Winter Special: नौनवेज को टक्कर देती सोया चाप करी

नाम से ही आकर्षित करने वाला सोया चाप करी खाने में और भी ज्यादा स्वादिष्ट है. जानिए सोया चाप करी की रेसिपी.

बनाने में समयः 30 मिनट

लोग: 4 के लिए

सामग्री:

250 ग्राम सोया चाप,

3 टमाटर,

1 अदरक,

1 हरी मिर्च,

100 ग्राम क्रीम,

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3-4 टेबल स्पून तेल,

1 चुटकी हींग,

1/4 छोटी चम्मच जीरा,

बारीक कटा हुआ हरा धनिया,

1/4 छोटी चम्मच हल्दी पाउडर,

1/4 छोटी चम्मच लाल मिर्च,

गर्म मसाला,

छोटी चम्मच कसूरी मेथी और नमक स्वादानुसार

बनाने की विधि:

सोया चाप को 1 से 1.5 इंच के टुकड़ों में काट लीजिए. पैन में तेल गर्म करके उसमें चाप डालें और हल्का भूरा होने पर प्लेट में निकाल कर रख लीजिए.

अब टमाटर, अदरक व हरी मिर्च का पेस्ट बना लीजिए. पैन के बचे तेल में जीरा डाल दीजिए और भुनने के बाद हींग, हल्दी पाउडर, धनियां पाउडर, कसूरी मेथी और साबुत गर्म मसाले, काली मिर्च, दाल चीनी, लौंग और इलायची को छील कर डाल दीजिए. अब मसाले को हल्का-सा भूनिए, उसमें टमाटर, अदरक व हरी मिर्च का पेस्ट डालिए.

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मसाले में से तेल अलग होने पर इसमें गर्म मसाला डालिए और क्रीम डालकर लगातार चलाते हुए मसाले में उबाल आने तक पकाएं. मसाले में उबाल आने पर इसमें 1/2 कप पानी डालिए और इसे लगातार चलाते हुए एक बार फिर से उबाल दिलवाएं. अब थोड़ा-सा हरा धनियां डालकर ग्रेवी में मिला दीजिए.

ग्रेवी में उबाल आने पर इसमें नमक डाल दीजिए और सोया चाप डाल कर मिक्स कर लीजिए. अब धीमी आंच पर सब्जी को ढककर 4-5 मिनट पकने दीजिए.

फ्लू से बचने के लिए महिलाएं कंट्रोल रखें एस्ट्रोजन लेवल

सर्दियों की शुरुआत होने से कई सारे सांस से सम्बंधित वायरस, खांसी और कफ होता है. लेकिन इस की सर्दी पिछली सर्दियों से अलग है क्योंकि इस समय हम कोरोनावायरस महामारी का सामना कर रहे हैं. हेल्थ एक्सपर्ट्स ने सुझाव दिया है कि सर्दियों में कोविड 19 के केसेस और ज्यादा बढ़ेंगे. हम फ्लू जैसे लक्षण को बिल्कुल भी नज़रअंदाज नहीं कर सकते हैं. अगर इन लक्षणों को ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया गया तो इससे गंभीर समस्या हो सकती है.

फ्लू  इन्फ्लूएंजा वायरस के कारण होने वाली बहुत ज्यादा संक्रामक सांस से सम्बंधित बीमारी है. इससे गंभीर स्वास्थ्य की समस्याएं हो सकती है और ज्यादा गंभीर होने पर हॉस्पिटल में भी भर्ती होना पड़ सकता है. इन समस्याओं में निमोनिया और कभी-कभी मौत तक भी हो जाती है. भारत में फ्लू की एक्टिविटी प्रायः नवम्बर से शुरू होती है और दिसंबर से फ़रवरी तक यह चरम पर होती है और मौसम के अनुसार मार्च के अंत तक भी रह सकती है. सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रीवेंशन (सीडीसी)  के अनुसार 2018-2019 फ्लू के मौसम के दौरान अनुमानित 35.5 मिलियन लोग फ्लू से इन्फेक्ट हुए. जिसके परिणामस्वरूप लगभग 34,000 मौतें हुईं.

फ्लू वायरस इन्फेक्ट करता है और सेल में प्रवेश करके और होस्ट सेल अंदर खुद की कॉपीज बनाकर बीमारी का कारण बनता है. संक्रमित सेल्स से निकलने पर वायरस शरीर में फैल सकता है और फिर यह इसी तरह से लोगों के बीच में भी फ़ैल जाता है. एक वायरस कितनी बार इन्फेक्ट कर सकता है, यह उसकी गंभीरता को दर्शाता है. कम बार इन्फेक्ट करने वाले  वायरस का अर्थ है कि इन्फ्केकटेड व्यक्ति में बीमारी कम हो सकती है या बीमारी के किसी और व्यक्ति में फैलने की संभावना भी कम हो सकती है.

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महिलाओं को फ्लू से बचाने में एस्ट्रोजन की भूमिका

एक नई स्टडी में पता चला है कि महिला सेक्स हार्मोन एस्ट्रोजन महिलाओं को फ्लू से बचाता है.

एस्ट्रोजेन में एचआईवी, इबोला और हेपेटाइटिस वायरस के खिलाफ लड़ने में एंटीवायरल गुण होते हैं. इस स्टडी में प्राइमरी सेल्स (प्राथमिक कोशिकाएं) सीधे मरीजों से अलग हो जाती हैं, जिससे रिसर्चर यह पता लगाने में सक्षम हो जाते हैं कि एस्ट्रोजेन का सेक्स स्पेसिफिक प्रभाव क्या होता है.

यह पहली स्टडी थी जिसमे एस्ट्रोजन रिसेप्टर की पहचान की गयी. एस्ट्रोजन रिसेप्टर एस्ट्रोजेन के एंटीवायरल प्रभावों के लिए जिम्मेदार होती है. रिसर्चर को  एस्ट्रोजेन के इस संरक्षित एंटीवायरल प्रभाव की मध्यस्थता करने वाले तंत्र को समझने मदद मिली. यह  देखा गया है कि कुछ प्रकार के

बर्थ कंट्रोल (जन्म नियंत्रण) या  मेनोपाज के बाद की महिलाओं को प्रीमेनोपॉज़ल हार्मोन रिप्लेसमेंट  पर मौसमी इन्फ्लूएंजा महामारी के दौरान बेहतर रूप से संरक्षित किया जाता है. चिकित्सीय एस्ट्रोजेन जो इनफर्टिलिटी और मेनोपाज के इलाज के लिए उपयोग किए जाते हैं, वे भी फ्लू के खिलाफ रक्षा कर सकते हैं.

प्राकृतिक तरीके से एस्ट्रोजन के लेवल को कैसे बढ़ाएं

एस्ट्रोजन लेवल को प्राकृतिक रूप से बढ़ाना संभव है, इसके लिए डाईट में बस कुछ बदलाव करने की जरुरत है. कई ऐसी जड़ी बूटियां और सप्लीमेंट है जिसे आप ट्राई कर सकते हैं लेकिन यह ध्यान रखें कि अभी भी जड़ी बूटियों से पड़ने वाले प्रभाव के बारें में रिसर्च बहुत कम हुई है. इसलिए यह बढ़िया रहेगा कि उनका सेवन करने से पहले अपने डाक्टर से सलाह ले लें.

सबसे पहले अगर आपका कम एस्ट्रोजेन लेवल आपको परेशानी पहुंचा रहा है या मेनोपाज के लक्षण, हॉट फ्लैशेस, इंसोमेनिया, मूड चेंजेज या योनि में रूखापन दिखा रहा है तो अपन डाक्टर से बात करें. एक फंकशनल मेडिसिन या नेचुरोपेथिक डाक्टर भी कंडीशन को चेक करके मदद कर सकता है .

एक गिलास रेड वाइन या लाल अंगूर का जूस डिनर में खाने से एस्ट्रोजेन का ब्लड लेवल बढ़ता है, इसलिए रोज एक गिलास रेड वाइन पीने से आप अपने एस्ट्रोजेन लेवल को बढ़ा सकते हैं. हालांकि वाइन में एक्टिव कम्पाउंड, रेस्वेराट्रोल अंगूर के जूस, अंगूर, किशमिश, और यहां तक कि मूंगफली  में भी मौजूद होता है. इसलिए अगर आप शराब नहीं पीना चाहते हैं तो तब भी आप इन चीजों से अपने एस्ट्रोजन लेवल को बढ़ा सकते है.

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हल्दी से अपना भोजन को स्वादिष्ट बनायें.

हल्दी में फाइटोएस्ट्रोजेन होता है, इसलिए जब भी खाना बनायें इसे उसमे डाले या अतिरिक्त फाइटोएस्ट्रोजन बूस्ट के लिए तैयार हुए खाद्य पदार्थों पर छिड़कें. यहां तक कि एक रेसिपी में 1/2 चम्मच (2.5 ग्राम) डालने से भी फाइटोएस्ट्रोजेन में बढ़ोत्तरी हो सकती है.

 डॉ मनीषा रंजन, कंसल्टेंट आब्सटेट्रिक्स और गायनेकोलॉजी, मदरहुड हॉस्पिटल, नोयडा से बातचीत पर आधारित

बच्चों को गैजेट्स दें, मगर कंट्रोल भी जरूरी

हाईटेक होते ज़माने में जहां हर चीज़ मोबाइल एप्स पर उपलब्ध होती जा रही है तो वहीँ कोविड 19 में बच्चों का स्क्रीन टाइम भी बढ़ गया है. बच्चों की एक्टीविटीज और पढ़ाई भी अब ऑनलाइन हो रही है. ऐसे में बच्चों को मोबाइल या दूसरे गैजेट्स से दूर रखना संभव नहीं.

आज के समय में देखा जाए तो 2 साल के बच्चे भी टच स्क्रीन फोन चलाना, स्वाइप करना, लॉक खोलना और कैमरे पर फोटो खींचना जानते हैं. एक नए रिसर्च (82 सवालों के आधार पर) के अनुसार, 87% अभिभावक प्रतिदिन औसतन 15 मिनट अपने बच्चों को स्मार्टफोन खेलने के लिए देते हैं.
62% अभिभावकों ने बताया कि वे अपने बच्चों के लिए ऐप्स डाउनलोड करते हैं. हर 10 में से 9 अभिभावकों के मुताबिक़ उन के छोटी उम्र के बच्चे भी फोन स्वाइप करना जानते हैं. 10 में से 5 ने बताया कि उन के बच्चे फोन को अनलॉक कर सकते हैं जबकि कुछ अभिभावकों ने माना कि उन के बच्चे फोन के अन्य फीचर भी ढूंढ़ते हैं.

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गैजेट के अधिक इस्तेमाल से सेहत पर असर

माइकल कोहेन ग्रुप द्वारा किए गए रिसर्च से पता चलता है कि टीनएजर्स गैजेट्स से खेलना ज़्यादा पसंद करते हैं. गैजेट्स ले कर दिन भर बैठे रहने के कारण उन में मोटापे की समस्या बढ़ रही है. साथ ही आईपैड, लैपटॉप, मोबाइल आदि पर बिज़ी रहने के कारण वे समय पर सो भी नहीं पाते जिस से उन्हें शारीरिक यानी स्वास्थ्य समस्याओं से दोचार होना पड़ता है. शारीरिक के साथ मानसिक रूप से भी गैजेट्स उन्हें नुक्सान पहुंचा सकते हैं. मोबाइल हो या कंप्यूटर, इन में जिस तरह के कंटेंट वे देखते हैं उस का सीधा असर उन के दिमाग और सोच पर पड़ता है.

सिर्फ शारीरिक मानसिक परेशानियां ही नहीं बल्कि गैजेट्स के अधिक इस्तेमाल की आदत उन्हें किसी संभावित खतरे की तरफ भी धकेल सकती है. ऐसा ही एक खतरा है साइबर बुलिंग. चाइल्ड राइट्स एंड यू (CRY ) द्वारा दिल्ली एनसीआर के 630 किशोरों पर किये गए सर्वे में पाया गया कि करीब 9. 2 % ने साइबर बुलिंग का अनुभव किया और उन में आधे से ज्यादा ने यह बात अपने पेरेंट्स या टीचर से भी शेयर नहीं की.

फरवरी 2020 में ऑनलाइन स्टडी और इंटरनेट एडिक्शन नाम से किये गए अध्ययन में पाया गया कि बच्चा जितना ज्यादा इंटरनेट और गैजेट्स का प्रयोग करता है इस तरह की संभावनाएं उतनी ही ज्यादा बढ़ जाती हैं. 2. 2 % किशोर (13 -18 साल) जिन्होंने 3 घंटे से ज्यादा समय तक इंटरनेट का प्रयोग किया वे ऑनलाइन बुलिंग के शिकार बने तो वहीँ 28 % किशोर जिन्होंने 4 घंटे से अधिक का समय इंटरनेट पर बिताया उन्हें साइबर बुलिंग सहना पड़ा.

गैजेट्स का अधिक इस्तेमाल करने वाले किशोर कई बार साइबर अपराधों में खुद भी लिप्त हो जाते हैं. उन्हें दूसरों से बदला लेने का यह सहज और आसान जरिया नजर आता है जहाँ उन की पहचान भी छिपी रह सकती है.

मुंबई में रहने वाले दिव्य को अपने क्लास की एक लड़की सुधि ने कभी झगड़े में उल्टासीधा कह दिया था. इस का बदला लेने के लिए दिव्य ने साइबर वर्ल्ड का सहारा लिया. उस ने सुधि के नाम पर एक फर्जी फेसबुक पेज बनाया और उस पर सुधि की तसवीरें लगाते हुए कुछ ऐसे खतरनाक और वल्गर पोस्ट डालने शुरू किए कि कमेंट बॉक्स में गंदेगंदे मैसेज आने लगे. सुधि को इस बारे में कुछ पता नहीं था. स्कूल के बच्चे सुधि को ले कर कानाफूसी करने लगे और उस से कतराने लगे. सुधि समझ ही नहीं पाई कि क्या हुआ है. यहाँ तक कि उस की पक्की सहेली ने भी उस से बातें करनी बंद कर दीं. सुधि द्वारा बारबार पूछे जाने पर सहेली ने एक दिन उसे सारे पोस्ट दिखाए. सुधि दंग रह गई. उसे समझ नहीं आया कि उसे इस तरह कौन बदनाम कर सकता है. दरअसल वह साइबर बुलिंग का शिकार हो गई थी. उस का फ्रेंड सर्कल ख़त्म हो गया. अब वह गुमसुम रहने लगी. उस ने बाहर जाना छोड़ दिया और तनाव का शिकार हो गयी. हालत इतनी खराब हो गई कि उस के पेरेंट्स ने उसे नए स्कूल में डाला और महीनों काउंसिलिंग भी कराई. तब जा कर वह नार्मल हो सकी. इस तरह दिव्य ने अपनी नासमझी और बदले की भावना में सुधि का बहुत बड़ा नुकसान कर दिया था.

इप्सोस के साल 2014 के एक सर्वे के मुताबिक़ भारत साइबर बुलिंग के मामले में 254 देशों की सूची में सब से ऊपर था. सर्वे में शामिल देश के 32 फीसदी पैरेंट्स ने कहा कि उन के बच्चे साइबर बुलिंग का शिकार हुए हैं. समय के साथ अब हालात और खराब हो चुके हैं.

साइबर बुलिंग के तहत किसी के बारे में अफवाह उड़ाना, धमकी देना, सेक्सुअल कमेंट, व्यक्तिगत जानकारी सार्वजनिक करना या हेट स्पीच आदि आते हैं. जो लोग इस के शिकार होते हैं उन में आत्मविश्वास कम हो जाता है और कई बार वे आत्महत्या भी कर लेते हैं.

जाहिर है बच्चों के लिए चुनौतियां सिर्फ ब्लू ह्वेल जैसे खेल ही नहीं है. चैट रूम के जरिये कई बार बच्चों के लिए ज्यादा खतरे आते हैं. टीनएजर दोस्त बनाने के लिए चैट रूम में आते हैं और अनजान लोगों से दोस्ती करते हैं. इस तरीके में सब से बड़ा खतरा यह है कि सामने वाला अगर बुलिंग पर उतर आये तो वेबसाइट पर पहचान जाहिर न करने जैसे क्लॉज का सहारा ले कर बच्चे को परेशान करना शुरू कर देता है.

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बच्चे दूसरों की देखादेखी अपनी स्टाइलिश तसवीरें सोशल मीडिया पर पोस्ट करना शुरू कर देते हैं. इस से कई बार उन के मन में कम्पटीशन या इन्फीरियरिटी कॉम्प्लेक्स की भावना भी घर कर जाती है.

बच्चे के सामने ऑनलाइन स्कैम भी एक बड़ा खतरा है. मेल और पोस्ट द्वारा करोड़ों के ईनाम जीतने का लालच बच्चों को आकर्षित कर सकता है. इस में वे बैंक एकाउंट या व्यक्तिगत जानकारी शेयर कर देते हैं जो बाद में मुसीबत का कारण बन सकता है.

आज कल 18 साल से कम के किशोर खुद की पहचान बनाने के लिए सोशल मीडिया को चुनते हैं. उन के मन के अंदर का घमंड, अहम का भाव सोशल मीडिया के जरिए दूसरे पर निकालते हैं. वहां कोई रोकटोक नहीं होता. ऐसे में वह स्वतंत्र हो कर जो करना है वह करते हैं. इस वजह से कई बार उन की जिंदगी बर्बाद भी हो जाती है.

इसलिए बेहतर है कि जितना हो सके बच्चे की ऑनलाइन गतिविधियों पर हर वक्त नजर रखें. साथ ही पहले से ही बच्चे से इस बारे में चर्चा करें और उसे समझाएं कि किस तरह के खतरे हो सकते हैं. आज के समय में बच्चों को गैजेट्स से दूर रखना संभव नहीं, मगर इन के इस्तेमाल की समय सीमा ज़रूर तय कर सकते हैं.

क्या हो समय सीमा

अमेरिकन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स की स्टडी के मुताबिक़ 2 वर्ष से कम आयु के बच्चों को किसी भी तरह के स्क्रीन से दूर रखना चाहिए. 3 से 5 वर्ष के बच्चे एक घंटा और टीनएजर बच्चों को पढ़ाई के अलावा केवल 30 मिनट प्रतिदिन तक गैजेट इस्तेमाल की अनुमति दी जानी चाहिए.

अभिभावक की जिम्मेदारी

बच्चों को ख़ुश करने की बजाय उन की भलाई के बारे में सोचें. उन्हें अनुशासन में रख कर ही गैजेट की लत से बचाया जा सकता है.

अपने बच्चों को टीवी, कंप्यूटर या फोन का उपयोग ऑनलाइन स्टडी के अलावा 30 मिनट से अधिक न करने दें. दूसरी बातों में उन का ध्यान उलझाएं.

जब बात इनाम देने की हो तो हमेशा कोशिश करें कि उन्हें गैजेट की बजाय कुछ और उपयोगी वस्तु दें.
बच्चों को किताबें पढ़ने को प्रेरित करें. थोड़ा समय लाइब्रेरी में बिताने को कहें. नईनई ज्ञानवर्धक, रोचक और शिक्षप्रद कहानियों की पुस्तकें ला कर दें.

कोशिश करें कि बच्चा जब टीवी, कंप्यूटर पर व्यस्त हो तो आप उस के साथ रहें ताकि यह देख सकें कि वह स्क्रीन पर क्या देख रहा है.

बच्चों को शांत रखने के लिए उन्हें मोबाइल गेम खेलने को प्रोत्साहित करने के बजाय उसे बाहर जा कर दोस्तों के साथ खेलने के लिए प्रेरित करें. बाहर खुले मैदान में दौड़नेभागने वाले खेल खेलने से वे शारीरिक रूप से भी फिट रहेंगे.

टच-पैड की बजाय बच्चे को कोई पेट (पालतू जानवर) ला कर दें.

उन्हें समाज और प्रकृति से जोड़े.

हफ्ते में 5 दिन क्लास के बाद शनिवार और रविवार को बच्चों को आर्ट्स एंड क्राफ्ट में इन्वॉल्व कर सकते हैं.

बच्चों को अन्य खेलों के प्रति प्रेरित कर सकते हैं, जैसे साइकिल चलाना, कैरम बोर्ड खेलना, चेस खेलना आदि.

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बच्चों को कभी भी उन का पर्सनल फोन न दें.

उन्हें समझाएं कि एक घंटे मोबाइल या लैपटॉप इस्तेमाल करने के बाद ब्रेक ले.

बच्चों को अंधेरे में फोन नहीं चलाना चाहिए. इस से उन की आंखों पर सीधा असर पड़ता है. खास तौर पर बच्चे लेट कर फोन का इस्तेमाल करते हैं. ऐसा करने से मना करें.

‘शिक्षा ही सबसे बड़ी जरूरत है’- पूजा प्रसाद, शिक्षाविद

शैलेंद्र सिंह

‘किसी भी देश, समाज और संस्कृति के विकास में वहां की शिक्षा व्यवस्था का बडा हाथ होता है. लोगों में शिक्षा के प्रति लगाव से पता चलता है कि वह कितना समृद्वशाली है. मेरा हमेशा से यह प्रयास रहा है कि जहां भी रहो जिस रूप में रहो लोगों को जितना शिक्षित कर सकते हो जरूर करें. समाजसेवा का इससे बडा कोई जरिया नहीं होता है. शिक्षा ऐसा दान है जो कभी खत्म नहीं होता शिक्षा हासिल करने वाले को भी इससे अधिक लाभ किसी और वस्तु से नहीं हो सकता है. पुस्तकों से बड़ा कोई दोस्त नहीं होता है.‘ यह कहना है भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी संजय प्रसाद की पत्नी पूजा प्रसाद का.

बिहार के रहने वाले संजय प्रसाद की शादी लखनऊ में रहने वाली पूजा से हो गई. 22 साल की पूजा शादी के बाद सबसे पहले रानीखेत गई. वहां रहने के दौरान पहाड़ के जीवन और शिक्षा के स्तर को देखा और महसूस किया कि ऐसे इलाकों में रहने वाले लोगों में शिक्षा का प्रसार करना चाहिये. वहां के स्कूल के साथ जुड़कर इस काम को शुरू किया. वह कहती है ‘पहाड़ों पर उस समय जाना और भी कठिन था. हम अपना समय लोगों को शिक्षा देने में व्यतीत करने लगे. इसके बाद जहां भी पति की पोस्टिंग होती थी. मैं वहां किसी ना किसी स्कूल के साथ जुड कर बच्चों को पढ़ाने का काम करने लगती थी.‘

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आज के बच्चे ज्यादा स्मार्ट है

आपने बच्चों के मनोविज्ञान को लंबे समय से देखा और समझा है. तब और अब के बच्चों में क्या फर्क महसुस करती है ? पूजा प्रसाद कहती है ‘मेरी अपनी एक बेटी है. इसके साथ ही साथ स्कूलों में शिक्षा देने के समय बहुत सारे बच्चों से बात करने और समझने का मौका मिला. इस दौरान मैने देखा है कि आज के बच्चे ज्यादा स्मार्ट है. आज के बच्चों को ज्यादा एक्सपोजर मिलता है. पैरेंट्स उनकी बात को अच्छी तरह से सुनते है. कैरियर का चुनाव करने में अब औप्शन पहले से अधिक है. आज के बच्चे पैरेंटस पर बहुत निर्भर नहीं है. इसमें सोशल मीडिया जैसी जानकारी के बदलते दौर का भी बड़ा योगदान है.

बच्चों को अपनी मां का सहयोग तो पहले भी अधिक मिलता था. आज के समय में पिता भी बहुत जिम्मेदार और सहयोगी हो गये है. स्कूलों में पैरेंटस मीटिंग में आने वाले पैरेंटस में पिता की संख्या अधिक होने लगी है. बच्चों की बात को पहले से अधिक सुना और उनको महत्व दिया जाने लगा है. इससे बच्चों के विकास में अधिक सुधार हुआ है. आज कम उम्र में ही बच्चे परिपक्व नजर आने लगे है. ऐसे बच्चों के फैसले भी अब बच्चों वाले फैसले नहीं रहते. अब वह समझदारी भरे फैसले करने लगे हैं.

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लड़कियों के साथ भेदभाव कम हुआ है

पूजा प्रसाद कहती है ‘आज के समय में लड़कियों को अपना कैरियर चुनने की आजादी मिलने लगी है. लड़का लड़की का भेदभाव काफी हद तक कम हुआ है. जहां शिक्षित लोग है वह इस तरह का भेदभाव नहीं करते है. तमाम पैरेंटस ऐसे भी है जो एक लड़की के साथ बेहद खुश है. वह अपनी बेटी को उसी तरह से पालते है जैसे लड़के का पालन पोषण करते. बेटियों को शिक्षा ही नहीं मनचाहा कैरियर और आगे का रास्ता चुनने में उसको मदद करते है. पहले जहां लोग यह चाहते थे कि बेटी डाक्टर या शिक्षक ही बने अब उसकी पंसद के दूसरे कैरियर चुनने की भी आजादी दी जाने लगी है. शिक्षा का प्रभाव लडकियों के जीवन पर दिख रहा है. वह घर बाहर दोनो ही संभाल रही है. उनको पुरूषो का साथ भी बराबर मिल रहा है. इसमें शिक्षा का ही सबसे बडा योगदान है. पढ़े लिखे लोगों ने पुराने विचारों को छोडते हुये आगे बढ़ने का काम किया है.

फिटनेस जरूरी:

महिलाएं जिस तरह से समाज में सक्रिय भूमिका अदा कर रही है उसमें सबसे जरूरी है कि वह अपने स्वास्थ्य का पूरा ख्याल रखे. इसके साथ ही साथ जो भी क्रियेटिव करना चाहती हो वह भी करे. मैं खुद रोज 6 किलोमीटर का वॉक करती हॅू. इसके साथ में नियमित एक्सरसाइज और योगा भी करती हॅू. मुझे इंटीरियर का शौक है. घर में समय देने की कोशिश करती हॅू. मुझे किताबे पढ़ने का शौक मां से मिला है. मेरी मां ‘सरिता’ पत्रिका की नियमित पाठक थी. बच्चों को वह ‘चंपक‘ पढ़ने के लिये देती थी. ऐसे में बचपन से ही मेरी आदत किताबे पढने के लग गई. इसी तरह मेरी बेटी भी पढ़ने की शौकीन है. वह अपनी एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी कर रही है. पढ़ाई का महत्व हर किसी के जीवन में है. मैं आज भी बच्चों को पढाने का काम कर रही हॅू. आगे भी मैं इसको जारी रखने का प्रयास करूंगी.

यात्रा के दौरान सीट बेल्ट पहनना ना भूलें

आज के दौर में मोटर कार की सबसे बड़ी उपलब्धि सीट बेल्ट हैं। कार को चलाते समय आपकी सुरक्षा के लिए सीट बेल्ट दिया गया है. लेकिन जब तक आप इसे लगाते नहीं है तब तक यह बेकार है. आज कल सभी कारों में यह तकनीक है कि अपनी कार में बैठने के बाद जब तक आप सीट बेल्ट नहीं लगा लेते तब तक कार में बीप-बीप की आवाज सुनाई देती रहेगी. लेकिन सिर्फ यही आपके सीट बेल्ट पहनने का कारण नहीं होना चाहिए.

कार की हर एक सुरक्षा प्रणाली अपना काम करने के लिए आपके सीट बेल्ट पहनने पर निर्भर करती है. आप उदाहरण के लिए एयरबैग लें.

इन्हे आम तौर पर एसआरएस एयरबैग का लेबल दिया जाता है. जिसका मतलब सप्लीमैंट्री रेस्ट्रेंट सिस्टम्स होता है. जब कार की कहीं पर दुर्घटना होती है उस दौरान उसमें लगे सप्लीमेंट सीट बेल्ट लगे होने पर ही यात्री को बचाने के काम आते हैं. कार में लगे सीट बेल्ट आपके यात्रा को सादा और सरल बनाते हैं इसलिए इसका उपयोग जरूर करें.
#BeTheBetterGuy

औरतों के हक के मुद्दे अमेरिका व भारत दोनों देशों में लगभग एक जैसे ही हैं-आस्था वर्मा

भारतीय समाज में कई पितृ सत्तात्मक सोच वाली परंपराएं सतत चलती जा रही हैं. देश में नारी स्वतंत्रता व नारी उत्थान के तमाम नारे दिए जा रहे हैं, तमाम उद्घोष हो रहे हैं. मगर हकीकत यह है कि औरतों के हक को लेकर कुछ नही हो रहा है. सारी नारी बाजी ढाक के तीन पात हैं. भारतीय समाज में आज भी शमशान भूमि शमशान घाट पर महिलाओं का प्रवेश वर्जित है. महिलाएं अपने किसी भी प्रिय पारिवारिक सदस्य या प्रियजन का आज भी ‘दाह संस्कार कर्म’नही कर सकती. उनका अंतिम संस्कार अग्नि नहीं दे सकती. इस मसले पर कोई बात नही करता. यहां तक कि सामाजिक बदलाव का बीड़ा उठाने वाले फिल्मकारों ने भी चुप्पी साध रखी है.

अब तक इस पर किसी ने भी औरतों को यह हक दिलाने या इस मुद्दे पर फिल्म का निर्माण नहीं किया है. मगर अब लॉस एंजेल्स, अमरीका में रह रही करनाल, हरियाणा यानी कि भारतीय मूल की 24 वर्षीय युवा फिल्मकार आस्था वर्मा ने बनारस के घाट पर एक बड़ी फीचर फिल्म की तरह फिल्मायी गयी अपनी बीस मिनट की लघु फिल्म ‘द लास्ट राइट्स’में पितृसत्तात्मक समाज पर कुठाराघाट करते हुए औरतों को भी ‘दाह संस्कार कर्म’करने का हक दिए जाने की वकालत की है. खुद को भारतीय मानने वाली आस्था वर्मा की फिल्म ‘द लास्ट राइट्स’को ‘टोपाज इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ सहित पूरे विश्व के करीबन ग्यारह अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में अपना डंका बजाने के साथ ही पुरस्कृत हो चुकी है.

प्रस्तुत है लास एंजेल्स में रह रही आस्था वर्मा से ‘ईमेल’के माध्यम से हुई एक्सक्लूसिब बातचीत के अंश. .

फिल्मों से जुड़ने का ख्याल कैसे आया?

-मैं मूलतः करनाल, हरियाणा से हूं. पर मेरी शुरूआती शिक्षा दुबई में हुई. फिर मैं लॉस एजिंल्स आ गयी. पर मैं खुद को भारतीय ही मानती हूं. मेरी जड़े भारत में ही हैं. मैने इंटरनेशनल बिजनेस मैनेजमेंट के अलावा फोटोग्राफी में शिक्षा हासिल की. अपने एक दोस्त के स्कूल की थिसिस में कैमरावर्क करते हुए मैने अहसास किया कि मैं अपनी जिंदगी में फिल्में ही बनाना चाहती हूं. वैसे पढ़ाई करते हुए और फोटोग्राफी सीखते हुए भी मैं लिखने का काम करती रही हूं. मुझे लिखने का शौक काफी छोटी उम्र से रहा है. मैं बचपन से ही हर सप्ताहांत में भारतीय फिल्में देखती रही हूं. और मेरा यह शौक आज भी बरकरार है. सच कहती हूं भारतीय सिनेमा मुझे हमेशा प्रेरणा देता है.

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अब तक आपने कौन सी फिल्में निर्देशित की हैं?

-यूं तो मैं अब तक करीबन चालिस लघु फिल्मों के निर्माण से जुड़ी रही हूं. मुझे लोग ‘क्रॉस वर्ड्स टुगेदर (शुभम संजय शेवडे),  गुडमैन (कुयंश स्टाखानोव), पेपरमिंट (पुर्वा) एस वच), घुंघरू (हनी चव्हाण)के प्रोडक्शन डिजाइनर के रूप में भी पहचानते हैं. मगर हकीकत में मैने सिर्फ दो लघु फिल्मों का स्वतंत्र रूप से लेखन, निर्देशन और निर्माण किया है. इनमें से पहली लघु फिल्म है-‘द अनसंग फीदर’, जो कि नस्ल रंग भेद पर एक अफ्रीकी- अमेरिकी लड़की के संघर्ष की कथा है. जबकि दूसरी लघु फिल्म ‘द लास्ट राइट्स’ की कहानी एक ऐसी युवती की है,  जो कि अपनी दादी का अंतिम संस्कार दाह संस्कार करने के लिए पितृसत्तात्मक परंपरा के खिलाफ बिगुल बजाती है. इसके अलावा दो बड़ी फीचर फिल्मों के निर्देशन की तैयारी लगभग पूरी कर ली है. इनका लेखन पूरा हो चुका है.

आपका बचपन दुबई में बीता. अब अमरीका के लॉस एंजिल्स में रहती हैं. ऐसे में भारतीय पृष्ठभूमि की कहानी पर फिल्म बनाने की प्रेरणा कहां से मिलती है?

-मैने पहले ही कहा कि मेरी जड़े भारत में हैं और मैं स्वयं को भारतीय मानती हूं. मेरी राय मे सिनेमा का काम सिर्फ मनोरंजन देना नहीं बल्कि सोचने व विचार करने पर मजबूर करना भी है. मैं खुद को एक कथा वाचक मानती हूं, तो कहानियां सुनाने के लिए मैं खुद से सवाल करती रहती हूं, जो सवाल मेरे मन को व्यथित करते हैं, दर्द देते हैं, उन पर मैं काम करना शुरू करती हूं. हमारे समाज में औरतों के हक का मसला कोई नया नही है. मुझे लगता है कि युवा महिला फिल्मसर्जक  होने के नाते हम पर बड़ी जिम्मेदारी है कि हम औरतों से जुडे़ इन मुद्दों पर बात करें. इन मुद्दों पर हम बहस करें. हम औरतों को उनके हक के बारे में जागरूक करें.

फिल्म‘‘द लास्ट राइट्स’’ की विषय वस्तु पर फिल्म बनाने का विचार कैसे आया?

-इसकी विषयवस्तु मेरी अपनी जिंदगी के कुछ अनुभवों के अलावा पारिवारि के ऐतिहासिक घटनाक्रमों से आयी. परिवार के कुछ घटनाक्रमों को लेकर जब मैं अपनी मां से विचार विमर्श करती थी, तो मेरे मन में कई सवाल उठते थे. उन्ही सवालों के जवाब तलाश करते करते मैने फिल्म‘द लास्ट राइट्स’की कहानी व पटकथा लिखी. मेरी फिल्म का विषय ऐसा है, जिस पर कभी कोई बात नहीं होती. यहां तक कि अब तक किसी ने भी इस पर फिल्म भी नहीं बनायी. इस फिल्म के निर्माण, लेखन निर्देशन के पीछे मेरा लक्ष्य इस बात पर प्रकाश डालना रहा कि परंपरा से प्रेरित भारत में महिलाओं के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है?विदेशों में काम कर भारतीयों को भारत में अपने दोस्तों और अपने परिवारिक घर जाने पर किस तरह का व्यवहार उनके साथ किया जाता है.

आपने कहा कि ‘द लास्ट राइट्स’की विषयवस्तु आपके जीवन के अनुभवों से आयी. कृपया इस पर विस्तार से रोशनी डालेंगी?

-इस फिल्म की नायिका काशी की कहानी मेरी जिंदगी के काफी करीब है. काशी की ही भांति मैं भी विदेश में रहती हूं. कुछ समय के लिए विदेश में रहने के बाद काशी अपने दोस्तों और परिवार के लोगों से मिलने के लिए घर आती है, तब उसके साथ बाहरी व्यक्ति की तरह व्यवहार किया जाता है. लेकिन तथ्य यह नही है कि -वह देश के बाहर रहती है या नहीं?काशी को लगता है कि वह भारतीय है, फिर चाहे उसके देशवासी  कुछ भी कहें. मेरे लिए विदेश से आने वाली काशी का मतलब है कि वह भारतीय परंपराओं के संबंध में अधिक आधुनिक दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व कर रही है.

भारतीय समाज अपनी परंपराओं से परिभाषित होता है. क्योंकि इसमें कई संस्कृतियों का समन्वय है. इसलिए हमारी परंपराओं और धर्म को मजबूत बनाने की आवश्यकता है. इस तरह की बातें करने वाले भूल जाते हैं कि एक समाज का कर्तव्य है कि परंपराओं में संशेाधन कर प्रगति की ओर बढ़ना. मैंने अपनी फिल्म में इसी बात की ओर इशारा किया है.

यह विडंबना है कि जो स्त्री, मनुष्य को जन्म देती है, उसे कभी भी पुरुषों की तरह अपने बुजुर्गो का दाह संस्कार नहीं करने दिया जाता।जी हॉ!भारतीय समाज में बेटियों को दाह संस्कार पर जाने की भी अनुमति नहीं होती. सैकड़ों, हजारों ऐसी बेटियां होती होंगी,  जो अपने मां-पिता के अंतिम संस्कार में नहीं जा पाती. ‘द लास्ट राइटस’में मैंने इसी पीड़ा, भावनाओं को साझा किया है. यह एक ऐसी महिला की यात्रा है, जिसे पितृसत्तात्मक व्यवस्था के प्रतिरोध से जूझना पड़ता है, जो एक महिला को ‘दाह संस्कार कर्म’करने के अधिकार नहीं देती है. हमारी यह बीस मिनट की फिल्म रूढ़ीवादी परंपराओं पर सवाल उठाती है. हमने इस फिल्म को बनारस व बनारस के घाटों पर कनुप्रिया शर्मा,  वेद थापर, सुलक्षणा खत्री व अजिता कुलकर्णी जैसे भारतीय कलाकारों के संग फिल्माया है.

फिल्म‘द लास्ट राइट्स’की कहानी को लेकर क्या कहना चाहेंगी?

-फिल्म की कहानी के केंद्र में विदेश में पढ़ाई कर रही काशी(कनुप्रिया शर्मा)है, जो कि अपनी दादी की मौत की खबर सुनकर उनका दाह संस्कार करने के लिए बनारस,  भारत आती है. वह खुद को अपने परिवार की एकमात्र जीवित सदस्य मानती है. लेकिन उनके तिरस्कृत चाचा विष्णु( वेद थापर)  उसे यह अधिकार देने से मना कर देते हैं. विष्णु कहते हैं कि वह स्वयं दाह संस्कार करेंगे. इतना ही नहीं पूरा समाज काशी का विद्रोह करता है. लेकिन काशी कहती है कि उसकी दादी के पत्र के अनुसार उनकी अंतिम इच्छा को पूरी करने के लिए इस कर्म को वह स्वयं करेगी.

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फिल्म‘द लास्ट राइट्स’के लिए किस तरह का शोध कार्य करने की जरुरत पड़ी?

-शोध कार्य की लंबी प्रक्रिया रही,  मगर लाभप्रद रही. हमारे पास इस बात का कोई सबूत नहीं था कि भारत में लड़कियों औरतों को परिवार के किसी भी सदस्य की मृत्यू होने पर उसका दाह संस्कार अंतिम क्रिया करने की इजाजत नहीं दी जाती. मैने कल्पना में कई कहानियां गढ़ी कि भारत कैसा है और भारत के लोग कैसे हैं?इसलिए मैंने लोगों से इस संबंध में बातचीत करनी शुरू की. अलग अलग समुदाय व उम्र के लोगों की राय जानी. यह सब करने में मुझे कम से कम छह माह का वक्त लगा. मंैने जानने की कोशिश की कि इस संबंध में पुरूष व महिलाओं,  युवा व बुजुर्ग की क्या सोच है और उस सोच की वजह क्या है?क्या यह महज धर्म का मसला है या एक परंपरा का निर्वाह किया जा रहा है. पुजारियों से हमें विरोधाभासी तर्क सुनने को मिले. मुझे कई भारतीयों का पूरा सहयोग मिला. अंतिम संस्कार करने से रोकने के लिए औरतों को धमकाने व उनकी हत्या करने की धमकी आदि के कुछ सबूत जुटाने में भारत के स्थानीय लोगों ने हमारी काफी मदद की. वाराणसी में भी कुछ लोगो ने मदद की. कुछ औरतों को अपने प्रिय का अंतिम संस्कार करने पर घर से बाहर फेंक देने की धमकी भी दी गयी थी.

आप अपनी इस फिल्म के माध्यम से क्या संदेश देना चाहती हैं?

-हम अपनी इस फिल्म के माध्यम से कहना चाहते हैं कि आत्मा का कोई ‘लिंग’ जेंडर नहीं होता है. हर इंसान की अपनी निजी राय व पसंद है, जिस पर उंगली उठाने या सवाल करने या रोकने का हक किसी भी तीसरे इंसान को नहीं है. किसी भी औरत के लिए ऐसी कोई वजह नही है कि वह अपने प्रियतम को ‘गुडबॉय’ न कह सकती हो, उसका अंतिम संस्कार दाह संस्कार न कर सकती हो. हर समाज को चाहिए कि जीवन शैली या जिंदगी जीने को लेकर विविधता पूर्ण सोच व विचारों का स्वागत करे. हमारी फिल्म का मकसद इस तरह के अवसर के लिए औरत के हक के बारे में बात करना, औरत को ऐसा करने की वजह देना है.

विश्वास कीजिए हमारी फिल्म की नायिका काशी, महिलाओं और सामाजिक सुधारों के लिए मुखपत्र बनने की कोशिश नहीं कर रही है, वह तो केवल परिवार के सदस्य और दादी की अंतिम इच्छा को सम्मान देने की कोशिश कर रही है. यदि इस फिल्म को देखने के बाद किसी भी बिंदु पर लोग समझ जाते हैं कि एक भारतीय महिला अंतिम संस्कार करने में सक्षम है, तो मेरा मकसद पूरा हुआ. लोगों को समझना होगा कि हमारी फिल्म ‘द लास्ट राइट्स’परंपरा और सामाजिक स्थिति के खिलाफ नही, बल्कि परिवार और प्रेम के बारे में है.

वाराणसी में शूटिंग के अनुभव?

-देखिए, हमारी फिल्म‘द लास्ट राइट्स’की विषयवस्तु को देखते हुए इसे फिल्माने के लिए वाराणसी से इतर कोई बेहतर जगह नहीं हो सकती थी. बनारस के लोगों ने हमारा शानदार स्वागत किया और हमें इस बात का अहसास कराया कि यह हमारा अपना शहर है. बनारस के घाटों,  बनारस के लोगों और उनकी जीवन शैली के बारे में मुझे जो कुछ जानने व समझने का मौका मिला, मैने उसे ही फिल्म का हिस्सा बनाया,  इससे हमारी फिल्म ज्यादा मूल्यवान हो गयी. हमारा स्थानीय प्रोडक्शन मैनेजर बनारस के बारे में सब कुछ जानता था, उसने कदम कदम पर हमारी मदद की. हमारा सौभाग्य रहा कि हमें बनारस में मणिकर्णिका घाट के मुख्य पुजारी से बात करने, उनसे कई कहानियों को जानने का अवसर मिला. उन्होने इस तरह की फिल्म बनाने के लिए हमारा हौसला बढ़ाया.

अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में किस तरह की प्रतिक्रियाएं मिली?

-मेरी पहली फिल्म ‘द अनसंग फैदर’ने यूएसए व यूरोप के समारोहों में सर्वश्रेष्ठ फिल्म पुरस्कार सहित नौ पुरस्कार जीते थे. मेरे द्वारा लिखित और निर्देशित फिल्म‘द अनसंग फेदर ’को काफी सराहा गया. सभी ने इसकी पटकथा की तारीफ की. अब मेरी दूसरी फिल्म‘द लास्ट राइट्स’अब तक दस बारह अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में इस फिल्म को काफी सराहा जा चुका है. हमारी फिल्म ‘द लास्ट राइट्स’को 8 सितंबर को संपन्न‘टोपाज इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’में पुरस्कृत किया गया. सात फिल्म समारोहों में हम नोमीनेट किए गए हैं. अमरीका के डालास और 8 दिसंबर 2020 को इटली के ‘रीवर टू रीवर फ्लोरेंस इंडियन फिल्म फेस्टिवल’में भी सराहा गया. हमारी यह फिल्म‘13वें जयपुर अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह’ सहित कई भारतीय फिल्म समारोह में भी दिखायी जा चुकी है. फिल्म ‘द लास्ट राइट्स’की स्क्रीनिंग अमेरिका, ब्रिटेन,  आयरलैंड , कनाडा, आस्ट्रेलिया,  न्यूजीलैंड,  नीदरलैंड,  जर्मनी,  फ्रांस व स्पेन में भी हुई.

नारी स्वतंत्रता और नारी उत्थान को लेकर आपकी सोच क्या है. इस संदर्भ में आप क्या कहना चाहेंगी?

-मेरी नजर में नारी स्वतंत्रता के मायने हर स्वतंत्र व कामकाजी महिला को समानता का अधिकार मिले. हर काम काजी महिला को उनके कार्यक्षेत्र मंे अपने सपनो को पूरा करने के लिए वही सारे हक व सुविधाएं मिलनी चाहिए, जो एक पुरूष को मिलते हैं. मैं भाग्यशाली हूं कि मेरे माता पिता ने मुझमें और मेरे भाई के बीच कोई अंतर या भेदभाव नहीं किया. हमारी परवरिश समानत के धरातल पर ही की गयी. हमंे बचपन से हर इंसान को एक समान समझना ही सिखाया गया. आज मैं जो कुछ हॅूं, उसकी वजह मेरे माता पिता हैं,  जिन्होने हमें हमारे सपनों को पूरा करने के लिए हर संभव सहयोग दिया,  बढ़ावा दिया. हर सफल औरत के पीछे उसके अपने ‘विल पावर’के साथ ही उसके सपनों को पूरा करने के लिए उसके परिवार का सहयोग@ समर्थन भी होता है.

जहां तक औरतों के हक की बात है,  तो आप भारत और अमरीका में क्या अंतर पाती हैं?

-इमानदारी से कहूं तो औरतों के हक के मुद्दे दोनों देशों में लगभग एक जैसे ही हैं. यहां अमरीका में औरतों के हक के मसले कारपोरेट स्तर पर हैं, तो भारत में जमीनी सतह से ही हैं. औरतों के हक के मुद्दे भारत में कुछ ज्यादा ही जटिल हैं, क्योंकि हमारे भारत कई धर्म, सभ्यता व संस्कृतियों का देश है. लेकिन मैं महसूस कर रही हूं कि अब भारत में भी औरतें अपने हक के लिए खड़ी हो रही हैं. यह सब जागरूकता और नई पीढ़ी पर निर्भर करता है.

आपने कुछ संगीत वीडियो म्यूजिक वीडियो भी बनाए हैं?

-जी हॉ!हमने अपनी टीम के साथ दिलजीत दोंशाज के नए अलबम ‘‘जी ओ ए टी’’पर काम किया है. मैंने इस म्यूजिक वीडियो का निर्माण किया है. जबकि इसके निर्देशक राहुल दत्ता है. दिलजीत दोसांझ बेहतरीन गायक व अभिनेता हैं.

भविष्य में किस तरह की फिल्में बनाने वाली हैं?

-हम अपनी फिल्मों की कहानी के माध्यम से हर समाज की छिपी हुई वास्तविकताओं को सामने लाना चाहते हैं. हम ऐसी कहानियां बयां करना चाहते हैं, जो कि लोगों का दिल खोलकर मनोरंजन करें और दर्शक उन्हें देखने के साथ-साथ कुछ सीख सकें.

आपका सबसे बड़ा सबक?

-सबसे बड़ा सबक मैंने यह सीखा कि किसी भी कैरियर की राह में कोई समतल सड़क नहीं होती है. अगर है, तो फिर उसमें काम करने का मजा कहाँ है?एक युवा लड़की के रूप में मेरे माता-पिता ने मुझे इस बात के लिए प्रेरित किया कि हर दिन, हर पल एक चुनौती है. उस समय मुझे अपने माता पिता की बातें महज भाषण प्रतीत होती थीं. लेकिन घर से दूर रहना वास्तव में आपको न सिर्फ बहुत कुछ सिखाता है बल्कि आपका जीवन को देखने का नजरिए भी  बड़ा बनाता है.

 

इंडियन आइडल 2020 के ग्रैंड प्रीमियर पर भड़के हिमेश रेशमिया, प्रोमो वायरल

सोनी टीवी के मशहूर सिंगिंग रिएलिटी शो ‘इंडियन आइडल’ के नए सीजन का जल्द ही ग्रैंड प्रीमियर होने वाला है, जिसका हाल ही में प्रोमो रिलीज किया गया है. शो के जज नेहा कक्कड़ (Neha Kakkar), विशाल डडलानी (Vishal Dadlani) और हिमेश रेशमिया (Himesh Reshammiya) ने नए धुरंधर कंटेस्टेंट को शो में एंट्री दी है. वहीं अब शो में हिमेश रेशमिया गुस्सा भी देखने को मिल रहा है. आइए आपको बताते हैं क्या है शो में नया…

खाने को लेकर गुस्से में आए हिमेश

दरअसल, शो के नए प्रोमो में हिमेश रेशमिया इस शो पर अपने हाथों से बना हुआ खाना दूसरे लोगों को चखाते हैं. हालांकि नेहा कक्कड़ से लेकर विशाल डडलानी समेत कई कंटेस्टेंट्स ने हिमेश का बना हुआ खाना ना बनाने की ही हिदायत दी थी. लेकिन बावजूद इसके ‘इंडियन आइडल 2020’ के प्रीमियर में चुने गए टॉप 15 कंटेस्टेंट को हिमेश रेशमिया अपने हाथों का बनाया हुआ पिज्जा चखाते नजर आ रहे हैं. वहीं नेहा कक्कड़ भी इन कंटेस्टेंट्स को कम्पनी देने पहुंची थी.


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नए प्रोमो में आया ये रिएक्शन

हिमेश का बनाया हुए पिज्जा नेहा कक्कड़ और बाकी कंटेस्टेंट्स को बिल्कुल भी नहीं पसंद आता है, जिसके कारण सभी लोग अजीबो-गरीब मुंह बनाने लगते हैं. वहीं लोगों को रिएक्शन देखकर हिमेश रेशमिया का गुस्सा फूट पड़ता है और वो अपनी सीट पर बैठे-बैठे ही लोगों को खरी खोटी सुनाते नजर आए, जिसके कारण सभी की बोलती बंद हो गई है.


बता दें, नेहा कक्कड़ ने हाल ही में अपने बेबी बंप की फोटो शेयर की है, जिसके बाद फैंस सवाल पूछ रहे हैं कि क्या यह खबर सच है या किसी गाने का प्रमोशन कर रही हैं.

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शादी के 2 महीने बाद ही मां बनने वाली हैं नेहा कक्कड़, वायरल हुई फोटो

बीते दिनों शादी को लेकर सुर्खियों में रहीं बॉलीवुड सिंगर नेहा कक्कड़ ने हाल ही में कपिल शर्मा के शो में पति रोहनप्रीत सिंह संग एंट्री की थी, जिसे फैंस ने काफी पसंद किया था. इसी बीच नेहा ने अपने फैंस को बड़ी खुशखबरी दे दी है. दरअसल, नेहा कक्कड़  ने अपने इंस्टाग्राम पर एक फोटो शेयर की है, जिसमें उनका बेबी बंप साफ नजर आ रहा है. आइए आपको बताते हैं क्या है इसकी सच्चाई…

बेबी बंप की फोटो की शेयर

सोशल मीडिया के जरिए नेहा कक्कड़ा ने अपनी इस खुशी का ऐलान करते हुए पति रोहनप्रीत सिंह (Rohanpreet Singh) के साथ एक बेहद क्यूट और रोमांटिक फोटो शेयर की है, जिसमें वह अपना बेबी बंप फ्लॉन्ट करती नजर आ रही हैं, जिसमें वह ब्लू डेनिम डंगरी में दिख रही हैं. वहीं फोटो के साथ नेहा ने कैप्शन में लिखा है- ‘#KhyalRakhyaKar.’

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फैंस हुए हैरान

 

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जहां नेहा कक्कड़ की प्रेग्नेंसी के ऐलान पर उनके पति, भाई और दोस्तों के रिएक्शन सामने आ रहे हैं तो वहीं फैंस इस बात पर यकीन नहीं कर पा रहे हैं. दरअसल, फैंस को हैरानी इस बात से हो रही है कि नेहा कक्कड़ की शादी को अभी केवल 2 महीने पहले ही सिंगर रोहनप्रीत से हुई है. ऐसे में फैंस इस फोटो को नए गाने का सीन मान रहे हैं.

बता दें, सिंगर नेहा कक्कड़ ने 24 अक्टूबर को रोहनप्रीत सिंह के साथ शादी की थी, जिसकी फोटोज सोशलमीडिया में काफी वायरल हुआ था. हालांकि इसी के साथ नेहा ने अपना एक सौंग भी रिलीज किया था, जिसे फैंस ने काफी पसंद किया था. वहीं नेहा अपनी शादी को लेकर काफी ट्रोलिंग का शिकार भी हुई थीं.

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बच्चों की आंख में लालिमा का कारण

पिंक आंखें आमतौर पर आंख की अन्य परेशानियों का एक लक्षण  है जो सौम्य से लेकर गंभीर तक हो सकती है.  ये तब होता है जब आंख के सफ़ेद भाग की रक्त नलिकाएं फैल जाती हैं और उनमें सूजन आ जाती है. यह समस्या एक या दोनों आंखों में हो सकती है.

लक्षण-आंखों में चिड़चिड़ाहट, जलन, खुजली, सूखापन, दर्द, निर्वहन, बहुत पानी आना,रोशनी के प्रति संवेदनशीलता. आदि पिंक आयी के लक्षण हैं. कुछ मामलों में बच्चे की आंखों में लालिमा के अतिरिक्त कोई लक्षण दिखाई नहीं देता.

कारण-कभी कभी बच्चे की आंखों में लालिमा का कोई विशेष कारण नहीं होता,और यह अपने आप ठीक भी हो जाती है,लेकिन कुछ मामलों में यदि ध्यान न दिया जाय तो यह समस्या और भी गम्भीर हो जाती है. बच्चे की आँखों की ललिमा के कुछ कारण इस प्रकार हैं-

1-एलर्जी-

यदि आपका शिशु आंखों में जलन होने के कारकों,जैसे सिगरेट का धुआं,पराग के कण,पालतू पशुओं की रूसी या धूल कणों के सम्पर्क में आता है,तो संवेदनशीलता के कारण उसे एलर्जी होने की संभावना हो सकती है. जिससे,आमतौर पर आंखों में सूजन या इसके लाल होने के लक्षण दिखाई देने लगते  हैं.

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2-बच्चों के दांत निकलना-

चूंकि आंखों और दांतों की नसें आपस में जुड़ी होती हैं,इसलिए दांत निकलने पर भी आँखों में सूजन हो सकती है.

3-मच्छर का काटना-

इस तरह की lलाली में आंखों में दर्द नहीं होता,बस खुजली होती है,एक नवजात शिशु में यह समस्या लगभग 10 दिनों तक रहती है.  यह लाली, आमतौर पर गुलाबी या लाल रंग की होती है.

4-चोट लगना-

आंख के पास सिर की चोट से,आंखों में जलन,सूजन,लाली या इससे अधिक भी कुछ हो सकता है.  छोटे बच्चे इधर उधर घूमते रहते हैं,इसलिए उन्हें चोट लगने का ख़तरा ज़्यादा होता है. क़ई बार सूजन  के बावजूद भी उन्हें दर्द नहीं होता.

5-स्टाय और पलकों में गिल्टी(कलेजियन)-

स्टाय एक लाल गांठ होती है जो पलक के किनारे या उसके नीचे हो सकती है और सूजन का कारण बन सकती है. ये समस्या अपने आप ठीक हो जाती है.

दूसरी ओर जब तैलीय ग्रंथि सूज जाती है और उससे खुले भाग में तेल जमा हो जाता है तो पलकों में गिल्टी हो जाती है जिसे कलेजियन भी कहते है. यह आम तौर पर स्टाय से बड़ा होता है

6-ब्लेफराइटिस-

पलकों में उपस्थित एक तेलीय ग्रंथि होती है जिसमें सूजन भी आ सकती इससे ब्लेफराइटिस हो सकता है,जो रात के समय अधिक प्रभावशाली होता है. इसके लक्षण हैं पलकों पर पपड़ी बनना,आंखों में सूजन,संवेदनशीलता और दर्द के कारण शिशू को खुजली या जलन महसूस हो सकती है और वो इसे छूने और रगड़ने का प्रयास करता है

7-नवजात शिशु का आंख आना-

कभी कभी शिशु का जन्म के समय संक्रमण का अधिक ख़तरा होता है,जिससे उसके आंखे आ जाती हैं. ऐसी स्थिति का सबसे आम कारण गोनोरिया,क्लेमेडिया और हरपीज है. इस समस्या के लक्षण हैं सूजी हुई लाल आंखें और अत्यधिक स्त्राव.

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उपचार-

ठंडा सेक-यदि लाली और सूजन ज़्यादा प्रभावी न हो तो,बच्चे की आंखों पर ठंडा सेक करें.

मां का दूध-मां के दूध की दो बूंद (इसमें एंटी बैक्टीरियल गुण होते हैं)बच्चे की आँखों में टपकाएं.

आंखें साफ़ करें-गुनगुने पानी में कपड़ा भिगोकर बच्चे की आँखें साफ़ कर सकते हैं.

रोज़ाना बाल धोएं-अपने बच्चे के बालों को रोज़ाना धोने का नियम बनाएं, क्योंकि इसमें परागकोश की धूल या पालतू जानवरों की रूसी हो सकती है,जो आपके शिशु की आंखों में जलन पैदा कर सकती है.

बिस्तर साफ़ करें-सप्ताह में एक बार उसका बिस्तर साफ़ करें

डाक्टर से सम्पर्क कब करें- यदि सूजन और लाली उपरोक्त घरेलू उपचारों से कम न हो और आंखें पूर्णत:प्रभावित हो चुकी हों,दर्द,संवेदनशीलता और अत्यधिक लाली और बुखार भी आ जाय तो, डाक्टर से तुरंत सम्पर्क करें.  अन्यथा परिस्थिति गंभीर हो सकती है.

यदि आपको उन विशिष्ट कारकों के बारे में पता है जो आंखों की सूजन को बढ़ाते हैं, तो समस्या को संभालना कम चुनौतिपूर्ण होता है.

हैल्थ पौलिसी लेते समय रखें इन 14 बातों का ध्यान

अकसर लोग हैल्थ पौलिसी लेते समय जरूरी बातों को नजरअंदाज कर जाते हैं. अत: हैल्थ पौलिसी लेते समय किन बातों का ध्यान रखना सब से जरूरी होता है, इस बारे में बता रहे हैं मल्टी हैल्थ कंपनियों के एजैंट शैलेंद्र.

1. पौलिसी लेते समय तुलना जरूर करें

हैल्थ इंश्योरैंस चुनने से पहले आप 3-4 कंपनियों के प्लान चैक कर लें. इस से आप को पता चल जाएगा कि किस प्लान में क्या सुविधा मिल रही है और क्या नहीं. ध्यान रखें जिस प्लान में बहुत ज्यादा शर्तें हों उसे खरीदने से बचें. हैल्थ पौलिसी के हर क्लौज पर बारीकी से नजर डालें.

2. अपनी जरूरतों को समझें

जब भी पौलिसी लेने के बारे में विचार करें तो अपने परिवार की जरूरतों को ध्यान में रखें. परिवार के सदस्यों की संख्या व उम्र पर विशेष ध्यान देने की जरूरत होती है. यदि यंग फैमिली है तो बेसिक ₹5 लाख वाली पौलिसी ले सकते हैं, जिस में पेरैंट्स व 2 बच्चे कवर होते हैं. इस का प्रीमियम ₹16,840 के लगभग होता है. इस के साथ कई कंपनियां अतिरिक्त 150% का रीफिल अमाउंट भी देती हैं जैसे अगर आप ने ₹5 लाख की पौलिसी ली है तो आप और ₹7 लाख 50 हजार का फायदा उठा सकते हैं. लेकिन यदि परिवार में मातापिता हैं तो बड़े फ्लोटर कवर वाली पौलिसी लें ताकि बड़ी बीमारी आने पर आप की जेब पर बो झ न पड़े. इस बात का भी ध्यान रखें कि आप जो भी पौलिसी लें उस का प्रीमियम अदा करने में सक्षम हों.

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3. क्लेम प्रोसैस हो आसान

जब भी पौलिसी खरीदें तो क्लेम प्रोसैस जरूर पूछें जैसे क्लेम को कितने घंटों में अप्रूवल मिल जाता है, पैनल में कितने हौस्पिटल आते हैं और अगर पैनल के बाहर के हौस्पिटल में ट्रीटमैंट लें तो रीइंबर्स कितने दिनों में हो जाता है. यह सारी जानकारी उन की साइट्स पर जा कर भी ले सकते हैं. आमतौर पर क्लेम को 3 से 9 घंटों में अप्रूवल मिल जाता है व 20 से 25 दिनों में रीइंबर्स आ जाता है. इसलिए आसान क्लेम प्रोसैस वाली पौलिसी का चयन करने में ही सम झदारी है.

4. क्या जानना जरूरी

पूछें कि डे वन से ऐक्सिडैंटल डैमेज कवर है या नहीं, सीजनल बीमारियां कब से कवर होंगी, पौलिसी लेने के कितने दिनों बाद गंभीर बीमारियां कवर होंगी. कुछ कंपनियां शुरुआत से ही प्लान्ड सर्जरी जैसे स्टोन, गालब्लैडर आदि को शामिल करती हैं. अत: इस बातकी पूरी जानकारी पहले ही ले लें.

5. लाइफटाइम रिनूअल

आप ऐसी हैल्थ पौलिसी लें, जो लाइफटाइम रिनूअल की सुविधा दे, क्योंकि किसी को नहीं पता होता कि वह कब बीमार पड़ जाए. ऐसे में सही पौलिसी का चयन जीवनभर सुरक्षा प्रदान करेगा.

6. फ्री मैडिकल चैकअप

ऐसी पौलिसी लें, जिस में फ्री मैडिकल चैकअप की सुविधा हो. कुछ कंपनियों के अपने डायग्नोस्टिक सैंटर व पैनल हौस्पिटल होते हैं. उन्हीं में चैकअप कराया जाता है तो कुछ कंपनियां यह सुविधा देती हैं कि आप बाहर से टैस्ट करा कर रीइंबर्स करवा सकते हैं.

7. प्री ऐंड पोस्ट हौस्पिटलाइजेशन

औपरेशन करवाने से पहले व बाद में डाक्टर को दिखाने व टैस्ट करवाने के नाम पर ही ढेरों रुपए खर्च हो जाते हैं. ऐसे में पौलिसी लेते समय पूछ लें कि इस में प्री ऐंड पोस्ट हौस्पिटलाइजेशन की सुविधा है या नहीं. इस से आप को लाइफटाइम की सुविधा रहेगी.

8. शर्तों के बंधन में न बंधें

कुछ कंपनियों की पौलिसी में यह स्पष्ट होता है कि  आप को हौस्पिटल में भरती होने पर रूम का किराया तय रुपयों से ज्यादा नहीं मिलेगा. अगर पौलिसी में ऐसी कोई शर्त हो तो पौलिसी न लें, क्योंकि आप को नहीं पता कि किस बीमारी की स्थिति में आप को उस के लिए कितना देना पड़ेगा.

9. पुरानी बीमारियां न छिपाएं

बीमा कंपनियां यह चाहती हैं कि बीमारियों व हैबिट्स के बारे में कस्टमर की तरफ से हर बात स्पष्ट हो जैसे लाइफस्टाइल कैसा है, मैडिकल हिस्ट्री आदि ताकि कंपनी को आप को बीमा राशि देने में कोई दिक्कत न आए. इसलिए आप अपनी बीमारी की सही जानकारी दें, भले आप को थोड़ा ज्यादा प्रीमियम देना पड़े.

10. महिलाओं के लिए पौलिसी की जरूरत

भविष्य और कैरियर के प्रति महिलाओं में सजगता बढ़ी है. कामकाजी महिलाएं निवेश और अलगअलग तरह की इंश्योरैंस पौलिसियों की जरूरत को सम झते हुए समय रहते जरूरी कदम उठा रही हैं. गृहिणियों को भी इंश्योरैंस पौलिसी के महत्त्व को सम झना चाहिए खासतौर पर हैल्थ इंश्योरैंस पौलिसी को. ज्यादातर घरों में गृहिणियां ही गृहस्थी चलाने के लिए घर खर्च का हिसाब रखती हैं. ऐसे में घर के किसी सदस्य को अचानक कोई बीमारी घेर ले या फिर वे खुद गर्भवती हो जाएं तो बजट का गड़बड़ा जाना स्वाभाविक है.

ऐसे में हैल्थ इंश्योरैंस बेहद काम आता है. हाल ही में एक सर्वे में यह बात सामने आई है कि ज्यादातर भारतीय गृहिणियां अपना रैग्युलर हैल्थ चैकअप नहीं करातीं, जिस की वजह से उन की छोटीछोटी हैल्थ प्रौब्लम्स बड़ा रूप ले लेती हैं और फिर हौस्पिटल जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता. ब्रैस्ट कैंसर, यूटरस कैंसर इत्यादि महिलाओं में आम समस्याएं हैं. हैल्थ इंश्योरैंस पौलिसी मैटरनल हैल्थ के साथसाथ इन सभी समस्याओं के इलाज पर होने वाले खर्च को भी कवर करती है. महिलाओं के लिए हैल्थ इंश्योरैंस पौलिसी के मुख्य फायदे ये हैं:

11. आर्थिक मजबूती

बीमारी पर होने वाला खर्र्च जब बचेगा तो स्वाभाविक है कि आप का बजट भी मजबूत होगा, जिस से आप अपने परिवार और बच्चों के साथसाथ खुद के लिए भी अच्छा भविष्य प्लान कर पाएंगी.

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12. क्रिटिकल इलनैस

बदलती जीवनशैली से सब से ज्यादा महिलाएं प्रभावित हो रही हैं. ब्रैस्ट कैंसर, ओवेरियर कैंसर, वैजाइनल कैंसर इत्यादि समस्याएं दिनबदिन बढ़ रही हैं. इन के इलाज पर बड़ी रकम खर्च करनी पड़ती है. हैल्थ इंश्योरैंस ऐसे समय में आप का आर्थिक आधार बन आप के बो झ को कम करता है.

13. मैटरनिटी पर होने वाला खर्च

जीवनशैली के बदलाव का ही नतीजा है कि आजकल मैटरनिटी पर होने वाला खर्र्च काफी बढ़ गया है. डिलिवरी के पहले और बाद में मां को काफी शारीरिक बदलावों से गुजरना पड़ता है. ऐसे में हौस्पिटल में ऐडमिट होने के अलावा डिलिवरी से पहले और बाद में खर्चों का बिल काफी ज्यादा हो जाता है, जोकि मध्यवर्ग के परिवार का बजट बिगाड़ने के लिए काफी है. ऐसे में हैल्थ इंश्योरैंस लेते समय मैटरनिटी कवर के बारे में भी पूरी जानकारी लें ताकि मां बनने के एहसास को खुल कर जी सकें.

14. टैक्स बैनिफिट

कामकाजी महिला हैं तो हैल्थ इंश्योरैंस के टैक्स बैनिफिट आप को मिलेंगे और यदि गृहिणी हैं तो आप के पति को. इसलिए यदि आप हैल्थ इंश्योरैंस पौलिसी लेती हैं तो अपने बजट को बेहतर तरह से मैनेज करने में आप को सहायता मिलेगी. इसलिए इंश्योरैंस पौलिसी सोचसम झ कर और अपनी जरूरतों को ध्यान में रख कर ही लें.

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