई नौकरी छुड़वा दी गई थी. मांबाबूजी कहने लगे कि नौकरी तो मैं शादी के बाद भी कर सकती हूं. मगर इतना अच्छा रिश्ता अगर हाथ से निकल गय, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी. अब कौन बेटी चाहेगी कि उस के मांबाप उस के सामने हाथ जोड़ें? इसलिए मैं ने अपनी नौकरी छोड़ दी.
मगर मन तो किया था कह दे कि जब इन्हें नौकरी वाली लड़की चाहिए ही नहीं, फिर पढ़ाई के बारे में क्यों पूछ रहे हैं? परंतु लड़कियों में इतनी हिम्मत ही कहां होती है कि वे कुछ बोल सकें और अगर हिम्मत होती भी है तो अपने मांबाप की इज्जत की खातिर चुप लगा जाती हैं. बिना उफ किए अपने मांबाप की इज्जत की खातिर लड़की अपनी तमाम खुशियों के साथ सम?ाता ही नहीं करती बल्कि उस खूंटे से भी बंध जाती है, जहां उसे बांध दिया जाता है. हमारे समाज में पढ़ीलिखी लड़की तो सब को चाहिए लेकिन लड़के से ज्यादा नहीं क्योंकि उन का मानना है कि ज्यादा पढ़ीलिखी और नौकरीपेशा लड़की सिरचिढ़ी बन जाती है.
हां, सिर्फ सुंदरता अकेली ऐसी चीज है, जहां लड़की को लड़के से ज्यादा से ज्यादा दिखने की छूट है. लड़की फूल की तरह होनी चाहिए और उस का रंग दूध सा गोरा होना चाहिए.
मैं अपनी ही सोच में डूबी थी कि मंजु बोल पड़ी, ‘‘दीदी, मुझे 3-4 दिन की छुट्टी चाहिए.’’
‘‘छुट्टी… पर क्यों? कहीं जा रही है क्या?’’
‘‘हां दीदी, वह मेरी भतीजी की सगाई है न तो वहीं जा रही हूं, फिर सारा परिवार 2 दिन के लिए कहीं घूमने जाएगा. सारा प्रोग्राम बन चुका है.’’
‘‘यह तो अच्छी बात है,’’ मुसकराते हुए मैं बोली तो मंजु कहने लगी कि उस की मां को मरे तो सालों बीत गए लेकिन आज भी उस का मायका वैसा ही बना हुआ है क्योंकि उस की भाभी बहुत अच्छी है. उसे अपनी बेटी से कम नहीं सम?ाती है.
‘‘यह तो बड़ी अच्छी बात है कि तू जो तेरी भाभी तुझे मां जैसा प्यार देती है.’’
मेरी बात पर वह हंस पड़ी. लेकिन मुझे रोना आ गया कि काश, मेरा भी मायका होता तो मैं भी जाती न वहां. मांबाबूजी के मरते ही दोनों भाइयों ने संपत्ति का बंटवारा कर अपनी अलगअलग दुनिया बसा ली. कभी तीजत्योहार में भी मैं उन्हें याद नहीं आती क्योंकि संपत्ति में मैं ने अपना हिस्सा जो मांग लिया था.
‘‘दीदी… वह मुझे एडवांस पैसे दे देतीं तो…’’ दबे मुंह मंजू बोली, तो मैं ने उस के काम के 3 हजार रुपए और एक नई साड़ी देते हुए कहा कि यह साड़ी उस की भतीजी के लिए है.
‘‘यह तो बहुत ही सुंदर साड़ी है. मेरी सोनाली पर खूब फबेगी,’’ साड़ी पर हाथ फेरते हुए मंजु चहकते हुए बोली, ‘‘थैंक यू दीदी.’’
‘‘अरे, थैंक यू मत बोल. जा अच्छे से ऐंजौय कर और काम की टैंशन मत लेना, मैं कर लूंगी.’’
मेरी बात पर उस ने फिर थैंक यू बोल, जीभ निकाल कर कान पकड़ लिए तो मुझे हंसी आ गई. मंजु अपनी भतीजी की सगाई से ज्यादा घूमने जाने को ले कर उतावली थी. कितनी बार बोल चुकी थी कि घरपरिवार के चक्कर में कहीं भी घूमने नहीं जा सकती है. लेकिन इस बार वह खूब घूमेगी. चाहे गरीब हो, अमीर हो, घूमनाफिरना तो सब को अच्छा लगता है न. लेकिन समीर तो अजीब ही इंसान हैं. जब भी घूमने की बात करो चिढ़ उठते हैं. कहते हैं कि मुझ पर घूमने का भूत सवार हो जाता है.
रात के खाने की तैयारी कर ही रही थी कि समीर कहने लगे कि आज उन्हें रोटीसब्जी या दालचावल जैसा कुछ नहीं खाना है.
‘‘तो क्या खाओगे बोलो, वही बना दूंगी,’’ हाथ रोकते हुए मैं बोली, ‘‘एक काम करती हूं, पावभाजी बना देती हूं नहीं तो बिरियानी और पनीर की सब्जी. बताओ क्या बनाऊं?’’
मैं भी थक चुकी थी अब. एक तो इतनी गरमी में खाना बनाओ और फिर इन की चिरौरी भी मुझसे नहीं होगी भई. जब भी खाना बनाओ, मुंह बिचकाते हुए बोलेंगे छि:.. यह क्या बनाया मम्मा. मुझे नहीं खाना यह कद्दू, भिंडी. मन तो चिढ़ उठता है कि जाने कहां के लाट साहब हैं ये कि रोज इन्हें वैराइटी ही चाहिए खाने में. खुद बनाओ न जा कर फिर पता चले कि खाना बनाने में कितनी मेहनत लगती है. लेकिन क्या फायदा बोलने का? फिर मैं ही बुरी बन जाऊंगी.
‘‘एक काम करती हूं, कड़ीचावल बना देती हूं, पकौड़े वाली कड़ी, बोलो, बना दूं?’’ मैं ने कहा तो श्लोका मुंह बनाते हुए बोली, ‘‘कुछ भी बनाओ, सारे खाने का टेस्ट एक सा ही होता है, गंदा सा.’’
अंश ने भी वैसे ही रिएक्ट किया. मन तो किया 2 थप्पड़ लगा कर कहूं कि बेशर्मो अच्छा खाना भी कहां अच्छा लगता है तुम लोगों को. तुम्हें तो बस मैगी, पास्ता चिप्स, नूडल्स ही चाहिए होता है.
‘‘यह पावभाजी और पनीरफनीर रहने दो. आज कुछ स्पेशल बनाओ न,’’ समीर बोले तो अंश भी कहने लगा कि रोजरोज मम्मी के हाथों का बना खाना खाखा कर वह बोर हो चुका है तो आज उसे बाहर खाने जाना है. श्लोका भी अंश की भाषा बोलते हुए बोली कि आज उसे इटैलियन खाने का मन है. समीर ने भी कुछ तड़कताफड़कता खाने की फरमाइश की. डिसाइड हुआ कि सब बाहर डिनर करने जाएंगे.
‘चलो, अच्छा ही है, खाना बनाने से मुक्ति मिली,’ मैं ने सोचा और तैयार होने लगी. होटल में भीड़ के कारण, हमें बाहर वेट करने को कहा गया. कुरसी पर बैठते ही तीनों अपनेअपने फोन में व्यस्त हो गए तो मैं भी अपना फोन खोल कर फेसबुक देखने लगी. अर्चना ने अपने कई फोटो फेसबुक पर अपलोड किए थे. पति के साथ अलगअलग ड्रैस में, अलगअलग पोज में. उस की काफी तसवीरें थीं. तभी बैरा, ‘‘टेबल रैडी है,’’ कह कर चला गया.
तीनों ने अपनीअपनी पसंद का न जाने क्याक्या आलतूफालतू मंगवाया. मगर मैं ने अपने लिए सिर्फ वैजीटेबल बिरयानी और रायता और्डर किया. इन्हें खाना तो खूब चटपटा चाहिए. लेकिन वाक या ऐक्सरसाइज से इन का दूरदूर तक कोई नातारिश्ता नहीं है. कहते हैं नींद ही नहीं खुलती तो वाक पर कैसे जाएं. लेकिन नींद तो तब खुलेगी न, जब समय से सोएंगे. रात के 2-2 बजे तक मोबाइल चलाते रहते हैं. अभी भी तीनों फोन पर इतने ज्यादा व्यस्त हैं कि अगर इन के सामने कोई मरा हुआ चूहाबिल्ली भी ला कर रख दें तो खा लेंगे. पता नहीं क्या देखते रहते हैं मोबाइल में.
आज लोग रियल में नहीं बल्कि वर्चुअल, आभासी दुनिया में जीने लगे हैं. हम जीवन में इतने नकली होते जा रहे हैं कि असल व वास्तविक जीवन से हमारा कोई वास्ता ही नहीं रह गया है. हम आभासी दुनिया में ऐसे गुम हैं कि हमें नकली भी असली नजर आने लगा है. आज के समय में फेसबुक हमारा नया समाज व व्हाट्सऐप ऐसा कुनबा बन गया है जिस में हम दिनभर बेमतलब की बातें करते हैं. गरमी की वजह से या पौल्यूशन के कारण पता नहीं पर मेरा सिरदर्द से फटा जा रहा था.
समीर से कुछ कहती, उस से पहले ही उन्होंने मुझे अपनी आगोश में भर लिया और लाइट औफ कर दी. आज मेरा मन जरा भी नहीं था. लेकिन बोलने का कोई फायदा नहीं था क्योंकि औरत का मन हो न हो, इस बात से पति को कोई फर्क नहीं पड़ता, बस उस का मन होना चाहिए.
‘‘समीर… एक बात कहूं?’’ मैं ने कहा.
‘‘हूं… कहो,’’ मोबाइल चेक करते हुए समीर बोले. सोने से पहले और जागते ही समीर सब से पहले अपना मोबाइल चैक करते हैं फिर कोई और काम होता है.
‘‘श्लोका और अंश दोनों घूमने जा रहे हैं तो हम भी कहीं घूमने चलते हैं न.’’
‘‘हां, दार्जिलिंग चलते हैं. मेरा बहुत मन है वहां घूमने का,’’ मैं ने कहा तो समीर ने यह कह कर करवट बदल ली कि अभी नहीं, बाद में देखते हैं.
समीर की बात पर मुझे बहुत गुस्सा आया. बोली, ‘‘बच्चों के लिए तो तुरंत हां कर देते हैं लेकिन मेरे लिए बाद में. कब से कह रही हूं कहीं घुमाने ले कर चलो, लेकिन हर बार तुम यही कहते हो कि बाद में चलेंगे. बोलो न कब आएगा तुम्हारा वह ‘बाद में’?’’ मैं ने समीर को हिलाते हुए कहा.
वे दनदनाते हुए उठ बैठे और गरजते हुए बोले, ‘‘पागल हो क्या. अभी इतनी रात में तुम्हें घूमने जाने की बात करनी है? सो जाओ चुपचाप समझ,’’ बोल कर समीर ने करवट बदल ली.
अभी जो पति अपनी पत्नी को चांदसितारे का तमगा दे रहा था, अचानक से वह उसे बुरी लगने लगी क्योंकि मैं ने ‘जरा अपने मन’ की कह दी इसलिए? सुबह औफिस जाते समय समीर बोले, ‘‘सुनो, परसो मुझे सिंगापुर के लिए निकलना है तो तुम मेरे कपड़े और जरूरी सामान वगैरह अटैची में रख देना.’’
मैं ने कोई जवाब न दे कर अंदर से कुंडा लगा लिया और रोज की तरह काम में जुट गई. दार्जिलिंग न सही पर क्या समीर मुझे अपने साथ सिंगापुर भी नहीं ले जा सकता था. ‘उस के सारे दोस्त अपनी बीवियों को देशदुनिया घुमाने ले जाते हैं लेकिन एक मैं ही जो कहीं नहीं जाती,’ सोचते हुए मुजे रोना आ गया.
समीर और बच्चों को ट्रिप पर गए आज 4 दिन हो चुके थे. लेकिन इन 4 दिनों में उन्होंने एक बार भी मुझे फोन नहीं किया. मैं ने ही 2-3 बार फोन किया, तो हम ठीक हैं, डिस्टर्ब मत करो न,’’ कह कर फोन रख दिया.
बेकार में किसी के घर जा कर या फोन कर के मैं उन्हें परेशान नहीं करना चाहती थी. इसलिए घर में पड़े पैंडिंग काम, जिन्हें समय की कमी के कारण कर नहीं पाती थी उन्हें करने लगी. समीर की टेबल पर फाइलों का अंबार लगा था तो उन्हें समेट कर मैं ने बड़े वाले दराज में रख दिया ताकि निकालने में आसानी हो. बच्चों की अलमारी में भी कपड़े करीने से लगा दिए और पढ़ने की टेबल भी झाड़पोंछ दी. लेकिन फिर भी समय था कि कट ही नहीं रहा था. इसलिए टीवी देख कर, मैगजीन पढ़ कर समय बिताने लगी. कई बार मन हुआ मिताली से बात करूं, पर फिर लगा वह बिजी होगी. क्यों बेकार में फोन कर उसे परेशान करूं. इसलिए फिर मैं मैगजीन उठा कर पलटने लगी. लेकिन अब पढ़ने और टीवी देखने से भी मन उकताने लगा था. लग रहा था किसी अपने से बात करूं. पता नहीं क्यों पर आज मिताली की बहुत याद आ रही थी.
मिताली मेरी बचपन की दोस्त. हम दोनों ने साथ में ही स्कूल, कालेज तक की पढ़ाई की थी. उस के बाद हम ने साथ में ही टीचर ट्रेनिंग का कोर्स किया और दोनों टीचर बन गए. लेकिन उस का सपना बैंक में जाने का था, इसलिए वह बैंक की तैयारी में जुट गई और 2 साल के अंदर ही उस का चयन बैंक में हो गया. ट्रेनिंग के बाद उस की पोस्टिंग गुजरात के कच्छ जिले में हो गई और मैं यहीं लखनऊ में ही रह गई. मेरी शादी पर वह नहीं आ पाई थी क्योंकि उस समय बैंक कलोजिंग डे था. लेकिन बाद में वह मुझ से मिलने आई थी. लेकिन यह जान कर उसे बड़ा दुख हुआ कि मैं ने टीचर की नौकरी छोड़ दी. लेकिन क्या बताती उसे कि शादी ही इस शर्त पर हुई थी कि मुझे अपनी नौकरी छोड़नी पड़ेगी.
कुछ साल बाद मिताली की भी शादी तय हो गई. सुना था उस का होने वाला पति भी बैंक में जौब करता है. मैं भी गई थी उस की शादी में. लड़का बड़ा ही हैंडसम था. लेकिन उस का परिवार जरा अजीब लगा मुझे. खैर, जो भी हो, मेरी सहेली को उस का मनपसंद जीवनसाथी मिल गया, इसी बात से खुश थी मैं.
मगर शादी के 3 साल बाद ही मिताली का अपने पति से तलाक हो गया, यह बात सुन कर बड़ा दुख हुआ मु?ो. मिताली ने ही बताया था मु?ो कि उस के ससुराल वाले और उस का पति बहुत ही लालची इंसान हैं. वे नहीं चाहते थे कि मिताली अपनी कमाई का एक भी पैसा अपने मांबाप पर खर्च करे और यह बात मिताली को कतई मंजूर नहीं थी. होती भी क्यों? अरे, जिस मांबाप ने अपनी उम्रभर की कमाई अपनी दोनों बेटियों की पढ़ाईलिखाई पर और उन की अच्छी परवरिश पर लगा दी, उन्हीं मांबाप को वह कैसे दरदर की ठोकरें खाने को छोड़ देती. मिताली का कोई भाई नहीं था, 2 बहनें ही थीं वे. बारीबारी से दोनों बहनें अपने मांपापा का खयाल रखती थीं. लेकिन यह बात मिताली के पति को बिलकुल अच्छी नहीं लगता था और इसी बात पर दोनों के बीच लड़ाई होने लगी थी और उस का नतीजा तलाक के रूप में ही निकला.
मिताली का पति तो उस के खर्चे पर भी रोकटोक लगाता था. एकएक पैसे का हिसाब मांगता कि उस ने कहां कितने पैसे खर्च किए. लगता था जैसे उस ने मिताली को देख कर नहीं बल्कि उस की जौब को देख कर शादी की थी. सही किया मिताली ने उस से तलाक ले कर वरना वह इंसान जिंदगीभर मिताली को परेशान करता.
फिर मिताली के लिए कितने ही रिश्ते आए. मैं ने भी समझाया था कि शादी कर ले.
लेकिन उस ने तो फिर शादी न करने का प्रण कर रखा था. उस का कहना था कि क्या भरोसा वह लड़का और उस का परिवार भी पैसे का लालची हो? वह किसी की गुलामी करने के लिए पैदा नहीं हुई हैं. अपनी मरजी से, अपने तरीके से जीएगी वह. तब मुझे मिताली की बातें गलत लगी थीं लेकिन आज लगता है वह अपनी जगह एकदम सही थी. मैं भी तो समीर की गुलामी ही कर रही हूं. कहां अपनी मरजी से कुछ कर पाती हूं.
कहते हैं ‘दिल से दिल की राह होती है’ मैं मिताली के बारे में ही सोच रही थी और उस का फोन आ गया.
‘‘इतने दिनों बाद तुझे अपनी सहेली की याद आई?’’ मैं ने शिकायत भरे लहजे में कहा.
‘‘अच्छाजी, तुझे तो मेरी बड़ी याद आई,’’ उस ने भी पलटवार किया, ‘‘मैडम, अपनी घरगृहस्थी में इतनी बिजी हैं कि अपनी दोस्त को भी भूल गईं. नहीं याद आती न मैं तुझे, सचसच बताना?’’
‘‘नहीं. ऐसी बात नहीं. तुझे तो मैं रोज याद करती हूं पर फोन इसलिए नहीं करती कि कहीं तू डिस्टर्ब न हो जाए,’’ मैं ने कहा.
‘‘अब कहा सो कहा, दोबारा यह बात मत कहना नहीं तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा समझ?’’ मिताली का प्यारभरा गुस्सा फूटा तो मैं हंस पड़ी.
‘‘वैसे तू है कहां अभी?’’ मैं ने पूछा तो उस ने बताया कि अभी वह अहमदाबाद में है लेकिन अगले महीने उस का तबादला होने वाला है, लेकिन कहां होगा नहीं पता उसे.
‘‘अच्छा ही है, इसी बहाने नईनई जगहों पर घूमाना भी हो जाता है तुम्हारा, है न?’’
मेरी बात पर वह हंसी और बोली कि मैं भी तो समीर के साथ देशविदेश घूम ही रही होगी. उस की बातों पर मेरी आंखें भर आईं कि क्या बताऊं कि हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और होते हैं. शादी के समय मैं ने भी तो यही सोचा था कि समीर मुझे देशदुनिया की सैर कराएगा. लेकिन सोचा हुआ कहां कभी सच होता है.
हनीमून के नाम पर भी ऋ षिकेश ले कर गए थे वह भी अपने पूरे परिवार के साथ. जहां हनीमून तो जरा भी नहीं लगा था मुझे. न चाहते हुए भी मैं ने मिताली के सामने सारी बातें खोल कर रख दी, ‘‘एक मैं ही हूं जो घर में सज रही हूं. सब मजे कर रहे है. किसी को मेरी परवाह नहीं. बता न क्या मेरा घूमनेफिरने का मन नहीं होता? क्या मैं इंसान नहीं हूं?’’
‘‘किस ने कहा तू इंसान नहीं है और रोका किस ने तुझे घूमने से? जा घूम आ जहां मरजी हो.’’
लगा मिताली भी मेरा मजाक बना रही है. तभी तो ऐसे बोल रही है. मैं ने कहा, ‘‘रोका नहीं है लेकिन मैं किस के साथ घूमने जाऊं? अकेली तो नहीं जा सकती न.’’
‘‘क्यों नहीं जा सकती अकेले घूमने?’’ उस ने कहा, ‘‘तुम्हारी बेटी, बेटा और समीर भी जाते रहते हैं, फिर तुम्हें अकेले घूमने जाने में क्या तकलीफ है?’’
‘‘हां, लेकिन…
‘‘लेकिनवेकिन छोड़ और तू जा रही है सोलो ट्रिप पर समझ? तू चिंता मत कर मैं सारा इंतजाम कर दूंगी. प्लेन का टिकट भी तुम्हारे मोबाइल पर आ जाएगा.’’
मिताली तो सुन कर एकदम जोश में ही आ गई पर डर लगने लगा कि यह पागल औरत कहीं सच में प्लेन का टिकट न भिजवा दे.
‘‘अरे, पागल है क्या? मैं अकेले कैसे… नहींनहीं, मुझे तो सोच कर ही डर लगता है. रहने दे, मैं घर में ही ठीक हूं,’’ मैं ने कहा.
‘‘इसलिए… इसलिए तू आज अकेली है घर में और सब मजे कर रहे हैं क्योंकि तुम्हारी सोच कि मैं एक औरत हूं, अकेले कैसे जा सकती हूं… किसी को दोष मत दे समझ क्योंकि हम खुद अपनी हालत के लिए जिम्मेदार होते हैं. कल को तुम्हारे बच्चे अगर कहेंगे कि तुम खानापीना और हंसना भी छोड़ दो तो छोड़ दोगी? जब हम औरतें खुद ही बेडि़यों में जकड़े रहना पसंद करती हैं तो लोगों को क्या पड़ी है हमें आजाद करने की.’’
‘‘तुम्हारी बात सही है मिताली पर मैं कभी अकेले बाहर नहीं गई न.’’
‘‘नहीं गई, तो एक बार जा कर तो देख, तुम्हारा सारा डर खत्म न हो गया तो कहना और सब से बड़ी बात अपने पति, बच्चों को दिखाओ कि तुम उन के भरोसे नहीं हो. जब तुम्हारे बच्चे और पति को तुम्हारी परवाह नहीं है, फिर तुम क्यों उन के लिए मरी जाती हो? वे अपनी मरजी से जी सकते हैं, घूमफिर सकते हैं तो तुम क्यों नहीं?’’
‘‘समीर का फोन आ रहा है, मैं तुम से बाद में बात करती हूं,’’ कह कर मैं ने फोन रख दिया.
समीर कहने लगे कि वे कल नहीं, परसों आएंगे.
‘‘ठीक है,’’ कह मैं ने फोन रख दिया और सोचने लगी कि मिताली ने भले ही कह दिया कि मैं अकेले घूमने जा सकती हूं लेकिन यह इतना आसान है क्या? घरबच्चों को छोड़ कर मुझ से कहां जाया जाएगा भला.
ट्रिप से आने के बाद न तो समीर ने और न ही बच्चों ने मुझसे पूछा कि मैं अकेले
कैसे रही? या यह कि अगली बार हम सब साथ में घूमने चलेंगे. उलटे समीर मुझ पर चिल्लाने लगे कि मैं ने उन की फाइलें इधरउधर क्यों कर दीं.
‘‘पर मैं ने तो उन्हें अच्छे से दराज में रख दिया था ताकि तुम्हारा कोई जरूरी कागज उधरउधर न हो जाए,’’ मैं ने सफाई देनी चाही.
मगर समीर ने मुझे ही चुप करा दिया. बोले, ‘‘चुप रहो, एक नंबर की मूर्ख हो तुम.’’
समीर की बात पर मेरी आंखें भर आईं.
‘‘अब रोने का नाटक मत करो. कहा था न तुम से जो फाइलें जहां हैं वहीं रहने दिया करो. बेवकूफ कहीं की, ‘‘बोल कर समीर कमरे में चले गए और न जाने किस से हंसहंस कर बातें करने लगे. बच्चे भी अपने दोस्तों को ट्रिप के बारे में बता रहे थे कि वे कहांकहां घूमे, क्याक्या देखा और उन्हें कितना मजा आया. लेकिन मेरे लिए न तो किसी के पास टाइम था और न ही प्यार के 2 मीठे बोल ही.
‘लगा मिताली सही कह रही थी कि हम औरतें अपने परिवार, पति, बच्चों के लिए मरती रहती हैं पर उन की नजरों में हमारी जरा भी कद्र नहीं होती. लेकिन गलती हमारी भी है क्योंकि हम खुद इन सब में जकड़े रहना पसंद करती हैं. परिवार, पति, बच्चों को ही अपनी दुनिया सम?ा लेती हैं. लेकिन जब इन्हें ही मेरी परवाह नहीं है, मेरी फीलिंग्स से कोई लेनादेना नहीं है, फिर मैं क्यों परवाह करूं इन की? क्यों सोचूं कि ये क्या सोचेंगे, कैसे रहेंगे, कैसे खाएंगे?’
मैं ने मन ही मन दृढ़ निश्चय कर लिया कि जाऊंगी घूमने और वह भी अकेली. नहीं चाहिए मुझे किसी का साथ. मैं ने तुरंत मिताली को फोन लगा कर अपना फैसला सुना दिया.
‘‘यह हुई न बात,’’ खुश होते हुए मिताली ने मु?ो सोलो ट्रिप के क्याक्या फायदे हैं और वहां मु?ो अपना खयाल कैसे रखना है, जरूरत पड़ने पर कहां फोन करना है, सब अच्छे से सम?ा दिया, ‘‘और सुन, तू जरा भी डरना मत कि तू पहली बार अकेली घूमने जा रही है, सम?ा?’’
‘‘बिलकुल नहीं डरूंगी और तू तो है ही मेरे साथ,’’ कह कर मैं ने फोन रख दिया. मिताली ने मेरे जाने का सारा इंतजाम कर दिया और फोन पर प्लेन का टिकट भी आ गया.
‘‘छि:, यह क्या बनाया, आलू परांठा,’’ श्लोका ने मुंह बनाया, ‘‘मुझे पोहा खाना है.’’
‘‘तो खुद बना लो जा कर और वैसे भी कल से जो मरजी हो बना कर खाना क्योंकि मैं सोलो ट्रिप पर जा रही हूं.’’
मेरी बात सुन कर रोटी का टुकड़ा समीर के गले में ही अटक गया और श्लोका को तो जैसे शौक ही लग गया.
‘‘सो सोलो ट्रिप…’’ समीर हंसे, ‘‘सोलो ट्रिप का मतलब भी पता है तुम्हें? अकेले घूमने जाना. एक क्रैडिट कार्ड तो संभलता नहीं तुम से, चली हो सोलो ट्रिप. मजाक करना बंद करो और अलमारी से मेरे नीले रंग की शर्ट निकाल दो. आज मीटिंग में वही पहन कर जाऊंगा.’’
‘‘मैं मजाक नहीं कर रही हूं समीर, आज
4 बजे की मेरी फ्लाइट है. मैं ने तुम्हारे सारे कपड़े प्रैस कर अलमारी में रख दिए हैं और मंजु से कह दिया है सुबह का नाश्ता बन दिया करेगी आ कर,’’ जूठे बरतन सिंक में रखते हुए मैं बोली तो श्लोका मेरे गले लग कर कहने लगी कि मैं न जाऊं क्योंकि घर के काम, खाना, कपड़े उस से नहीं हो पाएगा.
‘‘क्यों नहीं हो पाएगा? बच्ची थोड़े ही हो तुम? अकेले घूमने जा सकती हो, अपने सारे फैसले खुद ले सकती हो तो काम भी कर ही लोगी और फिर अंश भी है, काम में तुम्हारी मदद कर दिया करेगा,’’ अंश की तरफ देख कर मैं बोली, तो उस के मुंह में कोई जवाब नहीं था. उसे भी शौक लग गया था मेरे जाने के नाम से.
समीर को तो अब भी भरोसा नहीं हो रहा था कि मैं अकेले घूमने जा रही हूं.
लेकिन जब मैं ने उन्हें प्लेन का टिकट दिखाया तो हकलाते हुए कहने लगे, ‘‘अरे, मैं ने तो कहा ही था काम से फ्री होते ही घूमने चलेंगे. चलेंगे न, तुम अभी रहने दो.’’
मगर मैं समीर की बात पर ध्यान न दे कर अंश को समझने लगी कि बस 15 दिन की ही तो बात है, फिर मैं आ ही जाऊंगी. मैं ने श्लोका को सम?ा दिया कि रात का भी खाना बना कर मैं ने फ्रिज में रख दिया है सिर्फ खाते समय गरम कर लेना. मेरी 4 बजे की फ्लाइट थी इसलिए मैं घर से 3 बजे निकल गई. निकलते समय मेरे पैर लड़खड़ाए लेकिन फिर लगा अगर आज मैं कमजोर पड़ गई तो फिर कभी इन बेडि़यों को नहीं तोड़ पाऊंगी.