Hindi Satire : नाक की लड़ाई

Hindi Satire : इन दिनों मेरा घर पानीपत का मैदान बना हुआ है. जिस ओर देखो उसी ओर एकदूसरे को चुनौती दी जा रही है. मैं ने पत्नी लक्ष्मी से पूछा, ‘‘मेरी लच्छो, इस छोटे से फ्लैट को घर समझो. यहां आराम से रहने में तुम्हें क्या परेशानी है?’’

‘‘मैं तो शांतिपूर्वक रहना चाहती हूं, मगर मांजी ही सुकून से रहना नहीं चाहतीं. जब देखो तब अपनी नाक चढ़ाए घूमती रहती हैं. आर्डर पे आर्डर देती रहती हैं, यह मत करो, वह मत करो, अपनी नाक का कुछ तो खयाल रखो,’’ लक्ष्मी ने अपनी तोता नाक पर टिका चश्मा ठीक करते हुए कहा.

मैं समझ गया कि सासबहू में नाक को ले कर तकरार हो रही है. दोनों जिद्दी स्वभाव की हैं. दोनों में से कोई भी एक अपनी नाक छोटी करना नहीं चाहतीं. मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि यदि नाक छोटी हो गई तो क्या फर्क पड़ जाएगा. मगर नहीं, लक्ष्मी बता रही थी कि विवाह पर उस की माताश्री ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘बेटी, हमारा परिवार नाक वालों का है. हमारी नाक समाज में प्रतिष्ठित है. ससुराल में अपनी नाक की प्रतिष्ठा बचाए रखना. मर जाना मगर नाक पर आंच मत आने देना.’

बस, तब से अब तक लक्ष्मी चौबीसों घंटे अपनी उंगली नाक पर रखे रहती है. यहां तक कि वह अपनी नाक पर मक्खी तक बैठने नहीं देती. लक्ष्मी का नासिका मोह मुझे भी लुभा गया. जिस नारी को अपनी नाक से एक बार प्रेम हो जाए उस का पति उसे नाक में कम से कम एक बार लौंग पहना कर हमेशा के लिए उस के नखरों से बच जाता है. मैं ने देखा है, जिस संभ्रांत महिला को जब अपनी सुराहीदार गरदन से स्नेह हो जाता है उस समय उस के पति का दिवाला निकलने में देर नहीं लगती. गले के लिए नेकलेस, हार खरीदने के लिए कईकई तोले स्वर्ण भेंट चढ़ जाता है. नारी मूड की तरह ग्रीवा आभूषणों की डिजाइनें बदलती रहती हैं और हर 1-2 वर्ष में पति की नाक में पत्नी अपनी फरमाइशों की नकेल डालती रहती है.

नाक की लड़ाई घरघर में युगों से चली आ रही है और आगे भी निरंतर चलती रहेगी. कोई भी अपनी नाक को कटते हुए नहीं देख सकता. जिस की नाक एक बार कट जाती है वह दोबारा नहीं जुड़ पाती. संभ्रांत समाज में जिस की नाक कट जाती है उसे ‘नक्टा’ की उपाधि से सुशोभित किया जाता है. जिस से वह बेशर्म की तरह कटे नाक का दर्द, पीड़ा, टीस, सूर्पणखा की तरह ढोता रहता है, आत्मग्लानि के बोझ तले अपनी कटी नाक हथेली में लिए रात की नींद व दिन का चैन खोता रहता है. हर कोई चाहता है कि भैया, चाहो तो मेरी गरदन काट लो, मगर मेहरबानी कर के नाक मत काटिए. नाक में ही मेरे प्राण बसते हैं. बिना नाक के जीना, कोई जीना है, लल्लू.

लोगों ने नाक को प्रतिष्ठा का प्रश्न क्यों   बनाया है, कान को क्यों नहीं बनाया, शोध का विषय है. मैं भी नाक के महत्त्व पर चिंतन कर रहा हूं. क्या सचमुच किसी की नाक देख लेने मात्र से ही उस के चरित्र का

पता लगाया जा सकता है? कहा जाता है कि जिन की नाक समकोणी होती है वे उदार, बुद्धिमान, महत्त्वाकांक्षी स्वभाव के होते हैं. मैं ने लक्ष्मी की नाक देखी, वह न्यूनकोण नसिका वाली थी.

मैं ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘लच्छो, तुम्हारे स्वभाव का इस में कोई दोष नहीं है. दोष तो तुम्हारी नाक का है, जो तुम्हारे निराशा, द्वेष, भावुकता से भरे स्वभाव को दर्शाती है.’’

‘‘मेरी नाक ही ऐसी है तो इस में मेरा क्या दोष है. नाक का क्या है, नाक तो नाक है, श्वास लेने का माध्यम,’’ कहते हुए लच्छो ने रूमाल से अपनी नाक ढक ली.

इतिहास गवाह है, इसी नाक को समर्पित नथिनों के लिए कितने ही राजेरजवाड़े समर्पित हो गए, मर गए मिट गए. तभी तो विवाह के समय सास अपने होने वाले दामाद की नाक खींचती है. यह रिवाज क्यों बनाया गया है, विचारणीय है. सच, नाक खिंचाई की रस्म बड़ी ही लुभावनी होती है. सास ने इधर दूल्हे के भाल पर तिलक लगाया, उधर दूल्हा अलर्ट हो जाता है, सावधान हो जाता है कि कहीं उस की नाक न खींच ली जाए. नाक खिंचवाना शर्म की बात होती है. सारे रिश्तेदार, सालेसालियां इस रोमांचक रिवाज का आनंद लेते हैं.

नाक की लड़ाई का प्रभाव राजनीति में जबरदस्त रूप से देखा जा सकता है. वे राष्ट्र की प्रगति के लिए नहीं लड़ते बल्कि दोनों पक्षों के बीच नाक की लड़ाई का ही वर्चस्व होता है.

‘‘चुनाव में उन की नाक न कटवा दी तो मैं सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लूंगा,’’  टाइप की हुई भीष्म प्रतिज्ञा लेने की घोषणा होती रहती है.

यही नाक है जिस ने न जाने कितनों के सिर फुड़वा दिए, टांगें तुड़वा दीं. तब लगता है चुनाव समर में नाक ही अपनी अहम भूमिका निभाती है. नाक की लड़ाई राष्ट्रीय स्तर पर होती है. कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक घरघर में लड़ी जाती है. अब इसे समाजवादी लड़ाई भी कहा जा सकता है. जहां नाक है वहां लड़ाई है. चाहे दफ्तर हो या घर पड़ोसियों में इसी नाक की लड़ाई को ले कर सट्टे खेले जाते हैं कि देखें कि किस की नाक बचती है.

2 की लड़ाई में बेचारी तीसरी नाक ही शहीद होती है.

तब लगता है, जहां प्रतिष्ठा है वहीं नाक की लड़ाई लड़ी जाती है. सब से रोमांचक लड़ाई सासबहू के बीच लड़ी जाती है, जो ड्रा नहीं होती. दोनों ही अपनी नाक के लिए दांवपेच के पासे फें कती हैं. पत्नी, पति के कंधे पर कान भरने की बंदूक रख कर चलती है. सास के खिलाफ बरगलाती है. फिल्मी संवाद उगलती है, ‘‘आखिर कब तक अपनी नाक की लाज बचाओगी? बुढ़ापा तो आ ही गया है, सासूमां 2-4 साल में मजबूरी की बैसाखियां ले कर हमारी चौखट पर ही आओगी, अपनी नाक रगड़ने.’’

तब टेप से सास अपनी नाक का नाप लेते हुए

कहती हैं, ‘‘बहू, गलतफहमी में मत रहना. मैं भी लंबी नाक वाली हूं. अपनी शादी में दहेज के साथ लंबी, तीखी नाक साथ ले कर आई हूं. तुम्हारी चौखट पर नाक रगड़ने जाए मेरी जूती. बहू, अब तुम भी नाक चिंतन करना शुरू कर दो. तुम भी सास बन रही हो. जितना तुम नाक का मुद्दा उछालोगी उतना ही घाटे में रहोगी. नाक तो राजा रावण की बहन की भी नहीं रही थी. जिधर देखो उधर जेबकतरों की तरह नाक काटने वाले उस्तरा हाथ में लिए घूम रहे हैं. ध्यान बंटा व नाक कटी. अब तुम ही कहो, बहू, नाक की लड़ाई में भला कौन सुखी रहा है. अपनी नाक वही बचा पाता है, जो दूसरे की नाक का सम्मान करता है. तुम्हारी यही सोच तुम्हें अपनी महफिलों, पड़ोस, क्लब, परिवार में नाक वाली बनाए रखेगी, बहू.’’

लक्ष्मी को सासूमां का नाक प्रवचन व्यावहारिक लगा. प्रसन्न मुद्रा में लच्छो ने कहा, ‘‘मांजी, सच में आप लंबी नाक वाली हैं. आप का तो हक बनता है कि परिवार को नाक की लड़ाई से बचाएं,’’ कहते हुए लक्ष्मी ने वार्डरोब में से लेडीज रूमाल निकाल कर कहा, ‘‘सासूमां, लीजिए रूमाल और पोंछ डालिए अपनी नाक का गुस्सा.’’

मैं ने संतोष की सांस ली. मेरा घर नाक की लड़ाई होने से एक बार फिर बच गया. मगर ऐसा रहेगा कब तक?

Interesting Hindi Stories : किसका हिसाब सही था, औटो वाले या पुलिस का?

Interesting Hindi Stories : ‘आज फिर 10 बज गए,’ मेज साफ करतेकरते मेरी नजर घड़ी पर पड़ी. इतने में दरवाजे की घंटी बजी.

‘कौन आया होगा, इस समय. अब तो फ्रिज में सब्जी भी नहीं है. बची हुई सब्जी मैं ने जबरदस्ती खा कर खत्म की थी,’ कई बातें एकसाथ दिमाग में घूम गईं.

थकान से शरीर पहले ही टूट रहा था. जल्दी सोने की कोशिश करतेकरते भी 10 बज गए थे. धड़कते दिल से दरवाजा खोला, सामने दोनों हाथों में बड़ेबड़े बैग लिए चेतना खड़ी थी. आगे बढ़ कर उसे गले लगा लिया, सारी थकान जैसे गायब हो गई और पता नहीं कहां से इतना जोश आ गया कि पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे.

‘‘अकेली आई है क्या?’’ सामान अंदर रखते हुए उस से पूछा.

‘‘नहीं, मां भी हैं, औटो वाले को पैसे दे रही हैं.’’

मैं ने झांक कर देखा, वीना नीचे औटो वाले के पास खड़ी थी. वह मेरी बचपन की सहेली थी. चेतना उस की प्यारी सी बेटी है, जो उन दिनों अपनी मेहनत व लगन से मैडिकल की तृतीय वर्ष की छात्रा थी. मुझे वह बहुत प्यारी लगती है, एक तो वह थी ही बहुत अच्छी – रूप, गुण, स्वभाव सभी में अव्वल, दूसरे, मुझे लड़कियां कुछ ज्यादा ही अच्छी लगती हैं क्योंकि मेरी अपनी कोई बेटी नहीं. अपने और मां के संबंध जब याद करती हूं तो मन में कुछ कसक सी होती है. काश, मेरी भी कोई बेटी होती तो हम दोनों अपनी बातें एकदूसरे से कह सकतीं. इतना नजदीकी और प्यारभरा रिश्ता कोई हो ही नहीं सकता.

‘‘मां ने देर लगा दी, मैं देखती हूं,’’ कहती हुई चेतना दरवाजे की ओर बढ़ी.

‘‘रुक जा, मैं भी आई,’’ कहती हुई मैं चेतना के साथ सीढि़यां उतरने लगी.

नीचे उतरते ही औटो वाले की तेज आवाज सुनाई देने लगी.

मैं ने कदम जल्दीजल्दी बढ़ाए और औटो के पास जा कर कहा, ‘‘क्या बात है वीना, मैं खुले रुपए दूं?’’

‘‘अरे यार, देख, चलते समय इस ने कहा, दोगुने रुपए लूंगा, रात का समय है. मैं मान गई. अब 60 रुपए मीटर में आए हैं. मैं इसे 120 रुपए दे रही हूं. 10 रुपए अलग से ज्यादा दे दिए हैं, फिर भी मानता ही नहीं.’’

‘‘क्यों भई, क्या बात है?’’ मैं ने जरा गुस्से में कहा.

‘‘मेमसाहब, दोगुने पैसे दो, तभी लूंगा. 60 रुपए में 50 प्रतिशत मिलाइए, 90 रुपए हुए, अब इस का दोगुना, यानी कुल 180 रुपए हुए, लेकिन ये 120 रुपए दे रही हैं.’’

‘‘भैया, दोगुने की बात हुई थी, इतने क्यों दूं?’’

‘‘दोगुना ही तो मांग रहा हूं.’’

‘‘यह कैसा दोगुना है?’’

‘‘इतना ही बनता है,’’ औटो वाले की आवाज तेज होती जा रही थी. सो, कुछ लोग एकत्र हो गए. कुछ औटो वाले की बात ठीक बताते तो कुछ वीना की.

‘‘इतना लेना है तो लो, नहीं तो रहने दो,’’ मैं ने गुस्से से कहा.

‘‘इतना कैसे ले लूं, यह भी कोई हिसाब हुआ?’’

मैं ने मन ही मन हिसाब लगाया कि कहीं मैं गलत तो नहीं क्योंकि मेरा गणित जरा ऐसा ही है. फिर हिम्मत कर के कहा, ‘‘और क्या हिसाब हुआ?’’

‘‘कितनी बार समझा दिया, मैं 180 रुपए से एक पैसा भी कम नहीं लूंगा.’’

‘‘लेना है तो 130 रुपए लो, वरना पुलिस के हवाले कर दूंगी,’’ मैं ने तनिक ऊंचे स्वर में कहा.

‘‘हांहां, बुला लो पुलिस को, कौन डरता है? कुछ ज्यादा नहीं मांग रहा, जो हिसाब बनता है वही मांग रहा हूं,’’ औटो वाला जोरजोर से बोला.

इतने में पुलिस की मोटरसाइकिल वहां आ कर रुकी.

‘‘क्या हो रहा है?’’ सिपाही कड़क आवाज में बोला.

‘‘कुछ नहीं साहब, ये पैसे नहीं दे रहीं,’’ औटो वाला पहली बार धीमे स्वर में बोला.

‘‘कितने पैसे चाहिए?’’

‘‘दोगुने.’’

‘‘आप ने कितने रुपए दिए हैं?’’ इस बार हवलदार ने पूछा.

‘‘130 रुपए,’’ वीना ने कहा.

‘‘कहां हैं रुपए?’’ हवलदार कड़का तो औटो वाले ने मुट्ठी खोल दी.

सिपाही ने एक 50 रुपए का नोट उठाया और उसे एक भद्दी सी गाली दी, ‘‘साला, शरीफों को तंग करता है, भाग यहां से, नहीं तो अभी चालान करता हूं,’’ फिर हमारी तरफ देख कर बोला, ‘‘आप लोग जाइए, इसे मैं हिसाब समझाता हूं.’’

हम चंद कदम भी नहीं चल पाई थीं कि औटो के स्टार्ट होने की आवाज आई.

मैं हतप्रभ सोच रही थी कि किस का हिसाब सही था, वीना का, औटो वाले का या पुलिस वाले का?

Social Story : दुविधा – उसके पापा के बीमारी की क्या वजह थी?

Social Story : ‘‘पा  पा, मैं अभी शादी नहीं करना चाहती,’’ मेरा मन तिक्त था.

‘‘हर काम की उम्र होती है. समय से शादी कर लेना ही बेहतर होता है,’’ पापा ने सम?ाया.

‘जब से होश संभाला आप लोगों ने हमेशा समय की दुहाई दी. समय से यह करो समय से वह करो पर क्या वैसा हुआ जैसा आप लोगों ने चाहा?’’

‘‘प्रयास तो करता ही है आदमी.’’

‘‘मान लिया जाए कि मैं ने शादी कर ली. फिर क्या होगा?’’ मैं ने सवाल किया.

‘‘समय से बच्चे होंगे. उन्हें ढंग से पालपोष सकोगी,’’ मम्मी बोलीं.

‘‘नहीं हुए तब?’’

‘‘तुम बहुत कुतर्क करने लगी हो,’’ मम्मी नाराज हो गईं.

‘‘2 साल ही तो हुए हैं नौकरी करते हुए. अभी उम्र ही क्या है मेरी यही कोई 25 साल. कुछ साल और रुक जाने में हरज ही क्या है?’’

‘‘हरज है. हम अपनी जिम्मेदारी पूरी करना चाहते हैं,’’ मम्मी ने कहा.

‘‘आप की जिम्मेदारी के लिए मैं अपने कैरियर का गला घोट दूं?’’ मेरा स्वर तलख था.

‘‘कैरियर तो शादी के बाद भी चलता रहेगा,’’ पापा बोले.

‘‘तब सबकुछ इतना आसान नहीं होगा. मुझे पति, सासससुर की बंदिशों का सामना करते हुए काम करने जाना होगा. फिर क्या पता नौकरी को लेकर उन का कैसा रवैया हो?’’

‘‘छोड़ देना नौकरी. घरपरिवार संभालना,’’ मम्मी बोलीं.

‘‘मम्मी, आप अच्छी तरह जानती हैं कि मैं अपनी जिंदगी किचन में नहीं खपाना चाहती. मेरा मन खाना पकाने में बिलकुल नहीं लगता,’’ मेरा मुंह बन गया.

‘‘लड़की हो खाना तो बनाना ही होगा,’’ मम्मी ने खाना पर जोर दिया.

औफिस का समय हो रहा था. मैं अब और बहस में नहीं पड़ना चाहती थी. सो औफिस के लिए निकल पड़ी. औफिस में मेरा मन बेचैन रहा. मम्मीपापा की शादी की जिद ने मेरी सारी खुशियां छीन ली थीं. जब से होश संभाला पढ़ती ही रही. अब जब नौकरी कर के आर्थिक आजादी पाई तो मम्मीपापा ने शादी के बंधन में बांधने का मन बना लिया यानी एक स्त्री कभी आजाद नहीं रह सकती. उसे किसी न किसी पुरुष के बंधन में रहना ही होगा. जबकि मैं उस बंधन को तोड़ना चाहती थी. पुरुष का साथ चाहिए मगर बंध कर नहीं. फिलहाल अभी कुछ साल तो बिलकुल नहीं. बाद में मन का मिला तो शादी कर लूंगी.

‘‘क्या सोच रही हो?’’ आकाश ने मेरी तंद्रा तोड़ी. अकसर टिफिन के वक्त हम दोनों एकसाथ बैठ कर बातें करते.

‘‘मम्मी मेरी शादी के लिए पीछे पड़ी हैं, ‘‘मैं ने आकाश से कहा.

‘‘तो कर लो शादी,’’ निर्विकार भाव से आकाश बोला.

‘‘मैं कुछ साल और टालना चाहती हूं. अभी घरगृहस्थी के चक्कर में नहीं पडना चाहती,’’ मेरी त्योरियां भिंच गईं.

आकाश ने कोई जवाब नहीं दिया. शायद यह सोच कर कि यह मेरा निजी मामला है.

शाम औफिस से लौटी तो मेरा मन अशांत था. रहरह कर मम्मीपापा के शब्द कानों में गूंजते रहे. मांबाप बेटाबेटी में क्यों फर्क करते हैं. बेटे के लिए पूरा फलक वहीं बेटी के लिए आसमान एक छोटा सा टुकड़ा और वह भी बादलों से घिरा.

रोज शाम को किसी न किसी रिश्तेदारों से मां मेरी शादी का जिक्र करतीं, ‘‘कोई ढंग का लडका हो तो बताओ. इस साल शादी कर देनी है,’’ मां चिंतित होती.

‘‘इतनी भी क्या जल्दी है? ढंग का लड़का मिले तभी रिश्ता करना. घबरा कर गिरने की जरूरत नहीं है,’’ मौसी सम?ातीं.

पता नहीं क्यों मम्मी मेरी शादी के लिए इतनी उतावली थीं. अभी मैं 24 साल की थी. 30 के ऊपर के लड़के मिल रहे थे. 2-3 साल और रुक जाती तो क्या जाता?

एक दिन मैं ने मम्मी से साफसाफ कह दिया, ‘‘शादी अपने हिसाब से करूंगी.’’

‘‘तब तो हो चुकी शादी,’’ मम्मी ने कहा.

‘‘क्या कमी है जो लड़कों के सामने झुकूं. मैं उसी से शादी करूंगी जो मु?ो जंचेगा.’’

‘‘जंचने का पैमाना क्या है?’’ मम्मी की त्योरियां चढ़ गईं.

‘‘वह मुझ पर छोड़ दो.’’

मेरे कथन से मम्मी परेशान हो जातीं. उन्हें लगता शादी के मामले में मांबाप से बेहतर संतानें नहीं सोच सकतीं. किताबें पढ़ लेने से जमाने का तजरबा नहीं आ जाता. लिहाजा, यह फैसला मांबाप पर ही छोड़ देना चाहिए. मैं वर्तमान नौकरी से खुश नहीं थी सो दिल्ली में मुझे बेहतर औफर मिला तो वहीं जाने का मन बना लिया.

‘‘अकेले दिल्ली में कैसे रहोगी?’’ मां की चिंता स्वाभाविक थी.

‘‘मैं पीजी में रहूंगी.’’

‘‘यहां क्या दिक्कत है.? कौन सा तुम्हें जिंदगीभर नौकरी करनी है?’’ मां ने ऐतराज जताया.

‘‘इस छोटे से शहर में मुझे ग्रोथ नहीं मिल रही. वहां आगे बढ़ने का मौका है.’’

‘‘शादी के बाद जहां चाहे वहां रहती. अभी से भागदौड़ करने का क्या मतलब?’’

‘‘फिर शादी?’’

मैं चिढ़ गई, ‘‘मुझे किसी के बैशाखी की जरूरत नहीं. मैं अपने बलबूते पर आगे बढ़ सकती हूं,’’ मम्मी के लाख मना करने के बावजूद मैं ने दिल्ली का रुख कर लिया. किंचित पापा का भी मन हिचकिचा रहा था मगर मेरे दृढ़ संकल्प के आगे उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया.

दिल्ली आ कर मुझे बेहद सुकून महसूस हुआ. यहां न मांबाप की बंदिश न ही किसी की टोकाटाकी. अपनी जिंदगी चाहे जैसे जीओ. पीजी औफिस से थोड़ी दूरी पर था.

एक शाम मैं ने आकाश को फोन लगाया, ‘‘वहां क्या पडे़ हो? यहीं आ जाओ. मैं तुम्हारा भी बंदोबस्त करा दूंगी.’’

आकाश ने मेरे औफर को स्वीकार कर लिया. वैसे भी एक छोटे से शहर की छोटी सी कंपनी में ग्रोथ नामुमकिन था. मैं जिस कंपनी में थी वह काफी बड़ी थी. लोग ठीकठाक सैलरी पा रहे थे. नई दिल्ली की बात ही अलग थी. यहां की आधुनिकता और फैशन नें मु?ो गहरे तक प्रभावित किया. हर किसी की कोई न कोई गर्लफ्रैंड या बौयफ्रैंड था. कुछ लोग तो रिलेशनशिप में भी थे. गर्लफ्रैंड का कौनसैप्ट तो हमारे छोटे से शहर में भी आ गया था. मगर दिल्ली से अलग. इस विशाल शहर मैं न कोई देखने वाला न ही खुसुरफुसुर करने वाला. आजाद जिंदगी थी. मैट्रो हो या कोई बागबगीचा, रैस्टोरैंट हो या शहर  की लंबीचौड़ी सुनसान सड़कें हर तरफ कोई न कोई युवा बेखौफ अपनी गर्लफ्रैंड की कमर में हाथ डाले मुसकराते हुए चला जा रहा था. पहलेपहल आई तो मेरे नए सहकर्मियों ने पूछा कि क्या मेरा कोई बौयफ्रैंड है? मैं ने मुसकरा कर न किया तो उन्हें अचरज हुआ. उस समय मुझे आकाश की याद आई.

आकाश को मेरी कंपनी का औफर लैटर मिल गया. उस के आने से मुझे काफी राहत मिली. हम दोनों ने एक कमरा लिया और साथ रहने लगे. अकसर औफिस से घूमने निकल जाते फिर रात 10 के आसपास लौटते. करना ही क्या था. कपड़े बदले और सो गए. हम दोनों की चारपाई अलगअलग थी.

एक रात मैं अपने बिस्तर पर गहरी नींद में थी. तभी किसी के करीब होने का एहसास हुआ. मैं उनींदी आंखों से उठी तभी आकाश ने मुझे बल दे कर बिस्तर पर लिटा दिया.

‘‘आकाश, प्लीज मुझे छोडो,’’ खुद मैं ने छुड़ाने की असफल कोशिश की. मगर आकाश कब मानने वाला था. उस रात पहली बार मुझे अपराधबोध हुआ क्येंकि जो हुआ वह औचित्य की सीमा से बाहर का था. सुबह मैं ने आकाश को खूब खरीखोटी सुनाई.

‘‘लिव इन रिलेशन में यह सब आम बात है. तुम बिना वजह तूल दे रही हो?’’ आकाश ने मुझे समझना चाहा.

‘‘तुम ने ठीक नहीं किया,’’ मैं रोंआसी हो गई.

‘‘बड़े शहर में आ कर भी तुम ने छोटापन नहीं छोड़ा. जिसे तुम संजीदगी से ले रही हो वह समय की जरूरत है. चाहे तो अपनी महिला सहकर्मियों से पूछ सकती हो? शायद ही कोई अछूता हो?’’ आकाश ने खुद को सही साबित करने की भरसक कोशिश की.

‘‘मैं अपने पति को क्या मुंह दिखाऊंगी?’’

‘‘यह तो तुम्हें मेरे साथ रहने से पहले सोचना चाहिए था. मैं फिर कह रहा हूं 2 चीजें एकसाथ नहीं चल सकतीं. या तो रूढिवादी बने रहो या फिर आजादखयाल बन कर जिंदगी का लुत्फ उठाओ.’’

‘‘हम दोस्त हैं,’’ मैं ने कहा.

‘‘बंद कमरें में 2 जवान महिलापुरुष दोस्त नहीं हो सकते,’’ आकाश ने कहा.

‘‘इस हिसाब से भाईबहन भी नहीं रह सकते?’’ मैं ने तर्क दिया.

‘‘उन में खून का रिश्ता है. हमारेतुम्हारे बीच कौन सा रिश्ता है?’’

आकाश के तर्क में दम था. गलती मेरी थी. आकाश ने सही कहा. मुझे एक रास्ता चुनना होगा या तो रूढिवाद या फिर आजादखयाल. दोहरे मानदंड से काम नहीं चलेगा. दिल्ली आने का मेरा यही मकसद था. मैं पिटीपिटाई परिपाटी पर नहीं चलना चाहती थी.

‘‘फिर भी तुम मुझसे अलग रहना चाहती हो तो रह सकती हो,’’ कह कर आकाश ने यों पल्ला ?ाड़ लिया जैसे कुछ हुआ ही न हो.

एक कुंआरी लड़की के साथ जबरदस्ती की,

इस का उसे जरा भी क्षोभ नहीं था, जबकि मैं उसे मन ही मन चाहने लगी थी. मगर इस हद तक नहीं कि जो उस ने रात मेरे साथ किया.

‘‘आकाश, मैं तुम से प्रेम करने लगी हूं,’’ मैं भावुक थी.

‘‘क्या जरूरी है कि मैं भी करूं?’’ आकाश निर्विकार भाव  से बोला.

‘‘ऐसा मत कहो. मैं टूट जाऊंगी,’’ मैं अतिभावुक थी.

‘‘तुम्हारी आजादखयाली का क्या होगा? मेरे हिसाब से तुम अब भी पुरातन सोच से उबर नहीं पाई हो. बेहतर होगा वापस अपने शहर चली जाओ और शादी कर के घर बसा लो,’’ आकाश ने बिना लागलपेट के कहा, ‘‘अभी हम एकदूसरे को ठीक से जानते तक नहीं. शादी कैसे कर लें?’’

‘‘जानने के लिए बचा ही क्या है?’’

‘‘फिर वही रात का रोना ले कर बैठ गई. तुम सम?ाती क्यों नहीं कि जो हुआ वह आम है. कौन सा तुम्हारा अंगभंग हो गया. 2 युवा एकसाथ रहेगे तो ऐसा होना स्वाभाविक है.’’

‘‘तुम्हारे लिए हो सकता है, मगर मेरे लिए नहीं.’’

‘‘ऐसा था तो क्यों मुझे अपने पास बुलाया?’’ आकाश नाराज स्वर में बोला.

‘‘दोस्ती के कारण. तुम ने उस की मर्यादा तोड़ी.’’

‘‘मर्यादा मैं ने नहीं तुम ने तोड़ी. क्यों अपने साथ रहने दिया? मैं तुम्हारा क्या लगता हूं?’’

मेरे पास इस का कोई जवाब नहीं था. क्षणांश हम दोनों के बीच सन्नाटा छाया रहा.

आकाश बैड से उठा और अपने कपडे़ समेटने लगा.

‘‘मैं जा रहा हूं,’’ आकाश बैग में अपने कपड़े रखते हुए कहा.

‘‘कहां?’’ मैं ने सवाल किया.

‘‘तुम से अलग रहने.’’

‘‘तुम ऐसा नहीं करोगे,’’ कह मैं उस का रास्ता रोक खड़ी हो गई.

‘‘बच्चों जैसी हरकत मत करो,’’ आकाश

ने मुझे एक तरफ झटकते हुए बाहर का रुख कर लिया.

आकाश चला गया और मैं घुटनों में सिर छिपा कर फूटफूट कर रोने लगी. आज औफिस से छुट्टी ले ली. पूरा दिन आत्मविश्लेषण किया तो पाया कि आकाश ने ऐसा कुछ नहीं किया जिसे अमार्यादित कहा जाए. 2 युवा एक कमरे में होते हैं तो ऐसा होना स्वाभाविक है. मैं बिना वजह इसे तूल दे रही हूं. आज का जमाना बदल चुका है. बेशक मैं भी तो बदलाव की तरफ उन्मुख हूं. हां, अभी थोड़ी कसर थी जो आकाश ने पूरी कर दी. अब मैं ने आजादी का पूरा अर्थ सम?ा लिया था लिहाजा, आकाश बेकुसूर लगा मु?ो शाम होतेहोते सबकुछ साफ हो चुका था. अब मैं बिना वजह के अपराधबोध से मुक्ति पा ली थी. मन शांत हुआ तो आकाश को फोन लगाया.

‘‘वापस चले आओ. तुम ने कोई गुनाह नहीं किया है.’’

‘‘तुम मुझे ले कर कुछ ज्यादा ही संजीदा हो?’’

‘‘हूं तो गलत क्या है क्योंकि मैं तुम से मन ही मन प्रेम करने लगी हूं,’’ मैं खुश थी.

‘‘जरूरी नहीं कि वैसी ही फीलिंग मेरे दिल में भी हो. किसी का अच्छा लगना और प्रेम करने में फर्क होता है. तुम मुझे अच्छी लगती हो इस का मतलब यह नहीं कि मैं तुम से प्रेम करता हूं या फिर विवाह की सोच रहा हूं.’’

मैं समर्पण की स्थिति में थी. लिहाजा, उस ने जो कहा मैं मानती गई. पता नहीं क्यों आकाश के जाने के बाद मैं खालीपन महसूस कर रही थी, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए. उन्मुक्त जीवन जीने वाले किसी से बंधे नहीं रहते. ऐसा न होता तो मैं इस शहर में आती ही नहीं. मगर न जाने आकाश ने मु?ा पर क्या कर रखा था कि उस के बगैर सूनासूना सा लगने लगा.

‘‘तुम पिछली रात की घटना को भूलने के लिए तैयार हो न?’’ आकाश ने मु?ा से कबूलवा ही लिया.

जैसे ही आकाश कमरे में घुसा मैं उसे बांहों में कस कर बोली, ‘‘तुम मु?ा से शादी करो या न करो, मगर वादा करो कि यों छोड़ कर नहीं जाओगे.’’

‘‘मैं ने कब मना किया,’’ आकाश मुसकराया.

2 साल गुजर गए. मम्मीपापा कहते रहे, मगर मैं हर बार शादी टालती रही. एक रोज अचानक पापा बिना बताए मेरे फ्लैट पर आ गए. आकाश उस समय मेरे साथ चाय पी रहा था. सकपका गई.

‘‘यह कौन?’’ पापा ने त्योरियां चढ़ा कर पूछा.

‘‘आकाश, मेरे साथ बनारस में था.’’

‘‘यहीं रहता है?’’ मुझ से न कहते न बना.

‘‘पापा, हम लिव इन रिलेशन में हैं.’’

‘‘लिव तो सम?ा में आता है पर रिलेशन? कैसा संबध है तुम दोनों में?’’

‘‘दोस्ती का.’’

‘‘लडकी से क्यों नहीं दोस्ती की?’’

‘‘पापा, यहां लोग इस पर गौर नहीं करते कि कौन किस के साथ रहता है. कोई किसी के साथ रह सकता है.’’

‘‘लेकिन हम तो करते हैं.

बिना शादी किए रहना व्यभिचार कहलाता है?’’

‘‘शादी की इतनी जल्दी भी क्या है?’’

‘बेशर्मी को तुम ने दोस्ती का नाम दे रखा है. उस पर कह रही हो कि शादी की जल्दी क्या है,’’ पापा उखड़े, ‘‘बनारस जा कर क्या मुंह दिखाऊंगा लोगों को?’’

मेरी जिद और तेवर देख कर पापा उलटे पांव बनारस लौट गए. जातेजाते इतना कहते गए,’’ देखना, एक दिन पछताओगी.’’

2 दिन बाद मम्मी ने मुझे खूब खरीखोटी सुनाई. मैं ने फोन काट दिया. लिव इन रिलेशन की स्वच्छंदता मुझे भाने लगी थी. न कोई जिम्मेदारी न ही रिश्तों का मोह. कभी भी कोई  भी किसी को छोड़ कर जा सकता है. मैं ने भी आकाश को ले कर कोई भ्रम नहीं पाला. दोनों की इच्छा पर निर्भर करेगा कि कब शादी करें.

आहिस्ताआहिस्ता 5 साल गुजर गए. मैं 32 की हो गई. मम्मीपापा ने मेरी खबर लेनी छोड़ दी. मैं अपनी जिंदगी में खुश थी. कभीकभी लगता अगर आकाश ने मेरा साथ छोड़ दिया तब किस का दामन थामेगी.

1 हफ्ते की कह कर आकाश ने पूरे 15 दिन लगा दिए बनारस में. 15 दिन बाद आया तो बेहद खुश था. कहने लगा, ‘‘मैं ने शादी कर ली.’’

जानकर मुझे बड़ा आघात लगा.

‘‘मैं बोर हो चुका था इस जिंदगी से. पापा ने लड़की दिखाई तो न नहीं कर सका,’’ आकाश ने बेहद सहज भाव से कहा.

मुझ पर इस का क्या असर होगा, इस से वह बेखबर था जो स्वाभाविक था. वह मेरी चिंता क्यों करेगा? मैं उस की लगती भी क्या थी. महज एक दोस्त. आकाश ने मुझे ऐसी जगह ला कर छोड़ा कि मैं पीछे लौट भी न सकूं.

आज मैं सचमुच काफी दुखी थी. सब से ज्यादा दुखर आकाश का साथ छूटने का था. लिव इन रिलेशन में कोई बंधन होता तो नहीं. इस की लिए उस पर मेरा कोई अधिकार नहीं बनता. आकाश ने वही किया जो उसे उचित लगा. मगर मैं किस ओर जा रही हूं, यह सवाल मैं ने अपनेआप से पूछा. उन्मुक्त जीवन गुजारने के चक्कर में कहीं भटक तो नहीं गई? क्या मुझे फिर किसी और पार्टनर की तलाश करनी चाहिए? रात काफी देर तक मैं यही सोचती रही. एक पल बनारस लौटने का खयाल आया. पर किस मुंह से वापस जाऊं?  वहां क्या मिलेगा मुझे? वैसे भी मैं उन के लिए बेगानी हो चुकी हूं. मेरा आत्ममंथन जारी रहा. आजादी के चक्कर में मैं ने क्या खोया और क्या पाया?

बेशक विवाह एक बंधन है और मैं इसी बंधन से भागती रही. विवाह फिर बच्चे. क्या बच्चे पालना आसान है? मैं ने मम्मीपापा को गृहस्थ जीवन की चक्की में हमेशा पिसते देखा. दोनों हर वक्त हम बच्चों

के लिए परेशान रहते. अकसर मम्मीपापा में वैचारिक मतभेद के चलते तूतू, मैंमैं हो जाती.

इस के बावजूद उन्होंने न एकदूसरे का साथ

छोड़ा न ही हमारी परवरिश में कोई कसर छोड़ी. चट्टान की तरह खडे़ रहे. हम भाईबहनों के

लिए. हम पढ़लिख कर अपने पैरों पर खडे़ हो जाएं यही उन की ख्वाहिश थी. कितनी हसरत

थी पापा को मेरी शादी को ले कर. कहते थे कि तुम्हारे हाथ पीले कर दूं  उस के बाद निश्चिंत जिंदगी गुजारूंगा.’’ सोचतेसोचते मेरी आंखें भर आई.

लिव इन रिलेशन यानी स्त्रीपुरुष स्वच्छंदता का नया नारा. क्या इसे आकाश ने निभाया? जाहिर है वह सजग रहा. तभी तो विवाह कर के घर बसा लिया और मैं यह सोच कर बंधी थी कि यह रिश्ता बगैर विवाह के

मेशा चलता रहेगा. न चला तो एकदूसरे से अलग हो जाएंगे.

आकाश तो चला गया मगर मैं क्यों उस

के चले जाने से व्यथित हूं? वजह साफ है. मैं

उसे मन ही मन चाहने लगी थी परंतु वह नहीं चाहता था. यह तो उस ने पहले ही बता दिया था. अब क्या करूं? क्या नए रिश्ते की तलाश

में जुट जाऊं? नए रिश्ते की तलाश का मतलब खुद को वेश्या साबित करना. हां, यह सच है लिव इन रिलेशन वेश्यापन नहीं है तो क्या है एक महिला के लिए? कुछ साल किसी के साथ हमबिस्तर रही तो कुछ साल किसी दूसरे के साथ. फिर एक दिन बूढ़ी हो गई तो मक्खी भी भिनभिनाने नहीं आएगी दरवाजे पर. पुरुषों का क्या वे तो कभी भी किसी के साथ शादी कर के घर बसा लेंगे और मैं आजादी के नाम पर रोज नए संबंध की तलाश करती रहूंगी. क्या यही मेरी नियति होगी?’’

मैं एकाएक फट पड़ी नहीं,’’ मैं ऐसा

नहीं होने दूंगी. फिर क्या रास्ता बचा है मेरे पास? खुदकुशी?

आज मुझे मम्मीपापा की बेहद याद आ रही थी. उस रोज पापा के साथ जिस

बेरुखी से पेश आई जाहिर है वह नश्तर की तरह चुभा होगा. उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उन की लाडली बेटी एक गैर लड़के के लिए उन्हें पहचानने से इनकार कर देगी.

तभी मोबाइल की घंटी बजी. देखा मम्मी का था. मैं ने लपक कर उठाया. हताश क्षणों में यह किसी मरहम से कम नहीं था.

‘‘पापा की तबीयत ठीक नहीं हैं. वे तुम्हें देखना चाहते हैं?’’

यह मेरे लिए बरदाश्त से बाहर था. फफक कर रो पड़ी, ‘‘क्या हुआ पापा को? मैं आ रही हूं,’’ मैं ने तत्काल फ्लाइट बुक कराई और बनारस पहुंच गई. पापा अस्पताल में थे. काफी कमजोर हो गए थे. कितने हैंडसम थे मेरे पापा और आज कैसे हो गए? यकीनन उन्हें मेरी चिंता खा गई. मैं अपराधबोध से घिर गई.

उन्हें देख कर मेरी रुलाई फूट पड़ी, ‘‘पापा, मुझे माफ कर दीजिए. मैं आप के दिए संस्कारों से भटक गई थी.’’

‘‘एक वादा करो,’’ अस्फुट शब्दों में बोले.

‘‘क्या?’’

‘‘शादी कर लो.’’

‘‘जो मुझे संपत्ति नहीं पार्टनर समझे.’’

‘‘ऐसा ही है समीर. चाहो तो मिल सकती हो,’’ पापा बोले.

‘‘मुझे आप पर भरोसा है. बस आप ठीक हो जाएं,’’ पापा की आंखों में आई खुशी की चमक ने मेरी सारी दुविधा खत्म कर दी.

Story In Hindi : मेरी परी – आखिर उस लिफाफे का क्या राज था

Story In Hindi : अपनी नवजात बिटिया को अस्पताल के प्राइवेट रूम में जन्म के बाद पहली बार देख कालिंदी का गला भर्रा आया और आंखें समंदर हो उठीं.

‘‘इतनी गोरी… बिलकुल परी सी. नाक तीखी… होंठ एकदम सुर्ख, शेपली और पतले, आंखें सीपीनुमा और बड़ीबड़ी… यह तो जादू ही हो गया. कौन कहेगा यह मेरी बेटी है?’’

 

तभी कालिंदी की नजर बिटिया के हाथों पर गई. नन्हेनन्हे हाथ… उंगलियां पतलीपतली जैसे तराशी गई हों. फिर उस ने उस के पैरों की ओर देखा. वे भी बेहद सुंदर. नन्हींनन्हीं पतली उंगलियां.

कालिंदी मंत्र मुग्ध सी भाव विभोर अपनी बिटिया को निहार ही रही थी कि उस के पति सोमेश उस के रूम में आ गए.

नन्ही बिटिया पर नजर पड़ते ही खुश हो उठे. उन्होंने बिटिया को नजर भर कर देखा. उन के होंठों पर एक मीठी सी मुसकराहट फैल गई.

सोमेश खुशी से चिल्लाए, ‘‘यह मेरी बेटी है? इतनी प्यारी… इतनी सुंदर…’’ कह उस के नन्हे हाथ को सहलाया और फिर उसे गोद में ले कर टुकुरटुकुर देखने लगे.

कालिंदी सोमेश को स्निग्ध नजरों से देखती रही. तभी कुछ देर बाद कालिंदी का जिगरी मित्र अविनिश वहां आ कर बिटिया के पालने में झांकने लगा. बिटिया को देख वह चिल्लाया, ‘‘वाऊ कालिंदी, तूने तो कमाल कर दिया. तेरी बेटी इतनी सुंदर…’’ फिर बिटिया को गोद में ले उस के चेहरे को अपने चेहरे से सटाते हुए शैतानी भरे स्वरों में चिल्लाया, ‘‘सोमेश यार… यह तेरी बेटी तो कहीं से नहीं लगती. न ही तेरी कालिंदी की…यह तो पूरी

की पूरी मेरी बिटिया लगती है. देख जरा, यह तो मेरी बिटिया है. बिलकुल मेरा रंग… मेरी जैसी गुड लुकिंग. अपने अविनिश मामा की बिट्टो है यह तो.’’

अविनिश भोलेपन में कहता जा रहा था लेकिन उस की बातें सोमेश के कानों में पिघले शीशे की मानिंद पड़ीं.

अविनिश के अल्फाज सुन कालिंदी चिंहुक उठी, ‘‘यह क्या कह रहा है यह अविनिश? जो मुंह में आए बोल देता है,’’ लेकिन जो नुकसान होना था वह हो चुका था.

सोमेश ने एक बार अविनिश के चेहरे की ओर देखा, फिर बिटिया के फेस की ओर देखा.  उस एक क्षण में सोमेश की दुनिया उलटउलट हो गई.

अविनिश की भोलेपन में कही हुई बात का अर्थ जैसेजैसे उन के मन में गहरा उतर रहा था, उन के चेहरा का नूर फीका होने लगा, आंखों की चमक बुझ गई.

उस दिन के बाद से सोमेश जब भी नन्ही बिटिया जिसे रूप पुकारने लगे थे को देखते, अविनिश की कही गई बात उन के कानों में गूंजने लगती और वे अथाह पीड़ा से तड़प उठते. वे सोचतेसोचते न थकते कि उन जैसे डार्क रंग और सपाट फीचर्स वालों के यहां रूप जैसी खूबसूरत बेटी कैसे पैदा हो गई?

जबजब रूप को देखते, उन के मन में मंथन चलता, क्या वाकई में रूप अविनिश की बेटी है? क्या अविनिश और कालिंदी के बीच अवैध संबंध हैं?

दोनों अविनिश और कालिंदी साथसाथ पलेबढ़े थे. सो दोनों में दांत काटी दोस्ती थी.

कालिंदी के विवाह के मात्र 3 साल बाद अविनिश की पोस्टिंग कालिंदी के शहर में हो गई थी और कालिंदी ने ही उसे अपने घर के पास एक किराए का मकान दिला दिया था.

भोली कालिंदी ने सपने में भी यह नहीं सोचा था कि आज के तथाकथित मौडर्न युग में भी औरत और मर्द की खालिस रूहानी दोस्ती को दुनिया बरदाश्त नहीं कर पाती.

सोमेश और कालिंदी दोनों ही सपाट नैननक्श के गहरे सांवले वर्ण के युवकयुवती थे.  वे जयपुर में रहते थे. सो विवाह के बाद कालिंदी सोमेश के घर जयपुर आ गई.

3 वर्षों तक दोनों का विवाहित जीवन ठीकठाक चला. दोनों ही एकदूसरे के प्रति पूरी तरह से समर्पित थे. जिंदगी एक नियत ढर्रे पर चल रही थी.

कालिंदी की शादी के 3 वर्ष बाद अविनिश का तबादला जयपुर हो गया.

संयोगवश कालिंदी के घर के ठीक सामने वाले घर पर उस वक्त ‘टू लैट’ का बोर्ड लगा था. सो कालिंदी ने उस के बारे में अविनिश को बताया और उस मकान के मालिक के सोमेश के पुराने परिचित होने की वजह से अविनिश को कुंआरे होने के बावजूद वह मकान बहुत आसानी से मिल गया.

अविनिश के कालिंदी के पड़ोस में आने के बाद उन सब का समय साथसाथ बहुत अच्छा बीतता. कालिंदी जब भी कुछ स्पैशल बनाती, अविनिश को बुला भेजती. अविनिश और

सोमेश में भी ठीकठाक दोस्ती हो गई थी. सोमेश स्वयं भी खासा खुले विचारों के उच्च शिक्षित युवक थे. उन्होंने कभी कालिंदी और अविनिश की दोस्ती को किसी भी तरह के गलत ऐंगल से नहीं देखा. लेकिन कहते हैं न, इंसान गलतियों का पुतला है.

बिटिया रूप के जन्म के फौरन बाद उस की अपरिमित रूपराशि को देख किए गए अविनिश के कमैंट की वजह से शक का सांप सोमेश के सीने पर कुंडली मार कर बैठ गया.

अविनिश एक गौर वर्ण का तीखे नैननक्श का सुदर्शन युवक था. जबजब सोमेश रूप को देखते, अनजाने ही अविनिश का चेहरा उन की आंखों के सामने आ जाता और उस का और कालिंदी के बीच अवैध संबंध के शक का खंजर उन के हृदय को लहूलुहान कर देता.

इस कारण सोमेश धीरेधीरे कालिंदी से विमुख हो शक के अभेद्य मकड़जाल में जकड़ते जा रहे थे.

उधर कालिंदी सोमेश की मनोस्थिति समझ नहीं पा रही थी. उसे स्पष्टता से यह समझ नहीं आ रहा था कि अविनिश के भोलेपन से किए गए कमैंट को सोमश सच मान लेगा.

वह और सोमेश बैंक में प्रोबेशनरीऔफिसर थे. बैंक से उसे 6 माह की मैटरनिटी लीव मिली थी.

पिछले कुछ बरसों से बैंक की नौकरी की आपाधापी और भागमभाग में वह जिंदगी को पूरी तसल्ली से जीना जैसे भूल गई थी. मातृत्व अवकाश के 6 माह ने जिंदगी को फिर से जैसे बेफिक्री और तसल्ली के ट्रैक पर चला दिया था. नन्ही बिटिया को कलेजे से लगा उसे अवर्चनीय खुशी की अनुभूति होती. वह उस का भोला, मासूम चेहरा देख फिर से अपना बिंदास, मुक्त बचपन जीने लगी थी. वह जब किलकारी मारती, उसे लगता वह उन क्षणों को अपनी मुट्ठी में भर ले.

बिटिया जैसेजैसे बड़ी हो रही थी, उस का मुसकराता चेहरा उस में खुशी की हिलोरें पैदा कर देता. वह अपने इन आनंदी पलों को पति सोमेश से साझा करना चाहती थी लेकिन सोमेश के पास तसल्ली से उस के नजदीक बैठने का समय न होता.

उस ने सोचा था, संतान के जन्म के बाद मातृत्व अवकाश के दौरान वो दोनों 6 बरसों के विवाहित जीवन और पिछले कुछ बरसों की मुश्किल नौकरी की कठिन चुनौतियों के तनाव से नजात पाएंगे. अपने रिश्ते को एक नया पौजिटिव मोड़ देंगे लेकिन उस की आशा के विपरीत बेटी के जन्म के बाद सोमेश में उस का सोचा हुआ बदलाव किसी ऐंगल से नहीं आया.

बेटी के जन्म वाले दिन पर अविनिश का बिटिया के रंगरूप पर किए गए उस के कमैंट ने उस के अंत:कारण में शक का बीज बो दिया जो समय के साथ वट वृक्ष बनता जा रहा था. इस के चलते वे पहले से ज्यादा मूडी और चिढ़चिढे़ हो गए थे.

सुबह 9 बजे के घर से निकलेनिकले जब रात के 8 बजे घर लौटते, उन्हें न कालिंदी दिखती न बेटी. कालिंदी कितनी ही बार उन्हें नन्ही रूप की दिनभर की बातें सुनाना चाहती लेकिन सोमेश उस में कोई रुचि न लेते. वह उन्हें अपना दिनभर का रूटीन सुनाना चाहती. अपने पड़ोसियों, परिचितों और रिश्तेदारों के बिटिया की अपूर्व खूबसूरती पर कमैंट्स शेयर करना चाहती लेकिन वे उन में कोई रुचि न लेते. बस बड़ा सा मुंह बनाए और मुंह में दही जमाए जल्दीजल्दी खाना गले से नीचे उतारते और सीधे बैडरूम में घुस जाते.

कुछ दिनों से सोमेश का यह रूखापन और उदासीनता कालिंदी को खाए जा रही थी. बेटी होने से पहले हर छुट्टी के दिन उन में संबंध बन जाते थे लेकिन इस बार रूप के आने के बाद

पूरे 5 माह होने आए थे, उन्होंने उसे छूआ तक नहीं था. वह सम?ा नहीं पा रही थी, ऐसा क्यों हो रहा है.

सोमेश का कालिंदी के प्रति ठंडापन उस के कलेजे को मथनी की तरह मथ रहा था. वह सोचने में असमर्थ थी, सोमेश के इस रवैए के पीछे क्या था? न तो सोमेश उस में रुचि लेते न ही नन्ही रूप में. बस काम की बात उस से करते.

उस दिन शनिवार था. बैंक की छुट्टी थी. कालिंदी का मातृत्व अवकाश खत्म होने वाला था. उसे मंडे से बैंक की ड्यूटी जौइन करनी थी.

रात की कालिमा गहराती जा रही थी. डिनर के बाद सोमेश अपने बैडरूम में अपनी

स्टडीटेबल पर बैठे हुए लैपटौप पर खटपट कर हे थे.

तभी कालिंदी उन से बोली, ‘‘सोमेश… आजकल तुम मुझ से बिलकुल बात नहीं करते. बहुत बोर करते हो यार. कुछ तो बात किया करो. पता नहीं कहां मगन रहते हो,’’ फिर अपने हाथपैरों पर कोल्ड क्रीम लगातेलगाते वह बुदबुदाई, ‘‘सोमेश… अपनी बिटिया बेहद खूबसूरत है न. बिलकुल अपनी नानी पर गई है? तुम ने तो मां को देखा नहीं. वे वास्तव में ब्यूटी थीं.’’

कालिंदी की बात सुन कर सोमेश तुरंत उठ बैठे, ‘‘क्या, सच कह रही हो? रूप तुम्हारी मां पर

गई है? तुम्हारे पास मां का कोई फोटो है?’’

‘‘हां… होगा. कल दिखाऊंगी तुम्हें.’’

‘‘नहीं… मुझे अभी दिखाओ.’’

‘‘उफ सोमेश… कल सुबह ही दिखा दूंगी. अभी सो जाते हैं.’’

‘‘मैं ने कहा न, मुझे तुम्हारी मां का फोटो अभी देखना है.’’

‘‘उफ, तुम भी न बहुत जिद करते हो,’’ कालिंदी ने तनिक इरिटेट होते हुए अलमारी के ऊपर रखे एक लकड़ी के डब्बे से मां के फोटो की अलबम निकाल कर उसे दिखाई. फिर उस से बोली, ‘‘तुम्हें तो पता है, मैं घर की तीसरी संतान हूं और मैं मां को किसी हालत में नहीं चाहिए थीं क्योंकि जैंडर टैस्ट में मैं बेटी निकली थी. सो उन्होंने अपना गर्भ गिराने के लिए किसी मिडवाइफ से ली गई कोई जड़ीबूटी खाई लेकिन मु?ो तो इस दुनिया में आना था. सो मां का अबौर्शन नहीं हुआ लेकिन जड़ीबूटी के असर से मेरा रंग इतना काला हो गया.’’

कालिंदी की मां का फोटो देख सोमेश को लगा मानो उन के ऊपर से मनों बो?ा उतर गया हो. उन्हें वास्तव में नहीं पता था, कालिंदी की मां इतनी खूबसूरत होंगी नहीं तो रूप के आने के बाद से अविनिश के एक कमैंट को ले कर वे शक की आग में अंगारा हो रहे थे. उन का दिन का चैन और रातों की नींद हवा हो गई थी. उन्हें लगता, कालिंदी उन के साथ बेवफाई कर बैठी.

कालिंदी के अपनी खूबसूरत मां के फोटो दिखाने के बाद से अविनिश और उस को ले कर सोमेश के मन में उगे संदेह के कांटे की चुभन बहुत हद तक कम हुई थी.

उस दिन देर रात रूप के जन्म के बाद पहली बार कालिंदी और सोमेश अंतरंग हुए. प्रणय रस के मेह में आकंठ तर कालिंदी के सारे शिकवेशिकायत बह गए.

कुछ दिनों तक सोमेश सामान्य और खुश रहे. कालिंदी के साथ पहले की तरह उन की नजदीकियां बढ़ीं. वे रूप से भी प्यार जताने लगे लेकिन पिछले संडे कुछ ऐसा हुआ कि शक का जहर पूरी शिद्दत से उन की नसों में एक बार फिर घुल गया.

पिछले रविवार सोमेश किसी काम से घर के बाहर गए थे और जब लौटे तो उन्होंने देखा कि अविनिश रूप को अपनी छाती से लगाए उसे बेहद दुलार से चूम रहा था और बुदबुदा रहा था, ‘‘मेरी बिट्टो… मेरी बिट्टो.’’

न जाने क्या हुआ, एक झटके से अचानक सबकुछ टूट गया और सोमेश की तर्क क्षमता को धता बताते हुए संदेह के नाग ने उन्हें  फिर से डस लिया.

संदेह और भरोसे की दुविधा में जकड़े हुए पूरे दिन वे अनमने से अपनेआप में खोएखोए रहे. इस सब से अनजान कालिंदी का व्यवहार उन के साथ सामान्य ही था.

वक्त के साथ सोमेश का अनमनापन बढ़ता ही जा रहा था. कालिंदी को बहुधा उस का ठंडापन चुभता लेकिन सोच नहीं पा रही थी वह उसे कैसे हैंडल करे?

उस दिन उस ने रोजाना से जल्दी काम निबटा लिया और रूप को फीडिंग करा कर सुला दिया. फिर शावर ले कर एक बेहद खूबसूरत नाइटी पहन कर अपने बैड पर लेट गई. सोमेश अपनी स्टडीटेबल पर कुछ काम कर रहे थे.

सोमेश के आने तक कालिंदी करवटें बदल रही थी. मन में हसरतों का ज्वार उमड़ रहा था. वह  बड़ी बेसब्री से सोमेश का इंतजार कर रही थी.

सोमेश आए और रूखी आवाज में, ‘‘रूप को सुला दिया?’’ पूछ कर दूसरी ओर करवट ले कर लेट गए.

कालिंदी ने सोमेश के कंधे पर हाथ रखते हुए उन का चेहरा अपनी ओर करने का प्रयास किया लेकिन उन्होंने खासी बेरुखी से उस के

हाथ झटक कर उस से कहा, ‘‘नींद आ रही है. सोने दो.’’

सोमेश के इस कालिंदी से मुंह फेर लेने से उस का दिल टूट गया. कुछ सोच कर उस ने

बेहद मृदु स्वरों में उस से पूछा, ‘‘सोमेश, मुझसे नाराज हो? कुछ दिनों से मैं देख रही हूं तुम मुझसे उखड़ेउखड़े रहने लगे हो. क्या बात है जान, मुझे बताओ तो सही. बैंक में कुछ टैंशन चल रही है?’’ कहते हुए उस ने जबरन उसे अपनी बांहों में कस कर बांध उस के माथे पर अपने होंठ रख दिए.

सोमेश शायद उस की नजदीकी की तपिश से कुछ पिघले और इस बार उन की बांहों का घेरा भी उस के इर्दगिर्द कस गया.

महीनों से तृषित जीवनसंगिनी को पति की अंतरंग करीबी मिली लेकिन उसे न जाने क्यों पूर्णता का अनुभव न हुआ. उसे लगा, सोमेश ने यांत्रिक खानापूर्ति की. उस के लहजे में वह गरमाहट नहीं थी जिस की उसे अपेक्षा थी, वह उष्णता नहीं थी जिस की उसे चाहत थी.

कुछ ही देर में सोमेश खर्राटे लेने लगा. लेकिन आज नींद शायद कालिंदी की आंखों का रास्ता भूल बैठी थी. उसे पति का यह रूखापन समझ नहीं आ रहा था. वह सोच रही थी, कुछ तो है जो उन दोनों के बीच दीवार बन कर आ गया है.

उस ने लाख सोचने की कोशिश की, इस की क्या वजह हो सकती है लेकिन वह किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाई और आखिरकार थकहार कर क्लांत मन वह नींद के आगोश में समा गई.

जिंदगी निश्चित ढर्रे पर चल रही थी. बैंक, घरगृहस्थी और नन्ही रूप की जिम्मेदारियों से बंधे कालिंदी के दिन बीतने लगे.

उधर सोमेश एक अजब सी कशमकश से घिरे हुए थे. जबजब रूप का खिलाखिला मासूम चेहरा देखते, उन के मन में उस के लिए प्यार उमड़ता लेकिन अगले ही पल उस पर अपना प्यारदुलार बरसाते अविनिश की छवि उन की आंखों के सामने आ धमकती और वे उस से विमुख हो जाते.

संदेह का कीड़ा उन्हें खाए जा रहा था जिस से वे अनवरत घोर संताप से ग्रस्त रहते. शक की आंच से अबोध रूप के प्रति उन के प्यार का सोता सूखता जा रहा था. वे बस दुनिया क्या कहेगी, इस डर के मारे रूप को बाहर वालों के सामने गोद में लेते, उस से दुलार करते. कालिंदी के सामने भी भरसक यह दिखावा करते लेकिन मन ही मन उसे अविनिश की संतान समझ उस से दूरदूर रहते.

उस दिन सोमेश बाजार में कुछ दोस्तों के साथ थे और उन्होंने अपनेअपने बच्चों के लिए कुछ खिलौने खरीदे. मित्रों का लिहाज कर उन्होंने भी रूप के लिए कुछ खिलौने खरीदे.

घर पहुंच उन्होंने रूप को खिलौने देने के लिए पुकारा और उन के पुकारते ही अविनिश ने खुले दरवाजे से घर में कुछ खिलौनों के पैकेट्स थामे प्रवेश किया.

अविनिश का उन के घर गाहेबगाहे आनाजाना निरंतर जारी था. भावुक स्वभाव के अविनिश को छोटे बच्चे बेहद पसंद थे. बचपन की प्रिय सखी की बेटी में उस के प्राण बसते. सो  वह आए दिन रूप के लिए महंगे खिलौने, कपड़े, कैंडी और चौकलेट ले आता.उस दिन भी अविनिश रूप के लिए एक रिमोट से चलने वाला हैलिकौप्टर लाया

था जिसे देख कर रूप दौड़ कर पिता के पुकारने के बावजूद अविनिश की गोद में चमकती आंखों के साथ चल गई और अविनिश ने उसे हंसते हुए बांहों में भींच उस पर चुंबनों की बौछार कर दी. पलट कर रूप भी उसे चूमने लगी.

सोमेश ठगे से अपने हाथ में थमा खिलौना देखते रह गए. रूप के उस के बजाय अवनीश  की गोद में चढ़ना उन्हें विचलित कर गया और वे अपना सा मुंह ले कर खिन्न मन और बु?ो हुए चेहरे के साथ खिलौने का पैकेट सोफे पर पटक अविनिश, रूप और कालिंदी को कमरे में हंसता हुआ छोड़ भीतर चले गए.

उस दिन वे अपने शक को ले कर बेहद असहज हो गए. रूप को अपनी बांहों में बांध उसे कस कर चूमते हुए अविनिश की छवि मानो उन के जेहन में फ्रीज हो गई.

उन की वह शाम घोर मानसिक उथलपुथल में बीती. उस पूरी रात नींद उन से रूठी रही और वे करवटें बदलते रहे.

सोमेश के इर्दगिर्द शक का मकड़जाल शिद्दत से कस गया था, इतना कि उन्हें अपना जी घुटता हुआ सा प्रतीत हुआ.

‘‘क्या रूप वाकई में अविनिश की संतान है. क्या कालिंदी उस की पीठ पीछे अविनिश के साथ रंगरलियां मनाती है? क्या वह उन्हें धोखा दे रही है?’’

सोमेश का लौजीकल मन कहता, नहीं, कालिंदी सीधीसच्ची है लेकिन दूसरी ओर अविनिश का रूप को शिद्दत से प्यार करना उन के दिल को संशय से भर देता.

रात का 1 बजने को आया. सोमेश के पार्श्व में कालिंदी गहरी नींद में सो रही थी. उसे सोमेश की विकल मनोस्थिति का कुछकुछ अंदाजा था लेकिन वह सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि सोमेश ने उस की और अविनिश की दोस्ती को शक के कठघरे में खड़ा किया हुआ है.

वह पूरी रात सोमेश ने घोर मानसिक यंत्रणा में काटी. उस रात बिस्तर पर लंबी सांस लेते, करवटें बदलते उन्होंने निर्णय लिया कि अपने मैंटल टौर्चर से नजात पाने के लिए वे रूप का डीएनए टैस्ट कराएंगे. केवल इसी से उन्हें अपनी मानसिक पीड़ा से मुक्ति मिलेगी.

अगले ही दिन सोमेश औफिस के रास्ते में पड़ते रूप के प्ले स्कूल से उसे लैब ले गए और वहां उन्होंने उस का टैस्ट कराया.

रिपोर्ट 1 सप्ताह बाद मिलनी थी. वह  1 हफ्ता सोमेश जैसे अंगारों पर सोए. उन्हें भय सता रहा था, अगर रिपोर्ट उन के पक्ष में नहीं हुई तो क्या होगा?

जैसेजैसे सोमेश लैब की ओर कदम बढ़ा रहे थे, उन की नसों में खून के बहाव की रफ्तार बढ़ती जा रही थी. उन्हें लग रहा था मानो वह टेस्ट रिपोर्ट नहीं, अपनी जिंदगी के इम्तिहान की रिपोर्ट लेने जा रहे हैं, जिस के ऊपर उन की पूरी जिंदगी का दारोमदार है.

लैब में रिसैप्शन के काउंटर पर सोमेश ने अपना विकलता से कांपता हाथ रिपोर्ट लेने को आगे बढ़ाया. काउंटर पर बैठी महिला ने उन्हें लिफाफे में बंद रिपोर्ट थमाई.

लिफाफा खोल कर उस में से रिपोर्ट निकालते वक्त सामेश को लगा कि विकट बेचैनी से धुकधुक करता उन का कलेजा बाहर आ जाएगा.

सोमेश झपट कर रिपोर्ट को पढ़ा. रिपोर्ट उन के पक्ष में पौजिटिव थी. रिपोर्ट पढ़ते ही उन्हें एहसास होने लगा जैसे उन्हें पंख लग गए और वे  हवा में उड़ने लगे. उन का मन किया वे सारी दुनिया को चिल्लाचिल्ला कर बताएं कि मेरी परी मेरी और फिर मन ही मन खिलखिला पड़े.

Social Story : बेडि़यां – क्या आजाद जिंदगी जीना उसके लिए आसान था?

Social Story : ‘‘मम्मा, 1 कप ब्लैक कौफी.,’’ अपने कमरे से ही 23 साल की श्लोका चिल्लाई.

‘‘मुझे भी कौफी पर दूध वाली चाहिए.’’ उधर से अपने कमरे से 20 साल का अंश बोला.

‘‘अब मुझे भी और 1 कप चाय पिला ही दो फिर नहाने जाऊंगा,’’ अखबार मोड़ कर एक तरफ रखते हुए समीर बोले और मोबाइल उठा कर चलाने लगे.

मैं हांफती हुई समीर को चाय दे कर बेटे अंश के कमरे में कौफी ले कर पहुंची तो पता नहीं वह फोन पर किस से बातें कर रहा था कि उसे बड़ी हंसी आ रही थी. इशारे से उस ने मुझे कौफी टेबल पर रखने को कहा. जब मैं श्लोका के कमरे में उस के लिए ब्लैक कौफी ले कर पहुंची तो वह लैपटौप पर आंखें गड़ाए कुछ देख रही थी.

‘‘यह क्या देख रही हो?’’ टेबल पर कौफी का मग रखते हुए मैं ने पूछा तो श्लोका यह कह कर कौफी का मग उठा कर चुसकी भरने लगी कि आप नहीं सम?ोंगी.

‘‘क्यों नहीं समझोगी, बताओ तो जरा?’’

‘‘मम्मा, यह सोलो ट्रिप है, जहां हम अकेले कहीं भी घूमने जा सकते हैं,’’ लैपटौप पर आंखें गड़ाए, उंगलियों को कीबोर्ड पर थिरकाते हुए श्लोका बोली.

‘‘पता है मुझे ‘सोलो ट्रिप’ का मतलब. लेकिन क्या तुम अकेले घूमने जाने का प्रोग्राम बना रही हो?’’ मैं ने बिस्तर पर फैले कंबल को समेटते हुए पूछा.

‘‘हां, इस बार मैं अकेले घूमने जाना चाहती हूं. मेरे कितने सारे दोस्त सोलो ट्रिप पर जा चुके हैं. उन्होंने ही कहा कि मुझे भी सोलो ट्रिप पर जाना चाहिए, बहुत मजा आएगा तो मैं ने भी जाने का मन बना लिया. वाह कितना मजा आएगा न.’’

पहाड़ों पर घूमना श्लोका को बहुत पसंद है इसलिए उस ने सिक्किम जाने का प्रोग्राम बनाया था. लेकिन मुझे चिंता इस बात की हो रही थी कि लड़की जात अकेले घूमने जाएगी, कुछ होहवा गया तो क्या करेंगे हम? लेकिन इस बारे में समीर से बोलने का कोई फायदा नहीं क्योंकि वे तो बच्चों का ही साथ देंगे. उलटा मुझे ही नसीहत देंगे कि पुरानी सोच से बाहर निकलो तूलिका. दुनिया कहां की कहां पहुंच गई है और तुम आज  भी ‘ढाक के तीन पात’ बनी घूम रही हो.

‘‘अरे, क्या करने लग गई वहां. औफिस जाना है मुझे, देखो जरा मेरे कपड़े प्रैस हैं या नहीं,’’ समीर ने आवाज लगाई तो मेरी मुंह की बात मुंह में ही रह गई.

मैं श्लोका से कहना चाहती थी कि उस के साथ कोई दोस्त होता तो अच्छा रहता क्योंकि ‘एक से भले दो.’ समीर भी न अजीब इंसान है. छोटीछोटी बातों को भी ऐसे चिल्ला कर बोलेगा जैसे बहुत बड़ा तूफान आ गया हो.

‘‘कुछ चाहिए तुम्हें? मैं ने पूछा तो घूर कर समीर ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा. फिर बोले, ‘‘हां, डांस करने बुला रहा हूं. अरे भई, मेरे कपड़े प्रैस हुए या नहीं यही पूछ रहा हूं.’’

‘‘वे तो सुबह ही हो गए थे.’’

‘किस तरह से बात करता है यह इंसान कि डांस करने बुला रहा हूं. सुबह से शाम तक इन लोगों की चाकरी करना, डांस नहीं तो और क्या है,’ मन ही मन भुनभुनाते हुए मैं जूठे कप उठ कर किचन में चली गई. खुद तो जब देखो मोबाइल पर लगे रहते हैं और मु?ा पर और्डर झड़ते रहते हैं कि चाय लाओ, कपड़े प्रैस क्यों नहीं हुए. जैसे मैं उन की नौकर हूं. पता नहीं क्या देखते रहते हैं मोबाइल में कि हंसी रुकती ही नहीं है. बैठेबैठे बेमतलब का मोबाइल चला सकते हैं लेकिन अपने कपड़े प्रैस नहीं कर सकते. वह भी मेरी ही ड्यूटी है. इन लाट साहब को तो धोबी के प्रैस किए हुए कपड़े भी नहीं पसंद. इन्हें तो रोज के रोज प्रैस किए कपड़े चाहिए, एकदम गरमगरम कपड़े पर जरा भी सिलवट दिख जाए तो यह कह कर कपड़े घुमा कर फेंक देते हैं कि मुझ से एक भी काम ढंग से नहीं होता. तो खुद ही कर लो न ढंग का काम. मुझसे क्यों कहते हो. लेकिन यह भी नहीं कह सकती मैं. नहीं तो कहेंगे कि अब क्या घरबाहर मैं ही करूं? फिर तुम क्या करोगी.

खैर, एक चूल्हे पर दाल और दूसरे पर सब्जी छौंक कर मैं जल्दीजल्दी आटा गूंधने लगी. नाश्ता बनने में अगर जरा भी देर हो जाती है तो समीर का गुस्सा 7वें आसमान पर पहुंच जाता है कि नाश्ता बनाने में इतनी देर क्यों लगा दी? कोई भी काम जल्दी नहीं होता तुम से. याद नहीं कि कभी मैं ने सुबह की चाय गरम पी हो. फिर भी मुझे कोई शिकायत नहीं है. लेकिन इस के बावजूद जब सब मुझ में ही दोष निकालने लगते हैं तब बहुत दुख होता है.

बच्चों को भी खाना तो चटकदार चाहिए पर करना कुछ नहीं है. एक अकेली जान मैं 3-3 लोगों की फरमाइशें पूरी करतेकरते थक जाती हूं. लेकिन किसी को यह नहीं सूझता कि किचन में मेरी थोड़ी मदद कर दे. समीर का हर बात पर यह कहना कि यह ऐसा क्यों नहीं हुआ? यह वैसा क्यों हुआ? सुन कर मन चीख उठता है. कभी तो मन करता है सबकुछ छोड़छाड़ कहीं भाग जाऊं. लेकिन फिर सोचती हूं यह घरपरिवार मेरा ही तो है और समीर भी तो बाहर जा कर मेहनत करते हैं.

‘‘मम्मा…मेरा मैरून कलर की टीशर्ट नहीं मिल रही. प्रैस कर के कहां रख दी आप ने,’’ श्लोका कमरे से ही चिल्लाई.

‘‘अरे, तुम्हारी अलमारी में ही तो रखी थी. जरा ध्यान से देखो न. मिली? अच्छा आती हूं,’’ मैं बोली तो श्लोका बोली कि मिल गई.

‘‘अच्छा ठीक है,’’ कह कर मैं रोटियां सेंकने लगी. नजर घुमा कर देखा तो समीर अभी भी मोबाइल से चिपके हुए थे. लेकिन मेरी इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि कह सकूं कि अब कितना मोबाइल देखोगे. औफिस नहीं जाना है क्या? समीर से क्या, बच्चों से भी कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ती मेरी. तुरंत कहेंगे कि आप अपने काम से काम क्यों नहीं रखतीं? बेकार में बड़बड़ करती रहतीं. तब मेरा ही मुंह उतर जाता है, इसलिए अपनी इज्जत अपने हाथ.

‘‘बाजार से कुछ सामान लाना है घर के लिए. क्रैडिट कार्ड देते जाना,’’ समीर की प्लेट में रोटी डालते हुए मैं बोली.

‘‘कोई जरूरत नहीं क्योंकि तुम्हारा कोई ठिकाना नहीं कि फिर किसी दुकान पर क्रैडिट कार्ड छोड़ आओ. वह तो दुकानदार हमारी पहचान वाला था तो कार्ड लौटा गया वरना तो तुम्हारी मूर्खता के कारण मैं लुट गया होता,’’ ?ाल्लाते हुए समीर बोले तो मैं चुप हो गई. हां, उस दिन क्रैडिट कार्ड मैं दुकान पर ही भूल आई थी. दुकानदार अच्छा इंसान है, इसलिए बेचारा खुद ही कार्ड लौटाने घर आ गया था. लेकिन उसी बात के लिए दुकानदार के सामने ही समीर ने मुझे कितना सुनाया था कि मुझ में जरा भी अवेयरनैस नहीं है. बहुत ही लापरवाह औरत हूं मैं. समीर इतना बोलने लगे कि दुकानदार को ही बुरा लग गया और उसे कहना पड़ा कि गलती तो किसी से भी हो सकती है, जाने दीजिए न.

कै्रडिट कार्ड मैं इसलिए भूल गई थी क्योंकि समीर का फोन आ गया था  कि वे अपनी फाइल घर पर ही भूल आए हैं तो जल्दी ड्राइवर के हाथों भिजवा दो और उसी जल्दी के चक्कर में मैं दुकानदार से कार्ड लेना भूल गई  थी. लेकिन उसी बात के लिए बारबार ताने मारना क्या सही है? क्या समीर से गलती नहीं होती है? लेकिन लोगों को अपनी गलती दिखाई ही कहां देती है. उन्हें तो दूसरों की गलती कुरेदने में मजा आता है.

‘‘ये पैसे रखो. हो जाएगा न इतने में? नहीं होगा तो मैनेज कर लेना. वैसे भी खर्चे कम नहीं हैं घर में,’’ समीर ने अनमना सा होते हुए पैसे टेबल पर रख दिए और उठ कर औफिस जाने के लिए तैयार होने लगे. समीर के तेवर से लग रहा था कि पैसे मैंने घरखर्च के लिए नहीं बल्कि अपने शौक के लिए मांगे हैं.

मगर वहीं जब श्लोका शौपिंग के लिए पैसे मांगने आई तो कितने प्यार से समीर ने उसे क्रैडिट कार्ड पकड़ाते हुए कहा, ‘‘यह कार्ड रखो, जितनी चाहे शौपिंग कर लेना.’’

श्लोका को पापा से पैसे मांगते देख अंश भी बच्चे की तरह ठुनकने लगा कि उसे भी पैसे चाहिए.

‘‘अब तुम्हें किसलिए पैसे चाहिए? तुम्हें भी सोलो ट्रिप पर जाना है क्या?’’ बच्चों से बात करते हुए कैसे समीर की हंसी फूट रही थी. मगर न जाने क्यों मु?ा से ही बात करते उन के कंठ में कड़वाहट भर जाती है.

‘‘बोलो, तुम्हें क्या चाहिए,’’ समीर ने अंश से पूछा तो वह कहने लगा कि उसे भी अपने दोस्तों के साथ गोवा घूमने जाना है.

‘‘हां, तो जाओ न, रोका किस ने है,’’ कह समीर औफिस जाने के लिए तैयार होने लगे और मैं उन का लंच पैक करने लगी.

‘‘लंच रहने दो क्योंकि आज एक कलाइंट के साथ मीटिंग है तो उस के साथ ही लंच करना पड़ेगा.’’

समीर की बात पर मु?ो इतनी जोर का गुस्सा आया कि इतनी गरमी में मैं सुबह से किचन में मर रही हूं, लेकिन जरा यह नहीं हुआ कि बता दें आज लंच नहीं ले जाना है. श्लोका भी यह बोलकर कालेज जाने लगी कि आज उस की ऐक्स्ट्रा क्लास है तो जल्दी जाना है.

‘‘अरे, पर नाश्ता तो करती जाओ’’ पीछे से मैं बोली. मगर वह यह बोल कर स्कूटी से फुर्र हो गई कि कालेज की कैंटीन में खा लेगी. अंश भी ‘कैंटीन में खा लूंगा’ बोल कर कालेज के लिए निकल गया.

सब के जाने के बाद रोज की तरह मैं सोफा चादर ठीक करने लगी क्योंकि कुछ ही देर में मंजु, (बाई) आ जाएगी. वह 11 साढ़े 11 बजे तक आ जाती है काम करने. श्लोका के कमरे में गई तो पूरे पलंग पर कपड़े फैले हुए. एक टीशर्ट ढूंढ़ने के चक्कर में इस लड़की ने अलमारी के सारे कपड़े पलंग पर रख दिए. मगर यह नहीं हुआ कि कपड़े वापस अलमारी में रख दे. क्यों रखेगी. मां नाम की नौकरानी जो है घर में.

अंश का भी कमरा अस्तव्यस्त था. समीर ने भी हमेशा की तरह गीला तौलिया बिस्तर पर रख छोड़ा था. सारा घर व्यवस्थित कर मैं नहाने जा ही रही थी कि मंजु आ गई. ‘‘अरे, तू आज इतनी जल्दी कैसे आ गई? अच्छा कोई नहीं, तू काम कर ले, फिर मैं नहाने जाऊंगी,’’ कह कर मैं मैगजीन उठा कर पलटने लगी. मन हुआ चाय पीने का तो किचन में जा कर चाय रख दी. सुबह काम की इतनी मारामारी होती है कि ठीक से चाय भी नहीं पी पाती मैं.

‘‘मंजु, चाय पीएगी?’’ मैं ने पूछा तो उस ने हां कहा. बना हुआ खाना या तो मैं फेंक देती या खुद खा कर खत्म करती. लेकिन मैं कोई जानवर थोड़े ही हूं जो 3-3 जनों का खाना अकेले खा सकती हूं. इसलिए मैं ने सारा खाना मंजु को दे दिया.

‘‘क्या हुआ दीदी, आज किसी ने खाना नहीं खाया क्या?’’ चाय की चुसकी लेते हुए मंजू बोली. उसके तो आज मजे ही हो गए कि घर जा कर खाना नहीं बनाना पड़ेगा.

‘‘हां, वह मुझे नहीं पता था कि आज सब का बाहर खाने का प्रोगाम है. अब खाना बरबाद हो. उस से अच्छा तू लेती जा.’’

घर में झाड़ू लगाते हुए मंजु बताने लगी कि 66 नंबर वाली अर्चना मैडम शिमला घूमने गई हैं  इसलिए वह काम करने जल्दी आ गई.

‘‘अर्चना घूमने गई? पर यों अचानक?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अरे दीदी, अचानक कहां हर साल छुट्टियों में जाती तो रहती हैं घूमने. भूल गईं. आप पिछले साल भी वे अपने पति के साथ मसूरी घूमने गई थीं और उस के पिछले साल सिंगापुर.’’

‘‘अच्छाअच्छा, सम?ा गई. अब तुम काम खत्म करो जल्दी से. नहाई भी नहीं हूं. बाजार भी जाना है मु?ो,’’ मैं बोली तो वह जल्दीजल्दी हाथ चलाने लगी.

अर्चना के घूमने की बात सुन कर मुझे जलन हुई कि जब देखो कहीं न कहीं घूमती ही रहती है और एक मैं. याद नहीं पिछली बार कब घूमने गई थी. अर्चना अपने पति के साथ साल में 1-2 बार देशविदेश घूम ही आती है. हफ्ते में एक बार मूवी देखना, होटलों में खाना.

एक लंबी सांस भरते हुए मैं फिर मैगजीन में खो गई. लेकिन मेरा ध्यान बारबार अर्चना पर ही जा टिकता कि कितनी अच्छी जिंदगी हैं उस की. मजे से घूमतीफिरती है, खुश रहती है और एक मैं घर में पड़ेपड़े सड़ रही हूं. कितनी बार कहा समीर से कहीं घूमने चलते हैं. लेकिन हर बार काम बहुत है, बाद में देखते हैं कह कर मु?ो चुप करा देते हैं और अगर कभी मैं जिद करने लगती हूं तो चिढ़ते हुए कहते हैं कि क्या घूमनाघूमना करती रहती हो. घर में रहो न चुपचाप जैसे मैं कोई जानवर हूं. मेरी कोई फीलिंग्स ही नहीं हैं.

अर्चना मेरे घर से 3 घर छोड़ कर रहती है. उस का पति बैंक में बड़ी पोस्ट पर कार्यरत है.

2 बेटियां हैं उस की. बड़ी बेटी बैंगलुरु में मैडिकल की पढ़ाई कर रही है और छोटी बेटी इंजीनियरिंग के फर्स्ट ईयर में है. वैसे मैं अर्चना से किसी भी बात में कम नहीं हूं. समीर अच्छी जौब में हैं. साल में 2-3 बार उन का औफिशियल टूर होता ही है. मेरी बेटी श्लोका, ग्रेजुएशन के बाद यूपीएसी की तैयारी कर रही है और अंश कालेज के सैकंड ईयर में है. वह पायलेट बनना चाहता है. सपने तो बड़ेबड़े पाल रखे हैं मेरे बच्चों ने पर पढ़ना नहीं है. जब देखो, दोनों मोबाइल, लैपटौप में लगे रहते हैं और पढ़ने को बोलो तो मु?ा पर ही चिल्लाना शुरू कर देते हैं कि मैं बकबक करती रहती हूं.

अभी परसों ही मैं ने अंश से बस इतना ही कहा था कि कितना मोबाइल देखते हो. आंखें खराब हो जाएंगी बेटा. उसी बात पर उस ने चिल्लाना शुरू कर दिया कि मैं हमेशा उसे समझती रहती हूं. उस का साथ देते हुए श्लोका भी कहने लगी कि मेरे बारबार कहते रहने से ही उन का पढ़ने का मन होता यानी वे नहीं पढ़ रहे हैं उस में भी मैं ही दोषी हूं.

‘‘अरे, पर मैं ने तो सिर्फ यही कहा कि ज्यादा मोबाइल देखने से आंखों पर असर पड़ता है,’’ लेकिन बच्चों को डांटने के बदले समीर मु?ा पर ही चढ़ बैठे कि मैं बिना बात बच्चों के पीछे पड़ी रहती हूं.

‘‘मैं बच्चों के पीछे पड़ी रहती हूं?’’ गुस्सा आ गया मुझे भी कि कैसे बाप हैं ये. बच्चों को प्यार करने का यह मतलब तो नहीं कि उन की गलतियों पर कुछ बोलें भी न, ‘‘तुम्हें दिखाई नहीं देता कि पढ़ाई छोड़ कर दोनों लैपटौप पर सीरीज देखते रहते हैं और फिर भी मुझे ही दोष दे रहे हो कि मैं बच्चों के पीछे पड़ी रहती हूं? तो ठीक है आज के बाद मैं इन्हें कुछ भी नहीं बोलूंगी. ये पढ़ें न पढ़ें, मुझे कोई मतलब नहीं.’’

मेरी बात पर समीर बोले, ‘‘हां, मत बोलो, कोई जरूरत नहीं है बोलने की क्योंकि ये खुद ही समझदार हैं.’’

बड़े समझदार हैं. समझदार होते तो पढ़ते न कि समय बर्बाद करते. लेकिन जब बाप ही बच्चों को शह दे रहा हैं तो बच्चे तो ढीठ बनेंगे ही न. बच्चों के बिगड़ने में कहीं न कहीं मांबाप भी जिम्मेदार होते हैं क्योंकि हम भारतीय मांबाप अपने बच्चों के प्रति या तो बहुत सख्त हो जाते हैं या बहुत ही लिब्रल और ये दोनों चीजें सही नहीं हैं. बच्चे चाहे कितने भी पैसे खर्च कर दें एक बार भी नहीं पूछेंगे.लेकिन मु?ा से एकएक पैसे का हिसाब चाहिए समीर को जैसे मैं उस के पैसे ले कर कहीं भाग जाऊंगी. अपनी पसंद का कुछ ले भी आऊं तो तुरंत कहेंगे कि बकवास है. क्या जरूरत थी यह सब लाने की. बेकार में पैसे खर्च करती हो. लेकिन खुद दुनियाभर का उलटापुलटा बेहिसाब सामान उठा लाएंगे तो कुछ नहीं.

समीर के हिसाब से मुझे चीजें खरीदने का सलीका नहीं है और उन्हें बड़ा है. मन तो किया बोल दे लेकिन कहेगा कि तुम्हें क्या. मैं कमाता हूं, जो चाहे करूं मर्द जो चाहे करे क्योंकि वह कमाता है. लेकिन औरत अपने मन का कुछ भी नहीं कर सकती क्योंकि वह नहीं कमाती है. लेकिन औरतें मर्दों से कम करती हैं क्या बल्कि वे तो मर्दों से ज्यादा काम करती हैं. फिर भी औरतों की कोई इज्जत नहीं है. न तो वे पति से पूछे बगैर कहीं जा सकती है न अपने मन का कर सकती हैं.

समीर के घर वाले जब पहली दफा मुझे देखने आए थे तब मैं हया की सुर्खी में लिपटी, हाथों में चाय की ट्रे लिए, नजरें नीची किए उन के अटपटे सवालों के जवाब दे रही थी कि मैं खाना बनाना जानती हूं या नहीं? मेरे क्याक्या शौक हैं? कहां तक पढ़ाई की है मैं ने? लेकिन मुझे पता चला था कि समीर और उस के घर वालों को कमाऊं लड़की नहीं बल्कि घरेलू लड़की चाहिए जो घरपरिवार को अच्छे से संभाल सके, उन का वंश बढ़ सके. उन का कहना था कि उन के पूरे खानदान में किसी औरत ने आज तक नौकरी नहीं की है और इसीलिए मेरी लगीलगाई नौकरी छुड़वा दी गई थी. मांबाबूजी कहने लगे कि नौकरी तो मैं शादी के बाद भी कर सकती हूं. मगर इतना अच्छा रिश्ता अगर हाथ से निकल गय, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी. अब कौन बेटी चाहेगी कि उस के मांबाप उस के सामने हाथ जोड़ें? इसलिए मैं ने अपनी नौकरी छोड़ दी.

मगर मन तो किया था कह दे कि जब इन्हें नौकरी वाली लड़की चाहिए ही नहीं, फिर पढ़ाई के बारे में क्यों पूछ रहे हैं? परंतु लड़कियों में इतनी हिम्मत ही कहां होती है कि वे कुछ बोल सकें और अगर हिम्मत होती भी है तो अपने मांबाप की इज्जत की खातिर चुप लगा जाती हैं. बिना उफ किए अपने मांबाप की इज्जत की खातिर लड़की अपनी तमाम खुशियों के साथ सम?ाता ही नहीं करती बल्कि उस खूंटे से भी बंध जाती है, जहां उसे बांध दिया जाता है. हमारे समाज में पढ़ीलिखी लड़की तो सब को चाहिए लेकिन लड़के से ज्यादा नहीं क्योंकि उन का मानना है कि ज्यादा पढ़ीलिखी और नौकरीपेशा लड़की सिरचिढ़ी बन जाती है.

हां, सिर्फ सुंदरता अकेली ऐसी चीज है, जहां लड़की को लड़के से ज्यादा से ज्यादा दिखने की छूट है. लड़की फूल की तरह होनी चाहिए और उस का रंग दूध सा गोरा होना चाहिए.

मैं अपनी ही सोच में डूबी थी कि मंजु बोल पड़ी, ‘‘दीदी, मुझे 3-4 दिन की छुट्टी चाहिए.’’

‘‘छुट्टी… पर क्यों? कहीं जा रही है क्या?’’

‘‘हां दीदी, वह मेरी भतीजी की सगाई है न तो वहीं जा रही हूं, फिर सारा परिवार 2 दिन के लिए कहीं घूमने जाएगा. सारा प्रोग्राम बन चुका है.’’

‘‘यह तो अच्छी बात है,’’ मुसकराते हुए मैं बोली तो मंजु कहने लगी कि उस की मां को मरे तो सालों बीत गए लेकिन आज भी उस का मायका वैसा ही बना हुआ है क्योंकि उस की भाभी बहुत अच्छी है. उसे अपनी बेटी से कम नहीं सम?ाती है.

‘‘यह तो बड़ी अच्छी बात है कि तू जो तेरी भाभी तुझे मां जैसा प्यार देती है.’’

मेरी बात पर वह हंस पड़ी. लेकिन मुझे रोना आ गया कि काश, मेरा भी मायका होता तो मैं भी जाती न वहां.  मांबाबूजी के मरते ही दोनों भाइयों ने संपत्ति का बंटवारा कर अपनी अलगअलग दुनिया बसा ली. कभी तीजत्योहार में भी मैं उन्हें याद नहीं आती क्योंकि संपत्ति में मैं ने अपना हिस्सा जो मांग लिया था.

‘‘दीदी… वह मुझे एडवांस पैसे दे देतीं तो…’’ दबे मुंह मंजू बोली, तो मैं ने उस के काम के 3 हजार रुपए और एक नई साड़ी देते हुए कहा कि यह साड़ी उस की भतीजी के लिए है.

‘‘यह तो बहुत ही सुंदर साड़ी है. मेरी सोनाली पर खूब फबेगी,’’ साड़ी पर हाथ फेरते हुए मंजु चहकते हुए बोली, ‘‘थैंक यू दीदी.’’

‘‘अरे, थैंक यू मत बोल. जा अच्छे से ऐंजौय कर और काम की टैंशन मत लेना, मैं कर लूंगी.’’

मेरी बात पर उस ने फिर थैंक यू बोल, जीभ निकाल कर कान पकड़ लिए तो मुझे हंसी आ गई. मंजु अपनी भतीजी की सगाई से ज्यादा घूमने जाने को ले कर उतावली थी. कितनी बार बोल चुकी थी कि घरपरिवार के चक्कर में कहीं भी घूमने नहीं जा सकती है. लेकिन इस बार वह खूब घूमेगी. चाहे गरीब हो, अमीर हो, घूमनाफिरना तो सब को अच्छा लगता है न. लेकिन समीर तो अजीब ही इंसान हैं. जब भी घूमने की बात करो चिढ़ उठते हैं. कहते हैं कि मुझ पर घूमने का भूत सवार हो जाता है.

रात के खाने की तैयारी कर ही रही थी कि समीर कहने लगे कि आज उन्हें रोटीसब्जी या दालचावल जैसा कुछ नहीं खाना है.

‘‘तो क्या खाओगे बोलो, वही बना दूंगी,’’ हाथ रोकते हुए मैं बोली, ‘‘एक काम करती हूं, पावभाजी बना देती हूं नहीं तो बिरियानी और पनीर की सब्जी. बताओ क्या बनाऊं?’’

मैं भी थक चुकी थी अब. एक तो इतनी गरमी में खाना बनाओ और फिर इन की चिरौरी भी मुझसे नहीं होगी भई. जब भी खाना बनाओ, मुंह बिचकाते हुए बोलेंगे छि:.. यह क्या बनाया मम्मा. मुझे नहीं खाना यह कद्दू, भिंडी. मन तो चिढ़ उठता है कि जाने कहां के लाट साहब हैं ये कि रोज इन्हें वैराइटी ही चाहिए खाने में. खुद बनाओ न जा कर फिर पता चले कि खाना बनाने में कितनी मेहनत लगती है. लेकिन क्या फायदा बोलने का? फिर मैं ही बुरी बन जाऊंगी.

‘‘एक काम करती हूं, कड़ीचावल बना देती हूं, पकौड़े वाली कड़ी, बोलो, बना दूं?’’ मैं ने कहा तो श्लोका मुंह बनाते हुए बोली, ‘‘कुछ भी बनाओ, सारे खाने का टेस्ट एक सा ही होता है, गंदा सा.’’

अंश ने भी वैसे ही रिएक्ट किया. मन तो किया 2 थप्पड़ लगा कर कहूं कि बेशर्मो अच्छा खाना भी कहां अच्छा लगता है तुम लोगों को. तुम्हें तो बस मैगी, पास्ता चिप्स, नूडल्स ही चाहिए होता है.

‘‘यह पावभाजी और पनीरफनीर रहने दो. आज कुछ स्पेशल बनाओ न,’’ समीर बोले तो अंश भी कहने लगा कि रोजरोज मम्मी के हाथों का बना खाना खाखा कर वह बोर हो चुका है तो आज उसे बाहर खाने जाना है. श्लोका भी अंश की भाषा बोलते हुए बोली कि आज उसे इटैलियन खाने का मन है. समीर ने भी कुछ तड़कताफड़कता खाने की फरमाइश की. डिसाइड हुआ कि सब बाहर डिनर करने जाएंगे.

‘चलो, अच्छा ही है, खाना बनाने से मुक्ति मिली,’ मैं ने सोचा और तैयार होने लगी. होटल में भीड़ के कारण, हमें बाहर वेट करने को कहा गया. कुरसी पर बैठते ही तीनों अपनेअपने फोन में व्यस्त हो गए तो मैं भी अपना फोन खोल कर फेसबुक देखने लगी. अर्चना ने अपने कई फोटो फेसबुक पर अपलोड किए थे. पति के साथ अलगअलग ड्रैस में, अलगअलग पोज में. उस की काफी तसवीरें थीं. तभी बैरा, ‘‘टेबल रैडी है,’’ कह कर चला गया.

तीनों ने अपनीअपनी पसंद का न जाने क्याक्या आलतूफालतू मंगवाया. मगर मैं ने अपने लिए सिर्फ वैजीटेबल बिरयानी और रायता और्डर किया. इन्हें खाना तो खूब चटपटा चाहिए. लेकिन वाक या ऐक्सरसाइज से इन का दूरदूर तक कोई नातारिश्ता नहीं है. कहते हैं नींद ही नहीं खुलती तो वाक पर कैसे जाएं. लेकिन नींद तो तब खुलेगी न, जब समय से सोएंगे. रात के 2-2 बजे तक मोबाइल चलाते रहते हैं. अभी भी तीनों फोन पर इतने ज्यादा व्यस्त हैं कि अगर इन के सामने कोई मरा हुआ चूहाबिल्ली भी ला कर रख दें तो खा लेंगे. पता नहीं क्या देखते रहते हैं मोबाइल में.

आज लोग रियल में नहीं बल्कि वर्चुअल, आभासी दुनिया में जीने लगे हैं. हम जीवन में इतने नकली होते जा रहे हैं कि असल व वास्तविक जीवन से हमारा कोई वास्ता ही नहीं रह गया है. हम आभासी दुनिया में ऐसे गुम हैं कि हमें नकली भी असली नजर आने लगा है. आज के समय में फेसबुक हमारा नया समाज व व्हाट्सऐप ऐसा कुनबा बन गया है जिस में हम दिनभर बेमतलब की बातें करते हैं. गरमी की वजह से या पौल्यूशन के कारण पता नहीं पर मेरा सिरदर्द से फटा जा रहा था.

समीर से कुछ कहती, उस से पहले ही उन्होंने मुझे अपनी आगोश में भर लिया और लाइट औफ कर दी. आज मेरा मन जरा भी नहीं था. लेकिन बोलने का कोई फायदा नहीं था क्योंकि औरत का मन हो न हो, इस बात से पति को कोई फर्क नहीं पड़ता, बस उस का मन होना चाहिए.

‘‘समीर… एक बात कहूं?’’ मैं ने कहा.

‘‘हूं… कहो,’’ मोबाइल चेक करते हुए समीर बोले. सोने से पहले और जागते ही समीर सब से पहले अपना मोबाइल चैक करते हैं फिर कोई और काम होता है.

‘‘श्लोका और अंश दोनों घूमने जा रहे हैं तो हम भी कहीं घूमने चलते हैं न.’’

‘‘हां, दार्जिलिंग चलते हैं. मेरा बहुत मन है वहां घूमने का,’’ मैं ने कहा तो समीर ने यह कह कर करवट बदल ली कि अभी नहीं, बाद में देखते हैं.

समीर की बात पर मुझे बहुत गुस्सा आया. बोली, ‘‘बच्चों के लिए तो तुरंत हां कर देते हैं लेकिन मेरे लिए बाद में. कब से कह रही हूं कहीं घुमाने ले कर चलो, लेकिन हर बार तुम यही कहते हो कि बाद में चलेंगे. बोलो न कब आएगा तुम्हारा वह ‘बाद में’?’’ मैं ने समीर को हिलाते हुए कहा.

वे दनदनाते हुए उठ बैठे और गरजते हुए बोले, ‘‘पागल हो क्या. अभी इतनी रात में तुम्हें घूमने जाने की बात करनी है? सो जाओ चुपचाप समझ,’’ बोल कर समीर ने करवट बदल ली.

अभी जो पति अपनी पत्नी को चांदसितारे का तमगा दे रहा था, अचानक से वह उसे बुरी लगने लगी क्योंकि मैं ने ‘जरा अपने मन’ की कह दी इसलिए? सुबह औफिस जाते समय समीर बोले, ‘‘सुनो, परसो मुझे सिंगापुर के लिए निकलना है तो तुम मेरे कपड़े और जरूरी सामान वगैरह अटैची में रख देना.’’

मैं ने कोई जवाब न दे कर अंदर से कुंडा लगा लिया और रोज की तरह काम में जुट गई. दार्जिलिंग न सही पर क्या समीर मुझे अपने साथ सिंगापुर भी नहीं ले जा सकता था. ‘उस के सारे दोस्त अपनी बीवियों को देशदुनिया घुमाने ले जाते हैं लेकिन एक मैं ही जो कहीं नहीं जाती,’ सोचते हुए मुजे रोना आ गया.

समीर और बच्चों को ट्रिप पर गए आज 4 दिन हो चुके थे. लेकिन इन 4 दिनों में उन्होंने एक बार भी मुझे फोन नहीं किया. मैं ने ही 2-3 बार फोन किया, तो हम ठीक हैं, डिस्टर्ब मत करो न,’’ कह कर फोन रख दिया.

बेकार में किसी के घर जा कर या फोन कर के मैं उन्हें परेशान नहीं करना चाहती थी. इसलिए घर में पड़े पैंडिंग काम, जिन्हें समय की कमी के कारण कर नहीं पाती थी उन्हें करने लगी. समीर की टेबल पर फाइलों का अंबार लगा था तो उन्हें समेट कर मैं ने बड़े वाले दराज में रख दिया ताकि निकालने में आसानी हो. बच्चों की अलमारी में भी कपड़े करीने से लगा दिए और पढ़ने की टेबल भी झाड़पोंछ दी. लेकिन फिर भी समय था कि कट ही नहीं रहा था. इसलिए टीवी देख कर, मैगजीन पढ़ कर समय बिताने लगी. कई बार मन हुआ मिताली से बात करूं, पर फिर लगा वह बिजी होगी. क्यों बेकार में फोन कर उसे परेशान करूं. इसलिए फिर मैं मैगजीन उठा कर पलटने लगी. लेकिन अब पढ़ने और टीवी देखने से भी मन उकताने लगा था. लग रहा था किसी अपने से बात करूं. पता नहीं क्यों पर आज मिताली की बहुत याद आ रही थी.

मिताली मेरी बचपन की दोस्त. हम दोनों ने साथ में ही स्कूल, कालेज तक की पढ़ाई की थी. उस के बाद हम ने साथ में ही टीचर ट्रेनिंग का कोर्स किया और दोनों टीचर बन गए. लेकिन उस का सपना बैंक में जाने का था, इसलिए वह बैंक की तैयारी में जुट गई और 2 साल के अंदर ही उस का चयन बैंक में हो गया. ट्रेनिंग के बाद उस की पोस्टिंग गुजरात के कच्छ जिले में हो गई और मैं यहीं लखनऊ में ही रह गई. मेरी शादी पर वह नहीं आ पाई थी क्योंकि उस समय बैंक कलोजिंग डे था. लेकिन बाद में वह मुझ से मिलने आई थी. लेकिन यह जान कर उसे बड़ा दुख हुआ कि मैं ने टीचर की नौकरी छोड़ दी. लेकिन क्या बताती उसे कि शादी ही इस शर्त पर हुई थी कि मुझे अपनी नौकरी छोड़नी पड़ेगी.

कुछ साल बाद मिताली की भी शादी तय हो गई. सुना था उस का होने वाला पति भी बैंक में जौब करता है. मैं भी गई थी उस की शादी में. लड़का बड़ा ही हैंडसम था. लेकिन उस का परिवार जरा अजीब लगा मुझे. खैर, जो भी हो, मेरी सहेली को उस का मनपसंद जीवनसाथी मिल गया, इसी बात से खुश थी मैं.

मगर शादी के 3 साल बाद ही मिताली का अपने पति से तलाक हो गया, यह बात सुन कर बड़ा दुख हुआ मु?ो. मिताली ने ही बताया था मु?ो कि उस के ससुराल वाले और उस का पति बहुत ही लालची इंसान हैं. वे नहीं चाहते थे कि मिताली अपनी कमाई का एक भी पैसा अपने मांबाप पर खर्च करे और यह बात मिताली को कतई मंजूर नहीं थी. होती भी क्यों? अरे, जिस मांबाप ने अपनी उम्रभर की कमाई अपनी दोनों बेटियों की पढ़ाईलिखाई पर और उन की अच्छी परवरिश पर लगा दी, उन्हीं मांबाप को वह कैसे दरदर की ठोकरें खाने को छोड़ देती. मिताली का कोई भाई नहीं था, 2 बहनें ही थीं वे. बारीबारी से दोनों बहनें अपने मांपापा का खयाल रखती थीं. लेकिन यह बात मिताली के पति को बिलकुल अच्छी नहीं लगता था और इसी बात पर दोनों के बीच लड़ाई होने लगी थी और उस का नतीजा तलाक के रूप में ही निकला.

मिताली का पति तो उस के खर्चे पर भी रोकटोक लगाता था. एकएक पैसे का हिसाब मांगता कि उस ने कहां कितने पैसे खर्च किए. लगता था जैसे उस ने मिताली को देख कर नहीं बल्कि उस की जौब को देख कर शादी की थी. सही किया मिताली ने उस से तलाक ले कर वरना वह इंसान जिंदगीभर मिताली को परेशान करता.

फिर मिताली के लिए कितने ही रिश्ते आए. मैं ने भी समझाया था कि शादी कर ले.

लेकिन उस ने तो फिर शादी न करने का प्रण कर रखा था. उस का कहना था कि क्या भरोसा वह लड़का और उस का परिवार भी पैसे का लालची हो? वह किसी की गुलामी करने के लिए पैदा नहीं हुई हैं. अपनी मरजी से, अपने तरीके से जीएगी वह. तब मुझे मिताली की बातें गलत लगी थीं लेकिन आज लगता है वह अपनी जगह एकदम सही थी. मैं भी तो समीर की गुलामी ही कर रही हूं. कहां अपनी मरजी से कुछ कर पाती हूं.

कहते हैं ‘दिल से दिल की राह होती है’ मैं मिताली के बारे में ही सोच रही थी और उस का फोन आ गया.

‘‘इतने दिनों बाद तुझे अपनी सहेली की याद आई?’’ मैं ने शिकायत भरे लहजे में कहा.

‘‘अच्छाजी, तुझे तो मेरी बड़ी याद आई,’’ उस ने भी पलटवार किया, ‘‘मैडम, अपनी घरगृहस्थी में इतनी बिजी हैं कि अपनी दोस्त को भी भूल गईं. नहीं याद आती न मैं तुझे, सचसच बताना?’’

‘‘नहीं. ऐसी बात नहीं. तुझे तो मैं रोज याद करती हूं पर फोन इसलिए नहीं करती कि कहीं तू डिस्टर्ब न हो जाए,’’ मैं ने कहा.

‘‘अब कहा सो कहा, दोबारा यह बात मत कहना नहीं तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा समझ?’’ मिताली का प्यारभरा गुस्सा फूटा तो मैं हंस पड़ी.

‘‘वैसे तू है कहां अभी?’’ मैं ने पूछा तो उस ने बताया कि अभी वह अहमदाबाद में है लेकिन अगले महीने उस का तबादला होने वाला है, लेकिन कहां होगा नहीं पता उसे.

‘‘अच्छा ही है, इसी बहाने नईनई जगहों पर घूमाना भी हो जाता है तुम्हारा, है न?’’

मेरी बात पर वह हंसी और बोली कि मैं भी तो समीर के साथ देशविदेश घूम ही रही होगी. उस की बातों पर मेरी आंखें भर आईं कि क्या बताऊं कि हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और होते हैं. शादी के समय मैं ने भी तो यही सोचा था कि समीर मुझे देशदुनिया की सैर कराएगा. लेकिन सोचा हुआ कहां कभी सच होता है.

हनीमून के नाम पर भी ऋ षिकेश ले कर गए थे वह भी अपने पूरे परिवार के साथ. जहां हनीमून तो जरा भी नहीं लगा था मुझे. न चाहते हुए भी मैं ने मिताली के सामने सारी बातें खोल कर रख दी, ‘‘एक मैं ही हूं जो घर में सज रही हूं. सब मजे कर रहे है. किसी को मेरी परवाह नहीं. बता न क्या मेरा घूमनेफिरने का मन नहीं होता? क्या मैं इंसान नहीं हूं?’’

‘‘किस ने कहा तू इंसान नहीं है और रोका किस ने तुझे घूमने से? जा घूम आ जहां मरजी हो.’’

लगा मिताली भी मेरा मजाक बना रही है. तभी तो ऐसे बोल रही है. मैं ने कहा, ‘‘रोका नहीं है लेकिन मैं किस के साथ घूमने जाऊं? अकेली तो नहीं जा सकती न.’’

‘‘क्यों नहीं जा सकती अकेले घूमने?’’ उस ने कहा, ‘‘तुम्हारी बेटी, बेटा और समीर भी जाते रहते हैं, फिर तुम्हें अकेले घूमने जाने में क्या तकलीफ है?’’

‘‘हां, लेकिन…

‘‘लेकिनवेकिन छोड़ और तू जा रही है सोलो ट्रिप पर समझ? तू चिंता मत कर मैं सारा इंतजाम कर दूंगी. प्लेन का टिकट भी तुम्हारे मोबाइल पर आ जाएगा.’’

मिताली तो सुन कर एकदम जोश में ही आ गई पर डर लगने लगा कि यह पागल औरत कहीं सच में प्लेन का टिकट न भिजवा दे.

‘‘अरे, पागल है क्या? मैं अकेले कैसे… नहींनहीं, मुझे तो सोच कर ही डर लगता है. रहने दे, मैं घर में ही ठीक हूं,’’ मैं ने कहा.

‘‘इसलिए… इसलिए तू आज अकेली है घर में और सब मजे कर रहे हैं क्योंकि तुम्हारी सोच कि मैं एक औरत हूं, अकेले कैसे जा सकती हूं… किसी को दोष मत दे समझ क्योंकि हम खुद अपनी हालत के लिए जिम्मेदार होते हैं. कल को तुम्हारे बच्चे अगर कहेंगे कि तुम खानापीना और हंसना भी छोड़ दो तो छोड़ दोगी? जब हम औरतें खुद ही बेडि़यों में जकड़े रहना पसंद करती हैं तो लोगों को क्या पड़ी है हमें आजाद करने की.’’

‘‘तुम्हारी बात सही है मिताली पर मैं कभी अकेले बाहर नहीं गई न.’’

‘‘नहीं गई, तो एक बार जा कर तो देख, तुम्हारा सारा डर खत्म न हो गया तो कहना और सब से बड़ी बात अपने पति, बच्चों को दिखाओ कि तुम उन के भरोसे नहीं हो. जब तुम्हारे बच्चे और पति को तुम्हारी परवाह नहीं है, फिर तुम क्यों उन के लिए मरी जाती हो? वे अपनी मरजी से जी सकते हैं, घूमफिर सकते हैं तो तुम क्यों नहीं?’’

‘‘समीर का फोन आ रहा है, मैं तुम से बाद में बात करती हूं,’’ कह कर मैं ने फोन रख दिया.

समीर कहने लगे कि वे कल नहीं, परसों आएंगे.

‘‘ठीक है,’’ कह मैं ने फोन रख दिया और सोचने लगी कि मिताली ने भले ही कह दिया कि मैं अकेले घूमने जा सकती हूं लेकिन यह इतना आसान है क्या? घरबच्चों को छोड़ कर मुझ से कहां जाया जाएगा भला.

ट्रिप से आने के बाद न तो समीर ने और न ही बच्चों ने मुझसे पूछा कि मैं अकेले

कैसे रही? या यह कि अगली बार हम सब साथ में घूमने चलेंगे. उलटे समीर मुझ पर चिल्लाने लगे कि मैं ने उन की फाइलें इधरउधर क्यों कर दीं.

‘‘पर मैं ने तो उन्हें अच्छे से दराज में रख दिया था ताकि तुम्हारा कोई जरूरी कागज उधरउधर न हो जाए,’’ मैं ने सफाई देनी चाही.

मगर समीर ने मुझे ही चुप करा दिया. बोले, ‘‘चुप रहो, एक नंबर की मूर्ख हो तुम.’’

समीर की बात पर मेरी आंखें भर आईं.

‘‘अब रोने का नाटक मत करो. कहा था न तुम से जो फाइलें जहां हैं वहीं रहने दिया करो. बेवकूफ कहीं की, ‘‘बोल कर समीर कमरे में चले गए और न जाने किस से हंसहंस कर बातें करने लगे. बच्चे भी अपने दोस्तों को ट्रिप के बारे में बता रहे थे कि वे कहांकहां घूमे, क्याक्या देखा और उन्हें कितना मजा आया. लेकिन मेरे लिए न तो किसी के पास टाइम था और न ही प्यार के 2 मीठे बोल ही.

‘लगा मिताली सही कह रही थी कि हम औरतें अपने परिवार, पति, बच्चों के लिए मरती रहती हैं पर उन की नजरों में हमारी जरा भी कद्र नहीं होती. लेकिन गलती हमारी भी है क्योंकि हम खुद इन सब में जकड़े रहना पसंद करती हैं. परिवार, पति, बच्चों को ही अपनी दुनिया सम?ा लेती हैं. लेकिन जब इन्हें ही मेरी परवाह नहीं है, मेरी फीलिंग्स से कोई लेनादेना नहीं है, फिर मैं क्यों परवाह करूं इन की? क्यों सोचूं कि ये क्या सोचेंगे, कैसे रहेंगे, कैसे खाएंगे?’

मैं ने मन ही मन दृढ़ निश्चय कर लिया कि जाऊंगी घूमने और वह भी अकेली. नहीं चाहिए मुझे किसी का साथ. मैं ने तुरंत मिताली को फोन लगा कर अपना फैसला सुना दिया.

‘‘यह हुई न बात,’’ खुश होते हुए मिताली ने मु?ो सोलो ट्रिप के क्याक्या फायदे हैं और वहां मु?ो अपना खयाल कैसे रखना है, जरूरत पड़ने पर कहां फोन करना है, सब अच्छे से सम?ा दिया, ‘‘और सुन, तू जरा भी डरना मत कि तू पहली बार अकेली घूमने जा रही है, सम?ा?’’

‘‘बिलकुल नहीं डरूंगी और तू तो है ही मेरे साथ,’’ कह कर मैं ने फोन रख दिया. मिताली ने मेरे जाने का सारा इंतजाम कर दिया और फोन पर प्लेन का टिकट भी आ गया.

‘‘छि:, यह क्या बनाया, आलू परांठा,’’ श्लोका ने मुंह बनाया, ‘‘मुझे पोहा खाना है.’’

‘‘तो खुद बना लो जा कर और वैसे भी कल से जो मरजी हो बना कर खाना क्योंकि मैं सोलो ट्रिप पर जा रही हूं.’’

मेरी बात सुन कर रोटी का टुकड़ा समीर के गले में ही अटक गया और श्लोका को तो जैसे शौक ही लग गया.

‘‘सो सोलो ट्रिप…’’ समीर हंसे, ‘‘सोलो ट्रिप का मतलब भी पता है तुम्हें? अकेले घूमने जाना. एक क्रैडिट कार्ड तो संभलता नहीं तुम से, चली हो सोलो ट्रिप. मजाक करना बंद करो और अलमारी से मेरे नीले रंग की शर्ट निकाल दो. आज मीटिंग में वही पहन कर जाऊंगा.’’

‘‘मैं मजाक नहीं कर रही हूं समीर, आज

4 बजे की मेरी फ्लाइट है. मैं ने तुम्हारे सारे कपड़े प्रैस कर अलमारी में रख दिए हैं और मंजु से कह दिया है सुबह का नाश्ता बन दिया करेगी आ कर,’’ जूठे बरतन सिंक में रखते हुए मैं बोली तो श्लोका मेरे गले लग कर कहने लगी कि मैं न जाऊं क्योंकि घर के काम, खाना, कपड़े उस से नहीं हो पाएगा.

‘‘क्यों नहीं हो पाएगा? बच्ची थोड़े ही हो तुम? अकेले घूमने जा सकती हो, अपने सारे फैसले खुद ले सकती हो तो काम भी कर ही लोगी और फिर अंश भी है, काम में तुम्हारी मदद कर दिया करेगा,’’ अंश की तरफ देख कर मैं बोली, तो उस के मुंह में कोई जवाब नहीं था. उसे भी शौक लग गया था मेरे जाने के नाम से.

समीर को तो अब भी भरोसा नहीं हो रहा था कि मैं अकेले घूमने जा रही हूं.

लेकिन जब मैं ने उन्हें प्लेन का टिकट दिखाया तो हकलाते हुए कहने लगे, ‘‘अरे, मैं ने तो कहा ही था काम से फ्री होते ही घूमने चलेंगे. चलेंगे न, तुम अभी रहने दो.’’

मगर मैं समीर की बात पर ध्यान न दे कर अंश को समझने लगी कि बस 15 दिन की ही तो बात है, फिर मैं आ ही जाऊंगी. मैं ने श्लोका को सम?ा दिया कि रात का भी खाना बना कर मैं ने फ्रिज में रख दिया है सिर्फ खाते समय गरम कर लेना. मेरी 4 बजे की फ्लाइट थी इसलिए मैं घर से 3 बजे निकल गई. निकलते समय मेरे पैर लड़खड़ाए लेकिन फिर लगा अगर आज मैं कमजोर पड़ गई तो फिर कभी इन बेडि़यों को नहीं तोड़ पाऊंगी.

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Love Story In Hindi : राहुल और रूबी की फालतू लव स्टोरी

Love Story In Hindi : शटल में राहुल ने रूबी को अपने इतने नजदीक खड़ा किया कि जैसे उसे अपने अंदर ही छिपा लेगा. सभी सहयात्रियों की मौजूदगी में ही पूछ लिया, ‘‘किसी का धक्का तो नहीं लग रहा रूबी?’’

रूबी तो जैसे अपने इस मौडर्न मजनू पर फिदा थी. बोली, ‘‘न बाबू.’’

राहुल के दोनों कंधों पर 1-1 बैग टंगा था, एक उस का अपना, एक उस की रूबी का. रूबी के बाएं कंधे पर सिर्फ एक स्लिंग बैग टंगा था जिस में उस का फोन और बाकी हलकीफुलकी चीजें थीं. राहुल उस का यह छोटा सा बैग लेना भूल ही गया होगा वरना उस ने ही यह बैग भी टांगा होता.

दोनों ने एकदूसरे का हाथ पकड़ लिया, दूसरे हाथ से सीट का एक ही हैंडल एक ही जगह से पकड़ा, किसी भी तरह की दूरी दोनों को स्वीकार नहीं थी. दोनों इधरउधर हिलतेडुलते रहे पर एकदूसरे का हाथ नहीं छोड़ा. सहयात्रिओं का घूरना दोनों ने अवौइड कर दिया. 6 फुट का राहुल, घुंघराले बाल, साफ रंग, अच्छे नैननक्श, उम्र करीब 25 साल, व्हाइट टीशर्ट और जींस में रूबी को अपने से लिपटाए खड़ा था. 5 फुट की गोरी, छोटेछोटे बाल, कमर से ऊपर तक का एक व्हाइट स्लीवलैस टौप और एक पिंक स्कर्ट पहने राहुल की ही उम्र की रूबी अपने प्रेमी को गरदन ऊपर कर के निहारे जा रही थी.

‘‘राहुल, तुझ से कितनी अच्छी खुशबू आ रही है, कौन सा परफ्यूम लगाया है?’’

‘‘जो तूने दिया था, मैं तो वही लगाता हूं अब. हमेशा वही लगाऊंगा, रूबी.’’

‘‘ओह, राहुल, तू कितना अच्छा है.’’

राहुल ऐसे मुसकराया जैसे वह कोई हीरो हो. बालों को एक झटका दिया और फिर बोला,  ‘‘रूबी, तुझे पता नहीं, तू ही मेरी सबकुछ है.’’

आगेपीछे खड़े लोग दोनों को ऐसे देखसुन रहे थे जैसे कह रहे हों, बस करो भाई, ऐसे प्यार हम ने बहुत देखे हैं.

विमान में घुसते हुए राहुल ने रूबी का हाथ कस कर पकड़ा हुआ था, बीचबीच में चूम भी लेता, रूबी गुडि़या सी उस के साथ लिपटीचिपकी चलती रही. एअरहोस्टेस किसी मशीन की तरह सब का वैलकम करती रही, सभी यात्री अपनीअपनी सीट की तरफ बढ़ते रहे. राहुल ने ओवरहैड स्टोरेज में सामान रखा. रूबी की विंडो सीट थी, राहुल बीच में बैठा. साथ में एक बुजुर्ग सज्जन बैठे थे.

टेक औफ की तैयारी थी पर विमान ने उड़ान नहीं भरी तो रूबी ने नखरे से कहा, ‘‘राहुल, फ्लाइट कब उड़ेगी? उल?ान हो रही है.’’

राहुल को लगा जैसे वह एक सुपरमैन है, वह कहेगा तो फ्लाइट तुरंत उड़ जाएगी. उस ने पास ही खड़ी एक एअरहोस्टेस से पूछा, ‘‘टेक औफ में कितनी देर है? मेरी दोस्त को परेशानी हो रही है.’’

एअरहोस्टेस भी ऐसेऐसे दीवानों को रोज देखती होगी, धैर्य से जवाब देना उन्हें सिखाया

ही जाता है. उस ने विनम्रता से कहा, ‘‘बस सर, अभी थोड़ी ही देर में विमान उड़ान भरेगा. आप चिंता न करें.’’

5 मिनट ही बीते थे कि रूबी ने जैसे फिर गुहार लगाई जैसे वह किसी बहुत बड़ी मुसीबत में हो, ‘‘राहुल, बड़ी उल?ान सी हो रही है. फ्लाइट लेट है?’’

राहुल ने रूबी का हाथ पकड़ लिया, ‘‘देख रूबी, तू एक बार भी और परेशान हुई तो मैं उठ कर इन लोगों पर चिल्ला दूंगा. मैं तुझे परेशान नहीं देख सकता.’’

बुजुर्ग ने कनखियों से दोनों को देखा. उन का मन हुआ, दोनों को 1-1 तमाचा रसीद कर कहें कि थोड़ा पेशंस रखो बच्चो.

अभी तो तुम्हारी पूरी लाइफ पड़ी है पर उन्हें क्या पता था कि इस सफर में उन्हें ही कितनी पेशंस रखनी पड़ेगी.

तभी रूबी ने कहा, ‘राहुल, प्यास लगी है.’’

राहुल ने पास से निकलती हुई एअरहोस्टेस को पानी देने के लिए कहा तो जवाब मिला, ‘‘अभी जल्दी ही हमारी सर्विस शुरू होगी तो आप के लिए पानी लाती हूं.’’

राहुल तो अब स्वघोषित हीरो है ही, बोला, ‘‘मेरी दोस्त को पानी अभी चाहिए, मैं आप की सर्विस शुरू होने का इंतजार नहीं कर सकता.’’

‘‘आप कृपया सहयोग करें. सौरी,’’ बोल कर वह आगे बढ़ गई.

अब तो राहुल अपनी कमर पर बांधी बैल्ट खोल कर खड़ा हो गया, बुजुर्ग से कहा, ‘‘ऐक्सक्यूज मी अंकल, ऊपर से वाटर बोतल निकालनी है.’’

बुजुर्ग के पास अपनी भी बैल्ट खोल कर खड़े होने के सिवा कोई चारा न था.

एअरहोस्टेस भागी आई, ‘‘अभी सामान नहीं निकाल सकते.’’

राहुल ने गुस्से से कहा, ‘‘आप ने पानी ला कर नहीं दिया तो अपनी दोस्त को प्यासा

रहने दूं?’’

राहुल ने बोतल निकाली, अपनी सीट पर बैठा, बुजुर्ग भी बैठ गए. विमान ने उड़ान भरी तो रूबी खुश हुई, तो राहुल भी खुश हुआ. यह फ्लाइट दिल्ली से मुंबई जा रही थी. रूबी की आवाज से ज्यादा राहुल की आवाज तेज थी. एक सीट आगे, एक सीट पीछे के लोग आराम से उन की बातें सुन सकते थे और फिर बुजुर्ग सज्जन को तो  उन दोनों की बातें बहुत साफसाफ सुनाई पड़नी ही थीं. बुजुर्ग अपना सफर शांति से बिताने के मूड में थे पर सीट पर बैठने के 10 मिनट बाद ही उन्हें अंदाजा हो गया था कि ये नमूने कुछ न कुछ करते ही रहेंगे.

थोड़ी देर बाद रूबी ने राहुल से कहा, ‘‘राहुल, मुझे टौयलेट जाना है.’’

‘‘हां, जा न, क्या परेशानी है. ऐक्सक्यूज मी अंकल, मेरी दोस्त को टौयलेट जाना है.’’

अंकल ने अपनी सीट बैल्ट खोली और साइड में खड़े हो गए. वापस आ कर जैसे ही रूबी बैठी, फूड सर्विस शुरू हुई, बुजुर्ग व्यक्ति ने अपने लिए एक कौफी और्डर की. राहुल ने अपने और रूबी के लिए मैगी.

रूबी ने कुछ सैकंड्स बाद ही कहा, ‘‘राहुल, मैगी की जगह सैंडविच ही खा लें?’’

‘‘हां, हां, क्यों नहीं, अभी और्डर चेंज करता हूं. साथ में कुछ लेगी?’’

‘‘हां, जूस.’’

एअरहोस्टेस को बुलाया गया, उस ने कोई प्रतिक्रिया न देते हुए चुपचाप और्डर नोट कर लिया. बुजुर्ग व्यक्ति की कौफी आ गई. जैसे ही उन्होंने पहली सिप ली, रूबी कोने में ठुनकी, ‘‘राहुल, कौफी पीनी है, जूस नहीं, कौफी की कितनी अच्छी खुशबू आ रही है.’’

फालतू आशिक फौरन बोला, ‘‘हांहां, क्यों नहीं,’’ एअरहोस्टेस को फौरन रूबी के दरबार में बुला कर जूस कैंसिल कर के कौफी लाने के लिए कहा गया.

रूबी ने राहुल के कंधे पर सिर टिका कर कहा, ‘‘थैंक यू बाबू, तुम मेरे लिए कितना करते हो.’’

बुजुर्ग व्यक्ति ने मन ही मन कहा कि हां, बाबू ही यह कौफी बना कर ला रहा है

तुम्हारे लिए.

अचानक रूबी को याद आया, ‘‘राहुल, ऊपर से मेरे बैग में से चिप्स का पैकेट निकालना, तुम्हारे लिए ले कर चली थी.’’

‘‘उफ मेरी रूबी, माई डार्लिंग, कितना ध्यान रखती हो,’’ कहते हुए राहुल उठ गया, ‘‘अभी चिप्स निकालता हूं. ऐक्सक्यूज मी अंकल.’’

अंकल के पास कोई और औप्शन था भी नहीं. अपनी कौफी का कप ध्यान से संभालते हुए सीट बैल्ट खोल कर साइड में खड़े हो गए. आगेपीछे के लोगों ने अंकल को सहानुभूति से देखा, आंखों ही आंखों में इशारा किया कि क्या करें इन का.

रूबी की आवाज आई, ‘‘राहुल, ध्यान से तेरे सिर में कुछ लग न जाए.’’

चिप्स का पैकेट निकालने के बाद राहुल बैठ गया. अंकल भी बैठ गए. कौफी और सैंडविच भी आ गए. उठनेबैठने के चक्कर में अब तक ठंडी हो चुकी कौफी के सिप ले रहे अंकल ने कनखियों से देखा, राहुल और रूबी एकदूसरे को अपने हाथों से खिला रहे हैं, खुसुरफुसुर कर बातों पर हंसी रोक रहे हैं.

अचानक रूबी को याद आया, ‘‘अरे राहुल, मैं तो पूछना भूल गई

तेरी मम्मी का एअरपोर्ट पर फोन आया था? क्या कह रही थीं? मुझे अपना नाम सुनाई दिया था. अब तो उन्हें हमारे बारे में सबकुछ पता है न?’’

‘‘हां, वह सब तो मैं ने उन्हें तभी बता दिया था जब तू औफिस में नईनई आई थी. अभी मम्मी कह रही थीं कि शादी कब करोगे? मैं ने उन्हें बोल दिया, मुंबई में अभी तो हम लिव इन में रहेंगे, थोड़ा और सैट हो जाएं तो शादी करेंगे. फिर मम्मी घर, खानदान की बातें करने लगीं तो मैं ने उन्हें बोल दिया कि रूबी घर में आप की तरह नहीं रहेगी. उसे जो अच्छा लगेगा, वही करेगी. आप तो ताऊजी, दादाजी के सामने सिर पर पल्ला ले कर रसोई में घुसी रहीं, मेरी रूबी यह सब नहीं करेगी.

‘‘मम्मी बस फिर चुप ही हो गईं. तू चिंता न कर रूबी मैं तुझे रानी बना कर रखूंगा. अभी एक फ्लैट किराए पर लेने के लिए देख रहा हूं. तु?ो भी 3 लड़कियों के साथ रूम शेयर करना पड़ता है. बस यह फ्लैट मिल जाए, 1 साल लिव इन में रहेंगे, फिर आगे की सोचेंगे.

‘‘पेरैंट्स के बारे में ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है. हमारी लाइफ है, हम देख लेंगे. तू भी उन के उपदेशों पर ध्यान मत देना. बिंदास जीना. मैं तो मम्मी को सब कह देता हूं ताकि वे पापा को भी बता दें, मु?ा से उम्मीद न करें कि मैं उन की कोई बात सुनूंगा.’’

रानी ने तो यह बात सुन कर अपने राजा का गाल ही चूम लिया जिसे देख कर भी अंकल ने इग्नोर किया. रूबी ने जैसे राहुल को एक मैडल भी दे दिया, ‘‘राहुल, तेरे विचार कितने अच्छे हैं.’’

राहुल की तेज आवाज में कहे ये डायलौग सुन कर आगे बैठी महिला के दिल में आया कि जरा पीछे बैठी रानी को देख लिया जाए, कैसी है यह रानी जिस पर राजा इतना फिदा है.

उस ने यों ही इधरउधर नजर डालते हुए पीछे भी देख लिया, राजारानी एकदूसरे से सिर सटाए बैठे थे. इतने में

2 एअरहोस्टेस एक बड़ा सा ब्लैक बैग लिए क्लीनिंग के लिए आईं.

रूबी ने अपना कप उठाने के लिए जैसे ही हाथ बढ़ाया, राहुल की आवाज ने सब का ध्यान खींचा, ‘‘तू रहने दे, रूबी, मैं देता हूं.’’

डेढ़ घंटा बीत चुका था, आधे घंटे का समय बाकी था. अंकल का मन हुआ, एक झपकी ले लें पर राहुल और रूबी उन के सहयात्री थे, यह कहां संभव था. वे एक फैमिली फंक्शन से थक कर लौट रहे थे, उन पर थकान हावी थी, उन्होंने अपनी आंखें बंद कीं. शायद उन की आंख लगे 5 मिनट ही हुए थे कि राहुल की आवाज आई, ‘‘ऐक्सक्यूज मी अंकल, मेरी दोस्त को टौयलेट जाना है.’’

बेहद बेजार बुजुर्ग ने नागवारी से राहुल को देखा, पर समझते थे. इस लड़के को कुछ कह नहीं सकते थे, ये दोनों उन युवाओं में से थे जो किसी की भी तकलीफ नहीं समझते. वे चुपचाप बैल्ट खोल कर साइड हो गए.

रूबी के पीछेपीछे राहुल भी उठ गया, ‘‘रुक, मैं भी तेरे साथ आ जाता हूं.’’

दोनों चले गए तो बुजुर्ग बैठ तो गए पर जानते थे, फिर उठना ही है. दोनों वापस आए, रूबी की आवाज आई, ‘‘चल राहुल, कुछ देखते हैं.’’

‘‘हां, बोल, क्या देखेगी?’’

‘‘रौकी और रानी की लव स्टोरी देखें? मैं ने अब तक नहीं देखी है, सोचा था, तेरे साथ ही शुरू करूंगी. मैं तेरे फ्लैट पर जब आई थी, तब तेरा फ्लैटमेट अनुज आ गया था. मुझे लव स्टोरी तेरे साथ ही देखना अच्छा लगता है. इसलिए अब देख लें?’’

‘‘हांहां, चल, देखते हैं. वैसे अनुज है अच्छा, मेरी उस की काफी अच्छी बौडिंग हो गई है, तू जब आती है, वह बाहर चला जाता है, उस की गर्लफ्रैंड आती है तो मैं सामने वाले कैफे में जा कर बैठ जाता हूं. मुंबई में ऐसे फ्लैटमेट मिल जाएं तो सही रहता है. चल, मूवी लगा लें.’’

‘‘हां, देखते हैं,’’ दोनों ने 1-1 इयरबड लगाया, मूवी शरू हुई, फोन उन्होंने स्टैंड पर रख लिया था. बुजुर्ग ने सोचा, अब थोड़ी देर वे आराम कर सकते हैं पर दोनों ने मूवी देखते हुए भी इतनी बातें कीं, इतनी खुसुरफुसुर की कि वे बारबार टाइम देखने लगे कि अब इन से पीछा छूटने में कितनी देर है पर जैसे ही बुजुर्ग व्यक्ति को ?ापकी आई, राहुल की आवाज उन के कानों से टकराई, ‘‘ऐक्सक्यूज मी, अंकल, मेरी दोस्त को टौयलेट जाना है.’’

अंकल ने उसे बहुत निराश, कुछ गुस्से में घूरती हुई नजरों से देखा.

रूबी राहुल से कह रही थी, ‘‘अभी फ्लाइट लैंड होने ही वाली है, राहुल. मैं बस अभी अपना मेकअप ठीक कर के आई.’’

बुजुर्ग फिर एक तरफ उठ कर खड़े हो चुके थे. इतने में अनाउंसमैंट हुई कि अब यात्री अपनी सीट पर ही बैठे रहें. बुजुर्ग फिर बैठ गए. राहुल को गुस्सा आना शुरू हो गया, ‘‘फालतू फ्लाइट है. लैंड होने से इतनी देर पहले ही टौयलेट बंद कर दिया, रूबी. मैं सामान संभालता हूं, तू फ्रैश हो कर आ जाना.’’

बुजुर्ग ने मन ही मन कहा कि बेटा, फ्लाइट फालतू नहीं है, तुम दोनों की लव स्टोरी एकदम फालतू है.’’

उन्होंने आगेपीछे बैठे लोगों पर नजर डाली, उन्हें लगा, सब उन की इस बात से सहमत हैं.

कहानी : फ्रिजिड – सुहागरात के दिन सलमा के साथ क्या हुआ?

कहानी :  मन में हजारों सपने संजोए अनवर अपने सुहागरात के कमरे में दाखिल हुआ. सलमा फूलों से सजे पलंग पर सिकुड़ी बैठी थी, बिलकुल उसी तरह जिस तरह की उस ने कल्पना की थी.

अनवर रुक गया. उस की सम?ा में नहीं आया कि वह क्या करे? स्वयं उस के दिल की धड़कनें भी बढ़ गई थीं और माथे पर पसीने की बूंदें उभर आईर् थीं.

‘मैं भी कितना डरपोक हूं. स्वयं घबरा रहा हूं, जबकि घबराना तो सलमा को चाहिए,’ सोच कर वह दृढ़ निश्चय से आ कर पलंग पर बैठ गया.

अनवर के पैरों की आहट सुन कर सलमा ने सिर उठाया. फिर कुछ सिमट कर बैठ गई.

‘‘आदाब अर्ज है,’’ चंचल स्वर में अनवर ने सलमा को छेड़ा.

‘‘आदाब,’’ सलमा के स्वर में घबराहट थी. उस के माथे पर उभर आई पसीने की बूंदों को वह साफ देख रहा था.

अनवर जोर से हंस पड़ा और बोला, ‘‘देखो, मु?ा से इतना घबराने की कोई बात नहीं है. मैं कोई शेर तो हूं नहीं जो तुम्हें खा जाऊंगा. आराम से बैठो… पहले तो बड़े जोरशोर से वीडियो चैट करती रही अब ऐसे देख रही हो मानो पहली बार देखा हो.

अनवर की बात सुन कर सलमा कुछ झिझकी, फिर संभल कर बैठ गई.

कुछ देर कमरे में मौन छाया रहा. फिर अनवर बोला, ‘‘बुरा न मानो तो एक बात कहूं?’’

‘‘कहिए न.’’

‘‘देखो, रात के 3 तो बज ही गए हैं. घर वालों और विवाह के ?ामेलों की वजह से हमारी सुहागरात 2 घंटों की रह गई है. क्या हम बातों में ही यह समय भी गुजार दें?’’

‘‘जी?’’ सलमा का स्वर निर्भाव था.

‘‘बातें करने के लिए तो सारा जीवन पड़ा है. अब तो जीवनभर का साथ है, फिर क्यों न इन हसीन क्षणों में खो जाएं,’’ कहते हुए उस ने धीरे से सलमा का हाथ पकड़ लिया.

सलमा अपना हाथ छुड़ाने का प्रयत्न करने लगी. वह सलमा की ?ि?ाक को अनुभव कर रहा था. अभी वे एकदूसरे के लिए अजनबी हैं, इसलिए बीच में यह ?ि?ाक तो रहेगी ही.

सलमा के कोमल हाथों का स्पर्श पाते ही अनवर के शरीर में बिजलियां सी दौड़ने लगीं और वह उत्तेजित हो उठा. उस ने आगे बढ़ कर सलमा को बांहों में ले लिया तो सलमा बौखला उठी, ‘‘यह क्या कर रहे हैं आप?’’ उस की बांहों में कसमसाती वह बोली, ‘‘छोडि़ए.’’

 

अनवर ने सलमा के विरोध की ओर कोई ध्यान नहीं दिया. पहलेपहल तो

थोड़ा सा विरोध हर नवविवाहिता करती है. उस की पत्नी हुई तो क्या हुआ? अभी तो उस के लिए वह अजनबी है और यह उन के मिलन की पहली रात है.

‘‘छोडि़ए,’’ अचानक सलमा और जोर से चीख उठी और उस की बांहों से निकलने के लिए तड़फड़ाने लगी. अनवर ने जैसे ही सलमा के शरीर के गिर्द अपनी गिरफ्त मजबूत की, सलमा के होंठों से भयंकर चीख निकली और वह उस की बांहों में झेल गई.

अनवर बुरी तरह घबरा उठा. सलमा बेहोश हो गई थी.

सलमा की चीख सुन कर वाले भी जो सो चुके थे या सोने का प्रयत्न कर रहे थे, जाग गए.

‘‘अनवर… अनवर, दरवाजा खोलो,’’ सब दरवाजा पीटने लगे.

अनवर ने बेहोश सलमा को पलंग पर लिटाया और बंद दरवाजा खोल दिया.

‘‘क्या हुआ? क्या हुआ?’’ कहते सब भीतर घुस आए. स्वयं उस की सम?ा में नहीं आ रहा था कि वह उन्हें कैसे बताए कि क्या हुआ. शर्म से उस का बुरा हाल था.

‘‘सलमा… सलमा…’’ घर की 1-2 औरतें उसे जगाने का प्रयत्न करने लगीं.

‘‘अरे यह तो बेहोश है,’’ किसी ने कहा तो अनवरका मन धक से रह गया. घर वालों में से कोई डाक्टर को बुलाने के लिए भागा तो वह लोगों की नजरों से बचने के लिए कमरे से बाहर आ गया. उस की सम?ा में नहीं आ रहा था कि उस ने ऐसा क्या किया है जिस से सलमा बेहोश हो गई है. देर तक वह इसी के बारे में सोचता रहा.

अनवर ने तो सलमा को केवल छुआ ही था. उसे पता था कि बहुत सी लड़कियां प्रथम मिलन के भय से बेहोश हो जाती हैं, परंतु यहां तो ऐसी कोई बात नहीं थी और फिर जो लड़कियां कम उम्र या अनपढ़ होती हैं, उन के साथ ऐसी घटना घटने की संभावना रहती है. सलमा तो अच्छी पढ़ीलिखी है, इन बातों के बारे में अच्छी तरह से जानती है. उसे इन से डरने की क्या जरूरत है? डाक्टर आया और सलमा को इंजैक्शन दे गया, ‘‘शायद किसी बात से डर गई है. मैं ने इंजैक्शन दे दिया है. सवेरे तक आराम से सोती रहेगी. सवेरे जब जागेगी तो रात की सारी बातें भूल जाएगी. उस की आंख खुलने से पहले उसे न जगाया जाए,’’ और विजिट की मोटी फीस ले कर डाक्टर चला गया. आजकल ऐसे डाक्टर मिलते भी कहां हैं जो हाउस विजिट करें.

अनवर दूसरे कमरे में आ कर लेट गया था. मगर उस की आंखों से नींद कोसों दूर थी. उसे उस घटना पर झुंझलाहट हो रही थी. कभी सलमा पर क्रोध आता तो कभी अपना ही दोष अनुभव होता.

सवेरे जागने पर कई दोस्तों और गली के लोगों ने घेर लिया. वे अनवर से तरहतरह के प्रश्न कर रहे थे. उन्हें रात की घटना मालूम हो गई थी.

‘‘क्यों भई, रात वाला मामला क्या था?’’

‘‘अजी और क्या हो सकता है? अनवर साहब ने अपनी सारी मर्दानगी का सुबूत देने की कोशिश की होगी…’’

‘‘अरे भई, यह तो सोचा होता कि कहां वह नाजुक सी गुडि़या और कहा तुम फौलादी इनसान.’’

दोस्तों की बातें सुन कर अनवर झेंप उठा. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह इन बातों के क्या जवाब दे. बस, लज्जित सा चुपचाप बैठा रहा.

सलमा दोपहर तक उठी. वह आपा के पास जा बैठी. उस के चेहरे से तो ऐसा लग रहा था जैसे रात कुछ हुआ ही न हो.

स्नान और नाश्ता कर के अनवर घूमने चला गया. रात खाना खाने के बाद बहुत सोचने के बाद उस ने एक निर्णय ले लिया. उस ने आपा को बुला कर उन से कहा, ‘‘आपा, मेरे खयाल से सलमा के मस्तिष्क से रात वाली बात का प्रभाव दूर नहीं हुआ होगा, इसलिए आज उसे तुम अपने पास ही सुला लो.’’

‘‘ठीक है,’’ आपा बोलीं, ‘‘परंतु तुम्हारी विवशता पर कुछ तरस भी आता है,’’ आपा ने उसे छेड़ा तो वह आपा की शरारत पर झेंप उठा.

दूसरे दिन अनवर उठा तो ऐसा लग ही नहीं रहा था कि पहले दिन कुछ हुआ था. नाश्ता सलमा ने ही तैयार किया था और सारे घर वालों को उसी ने अपने हाथों से नाश्ता दिया था. उस का स्वभाव और घर के काम में निपुणता देख कर सभी खुश थे.

अनवर के लिए भी सलमा ने ही नाश्ता लगाया था. एकांत का लाभ उठा कर नाश्ता करते हुए उस ने सलमा को कई बार छेड़ा. उस के छेड़ने पर सलमा के कपोल अंगारों की तरह दहकने लगे थे. वह सिर ?ाका कर कह उठी, ‘‘जाइए… आप बड़े वह हैं.’’

दिनभर में ही सलमा घर वालों के लिए अजनबी न रह कर घर की वर्षों पुरानी सदस्य बन गई थी. वह हर किसी से इस तरह हंसबोल रही थी जैसे वे एकदूसरे को बरसों से जानते हों.

रात आपा ने मुसकरा कर कहा, ‘‘सुनो,

मैं ने उसे सम?ा दिया है, परंतु ज्यादा तंग नहीं करना, समझे?’’

‘‘जी,’’ अनवर ने शरारत भरे स्वर में कहा. जब वह कमरे में आया तो सलमा उस की राह देख रही थी. उस के व्यवहार में पहले सी झिझक नहीं थी. 2 दिन में कई बार आमनासामना हुआ था. कुछ बातें भी हुई थीं, इसलिए उन के बीच की झिझक और अजनबीपन दूर हो चुका था.

पलंग पर बैठ कर वे देर तक एकदूसरे के बारे में बातें करते रहे. मगर अनवर ने जैसे ही सलमा को छुआ उस के चेहरे पर भय के भाव उभर आए. वह विरोध करती हुई उस की बांहों से निकलने का प्रयत्न करने लगी और फिर जब वह उस की गिरफ्त से मुक्त नहीं हो सकी तो अचानक चीख मार कर उस की बांहों में बेहोश हो गई.

अनवर के माथे पर पसीने की बूंदें उभर आईं. उस ने तो कल्पना भी नहीं की थी कि आज फिर यह घटना घटित होती.

कुछ समय पहले सलमा के व्यवहार से ऐसा लग रहा था जैसे उस के मन का भय दूर हो चुका है. मगर इस घटना ने उसे फिर से परेशान कर दिया. ?ाल्ला कर सलमा को घर वालों पर छोड़ कर बाहर चला आया.

अनवर बुरी तरह तनावग्रस्त था. उस की सम?ा में नहीं आ रहा था कि दिन में उस के साथ इतने प्रेम से पेश आने वाली सलमा रात को उस के स्पर्श से इतनी भयभीत क्यों हो उठती है?

अगले दिन सलमा फिर सामान्य दिखाई पड़ रही थी. उस दिन भी आपस में हंसीमजाक व छेड़छाड़ चलती रही जैसे वह रात की बात भूल गई है. मगर इस रात फिर वही घटना घटी तो अनवर बुरी तरह झल्ला उठा.

इन घटनाओं के कारण अनवर को लोगों की नजरों में जितना लज्जित होना पड़ रहा था, उस के बारे में सोच कर उसे सलमा से घृणा सी होने लगी. हजारों शंकाएं उस के मन में कुलबुलाने लगीं. उसे सलमा का यह व्यवहार ढोंग लगने लगा. वह जितना इस बारे में सोचता उसे इस में सलमा की कोई चाल नजर आती और उस के मन में सलमा के लिए घृणा बढ़ती जाती.

सलमा के बेहोश हो जाने की बात सुन कर उस के अब्बा भी आ गए थे. उन्हें देख कर अनवर इतना उत्तेजिम हुआ कि उस के मन में आया उन से कह दे कि अपनी बेटी को ले जाइए, मु?ो इस पत्थर की मूरत की कोई आवश्यकता नहीं है.

‘‘मामला क्या है बेटे?’’ जब उन्होंने अनवर से पूछा तो उसे और अधिक क्रोध आ गया, ‘‘आप की बेटी मेरे साथ दिनभर तो ऐसा नाटक करती है जैसे वह मु?ो बहुत चाहती है. हंसहंस कर बड़ी प्यारभरी बातें करती है, परंतु जैसे ही मैं उसे छूता हूं, वह चीख कर बेहोश हो जाती है.’’

अनवर की बात सुन कर सलमा के अब्बा गंभीर हो गए. फिर बोले, ‘‘लगता है कि उस के मस्तिष्क से अभी तक उस घटना का प्रभाव दूर नहीं हुआ.’’

‘‘किस घटना का?’’ अनवर आश्चर्य से उन का मुंह ताकने लगा.

‘‘मैं तुम्हें इस के बारे में बताना भूल गया, बेटे.’’

जब सलमा छोटी थी तो एक विकृत दिमाग वाले व्यक्ति ने उस का रेप करने का प्रयत्न किया था. तब वह बहुत छोटी थी. उस व्यक्ति ने इस के शरीर को बुरी तरह नोच डाला था. तब से इस के मन में पुरुषों के प्रति भय बैठ गया है. कई दिनों तक तो यह मुझे देख कर भी चीखने लगती थी. किसी भी पुरुष को अपने समीप नहीं आने देती थी. फिर धीरेधीरे इस के मन का वह भय दूर हो गया और यह सामान्य हो गई. मगर यदि कोई पुरुष इसे छू भी लेता तो इस के चेहरे के भाव बदल जाते.

‘‘यह शायद उसी घटना का प्रभाव है कि तुम्हारे छूते ही यह बेहोश हो जाती है. यह सोचती है कि कहीं तुम भी इस के साथ वैसा ही दानवी व्यवहार न करो.’’

‘‘उफ,’’ सलमा की कहानी सुन कर अनवर ने अपना सिर पकड़ लिया. उस ने मन में सलमा के बारे में कितनी गलत बातें सोच ली थीं.

‘‘बेटे,’’ सलमा के अब्बा बोले, ‘‘सलमा के मस्तिष्क से सब से पहले वह भय निकालना पड़ेगा और उस भय को सिर्फ तुम ही निकाल सकते हो. यदि वह भय उस के मस्तिष्क से नहीं निकला तो शायद सलमा जीवनभर इसी तरह असामान्य रहेगी.’’

‘‘आप चिंता न कीजिए,’’ अनवर कुछ सोचता हुआ बोला, ‘‘अब सब ठीक हो जाएगा.’’

फिर अनवर बहुत देर तक सलमा के बारे में सोचता रहा. सलमा के साथ बचपन में जो दुर्घटना घटी थी, उस के कारण उस के छूते ही सलमा का भयभीत हो जाना स्वाभाविक था. उस घटना का सलमा के कोमल मस्तिष्क पर ऐसा कुप्रभाव पड़ा था कि जो भी पुरुष उसे छूने का प्रयत्न करता, उसे वह वही दानव नजर आता, जिस की दानवता का शिकार होतेहोते वह बची थी. उस के मस्तिष्क में यह घटना ताजा हो जाती और वह भयभीत हो जाती थी.

यह स्पष्ट तौर से एक मनोग्रंथि थी. अनवर सोचने लगा कि किस तरह सब से पहले सलमा के मस्तिष्क से यह भय दूर किया जाए. उस के लिए बहुत संयम से काम लेने की जरूरत थी और वह उस के लिए तैयार था.

उस रात अनवर सलमा के साथ पलंग पर बैठा उस से बातें कर रहा था. उन में हंसीमजाक चलता रहा. मगर इस बीच उस ने भूल कर भी सलमा को छूने का प्रयत्न नहीं किया.

उस घटना के बाद सलमा को पुरुषों के समीप रहने का बहुत कम अवसर मिला था,

इसलिए वह पुरुषों की समीपता से भयभीत हो जाती थी. सब से पहले तो अनवर सलमा के मन से यह भय निकालना चाहता था. वह यह बात उसे सम?ाना चाहता था कि पुरुष के समीप आने से कोई भय नहीं होता है. देर तक वे साथ बैठे हंसीमजाक और बातें करते रहे थे. फिर सलमा सो गई.

अनवर के लिए यह कड़ी परीक्षा की घड़ी थी. उस के समीप ही उस की सुंदर, जवान पत्नी सोई हुई है और वह उसे छू भी नहीं सकता.

उस रात पुरुषों के समीप रहने से सलमा को जो घबराहट होती थी, वह घबराहट और भय दूर हो गया था.

अगले दिन भी रात सोने से पहले वे काफी देर तक बातें करते रहे. उस दिन बातें करतेकरते अनवर ने एक कदम आगे बढ़ाया. बातें करतेकरते वह सलमा का हाथ पकड़ लेता था. इस से सलमा घबरा उठती और अपना हाथ छुड़ाने का प्रयत्न करती तो वह हाथ छोड़ देता. बारबार ऐसा करने से सलमा के मस्तिष्क में यह बात बैठ गई कि इस से कुछ नहीं होता है. किसी ने हाथ पकड़ लिया तो उस में भयभीत होने की कोई बात नहीं है.

अंत में अनवर बहुत देर तक सलमा का हाथ अपने हाथ में लिए बातें करता रहा. सलमा पूरी तरह सामान्य लग रही थी. इस का मतलब था कि वह अपने इरादे में सफल हो रहा है. एक और भय सलमा के मन से निकल चुका था.

सलमा के भीतर यौन इच्छाओं की जो आग थी, वह उस घटना से ठंडी हो चुकी थी. अब उस ठंडी आग को धीरेधीरे जगाने की जरूरत थी.

अगले दिन अनवर एक कदम और आगे बढ़ गया. अपनी बाजू में लेटी सलमा को बातें करतेकरते वह बांहों में ले लेता था. उस की इस हरकत पर सलमा बौखला जाती और उस की बांहों से निकलने के लिए कसमसाती तो वह हंसते हुए उसे छोड़ देता.

सलमा के चेहरे पर कृत्रिम क्रोध के भाव उभरते और वह लज्जाभरे स्वर में कहती, ‘‘जाइए, आप बड़े वह हैं,’’ तो वह प्यार से उस के गालों पर चुटकी ले लेता. इस प्रकार सलमा के मन से एक और भय निकल गया.

अनवर फिर सलमा को बांहों में ले लेता तो भी वह कोई विरोध नहीं करती. चुपचाप लेटे हुए उस की बातों पर हंसती रहती.

घर वालों को पता भी नहीं चल सका कि मामला क्या है. अनवर ने सम?ादारी से काम लिया तो मामला सुल?ा गया. यदि वह उत्तेजना से काम लेता तो नादानी में सलमा जैसी सुंदर, प्रेम करने वाली जीवनसंगिनी से हाथ धो बैठता.

सलमा के मस्तिष्क पर बचपन में घटी उस घटना का जो मनोवैज्ञानिक प्रभाव था, उस के दूर होने के साथ ही सलमा उस की कल्पना के अनुरूप जीवनसंगिनी बन जाने वाली थी.

अनवर के लिए यह एक परीक्षा थी और वह धैर्य के साथ उस परीक्षा के दौर से गुजर रहा था. अब सलमा का उस के प्रति सारा भय दूर हो गया था. वह उस की किसी भी हरकत से भयभीत नहीं होती.

1-2 बार अनवर ने सलमा को धीरे से चूम लिया तो उस का सारा चेहरा उत्तेजना से लाल हो उठा. उस के स्पर्श और चुंबन के आनंद से सलमा भी पुलकित हो उठी और उस आनंद को दोबारा पाने के लिए उस से लिपट गई.

वह रात अनवर के जीवन की अविस्मरणीय रात थी. यही उस की सुहागरात थी.

सलमा के भीतर जो आग ठंडी हो गई थी, वह उसे फिर से भड़काने में सफल हो गया था.

उस रात जहां अनवर जीवन के मधुर सुख से परिचित हुआ, वहीं उस ने सलमा को भी उस सुख से परिचित करा दिया. सलमा को अनुभव हो गया कि इस सुख का मानवीय जीवन में कितना महत्त्व है और वह उस के प्यार में दीवानी हो गई.

सलमा के भीतर की जो आग ठंडी हो गई थी, उस सुख को पा कर फिर से भड़क उठी. अब वह भी रैपिस्ट के चंगुल में नहीं थी, एक प्यारे, सुरक्षा देने वाले पति की बांहों में थी जहां सुख ही सुख है.

Kahani : पाखंड – आखिर क्या जान गई थी बहू?

Kahani : ‘‘दीदीजी, हमारी बात मानो तो आप भी पहाड़ी वाली माता के पास हो आओ. फिर देखना, आप के सिर का दर्द कैसे गायब हो जाता है,’’ झाड़ू लगाती रामकली ने कहा.

कल रात को लाइट न होने के कारण मैं रात भर सो नहीं पाई थी, इसलिए सिर में हलका सा दर्द हो रहा था, पर इसे कैसे समझाऊं कि दर्द होने पर दवा खानी चाहिए न कि किसी माता के पास जाना चाहिए.

‘‘रामकली, पहले मेरे लिए चाय बना लाओ,’’ मैं कुछ देर शांति चाहती थी. यहां आए हमें 3 महीने हो चुके थे. ऐसा नहीं था कि मैं यहां पहली बार आई थी. कभी मेरे ससुरजी इस गांव के सरपंच हुआ करते थे. पर यह बात काफी पुरानी हो चुकी है. अब तो इस गांव ने काफी उन्नति कर ली है.

30 साल पहले मेरी डोली इसी गांव में आई थी, पर जल्द ही मेरे पति की नौकरी शहर में लग गई और धीरेधीरे बच्चों की पढ़ाईलिखाई के कारण यहां आना कम हो गया. मेरे सासससुर की मृत्यु के बाद तो यहां आना एकदम बंद हो गया. अब जब हमारे बच्चे अपनेअपने काम में रम गए और पति रिटायर हो गए, तो फिर से एक बार यहां आनाजाना शुरू हो गया.

‘‘मेमसाहब, चाय,’’ रामकली ने मुझे चाय ला कर दी. अब तक सिरदर्द कुछ कम हो गया था. सोचा, थोड़ी देर आराम कर लूं, पर जैसे ही आंखें बंद कीं, गली में बज रहे ढोल की आवाजें सुनाई देने लगीं.

‘‘दीदीजी, आज पहाड़ी माता की चौकी लगनी है न… उस के लिए ही पूरे गांव में जुलूस निकल रहा है. आप भी चल कर दर्शन कर लो.’’

‘‘यह पहाड़ी वाली माता कौन है?’’ मैं ने पूछा, पर रामकली मेरी बात को अनसुना कर के जय माता दी कहती हुई चली गई.

थोड़ी देर बाद ढोल का शोर दूर जाता सुनाई दिया. तभी रामकली आ कर बोली, ‘‘लो दीदी, मातारानी का प्रसाद,’’ और फिर अपने काम में लग गई.

कुछ दिनों बाद रामकली ने मुझ से छुट्टी मांगी. मैं ने छुट्टी मांगने का कारण पूछा तो बोली, ‘‘दीदी, माता की चौकी पर जाना है.’’ मैं ने ज्यादा नानुकर किए बिना छुट्टी

दे दी.

मेरे पति अपना अधिकतर समय मेरे ससुरजी के खेतों पर ही बिताते. सेवानिवृत्त होने के बाद यही उन का शौक था. मैं घर पर कभी किताबें पढ़ कर तो कभी टीवी देख कर समय बिताती थी. पासपड़ोस में कम ही जाती थी. अगले दिन जब रामकली वापस आई तो बस सारा वक्त माता का ही गुणगान करती रही. शुरूशुरू में मुझे ये बातें बोर करती थीं, पर फिर धीरेधीरे मुझे इन में मजा आने लगा. मैं ने भी इस बार चौकी में जाने का मन बना लिया. सोचा, थोड़ा टाइम पास हो जाएगा.

मैं ने रामकली से कहा तो वह खुशी से झूम उठी और बोली, ‘‘दीदी, यह तो बहुत अच्छा है. आप देखना, आप की हर मुराद वहां पूरी हो जाएगी.’’

कुछ दिनों बाद मैं भी रामकली के साथ मंदिर चली गई. इस मंदिर में मैं पहले भी अपनी सास के साथ कई बार आई थी, पर अब तो यह मंदिर पहचान में नहीं आ रहा था. एक छोटे से कमरे में बना मंदिर विशाल रूप ले चुका था. जहां पहले सिर्फ एक फूल की दुकान होती थी वहीं अब दर्जनों प्रसाद की दुकानें खुल चुकी थीं और इतनी भीड़ कि पूछो मत.

रामकली मुझे सीधा आगे ले गई. मंच पर एक बड़ा सिंहासन लगा हुआ था. रामकली मंच के पास खड़े एक आदमी के पास जा कर कुछ कहने लगी, फिर वह आदमी मेरी ओर देख कर मुसकराते हुए नमस्ते करने लगा. मैं ने भी नमस्ते का जवाब दे दिया.

रामकली फिर मेरे पास आ कर बोली, ‘‘दीदी, वह मेरा पड़ोसी राजेश है. जब से माताजी की सेवा में आया है, इस के वारेन्यारे हो गए हैं. पहले इस की बीवी भी मेरी तरह ही घरों में काम करती थी, पर अब देखो माता की सेवा में आते ही इन के भाग खुल गए. आज इन के पास सब कुछ है.’’

थोड़ी देर बाद वहां एक 30-35 वर्ष की महिला आई, जिस ने गेरुआ वस्त्र पहन रखे थे. माथे पर बड़ा सा तिलक लगा रखा था और गले में रुद्राक्ष की माला पहनी हुई थी.

उस के मंच पर आते ही सब खड़े हो गए और जोरजोर से माताजी की जय हो, बोलने लगे. सब ने बारीबारी से मंच के पास जा कर उन के पैर छुए. पर मैं मंच के पास नहीं गई, न ही मैं ने उन के पैर छुए. 20-25 मिनट बाद ही माताजी उठ कर वापस अपने पंडाल में चली गईं.

माताजी के जाते ही लाउडस्पीकर पर जोरजोर से आवाजें आने लगीं, ‘‘माताजी का आराम का वक्त हो गया है. भक्तों से प्रार्थना है कि लाइन से आ कर माता के सिंहासन के दर्शन कर के पुण्य कमाएं.’’

अजीब नजारा था. लोग उस खाली सिंहासन के पाए को छू कर ही खुश थे.

‘‘दीदी चलो, राजेश ने माताजी के विशेष दर्शन का प्रबंध किया है,’’ रामकली के कहने पर मैं उस के साथ हो गई.

‘‘आओआओ, अंदर आ जाओ,’’ राजेश हमें कमरे के बाहर ही मिल गया. कमरे के अंदर से अगरबत्ती की खुशबू आ रही थी. हलकी रोशनी में माताजी आंखें बंद कर के बैठी थीं. हम उन के सामने जा कर चुपचाप बैठ गए.

थोड़ी देर बाद माताजी की आंखें खुलीं, ‘‘देवी, आप के माथे की रेखाएं बता रही हैं कि आप के मन में हमें ले कर बहुत सी उलझनें हैं…देवी, मन से सभी शंकाएं निकाल दो. बस, भक्ति की शक्ति पर विश्वास रखो.’’

उन की बातें सुन कर मैं मुसकरा दी.

कुछ देर रुक कर वह फिर बोलीं, ‘‘तुम एक सुखी परिवार से हो…तुम्हारे कर्मों का फल है कि तुम्हारे परिवार में सब कुछ ठीक चल रहा है पर देखो देवी, मैं साफसाफ देख सकती हूं कि तुम्हारे परिवार पर संकट आने वाला है. यह संकट तुम्हारे पति के पिछले जन्म के कर्मों का फल है,’’ और माताजी ने एक नजर मुझ पर डाली.

‘‘संकट…माताजी कैसा संकट?’’ मुझ से पहले ही रामकली बोल पड़ी.

‘‘कोई घोर संकट का साया है…और वह साया तुम्हारे बेटे पर है,’’ फिर एक बार माताजी ने मुझ पर गहरी नजर डाली, ‘‘पर इस संकट का समाधान है.’’

‘‘समाधान…कैसा समाधान?’’ इस बार मैं ने पूछा.

‘‘आप के बेटे की शादी को 3 साल हो गए, पर आप आज तक पोते पोतियों के लिए तरस रही हैं,’’ माताजी के मुंह से ये बातें सुन कर मैं सोच में पड़ गई.

माताजी ने आगे बोलना शुरू किया, ‘‘देवीजी, आप का बेटा किसी दुर्घटना का शिकार होने वाला है, पर आप घबराएं नहीं. हम बस एक पूजा कर के सब संकट टाल देंगे और आप के बेटे को बचा लेंगे…यही नहीं, हमारी पूजा से आप जल्दी दादी भी बन जाएंगी.’’

मेरी समझ काम करना बंद कर चुकी थी. मुझे परेशान देख कर रामकली बोली, ‘‘माताजी, आप जैसा कहेंगी, दीदीजी वैसा ही करेंगी…ठीक कहा न दीदी?’’ रामकली ने मुझ से पूछा पर मैं कुछ न कह पाई. बेटे की दुर्घटना वाली बात ने मुझे अंदर तक हिला दिया.

मेरी चुप्पी को मेरी हां मान कर रामकली ने माताजी से पूजा की विधि पूछी तो माताजी बोलीं, ‘‘पूजा हम कर लेंगे…बाकी बात तुम्हें राजेश समझा देगा…देवी, चिंता मत करना हम हैं न.’’

घर आ कर मैं ने सारी बात अपने पति को बताई. मैं अपने बेटे को ले कर काफी परेशान हो गई थी. मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था. सारी बातें सुन कर मेरे पति बोले, ‘‘शिखा, तुम पढ़ीलिखी हो कर कैसी बातें करती हो? ये सब इन की चालें होती हैं. भोलीभाली औरतों को कभी पति की तो कभी बेटे की जान का खतरा बता कर और मर्दों को पैसों का लालच दे कर ठगते हैं. तुम बेकार में परेशान हो रही हो.’’

‘‘पर अगर उन की बात में कुछ सचाई हुई तो…देखिए पूजा करवाने में हमारा कुछ नहीं जाएगा और मन का डर भी निकल जाएगा…आप समझ रहे हैं न?’’

‘‘हां, समझ रहा हूं…जब तुम जैसी पढ़ीलिखी औरत इन के झांसे में आ गई तो गांव के अनपढ़ लोगों को यह कैसे पागल बनाते होंगे…देखो शिखा, रामकली जैसे लोग इन माताओं और बाबाओं के लिए एजैंट की तरह काम करते हैं. तुम्हारी समझ में क्यों नहीं आ रहा,’’ मेरे पति गुस्से से बोले, फिर मेरे पास आ कर बोले, ‘‘तुम इस माता को नहीं जानती. कुछ महीने पहले यह अपने पति के साथ इस गांव में आई थी. पति महंत बन गया और यह माता बन गई. मंदिर के आसपास की जमीन पर भी गैरकानूनी कब्जा कर रखा है. हम लोगों को तो इन के खिलाफ कुछ करना चाहिए और हम ही इन के जाल में फंस गए…शिखा, सब भूल जाओ और अपने दिमाग से डर को निकाल दो.’’

पति के सामने तो मैं चुप हो गई पर सारी रात सो नहीं पाई.

अगले दिन रामकली ने आ कर बताया कि पूजा के लिए 5 हजार रुपए लगेंगे. मैं ने पति के डर से उसे कुछ दिन टाल दिया. पर मन अब किसी काम में नहीं लग रहा था. 3 दिन बीत गए. इन तीनों दिनों में मैं कम से कम 7 बार अपने बेटे को फोन कर चुकी थी, पर मेरा डर कम नहीं हो रहा था.

1 हफ्ता बीत चुका था. दिल में आया कि अपने पति से एक बार फिर बात कर के देखती हूं, पर हिम्मत नहीं कर पाई. फिर एक दिन रामकली ने आ कर बताया कि माताजी ने कहा है कि कल पूर्णिमा है. पूजा कल नहीं हुई तो संकट टालना मुश्किल हो जाएगा. मेरे पास कोई जवाब नहीं था.

रामकली के जाने के बाद मन में गलत विचार आने लगे. मैं ने बिना अपने पति को बताए पैसे देने का फैसला कर लिया. मैं ने सोचा कि कल पूजा हो जानी चाहिए. इस के लिए मुझे अभी पैसे रामकली को दे देने चाहिए, यह सोच कर मैं रामकली के घर पहुंच गई. वहां पता चला कि वह मंदिर गई है.

मेरे पति के आने में अभी वक्त था, इसलिए मैं तेजतेज कदमों से मंदिर की ओर चल दी. मंदिर में आज रौनक नहीं थी, इसलिए मैं सीधी माताजी के कमरे की ओर चल दी. माता के कमरे के बाहर मेरे कदम रुक गए. अंदर से रामकली की आवाजें आ रही थीं, ‘‘मैं ने तो बहुत कोशिश की माताजी पर वह शहर की है. इतनी आसानी से नहीं मानेगी.’’

‘‘अरे रामकली, तुम नईनई इस काम में आई हो, जरा सीखो कुछ राजेश से…इस का फंसाया मुरगा बिना कटे यहां से आज तक नहीं गया,’’ यह आवाज माताजी की थी.

‘‘यकीन मानिए माताजी, मैं ने बहुत कोशिश की पर उस का आदमी नहीं माना. साफ मना कर दिया उसे.’’

अब तक मुझे समझ आ गया था कि यहां मेरे बारे में ही बातें चल रही हैं.

‘‘देख रामकली, तेरा कमीशन तो हम काम पूरा होने पर ही देंगे, तू उस से 5 हजार रुपए ले आ और अपने 500 रुपए ले जा…अगर उस का आदमी नहीं मान रहा तो तू कोई और मुरगा पकड़,’’ राजेश बोला, ‘‘हां, वह दूध वाले की बेटी की शादी नहीं हो रही…अगली चौकी पर उस की घरवाली को ले कर आ…वह जरूर फंस जाएगी.’’

बाहर खडे़खड़े सब सुनने के बाद मुझे खुद पर गुस्सा आ रहा था. मैं वहां से चली आई, पर अंदर ही अंदर मैं खुद को कोस रही थी कि मैं कैसे इन के झांसे में आ गई. मेरी आंखें भर चुकी थीं और खुल भी चुकी थीं कितने सही थे मेरे पति, जो इन लोगों को पहचान गए थे.

शाम को जब मेरे पति घर आए तो मैं ने उन को एक लिफाफा दिया.

‘‘यह क्या है?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘आप ने ठीक कहा था इन पाखंडियों के चक्कर में नहीं आना चाहिए. ये जाल बिछा कर इस तरह फंसाते हैं कि शिकार को पता भी नहीं चल पाता और उस की जेब खाली हो जाती है,’’ मैं ने कहा.

Stories : वह बदनाम लड़की – आकाश की जिंदगी में कैसे आया भूचाल

Stories : आकाश जैसे एक खूब पढ़ेलिखे व काबिल इनसान की एक कालगर्ल से यारी…? यकीन मानिए, वह अपनी पत्नी प्रिया को पूरा प्यार देने वाला अच्छा इनसान है और हवस मिटाने के लिए यहांवहां झांकना भी उसे हरगिज गवारा नहीं है. इस के बावजूद वह टीना को दिलोजान से चाहता है, उस की इज्जत करता है.

आप के दिमाग में चल रही कशमकश मिटाने के लिए हम आप को कुछ पीछे के समय में ले चलते हैं. कुछ साल हो गए हैं आकाश को बैंगलुरु आए हुए. एक छोटे कसबे से निकल कर इस महानगरी की एक निजी कंपनी में जब क्लर्की का काम मिला तो पत्नी प्रिया को भी वह अपने साथ यहां ले आया था और उस के नन्हेमुन्ने प्रियांशु ने भी यहीं पर जन्म लिया था.

औफिस से अपने किराए के घर और घर से औफिस, यही आकाश की दिनचर्या बन चुकी थी. ऐसे ही एक दिन वह बस में सवार हो कर औफिस जा रहा था कि कंडक्टर की बहस ने उस का ध्यान खीच लिया. एक बेहद हसीन लड़की शायद पैसे घर पर ही भूल आई थी और कंडक्टर बड़े शांत भाव से पैसों का तकाजा कर रहा था. उस लड़की के चेहरे के भाव उस की परेशानी बयां करने के लिए काफी थे.

न जाने आकाश के मन में क्या आया कि उस ने लड़की के टिकट के पैसे अदा कर दिए. वह उसे ‘थैंक्स’ कह कर पीछे की सीट पर बैठ गई. आकाश ने भी पैसों को ज्यादा तवज्जुह नहीं दी और अपना स्टौप आते ही नीचे उतर गया.

आकाश कुछ कदम ही चला था कि हांफते हुए वह लड़की एकदम उस के आगे आ कर खड़ी हो गई और बोली, ‘‘सर… आप के पैसे मैं कल लौटा दूंगी. हुआ यह कि मैं आज जल्दी में अपने पर्स में पैसे डालना ही भूल गई.’’

आकाश ने उस का चेहरा देखा तो अपलक निहारता ही रह गया. फिर जैसे उसे अपनी हालत का बोध हुआ. उस ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘मैडम, वह इनसान ही क्या, जो इनसान के काम न आए. आप पैसों की टैंशन न लें.’’

‘‘नहीं सर, आप ने आज मुझे शर्मिंदा होने से बचा लिया. प्लीज, मुझे अपना घर या औफिस का पता बता दें. मैं किसी का अहसान नहीं रख सकती.’’

‘‘तो फिर कल मैं बिना टिकट बस में चढ़ूंगा. आप मेरा टिकट ले कर अहसान चुका देना,’’ आकाश के इस अंदाज ने उस लड़की के होंठों पर हंसी बिखेर दी.

साथसाथ चलते हुए आकाश को पता चला कि उस का नाम टीना है और वह प्राइवेट नौकरी करती है. काम के बारे में पूछने पर वह हंस कर टाल गई. साथ ही, यह भी पता चला कि वह इस महानगरी के पौश इलाके छायापुरम में रहती है. बाकी उस की बातें, उस का लहजा उस के ज्यादा पढ़ेलिखे होने का सुबूत दे ही रहा था.

आकाश ने उसे वापसी के खर्च के लिए 100 रुपए देने चाहे, लेकिन उस ने कहा कि उस की सहेली इस जगह काम करती है. वह उस से पैसा ले लेगी.

आकाश के औफिस का पता ले कर पैसे आजकल में लौटाने की बात

कह कर वह चली गई. न जाने उस छोटी सी मुलाकात में क्या जादू था कि आकाश दिनभर टीना के बारे में ही सोचता रहा.

अगले दिन आकाश ने टीना का इंतजार किया, पर वह नहीं आई. कुछ दिन बीत गए. आकाश के दिमाग से अब वह पूरा वाकिआ निकल ही गया था.

आज काम की भारी टैंशन थी. आकाश अपने केबिन में फाइलों में सिर खपाए बैठा था कि किसी ने पुकारा, ‘‘हैलो, सर.’’

काम की चिंता में गुस्से से सिर उठाया तो सामने टीना को देख आकाश का सारा गुस्सा काफूर हो गया.

‘‘सौरी सर, मैं आप के पैसे तुरंत नहीं लौटा पाई. दरअसल, मेरा इस तरफ आना ही नहीं हुआ,’’ वह एक ही सांस में कह गई.

आकाश ने उसे कुरसी पर बैठने का इशारा करते हुए चपरासी को कौफी लाने को बोल दिया. इस बीच उन दोनों में हलकीफुलकी बातों का दौर शुरू हो गया.

आकाश को अच्छा लगा, जब टीना ने उस के बारे में, उस के परिवार और उस के शौक का भी जायजा लिया. लेकिन तब तो और भी अच्छा लगा, जब आकाश के शादीशुदा होने की बात सुन कर भी उस के चेहरे पर किसी तरह के नैगेटिव भाव नहीं उभरे.

आकाश अंदाजा लगाने लगा कि टीना उस के बारे में क्या सोच बना रही होगी, पर वह नहीं चाहता था कि उस से बातों का यह सिलसिला यहीं टूट जाए.

आकाश की इस हालत को टीना ने भी महसूस किया और कौफी की घूंट भर कर कहा, ‘‘आकाशजी, आज तक न जाने मैं कितने मर्दों से मिली हूं लेकिन आप से जितनी प्रभावित हुई हूं, उतनी कभी किसी से नहीं हुई.’’

आकाश खुद पर ही इतरा गया. आखिर में उस के जज्बात शब्दों में उमड़ ही आए, ‘‘क्या हम अच्छे दोस्त बन सकते हैं?’’

टीना ने मूक सहमति तो दी, लेकिन यह भी साफ कर दिया कि आकाश के शादीशुदा होने के चलते उस की पत्नी प्रिया को वह दोस्ती हरगिज गवारा नहीं होगी. पर आकाश का बावला मन तो किसी भी तरह उस के साथ के लिए छटपटा रहा था. आकाश ने बचकाने अंदाज में बोल दिया, ‘‘हमारी दोस्ती के बारे में प्रिया को कभी पता नहीं चलेगा. मैं दोस्ती तो निभाऊंगा, पर पति धर्म मेरे लिए बढ़ कर होगा.’’

टीना ने सहमति जताई और आकाश को अपना मोबाइल नंबर दे कर चली गई. आकाश फिर से अपने काम में जुट गया. फाइलों का जो ढेर उसे सिरदर्दी दे रहा था, अब वह पलक झपकते ही निबट गया.

मोबाइल फोन पर मैसेज और बातों का सिलसिला शुरू हो गया. शाम को टीना ने आकाश को अपने घर बुला लिया. घर क्या आलीशान बंगला था, जिस के आसपास सन्नाटा पसरा हुआ था. टीना के दरवाजा खोलते ही शराब का तेज भभका आकाश की नाक से टकराया. टीना ने उसे भीतर बुला कर दरवाजा बंद कर दिया.

आकाश कुछ सोचनेसमझने की कोशिश करता, इस से पहले ही टीना ने उसे बैठने का संकेत किया और खुद उस के सामने सोफे पर पसर गई और बोली, ‘‘तुम मेरा यह अंदाज देख कर हैरान हो रहे होगे न. दरअसल, आज मैं तुम से अपनी जिंदगी के कुछ गहरे राज बांटना चाहती हूं.’’

चंद पल चुप रहने के बाद टीना बोली, ‘‘हम अपनी जिंदगी में एक नकाब ओढ़े रहते हैं. यह ऊपर का जो चेहरा है न, यह सब को दिखता है, पर जो चेहरा अंदर है उसे कोई दूसरा नहीं देख पाता. तुम भी सोच रहे होगे कि मैं कैसी बहकीबहकी बातें कर रही हूं. पर आकाश, मैं ने तुम्हारे अंदर एक सच्चा इनसान, एक सच्चा दोस्त देखा है

जो जिस्म नहीं, दिल देखता है. और इस दोस्त से मैं भी कुछ छिपा

कर नहीं रखना चाहती… तुम मेरी नौकरी पूछते थे न? तो सुनो, मैं एक कालगर्ल हूं,’’ इतना कह कर वह ठिठक गई.

आकाश को झटका सा लगा. उस के होंठ कुछ कहने को थरथराए, इस

से पहले ही टीना बोली, ‘‘मेरी कोई मजबूरी नहीं थी, न ही किसी ने मुझे जबरन इस धंधे में धकेला. मेरे बीटैक होने के बावजूद कोई भी नौकरी, कोई भी तनख्वाह मेरी ऐशोआराम की जरूरतें, मेरे शाही ख्वाब पूरे नहीं कर सकती थी, इसलिए मैं ने अपने रूप, अपनी जवानी के मुताबिक देह का धंधा चुना. तुम यह जो आलीशान फ्लैट देख रहे हो, यह मैं नौकरी कर के कभी नहीं बना सकती थी.

‘‘आकाश, मैं ने बहुत पैसा कमाया, बहुत संबंध बनाए, लेकिन रिश्ता नहीं कमा सकी. मैं कोई ऐसा शख्स चाहती थी जिसे मैं खुल कर अपनी भावनाएं साझा कर सकूं. लेकिन हर किसी की नजरें मेरे जिस्म से हो कर गुजरती थीं. यही वजह है कि तुम्हारे अंदर की सचाई देख कर मैं खुद तुम्हारी दोस्ती को उतावली थी. पर मुझे यह मंजूर नहीं

हो रहा था कि मैं अपने दोस्त को अंधेरे में रखूं,’’ कह कर उस ने आकाश को सवालिया नजरों से देखा.

‘‘टीना, मैं तुम्हारे काम के बारे में सुन कर चौंका तो जरूर हूं, लेकिन मुझे झटका नहीं लगा. तुम ने जिस बेबाकी से मुझे अपने बारे में बताया, उसे जान कर मेरी दोस्ती और गहरी हुई है.

‘‘मेरी जानकारी में ऐसी कई और

भी लड़कियां और औरतें हैं, जिन्होंने शराफत का चोला ओढ़ रखा है, लेकिन उन के नाजायज रिश्तों ने आपसी रिश्तों को ही बदनाम कर दिया है. भले ही यह पेशा अपनाना तुम्हारी मजबूरी न हो, लेकिन दिलोदिमाग और जिस्मानी मेहनत तो इस में भी है. हर किसी को अपनी जरूरत के मुताबिक काम चुनने का हक है. कानून और समाज भले ही इसे नाजायज माने, लेकिन मैं इस में कुछ भी गलत नहीं मानता.’’

‘‘दोस्त, मैं तुम्हारी सोच की कायल हूं. अच्छा यह बताओ, क्या पीना चाहोगे…’’

‘‘फिलहाल तो मैं कुछ नहीं लूंगा. अच्छा, तुम्हारे परिवार में और कौनकौन हैं?’’

‘‘मेरी मम्मी बचपन में ही चल बसी थीं और पापा की मौत 2 साल पहले हुई. वे इलाहाबाद में रहते थे लेकिन अपनी आजादी के चलते मैं ने बैंगलुरु आना ही मुनासिब समझा. अच्छा, यह बताओ कि तुम्हारा चेहरा क्यों लटका हुआ है.’’

‘‘कोई खास बात नहीं है,’’ कह कर आकाश ने टालने की कोशिश की, पर टीना के जोर देने पर उसे बताना पड़ा, ‘‘मेरा नया बौस मुझे बेवजह परेशान कर रहा है.’’

‘‘चिंता न करो. सब ठीक हो जाएगा. अब तो मेरे हाथ की बनी कौफी ही तुम्हारा मूड ठीक करेगी,’’ टीना ने कहा.

कौफी वाकई उम्दा बनी थी. तरावट महसूस करते हुए आकाश ने उस से विदा लेनी चाही. न जाने आकाश के दिल में क्या भाव उभरे कि उस ने टीना से लिपट कर उस का चेहरा चूमना चाहा, तो वह छिटक कर पीछे हट गई और बोली, ‘‘दोस्त, दूसरों और तुम्हारे बीच में बस यही तो फासला है. क्या इसे भी मिटाना चाहोगे…’’

गर्मजोशी से इनकार में सिर हिलाते हुए आकाश ने उस से विदा ली.

अगले 2 दिनों में बौस के तेवर बिलकुल बदले देखे तो आकाश को यकीन न हुआ. साथ में काम करने वालों में से एक ने कहा, ‘‘यार, क्या जादू चलाया है तू ने? कल तक तो यह तुझे काट खाने को दौड़ता था और अब तो तेरा मुरीद हो कर रह गया है. अब तो तेरी प्रमोशन पक्की.’’

अगले ही महीने आकाश का प्रमोशन कर दिया गया. जब उस ने यह खुशखबरी टीना को सुनाई, तो उस ने मुबारकबाद दी.

आकाश ने पूछा, ‘‘यह सब कैसे हुआ टीना?’’

‘‘बौस शायद तुम्हारे काम से खुश हो गया होगा.’’

‘‘टीना, प्लीज सच क्या है?’’

‘‘सच तो यह है कि मुझ से अपने दोस्त का लटका चेहरा देखा नहीं

गया और…’’

‘‘और क्या?’’

‘‘और यह कि सख्त दिखने वाले बुढ़ऊ ही महफिल में हुस्न के तलबे चाटते हैं. वैसे, तुम चिंता न करो. उसे मेरी और तुम्हारी दोस्ती की कोई खबर नहीं है.’’

‘‘टीना, मेरे लिए तुम ने…’’

‘‘बस, अब भावुक मत होना. और कोई परेशानी हो तो साफ बताना.’’

उस दिन से आकाश के मन में टीना के लिए और ज्यादा इज्जत बढ़ गई. वह उस के लिए सच्चे दोस्त से बढ़ कर साबित हुई.

कुछ दिन बाद जब आकाश ने अपने लिए एक छोटा सा घर खरीदने के लिए बैंक के कर्ज के बावजूद 2 लाख रुपए कम पड़े तो टीना ने उसे इस मुसीबत से भी उबार दिया.

हालांकि आकाश ने उसे वचन दिया कि भविष्य में वह यह रकम उसे जरूर वापस लौटाएगा.

अब आकाश के दिल में टीना के लिए प्यार की भावना उछाल मारने लगी थी. लेकिन उस ने कभी इन जज्बातों को खुद पर हावी न होने दिया. वह औफिस से छुट्टी के बाद आज शाम को फिर टीना के घर पर था.

‘‘टीना, मैं तुम्हारा सब से अच्छा दोस्त हूं तो फिर मुझ से ऐसी दूरी क्यों?’’

‘‘आकाश, अकसर हम मतलबी बन कर दूसरे रिश्तों खासकर अपनों को भूल जाते हैं. फिर क्या तुम नहीं मानते कि दोस्ती दिलों में होनी चाहिए, जिस्म की तो भूख होती है?’’

‘‘मैं कुछ नहीं समझना चाहता. मेरे लिए तुम ही सबकुछ हो…’’ भावनाओं के जोश में आकाश ने लपक कर उसे अपनी बांहों के घेरे में कस लिया. उस के लरजते लबों ने जैसे ही टीना के तपते गालों को छुआ, उस की आंखें मुंद गईं. सांसों के ज्वारभाटे के साथ ही उस की बांहें भी आकाश पर कसती चली गईं.

‘टिंगटांग…’ तभी दरवाजे की घंटी बजते ही टीना आकाश से अलग हुई. उसे जबरन एक तरफ धकेल कर टीना ने दरवाजा खोला. कोरियर वाला उसे एक लिफाफा थमा कर चला गया. आकाश ने लिफाफे की बाबत पूछा तो उस ने लिफाफा अलमारी में रख कर बात टाल दी.

जब आकाश ने दोबारा उसे अपनी बांहों में लिया तो उस ने आहिस्ता से खुद को उस की पकड़ से छुड़ा लिया और बोली, ‘‘नहीं आकाश, यह सब करना ठीक नहीं है.’’

आकाश नाराजगी जताते हुए वहां से चला गया.

अगले दिन जब सुबह टीना ने मोबाइल फोन पर बात की तो आकाश ने काम का बहाना बना कर फोन काट दिया. वह चाहता था कि टीना को अपनी गलती का अहसास हो.

रात को 10 बजे मोबाइल फोन बज उठा. टीना का नंबर देख कर आकाश कांप गया. नजर दौड़ाई. प्रिया और प्रियांशु सो रहे थे. उस ने फोन काट दिया. मोबाइल फोन फिर बजने पर आकाश ने रिसीव किया तो उधर से टीना का बड़ा धीमा स्वर सुनाई दिया. ‘‘हैलो आकाश, कैसे हो? नाराज हो न?’’

आकाश नहीं चाहता था कि प्रिया उठ जाए और उसे टीना की भनक तक लगे, इसलिए फौरन कहा, ‘‘नहीं, नाराज नहीं. कहो, कैसे याद किया?’’

‘‘दोस्त, तुम्हारी बड़ी याद आ रही है. मैं तुम्हें अभी अपने पास देखना चाहती हूं.’’

‘‘ठीक है, मैं देखता हूं.’’

तभी प्रिया ने करवट बदली तो आकाश ने फोन काट कर मोबाइल स्विच औफ कर दिया. अब जाने का तो सवाल ही नहीं उठता था. प्रिया को क्या जवाब देगा भला… और टीना को इस समय फोन करने की क्या सूझी? कल तक इंतजार नहीं कर सकती थी?

इसी उधेड़बुन में आकाश की आंख लग गई.

सुबह उठते ही प्रिया ने रोज की तरह अखबार की सुर्खियों को टटोलते हुए कहा, ‘‘छायापुरम में अकेली रहने वाली कालगर्ल की मौत.’’

आकाश फौरन बिस्तर से उठ कर बैठ गया. खबर में उस की उत्सुकता देख प्रिया ने पूरी खबर पढ़ी, ‘‘छायापुरम में तनहा जिंदगी बसर करने वाली टीना की कल देर रात ब्रेन हैमरेज से मौत हो गई. वह देह धंधे से जुड़ी बताई जाती थी. डाक्टर के मुताबिक टीना काफी समय से दिमागी कैंसर से पीडि़त थी. कल रात हालत बिगड़ने पर पड़ोसियों ने उसे अस्पताल पहुंचाया, लेकिन रास्ते में ही उस ने दम तोड़ दिया.’’

खबर पढ़ने के बाद प्रिया ने कह दिया, ‘‘ऐसी औरतों का तो यही हश्र होता है,’’ और उस ने आकाश की तरफ देखा.

आकाश की आंखों में पानी देख कर उस ने वजह पूछी. आकाश ने सफाई दी, ‘‘कुछ नहीं, आंखों में कचरा चला गया है. मैं अभी आंखें धो कर आता हूं.’’

संदीप कुमार

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